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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
जिनकी आकृति कुछ विकृत हो रही है ऐसे इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप के उन चैत्यालयो की प्रदक्षिणा देते हैं" ॥ १६ ॥
यहाँ लालाराम जी ने पूजा समाप्ति के अवसर पर इन्द्रो द्वारा जिन प्रतिमाओ का सुगन्धित चूर्ण से अभिषेक किया जाना अर्थ किया है यह अर्थ किसी तरह उचित नही है क्योकि एक तो जिन - प्रतिमाओ का चूर्णाभिषेक कही नही बताया है । दूसरा, चूर्णाभिषेक के साथ जिन पूजा की समाप्ति यानि - जिनपूजा के अनन्तर प्रतिमा का चूर्णाभिषेक भी कही किसी शास्त्र मे नही बताया है और न ऐसा कही प्रचलित ही है अत 'चूर्ण स्नपन' शब्द का सम्बन्ध प्रतिमा के साथ न होकर इन्द्रो देवो के साथ है और उन्ही मे विकार विशेष लक्षित किया गया है कोई प्रतिमा मे माने ऐसा नही । चैत्य भक्ति मे भी, वताया है कि - "विगता-युध विक्रिया विभूषा प्रकृतिस्था कृतिना जिनेश्वराणाम्" ।। १३ ।। जिन प्रतिमा आयुध और अलंकारादि से रहित सदा स्वाभाविक रूप से युक्त होती है । इसके सिवा लालाराम जी साहब ने जो 'आनन्द' विषयक उल्लेख किये है उनके वाची भी कोई शब्द मूल श्लोक मे नही है अत उनका यह कथन भी निराधार है ।
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इस विषय को ठीक तौर से समझने के लिए आचार्य जिनसेन का निम्नाकित कथन देखिये जो उन्होने जिन जन्माभिषेक के पूर्ण होने के अवसर का 'आदि पुराण' मे किया
गंधांम्बु स्नपनस्यांते जय कोलाहलः समम् । व्यास्युक्षीम मराश्चक्र: सच्चूर्णे गंधवारिभिः ॥
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॥ १६६ ॥ पर्व १३