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इसमे खास परिवर्तन - "नीरागेषु जिनो” की जगह "नीरागेष्वपि यो” किया गया है। इस तरह मूल ग्रंथ कार ने जो जिनेन्द्र को वीतरागियो मे प्रधान बताया था उस विशेषता का सर्वथा ही लोप कर दिया है। और मन कल्पित पाठ परिवर्तन कर अर्थ यह दिया गया है कि - सरागियो और वीतरागियो दोनो मे ही एक महादेव ही प्रधान है किन्तु यह अर्थ श्रृंगार शतक के ही प्रथम - श्लोक के विरुद्ध है जिसमे स्पष्ट बताया है कि - " उस विचित्र चरित्र कामदेव को नमस्कार हो जिसने महादेव ब्रह्मा और विष्णु को भी मृगनयनी गृहिणियो का दास बना दिया है । "
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पद के साथ दूसरी बात यह है कि - "न यस्मात्पर कृष्ण शास्त्रीजी का पूर्वोक्त अर्थ जमता ही नही है । इसके सिवा इस पद के 'न' को श्लोक के अन्तिम पद के साथ जोडकर अर्थ किया गया है उससे महान् दूरान्वय दोष उत्पन्न हो गया है । तथा 'भोक्तु न मोक्ष क्षम" इस अन्तिम पद के 'न' की जगह 'च' कर दिया गया है इससे भी बड़ा बेतुकापन हो गया है ।
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सही बात है - सम्प्रदायाभिनिवेश न ग्रन्थ के गौरव को देखता है और न अर्थ को वास्तविकता को ( उसे तो दोनो की मिट्टी पलीद करने से काम )
कहाँ तो मूल ग्रन्थकार की निष्पक्ष उदात्त भावना और कहा सकीर्णतावश उसका लोप और विपर्यास ! दोनो पर विज्ञ पाठक विचार करें।
- वंशम्पायन सहस्रनाम -
'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के उक्त प्रकरण मे ही आगे देश