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४२४ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ जी उसे स्थिर मानते हैं । विज्ञान की तो खगोल-भूगोल के विषय मे और भी भिन्न मान्यतायें हैं फिर भी सभी अपने-अपने ढग से सामजस्य वैठाते हैं । अस्तु ।
इम पृथ्वी से ज्योतिष्क कितनी दूरी पर है ? और वे आपस में एक से दूसरे क्तिने-कितने नीचे-कचे हैं ? उनकी अपनी लम्बाई चौडाई कितनी-कितनी है ? उनकी संख्या कितनी-कितनी है ? चन्द्रमा के घटबढ का क्या कारण है ? उनकी गति का हिमाव कैसे हैं ? इत्यादि वातें ऐसी हैं जिनको मही-सही रूप से समझना छद्मस्थ की बुद्धि से परे है। इस प्रकार के अतीदिय विषयो के लिए सिवा मागम प्रमाण के और कोई चारा नहीं है। अगर हम आगमो को धत्ता बताकर अपने तर्क के आधार पर ही सब कुछ मानें तो सुमेरूपर्वत व राम, रावण, कृष्ण नारायणादिका मानना भी छोडना पडेगा। इसलिए हमारे यहाँ यह आदेश दिया है कि-"आज्ञासिद्ध चतग्राह्य, नान्यथा वादिनी जिना.।
___ हा जो चीज प्रत्यक्ष से विरुद्ध पडती हो उसमे अगर कोई तर्क करे तो कर सकता है इसी खयाल से हमारे लेख के अन्तिम भाग में भू भ्रमण पर कुछ विचार पेश किये गये थे। बाकी वह लेख खडन-मडन की दृष्टि से नहीं लिखा गया है सिर्फ उममे स्वमत का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है।
समालोचक जी ने हमारे लेख की कुछ बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध भी बतलाई हैं उनपर विचार नीचे प्रस्तुत है .
. . हमारे लेखमे "चन्द्रमाको सूर्यादिसे मदगति वाला बताया और तारो की गति सबसे तेज बताई है। और ग्रहो की आपसी चाल मे वृहस्पति व शनि की चाल तेज बताई है ।" हमारे लेख के इस कथन