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ऐलक चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है ? ] [ १७
से द्वितीयोत्कृष्ट मे विशेष है। शेष क्रिया में द्वितीयोत्कृष्ट के लिए 'तद्वद्वितीय' 'तथा द्वितीय.' 'द्वितीयोऽपि भवेदेव' इन वाक्यो से वही रहने दी है जो प्रथमोत्कृष्ट के लिए कही गई थी । वसुनन्दि श्रावकाचार मे भी इसी तरह से कथन किया गया है । जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रगट है
एवं भेओ होई णवर विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्छं भुजिज्जो पाणिपसम्मि ।। ३११ ॥
इस गाथा मे लिखा है कि- ११ वी प्रतिमा में प्रथम भेद से दूसरे भेद वाले मे यही विशेषता है कि यह नियम से लौंच करता है, पीछी रखता है, और पाणिपात्र में भोजन करता है । और कोई विशेषता नही है । '
जरा सोचने की बात है कि अगर ग्रन्थकारो को ऐलक के लिए खडा भोजन कराना अभीष्ट होता तो उक्त विशेषताओ के साथ एक विशेषता खडा भोजन की भी लिख देते । किन्तु ऊपर के किसी ग्रन्थ मे ऐसा नही लिखा गया है ।
धर्मोपदेशपीयूषवर्ष, भावसग्रह और स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा को टोका मे तो साक्षात् द्वितोमोत्कृष्ट श्रावक (जिसे वर्तमान मे ऐलक कहते है) को ही बैठे भोजन की आज्ञा की है । रहा चारित्रसार सो उसमे उद्दिष्टविनि वृत नाम की समूची ही ११ वी प्रतिमाधारी को बैठे भोजन करना प्रतिपादन किया है ।
१ - कोपीन मात्र वस्त्र का रखना भी इसकी विशेषता है वह यहाँ इसलिए नहीं बताई कि उसका कथन ऊपर गाया मे कर दिया
था ।