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[* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
इस विवेचन का फलितार्थ यह हआ कि तीर्थंकरो के निर्वाण समय मे उनकी दग्धक्रिया मे जो अग्नि प्रज्वलित हुई उसका नान गार्हपत्य है और वह चोकोर कुण्ड मे जलाई जानी चाहिये। तथा इसी प्रकार गणधरो की अग्नि का नाम आहवनाय है और वह त्रिकोण कुण्ड मे जलानी चाहिये । एवं सामान्य के वलियो की अग्नि का नाम दक्षिणाग्नि है और वह गोलकुण्ड मे जलानी चाहिये व इसका स्थान तीन अग्नियो मे दक्षिण की ओर रहना चाहिये।
किन्तु ब्र० शीतलप्रसाद जी ने अपने बनाये प्रतिष्ठा ग्रथ मे गोल कुण्ड की जगह अर्द्धचन्द्राकार कुण्ड का कथन किया है। ऐसा ही कथन इन्होने गृहस्थधर्म और जैन शब्दार्णव पुस्तक मे भी किया है । पता नही ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसाद जी ने ऐसा कथन किस आधार पर किया है इन्होने प्रतिष्ठा ग्रन्थ का निर्माण तो अधिकाश रूप से जयसेन प्रतिष्ठा पाठ के अनुसार किया है । परन्तु जयसेन प्रतिष्ठा पाठ मे भी गोल कुण्ड लिखा है न कि अर्द्धचन्द्राकार।
इसी प्रकार मुद्रित सभी जैन विवाह पद्धतियो मे प्राय गणधरकुण्ड को गोल और केवलिकुण्ड को त्रिकोण लिखा है। जबकि प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे गणधर कुण्ड को त्रिकोण और केवलिकुण्ड को गोल लिखा है। जैन विवाह पद्धतियो का आधार ५० फतहचन्द जी जयपुर निवासी कृत विवाह पद्धति रहा है। प० फतहचन्द जी ने इसे विक्रम स० १६३३ मे लिखी थी। इसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास है उसमे भी गणधर कुण्ड को गोल और केवलिकुण्ड को त्रिकोण लिखा है। सम्भव है यह गलती प्रारम्भ मे किसी लिपिकार के द्वारा भूल से उलट पलट नकल