Book Title: Bahuratna Vasundhara
Author(s): Mahodaysagarsuri
Publisher: Kastur Prakashan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्वाचीन अनेकविध उत्कृष्ट आराधक रत्नों के आश्चर्यप्रद, प्रेरणादायक, अनुमोदनीय दष्टांत रत्नोंका अनमोल खजाना भाग: १-२-३ चलो, अनुमोदना करें paddecorational meanormoneonewoomenorry - गणि महोदयसागर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 बहुरत्ना वसुंधरा 'चलो, अनुमोदना करें' भाग : १ - २ - ३ ( अर्वाचीन अनेकविध उत्कृष्ट आराधक रत्नों के आश्चर्यप्रद, प्रेरणादायक, अनुमोदनीय दृष्टांतरत्नों का अनमोल खजाना ) संयोजक - संपादक शासन सम्राट, भारत दिवाकर, कच्छ केसरी, अचलगच्छाधिपति प.पू. आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के विनेय, आगमाभ्यासी, पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. ( गुणबाल) एकपक श्री बाड़मेर (राजस्थान ) अचलगच्छ जैन संघ एवं श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट मुंबई 66 - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति स्थान श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट १०२, लक्ष्मी एपार्टमेन्ट, २०६, डॉ. एनीबेसन्ट रोड़, वरली नाका, मुंबई फोन : ४९३६६६० / ४९३६२६६ गुजराती संस्करण हिन्दी संस्करण वि.सं. २०५३ वि. सं. २०५५ प्रति : ४००० नकल : २५०० खास सूचना – नम्र विज्ञप्ति - अवश्य पढें - निःशुल्क सवांचन का अभिनव आयोजन पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों से सादर विनम्र विज्ञप्ति है कि आप इस किताब के दृष्टांत व्याख्यान में देकर श्रोताओं को प्रस्तुत पुस्तक पढने के लिए प्रेरणा प्रदान करें । - जो भी ज्ञान पिपासु इस किताब को पढना चाहते हों वे कृपया किसी भी साधु-साध्वीजी भगवंत से निम्नोक्त दो प्रतिज्ञा ग्रहण करके, प्रतिज्ञादाता साधु-साध्वीजी भगवंत के सिफारिश पत्र के साथ १५ रुपये की डाक टिकट भेजकर उपरोक्त स्थान से किताब मँगा लें । ज्ञानकी आशातना उपेक्षा से बचें। - ४०००१८. प्रतिज्ञा - १ प्रतिदिन प्रस्तुत पुस्तक के कम से कम १० पन्ने अवश्य पढें। संयोगवशात् किसी दिन न पढ सकें तो दूसरे दिन उसकी पूर्ति अवश्य कर लें । प्रतिज्ञा २ किताब की प्राप्ति से लेकर ५० दिनमें किताब पढकर उपरोक्त पत्ते पर डाक से अवश्य वापिस भेजें । किताब पढकर आपने अपने जीवन में जो भी शुभ संकल्प किया हो वह लिखें एवं दूसरे सद्गृहस्थों को प्रस्तुत किताब को पढने की प्रेरणा प्रदान करें। सहयोग के लिए धन्यवाद । मुद्रक कुमार प्रकाशन केन्द्र २०, ईलोरा कोमर्शियल सेन्टर, जी.पी.ओ. के सामने, सलापस रोड, अहमदाबाद - ३८०००१. फोन : ५५०६६८१ 2 ( लेसर कंपोज़ कुमार ग्राफिक्स १४, सहकारनिकेतन सोसायटी, स्टेडीयम सर्कल के पास, नवरंगपुरा, अहमदाबाद - ३८०००९. फोन : ६४२३५७६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कृपया मुझे अवश्य पढ़ें" (१) प्रस्तुत पुस्तक का गुजराती भाषामें संस्करण : निम्नोक्त स्थान से प्राप्त हो सकेगा । उसमें अर्वाचीन दृष्टांतों के साथ प्राचीन महापुरुषों के संक्षिप्त दृष्टांत भी चतुर्थ भाग के रूप में सम्मिलित हैं । थोड़ी सी प्रतियाँ अवशेष हैं । इसलिए १०० रू. का मनिओर्डर करके ७०० पन्नेका पुस्तक निम्नोक्त स्थान से तुरंत मँगवा लें। कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट १०२ लक्ष्मी एपार्टमेन्ट, २०६ डॉ. एनीबेसन्ट रोड़, वरली नाका, मुंबई ४०००१८, फोन : ४९३६२६६ - ४९३६६६० - ४९४३९४२ (२) "जेना हैये श्री नवकार, तेने करशे शुं संसार ?" (मूल्य : ६० रूपये) | संयोजक - संपादक : पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. (गुणबाल) .. श्री नवकार महामंत्र के प्रभाव दर्शक अनेक अर्वाचीन सत्य दृष्टांतों का अनमोल खजाना एवं नवकार महामंत्र के जप की वास्तविक विधि इत्यादि उपरोक्त किताब में संग्रहीत है । इस लोकप्रिय किताब की गुजराती भाषामें पाँच संस्करणों में कुल १९००० प्रतियाँ प्रकाशित हुई हैं । अंग्रेजी भाषामें २००० प्रतियाँ (मूल्य : ५० रूपये) प्रकाशित हुई हैं; एवं हिन्दी संस्करण मुद्रणालय में चालु है। अल्प समय में ही प्रकाशित होगा (मूल्य रु. ५०) । तीनों भाषामें यह किताब उपरोक्त 'कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट' से प्राप्त हो सकेगी । तुरंत मँगाकर अवश्य पढ़ें और नवकार महामंत्र की सम्यक् आराधना से देवदुर्लभ मानव भव को सफल बनायें । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwx -प्रकाशकीय हमारे श्री संघ के महान पुण्योदय से हमें वि. सं. २०५४-५५ में हमारे संघ के अनंत उपकारी शासन सम्राट अचलगच्छाधिपति, प.पू. आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य-प्रशिष्य आगमाभ्यासी प.पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. एवं तपस्वी पू. मुनिराज श्री अभ्युदयसागरजी म.सा. ठाणा - २ के चातुर्मास का महान लाभ मिला । इस चातुर्मास में पूज्य गणिवर्य श्री दैनिक एवं रविवारीय प्रवचन और दैनिक शिशु संस्कार शिबिर में प्राचीन दृष्टांतों के साथ साथ स्वयं द्वारा संपादित 'बहुरत्ना वसुंधरा' (गुजराती संस्करण) में से भी अनेक प्रेरणादायक दृष्टांत रोचक शैलिमें सुनाते थे, जिसे सुनकर श्रोताजन अत्यंत भाव विभोर हो जाते थे । फलत : तप-जप आदि अनेकविध आराधनाओं के साथ साथ पर्युषण में जीवदया का सवालाख रूपये का चंदा इकठ्ठा हुआ, जो पूज्य श्री की सूचना के अनुसार अनेक पांजरापोल आदि जीवदया की संस्थाओं में भेजा गया । यहाँ पर निर्मित नूतन उपाश्रय के लिए भी पूज्यश्री की प्रेरणा से दान की गंगा बही । क्षमापना के विषयमें पूज्यश्री का हृदयस्पर्शी प्रवचन सुनकर देरानी-जेठानीने सकल संघ के समक्ष परस्पर रक्षा पोटली बाँधकर एक दूसरे के चरण स्पर्श करके क्षमायाचना की और ४ वर्षों से हुए मनमुटाव का विसर्जन करके मैत्रीभावना का सर्जन किया, सचमुच वह दृश्य अभूतपूर्व था । ६४ प्रहरी श्रावकों में से २ युवक सहित ३ श्रावकों ने केशलोच करवाया । यह सब प्रभाव 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब में वर्णित आश्चर्यप्रद प्रेरक दृष्टांतों का था । इसलिए हमने इस किताब को हिन्दी में प्रकाशित करने की पुनः विज्ञप्ति की । इससे पूर्व भी चतुर्विध श्री संघ के अनेक सदस्यों की ऐसी विज्ञप्ति थी । अतः पूज्य गणिवर्यश्रीने अपना अमूल्य समय निकालकर शेषकाल में विहार के दौरान इस का हिन्दी अनुवाद स्वयं किया और हमारे श्री संघ को प्रकाशन का लाभ दिया इसके लिए हम पूज्यश्री के अत्यंत ऋणी हैं। पूज्यश्री की प्रेरणा से जिन भाग्यशालियों ने इस प्रकाशन में आर्थिक सहयोग दिया है वे धन्यवाद के अधिकारी हैं। " श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट" ने अपने द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक के गुजराती संस्करण को हिन्दी में प्रकाशित करने की हमें भी उदारता से अनुमति दी एवं इस किताब की वितरण व्यवस्था का दायित्व संभाला अतः हम उपरोक्त ट्रस्ट के ट्रस्टी मंडल के अत्यंत आभारी हैं। केवल २ महिनों में अति शीघ्रता से सुंदर मुद्रण करने के लिए कुमार प्रकाशन केन्द्र ( अहमदाबाद) के संचालक श्री हेतलभाई शाह आदि को हार्दिक धन्यवाद ! श्री बाड़मेर अचलगच्छ जैन संघ 4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D 330 18AAAA बाड़मेर (राजस्थान) मंडन श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ आदि प्रभुजी श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन तीर्थ का हृदयंगम दृश्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाकोड़ा तीर्थ के अधिष्ठायक भेरुजी श्री नाकोड़ाजी पार्श्वनाथ भगवान Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थका संक्षिप्त परिचय ___ भारतभर में सुविख्यात एवं प्राचीन स्थापत्य तथा शिल्पकला से परिपूर्ण प्राकृतिक सौंदर्य में समाया हुआ श्री नाकोड़ाजी तीर्थ (मेवा नगर) बाड़मेर जिले में बालोतरा रेल्वे स्टेशन से ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। श्री वीरमसेनजी द्वारा विक्रम संवत से तीसरी सदी पूर्व में आबाद किये गये इस मेवानगर को तब वीरमपुर नगर के नाम से संबोधित किया जाता था। यहाँ मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्री ऋषभदेव भगवान तथा श्री शांतिनाथ भगवान के सैंकडों वर्ष प्राचीन कलाकृति से परिपूर्ण एवं शिल्प शास्त्रानुसार निर्मित सुन्दर जिनालय दर्शन करने योग्य हैं। इन मंदिरों के साथ साथ श्री सिद्धचक्रजी का मंदिर, श्री पुंडरिक स्वामी की देहरी, श्री पंचतीर्थी का मंदिर, पट्टशाला, आधुनिक कलाकृति से परिपूर्ण महावीर स्मृति भवन, श्री ऋषभदेव भगवान के चरण तथा तीर्थस्थल से लगभग दो हजार फीट की ऊंचाई पर प्राकृतिक सौन्दर्य के मध्य श्री नेमिनाथजी की ट्रॅक (गिरनारजी), समीप ही दादावाडी भी दर्शनीय तथा अवलोकनीय हैं। इस तीर्थ का पुनरुद्धार स्व. प्रवतिनी साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी ने महान परिश्रम के साथ करवाया था जो सराहनीय है। विशेषकर महान चमत्कारी, मनोकामना पूर्ण करनेवाले अधिष्ठायेक देव श्रीनाकोड़ा भैरवजी, जिन्हें जैनाचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरिजीने अनेक तप साधनों के साथ शताब्दियों पूर्व यहाँ प्रतिष्ठित किये हैं, विद्यमान हैं । तीर्थस्थान पर विद्युत्, पेयजल, आवास, चिकित्सा, पुस्तकालय एवं वाचनालय, संचार यातायात की उत्तम व्यवस्था उपलब्ध है ।। प्रति रविवार को, पूर्णिमा को, कृष्णा दशमी को एवं खास करके पोष कृष्णा दशमी को यहाँ हजारों यात्रिकोंकी भीड़ लगी रहती है । पोष कृष्णा दशमी (श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के जन्म कल्याणक दिन) को यहाँ हजारों की संख्या में तेला (अठ्ठम) तप के तपस्वी आते हैं । उनके उत्तर पारणा, पारणा, आवास, बुहमान आदि की सुंदर व्यवस्था वहाँ की जाती है। ___उपरोक्त श्री नाकोड़ा तीर्थ ट्रस्टकी ओरसे प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन में सुंदर सहयोग मिला है, इस के लिए हम आभारी हैं। - प्रकाशक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण गुजराती एवं संस्कृत भाषामें प्रभु भक्तिमय सैंकडों स्तवनस्तुति चैत्यवंदन पूजाएँ इत्यादि भाववाही भक्ति साहित्य एवं संस्कृत में त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, समरादित्य केवली चरित्र, श्रीपाल चरित्र, द्वादश पर्व कथा आदि ग्रंथों की रचना करनेवाले...! मुंबई से समेतशिखरजी एवं समेतशिखर से पालिताना जैसे महान ऐतिहासिक छ'री' पालक संघों की प्रेरणा और निश्रा द्वारा प्रभु शासन की अद्भुत प्रभावना करनेवाले...! ७२ जिनालय महातीर्थ, २० जिनालय आदि अनेक जिनमंदिरों की प्रेरणा-अंजनशलाका-प्रतिष्ठा द्वारा लाखों भावुक आत्माओं को प्रभु के साथ प्रीति जोड़ने में सहायक आलंबन प्रदान करनेवाले.... विद्यापीठ द्वय, धार्मिक शिबिर, अनेक धार्मिक पाठशाला आदि की स्थापना द्वारा समाज में सम्यक् ज्ञान की अभिवृद्धि कराने वाले...! मेरे जैसी अनेक आत्माओं को संसार पथ से संयम के पुनीत पथ पर प्रस्थान करानेवाले... ५० वर्ष तक एकाशन एवं ८ वर्षीतप आदि तपश्चर्या द्वारा | शिष्यों को भी तपोमय जीवन जीने की प्रेरणा देनेवाले... तप-त्याग, तितिक्षा, क्षमा, समता, नम्रता, सहनशीलता, भद्रिकता, अप्रमत्तत्ता, सादगी इत्यादि अगणित गुणरत्नों के महासागर, सद्गुणानुरागी, यथार्थनामी... ___ अनंत उपकारी, भवोदधितारक, वात्सल्य वारिधि, शासन सम्राट, भारत दिवाकर, तपोनिधि, अचलगच्छाधिपति, प.पू. गुरुदेव, आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के कर कमलों में आपकी ही दिव्य कृपा से सर्जित इस रत्नमाला को अर्पित करते हुए कृतज्ञताका अनुभव करता हूँ। - गुरुगुण चरणरज - गणि महोदयसागर 'गुणबाल' Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण शासन सम्राट, भारत दिवाकर, कच्छ केसरी, अचलगच्छाधिपति प. पू. आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म. सा. एवं उनके शिष्य आगमाभ्यासी - प. पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म. सा. (गुणबाल) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाह रिनभदासजी पड़ाईया (बाड़मेरवाल) सुपुत्र शंकरलाल केवलचंद बेटा पोता वृद्धिचंदजी ॐकारचंदाणी पड़ाईया श्री मोहनलालजी शेरमलजी बोहरा हस्ते: श्रीमती शांतिदेवी मोहनलाल बोहरा बाड़मेरवाला सुपुत्र-सुनिल, कपिल, कल्पेश, पौत्र-योगेश प्रकाशन के सहयोगीदाता श्री आसुलालजी हजारीमलजी बोहरा (मोदरेचा) अरिहंत इन्डस्ट्रीझ-घोरीमना (फोनः २२४२४-घर) श्री मेवारामजी चिंतामणदासजी बोहरा बोहरा ग्वार गम इन्डस्ट्रीझ-बाड़मेर (फोनः २१०३१-ओफिस) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1150000 Moreno 0.6 1 B वकील वक्तावरमलजी S/o. तुलसीदासजी वडेरा (बाड़मेर) हस्ते सुपुत्रो डो. गुलाबचंद पारसमल एवं जुगराजजी वडेरा 26466 श्री रिखभदासजी घनराजजी वडेरा (आदर्श ग्वार गम इन्डस्ट्रीझ-बाड़मेर) फोन: २०७४७ Factory) POPUL DO स्व. ठेलीदेवी वक्तावरमलजी वडेरा स्वर्गवास दि १/१२/१८ प्रकाशन के सहयोगीदाता श्रीमती ठेलीदेवी रिखभदासजी वडेरा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री माणेकमलजी रावतमलजी पड़ाईया (सराफ) सुपुत्रो - हस्तिमलजी, मोहनलालजी एवं बंसीधरजी (बाड़मेर) श्री केसरीमलजी फोजमलजी पड़ाईया हः सुपुत्र - बंसीधरजी, पौत्र - पवनकुमार प्रपौत्र-पुनीतकुमार (बाड़मेर) प्रकाशन के सहयोगीदाता स्व. वरुणकुमार (बाड़मेर) S/o. लुणकरणजी भंवरलालजी बोथरा स्व. दि २२/११/१८ स्व. कपिलकुमार (बाड़मेर) S/o.लुणकरणजी भंवरलालजी बोथरा स्व. दि. २२/३/९२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,५०० प्रकाशन के सहयोगी दाता राशि रुपये श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ ट्रस्ट २५,००० श्री बाड़मेर अचलगच्छ जैन संघ १३,००० श्री बाड़मेर अचलगच्छ महिला मंडल २,१०० श्री बाड़मेर के ज्ञानपंचमी तप के आराधक श्रावक-श्राविकाएँ । १,१०० श्री वीरचंदजी बाबुलाल प्रकाशचंद बेय पोता प्रतापमलजी बोहरा २,५०० श्री रामलालजी मूलचंद जगदीशचंद S/O धरमचंदजी प्रतापमलजी बोहरा २,५०० श्री आईदानजी भगवानदासजी S/O जेकचंदजी छाजेड़ २,५०० मथरीदेवी W/O हस्तिमलजी जुहारमलजी पड़ाईया हस्ते पौत्र मदनलाल भगवानदास पड़ाईया श्री मोहनलाल पन्नालालजी बोहरा - राणीगाँववाला २,५०० श्री मानमलजी जुहारमलजी पड़ाईया १,००० समदादेवी W/O कुंदनमलजी केसरीमलजी वडेरा १,००० लुणीदेवी W/O पन्नालालजी हंजारीमलजी बोहरा १,००० श्री डामरचंद चतुर्भुज शांतिलाल नीरजकुमार छाजेड़ (हरसाणी वाले) १,००० गेरीदेवी w/o चिंतामणदासजी कोटड़िया १,००० ढेलीदेवी w/o आसुलालजी करमचंदजी पड़ाईया १,००० समदादेवी W/O हीरालालजी तगामलजी वडेरा १,००० ह. सुपुत्र अशोकभाई पौत्र भरत, प्रवीण मोहनीदेवी w/o मेवाराम बस्तीरामजी पड़ाईया १,००० श्री धनराजजी गणधर चोपडा १,००० प्यारीदेवी w/o माणेकचंदजी विनयचंदजी बोहरा (बालेबावाले) १,००० ह. सुपुत्रो चंपालालजी, केवलचंदजी बोहरा श्री बाबुलाल हंजारीमलजी बोथरा श्री प्रभुलालभाई s/o श्री करणमलजी जैन डुंगरवाल (देवडावाले) १,००० श्री जैन ट्रेडर्स, राम मारूती रोड, कोर्नर नौपाडा, थाणा (महाराष्ट्र) १,००० लीलाबेन बाबुलाल वडेरा ५०० श्री रुगामलजी भूणियेवाला ५०० १,००० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ऋण स्वीकार - सादर स्मति । (१) अनंत उपकारी, भवोदधितारक, वात्सल्य वारिधि, सच्चारित्र चूड़ामणि, अनन्य प्रभुभक्त, शासन सम्राट, भारत दिवाकर, तीर्थ प्रभावक, दिव्यकृपादाता, अचलगच्छाधिपति, प.पू. गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. (२) संलग्न ३१ वें वर्षी तप के आराधक, वर्तमान अचलगच्छाधिपति, तपस्वीरत्न, प. पू. आ. भ. श्री गुणोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा.... (३) सूरिमंत्रपंचप्रस्थानसमाराधक, साहित्य दिवाकर, प.पू. आ. भ. श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी म.