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उद्दिष्ट दोष मीमांसा ]
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तब भ० ऋषभदेव ने कहा " भरत । मुनि उनके लिये बनाया उद्दिष्ट भोजन कभी ग्रहण नही करते और न यह आहार-दान की रीति है कि तुम भोजन यहाँ लेकर आगये”
इससे भी स्पष्ट है कि - मुनि के निमित्त बनाया भोजन उद्दिष्ट है ।
मूलाचार के उसी अधिकार मे लिखा और भी देखिये -
जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मच्छ्या हि मज्जति । हि मडगा एवं परट्ठकदे जदि विसुद्धो ॥६७॥
अर्थ - जिस प्रकार कोई मच्छियो को पकड़ने के लिये जल मे ऐसी चीज डाल देता है जिससे मच्छियाँ गाफिल हो जावे तो उस मद-जल से मच्छियाँ ही गाफिल होगी वहा रहने वाले मेढक नही । उसी तरह जो भोजन जिन गृहस्थ कुटुम्बियो के निमित्त से बना है उससे उन्ही को दोप लगता है। मुनि के निमित्त नही बनने से उसको लेने मे मुनि को कोई दोष नही लगता है ।
इस उदाहरण से भी ग्रन्थकार का आशय यही प्रगट होता है कि -मुनियों के निमित्त से आहार नही बनना चाहिये । अगर उनके निमित्त से बनेगा तो उसका दोप भी वह आहार ग्रहण करने पर इन मुनियो को ही लगेगा ।
जो आपतियाँ मुनियों के उद्देश्य को लेकर बनने वाले आहार मे उठती है वे ही सब आपत्तियाँ मुनियो के उद्देश्य से बनने वाले वसतिका - उपकरणादि मे भी उठती हैं इसलिये मनियो के लिये वसतिकादि भी उद्गमादि ४६ दोषो से रहित
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