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★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
यत्स्वमुद्दिश्य निष्पन्नमन्नमुद्दिष्ट मुच्यते । अथवा यमि पाखडि दुबलानखिलानपि ॥२१॥ [ अध्या०८]
अर्थ - यह खास मेरे ही लिये बनाया है ऐसा मुनि को मालम हो जाये तो वह अन्न उद्दिष्ट कहलाता है । अथवा सभी जैन साधु अन्य साधु व गरीबो के लिये बनाया अन्न भी उद्दिष्ट कहलाता है |
इस श्लोक मे आये " यत्स्वमुद्दिश्य" का अर्थ आपने गृहस्थ के खुद के अर्थ बना आहार उद्दिष्ट है ऐसा किया है। ऐसा उत्सूत्र अर्थ करने वालो को हम क्या कहे ? हम तो इसे कलिकाल का ही प्रभाव समझते है । आपका किया अर्थ अन्य किसी भी शास्त्र से मिलता नही है और न किसी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थकार ने ही ऐसा अर्थ किया है क्योकि आचारसार ग्रन्थ मुनियो का है अत वहाँ 'स्व' का अर्थ मुनि से ही है । वही आगे के श्लोक न० २२ मे तो इसे बिल्कुल स्पष्ट ही कर दिया है देखिये
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शुद्धमप्यन्न मात्मार्थं कृत सेव्य न सयते "
( शुद्ध भोजन भी अगर वह अपने लिए बनाया गया है तो मुनि उसका सेवन नही करे ) हमारे इसी अर्थ का समर्थन ऊपर लिखे अमितगति और आशाधर के उद्धरणो से भी होता है आप तो कहते है गृहस्य अपने निमित्त बना आहार मुनि को दे तो वह उद्दिष्ट दोष है। उधर शुभचन्द्र कार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका ( पृ० २८५ ) मे लिखते हैं कि - ' पात्रमुद्देश्य निर्मार्पित. उद्दिष्ट ।" पात्र के निमित्त से बना आहार