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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
इसमे देव वन्दना, जीवदया पालन, जल छानकर पीना, मद्य, मास, मधु का त्याग, रात्रि-भोजन त्याग और पचोदवर फल त्याग, ये आठ मूलगुण वताये है। जव रात्रि भोजन त्याग श्रावको के उन कर्तव्यो मे है जिन्हे मूल (खास) गुण कहा गया है तब यदि कोई इसका पालन नहीं करता तो उसे श्रावक कोटि में गिना जाना क्यो कर उचित कहा जायगा ? यदि कोई कहे कि रात्रिभुक्ति त्याग तो छठवी प्रतिमा मे है इसका समाधान यह है कि छठवी प्रतिमा वो कई ग्रन्थकारो ने तो दिवामैथुन त्याग नाम से कही है। हाँ। कुछ ने रात्रिभुक्ति त्याग नाम से भी वर्णन की है, जिसका मतलब यही हो सकता है कि इसके पहिले रात्रि भोजन त्याग मे कुछ अतीचार लगते थे सो इस छठवी प्रतिमा मे पूर्ण रूप से निरतिचार त्याग हो जाता है । यदि ऐसा न माना जावे तो रात्रि भोजन त्याग को मूलगुणो मे क्यो कथन किया गया बल्कि वसुनन्दि श्रावकाचार मे तो यहाँ तक कहा है कि-रात्रि भोजन करने वाला ग्यारह प्रतिमाओ मे से पहिली प्रतिमा का धारी भी नही हो सकता । यथा
एयावसेसु पढग विजदो णिसिभोयणं कुण तस्स । ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभुत्तं परिहरे णियमा ॥३१४॥
- बसुनन्दि श्रावकाचार छपी हरिवश पुराण हिन्दी टीका के पृष्ठ ५२६ मे कहा है कि
"मद्य, मास, मधु, जुआ, वेश्या, परस्त्री, रात्रि भोजन, कन्दमूल इनका तो सर्वथा ही त्याग करना चाहिए। ये भोगोपभोग परिमाण मे नही है।" मतलव कि हरएक श्रावक को चाहे वह किसी श्रेणी का हो रात्रि भोजन का त्याग अत्यन्त