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अजैन साहित्य मे जैन उल्लेख " ]
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नही देकर अपने कोष को अपूर्ण क्यो रखा यह प्रश्न प्रत्येक निष्पक्ष विचारक और जैन धर्मानुयायी के मस्तिष्क मे सहज उठता है । इसके लिए जब हमने अमरकोप की कुछ संस्कृत टीकाओ को देखा तो मालम हुआ कि बुद्ध के नामो के आगे जिन देव के भी नाम अवश्य मूल ग्रन्थकार ने दिये है किन्तु वह श्लोक सप्रदायाभिनिवेश के कारण मूल से निकाल दिया गया है और धीरे-धीरे उसका लोप कर दिया गया है देखिये
(१) ओरियटल बुक एजेसी पूना से सन् १६४१ मे प्रकाशित क्षीरस्वामि कृत ( ईस्वी ११वी शती) टीका पृष्ठ ७ प्रथम काड-श्लोक १५ की टीका के आगे
( सर्वज्ञो वीतरागोऽर्हन् केवली तीर्थकृज्जिनस्त्रिकाल विदाव्या ऊह्या )
(२) निर्णय सागर प्रेस मुम्बई से सन् १६१५ मे प्रकाशित - व्याख्या सुधा पृष्ठ
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" यद्यपि वेद विरुद्धार्थानुष्ठातृत्वा
ज्जिन शाक्यों नरकवर्गे वक्तुमुचितौ । तथापि देवविरोधित्वेन बुद्धयुपारोहादवोक्तौ ।”
( अर्थ - यद्यपि वेद विरोधी होने से जिनेन्द्र और बुद्ध के नाम नरक वर्ग मे देने चाहिये तो भी यहा इसलिये दिये गये हैं कि उनका देव विरोधित्व साथ साथ बुद्धि मे आ जाये)
इसी पर टिप्पणी १ लगाकर लिखा है - क्वचित्पुस्तके इत उत्तरम् - "सर्वज्ञोवीतरागोऽहन् केवली तीर्थकृज्जिन । जिन देवता नामानि षट् । इत्यधिकम् ॥