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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
६४४ ]
ही ग्रहण योग्य मानी है । प्रमाण के लिये देखियेमूलाचार समयसाराधिकार मे लिखा है किविडं सेज्जं उवधि उग्गम उप्पायने सणादीहि । चारित्तरक्खणट्ठ सोधणयं होदि सुचरितं ॥१६॥
अर्थ - जो मुनि चारित्र रक्षा के लिये भिक्षा, वसतिका, उपकरणादि को उद्गम उत्पादन- एषणादि दोषो से शोधता हुआ उपभोग करता है वह उत्तम चरित्रवान् होता है ।
पिंडो वधि सेज्जाओ, अविसाधिय जो य भुजदे समणो । मूलट्ठाण पत्तो, भुवणेसु हवे समण पोल्लो ||२५|| तस्स न सुज्झइ चरिय, तव संजम णिच्चकाल परिहीण । आवासय ण सुज्झइ चिरपव्वइयो वि जइ होइ ||२६||
( अर्थ - जो श्रमण, भिक्षा उपकरण वसतिकादि को बिना परिशुद्ध किये उपभोग करता है वह गार्हस्थ्य को प्राप्त होता है, और तुच्छ निदित श्रमण कहलाता है । उसके सब तप सयम आवश्यक कर्मादि सदा अशुद्ध ही रहते हैं चाहे चिर दीक्षित साधु ही क्यो न हो )
ऐसा ही भगवती आराधना की गाथा ११६७ मे लिखा है । १६ उद्गम, १६ उत्पादन, और १४ एपणा ये ४६ दोष है जो आहार सम्बन्धी माने जाते है । ये हो ४६ दोप वसतिका सम्वन्धी भी होते हैं । वे वसतिका में किस तरह घटित होते है ऐसा विवेचन भगवती आराधना की गाथा २३० की विजयादया टीका और आशाधरजी कृत मूलाराधना टीका इनदोनो टीकाओ