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दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २४६ मे विशेष रूप से की जाती है। वहा उसे पर्व के दिनो मे करना या नित्य करना यह व्रती की इच्छा पर छोड दिया था और वहाँ तीनो सन्याओ मे करने का भी कोई खास नियम न था । दिन मे एक बार भी कर सकता था, और उसके अनुष्ठान मे कभी अतिचार भी लग जाता था। अब इस प्रतिमा मे नित्य, त्रिकाल निरतिचार रूप से सामायिक करना आवश्यक होता हैं। ४. चौथी प्रोषध प्रतिमा
प्रोषध का स्वरूप ऊपर शिक्षाव्रतो मे वता आये हैं। वहीं इस व्रत मे कभी कुछ त्रुटियाँ भी हो जाया करती थी। और वहाँ ऐसा पक्का नियम भी न था कि-हर पर्व मे १६ पहर ही अनशन मे बिताया जावे। कभी-कभी धारणे-पारणे के दिन एकाशन न करके केवल पर्व के खास दिनो मे ही उपवास कर लिया जाता था। किन्तु इस चौथी प्रतिमा मे प्रोषधव्रत पूरी शक्ति के साथ पूर्णरूप से पूरे काल तक निरतिचार पाला जाता है। ५. पांचों सचित्तत्याग प्रतिमा:
वनस्पति के अधिकत्तया ८ अग होते है-मूल, फल, शाक, शाखा, कूपल, कद, पुष्प और बीज । जो दयालु श्रावक वनस्पति के इन ८ अवयवो को सचित्त (हरी) अवस्था मे नही खाता है और यथाणक्य स्थावर काय की भी विराधना नहीं करता है, वह सचित विरत पद का धारक होता है। ६ छठी रात्रिभक्तविरत प्रतिमा:
अन्न, पान, खाद्य, लेह्य ऐसे ४ आहार के भेद हैं। धान्य