सा. (४) लेखन आदि शुभ प्रवृत्तियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे सहायक बनते हुए विनीत शिष्य तेजस्वी वक्ता मुनिराज श्री देवरत्नसागरजी, स्वाध्याय प्रेमी मुनिराज श्री धर्मरत्नसागरजी, तपस्वी मुनिराज श्री कंचनसागरजी, सेवाशील मुनिराज श्री अभ्युदयसागरजी एवं प्रशिष्य मुनिराज श्री भक्तिरत्नसागरजी. (५) रत्नत्रयी की आराधनामें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे सहायक बनते हुए सभी गुरुबंधुओं, छोटे-बड़े मुनिवर, नामी अनामी सभी शुभेच्छकों, हितचिंतकों आदि. . . (६) मुमुक्षु अवस्था में धार्मिक सूत्रों (सार्थ) का सुंदर अध्ययन करवाकर संयम जीवन की प्रेरणादात्री परमोपकारी योगनिष्ठा, तत्त्वज्ञा, स्व. सा. श्री गुणोदयाश्रीजी महाराज आदि... (७) मुमुक्षु अवस्था में ५ वर्ष पर्यंत संस्कृत-प्राकृत व्याकरण, न्याय, काव्य, षट् दर्शन आदिका अच्छी तरह अध्ययन करानेवाले पंडित शिरोमणि श्री हरिनारायण मिश्र (व्याकरण-न्याय-वेदांताचार्य) इत्यादि अगणित उपकारी आत्माओं का सादर स्मरण करते हुए गौरव एवं आनंद का अनुभव करता हूँ । _ - गणि महोदयसागर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. २०५३ (गुजराती) में भाट्रपद शुक्ल १५ के दिन श्री शंखेश्वर महातीर्थ में, प्रस्तुत पुस्तक में व्यावर्णित आराधक रत्नों के आयोजित अनुमोदना - बहुमान समारोह की तस्वीरें तस्वीर परिचय १. श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान, जिनकी छत्रछाया में इस समारोह का आयोजन हुआ था । २. दिव्यकृ पादाता अचलगच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री गुणसागरसुरीश्वरजी म.सा. ३. निश्रादाता मालव भुषण, तपस्वी रत्न, प.पू.आ.भ. श्री नवरत्नसागरसुरीश्वरजी म.सा. ४. प्रस्तुत अनुमोदना समारोह के प्रेरक पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी मा.सा. ५. मुनिराज श्री अभ्युदयसागरजी ६. मुनिराज श्री मृदुरत्नसागरजी ७. मुनिराज श्री वैराग्यरत्नसागरजी ८. मुनिराज श्री संयमरत्नसागरजी ९. ज्ञानदीपक प्रज्वलित करते हुए श्रेष्डीवर्य श्री अरविंदभाई पन्नालाल सेठ (श्री जीवणदास गोडीदास पेठी-शंखेश्वर तीर्थ के मेनेजींग ट्रस्टी) Page #17 --------------------------------------------------------------------------  Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय प्रस्तुत पुस्तक में व्यावर्णित आराधकरत्नों की अनुमोदना एवं बहुमान हेतु तथा हजारों आत्माओं को ऐसे आराधक रत्नों का प्रत्यक्ष दर्शन-परिचय हो सके ऐसी शुभ भावना से प्रेरित होकर, श्री गुणीजनभक्ति ट्रस्ट (मणिनगर - अहमदाबाद) एवं श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट (मुंबई-वरली) के संयुक्त प्रयत्नों से और सेठ श्री जीवणदास गोड़ीदास पेढी शंखेश्वरजी के सहकार से, अनेक दाताओं के आर्थिक सहयोग से, वि.सं. २०५३में भाद्रपद शुक्ल १५ के दिन शंखेश्वर महातीर्थ में, एक भव्यातिभव्य अनुमोदना बहुमान समारोह आयोजित हुआ था । गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तामिलनाडु, कर्णाटक और केराला इन सात राज्यों में से ८७ जितने आराधक रत्न एवं करीब ५००० जितने दर्शनार्थी इस अनुमोदना समारोह में पधारे थे। शंखेश्वर में चातुर्मास बिराजमान तपस्वीरत्न प.पू.आ.भ. श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा., पू. गणिवर्यश्री महोदयसागरजी म.सा., पू. मुनिराज श्री मणिप्रभविजयजी म.सा. आदि अनेक साधु साध्वीजी भगवंतों की पावन निश्रामें एवं श्रेष्ठीवर्य श्री श्रेणिकभाई कस्तूरभाई शाह, श्री किशोरचंदजी वर्धन आदि अनेक महानुभावों की अतिथि विशेष के रूपमें उपस्थिति में यह अभूतपूर्व समारोह करीब ५॥ घंटे तक लगातार चला था, फिर भी किसी को बीचमें से उठने का मन नहीं होता था। सभी आराधकरत्नों का संक्षिप्त परिचय कराया गया था और अनुमोदना पत्र के साथ रत्नत्रयी के अनेकविध उपकरण आदि द्वारा सभी का विशिष्ट बहुमान किया गया था । श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय के प्रांगण में व्याख्यान होल के साथ एक विशाल पंडाल में बिराजमान चतुर्विध संघकी विशाल उपस्थिति सामने दी हुई दो तस्वीरों में दृष्टिगोचर होती है । कार्यक्रम परिसमाप्त होने पर सभी के मुँह से एक ही प्रकार के हर्षोद्गार थे कि, "ऐसा अपूर्व आयोजन आज पहली बार देखा। सचमुच हमारा शंखेश्वर तीर्थमें आना सफल हो गया ।" 9 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय _बहुरत्ना वसुंधरा भाग ३ - ४ (संयुक्त) का विमोचन करके जनता को दर्शन कराते हुए... अनुमोदना समारोह के माननीय मुख्य अतिथि विशेष एवं श्री आणंदजी कल्याणजी पेढी के प्रमुख श्री श्रेणिकभाई कस्तूरभाई शाह । ____बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२ का विमोचन वि.सं.२०५३ के अषाढ शुक्ल २ के दिन इसी स्थान में तपस्वीरत्न प.पू.आ.भ. श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा के शंखेश्वर आगम मंदिर में चातुर्मास प्रवेश के समय विशिष्ट प्रभुभक्त श्री गिरीशभाई महेता के कर कमलों से हुआ था । भाग-१ का प्रकाशन वि. सं. २०५२ में हुआ था । तस्वीर परिचय बहुरत्ना वसुंधरा भाग १-२-३-४ संयुक्त का विमोचन करके जनता को दर्शन कराते हुए अनुमोदना समारोह के माननीय अतिथि विशेष... श्री अखिल भारत अचलगच्छ जैन संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं श्री अखिल भारत जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स के वर्तमानकालीन अध्यक्ष श्री किशोरचंद्रजी मिश्रीमलजी वर्धन (भीनमालवाले) ___ उपरोक्त दोनों महानुभावोंने इस आयोजन की, प्रस्तुत किताबकी एवं इसमें वर्णित आराधक रत्नों की भूरिशः हार्दिक सराहना की थी। प्रस्तुत पुस्तक के अलग अलग भागों की ३ किताबों के करीब १००० से अधिक सेट पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों को सादर भेंट के रूपमें भिजवाये गये थे । चारों भाग के संयुक्त पुस्तक की करीब २५० से अधिक प्रतियाँ विविध ज्ञानभंडारों को भेंट के रूपमें भिजवायी गयीं थीं । Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOOOO P Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय ___सभी आराधक रत्नोंको दिये गये अनुमोदना बहुमान पत्रका पठन करते हुए. सोलीसीटर श्री हरखचंदभाई कुंवरजी (बाबुभाई) गडा (कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टी) (कच्छ बाडा । हाल वरली मुंबई) आप सोलीसीटर की जिम्मेदारियाँ वहन करते हुए भी २ बार अाई तप, ५०० आयंबिल (अकांतर)... वर्धमान तपकी ४८ ओली, वर्षीतप इत्यादि तपश्चर्या कर रहे हैं । जिनपूजा, नवकारसी - चौविहार आदि आराधना करते हैं । आपने अंतरीक्षजी तीर्थ के केसमें अच्छी मानद सेवा दी है। अनेक संघों के धार्मिक ट्रस्टों के संविधान तैयार करने में अपनी मानद सेवा दी है । अनेक कुटुंबोंमें क्लेश का निवारण अपनी कुशाग्र बुद्धि से किया है। अनुमोदना समारोह के आयोजनमें भी आपने अच्छी सेवा दी है । ६ बार वर्षीतप... १० बार अठ्ठाई तप... सोलभत्ता (१६ उपवास) श्रेणितप... सिद्धितप... धर्मचक्र तप... कंठाभरण तप... पंच कल्याणक के १२५ उपवास... ९६ जिनके ९६ उपवास... ज्ञानपंचमी... नवपदजी... बीसस्थानक... वर्धमान तपकी १० ओली इत्यादि अनेकविध तपश्चर्या अपनी धर्मपत्नी संघमाता कस्तूरबेन के साथ करनेवाले...! चतुर्थ व्रत सह श्रावकके १२ व्रतधारी... अनेकबार केशलोच करानेवाले... प्रतिदिन जिनपूजा, उभयकाल प्रतिक्रमण, श्री सिद्धगिरि एवं श्री सिद्धचक्र जी की आराधना करनेवाले... सैंकडों साधर्मिकों को श्री सिद्धगिरिजीकी ९९ यात्रा करानेवाले मुंबई से समेतशिखरजी एवं समेतशिखरजी से पालीताना के छ'री पालक संघों में संघपति बनकर सहयोग देनेवाले संघवी सुश्रावक श्री कुंवरजीभाई (बाबुभाई) जेठाभाई गडा (कच्छ बाडा । हाल वरली मुंबई) का बहुमान करते हुए श्रेष्ठीवर्य श्री अरविंदभाई पन्नालाल शाह (श्री जीवणदास गोडीदास पेढी शंखेश्वर तीर्थ के मेनेजिंग ट्रस्टी) -11 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या पारचय तपस्वी परिचय यावज्जीव ठाम चौविहार अवड्ढ एकाशन के भीष्म अभिग्रहधारी... * दूध-दही-तेल एवं कढा विगईओं के आजीवन त्यागी (सं.२०३१ से)...! * सेवाशील धर्मपत्नी आदि विशाल परिवार युक्त होते हुए भी एकत्व भावना एवं आत्म साधना के लिए उपाश्रय के पास अकांतमें रहकर स्वयं रसोई बनाकर एकाशन करनेवाले... ! सात क्षेत्रोंमें ५५ लाख रूपयों के दानवीर होते हुए भी स्वयं पादरक्षक (जूते) के भी त्यागी...! * अपने हाथसे लाइट के बटन को भी नहीं चालु करने के अभिग्रह धारी... ! अहमदाबाद के हठीसिंग के ५२ जिनालयमें स्वद्रव्यसे नित्य अष्टप्रकारी पूजा एवं प्रतिदिन ४ सामायिक करनेवाले... ! * प्रतिदिन अरिहंत पदका दश हजार बार जाप एवं २५० लोगस्स के काउस्सग्ग की आराधना करने वाले... १२ व्रतधारी विशिष्ट आत्मसाधक... श्री वनमालीदासभाई जगजीवनभाई भावसार का (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. १) बहुमान करते हुए श्रेष्ठीवर्य श्री श्रेणिकभाई कस्तूरभाई शाह। * प्रति सप्ताह. विशिष्ट चिकित्सकों द्वारा किए हुए वैज्ञानिक परीक्षणों के साथ निरंतर २११ उपवास करनेवाले तपस्वीरत्न...! * २०७ वें उपवास के दिन श्री शत्रुजय गिरिराज महातीर्थ की पदयात्रा करनेवाले... ! अभी आजीवन केवल प्रवाही आहार से ही जीवन निर्वाह करने के संकल्प धारी... ! * कच्छ सुजापुर के (वर्तमान में केराला राज्य के अंतर्गत कलिकट के निवासी)... * सुश्रावक श्री हीराचंदभाई रतनसी माणेक (हीरा-रतन-माणेक) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं ९९) का बहुमान करते हुए सुश्रावक श्री हीरजीभाई पासुभाई शाह (अहमदाबाद कच्छी समाज के प्रमुख) (12 Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय * २८ वर्षकी युवावस्थामें सजोड़े आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करनेवाले...! * उपाश्रय में ही रहकर दिन-रात आराधनामें लीन रहनेवाले...! * उपाश्रयमें ही अपने घरसे टिफिन मँगाकर सुपात्र दान एवं साधर्मिक भक्ति करने के बाद सदा एकाशन व्रत करनेवाले... ! * जब तक दीक्षा अंगीकार न कर सकें तब तक हर प्रकारकी हरी सब्जी एवं मूंग के सिवाय सभी द्विदल (सूखी सब्जी) के भी त्यागी...! जिनेश्वर भगवंतकी प्रक्षालके लिए पानी भी अपने ही घरका उपयोग करनेवाले (संपूर्ण रूपेण स्वद्रव्यसे ही अष्टप्रकारी जिनपूजा करनेवाले... !) * भव आलोचना स्वीकार कर एवं ३ वर्षमें बीसस्थानक तप (४२० . उपवास) द्वारा आत्मशुद्धि करनेवाले...! * वढवाण (जिला सुरेन्द्रनगर - गुजरात राज्य) निवासी * रामसंगभाई बनेसंगभाई लींबड (राजपूत) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ५) का बहुमान करते हुए श्री चंदुलालभाई गांगजी फेमवाला (कच्छी वीसा ओसवाल देशवासी जैन समाज के मंत्री और अ. भा. अचलगच्छ जैन संघके उपाध्यक्ष) * ५० से ६५ सालकी उम्र के दौरान (१५ वर्षमें) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत को १ करोड़ बार पंचांग प्रणिपात (खमासमण) करनेवाले...! * ३ वर्ष में सुखासनमें बैठकर १ करोड़ बार प्रभुजीको वंदना करनेवाले...! * उभड़क आसनमें बैठकर ५ वर्ष में १ करोड़ बार प्रभुजी को वंदना करनेवाले...! * १५ वर्षमें १ करोड़ बार श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत का जाप करनेवाले * नवकार महामंत्र (९ पद) एवं 'नमो अरिहंताणं' पदका १ - १ करोड़ बार जाप करनेवाले... ! * वर्षीतप, अठ्ठाइ, एवं नवपदजी की ३५ ओली आदि तपश्चर्या करने वाले * सुश्रावक श्री भोगीलालभाई माणेकचंद महेता (कच्छ-गोधरा निवासी) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १०४) का बहुमान करते हुओ नवकार महामंत्र के विशिष्ट साधक श्री चंदुभाई घेटीवाला ! -13 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय * केवल १० वर्षकी बाल्यवयमें गुरुमुखसे २ बार श्रवण करने द्वारा सिर्फ ३ घंटेमें भक्तामर स्तोत्र को कंठस्थ करनेवाले...! * फक्त २ घंटे में "अरिहंत बंदनावलि" (४९ श्लोक) कंठस्थ करनेवाले..! * केवल २ घंटोंमें "रत्नाकर पचीशी" कंठस्थ करनेवाले...! * सिर्फ २ घंटोंमें सकलार्हत् स्तोत्र के गुजराती पद्यानुवाद (३४ श्लोक) को कंठस्थ करनेवाले...! बाल श्रावकरत्न ऋषभकुमार बिपीनभाई महेता (मुंबई-घाटकोपर, सांघाणी अस्टेट निवासी, फोन : ५१४९०७८) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १२५) का बहुमान करते हुए बा. ब्र. प्रभुभक्त सुश्रावक श्री दीपककुमार रायसी गाला (कच्छ चांगडाई वाला) (प्रस्तुत पुस्तक के संपादक गणिवर्य श्री के संसारी लघुबंधु) (१) केवल ३॥ सालकी बाल्यवयमें अट्ठाई तप (निरंतर ८ उपवास) एवं ४॥ सालकी उनमें निरंतर १० उपवास करनेवाला बाल मुमुक्षुरत्न विवेककुमार (मीरां रोड मुंबई) (भाग-२, दृष्टांत नं. १२५) (२) ७ वर्षकी बाल्यवयमें अट्ठाई तप करनेवाला सौरभकुमार सतीशभाई शाह (साबरमती) (भाग-२, दृष्टांत नं. १२५) (३) ४ वर्षकी बाल्यवयमें अट्ठाई तप करनेवाला बाल श्रावक सागरकुमार दिलीपभाई सुतरीया (जामनगर - हाल मोरबी भाग-२, दृष्टांत नं. १२५) (४) ३ कलाकमें भक्तामर एवं २ कलाकमें अरिहंत वंदनावलि आदि ____ कंठस्थ करनेवाले ऋषभकुमार बिपीनभाई महेता (उपरोक्त) (५) नवकार महामंत्र को सिद्ध करनेवाले लालुभा मफाजी वाघेला . (मु. ट्रेन्ट, जि. विरमगाम - गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग १, दृष्टांत नं. ३) Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 --------------------------------------------------------------------------  Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१) श्री वर्धमान आयंबिल तप, अठ्ठाई, अठ्ठम आदि के तपस्वी महाराष्ट्रीयन पेईन्टर श्री बाबुभाई राठोड़ ( मणिनगर - गुजरात ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १ दृष्टांत नं २९) (२) ६४ प्रहरी पौषध के साथ अठ्ठाई तप, वर्धमान तप, केशलोचन आदिके विशिष्ट आराधक श्री कांयाभाई लाखाभाई माहेश्वरी - हरिजन (कच्छ-बिदडा) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १ दृष्टांत नं. १५) (३) अठ्ठाई तप, प्रतिक्रमण, चैत्यवंदन, व्याख्यान श्रवण आदि के आराधक सेवाभावी, स्वातंत्र्यसेनानी, वैद्यराज अनुप्रसादभाई (नाई ) ( मणिनगर - गुजरात ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १ दृष्टांत नं. २६) (४) सेलूनमें भी सुदेव - सुगुरु की तस्वीरें रखनेवाले, उपाश्रयमें शयन करनेवाले, विशिष्ट आराधक श्री पुरुषोत्तमभाई पारेख (नाई ) ( साबरमती - गुजरात ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १, दृष्टांत नं. १३) (५) सुदेव - सुगुरू - सुधर्मके प्रति अटूट आस्था रखनेवाले, विशिष्ट नवकार आराधक, भूतपूर्व सरपंच श्री बहादूरसिंहजी जाडेजा (राजपूत) ( कच्छ मोटा आसंबीआ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १, दृष्टांत नं. ३९) * (१) पौषधके साथ १६ उपवास के तपस्वी, सामायिक एवं नवकार के आराधक, सप्त व्यसनत्यागी डॉ. खान महमदभाई कादरी ( पठाणमुस्लिम) (अहमदाबाद - गुजरात ) अपनी बेटी के साथ ( बहुरना वसुंधरा भाग - १, दृष्टांत नं. ८) (२) धर्मपत्नी एवं २ सुपुत्रों को दीक्षा दिलाकर स्वयं जीवदया के सत्कार्यों में पूर्ण समर्पित, अशोकभाई जीवदयावाले (पूना - महाराष्ट्र) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १३३) (३) नित्य एकाशन, श्रेणितप, सिद्धितप आदि के तपस्वी, मिष्टान्न - फूट-दूधघी आदिके आजीवन त्यागी, रसनेन्द्रिय विजेता, श्री छोटुभाई मश्करीया (सुदामड़ा - सौराष्ट्र), (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १३६ ) (४) श्रावकों के सत्संगसे सपरिवार जैन धर्म का पालन करते हुए श्री बाबुभाई जवरचंदजी ( जुलाहा - बुनकर ) ( कुक्षी - मध्यप्रदेश) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १ दृष्टांत नं. २७) (५) साधु-साध्वीजी भगवंतों की अनुमोदनीय वैयावच्च करनेवाले मूळजीभाई मास्तर (हरिजन) (देवकी वणसोल - गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - १, दृष्टांत नं. ३२) 15 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय . (१) नित्य जिनपूजा, उभयकाल प्रतिक्रमण, ९९ यात्रा, ४५ ओली, केशलोच आदिके विशिष्ट आराधक, बेजोड़ साधर्मिक भक्त, श्री लक्ष्मणभाई (नाई) (जोधपुर - राजस्थान) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ७) (२) पिछले १८ वर्षों से ५१ उपवास, १०८ उपवास आदिके महातपस्वी श्री भीखाभाई कचराभाई दरजी (अहमदाबाद - गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ५१) (३) १० बार अठ्ठाई तप के तपस्वी, साधु-साध्वीजी वैयावच्चकारी, श्री सुरेशभाई अंबालाल पारेख (नाई) (नार-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ५०) (४) विरोध होते हुए भी जैन धर्म का अडिगतासे पालन करनेवाले श्री रिजुमलजी नथमलजी खत्री (निवृत्त पोलीस) (बाड़मेर-राजस्थान) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. २०) (५) प्रतिदिन सपरिवार २ घंटे तक जिनभक्ति करनेवाले, अनन्य नवकार प्रेमी सुपात्रदानकारी, श्री रसीकभाई जनसारी (मोची) (पाटणगुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ९) । (१) मासक्षमण आदि तपश्चर्या करनेवाले श्री सुखाभाई पटेल (धोलेरा गुजरात), (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ३६) (२) स्वप्नमें आचार्य भगवंत के दर्शन से जीवन परिवर्तन को हांसिल करनेवाले श्री अमृतलालभाई राजगोर (ब्राह्मण) (वालवोड़-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. २२) (३) मासक्षमण के तपस्वी एवं जिनबिम्ब भरानेवाले श्री भाणजीभाई प्रजापति (थानगढ - सौराष्ट्र) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ५४) (४) ६४ प्रहरी पौषधके साथ १६ उपवास, अठ्ठाई तप, आयंबिल आदि के आराधक श्री गजराजभाई मंडराइ (मोची) (डोंबीवली-मुंबई) " (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. १८) (५) धोबीका व्यवसाय करते हुए भी पर्वतिथियों में कपड़े नहीं धोनेवाले श्री रामजीभाई धोबी (कोठ-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ३०) (६) मासक्षमण आदि के तपस्वी, चतुर्थव्रतधारी मोहनभाई (मोची) (गढडा-स्वामीनारायणवाला) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ५३) (16 Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१-३) कंदमूल भक्षण एवं कंदमूलकी खेती के भी त्यागी, जैन धर्म के पालक श्री भाणाभाई परमार (हरिजन) एवं उनकी धर्मपत्नी मोंघीबेन एवं मोंधीबेन के भाई मावजीभाई भगत । दोनों भाई बहनोंने इस अनुमोदना समारोह के पश्चात् पुनः शंखेश्वरमें आकर प.