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तत्वार्थ श्लोकवातिक की"" ]
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इस प्रकार आपकी श्लोकवातिक की हिंदी टीका के दो स्थनों पर हमने जिज्ञासाभाव से अपने विचार आपके सामने रक्खे हैं । आशा है उन पर आप ध्यान देंगे और इसमे अगर हमारी ही भूल हो तो हमे समझाने की कृपा करेगे, ऐसी हमारी आपसे सविनय विनती है। आप प्रतिभाशाली बहुश्रुती विद्वान् है आपसे चूक होना कम सम्भव है।
स० नोट-तत्वार्थ राजवातिक मे 'भरत रावत विभाजिनाविष्वाकारगिरी वार्तिक है। इसका अर्थ स्वय अकलंकदेव ने 'उत्तरदक्षिण भगत ऐरावत का विभाग करने वाले इष्वाकार पर्वत हैं, ऐसा किया है तत्वार्थ श्लोकवातिक में आचार्य विद्यानन्द ने भी भरतरावत विभाजिनौ' लिखकर इष्वाकारगिरि को भरत और ऐरावत का विभाजक कहा है । इससे पाठक को ऐसा वोध होता है कि भरत और ऐरावत क बीच मे इष्वाकार पर्वत है। किन्तु यथार्थ ऐसा नहीं है। बल्कि भरत और ऐरावत क्षेत्रो का विभाग करने वाले अर्थात् भरत क्षेत्र के और ऐरावत क्षेत्र के बीच मे इष्वाकार पर्वत हैं जिससे एक ओर इष्वाकार पर्वत के दोनो ओर भरत क्षेत्र है और दूसरी ओर इण्वाकार पर्वत के दोनो ओर ऐरावत क्षेत्र है। त्रिलोक प्रज्ञप्ति की गाथा २५५२ से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है
दोपासेसु दक्खिणइसुगार गिरित्स दो भारखेत्ता । उत्तर इसुगारस्स य भवंति ऐरावदा दोणि ॥
दक्षिण इष्वाकार पर्वत के दोनो पार्श्व भागो मे दो भरत क्षेत्र हैं और उत्तर इष्वाकार पर्वत के दोनो पार्श्वभागो मे दो ऐरावत क्षेत्र हैं।