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प० टोडरमल' जी और शिथिलाचारो साधु ] [६१
ताका समाधान-ऐसा जो कपट का जेते निश्चय नाही होय तेतै आचार शुद्ध देखि वदै, तामैं दोष नाही, अर कपट का कोई कारणते निश्चय हो जाय तब नहीं वदै । बहुरि केवलीगम्य मिथ्यात्व को व्यवहार मे चर्चा नाही, छद्मस्थ के ज्ञानगम्य की चर्चा है। जो अपने ज्ञानका विषय ही नाहो ताका वाध निर्बाध करने का व्यवहार नाही, सर्वज्ञ भगवान् की भी यही आज्ञा है ) व्यवहारी जीव कू व्यवहार का ही शरण है।"
मतलव यह है कि मुनिलिंग पूज्य है अवश्य, पर केवल द्रलिंग यानी वेषमात्र पूजनीय नही है। मुनि का वाह्य वेष द्रव्यलिंग कहलाता है। और कषायोपशम सयम सम्यक्त्वादिका होना भावलिंग कहलाता है। जैनशासन मे भावलिग रहित द्रव्य लिंग मान्य नही है। और द्रव्यलिंग रहित भावलिंग भी मान्य नही है, न दोनो ही लिंग रहित तीसरी अवस्था ही मान्य है। जनमत मे तो सयुक्त द्रव्य भावलिंग मान्य है। इस विषय में सिक्के का उदाहरण अच्छा घटित होता है। अगर रुपया चादी का हो पर उस पर सरकारी मोहर ठीक नही हो तो वह ग्राह्य नही होता । और जो मोहर ठीक हो पर वह चादी का न हो तो वह रुपया भी ग्राह्य नही होता। तथा चादी और मोहर दोनो ही ठीक न हो तो वह भी ग्राह्य नहीं होता। रुपया वह चलेगा जिसमे चादी और मोहर दोनो ठीक होगी । वस यही वात मुनिलिंग के विमेषय समझना चाहिये । (सिक्के की चादी को भावलिंग और मोहर को द्रव्यलिंग जानना चाहिये । फलितार्थ यह हुआ कि-भावलिंग के साथ धारण किया द्रव्यलिंग ही सिद्धि का कारण होता है। अकेले द्रव्यलिंग मे कुछ सिद्धि नहीं होती। यही बात कुन्दकुन्द स्वामी ने भाव पाहुड मेलिखी है