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जैन धर्म मे अहिंसा की व्याख्या ]
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उच्चालयहि पाये इरिया समिदस्स णिग्गमत्याए । आवाधेन कुलिंगं मरिज्ज त जोग मासज्ज ॥ हि तस्तणिमित्तो बधो सुहमोवि देसिदो समये ॥
अर्थ- देख भाल कर पैर उठा कर चलने वाले के पैर के नीचे आकर किसी जीव को बाधा पहुँचे या वह मर भी जावे तो भी उसके थोडा सा भी पाप आगम मे नही कहा है ।
विपरीत इसके जो यत्नाचार से प्रवृति नही
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करता है, उसके हिंसा न होते हुए भी वह हिंसाजन्य पाप का भागी होता है
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । णत्थि बंधो हिंसा मेत्तरेण समिदस्स ॥
पयदस्स
अर्थ - जीव चाहे जीवे चाहे मरे असावधानी से काम करने वालो को हिंसा का पाप अवश्य लगता है । किन्तु जो सावधानी से काम कर रहा है, उसे प्राणिवध होजाने पर भी हिंसा का पाप नही लगता है ।
अयदाचारो समणो छस्सुवि कायेसु वधगोत्ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्च कमल व जले णिरुवलेवो ॥
अर्थ - यत्नाचार नही रखने वाला श्रमण छहो ही काय के जीवो के घातजन्य पाप कर्मों का बध करता है ऐसा सर्वज्ञ देव ने माना है । और जो यत्नाचार से प्रवृति करता है वह सदा ही जल मे कमल की तरह पाप लेप से रहित माना गया है ।
इससे सिद्ध होता है कि - जैन धर्म मे हिंसा अहिंसा का