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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
वैशेषिकः स्यादोलुक्यः,
बार्हस्पत्यस्तु नास्तिकः ॥१५२६||
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चार्वाक लोकायतिकश्चैते
षडपि तार्किकाः ।
(इनमें षड् दर्शनों के ही नाम दिये हैं शेष दो मीमांसा और वेदात के नाम देवकाड २ के श्लोक १६४-६५ मे दिये है)
अत: जैन ग्रन्थ प्रकाशको को चाहिये कि वे इन दो "मीमांसको जैमिनीये...” श्लोकों को भी अमरकोष काड २ के ब्रह्मवर्ग मे श्लोक ६ के बाद मोटे टाइप में प्रकाशित करने का प्रक्रम करे जिससे सांप्रदायिकों का प्रयत्न विफल हो और ग्रन्थ अक्षुण्ण बने +
+ बघेरा, उदयपुर, टोक आदि के जेन भण्डारों में प्राप्त अमरकोष की प्रतियो के अन्त मे लेखको ने भिन्न-भिन्न प्रशस्तिया दी हैं पाठको के उपयोगार्थं समुच्चय रूप से नीचे उन्हे भी प्रस्तुत किया जाता है इनमें प्रथम जन और द्वितीय शव हैं: -
- अन्त्य प्रशस्ति
कृतावमर सिंहस्य, नामलिंगानुशासने काण्डस्तृतीय. सामान्यः, साग एव समर्थित इत्युक्त व्यवहारार्थं नाम लिंगानुशासनम् । शब्दाना न मतोअन्त, तावपीन्द्रवृहस्पती ॥ पद्मानि बोधयत्यकं काव्यानि कुरुते कवि । तत्सौरभ नभस्वत, सन्तस्तन्वन्तु तद्गुणान् ॥
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(वायुरित्यर्थः)