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नन्दीश्वर भक्ति का १८ वाँ पद्य
( एक विलुप्त प्राचीन प्रथा ) *
निष्ठापित जिनपूजा शचूर्ण स्नपनेन दृष्ट विकृत विशेषा । सुरपतयो नंदीश्वर जिन भवनानि प्रदक्षिणीकृत्य पुनः ॥ १८ ॥
इस पद्य का " चूर्णस्नपनेन" वाक्य गम्भीर अध्ययन का विषय है । इस श्लोक का सही शब्दार्थ निम्न प्रकार है
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"जिन्होने जिन पूजा को समाप्त किया है और चूर्णस्नान से जिनमे विकार - विशेष देखा जाता है ऐसे इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप के जिन मन्दिरो की प्रदक्षिणा करके फिर ..." इसकी संस्कृत टीका मे प्रभाचन्द्र ने "चूर्णस्नपनेन दृष्ट विकृत विशेषा ।" वाक्यो की व्याख्या ऐसी की है-(देखो - "क्रिया कलाप " पृष्ठ २४० ) ।
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"चूर्णं सुगन्धि द्रव्याणा पिष्ट तेन स्नपने अभिपवस्तेन दृष्टो विकृतो विकारवान् विशेषो ये येषु वा" इसमे सुगन्धित, द्रव्यो के पिसे हुए आटे को चूर्ण बताते हुए लिखा है किउस चूर्ण के स्नान से जिन इन्द्रो मे विकार - विशेष दिखाई, दे रहा था ।
इसके विपरीत प० लालाराम जी ने इस पद्य का अर्थ इस प्रकार किया है - " सुगन्धित चूर्ण से अभिषेक करके जिन्होंने महाभिषेक और जिनपूजा पूर्ण करली है और इसीलिये। जिनको महा आनन्द आ रहा है उस आनन्द से