पू.आ.भ. श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें उपधान तप भी किया !... (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ८५) (प्रागपुर - कच्छ वागड़) (४) जिनपूजा, प्रतिक्रमण, उपवास, आयंबिल आदि के आराधक, हांसबाई मा (खवास-मुस्लिम) (कच्छ-मोटी खाखर) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ८३) विशिष्ट संवेग (तीव्र मोक्षाभिलाष) एवं निर्वेद (सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य) से संपन्न रेखाबेन मिस्त्री (गांधीधाम-कच्छ) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ८६) ... कंदमूलभक्षण एवं कंदमूल की खेतीमें भी अत्यंत पाप समझकर उनके त्यागी बनकर, नित्य चौविहार, जिनदर्शन एवं नवकार महामंत्र का स्मरण करनेवाले हरिजन बेचर आला एवं उनकी धर्मपत्नी । दोनों भव्यात्माओं ने अनुमोदना समारोह के पश्चात् पुनः शंखेश्वर तीर्थ में आकर महातपस्वी प.पू.आ.भ. श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रामें उपरोक्त मोंघीबेन एवं मावजीभाई के साथ उपधान तप अत्यंत आनंद एवं अहोभावके साथ परिपूर्ण किया । भविष्य में शत्रुजय महातीर्थ की ९९ यात्रा एवं छ'री' पालक संघमें चलकर तीर्थयात्रा करने की भावना भी रखते हैं । (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ८५) -(17 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१-२) एक ही वर्षमें श्री शत्रुजय-गिरनारजी एवं समेतशिखरजी की ९९ यात्रा करनेवाले, १०८ अठुम, श्रेणितप, सिद्धितप, १९ बार ९९ यात्रा अठ्ठम के साथ ९९ यात्रा आदिके विशिष्ट आराधक दंपती श्रीमती बचुबेन एवं टोकरशीभाई (कच्छ लायजा, हाल गोरेगाँव - मुंबई) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. ११२) (३) बिना पैसे एवं बिना दवाई, हड्डी आदिके हजारों दर्दीओं के असाध्य एवं दुःसाध्य दर्दो को दूर करनेवाले रतिलालभाई पनपारिया (कच्छ-नाग्रेचा, ___ हाल बडौदा-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १००) (४) श्री ऋषिमंडल स्तोत्रको सिद्ध करनेवाले विशिष्ट साधक श्री कांतिलालभाई के. संघवी (सुरेन्द्रनगर-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. ९८) (५) ११ करोड़ नवकार महामंत्र के आराधक श्री प्राणलालभाई लवजी शाह (धांगध्रा - सौराष्ट्र) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. ९७) (१) वर्धमान तपकी १४७ ओलि के तपस्वी बचपन से प्रज्ञाचक्षु होते हुओ भी नित्य जिनपूजाकारी, ६ कर्मग्रंथ सार्थके अध्यापक पंडितवर्य श्री मोतीलालभाई | ___(समी - उ.गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १२३) (२) श्री शत्रुजय महातीर्थ की ४ बार ९९ यात्रा करनेवाले सुश्रावक श्री रतिलालभाई सेठ (पालिताना (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १०६) (३) युवान डोक्टर होते हुए भी बेलगाम जिले में आराधनामें प्रथम नंबर डॉ. अजितभाई दीवाणी (निपाणी - कर्णाटक) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १४०) (४) प्रतिवर्ष सेंकडो बकरों की सामूहिक बलिकी कु प्रथा को बंध करानेवाले जीवदयाप्रेमी स्व. सुश्रावक श्री सुमतिभाई राजाराम शाह के सुपुत्र सुरेशभाई (निपाणी-कर्णाटक) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १३१) (५) १० वर्ष की बाल्यावस्था से लेकर आज ३८ सालकी उम्र तक लगातार प्रति पर्युषणमें अठाई तप करनेवाले युवाश्रावक (किरणभाई वेरसी गडा (कच्छ-चीआसर, हाल वडाला मुंबई (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १२५) Page #36 --------------------------------------------------------------------------  Page #37 --------------------------------------------------------------------------  Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१) वर्धमान आयंबिल तप की १०० ओलीके विशिष्ट आराधक श्री जगदीशभाई केशवलाल पारेख ( जूनागढ) सौराष्ट्र) (भाग-२, दृष्टांत नं. १३८) (२) वर्धमान तपकी १०० ओलीके तपस्वी अशोकभाई आंगीवाला (कांदीवली-मुंबई) भाग - २, दृष्टांत नं. १३८) (३) वर्धमान तपकी (१०० + ४६), ओलीके विशिष्ट आराधक श्री झवेरचंदभाई मोतीचंद झवेरी (बोरीवली-मुंबई) (भाग-२, दृष्टांत नं. १३८ ) (४) वर्धमान तपकी १०० ओलीके आराधक (५) अगर किसी दिन एक भी जीवको कसाइओं के पाससे छुडाकर पांजरापोलमें स्थापित न कर सकें तो दूसरे दिन उपवास करने का संकल्प करनेवाले विशिष्ट जीवदयाप्रेमी सुश्रावक श्री बापुलालभाई मोहनलाल शाह (चीमनगढ -उत्तर गुजरात ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १३२) (६) वर्धमान तपकी ४६ ओली आदिके विशिष्ट आराधक सोलीसीटर श्री हरखचंदभाई कुंवरजी गडा (कच्छ बाडा, हाल वरली - मुंबई) * (१) विशिष्ट जीवदया प्रेमी अशोकभाई (पूना - महाराष्ट्र) (भाग-२, दृष्टांत नं. १३३) (२) १०८ उपवास आदि के महातपस्वी स्व. पंडित श्री नरेशभाई लालजी शाह (कच्छ - गुंदाला, हाल विक्रोली-मुंबई) के सुपुत्र ( भाग - २, दृष्टांत १३७) (३) सरकारी अन्जिनीयर होते हुए भी एक भी रूपये की रिश्वत न लेनेवाले नीतिमान सुश्रावक श्री शांतिलालभाई शाह (अहमदाबादगुजरात ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १३५ ) (४) स्थानकवासी होते हुए भी १०८ बार मुंबई से पालीताना की यात्रा करनेवाले, साधु-साध्वीजी एवं मुमुक्षुओं आदिको निःशुक्ल अध्ययन करानेवाले, विशिष्ट तपस्वी, आदर्श शिक्षक श्री जसवंतभाई दफ्तरी (मलाड - मुंबई ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १३४ ) (५) प्रतिष्ठा, अंजनशलाका एवं विविध महापूजनों के सुविशुद्ध शास्त्रानुसारी विधिविधान करानेवाले आदर्श निःस्पृह विधिकार श्री बंकीमचंद्रभाई केशवजी शाह (शायन - मुंबई भाग-२, दृष्टांत नं. १२४ ) (६) ७ सालकी उम्र में अठ्ठाई तप करनेवाला तपस्वी बालश्रावक सौरभकुमार सतीशभाई शाह ( साबरमती - गुजरात ) ( भाग - २, दृष्टांत नं. १२५ ) 19 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१) हजारों अबोल जीवों को कसाइओं के पंजे से छुड़ाकर पांजरापोल में भेजनेवाले... और आखिर कसाइओं के हाथों से ही शहादत को संप्राप्त अहिंसा की देवी गीताबहन रांभिया के जीवदया के अधूरे कार्यों को आगे बढानेवाले उनके जीवनसाथी श्री बचुभाई रोभिया (कच्छ रामाणिआ, हाल अहमदाबाद) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १७४) (२) कविरत्न पू. मुनि श्री मणिप्रभविजयजी म.सा. (प.पू.आ.श्री विजय नीतिसूरिजी म.सा. के समुदाय के) (१) सुरेन्द्रनगर से शंखेश्वर महातीर्थ का छ'री' पालक संघ निकालने वाले, अटलास अन्जिनीयरींग कुं. के मालिक संघवी श्री कांतिलालभाई अन. पीठवा (लोहार) (सुरेनद्रनगर-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ३१) (२) प्रतिदिन १-१ घंटे सुबह शाम जिनमंदिर में खड़े खड़े एकाग्र चित्तसे श्री नवकार महामंत्र का जप एवं विशिष्ट जिनभक्ति करते हुए साधक श्री जसभाई पटेल (नडीआद-गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ६१) Page #40 --------------------------------------------------------------------------  Page #41 --------------------------------------------------------------------------  Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय प्रतिदिन १०८ लोगस्स, १०८ उवसग्गहरं स्तोत्र, १०८ नवकार, जिनपूजा, नवकारसी-चौविहार, सामायिक आदि आराधना करनेवाली महाराष्ट्रीयन बालिका कु. मीनाबहन (उ. व. १५) एवं उसके संस्कारदाता, पालक माता-पिता पुष्पाबहन एवं जगजीवनभाई शाह इत्यादि । (शायन-मुंबई) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१ दृष्टांत नं. ७९) (१) १६ उपवास के पारणे १६ उपवास (सोलहभत्ता) से वर्षीतप एवं अछाई के पारणे अाई से वर्षीतप, १०८ उपवास आदि के महातपस्वी सुश्राविका श्री सरस्वतीबेन जसवंतलाल कापड़िया (कतारगाम (सुरत) गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १६७) (२) बचपन से असाध्य बीमारी से ग्रस्त होते हुए भी पंचप्रतिक्रमण, ४ प्रकरण, ३ भाष्य, ६ कर्मग्रंथ, तत्त्वार्थसूत्र, संस्कृत-प्राकृत बुक आदिके अभ्यासी एवं धार्मिक पाठशाला के अध्यापिका कु. मयणाबेन विलासभाई शाह (बारामती महाराष्ट्र) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १८२) (३) करोड़ नवकार के आराधक, नि:स्पृह विधिकार श्री केशवजीभाई धारसी गडा (कच्छ-रायघणजार, हाल मुलुंडमुंबई) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२, दृष्टांत नं. १२४) 21 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय लगातार १८० उपवास (वि.सं. २०४९) में !... अठ्ठम के पारणेमें गेहूँ की अलूनी रोटी और गरम पानी से वर्षीतप !... प्रत्येक पारणेमें केवल एक ही दाने से आयंबिल द्वारा सिद्धितप !... सिद्धिवधूकंठाभरण तप (पारणों में एक दानेका आयंबिल ) !... ६८ उपवास, वर्धमान तपकी ३६ ओली... एक ही धान्यकी नवपदजी की ११ ओली... एक ही दानेसे नवपदजी की ९ ओली... उपवास के पारणेमें आयंबिल से वर्षीतप, चौविहार २१ एवं १५ उपवास !... निरंतर १७५ उपवास ! १२४ उपवास एक ही द्रव्य से ठाम चौविहार ५०० आयंबिल इत्यादि अनेक घोर वीर और दीप्त तप के देदीप्यमान तपस्वीरत्न सुश्राविका श्री विमलाबाई वीरचंद पारेख ( फलोदी राजस्थान - हाल मद्रास) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २ दृष्टांत नं. १६४) का बहुमान अत्यंत भाव विभोर मुद्रामें करते हुए रत्नकुक्षी आदर्श श्राविका रत्न श्री पानबाई रायसी गाला ( कच्छ-चांगडाईवाला) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २ दृष्टांत नं. १७३) प्रस्तुत पुस्तक के संपादक के संसारी मातुश्री ! यह तस्वीर विमलाबाई के ९० वें उपवास दिन की है !!!... अठ्ठम के पारणेमें अठ्ठम ( निरंतर अठ्ठम तप) करते हुने ७ बार छ'री' पालक संघों द्वारा तीर्थयात्रा करनेवाले...! • दो बार मासक्षमण के २० दिन तक छ'री पालक संघोंमें पैदल चलकर तीर्थयात्रा करने वाले...! १७० से अधिक अठ्ठाई तप एवं २८० से अधिक अठ्ठम तप करनेवाले २ बार श्रेणितप, २ बार सिद्धितप, १४ वर्षीतप, ४ बार १६ उपवास ५ बार १५ उपवास, ४ मासक्षमण, ४ बार समवरण तप... २ बार भद्र तप, बीस स्थानक तप, ३ उपधान, इत्यादि अनेक घोर-वीर एवं दीप्त तपके देदीप्यमान तपस्वीरत्न सुश्राविका श्री कंचनबेन गणेशमलजी लामगोता ( खीमाड़ा - राजस्थान हाल मुंबई ) ( भाग - २ दृष्टांत नं. १६५) का बहुमान करते हुए तपस्वी सुश्राविका श्री कस्तूरबेन कुंवरजीभाई → • ( बाबुभाई ) गड़ा (कस्तूरबेन के नामसे ही प्रस्तुत पुस्तकके प्रकाशक श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्टकी स्थापना हुई हैं) बहुमान के दिन निरंतर ६ महिनों से कंचनबेन के ८ उपवास चालु थे । 22 Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय बहुरत्ना वसुंधरा (भाग-१ से ४ संयुक्त) ग्रंथ का विमोचन करनेवाले, श्री अखिल भारत अचलगच्छ जैन संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स आदि अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष/ ट्रस्टी माननीय अतिथि विशेष श्री किशोरचंद्रजी वर्धन (भीनमालराजस्थान) का बहुमान करते हुए... श्री गुणीजन भक्ति ट्रस्ट के दोनों मेनेजिंग ट्रस्टी (१) श्री हसमुखभाई शांतिलाल शाह (दाहिनी ओर) और (२) श्री नारायणभाई महेता (बायीं ओर) * प्रस्तुत अनुमोदना बहुमान समारोह में सहयोग देनेवाले श्री जीवणदास गोड़ीदास पेढी-शंखेश्वर तीर्थ के मेनेजर श्री गोकुलभाई शाह का बहुमान करते हुए श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टी, तपस्वी सोलीसीटर श्री हरखचंदभाई कुंवरजी गडा 23 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१) हजारों अबोल जीवों को कंसाइओं के क्रूर पंजे से छुड़ाकर, पांजरापोल में भिजवाकर बचानेवाले... और आखिरमें कसाइओं के हाथों से शहादत को संप्राप्त ' अहिंसा की देवी' गीताबेन बचुभाई रांभिया (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १७४) (२) 'अहिंसा की देवी' स्व. गीताबेन रांभिया के जीवदया के मिशन को आगे बढाते हुए, गीताबेन के जीवनसाथी श्री बचुभाई रांभिया (कच्छ - रामाणिआ / हाल अहमदाबाद ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १७४ ) (३) १०८ अठ्ठाई तप, १०८ अठ्ठम तप, २२९ छठ्ठ तप इत्यादि अनेकविध तपश्चर्या के महा तपस्वी सुश्राविका श्री कमलाबेन घेवरचंदजी कटारिया (खार - मुंबई ) ( बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १७१) (४) १० सालमें ७५ हजार कि.मी. के प्रवास द्वारा भारतभर के जैन तीर्थों की पदयात्रा करनेवाले श्री रामदयालजी नेमिचंदजी जैन (भरतपुर - राजस्थान) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग - २, दृष्टांत नं. १०५ ) 24 Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म.पूतपस्वासबाट१४०००आयासार कगुरुवाआ.भावजय राजात Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वीर परिचय (१) वर्धमान आयंबिल तपकी विश्वविक्रम रूप तपश्चर्या २८९ (१०० + १०० + ८९) ओली के आराधक तपस्वी सम्राट, प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-३, दृष्टांत नं. १८४) | (२) बुढापे में साधना का प्रारंभ करके विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियों को प्राप्त करनेवाले आत्म साधक श्री खीमजीभाई वालजी वोरा (कच्छ-नारायणपुर । हाल मुंबई-वसई) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२ दृष्टांत नं. ९१) (३) नवकार महामंत्र को सिद्ध करनेवाले श्री लालुभा मफाजी वाघेला (ट्रेन्ट - गुजरात) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ३) (४) जैन धर्मकी आराधना एवं माता की सेवा के लिए अविवाहित रहते हुए, तपस्वी, बाल ब्रह्मचारी, सरदारजी गुरु मोहिन्दरसिंहजी (पप्पुभाई अरोरा) (खड़की, पूना-महाराष्ट्र) (बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. २१) (५) अनेक बच्चों को व्यावहारिक अध्ययन के साथ धार्मिक अध्ययन कराते हुए दिलीपभाई बी. मालवीया (लोहार) (पिंडवाडा-राजस्थान) बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१, दृष्टांत नं. ६८) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकम् .... प्रशंसनाच प्रस्तुतकर्ता : गच्छाधिपति पं. पू. आ. श्री जयघोष सूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य मुनि जयदर्शन वि. म.