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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
ऐसा झलकता है कि-जैनधर्म के जिन फिरको मे स्त्री मुक्ति मानी है उनके यहां स्त्रियो के नाभि, काख, स्तन आदि अवयवो मे सम्मूछिम मनुष्यो की उत्पत्ति का कथन नहीं किया है।
इनकी उत्पत्ति अढाई द्वीप से बाहर नहीं है। क्योकि जिन पदार्थों में इनकी उत्पत्ति होती है ये सब गर्भज मनुष्यो से सम्बन्धित होते है।
लोक मे भोगभूमि-कर्मभूमि के जितने भी मनुष्य होते हैं उनसे असख्यात गुणी सख्या इन सम्मच्छिम मनुष्यो की रहती है । ऐसा मूलाचार पर्याप्ति अधिकार की गाथा १७५-- १७८ और त्रिलोकप्रज्ञप्ति अधिकार ४ गाथा २६३४ मे कहा
है।
जिस प्रकार सभी सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक होते हैं और उनकी काय एक अगुल के असख्यातवें भागप्रमाण की होती है, उस प्रकार से न तो सभी सम्मूच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अलब्धपर्याप्तक होते है और न उन सवकी काय एक अगुल' के असख्यातवें भाग की ही होती है। बल्कि सम्मूछिम पचेन्द्रियतिर्यञ्च मत्स्य की काय तो एक हजार योजन की लिखी है। जबकि गर्भज तिर्यञ्चो मे किसी भी तिर्यञ्च की काय पांच सौ योजन से अधिक नही लिखी है। तथा न केवल सम्मच्छिम पचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही किन्तु एकेन्द्रिय से चौइन्द्रिय तक के तिर्यच भी सव ही अलब्धपर्याप्तक नही होते है। हाँ जो तिर्यंच अलब्धपर्याप्तक होते है उन सवकी काय अलवत्ता एक अगुल' के असख्यातवें भाग की होती है। किन्तु इसमे भी तरतमता रहती है, क्योकि असख्यातवें भाग के भी हीनाधिक भाग होते है। इसलिए