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[ ★ जेन निवन्ध रत्नावली भाग २
होता है कि वे भी जैन मुनियो के शिथिलाचार के सख्त विरोधी रहे है ।
एक वात ऊपर लिखनी रह गई है वह यह कि - पद्मनन्दिपचविंशतिका में शय्या हेतु तृणादि का ग्रहण भी मुनियो के लिये लज्जाजनक बताया है । यथा
दुर्ध्यानार्थमवद्य कारणमहो निर्ग्रन्यताहानये । शय्या हेतुतृणाद्यपि प्रशमिना लज्जाकर स्वीकृतम् ॥ यतत्कि न गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं साप्रतं निग्रयेष्वपि चेत्तदस्ति नितरा प्रायः प्रविष्टः कलि । ५३
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अर्थ - शय्या के निमित्त जहाँ तृणादि ( पयाल ) का ग्रहण भी मुनियो के लिए लज्जाजनक है । क्योकि तृणादि दुर्ध्यान और पाप के कारण है, उनका उपयोग करने से निर्ग्रन्थता मे भी हानि पहुँचती है तव यदि आजकल के निर्ग्रन्थ साधु लोग गृहस्थयोग्य अन्य स्वर्ण, वस्त्र, रुपैया, पेसा, घडी ( वॉच ) मठ, मकान, खेत आदि रखते हैं तो समझना चाहिये कि घोर कलिकाल आ गया ।
अब हम लेख के शीर्षक के अनुसार प० टोडरमल जी का इस विषय मे क्या मत था, यह बताते हैं
देश भाषा मे ग्रन्थ बनाने वाले पिछले पण्डितो मे श्री प० टोडरमल जी साहव वडे ही गम्भीर विचारक और मननशील विद्वान् हुए है। उन्होने देश भाषा मे अभूतपूर्व और उच्चकोटि का एक मोक्षमार्ग प्रकाशक नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ का निर्माण किया है, जिसमे जैन धर्म के कई विषयो पर बडे ही मार्मिक ढंग से ऊहापोह किया गया है । यह ग्रन्थ