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प० टोडरमल जो और शिथिलाचारी साधु ]
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प्रत्येक जिज्ञासु के पढने योग्य है । इसी मे साधुओ के शिथिलाचार के विषय मे भी विशद विवेचना की है । उसके हम यहाँ दो उदाहरण देते है । ये सब उद्धरण उसके ६ वें अधिकार के हैं
"बहरि इनि भेषीनिविष केकेई भेषी अपने भेष की प्रतीति करावने अर्थ किचित् धर्म का अग को भी पाले है । जैसे खोटा रुपय्या चलावने वाला तिस विषै किछु चादी का भो अश राख है । तेसे धर्म का कोऊ अग दिखाय अपना उच्च पद मना है । इहा कोई कहे कि । उन्होने ) जो धर्म साधन किया ताका तो फल होगा । ताका उत्तर—जैसे उपवास का नाम धराय कणमात्र भी भक्षण करें तो पापी है । अर एकासन का नाम धराय किचित् ऊन भोजन ( पूरे भोजन मे कुछ कम ) करें तो भी धर्मात्मा है । तैसे उच्चपदवी का नाम धराय तामें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्ते तो महापापी है । अर नीची पदवी का नाम धराय किछु भी धर्मसाधन करें तो धर्मात्मा है । जाते धर्मसाधन तो जेता बने तेता ही कीजिये किछु दोष नाही. परन्तु ऊंचा नाम धराय नीची क्रिया किये महाग ही हो है । सोई पट्पाहुड विषै कुन्दकुन्दाचार्य करि कहा है
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जह जायरूवसरिसो तिलतुसभित्तं ण गहृदि अत्येसु । जइ लेइ अप्पबहुयं सत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥ १८ ॥ "सूत्रपाहुड"
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याका अर्थ - मुनिपद है सो यथाजातरूप सदृश है । जैसा जन्म होते था तैसा नग्न है । सो वह मुनि अर्थ जे धनवस्त्रादिक. वस्तु तिन विषै तिलतुषमात्र भी ग्रहण न करें । बहुरि कदाचित्