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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
इसका अनुवाद श्री प० बालचन्दजी शास्त्री ने इस प्रकार
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किया है
"वापियो के दोनो बाह्य कोनो मे से प्रत्येक मे दधिमुखों के सदृश सुवर्णमय रतिकर नामक दो पर्वत हैं ।"
श्री प० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर ने " नदीश्वर दर्शन" ट्रेक्ट लिखा है, उसके पृष्ठ १७ पर इसी अनुवाद का अक्षरशः अनुसरण किया है ।
किन्तु यह अनुवाद ठीक नही है । इस अनुवाद के अनुसार एक कौणे मे दो रतिकर होने से दो कौणे मे चार रतिकर एक वापिका सम्बन्धी हुये तो चारो वापियो के १६ रतिकर होंगे । इनमे अजन और दधिमुखो की ५ सख्या मिलाने पर २१ सख्या एक दिशावर्ती नदीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की हो जायेगी जो कथमपि योग्य नही है । क्योंकि नदीश्वर की एक दिशा मे १३ जिनालय होना आगम प्रसिद्ध है । स्वय ग्रन्थकार ने ही आगे गाथा ७० मे रतिकरो की संख्या आठ ही लिखी है । अनुवाद को ठीक मानने पर ग्रन्थ मे पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है । साथ ही अनुवाद मे "रतिकरो को दधिमुखों की तरह सुवर्णमय ( पीले रंग के ) लिखे हैं ।" यह अर्थ भी ठीक नही है क्योंकि गाथा ६५ मे दधिमुखो को दही के रंग के (सफेद) लिखे हैं ।
अत' उक्त ६७ वी गाथा का सही अर्थ इस प्रकार होना चाहिये - "वापियो के दोनो बाह्य कोणो मे प्रति कोण मे एक एक के हिसाब से दो रतिकर पर्वत है । वे कनकमय हैं और दधिमुखो के समान वे भी गॉल है, उन पर भी विविध वन हैं ।"
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