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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
पीछे जल रुधिर के समान
अर्थ- सूर्य के अस्त होने के और अन्न मास के समान कहा है यह वचन मार्कडेय ऋपिका
है |
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कंदभक्षणम् ।
महाभारत में कहा है किमद्यमांसाशन राम्रो भोजन ये कुर्वन्ति वृथा तेषा तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥१॥ चत्वारिनरकद्वारं प्रथमं रात्रि भोजनम् ।
संघानानतकायकम् ॥ २ ॥
परस्त्रीगमनं चैव ये रात्री सर्वदाहार वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ ३ ॥ नोदकमपि पातव्य रात्रावत्र युधिष्ठिर ! तपस्विनां विशेषेण गृहिणां ज्ञानसंपदाम् ॥ ४ ॥
अर्थ-चार कार्य नरक के द्वार रूप है । प्रथम रात्रि मे भोजन करना, दूसरा परस्त्री गमन, तीसरा सधाना (अचार) खाना और चौथा अनन्तकाय कन्द मूल का भक्षण करना । ॥ २ ॥ जो बुद्धिवान एक महीने तक निरन्तर रात्रि भोजन का त्याग करते हैं उनको एक पक्ष के उपवास का फल होता है || ३ || इसलिए हे युधिष्ठिर । ज्ञानी गृहस्थ को और विशेष - कर तपस्वी को रात्रि मे पानी भी नहीं पीना चाहिए ॥ ४ ॥ जो पुरुष मद्य पीते है, मास खाते है, रात्रि में भोजन करते हैं और कन्दमूल खाते हैं उनकी तीर्थयात्रा, जप, तप सव वृथा है || १ || और भी कहा है कि
दिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । एतन्नक्तं विजानीयान नक्तं निशिभोजनम् ॥ मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदंति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाह मन्ये गणाधिप ।