सा. । __जलका सदुपयोग जीवन दे सकता है जब कि दुरूपयोग जीवन ले सकती है । अग्नि पेट की भूख बुझा सकता है तो जलने वाले को भी मार दे सकती है। काले कौओ की कर्कश आवाज है तो गंदगी की सफाई की कुशलता भी। गद्धे का भूकना भैरवता है तो भार उठाना गुणवत्ता है । वैसे ही दुनिया में बहुत कुछ NEGATIVE ISSUES हैं जिससे ही तो POSITIVES की कीमत बढ़ जाती है। __इस प्रकार से दोषेषु गुण संशोधन की प्रकृति ही गुणानुरागी बनाती है, जिसके विरूद्ध दोषदृष्टि अच्छे गुणवानों की भी अनुमोदना रोककर असूयावश निंदादि दुष्कर्म में प्रेरित करती है। तभी तो उक्ति है' गुणिषु दोषाविष्करणं हि असूया' । दुनिया में एक भी जड़ या जीव पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें छोटा-मोटा कोई गुणन हो । हम जैसी दृष्टि रखते हैं, सृष्टि भी वैसी ही लगती है । लाल चश्मा पहनने वाले को सफेद वस्तु भी तो लाल ही लगती है न ? जो भी हो, किन्तु यह निश्चित है कि यदि जिनशासन जैसा कठोर सा अनुशासन नहीं होता तो जीव की स्वतंत्रता सभर मुक्ति दशा तो दूर, किन्तु व्यवहार में भी स्वच्छंदता ही होती । संयम के व्रत-नियम का ही तो प्रभाव है कि स्वर्ग से लेकर अपवर्ग के सुख की संप्राप्ति भी है । दुर्योधन को काँटे ही काँटे दिखते हैं जब कि सुयोधन की नजर गुलाब की ओर रहती है । नजर-नजर में ही फर्क के कारण से ही तो संसार की विषमता है न ? क्यों हम भी सर्वज्ञ द्वारा प्रदत्ता गुण दृष्टि का माध्यम स्वीकृत कर स्वयं भी गुणवान बन जाने से चूकें ? प्रस्तुत पुस्तिका ऐसे ही जनसमुदाय की सत्य कहानियां हैं जिनको कुदरत ने जगतश्रेष्ठ जिनधर्म से जन्मतया दूर रखने को चाहा किन्तु वे लोग छोटे-मोटे निमित्त के -26 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोपान ग्रहण कर जन- सज्जन की ऊँचाई से ऊपर उठ जैन बन गये और जिन्होंने जीवन को धर्म का उपवन बनाना मानो ठान लिया है। दो सागरोपम की विशाल आयु स्थिति धारण करने वाला देव भले ही सिर्फ एक मास में एक ही बार श्वासोच्छवास से जीवन जी लेता हो, या फिर उसकी भूख भले ही दो हजार वर्ष की लंबी अवधि के अंतर खुलती हो, ज्ञानी की दृष्टि में वैसे निराले जीवन की कीमत कुछ भी नहीं, क्योंकि देव के पास धर्म पुरूषार्थ नहीं है । वैसे ही मनुष्यावतारी युगलिक देवउत्तरकुरू में भले ही सिर्फ ४८ दिनों में तो युवावस्था प्राप्त कर तीन पल्योपम (असंख्य वर्ष) की अवधि तक महामानव सी उपमा युक्त निरोगी जीवन जी लें किन्तु वहाँ धर्म मार्ग ही नहीं है, जिससे मोक्ष मार्ग भी महीं, वैसी भौतिक अवस्था की कीमत भी ज्ञानियों ने नहीं की है I बस इसीलिये ही सर्वोच्च जैन धर्म को भाग्य से नहीं तो पुरूषार्थ से प्राप्त कर मोक्ष मार्ग के प्रति कदम चलाने वाले इस पुस्तक के सत्य-पात्रों के प्रारब्ध की प्रशंसा करें कि पुरूषार्थ की ? हिन्दुस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में पाद- विचरण द्वारा स्वयं निरीक्षित एवं अन्य से प्राप्त BIO-DETA आदि के आधार पर श्रमसाध्य यह पुस्तक गुजराती के बाद हिन्दी में प्रकाशित कर राष्ट्रभाषा प्रेमी तक प्रेरणा का स्रोत बहाना शायद धैर्य- स्थैर्य सिद्ध करने वाले पू. गणिवर्य श्री महोदय सागरजी म.सा. ही कर सकते थे । पुस्तक के सत्य उदाहरण भले ही अजैन जैन को प्रकाश में ला रहे हैं, किन्तु उनको पढ़कर जन्मत: जैन को भी शरमिंदा होना पड़े या अपने को अंधकार में पड़ा महसूस करना पड़े तो आश्चर्य नहीं । पुरूषों की ७२ कलाओं में एक कला है ईषदर्थ कला, जिससे अल्प आधार पर अनल्प को प्राप्त किया जा सकता है । वैसे ही सिर्फ अनुमोदना की सफल कला जिसे हाँसिल हो जाय उसे सकल कला का सार मिल जाता है, क्योंकि वह भी करण - करावण जितना ही आत्मिक लाभ अनुमोदना के अनुसरण द्वारा प्राप्त कर सकता है । किन्तु यह अनुमोदना भी वीतराग - सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध धर्म के पादयात्री की करने से लाभ है, अन्यथा वीतरागी प्रभु वीरने भी गलती से 'यहाँ भी धर्म है, वहाँ भी है' जैसे वाक्य द्वारा अप्रशस्त धर्म की 27 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमोदना से स्वयं का संसार एक कोय कोटि सागरोपम जितना बढ़ा दिया जिसमें अनेक क्षुल्लक भवों की वृद्धि हो गयी और मुख्य २७ भवों में एकबार सिंहावतार और दो बार नरक भी दुःख-दुविधा रूप प्राप्त हो गयी । ४५ लाख योजन के विराट समयक्षेत्र में मनुष्य संख्या २९ अंक तक जाती है, जिसमें जैन धर्म प्रेमी तो समुद्र-बिन्दु संख्या में परिमित हैं । रत्नपुंज जैसे अत्यल्प श्रीसंघ पर बहुमान रखने वाला अनुमोदना के अवसर को क्यों चूके ? निमित्त शास्त्र आठ प्रकार के हैं, जिसमें से लक्षणशास्त्र का ज्ञाता मुखादि की आकृति से ही जान सकता है कि किसकी नींव धर्म भूमि में कितनी गहरी है । भवाभिनंदी-पुद्गलानंदी जीवों की संख्या संख्यातीत होती है, जिसमें से भवभीरू आत्मानंदी जीवों के लक्षण अनूठे होते हैं, वैसे जीवात्मा जहाँ भी हो जैसी भी अवस्था में हो जैन मार्गी क्रियाओं के प्रेमी बनकर धर्म पुरूषार्थ द्वारा प्रकाशित होकर प्रशस्ति पात्र ही बनते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष रात्रि में भी सूर्य प्रकाश सी रौशनी देते हैं, वैसे ही धर्मी आत्मा जीवन से तो स्वप्रकाशित होते ही हैं, साथ-साथ मृत्यु के बाद भी उनका आदर्श प्रकाश अनेकों के जीवन का पथप्रदर्शक बनता है। प्रभु वीर के सभी गणधर जन्म से तो अजैन ही थे न ? अनेक शास्त्रों के रचयिता परमात्म-शासन की श्रृंखला बनने वाले शय्यंभवसूरि जैसे आचार्य ब्ग्रह्मण में से ही तो श्रमण बने थे । वैसे ही साधु दान से महान विभूति तीर्थपति आदिनाथ का जीव प्रथम भव में जैन मार्ग का अनजान ही था न ? हरिजन-से क्षुल्लक कुल से हरिकेशी मुनिराज बनना, खूनी से मुनि बनने वाला अर्जुनमाली, घोर हत्यारे दढप्रहारी का अणगारी बनना, भूख के दुःख दमन हेतु भिखारी से अणगारी बन कर राजा संप्रति बन जाना, देवपाल गोपाल द्वारा प्रभ भक्ति से ही तीर्थंकर नाम कर्म की उपार्जना या शराब छोड़कर देवता बनने वाले के उदाहरण इसी हकीकत के साक्षी बनते हैं न ? कि जैन धर्म कितना उदार है कि इसमें आने वाले पापी भी पुण्यात्मा, महात्मा तो ठीक किन्तु परमात्मा तक बन गये हैं। -(28) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जाने विद्वत्ता के गुमान में भी भद्रिकता गुणधारी अजैन हरिभद्र को मिला मार्ग, ज्ञानमार्ग का दिया बना दे । अरे कोशा वेश्या को भी श्राविका बना दे ।। शायद सभी को शासनरागी बनाने हेतु ही सारंग श्रेष्ठी सिर्फ नमस्कार महामंत्र बोलने वाले की अनुमोदना हेतु सुवर्ण की झोली लेकर फिरते थे और नवकार प्रेमी को नमस्कार कर एक सुवर्णमुद्रा देकर प्रोत्साहित करते थे । मंत्रीश्वर पेथड़ की धर्मपत्नी भी जिनालय के दर्शन हेतु जाते वक्त नित्य सवा शेर सुवर्ण दान देकर सामान्य जन में भी धर्मप्रीति का वपन करती थी। जब महाजन वर्ग भी अनुमोदना द्वारा अनेकों को महाजन बना सकते हैं, स्वयं का भी कल्याण कर सकते हैं तब अत्यंत अल्प मूल्य दान द्वारा मूल्यवान सार्वभौमिक प्रगति पाने की सरल राह-अनुमोदना को दिल देकर करने में कृपणता हम भी क्यों रखें ? । गुणवानों की इर्ष्या करने वाला तो स्वयं कितना ही महान क्यों न हो, असूया से महापतन पाता है । स्वयं के शिष्य की इर्ष्या कर आचार्य नयशीलसूरि मरकर सर्प ही बने हैं न ? शोक्य की प्रगति न देख सकने वाली महाशतक की पत्नी रेवती मरकर छट्टी नरक में चली गई है ! जब कि ऋषभदेवादि तीर्थंकरों की आहार भक्ति से अनुमोदना करने वाले जैन अजैन श्रेयांस-सोमदत्त इत्यादि सभी या तो उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर गये हैं या फिर आगामी भव में जाने वाले हैं। पुरोहित पुत्र देवभद्र-यशोभद्र भी परगुण स्वदोष दर्शन से प्राप्त चित्त निर्मलता से वृक्ष पर बैठे-बैठे जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त कर गये है। कहा भी तो है न कि. "परगुणगहणं छंदाणुवत्तणं हिअमकक्कसं वयणं' निच्चं-सदोसगहणं, अमंतमूलं वसीकरणं । रूपवान स्त्री की मुनिभक्ति एवं मुनिराज की निःस्पृहता की मन से अनुमोदना करके इलाचीकुमार जैसा नट भवनाटक को अंत करनेवाला -(29) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवली बन गया, सोमिल श्वसुर द्वारा मस्तक पर अंगार रखे जाने पर भी अपने कर्मों का दोष देखने से और कर्मक्षय को त्वरित करने में श्वसुर को उपकारी मानने से सिर्फ एक दिन के चारित्र में ही गजसुकुमाल ने तो वीतराग पद प्राप्त कर लिया था। वैसे ही वचन समाधि द्वारा गौतमस्वामीने अपने अनेक शिष्यों को कैवल्य ज्ञान प्राप्त करवा दिया । ऐसे तो अनेक उदाहरण हैं जिससे सामान्य गुण बीज उपबृंहणा का सिंचन प्राप्त कर असामान्य गुणवृक्ष बन गये । ASPIRATION IS THE BEST WAY OF INSPIRIRATION OF MERITUAL OUTCOME, MORAL UPLIFTMENT AND MERRY ORIENTATION OF ANY ONE. EVEN ACKNOWLEDGEMENT OF SOME ONE'S GOOD WORK IS ALSO THE WAY OF APPRAIJAL, WHICH RESULTS INTO PREACH WITHOUT SPEECH F. R. CHARACTORISATION. अनुमोदना सिर्फ शाब्दिक नहीं; किन्तु मानसिक भी होती है। इसलिये वचन और मनगुप्ति भी जरूरी है । उत्तम द्रव्य उत्तमपात्र को बहोराने के बाद अननुमोदना द्वारा मम्मण शेठ कर्मो से बोझिल बना। सिर्फ अक्षत के मान जितना छोटा मत्स्य विराट मच्छ की आँखों के ऊर्ध्व स्थान पर बैठकर पाप कर्म की अनुमोदना से अल्पतम आयुकाल में कर्मों से भारी बन कर नरक का भागी बन जाता है। 'सर्व सत्त्वेषु सौहृदम्' का सिद्धांत जीवन के अंत तक जीवित रहे तभी प्रमोद भावना खिल सकती है । और तभी ही हर कोई जीव की हर प्रवृत्ति में कोई न कोई गुण विशेष का दर्शन हो सकता है । पर वैसी दृष्टि का विकास होना और जीव का ६७ गुण ठाने पर रहना वह तो योग मार्ग की साधना है, तब तक तो सिर्फ इतना ही जरूर है कि जीव जब तक वैसी उदात्त भावना का भागी नहीं बनता है तब तक कमसे कम पर निंदा के पापों से तो बचा ही रहे । क्यों कि... ___ "EVERY DARK CLOUD HAS SILVER BORDER" 300 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगम अर्थ अनुमोदना का अ - अनुमोदना= प्रमोद भावना की प्रस्तुति, किसी के गुणों के दर्शन से मनमें प्रथम मोद हो, फिर प्रमोद और वही मोदना जब गुणों के अनुसरण हेतु, प्रयत्नशील बने, तब जो सर्जन होता है उसे कहते हैं अनुमोदना । नु - नुकशानी शून्य शून्य शून्य [०००] जब कि लाभ पूर्ण पूर्ण पूर्ण । ऐसी सिद्धि संप्राप्त हो जाय तो कौन व्यापारी लाभ न लूटे ? इसीलिये तो गुण और गुणीजन की अनुमोदना लाभ लाभ और लाभ मो - मोक्षका मोदक तभी मिजबानी में मिले जब मोह और स्वार्थ के संसार से पर, व्यामोह के बिना, निःस्वार्थ भाव से साधर्मिक की प्रगति देखकर आत्मा हर्षित हो जाय, प्रशंसा करे, वात्सल्य करे और प्रोत्साहन भी प्रदान करे । द - "दंसण भट्ठो भट्ठो' - इसीलिये दर्शन समकित शुद्धि प्रथमावश्यक है । उपाय है, अन्य के सुकृत की उपबृंहणा-अनुमोदना ।। करण, करावण और अनुमोदन, तीनों समफल की प्राप्ति प्रदान करने में समर्थ हैं । चलिये हम भी अनुमोदना करें और प्रेरणा लें । ना - नाशवंत जगत में शाश्वत यदि कुछ भी है तो वह है धर्म और धर्मी जन की प्रीति की नीति । यह रीति नास्तिक को भी आस्तिक बनाने में सफला है । अभिनंदन युक्त अभिवंदन हो, अनुमोदन के पवित्र पथिक को । अनुमोदन गीत - (राग-आ तो लाखेणी आंगी कहेघाय) गुण उपवन के पुष्प सुहाय, पुष्प हैं रंग रंग के । सुगंधी से गुणी हर्षित हो जाय, प्रेमी जो सत्संग के । (१) कोई दानी स्वमानी इस भूतलपर, -31) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवंत-गुणवंत हुए कई अमर । वसुंधरा भी गौरव पाय.... पुष्प हैं रंग रंग के । (२) कोई तपस्वी त्यागी है आजीवन भर, ज्ञानी ध्यानी और मौनी कोई प्रवर । रत्नों का आकर कहाय... पुष्प हैं... (३) सच्ची स्पर्शना की है भावधर्म की, परभाव त्याग अध्यात्म मर्म की । अंतर्मुखी भी वही हो जाय.... पुष्प हैं... (४) जिनशासन-प्रणेता, जिनेश्वर प्रभु। महा उपवन के सिंचक, रक्षक विभू । उनकी कृपा के पात्र बन जाय... पुष्प हैं... (५) महोदयसागरजी का है विशाल दिल, मुनि जयदर्शन वि. भी उनसे हिलमिल । गुरू गौरव की शान बढाय... पुष्प हैं... 132 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा रुकिए... पढिए... और फिर आगे बढिए । (संपादकीय) वि. सं. २०४८-४९में हमको चातुर्मास में और गुजरात में विहारके दौरान, जन्मसे अजैन लेकिन आचरण से विशिष्ट जैन हों ऐसे कुछ आराधक-रत्नों का परिचय होता रहा । जिनको याद करने से अहोभाव उत्पन्न होता है और जिनका जीवन अनेक आत्माओं के लिए अत्यंत प्रेरणादायक है ऐसे उपरोक्त प्रकार के आराधकरत्नोंके अर्वाचीन दृष्टांत प्रवचनादिमें भी अत्यंत असरकारक होने से उनका संक्षिप्त विवरण डायरीमें लिखने का प्रारंभ किया । गृहस्थ होते हुए भी करीब साधु जैसा जीवन जीनेवाले उत्तम आराधक श्रावकोंके भी अहोभाव प्रेरक दृष्टांत मिलने लगे, उनका भी संकलन होने लगा। चतुर्थ आरे के या महाविदेह क्षेत्र के महापुरुषों की याद दिलानेवाले उच्च संयम जीवन जीनेवाले मुनिवरों का भी परिचय हुआ। मार्गानुसारिता की भूमिका में रहे हुए कुछ आत्माओं का अत्यंत अनुमोदनीय जीवन दृष्टिगोचर हुआ । प्रवचनों में और सत्संगमें ऐसे अर्वाचीन आराधक-रत्नों के दृष्टांतों का कल्पनातीत सुंदर प्रभाव पड़ने लगा । क्वचित क्षमापना पत्रों में भी ऐसे २-४ दृष्टांतों की अभिव्यक्ति करने पर चारों ओरसे अत्यंत अनुमोदना के प्रतिभाव आने लगे । .. परिणामतः श्रीदेव-गुरुकी असीम कृपासे ऐसी अंतःस्फुरणा हुई कि श्री जिनशासनमें, अनेक संघोंमें, गाँव-नगरों में ऐसे ऐसे अनेक आराधक-रत्न होंगे । उन सभी का यथाशक्य संकलन करके यदि प्रकाशित किया जाय तो प्रमोदभावना से भावित होने की प्रभुआज्ञा का पालन होने के साथ साथ उन उन आराधक आत्माओं को भी अधिकतर आराधनामय जीवन जीने का प्रोत्साहक बल मिलेगा और अन्य हजारों-लाखों आत्माओं को 33 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमोदना और जीवंत प्रेरणा द्वारा सविशेष लाभ होगा। ऐसी भावना से प्रेरित होकर, ऐसे दृष्टांतों का संग्रह करने के लिए सं. २०४९ के चातुर्मास में एक व्यवस्थित परिपत्र तैयार करके उसकी गुजराती और हिन्दी भाषामें कुल ५००० प्रतियाँ प्रकाशित की गयी थी । जैन शासन के चारों फिरकोंके प्रायः सभी साधु-साध्वीजी भगवंतों को और संघों को वह परिपत्र भिजवाया गया था । उसके प्रतिसाद के स्वल्पमें कुछ दृष्टांत मिले और ऐसे प्रयत्न के लिए हार्दिक अभिनंदन और अनुमोदना के सैंकड़ों पत्र आये । जिससे इस शुभ कार्य के लिए उत्साह में अभिवृद्धि हुई। उसके बाद अहमदाबाद, पालिताना आदिमें भी विविध समुदायों के मुनिवरादिका प्रत्यक्ष संपर्क करके उनके पाससे भी कुछ दृष्टांतों का संग्रह किया गया । . शक्यता के अनुसार उन उन दृष्टांत पात्रों को प्रत्यक्ष मिलकर या पत्र व्यवहार के माध्यम से प्रश्नोत्तरी द्वारा उनकी आराधना की जानकारी संप्राप्त की । इन सभी प्रयत्नोंकी फलश्रुति के रूपमें करीब २ साल पहले गुजराती भाषामें प्रस्तुत पुस्तककी कुल ४००० प्रतियाँ अलग अलग तीन पुस्तिकाओं के रूपमें और संयुक्त पुस्तक के रूपमें भी 'श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट-मुंबई' द्वारा प्रकाशित की गयी थी । इनमें से करीब १२०० से अधिक प्रतियाँ पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतोंको, ज्ञानभंडारों को, पुस्तक में संग्रहित दृष्टांत पात्रों को और दाताओं को सादर भेंट के रूपमें भिजवायी गयी थीं । बाकी रही हुई प्रतियाँ भी विक्रय द्वारा करीब समाप्त होने आयी हैं । . पुस्तक प्रकाशित होने के बाद प्रायः सभी समुदायों के गच्छाधिपति आदि आचार्य भगवंतादि साधु-साध्वीजी भगवंतों के सुज्ञ श्रावक-श्राविकाओं के और जैनेतर विद्वानों के भी अत्यंत अनुमोदना और हार्दिक अभिनंदन के सैंकड़ों पत्रोंकी मानो बरसात -34 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई, जिनमें से कुछ पत्रों का संक्षिप्त सारांश इस हिन्दी प्रकाशनमें प्रकाशित किया गया है । प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित आराधक-रत्नों का हजारों लोगों को एक साथ प्रत्यक्ष दर्शन और परिचय कराने की शुभ भावनासे वि.