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उद्दिष्ट दोष मीमांसा
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आज से करीब ६ मास पहिले मेरा एक लेख " साधुओ की आहारचर्या का समय" शीर्षक से जैनगजट के गत पर्योषणाक मे निकला था। उसे मैंने "आगमानुसार मुनियो का भोजन काल क्या होना चाहिये ?" इस ध्येय को लेकर लिखा था । और विद्वानों के विचारार्थ उसे जैन गजट में प्रकाशित कराया या । मैं प्रतीक्षा मे था कि कोई विद्वान् उस विषय मे लिखे । जैनगजटके ता० ६ और १६ मई के अकमे ब्र० चांदमलजी चूडीवाल से " कटारियाजी का एक लेख " इस शीर्षक से लेख छपाया है । उसमे उन्होने इस विषय की चर्चा करने के पूर्व उद्दिष्ट दोष की विवेचना की है। इसका कारण यह है कि हमने अपने लेख की आदि मे उत्थानिका के तौर पर मूलाचार का प्रमाण देकर यह दर्शाने का उद्यम किया था कि मुनियों की भिक्षा शुद्धि
अन्य २ विधियो के साथ एक विधि यह भी है कि - भिक्षा यथाकाल प्राप्त की जावे । मूलाचार का जो प्रमाण हमने दिया था उसमे भिक्षा यथाकाल लेने के साथ २ अन्य बातें भी लिखी थी जैसे "भिक्षा प्रासुक हो। जिसके सम्पादन मे साधु का मन, वचन, काय और इन सम्बन्धी कृत-कारित अनुमोदना का कुछ भी सम्पर्क न हो आदि । हमारे इस लिखने का चूडीवालजी ने यह फलितार्थ निकाला कि मैंने ( मिलापचन्दने) ऐसा लिखकर
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