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प्रतिष्ठाचार्यों के लिए एक विचारणीय " ] [ २८५
चाहिये कि इसके बाद भगवान् मोक्ष पधार गये ।
इसी आशय को लेकर जयसेन ने स्वरचित प्रतिष्ठा शास्त्र के पद्य न० ६११ के आगे गद्य मे ऐसा लिखा है
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'निर्वाण भक्तिरेव भक्तिरेव निर्वाण कल्याणारोपण, साक्षात्त न विधेयं स्मरणीयमेवेति ।
इसकी वचनिका -
'अर पंचकल्याणनि मे च्यारिकल्याण तो विधान सयुक्त किया । अर पुचम कल्याण मोक्षकल्याण है सो निर्वाणभक्ति पाठमात्र ही आरोपण करना । साक्षात् विधान नही करना । स्मरणमात्र ही है। ऐसा अनिर्वाच्य समझि लेना ।'
(यहाँ मोक्ष कल्याण का विधान निर्वाणभक्ति का पढलेना मात्र बताया है और साक्षात् विधान करने का निषेध किया है । ऐसी सूरत मे प्रभु के दाह संस्कार को दृश्यरूप मे बताना साक्षात् विधान करना होगा और स्पष्ट ही शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना कहलावेगा । जयसेन ने मोक्षगमन का साक्षात् विधान नही लिखने के साथ ही साथ उन्होने मोक्षकल्याण के अर्थ इन्द्रादि देवो का आगमन भी नही लिखा है और न चौवीस तीर्थंकरो की मोक्षति थियो की पूजा ही लिखी है । जब कि वे अन्य कल्याणको मे उन कल्याणको को तिथियो को पूजा लिखते रहे हैं इससे यही फलितार्थ निकलता है कि जयसेन की दृष्टि
अर्हतप्रतिमा में मोक्षकल्याण की प्रधानता नही है । और जवकि मोक्षकल्याण मे देवो के आगमन का ही उल्लेख नही है तो अग्निकुमारदेव के मुकुट से अग्नि उत्पन्न करना आदि दृश्य दिखाना स्पष्ट ही शास्त्र विरुद्ध है ।) इसके अतिरिक्त अरिहन्त