सं. २०५३ के चातुर्मास में, भाद्रपद पूर्णिमा के दिन, शंखेश्वरजी महातीर्थ में, एक भव्यातिभव्य "अनुमोदना-बहुमान समारोह" श्री गुणीजन भक्ति ट्रस्ट (मणिनगर-अहमदाबाद) और श्री कस्तूरप्रकाशन ट्रस्ट के संयुक्त प्रयत्नों से और शेठश्री जीवणदास गोडीदास पेढी-शंखेश्वरजी के सहकार से अनेक दाताओं के आर्थिक सहयोग से और आयोजित हुआ था । भारत के सात राज्योंमें से ८७ जितने आराधक-रत्न और करीब ५००० जितने दर्शनार्थी इस अनुमोदना समारोहमें पधारे थे । शंखेश्वरमें चातुर्मास बिराजमान तपस्वीरत्न प.पू. आचार्य भगवंत श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि अनेक साधु-साध्वीजी भगवंतों की पावन निश्रामें श्रेष्ठीवर्य श्री श्रेणिकभाई कस्तूरभाई आदि अनेक महानुभावों की अतिथि विशेष के रूपमें उपस्थितिमें यह भव्यातिभव्य विशिष्ट समारोह करीब ५॥ घंटे तक लगातार चला था। सभी आराधक-रत्नों का समाजको संक्षिप्त परिचय कराया गया था और अनुमोदना पत्र के साथ रत्नत्रयी के विभिन्न उपकरणादि द्वारा सभी का विशिष्ट बहुमान किया गया था । उस अनुमोदना समारोह की कुछ तस्वीरें भी इस हिन्दी प्रकाशनमें प्रकाशित की गयी हैं। ___ जो आराधक संयोगवशात् इस अनुमोदना समारोहमें उपस्थित नहीं हो सके थे और जिनकी तस्वीरें इस समारोहमें भी नहीं प्राप्त हो सकी, उन सभी की तस्वीरें मँगाने का प्रयास किया गया था । उनमें से जो तस्वीरें उपलब्ध हुई हैं उनको भी यहाँ प्रकाशित किया गया है । प्रथमावृत्तिमें गुजराती भाषा में प्रकाशित इस पुस्तक को हिन्दी भाषामें प्रकाशित करने के लिए चतुर्विध श्री संघके अनेक (35) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावुकात्माओं की पुनः पुनः भावपूर्ण विज्ञप्ति ही इस हिन्दी संस्करणमें निमित्त रूप बनी है। चूंकि मेरी मातृभाषा गुजराती है, इस हिन्दी अनुवादमें कहीं कोई गुजराती शब्द प्रयोग हो गये हों, तो प्रिय पाठकों से नम्र निवेदन है कि इसे सुधारकर पढें और क्षतियों के प्रति मेरा ध्यान खींचें ताकि भविष्यमें उनमें सुधार हो सके । प्रस्तुत किताब का प्रकाशन शीघ्र हो सके इसलिए तृतीय विभाग का अनुवाद करने की जिम्मेदारी बाड़मेर निवासी युवा श्रावक श्री मदनलाल बोहरा (सह संपादक, धर्मघोष मासिक) को सौंपी, जो उन्होंने शीघ्र पूर्ण की है । एतदर्थ वे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। तीन विभागों में विभाजित इस किताब के प्रथम विभाग में जन्म से अजैन होते हुए भी आचरण से विशिष्ट जैन हों ऐसे विविधकुलोत्पन्न आराधकों के ८६ दृष्टांत दिये गये हैं । इन दृष्टांतोंको पढते हुए जैनकुलोत्पन्न आत्माओं को सोचना चाहिए कि जैनेतर कलमें उत्पन्न आत्माएँ भी यदि सत्संग से जैन धर्म का ऐसा विशिष्ट आचरण करती हों, तो जैनकुलोत्पन्न हमें तो प्रमाद और उपेक्षावृत्ति को छोड़कर उनसे भी विशिष्ट रूपसे जैनधर्म के मर्म को समझकर धर्माचरण द्वारा जीवन को सफल बनाना चाहिए। दूसरे विभाग में जैन धर्मकी विशिष्ट कोटिकी आचरणा करनेवाले वर्तमानकालीन श्रावक-श्राविका रत्नों के अनुमोदनीय दृष्टांत दिये गये हैं, उनमें से प्रेरणा पाकर अन्य श्रावकश्राविकाओं को भी अपने जीवनमें ऐसी आराधनाएँ और सद्गुणों का विकास करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । इस विभाग के कुछ दृष्टांत तो संसार त्यागी साधु-साध्वीजी भगवंतों के लिए भी सचमुच प्रेरणादायक और अत्यंत अनुमोदनीय हैं । अगर गृहस्थाश्रममें रहे हुए श्रावक-श्राविकाएँ भी इतनी विशिष्ट कोटिकी आराधनाएँ करते हैं, तो संसार त्यागी ऐसे हमें अपने जीवन में 36 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसी उत्कृष्ट आराधनाएँ करनी चाहिए ऐसी भावना और मनोरथ पूज्यों को भी इन दृष्टांतों को भावपूर्वक पढने से अवश्य उत्पन्न होंगे यह नि:संदेह है। तीसरे विभाग में असाधारण कोटि की आराधना करने वाले वर्तमानकालीन साधु-साध्वीजी भगवंतों के अत्यंत अनुमोदनीय दृष्टांत दिये गये हैं । इनको पढने से, काल प्रभावसे कहीं कहीं कोई साधु-साध्वीजी भगवंतों के जीवन में शिथिलता और प्रमाद को देखकर-सुनकर या पढकर, सभी साधु-साध्वीजी भगवंतों के प्रति आदर और आस्थासे परामुख बनी हुई नयी पीढी के अंतःकरण में संयमी साधु-साध्वीजी भगवंतों के प्रति पूज्यभाव जाग्रत होगा । कर्म संयोग से प्रमादग्रस्त बने हुए संसार त्यागियों के प्रति भी माध्यस्थ्यभाव उत्पन्न होगा। कुछ अपवाद रूप दृष्टांतों को बाद करते हुए, इस किताबमें अधिकांश दृष्टांत वर्तमानकालीन ही दिये गये हैं । अति प्राचीन दृष्टांत अत्यंत आदरणीय होते हुए भी आजकल की बुद्धिजीवी नयी पीढी के मानस को आकर्षित करनेमें और आस्थ्या जगाने में कम सफल हो रहे हैं, जब कि वर्तमानकालीन जीवंत दृष्टांतों द्वारा प्राचीन महापुरुषों के प्रति भी आस्था और बहुमान आसानी से जगाया जा सकता है । अगर आजकल के कमजोर संहनन वाले शरीर से भी अठाई और सोलहभत्ते से वर्षीतप करनेवाले, या लगातार २११ उपवास करनेवाले श्रावक-श्राविका विद्यमान हैं, तो प्राचीन कालमें वज्र-ऋभ-नाराच संहननवाले महापुरुष यदि मासक्षमण के पारणे मासक्षमण की तपश्चर्या करते हों या लगातार ४ - ६ महिनों तक उपवास करके आत्मध्यान में निमग्न रहते हों तो उसमें 'असंभवित' कहने का किसीको मौका ही नहीं मिलता। अगर आजके विलासी और भोतिकता प्रधान वायुमंडल के बीच रहकर, शादी के बाद भी भाई बहनकी तरह पवित्र जीवन जीनेवाले दंपति विद्यमान हैं तो प्राचीनकाल के स्थूलिभद्र स्वामी, जंबूस्वामी, वज्रस्वामी आदि महापुरुषों के नैष्ठिक ब्रह्मचर्य को 'अशक्य' कहकर -37) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपहास करने का अवसर ही किसीको कैसे मिल सकता है ? !.... इसीलिए इस पुस्तकमें अर्वाचीन जीवंत दृष्टांतों को ही प्रधानता दी गयी है। इस किताब की गुजराती आवृत्ति में चतुर्थ विभाग के ख्यमें प्राचीन महापुरुषों के दृष्टांत भी संक्षेपमें दिये गये थे, मगर ग्रंथ के परिमाण को मर्यादित बनाने के लिए वह चतुर्थ विभाग इस हिन्दी संस्करण में शामिल नहीं किया गया है । प्राचीन दृष्टांतों के अन्य अनेकानेक पुस्तक उपलब्ध हैं ही, इसलिए प्राचीन दृष्टांतों के जिज्ञासु पाठक उन पुस्तकों से अपनी जिज्ञासा को परितृप्त करें ऐसी अपेक्षा है। प्रस्तुत पुस्तकमें प्रकाशित वर्तमानकालीन दृष्टांत विशेष रुपसे विश्वसनीय बनें और जिज्ञासु आत्माएं उन उन आराधक रत्नों का साक्षात् या पत्र द्वारा संपर्क करके उनकी उपबृंहणा कर सकें और उनके संपर्क से अपने जीवनमें भी वैसे सद्गुण संप्राप्त कर सकें ऐसी भावनासे उन उन आराधक रत्नोंके नाम और पता भी यहाँ प्रकाशित किया गया है । सुज्ञ वाचकवृंदसे नम्र निवेदन है कि हो सके तो उन उन आराधकरत्नोंको एकाध पोष्टकार्ड लिखकर उनकी हार्दिक उपबृंहणा करें, ताकि उनको आराधना में अभिवृद्धि करने का बल मिले और हमारे जीवनमें भी उनके जैसी आराधना करने की शक्ति संप्राप्त हो । गुजराती आवृत्ति की संपादकीय प्रस्तावना में इस सूचनको पढकर अचलगच्छीय मुनिराज श्री सर्वोदयसागरजीने और राजकोट निवासी सुश्रावक श्री सुभाषचंद्र मोदीने प्रस्तुत पुस्तकके प्रथम और द्वितीय विभाग के सभी दृष्टांत पात्रों को पत्र लिखकर अनुमोदना की थी, इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र हैं । अन्य पाठकगण भी इसका शुभ अनुकरण करेंगे ऐसी आशा है । प्रायः प्रत्येक बातोंमें लाभ-हानि दोनों अल्प या अधिकांश रूपमें सम्मिलित होते हैं, इसी तरह इस किताब के दृष्टांतपात्रों का नाम और पता प्रकाशित करने में उपर्युक्त प्रकारसे 381 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभ के साथ अन्य अपेक्षा से कुछ हानि की भी थोड़ी-सी संभावना हो सकती है । इसी दृष्टी से एक ऐसा भी हितसूचन मिला था कि, "नाम और पता दिये बिना केवल आराधकरत्नों के दृष्टांतों का ही प्रकाशन किया जाय, (नाम और पता कोई पूछे तो ही बताया जाय) क्यों कि वर्तमान कालकी यह विषमता है कि प्रायः अधिकांश आराधकों में ऐसा पाया जाता है कि उनके जीवनमें कुछ बातें अनुमोदनीय और अनुकरणीय होती है, मगर छद्मस्थदशा के कारण उनके जीवनमें कुछ क्षतियाँ भी होती हैं। ऐसे आराधकों के नाम और पता प्रकाशित होने से भद्रिक व्यक्तियों के द्वारा उनके गुण और दोष दोनों अनुमोदनीय या अनुकरणीय बन जाते हैं... इत्यादि । यह सूचन सापेक्ष दृष्टिसे ठीक होते हुए भी पूर्व निर्दिष्ट हेतुओं से यहाँ आराधक रत्नों के नाम और पता प्रकाशित करने का साहस किया गया है । वाचक वृंद उपर्युक्त हितसूचन को दृष्टि समक्ष रखकर हंसकी तरह क्षीर-नीर न्यायसे आराधकों के जीवन में से सद्गुण रूपी दूध को ग्रहण करेंगे और छद्मस्थदशा सुलभ क्षतियों के प्रति माध्यस्थ्यभाव धारण करेंगे ऐसी अपेक्षा है । जब तक छद्मस्थ दशा है तब तक हरेक जीवोंमें गुण-दोष दोनों अल्पाधिक मात्रामें होंगे ही। इसलिए इस किताबमें प्रस्तुत दृष्टांतपात्र आराधक-रत्नोंमें भी कुछ कमियाँ हों तो इस में जरा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए; क्यों कि अनादिकाल से मिथ्यात्वसे मूढ, स्वस्वरूपसे अज्ञात और कर्मों से आच्छादित ऐसे इस जीवमें अनंत दोष हों तो भी इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, मगर ऐसे भी जीवमें एकाध छोटा सा भी सद्गुण अगर दृष्टिगोचर होता है तो उसे महा आश्चर्य रूप मानकर उसकी हार्दिक अनुमोदना और अवसरोचित वाणी से उपबृंहणा करनी चाहिए ऐसा महापुरुषों का उपदेश है । हाँ, आध्यात्मिक हेतु के सिवाय किसी भी प्रकार के सांसारिक प्रयोजन से किसी भी विशिष्ट साधकको पत्र या फोन द्वारा परेशान नहीं करना चाहिए ऐसी खास सूचना है। -39 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... यहाँ पर प्रस्तुत दृष्टांतपात्र स्वरूप आराधक आत्माओं को भी सादर विनम्र विज्ञप्ति है कि, इस किताबमें वर्णित आपका दृष्टांत आप स्वयं पढ़ें तब अथवा इसे पढकर कोई भावुक आत्मा आपकी उपबंहणा प्रशंसा करे तब मानकषाय की पुष्टिका निवारण करने के लिए जागृति पूर्वक आत्म निरीक्षण द्वारा अपने जीवन में जो भी क्षतियाँ मालूम पड़ें उनकी विनम्रभावसे मानसिक या वाचिक कबूलात करके गंभीरता पूर्वक उन क्षतियों को शीघ्र सुधारने के लिए पुरुषार्थ करें, ताकि आपका आलंबन किसीको भी मोक्ष मार्ग से विमुख बनाने में निमित्त न बन पाये ।। इन दृष्टांतों का संकलन करते हुए निम्नोक्त श्लोककी यथार्थता मुझे अधिक-अधिकतर स्पष्ट होने लगी । "पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिका । भाग्यहीना न पश्यंति, बहुरत्ना वसुंधरा ॥" (भावार्थ : इस पृथ्वी में कदम कदम पर निधान रहे हुए हैं और प्रत्येक योजनमें सुवर्ण सिद्धि रसकी कूपिकाएँ रही हुई हैं, फिरभी भाग्य हीन जीव उन्हें देख नहीं पाते हैं, लेकिन यह पृथ्वी (वसुंधरा) तो सचमुच अनेकानेक रत्नोंसे भरपूर है ही ...) । इस श्लोकमें सूचित भौतिक निधान या रस कूपिकाएँ शायद कलियुग के प्रभावसे भले ही दृष्टिगोचर न होते हों, लेकिन कदम कदम पर अनेक संघों में विशिष्ट आराधक चैतन्य रत्नों के दर्शन तो आज भी अवश्य हो सकते हैं। मगर उसके लिए मुख्य रूपसे श्री देव गुरुकी असीम कृपासे विकसित हुई और सत्संग एवं सद्वांचन से परिष्कृत हुई गुणदृष्टि और प्रमोद भावना का भव्य पुरुषार्थ अपेक्षित है। जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे वैसे ऐसी अनुभूति स्पष्ट-स्पष्टतर रूपसे होने लगी । यहाँ पर प्रकाशित दृष्टांत तो अंशमात्र हैं, लेकिन श्री जिनशासन तो ऐसे अनेकानेक आराधक चैतन्य रत्नों की खदान है, 40 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिए ही तो चतुर्विध श्रीसंघको रत्नोंका उत्पत्तिस्थान रोहणाचल पर्वत आदिकी उपमा सिंदूर प्रकर आदि प्रकरणों में और श्रीनंदीसूत्र आदि आगमों में दी गयी है । जैसे जैसे ऐसे गुप्त आराधक रत्नोंकी जानकारी मिलती रहेगी वैसे वैसे इस किताबकी संभवित नूतन आवृत्ति में प्रकाशित हो सकेगी । इसलिए सुज्ञ पाठकों से नम्र निवेदन है कि आपके सुपरिचित ऐसे असाधारण कोटिके आराधक रत्नों के दृष्टांत व्यवस्थित रूपसे लिखकर अवश्य भिजवायें । इस किताबमें प्रकाशित दृष्टांतोंमें से कुछ दृष्टांत धर्मचक्र तप प्रभावक प.पू.आ.भ.श्री विजय जगवल्लभसूरिजी म.सा. प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखर विजयजी म.सा., पं.पू. पंन्यास प्रवर श्री गुणसुंदरविजयजी म.सा., प.पू. पंन्यास प्रवर श्री भुवनसुंदरविजयजी म.सा., गणिवर्य श्री अक्षयबोधिविजयजी म.सा., मुनिराज श्री महाबोधिविजयजी, मुनिराज श्री भद्रेश्वरविजयजी आदि मुनिवरादि के मुखसे सुनकर या पत्र व्यवहार द्वारा अथवा उनके पुस्तकादि द्वारा प्राप्त किये गये हैं, इन सभी महात्माओं का एवं अन्य भी अनेक नामी-अनामी आत्माओं ने प्रस्तुत पुस्तकके संकलन/संपादनमें विविध स्पसे सहयोग दिया है उन सभीका सादर ऋा स्वीकार करते हुए धन्यताका अनुभव करता हूँ। सुसंयमी, विद्वान्, आत्मीय मुनिराज श्री जयदर्शनविजयजीने आत्मीय भावसे इस किताबके तीनों विभागों के लिए अत्यंत मननीय प्रस्तावनाएँ लिखकर इस किताबकी उपादेयतामें अभिवृद्धि की है इसके लिए उनको भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । उनका आश्चर्यप्रद दृष्टांत इस किताब के द्वितीय विभाग के प्रारंभमें ही प्रकाशित किया गया है। श्री बाड़मेर जैन संघ के भाग्यशाली दाताओंने एवं श्री नाकोडा पार्श्वनाथ ट्रस्टने इस प्रकाशन के लिए सुंदर आर्थिक सहयोग दिया है एतदर्थ उन सभी को हार्दिक धन्यवाद । (41) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल दो महिने जितने अल्प समय में इस किताब का कम्पोझ से लेकर संपूर्ण कार्य शीघ्रता से परिपूर्ण करने के लिए 'कुमार प्रकाशन केन्द्र' के उत्साही संचालक श्री हेतलभाई असणभाई शाह विशेषतः धन्यवादाह हैं । - छद्मस्थ दशा के कारण इस किताबमें कहीं भी श्री जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए हार्दिक मिच्छामि दुक्कडं । सुज्ञ पाठक क्षतियों के प्रति ध्यान खींचेंगे तो भविष्यकाल में उनका परिमार्जन हो सकेगा। यह किताब ज्ञानभंडार आदि में बंद पड़ी न रहे किन्तु निरंतर इसका अधिक - अधिकतर उपयोग होता रहे इसके लिए पेज नंबर 2 पर दी हुई सूचना का पालन करने में सहयोग की पूज्यों से एवं पाठकवृंद से खास अपेक्षा है । जैनेतर पाठकों से नम्र अनुरोध है कि यदि आपको इस किताब के किसी पारिभाषिक शब्द का अर्थ या व्याख्या समझ में न आये तो किसी भी जैन साधु-साध्वीजी भगवंत के पास जाकर इसका अर्थ निःसंकोच रूपसे जरूर समझ लें । गुजराती संस्करण की उपेक्षा इस हिन्दी संस्करण में दृष्टांत नं. २४, ४४, ६२, ६७, ७१, ७२, ७३, ७४, ७६, ११७, १३९, १४६, १५९, १८०, १८१, १८३, २०५, २९१, २९२ नये शामिल किए गये हैं । प्रस्तुत पुस्तक के मननपूर्वक पठन-पाठन से अनेकानेक आत्माएँ गुणानुरागी और विशिष्ट कोटिके आराधक बनकर शीघ्र मुक्तिपदके अधिकारी बनें यही एकमेव शुभाभिलाषा । गणि महोदयसागर दि. १-६-१९९९ उदयपुर (राजस्थान) 42 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका . प रम प७...somo..... ................................................................................... . . . . . . . . . . . . . . . .4 0 4 4 4 0 . 0 4 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ..................................................... .......6 प्राप्ति स्थान एवं खास सूचना. कृपया मुझे अवश्य पढ़ें... प्रकाशकीय ............. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ का संक्षिप्त परिचय... सादर समर्पण .......... प्रकाशन के सहयोगी दाता............ ऋण स्वीकार.. आराधक रत्नों की अनुमोदना समारोह की तस्वीरों का परिचय ............. प्रास्ताविकम् प्रशंसना च.......... अगम अर्थ अनुमोदना का एवं अनुमोदन गीत जरा किए, पढिए और आगे बढिए (संपादकीय) अनुक्रमणिका ...........................00000000000000000000000000000000............................................ ....26 7000000000002050558880000 Tw, worr ॥ "बहुरना वसुंधरा" भाग-१...... १ आजीवन ठाम चौविहार अवड्ढ एकाशन-वनमालीदासभाई ......... भावसार १ २ दो ही द्रव्यों से ७७ साल तक निरंतर एकाशन करनेवाला.......... ब्राह्मण ६ ३ नवकार महामंत्र को सिद्ध करनेवाले लालुभा ..................... वाघेला १० करोड़ नवकार के आराधक निद्रा विजेता जयंतिलालभाई......... पटेल १७ २८ वर्ष की उम्र में सजोड़े ब्रह्मचर्य व्रतधारक रामसंगभाई ........ दरबार १९ एक ही द्रव्य से ठाम चौविहार ५० ओली के आराधक दानुभाई .....दरबार २४ सार्मिक भक्ति के बेजोड़ दृष्टत रूप लक्ष्मणभाई ................... नाई २५ ...अहिंसामय जैन धर्म के अद्भुत रूप से पालक डॉ.खान .....पठाण २८ ...अनन्य नवकार प्रेमी रसिकमाई जनसारी............................मोची ३२ सत्संग के प्रभावसे लोहा सोना बना ! संजयभाई...................... सोनी ३६ प्रतिदिन १८ घंटे जैन धर्म के पुस्तकों को पढनेवाले शंकरभाई...... पटेल ३८ १२ अध्यात्म परायण प्रोफेसर केसुभाई डी. परमार....... . .. क्षत्रिय ४० १३ सेलून में भी देव-गुरु की तस्वीरें रखनेवाले पुरुषोत्तमभाई ..... १४ अजोड़ जीवदयाप्रेमी मंगाभाई............ ............... ठाकोर ४४ १५ पर्युषण के आठवें दिन पक्खी पालनेवाले कांयाभाई माहेश्वरी ....... हरिजन ४८ १६ "मेरे जैसा सुखी कोई नहीं होगा" पितांबरदास .. .......................मोची ४९ १७ भाग्यशाली भंगी की भव्य भावना .......................... ...भंगी ५१ १८ १६ उपवास के साथ चौसठ प्रहरी पौषध के आराधक गजराजभाई......मोची ५३ १९ विरासत छेड़ दी, मगर जैन धर्म नहीं छोड़ा !................. मुसलमान ५५ -43) ११ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mernam......बाद २० रोज जिनदर्शन-पूजा करनेवाले रीजुमलजी.....खत्री-पुलिस ५६ २१ जैन धर्म एवं मातृसेवा के लिए अविवाहित पप्पुभाई ......... सरदारजी ५७ २२ अमृतलालभाई राजगोर का हृदय पस्विर्तन.... . ......ब्राह्मण ५९ २३. श्रीफल की प्रभावना के निमित्त ने शिवप्पा को सूरि बनाया ...लिंगायत ६१ २४ दिलीपभाई मापारी का वीतरागता के प्रति प्रस्थान .. .... ब्राह्मण ६३ २५ ११ सालकी उसमें एकाशन के साथ लाख नवकार ! लक्षेशकुमार.. भावसार ६७ २६ सेवाभावी स्वातंत्र्य सैनिक वैद्यराज अनुप्रसादभाई.............. नाई ६९ सत्संग से कबीरपंथी बाबुलालमाई का जीवन परिवर्तन .... ... जुलाहा ७० २८ प्रोफेसर पी.पी.राव की जैनधर्म के प्रति दृढ श्रद्धा.... २९ वर्धमान तप की नींव डालनेवाले पेईन्टर बाबुभाई राठोड़ ...... महाराष्ट्रीयन ७३ ३० पांच तिथि कपड़े नहीं धोते हुए रामजीभाई..............धोबी ७४ ३१ छरी पालक संघ के संघपति बनते हुए कांतिलालमाई......... लोहार ७६ ३२ साधु-साध्वीजी की वैयावच्च करते हुए मूलजीभाई मास्टर ......... हरिजन ७६ ३३ साधु सेवाकारी शिवाभाई... .....................कोली ७७ __वर्धमान तप की नींव डालने वाले पंडितश्री वैद्यनाथजी मिश्र..... ब्राह्मण ७८ ३५ जीवदया के खातिर व्यवसाय में परिवर्तन ! गणपतभाई......लोहार ७९ ३६ मासक्षमण आदि के आराधक सुखाभाई ... ....... पटेल ८१ ३७ साधुसेवा और सामायिक के आराधक विजयभाई. .............दरबार ८१ ३८ साधु सेवाकारी डॉक्टर घनश्यामसिंहजी ........ .................. राजपूत ८२ ३९ नवकार महामंत्र के आराधक बहादूरसिंहजी जाडेजा... ....... राजपूत ८३ ४० जैन पाठशाला के शिक्षक लाधुसिंहजी सोलंकी ................... राजपूत ४१ ८ साल की उम्रमें ८२ दिनका धर्मचक्रतप ! योगीन्द्रकुमार ....... राजपूत ८४ ४२ 'कम्मे शूरा सो धम्मे शूरा' हठीजी दीवानजी. ....... ठाकोर ८५ ४३ तीन उपधान के आराधक धर्माजी गायकवाड़.... ......मोची ८७ ४४ छोटालालभाई बने मुनिराजश्री कल्पध्वजविजयजी ........... ब्राह्मण ८८ ४५ सत्संग के प्रभाव से मोची मुनि बने -प्रभुदासभाई. .........मोची ९० ४६ एक ही प्रवचन से सचित्त पानी का आजीवन त्याग-सायवना .... मारुति ४७ साधु-साध्वीजी की अपूर्व भक्ति करते हुए दरबार............ राजपूत ९३ ४८ प्रत्येक पूर्णिमा के दिन शंखेश्वर की यात्रा-कृष्ण मनुस्वामी .... मद्रासी ब्राह्मण ९४ ४९ वर्षीतप आदि के तपस्वी साहेबसिंहजी जाडेजा. .. ..... क्षत्रिय ९५ प्रत्येक पर्युषण में अाई तप के आराधक सुरेशभाई... ...... नाई ९५ ५१ दरजी पिता-पुत्री की कठोर तपश्चर्या-भीखाभाई............... दरजी ९७ मासक्षमण और सिद्धितप के आराधक रमेशभाई.................मोची ९८ ५३ दो मासक्षमण-२० अठाई के तपस्वी, ब्रह्मव्रतधारी मोहनभाई...... मोची ९९ ५४ जिनबिम्ब भरानेवाले भाणजीभाई... प्रजापति १०० ५५ प्रभुदर्शन के बिना पानी की बूंद भी नहीं ! बिपीनभाई.......... पटेल १०१ 44 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ५६ नवपदजी की ओली और उपधान का आराधक युवक नबी ....... कसाई १०२ ५७ सचित्त पानी का त्यागी रामकुमार कैवट ....... ........खलासी १०३ ५८ दामाद को भी रात्रिभोजन नहीं ! मोतिलालजी ....... पाटीदार १०४ ५९ अनानुपूर्वी से नवकार जप ! करसनजी जाडेजा ..................... राजपूत १०५ ६० धर्मरंग से रंगा हुआ चित्रकार जोषी परिवार.............. ...........ब्राह्मण १०६ ६१ रोज २-२ घंटे खड़े खड़े जिनभक्ति और जप ! जसभाई ... ६२ त्रिकाल प्रभुदर्शन पूजा आदि के आराधक लालसिंहजी .. ............ राजपूत १०८ ६३ गोविंदभाई मोदी की अनुमोदनीय आराधना ........ ....... मोदी १०९ ६४ प्रिन्सीपाल श्री जयेन्द्रभाई शाह की अनुमोदनीय आराधना ..........वैष्णव ११० ६५ पूजारी अंबालाल भाई और रेवाबहन की आराधना ......... परमार क्षत्रिय ११४ ६६ होटल के पानी का भी त्याग ! ६०० हरिजनों का सत्संग मंडल हरिजन ११५ ६७ हरिजन दंपती लक्ष्मीबहन नवीनचंद्रभाई चावड़ा की आराधना ....... हरिजन ११६ ६८ धार्मिक अध्यापक दिलीपभाई मालवीया ........ .......लोहार ११६ ६९ लालजीभाई की अनुमोदनीय नीतिमत्ता ..... . ...... हरिजन १२० आत्मसाधक डॉक्टर प्रफुल्लभाई जनसारी... .........मोची १२१ ७१ डॉक्टर राधेश्याम की अनुमोदनीय आराधना .. ..........अग्रवाल १२२ ७२ केशव नामकर. पाटील की अनुमोदनीय आराधना ............ महाराष्ट्रीयन १२३ खीमजीभाई परमार की अनुमोदनीय आराधना .. हीनाबहन व्रजलाल की अनुमोदनीय आराधना...... ............वैष्णव १२४ रमेशभाई नाई की अनुमोदनीय देव-गुरुभक्ति ........ ............ नाई १२४ ७६ उपधान करते हुए जीवराजभाई झाला ....... ............मोची १२५ ७७ प्रवीणभाई पटेल परिवार की आराधना......... ............... पटेल १२६ ७८ सोमपुरा मयूरभाई की आराधना ............................. सोमपुरा १२७ ७९ रोज १०८ लोगस्स आदि की आराधक कु. मीनाबहन ......... महाराष्ट्रीयन १२७ १० सालकी उम्रमें पंच प्रतिक्रमण कंठस्थ कु. लक्ष्मी ..........नेपालीयन १२९ ८१ पंच प्रतिक्रमण कंठस्थ करनेवाली तीन बालिकाएँ ...............दरजी १२९ ८२ मीराबाई जैसी बनने की भावना ! नीताबहन ....... ! नाताबहन ...............................दरबार १३० ८३ हररोज जिनपूजा आदि करते हुए हांसबाई मा .. ............ खवास १३१ ८४ सिद्धितप करनेवाली मुक्ताबहन ........... ..............भंगी १३२ ८५ हरिजन कन्या नवलबाई की शादी के लिए अनुमोदनीय शर्त ...... हरिजन १३२ ८६ "यदि बचपन से ही जैनधर्म मिला होता तो.." ! रेखाबहन .........मिस्त्री १३५ आलु "बहुरत्ना वसुंधरा" दूसरा ..... प्रस्तावना एवं स्तवना ........ ८७ १० वर्ष के सहजीवन के बाद भी बाल ब्रह्मचारी दंपती ............. ८८ एक ही बार प्रवचन श्रवण से आजीवन ब्रह्मचर्य ................ ......................................................... १३९ १४० Rame. ..........0000000000000000000000.... .....१४५ १५५ (45 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......................... ............ १७० .१८६ 2000000000 +4.00000000000 ........२०७ .................................................... २६ २२६ ८९ आजीवन बालब्रह्मचारी दंपती ... १५८ ९० अध्यात्मनिष्ठ बंधुयुगल... १६० ९१ वृद्धावस्था में भी सफल आत्मसाधक............ ९२ हिमालय के योगी के मार्गदर्शन से नवकार साधक. १७७ २३ हजार यात्रिकों को १०० दिन तक ९९ यात्राकारक बंधुयुगल.......... . १८२ ९४ अनेक सद्गुणों से अलंकृत श्राद्धवर्य..... ९५ आजीवन मकान से बाहर नहीं जानेका संकल्प !.. ....... १९० ९६ नवकार के प्रभावसे केन्सर केन्सल !.. .......१९१ ९७ ११ करोड़ नवकार के आराधक !......... .............१९९ ९८ श्रीऋषिमंडल महास्तोत्र के विशिष्ट साधक ... २०३ ९९ २११ उपवास के महातपस्वी !...... १०० बिना दवाई से असाध्य दर्दो के निःशुल्क चिकित्सक ............... ........... २१२ १०१ प्रतिदिन ९ घंटे पद्मासन में नवकार का जप... !... १०२ प्रतिदिन ५०० रूपयों के पुष्प आदि से ५ घंटे प्रभुभक्ति !......... १०३ प्रतिदिन ५४ जिनालयों में पूजा करनेवाले सुश्रावक !.... ............२२१ ... १०४ करोड़ खमासमण के आराधक ! ..... १०५ भारतभर के जैन तीर्थों की ८ सालमें पदयात्रा !....... ............................२२९ १०६ ४८ बार श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की ९९ यात्राएं ! ........ ... २३१ १०७ १५ लाख रूपयों के उपकरणों से जिनभक्ति !..... ............२३३ १०८ सामायिक या जिनपूजा नहीं होने पर १० हजार रु का प्रायश्चित्त !....... १०९ त्रिकाल ३४६ लोगस्स का कायोत्सर्ग ! ....... ११० प्रतिदिन सिद्धचक्रपूजक, स्वानुभूतिसंपन्न श्राद्धवर्य ...... .......२४० १११ श्री सिद्धचक्र महापूजन के बेजोड़ विधिकार.. २४२ ११२ अठ्ठम के पारणे अठ्ठम के साथ ९९ यात्राएं ! .......... .... २४४ ११३ एक बेमिसाल प्रेरणादायी व्यक्तित्व ..... २४८ ११४ मुंबई में भी संडाश-बाथरूम के उपयोग का त्याग !............. ११५ ३ साल तक खड़े खड़े साधना !..... .......२५५ ११६ १८ साल तक मौनव्रती आत्मसाधक ! .... २५७ ११७ आजीवन बालब्रह्मचारी कच्छी दंपती !.. ...२५९ ११८ बेमिसाल ब्रह्मचर्य गुप्तिका पालन........... ....... २६१ ११९ ब्रह्मचर्य के संकल्प का अद्भुत प्रभाव ........... ........... २६३ १२० विवाह के २ वर्ष बाद आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा !............. १२१ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकारने की तीव्र तमन्ना ............ २६५ १२२ सालमें केवल २ घंटे की जयणा के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत !..... २६६ १२३ प्रज्ञाचक्षु श्रावकों की अद्भुत आराधना ....... २६८ १२४ नि:स्पृह कच्छी विधिकार त्रिपुटी HHHHHHHHHHHHHHHI २३६ २३८ 10000000000000000.. २५३ २६४ त्रा.................... ..................................... २७० 46 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ बाल श्रावकरत्नों के अद्भुत पराक्रम. १२६ चौविहार करते हुए बालश्रावक ! १२७ ४ साल की उम्र से प्रतिवर्ष नवपदजी की आराधना ११ साल की उम्र से सिद्धचक्र महापूजन कंठस्थ . १२९ बेजोड़ जीवदयाप्रेमी श्रावकरत्न !. १२८ १३० १५०० सूअरों को बचानेवाले जीवदयाप्रेमी श्रावकरन ! १३१ सैकड़ों बकरों की बलिप्रथा बंद करानेवाले श्राद्धवर्य ! १३२ जीवदया के चमत्कार से मृत्यु से वापस लौटे ! १३३ भैंस को बचाने के लिए अद्भुत पराक्रम ! १३४ निःशुल्क ज्ञानदान का सेवायज्ञ ! १३५ अद्भुत नीतिमान सुश्रावक !. १३६ ३२ सालकी उम्र से आजीवन ब्रह्मचर्य एवं एकाशन !. १३७ महातपस्वी पंडितश्री .. १३८ वर्धमान तपकी लगातार १०३ ओली के आराधक !. १३९ लगातार १४० ओली के आराधक ! १४० बेलगाम जिले के सर्वोत्कृष्ट आराधक युवा डॉक्टर ! १४१ भक्ति - मैत्री - शुद्धि के त्रिवर्णी संगम- सुश्रावक ! १४२ सुंदरभाई का सच्चा सौंदर्य... १४३ शादी के दिन रात्रिभोजन त्याग ! १४४ शादी के प्रसंग में सभी पापों का त्याग ! . १४५ 'कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा'. १४६ पुनर्जन्म की अद्भुत घटना. १४७ दृढ सम्यग्दर्शन प्रेमी. ........................ १४८ शादी के प्रसंग को धर्म महोत्सव के रूपमें मनानेवाले वकील. १४९ आर्यसंस्कृति की मर्यादानुसार संपन्न सत्कार्यो की झांकी १५० स्कूल का शिक्षण वर्ज्य किया, घर को ही शाला बनाया !. ३ घंटे की तेजस्वी शाला. १५१ १५२ श्री के. पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट के सुकृतों की अनुमोदना. १५३ स्व. भेरुमलजी बाफना परिवार के सुकृतों की अनुमोदना १५४ साधर्मिक उत्कर्ष ट्रस्ट की अनुमोदना . १५५ बेजोड़ साधर्मिक भक्त सुश्रावक १५६ ४२ सालसे लगातार छठ्ठ के पारणे एकाशने से वर्षीतप ! १५७ अठ्ठाई से वर्षीतप के आराधक सुश्रावक ! १५८ सपरिवार धार्मिक रंग से रंगे हुए डॉक्टर !. १५९ ३०० से अधिक बार मुंबई से शंखेश्वर की यात्रा !. १६० धर्मनिष्ठा के अनुमोदनीय प्रसंग. - 47 २७२ २७९ २८१ २८२ २८५ २९१ २९४ २९८ ३०० ३०२ ३०४ ३०६ ३०७ ३०८ ३१२ ३१३ ३१६ ३१७ ३१९ ३१९ ३२० ३२३ ३४१ ३४५ ३४६ ३५३ ३५८ ३६१ ३६३ ३६६ ३६७ ..... ३६८ ३६८ ३६९ ३७० ३७३ *********** Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... .३७६ ............................३८० .........३८४ ३८९ ......३९० ......३९१ ........३९३ ३९६ ..............३९९ .........४०२ .........४०७ ४०९ ........४१० .....४११ १६१ विवाह होने के बावजूद भी आबाल ब्रह्मचारिणी !..... १६२ "मुझे औदारिक देहधारी के साथ शादी नहीं करनी !".............. ३७८ १६३ दीक्षा ग्रहण करती हुई आठ सगी बहनें !....... १६४ १८० उपवास... एक ही द्रव्य से ठाम चौविहार ५०० आयंबिल !. .. ३८२ १६५ अठ्ठम तप के साथ ७ छ'री संघों में पदयात्रा ! १६६ १ से ८ उपवास द्वारा कुल ४८ वर्षीतप !... ........ ..... १६७ अवाई एवं सोलहभक्त से वर्षीतप !........... १६८ १५० अठ्ठाई ! ११०८ से अधिक अठुमतप आराधिका ! .. १६९ अप्रमत्त तपस्विनीरत्न.... १७० अप्रमत्त तपस्विनी .. .. १७१ १०८ अठ्ठाई - २ बार १०८ अठ्ठम !... ........३९४ १७२ प्रतिदिन १२ कि.मी. की दूरी पर जिनपूजा के लिए !............. १७३ रनकुक्षि आदर्श श्राविकारत्न . .. १७४ अहिंसा की देवी.... १७५ बीमार कबूतरों की सेवा करती हुई सुश्राविका............ १९६ शत्रुजय महातीर्थ की २५ बार ९९ यात्रा .......... १७७ सास-ससुर की अद्भुत सेवा करती देवरानी-जेठानी .... १७८. 'माता हो तो ऐसी हो' !............. १७९ सिद्धाचलजी महातीर्थ में भवपूजा .............. ४१२ १८० लगातार १००८ अठ्ठम !.. १८१ साधर्मिक भक्ति एवं ऋणमुक्ति का उत्तम दृष्टांत .... .... १८२ कर्मों के सामने युद्ध ! ...... ४१८ १८३ प्रतिदिन ८ सामायिक + २ प्रतिक्रमण !.... ....................४२० "बहुरत्ना वसुंधरा" तीसरा ............... .. ४२३. यम + नियम = संयम, संयमी को नमो नमः (प्रस्तावना ).....४२४ १८४ १०० + १०० + ८९ ओली के 'तपस्वी सम्राट्' सूरिराज !........ १८५ भीषण कलिकाल में रहते हैं एक धन्ना अणगार !. ... .....४३१ १८६ महा तपस्वीरत्न सूरीश्वरजी .. १८७ २५० चौविहार छछ - प्रत्येक छठ में सात-सात यात्राएं !.. १८८ लगातार ३३ घंटे तक ध्यानमुद्रा में स्थिरता ! ......... १८९ अध्यात्मयोगी आचार्य भगवंतश्री ...... .. .... १९० सिद्धगिरि आदि के प्रत्येक प्रभुजी को ३ - ३ खमासमण !. १९१ सिद्धगिरि और अहमदाबाद के प्रत्येक प्रभुजी समक्ष चैत्यवंदना !..... १९२ यथार्थनामी गच्छाधिपतिश्री की गुण-गरिमा ...... १९३ गच्छाधिपतिश्री के प्रेरक प्रसंग...... (48 ..............................." .......४१४ .......४१६ ४२९ ......४३६ ........४४० .........४४१ ..........४४५ .....४४८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........४५७ ............. ....... ६ ....... ० ५ . ..............४६९ ......... .....४७३ ...................................४७३ ...............................४७८ ................. १९४ गच्छाधिपति श्री की अनुमोदनीय क्रियानिष्ठता आदि ! ............. १९५ वंदनीय क्रियापात्रता !. .............४५८ १९६ ३४ वर्षीतप एवं लोगस्स आदि का ९ - ९ लाख जाप ! ..... १९७ संलग्न चौविहार ३३ वर्षीतप के आराधक उपाध्याय श्री ! ....................४६२ १९८ संलग्न ३१ वर्षीतप के आराधक सूरिवर !.... ४६२ १९९ प्रथम राख बहोराने पर पारणे का अभिग्रह ! ......... ..........