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६१० ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
पर घर दुवाररासु मज्झण्हे कामदरिसणं किच्चा। पासुपमसण भुजदि पाणिपुडे विग्य परिहोणं ।
__ मत्री बोले- स्वामी सकल अहिंसा व्रतो के आधार होते हुए परिग्रह रहित मुनि आहार के कारण दूसरो के घर द्वार पर अपना शरीर दिखाकर मध्याह्न मे प्रामुक भोजन आरामरहित हाथ मे खाते है।
(२७) मेधावीकृत धर्म सग्रह श्रावकाचार अ०७गृही देवार्चन कृत्वा मध्याह्न सावुभाजन. । पात्रावलोकनं द्वास्थः कुर्याद भक्त्या सुधौतभ्र तशा इसी का श्लोक ६१-६२ भी देखिये ।।
(२८) लाटी सहिता-सर्ग ६ श्लोक २२१ और २३१ में भी "मध्याह्न" ही आहार चर्या वताई है।
(२६) सोमसेन कृत त्रिवर्णाचार पृ० ३५४ (३०) कातिकेयानुप्रेक्षा (शुभचन्द्रकृतटीका) पृ०२७५-२७६
(३१) वाक्यजाल (व० मूलशकरजी देशाई) पृ० १६८, २६६ पर गलत निरूपण । (३२) भोजने गमनेऽन्यत्र कार्य वा यत्न कुन चित् ।
पूर्वाचार्य मत नून प्रमाण जिन शासने ॥५२॥ पूर्वाचार्य मति क्रम्य, य कुर्याद किचिदप्यसौ।
मिथ्यादृष्टि रीति ज्ञेयो, न वंदयश्च महात्मभि.५३३ (आहार विहारादि कोई भी कार्य हो सर्वत्र पूर्वाचायी का मत ही प्रमाण है। उसका कुछ भी उल्लङ्घन करने वाला मिथ्यानी दै। ज्ञानियो द्वारा वह मान्य नहीं है ।)