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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
लिखे हैं रत्नकरंडश्रावकाचार के परिच्छेद ४ श्लो १८ की प्रभाचन्द्रकृत टीका मे पाये जाते है। इससे ज्ञात होता है कि यह पंचविशतिका ग्रन्थ प्रभाचन्द्र से पहिले का बना हुआ है । रत्नकरड की टीका के कर्त्ता प्रभाचन्द्र का काल विक्रम की ११ वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर १२ वी के प्रथम चरण तक का है जैसा कि हम ऊपर बता आये है । इस समय को 'पचविशतिका' की उत्तरावधिका समझना चाहिये । अर्थात् यह ग्रन्थ इस समय से बाद का बना हुआ नही है, पहिले का बना हुआ है । कितना पहिले का बना है ? इस सम्बन्ध मे फिलहाल हम इतना ही कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ के प्रथम प्रकरण के श्लो १६७ मे, द्वितीय प्रकरण के श्लो ५४ मे और ६ वे प्रकरण के श्लो ३२मे पद्मनदी ने वीरनदि को अपना गुरु लिखा है। बोधपाहुड गाथा १० की टीका मे श्रुतसागर ने भी वीरनदि को इन पद्मनदी का गुरु लिखा है । एक वीरनदि वे हुये हैं जिन्होने चन्द्रप्रभ काव्य बनाया था । उनके गुरु अभयनदी थे । इन वीरनटि का समय विक्रम की ११ वीं शती का पूर्व भाग माना जाता है । यदि यही समय पद्मनदी का भी माना जाये तो दोनो का समकाल होने से हमारा मन कहता है कि कहीं ये ही वीरनदि तो इन पद्मनदी के गुरु नही हैं ?
'पद्मनदिपंचविंशतिका के चतुर्थप्रकरण-एकत्वसप्तति की कन्नडभाषा मे एक टीका भी उपलब्ध है । उस टीका के रचयिता भी पद्मनंदी ही हैं। पर ये टीकाकार पद्मनदी और मूलग्रन्थकार पद्मनंदी दोनो एक नहीं, भिन्न २ हैं । क्योकि टीकावाले पद्मन्दी के गुरु का नाम शुभचन्द्रराद्वातदेव लिखा है । जबकि मूल ग्रन्थकार पदुमनदी स्वय अपने गुरु का नाम