४६३ २०० लगातार २०१ उपवास के तपस्वी सम्राट् ! ............... ........४६५ २०१ लगातार १०८ उपवास एवं ५०० अछाई के तपस्वी !..... ४६७ २०२ गुणरत्न संवत्सर तप के भीष्म तपस्वी !... २०३ करियाता में भीगी रोटी से ५२ आयंबिल !. ...........४७२ २०४ ३० वें उपवास में केशलोच ! ...... .. २०५ तपस्वी गुरु-शिष्य की जोड़ी ............... २०६ अद्भुत ज्ञान पिपासा, विशिष्ट स्मरणशक्ति !......... २०७ २० वर्ष के परिश्रम से 'द्वादशार नयचक्र' ग्रंथ का संपादन !.......... २०८ केवल ६ दिन में दशवकालिक सूत्र कंठस्थ !.. ४८१ २०९ १२ वर्ष में ४२५ संस्कृत-प्राकृत ग्रंथोंका अध्ययन !..... ...... ......४८१ २१० संस्कृत अध्ययन के लिए रोज १२ मीलका विहार ! ............. ........४८३ २११ विहार में ८५ वी ओली के साथ रोज ४ वाचनादाता !................ २१२ युवा प्रतिबोधक पदस्थ त्रिपुटी ............ ...........४८५ २१३ आजीवन मौनव्रत !................ ........... ४८६ २१४ २४ वर्ष से मौन के साथ साधना ! ......... २१५ गुरु आज्ञा पालन का बेजोड़ आदर्श ............ ........४८७ २१६ रोज २-३ घंटे खड़े रहकर वंदना गर्दा - अनुमोदना !. २१७ पांच ही द्रव्यों से आजीवन एकाशन ! ....... ............४९० २१८ अपरिचित प्रदेश... उग्रविहार... निर्दोष गोचरी !............. २१९ शुद्ध गोचरी के अभाव में ३ - ३ उपवास !.......... ..............४९१ २२० चाय - दूध - खाखरे से नित्य एकाशन !.. .........४९२ २२१ परिणतिलक्षी साधुता !.......... ........४९२ २२२ दीक्षा की खदान, नाम लिया जान ?........ ....... ४९४ २२३ सपरिवार और सामूहिक संयम स्वीकार !... २२४ कंबली के कालपूर्व उपाश्रय प्रवेश का नियम ! ........४९८ २२५ धन्य है इस महाकरुणाको !... ........४९८ २२६ अनुमोदनीय सरलता और पापभीरुता !............ २२७ अविधिकी असचि, संयम की कट्टरता !.. ..........४९९ २२८ ओपरेशन में भी आधाकर्मी अनुपान त्याग !...... .....४९९ २२९ झूठे मुँह से बोलने पर २५ खमासमण !. ४९९ -49 .00000000000000000000000000000000000000001 .......४८७ .........................४८९ ............ ................. .....४९४ ......४९८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ . ......................................... .... .0000000 म .00000000000000000000000000000000000000000000000 २३० ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए सजगता !..... ...५०० २३१ रसनेन्द्रिय को जीतनेवाले संत !. .........५०० २३२ आधाकर्मी दोष से बचने के लिए शीघ्रविहार !......... .. ......५०१ २३३ अद्भुत गुरुभक्ति !... .............५०१ २३४ वर्षीतप के प्रत्येक पारणे में नाक से दूध-पान ! ... ........५०१ २३५ "व्याधि अर्थात् कर्म निर्जरा का सुनहरा मौका ! ................... ............५०१ २३६ बिना सहायक आदमी, नागपुर से शिखरजी विहार यात्रा... यात्रा...........................५०२ २३७ लघुता में प्रभुता बसे !... ............५०२ २३८ अद्भुत मितव्ययिता ! .................. ...........५०२ २३९ अद्भुत सादगी !.... ........... ........५०३ २४० पैसे के काम का कहना बन्द !... ............५०३ २४१ स्वोपकार के भोग से परोपकार संभव है ?..... ............५०३ २४२ वंदनीय पापभीस्ता !.... ...... ......... ५०३ २४३ दूधपाक से अन्जान खाखी महात्मा !........... ..........५०४ २४४ आदर्श गुरु-आज्ञा पालन !..................... ...........५०४ २४५ आधाकर्मी मुंग के पानी पर असच !. ...... .......५०५ २४६ रोज रात्रिमें एक ही बेठक में ४ घंटे जाप !.. .........५०५ २४७ प्रत्येक पत्र के हिसाब से १० खमासमण !......... ............५०५ २४८ शिष्यों के प्रति अद्भुत हितचिन्ता ! ........ .... ...........५०६ २४९ नमनीय नवकार निष्ठा !... .........५०६ २५० पदवी की महानता, फिर भी आसन की अल्पता !...... .......५०६ २५१ निष्परिग्रहिता की पराकाष्ठा !..... ........ ५०७ २५२ मोह को मारने का उपाय !. .........५०७ २५३ कागज की मितव्ययिता !.... ...........५०७ २५४ निर्दोष पानी के लिए २० मील का विहार !.......... ........५०७ २५५ शल्योद्धार की सफल प्रेरणा ! .........५०८ २५६ बीमार शिष्य के पैर दबाते आचार्यश्री ! . .... ....... ५०८ २५७ ...केरीकी बात से आँखों से अश्रुधारा ! ......५०८ २५८ तीर्थ और शासन रक्षा के लिए अपूर्व लगन !..... ........ ५०९ २५९ ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए अपूर्व जागृति ! ........... ..........५०९ २६० संयम की आज्ञा न मिलने पर अपूर्व पराक्रम ! .... ...... ५०९ २६१ जंगल में स्वयं वेष परिधान !....... .........५१२ २६२ रोज ५०० खमासमण.. स्वहस्तसे वेष परिधान !......... ..........५१७ २६३ संयम के लिए ३ बार गृहत्याग ! आखिर.. .......५१९ २६४ संयम हेतु ५ वर्ष तक छः विगई त्याग !...... २६५ दीक्षा के लिए छः विगई त्याग... सागारिक अनशन ! .............. -500 ک ک ک ک ک +000000000000000 ک ک ک ک ک ک ک .000000000000000000000000000000000 ک ک ک ........ ५२० .....५२२ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ ५३० .00000000000000000000................. . ........... ... . . . ५३४ 00000.............५३७ ५३९ ५४० .............................. ५ ४ ५ २६६ २०० से अधिक ओली के आराधक ३ साध्वीजी !.................. ५२४ २६७ २०० से अधिक ओली के आराधक साध्वीजी !... ....... ५२६ २६८ २०० से अधिक ओली के आराधक साध्वीजी !.... .५२७ २६९ संलग्न २० उपवास से बीस स्थानक की आराधना !.. ५२८ २७० ७३ वर्ष की उम्र में २५१ उपवास ! ........ २७१ लगातार ३११ उपवास !..... २७२ ११ अंगसूत्र कंठस्थ करनेवाले साध्वीजी !... ५३१ २७३ विदुषी साध्वीजी (बहिन महाराज) ... ... २७४ पल्लीवाल क्षेत्र में धर्म का पुनर्जीवन !........... २७५ अठाई से वर्षीतप, पारणों में एक धान्य का आयंबिल !.... ५३५ २७६ ९०० आयंबिल के उपर ४५ उपवास में उग्र विहार !. .. २७७ लगातार ४०० छठ से बीस स्थानक तप ! .. ... २७८ तपोमय जीवन !................................. २७९ ७२ वर्ष की उम्र में संयम स्वीकार !. ५४० २८० मरणांत परिषह में भी अद्भुत समता ! ......... ....................५४१ २८१ १०८ मासक्षमण की भावना ! ......... .........५४३ २८२ १०८ मासक्षमण की भावना !................. ५४५ २८३ चौविहार १०८ छठ्ठ के साथ ९ - ९ यात्राएँ !...... २८४ चौविहार १०८ छठ के साथ ८ - ८ यात्राएँ !......... ५४७ २८५ आँख में मकोड़ा ! फिर भी अजीब समता !. ५४९ २८६ स्वानुभूति संपन्न साध्वीजी की अद्भुत निरीहता !. ५५१ २८७ १०० ओली का पारणा-सादगी पूर्वक !............ २८८ १२ वर्ष मौन के साथ आत्मसाधना !.... ५५४ २८९ ६ वर्षों से वर्षांतप के साथ मौन !.......... ५५६ २९० विहार में १५ दिन तक चने आदि से निर्वाह !. .........५५७ २९१ ४९ वर्षों से चौविहार उपवास से वर्षीतप ! २९२ आयंबिल और नवकार का अनूठा प्रभाव !.... ..........................५६४ २९३ तप-जप से केन्सर केन्सल हो गया ! ........... ....... ५६६ २९४ ८६ वर्ष का दीक्षा पर्याय !. .......५६८ २९५ प्रत्येक जिनबिम्बों के समक्ष चैत्यवंदन !........... .......५६९ २९६ मुनिवरों के अनुमोदना पत्रों का सारांश !.. .....५७० २९७ स्थानकवासी महत्माओं के अनुमोदना पत्रों का सारांश. .......५८६ २९८ साध्वीजी भगवंतों के अनुमोदना पत्रों का सारांश !...... ............५८९ २९९ श्रावक-श्राविकाओं के अनुमोदना उद्गार ... ......... .........५९० ३०० सन्माननीय आराधक रत्नों के हर्षोदगार .. ....... ५९३ ३०१ बहुरत्ना वसुंधरा भाग-३ के दृष्टांत पात्रों के नाम ................ ...........५९६ ...............................५४७ ५४७ ५५३ .............................५५९ (51) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बहुना वसुंधरा " भाग पहला जन्म से अजैन होते हुए भी सत्संग से जैन धर्मको समर्पित अर्वाचीन आराधकरत्नों के दृष्टांत Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ आजीवन ठाम चौविहार अवड्ढ एकाशन तपके बेजोड़ आराधक वनमालीदासभाई भावसार गुजरात में महेसाणा जिले में महुड़ी (मधुपुरी) तीर्थ के पास आये हुओ वाग्पुर गाँव में वि.सं.१९८५ में मृगशीर्ष शुक्ल १४ दि. २५-१२१९२८ के शुभ दिनमें जगजीवनभाई भावसार नाम के सद्गृहस्थ के घरमें तेजस्वी पुत्र-रत्न का जन्म हुआ । बालक का नाम वनमालीदास रखा गया। जगजीवनभाई कपड़े रंगने का व्यवसाय करते थे एवं कुलपरंपरागत वैष्णव धर्म का पालन करते थे । मगर कपडे रंगवाने के लिए आते हुए श्रावकों के परिचय से उन को अहिंसा प्रधान जैन धर्म का रंग लग गया। फलतः कपड़े रंगने के लिए उबले हुए पानी एवं रंगों की मिलावट द्वारा होती हुई असंख्य जीवों की हिंसा से उनका कोमल हृदय पिघल गया एवं उन्होंने इस व्यवसाय को जलाञ्जलि दे दी । "संग वैसा रंग" एवं "सोबत वैसा असर" यह इसका नाम । ७ वर्ष की बाल्यवयमें वनमालीदासभाई अपने पिताजी के साथ अहमदाबाद आये । वे किसी की भी सत्प्रेरणा का तुरंत स्वीकार करने की प्रकृतिवाले थे । फलतः उसी वर्ष में अमथीबाई नामकी विधवा श्राविका की प्रेरणासे उन्होंने प्रतिदिन नवकारसी एवं जिनेश्वर भगवंत की पूजा करने का प्रारंभ कर दिया । सं.२००५ में केवल २० वर्ष की उम्र में पू. मानविजयजी म.सा.की प्रेरणासे आजीवन नवकारसी एवं चौविहार करने की प्रतिज्ञा ली । उस समय उनकी शादी को केवल २ वर्ष ही हुए थे । युवावस्था । के प्रारंभ में भी नियमबद्ध जीवन जीने की कैसी अनुमोदनीय भूमिका !.. उनकी शादी सं. २००८ में हीराबेन के साथ हुई थी। उन्होंने सं. २०२० में ३५ वर्ष की वयमें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया, उसमें भी निमित्त अच्छे मित्रकी संगति ही बनी, जो इस प्रकार है। एकबार उनके एक मित्रने कहा कि 'मैं अंधेरी रातमें भी सूईमें बहुरत्ना वसुंधरा - १-1 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ धागा पिरो सकता हूँ, क्यों कि मैं ३५ सालसे ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा हूँ, इसके प्रभावसे मेरी आँखोंमें ऐसी शक्ति उत्पन्न हुई है । इस प्रसंग का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा एवं उन्होंने भी अपनी धर्मपत्नी की संगति से केवल ६ महिनों में ही पत्नी के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार लिया । ' धर्म के कार्यमें विलंब क्यों' इसके अनुसंधानमें वनमालीदासभाई ने कहा कि 'अच्छी बातका आचरण कल पर नहीं टालना चाहिए । 'आज.. आज.. भाई ! अभी ही' आचरण करना चाहिए । यदि आत्महितकर बात का आचरण आजसे ही प्रारंभ करने में असफल रहेंगे तो कल भी उसका प्रारंभ करनेमें असफलता ही हाथ लगेगी । ( 'अभी, नहीं तो कभी नहीं' ) हाँ, बूरे विचारों को कार्यान्वित करने के लिए 'आज नहीं, कल सोचेंगे' यह नीति समुचित है । चढते परिणामों से नवकारसी एवं चौविहार के नियमका पालन करते हुए वनमालीदासभाई के अंतःकरणमें क्रमशः ऐसे शुभ भाव जाग्रत हुए कि, 'हे जीव ! नवकारसी - चौविहार तो कई जीव करते हैं, मगर तू तीर्थंकर परमात्माने बताये हुए उत्कृष्ट पच्चक्खाण 'अवड्ढ' को स्वीकार कर, जिससे तेरे अनंत कर्मों का शीघ्र ही क्षय हो जाय' । इसी भावना से उन्होंने वि.सं. २०२३ में महा वदि १४ के दिन अहमदाबादमें पू. मुनिराज श्री पुण्यविजयजी म.सा. के श्रीमुखसे 'आजीवन अवड्ढ एकाशन करने की भीष्म प्रतिज्ञा ले ली !!!.. वे कहते हैं कि, " परिस्थिति प्रारब्ध के अधीन है, मगर धर्मपुरुषार्थ तो स्वाधीन है".." किसी भी वस्तु को निर्माण करनेमें समय लगता है, मगर विनाश करनेमें विशेष समय नहीं लगता है, इस लिए प्रतिकूल परिस्थितिमें भी अपने नियमों का पालन दृढतापूर्वक करना चाहिए" । एकबार शारीरिक अस्वस्थता के कारण, वनमालीदास भाई को अपने बड़े भाई के अत्यंत आग्रहवशात् अवड्ढ के बदले में पुरिमड्ड पच्चक्खाण लेना पड़ा, मगर बादमें उनके अंतःकरणमें इतना दुःख हुआ कि दूसरे ही दिन इसके प्रायश्चित्त के रूपमें चौविहार उपवास कर लिया ।.. पिछले ३२ वर्षोंमें कभी भी इस नियममें परिवर्तन करने का प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ है !.. अपने आत्मबल को अधिक अधिकतर विकसित करने के लिए Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ वनमालीदासभाई पिछले १३ वर्षों से अवड्ढ एकाशन के साथमें ठाम चौविहार भी करते हैं, अर्थात् अहोरात्रमें केवल एक ही बार भोजन के समय में ही वे पानी पीते हैं !!!... आज्ञांकित सुशील धर्मपत्नी एवं सुविनीत दो पुत्र तथा पौत्रादि विशाल परिवार होते हुए भी एकत्व भावना की पुष्टिके लिए वनमालीदासभाई अहमदाबादमें सुप्रसिद्ध हठीसींग की बाड़ी की धर्मशालामें उपाश्रय के पास के कमरे में अकेले ही रहते हैं । संथारे पर शयन करते हैं । सचित्त (कच्चे) पानी से स्नान भी नहीं करते । केवल रोटी एवं शाक जैसे २ - ३ सामान्य द्रव्यों को स्वयं पकाकर अवड्ड एकाशन करते हैं । प्रत्येक महिने की प्रारंभिक तिथि को केवल एक ही द्रव्य से आयंबिल करते हैं । ४२ वर्षों से आम का त्याग है । सक्कर से बनी हुई किसी भी वस्तु का भोजन नहीं करते हैं । पर्युषण महापर्व के दिनोंमें दो टाईम व्याख्यान-श्रवण आदि कारणों से रसोई करने का जब समय नहीं मिलता है तब वे केवल केले खाकर भी ठाम चौविहार अवड्ड एकाशन कर लेते हैं। सं.२०३१ में अहमदाबादमें किसी कच्छी जैन साध्वीजी की प्रेरणा से वनमालीदासभाई ने श्रावक के १४ नियमों की प्रतिदिन धारणा करने का प्रारंभ किया एवं उसी दिनसे घी एवं गुड़के सिवाय बाकी की चार विगइयों का त्याग कर दिया । . संयमी जीवन शैली के कारण से वे प्रायः बिमार नहीं होते हैं। फिर भी प्रारब्धवशात् कभी थोड़ीसी भी बुखार आने की संभावना लगे तब वे चौविहार उपवास कर लेते हैं । एलोपथी दवाओं का सेवन नहीं करने का मका नियम है । ज्वरस्य लंघनं श्रेय : अर्थात् बुखार के समय में आहार त्याग श्रेयस्कर है । आयुर्वेद के इस सूत्र के अनुसार वे बुखार में आहार त्याग करते हैं एवं मानते हैं कि, 'अतिथि को अगर खाने पीने के लिए कुछ भी नहीं देंगे तो वह कब तक हमारे घरमें रह सकता है !...' आजसे करीब २२ साल पूर्व अहमदाबादमें लुणसावाड़ा उपाश्रयमें Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पू. मुनिराज श्री ओंकारविजयजी म.सा. एक श्रावक को ५०० आयंबिल करने की प्रेरणा दे रहे थे, उसे सनकर वनमालीदासभाई ने एकांतरित ५०० आयंबिल का प्रारंभ कर दिया एवं निर्विजतासे परिपूर्ण भी किये । __ जीवदयाप्रेमी वनमालीदासभाई ने तेउकाय जीवों की निरर्थक विराधनासे बचने के लिए आजीवन अपने हाथ से इलेक्ट्रीक लाइट चालु न करने की प्रतिज्ञा ली है ..... इतना ही नहीं मगर कुछ साल पहले रसोई करने में होती हुई अग्निकाय जीवों की विराधनासे बचने के लिए केवल चने के चूर्ण के साथ घी गुड़ मिश्रित करके अथवा मुरमुरोंके साथ नमक मिर्च मिश्रित करके उसीसे अवड्ड एकाशन करने का प्रयोग १०८ दिन पर्यंत किया था। कमसे कम चीजों से जीवन जीनेवाले वनमालीदासभाई पाँवोंमें जूते भी नहीं पहनते । गर्मी की ऋतुमें कभी दोपहर के समयमें धर्मशाला के बाहर जानेका प्रसंग उपस्थित होता है, तब भी वे जान बूझकर छाया का त्याग करके नंगे पाँव धूपमें ही चलते हैं। ऐसा करने का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि "गर्मी के दिनोंमें कई प्रकार के कीड़े मकोड़े आदि जीवजंतु छायामें विश्रांति लेते हैं और हमारे छायामें चलने से उन जीवों की हिंसा होने की अधिक संभावना रहती है। इसलिए हमें भले कष्ट सहन करना पड़े, मगर दूसरे जीवों को हमारे निमित्त से थोड़ी भी तकलीफ नहीं पड़नी चाहिए ।" कैसी उदात्त विचारधारा ! कैसा उत्तम जीवन .... प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण एवं जिनपूजा करनेवाले वनमालीदासभाई हररोज चार सामायिक अचूक करते हैं । सं. २०५० में पू. आचार्य श्री श्रेयांसचन्द्रसूरिजी के चातुर्मासमें किसी मुनिराजश्री की विशिष्ट तपश्चर्या के पारणे का लाभ लेने के लिए सामायिक की बोली बोलायी जा रही थी। तब वनमालिदासभाई ने पांच हजार सामायिक तक बोली बोली थी। उसके बाद किसी श्रावकने उन्हें आगे न बोलने के लिए एवं दूसरे श्रावक को लाभ देने के लिए इशारा किया, इसलिए वे चुप हो गये। दीपचंदभाई नामके श्रावकने आदेश लेकर पारणे का लाभ लिया, फिर भी वनमालीदासभाई ने ३ सालमें ६००० सामायिक करनेका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ अभिग्रह ले लिया। तबसे वे प्रतिदिन ८ सामायिक अचूक करते हैं । उनकी धर्मपत्नी हीराबहन भी प्रतिदिन ८ सामायिक एवं जिनपूजा करती हैं । दोनों सुपुत्र एवं पौत्र भी हररोज प्रभुदर्शन करते हैं। आजसे ७ साल पूर्व वनमालीदासभाई ने श्रावक के १२ व्रतों का विधिवत् स्वीकार कर लिया है । ऐसे उत्कृष्ट तप-त्याग के साथ साथ उनके जीवनमें अनुमोदनीय अप्रमत्तता भी है । वे दिनमें कभी सोते नहीं हैं । शीतकालमें रात को २॥-३ बजे निद्रा त्याग करते हैं एवं गर्मी की ऋतुमें प्रातः ४ बजे उठकर जप एवं कायोत्सर्ग करते हैं । प्रतिदिन २ सामायिक के दौरान २५० लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं एवं हररोज १० हजार बार 'अरिहंत' ..'अरिहंत' का जप अंगुलियों की रेखाओं पर अंगूठे के सहारे से करते हैं। वे कहते हैं कि "अगर मृत्यु के समय में 'अरिहंत' का स्मरण करना चाहते हों तो जीवनकाल में ही प्रतिदिन उसकी आदत डालनी चाहिए।" देह एवं आत्मा के भेद ज्ञान के लक्ष्यपूर्वक हररोज आत्मसिद्धिशास्त्र का स्वाध्याय करते हैं । अखबार कभी पढते नहीं हैं। गुजराती में ७वीं कक्षा एवं अंग्रेजी में १ कक्षा तक का व्यावहारिक अभ्यास करनेवाले वनमालीदासभाई को प्रारब्ध एवं प्रामाणिक पुरुषार्थ के बलसे सेंचुरी मीलके शेरों द्वारा अच्छा अर्थलाभ हुआ है । सिंधी मार्केटमें उनकी कपड़े की १० दुकानें हैं, जो उनके ३ भाई सम्भालते हैं । स्वयं आराधनामय निवृत्त जीवन जीते हैं । ____दान धर्मकी आराधना के रूपमें हठीसींगकी बाड़ी के आयंबिल खाते में एवं भोजनशाला में १ - १ लाख रूपये एवं पालीताना की सिद्धक्षेत्र भोजनशाला में ११ लाख रु. सहित ५५ लाख रूपयोंका दान विविध क्षेत्रों में दिया है । प्रतिदिन पक्षियों को १०० रु का अनाज अनुकंपादान के रूपमें डालते हैं। पक्षियों के लिए पानी के कंडे वे स्वयं भरते हैं एवं उपाश्रय तथा पाठशाला की सफाई भी स्वयं करते हैं। हररोज जिन मंदिर के भंडार में पांच रुपये अचूक डालते है । 'जिनमंदिर रूपी आत्म-निरीक्षण केन्द्रमें जाना हो तो पाँच रुपये का टिकट Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ कढाये बिना कैसे जा सकते हैं ?' ऐसे थे उनके उद्गार !.. २-३ मुनिवरों द्वारा वनमालीदासभाई की उत्कृष्ट आराधना के बारेमें कुछ जानकारी मिली । बादमें विशेष जानकारी के लिए दि. २०-६१९९५के दिन हम हठीसींग की बाड़ीमें गये तब वे जिनपूजा कर रहे थे। पूजा के बाद जब वे उपाश्रयमें आये तब उनके साथ प्रश्नोत्तरी द्वारा उपरोक्त जानकारी प्राप्त की । अंतमें उन्होंने निवेदन किया कि यह सब जानकर कृपया आप मुझे अखबारमें प्रसिद्ध न करें !' कितनी निरभिमानिता एवं निःस्पृहता !.. प्रिय पाठक ! देखा न ! भावसार जातिमें जन्म पाये हुए वनमालीदासभाई जिनेश्वर भगवंत की आज्ञाओंका कैसा सुन्दर पालन करते हैं ?! कहा है कि - "जाति-वेषका भेद नहीं, कहा मार्ग जो होय । साधे वह मुक्ति लहे, उसमें भेद न कोई ॥" "प्रभुका मारग है शूरोंका, नहीं कायरका काम" प्रभु "महावीर" के संतान हम इस दृष्टांत को पढकर कर्मक्षय के लिए शूरवीर एवं धीर-गंभीर बननेका संकल्प करेंगे न ?! शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोह में वनमालीदासभाई पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. १२ के सामने । पता : वनमालीदासभाई जगजीवनदास भावसार हठीसींग की बाड़ी, अहमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८०००४. कंवल दो ही द्रव्यों से ७७ साल तक निरंतर एकाशन करनेवाला अडालजका ब्राह्मण आज से २२ साल पूर्व सं. २०३३ की यह घटना है । धर्मचक्रतप प्रभावक प.पू. मुनिराज श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्य) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ विहार करते हुए अनुक्रमसे गुजरात राज्यमें गांधीनगर के पास अडालज गांवमें पधारे । तब जिनमंदिर के पासमें एक सद्गृहस्थ ने उनको 'मत्थएण वंदामि' 'सुखशाता' कहते हुए पूछा 'महाराज साहब ! आप प्रवचन देंगे?' म.सा.ने कहा - 'आप आयोजन करेंगे तो मुझे प्रवचन देने में कोई हर्ज नहीं है। . उस भाई ने कहा - 'म.सा. ! व्याख्यान का आयोजन तो श्रावक लोग ही कर सकते हैं ।' 'क्या आप श्रावक नहीं हैं ?' म.सा.ने आश्चर्य के साथ पूछा । 'मैं ब्राह्मण हूँ' सामने से प्रत्युत्तर मिला । . 'तो फिर आपको जैन साधु के प्रवचन श्रवण का इतना रस कैसे जाग्रत हुआ है?' म.सा. ने जिज्ञासावश पूछ । ब्राह्मण : 'म.सा. ! आपके प्रश्न का प्रत्युत्तर देने से पहले मैं. आपको एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ । क्या मैं पूछ सकता म.सा. : 'खुशीसे पूछे ।' ब्राह्मण : आपको मेरी उम्र कितनी दिखाई देती है ?' म.सा. : 'होगी ५०-५५ साल के आसपास आपकी उम्र; मगर इस प्रश्न का मेरे उपरोक्त प्रश्नसे क्या संबंध है ? ब्राह्मण : 'संबंध है, इसीलिए तो आपश्री को मुझे यह प्रश्न पूछना पड़ा है । महाराज साहब ! ८४ का चक्कर पूरा करके ८५ . वें वर्षमें इस देहका प्रवेश हुआ है ! ' 'तो ऐसे आश्चर्यप्रद स्वास्थ्य का राज बतायेंगे ?' म.सा.ने अत्यंत आश्चर्य के साथ पूछा । ब्राह्मण : 'यह सब प्रताप एवं प्रभाव जैन धर्म का ही है । म.सा. : 'कैसे, ? सविस्तर समझाएँ ।' ब्राह्मण : 'सुनिए । मेरी उम्र जब १४ सालकी थी तब हमारे गाँवमें Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ एक जैन साधु महाराज पधारे थे । में अपनी मित्र मण्डली के साथ उपाश्रय के पासमें खेल रहा था । म.सा.ने हमको देखकर कहा 'आओ बच्चों । मैं तुम्हें अच्छी कहानी सुनाता हूँ ।' . कहानी सुननेकी जिज्ञासावश हम सभी उपाश्रय में गये । म.सा.ने कहानी सुनाने के बाद हमको पूछा 'बोलिए, आपमें से किसको जल्दी मरना है ?' ऐसा विचित्र सवाल सुनकर एक भी बच्चेने अंगुली ऊँची नहीं की। बादमें म.सा.ने फिरसे पूछा, 'आपमें से किसको रोग रहित दीर्घायुषी बनना है ?' तब सभी बच्चोंने निरपवाद रूपसे अपनी अंगुली ऊँची कर दी। बाद में म.सा.ने कहा - 'देखो बच्चों । जिनको भी आरोग्य युक्त दीर्घ आयुष्य प्राप्त करना है, उन्हें निम्नोक्त तीन बातों को अपने जीवनमें आत्मसात् करनी चाहिए । (१) अधिक भोजना करना नहीं । जितनी भूख हो उससे कुछ अल्प मात्रामें भोजन करना चाहिए । (२) अधिक बार खाना नहीं । अच्छी तरह भूख लगे तभी ही भोजन करना चाहिए । एक या दो बारसे अधिक बार भोजन नहीं करना चाहिए। (३) अधिक वस्तुएँ खानी नहीं । सात्त्विक एवं सुपाच्य आहार लेना चाहिए । अधिक तेल - घी युक्त एवं मसालेदार अधिक चीजें नहीं खानी चाहिए । अल्प द्रव्यों से भोजन करना चाहिए । बस, इन तीन बातों का प्रयोग कीजिए तो आपको स्वयं ही इनका प्रभाव अनुभव में आयेगा । म.सा. की वात्सल्य युक्त निःस्वार्थ वाणी अन्य अनेक बच्चों के साथ मेरे हृदय को तो ऐसी छू गयी कि दूसरे ही दिनसे मैंने उसका प्रयोग शुरू कर दिया । दो दिनके लिए एकाशन अर्थात् एक ही बार भोजन Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ करने की प्रतिज्ञा म.सा. के पास से ली एवं बाजरी की रोटी और छाछ इन दो ही द्रव्यों से दो दिन एकाशन किये । इस से मुझे बड़ी स्फूर्ति का अनुभव हुआ। फलत : मेरी श्रद्धा इतनी सुदृढ हो गयी कि तीसरे दिन मैंने म.सा. के श्रीमुखसे आजीवन केवल दो ही द्रव्योंसे एकाशन करने की प्रतिज्ञा ले ली । म.सा.ने बहुत प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद एवं यथायोग्य हितशिक्षा के . साथ प्रतिज्ञा दी । इस बातको आज ७० साल हो गये । फिर भी आज दिन तक एक भी बार इस नियम का भंग होनेका अवसर नहीं आया है। केवल बाजरी की रोटी एवं छाछ अथवा हरी मिर्च इन दो ही द्रव्यों से सानन्द एकाशन हो रहे हैं । परिणाम स्वरूपमें आज ८५ सालकी उम्रमें भी आंख-कान, हाथ-पाँव आदि सभी इन्द्रियाँ एवं अवयव पूर्णतया नीरोगी हैं । शिरदर्द एवं बुखार कैसा होता है उसका मुझे अनुभव नहीं है। आज भी यहाँ से ५ कि.मी. दूर तक पैदल चलकर ही खेतमें जाता हूँ। यह सब प्रभाव जैन धर्म के एकाशन तपका है। इसीलिए मैं जैन साधु भगवंतों के प्रवचन अचूक सुनता हूँ।" एक ब्राह्मण के मुखसे जैन धर्म एवं जैन साधु भगवंतों के लिए ऐसे श्रद्धा एवं अहोभाव युक्त उद्गार सुनकर म.सा. को बहुत खुशी हुई। उन्होंने उस ब्राह्मण की बहुत ही अनुमोदना की । बादमें वे जहाँ भी जाते वहाँ प्रवचन में इस प्रसंग का वर्णन करते, जिसे सुनकर श्रोता भाव विभोर बन जाते थे एवं अपने जीवनमें इसका आंशिक भी आचरण करने के लिए कटिबद्ध हो जाते थे। इस घटना के ६ वर्ष बाद सं.२०३६ में उपरोक्त म.सा. आणंद के पास वड़ताल गाँवमें प्रवचन में इस दृष्टांत का वर्णन कर रहे थे । तब योगानुयोग अडालज गाँवके एक श्रावक भी किसी कार्यवश वड़ताल आये थे एवं प्रवचन सभामें उपस्थित थे । उन्होंने कहा कि 'म.सा. ! यह दृष्टांत तो हमारे गाँवका है' । तब म.सा.ने पूछा कि 'वर्तमान में उनकी क्या खबर है ? श्रावकने प्रत्युत्तर दिया कि '१५ दिन पूर्व ही उनका स्वर्गवास हुआ है । उस दिन उनकी पुत्रवधूने मध्याह्न कालमें उनसे कहा कि 'पिताजी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ चलो, एकाशन कर लो।' उन्होंने कहा ' आता हूँ।' इतना कहकर वे अपने घरके एक कोनेमें जहाँ वे प्रतिदिन प्रभुजी की तस्वीर के समक्ष नवकार महामंत्र का जप करते थे वहाँ गये एवं अंतः प्रेरणा के अनुसार पद्मासन मुद्रामें बैठकर नवकार महामंत्रका स्मरण करते हुए केवल पाँच मिनिट में ही बिल्कुल स्वस्थता एवं साहजिकता से इच्छामृत्यु पूर्वक देहपिंजरका त्याग किया ! उस समय दोपहर को विजय मुहूर्त का समय था । उनकी पुत्रवधूने उस वक्त उनके मस्तक पर अचानक प्रकाश पुंजका दर्शन किया था । प्रिय पाठक ! देखा न ! ऊनोदरी पूर्वक केवल २ ही द्रव्यों से आजीवन एकाशनकी प्रतिज्ञाका कैसा अद्भुत प्रभाव है ! सचमुच जैन धर्म कितना वैज्ञानिक है । उसके प्रत्येक विधिनिषेध के पीछे आत्मिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार के आरोग्य का राज समाया हुआ है। होटलें, रेस्टोरन्ट, भेलपुरी आदि की लारियाँ, फास्टफुड एवं मांसाहार के धूम प्रचार के इस युग में मानवजाति अगर जैन धर्म के आहार विज्ञान को समझकर आचरण में लाये तो अरबों रूपयोंकी दवाएँ एवं अस्पतालों के बिना भी समाज का द्रव्य भाव आरोग्य कितना सुधर जाय ? सामाजिक स्तर पर यह बात जब शक्य बने तब, लेकिन व्यक्तिगत जीवनमें तो इस बात का आचरण करने के लिए तो हम सभी स्वतंत्र है न? तो चलो, अच्छे कार्यमें विलंब क्यों ? नवकार महामंत्र को सिद्ध करनेवाले सरपंच लालुभा मफाजी वाघेला . श्रद्धा संपन्न श्रोता एवं अनुभवी सद्गुरु का सुयोग कलिकालमें भी कैसे अदभुत परिणाम ला सकता है, यह हम लालुभा के प्रत्यक्ष दृष्टांत से समझेंगे। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सं. २०३७ में वैशाख महिने की किसी धन्य घड़ीमें ट्रेन्ट गाँव (ता.विरमगाम, जि. अहमदाबाद, गुजरात) के निवासी लालुभा को वांकानेर एवं टंकारा गाँव के बीचमें आये हुए जड़ेश्वर महादेव की धर्मशाला में नवकार महामंत्र समाराधक प.पू. पं. श्री महायशसागरजी गणिवर्य म.सा. (वर्तमानमें आचार्य श्री) का सत्संग प्राप्त हुआ । विहार करते हुए पूज्यश्री, आसपास में जैन स्थान न होने के कारण जड़ेश्वर महादेव की धर्मशाला में एक अहोरात्र के लिए ठहरे थे । भवितव्यतावश ट्रेन्ट गांव के सरपंच लालुभा भी अपने भानजे के हृदय के वाल्व के सफल ओपरेशन के बाद मनौती पूरी करने के लिए जड़ेश्वर महादेव के दर्शन हेतु आये थे । उपरोक्त जैन मुनिवर को देखकर प्रकृति के किसी अगम्य संकेत के अनुसार लालुभा अपने भानजे का स्वास्थ्य संपूर्ण ठीक हो जाय ऐसी भावना से पूज्यश्री का आशीर्वाद लेने के लिए गये । 'सवि जीव करूं शासन रसी' की भावनामें रमते हुए पूज्यश्रीने वात्सल्य पूर्ण वाणीसे उनको व्यसन त्याग के लिए प्रेरणा दी । 'कम्मे शूरा सो धम्मे शूरा' इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए शैव धर्मानुयायी लालुभाने तुरंत हाथमें पानी लेकर शंकर एवं सूर्य देवताकी साक्षी से, प्रतिदिन १०० बीडियों का धूम्रपान करने के कई वर्षों के पुराने व्यसन को एक साथ हमेशा के लिए जलाञ्जलि दे दी। उनकी ऐसी पात्रता देखकर पूज्यश्रीने भी यथायोग्य रूपसे प्रोत्साहित किया । फलतः चातुर्मास में पूज्यश्री के दर्शन हेतु लालुभा खास अहमदाबाद गये । भानजे का स्वास्थ्य संपूर्ण तया ठीक हो जाने से लालुभा की पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा वृद्धिंगत होती रही । सं. २०३८ में पूज्यश्री का चातुर्मास जामनगरमें था तब लालुभा वहाँ ४ बार दर्शन हेतु गये थे । पूज्यश्री के साथ प्रश्नोत्तरी द्वारा शैवधर्म एवं जैनधर्म के तत्त्वों का रहस्य समझने की कोशिश की । महिने में दो बार एकादशी के दिन फलाहार युक्त उपवास करनेवाले लालुभा अब केवल उबाला हुआ अचित्त जल पीकर शुद्ध उपवास करने लगे। उन्होंने सात महाव्यसन, जमीकंद एवं रात्रिभोजन का हमेशा के लिए त्याग किया । सगे भाई की बेटी के शादी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ के प्रसंगमें भी उन्होंने रात्रिभोजन नहीं ही किया। प्रातः काल में नवकारसी एवं शामको चौविहार का पच्चक्खाण करने लगे । प्रतिदिन नवकार महामंत्रकी एक पक्की माला का जप करने का प्रारंभ किया। जैन धर्म के प्रति अटूट श्रदधा रखने लगे । इस चातुर्मास में उपधान तपकी क्रिया देखकर उनमें क्रियारुचि उत्पन्न हुई और उन्होंने हररोज मौनपूर्वक एक सामायिक करने का प्रारंभ किया। प्रतिवर्ष अपने उपकारी गुरुदेवश्री का चातुर्मास जहाँ भी होता वहाँ जाकर पर्युषणमें उनकी पावन निश्रामें एकांतरित ४ उपवास एवं ४ एकाशन पूर्वक ६४ प्रहरी पौषध करने लगे । यह क्रम पिछले १४ सालसे अखंड रूपसे चालु ही है। . ट्रेन्ट गाँवमें एक भी जैन घर न होने पर भी जैन धर्म का पालन करते हुए लालुभा का, प्रारंभमें गांव के लोगोंने बहुत विरोध किया । तब लोक विरोध को शांत करने के लिए व्यवहार-दक्षता का उपयोग करते हुए लालुभा अपने गुरुदेवश्री के मार्गदर्शन के अनुसार शिवमंदिरमें जाकर भी - "भवबीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥" (भावार्थ : संसार रूप बीजमें से अंकुर को उत्पन्न करनेवाले राग द्वेषादि दोष जिनके क्षय हो गये हैं ऐसे जो भी देव हों, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शंकर हों या जिनेश्वर भगवंत हों, उनको मेरा नस्कार हो।) यह श्लोक बोलकर, बाह्य दृष्टिसे शिवलिंग को नमस्कार करते हुए दिखाई देनेवाले लालुभा भावसे तो श्री जिनेश्वर भगवंत को ही नमस्कार करते थे। अनन्य गुरुसमर्पण भावको धारण करनेवाले लालुभाने सं. २०४५ में अपने गुरुदेवश्री के साथ वर्षीतप का प्रारंभ किया एवं उसका पारणा भी गुरुदेवश्री के साथ हस्तिनापुर तीर्थमें किया । सं. २०४८ में वर्धमान आयंबिल तपका प्रारंभ किया । कषाय जय तप एवं धर्मचक्रतप को पूर्ण करने के बाद वीरमगाँव से प्रभुजी को ट्रेन्ट गाँवमें विराजमान करके बड़ी धूमधाम से स्नात्रपूजा पढाकर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सारे गाँव को प्रीतिभोजन दिया । लेकिन उन्होंने स्वयं तो तपश्चर्या के निमित्त से मिलती हुई प्रभावना की वस्तुओं का भी नम्रतापूर्वक अस्वीकार किया ! सं. २०४९ में फा. सु. १३ के दिन शत्रुजय गिरिराज की ६ कोसकी प्रदक्षिणा एवं आदिनाथ दादाकी पूजा की । उसी वर्ष में चातुर्मास के अंतमें गिरिराज की छत्रछाया एवं उपकारी गुरुदेवश्री की निश्रामें उपधान तप करके मोक्षमाला का परिधान किया । श्रावक के १२ व्रतों में से कुछ व्रत-नियमों का स्वीकार किया । परिग्रह का परिमाण किया । सरकारी जीनमें कई वर्ष तक चौकीदार के रूपमें नौकरी करने के बादमें वे खेती करने लगे तब खेतीमें भी जीवदया पालन का सविशेष लक्ष रखने लगे। खानदान कुलमें जन्मे हुए संतानों को भी आज के टी.वी. युगमें माँ - बापको चरण स्पर्श करके प्रणाम करने में लज्जा होती है, मगर ६२ मालकी उम्र के लालुभा को आज भी प्रतिदिन अपनी माँ को चरण स्पर्श करके प्रणाम करने में आनंद एवं गौरव का अनुभव होता है। ____ व्यवहार समकित को निर्मल बनाने के लिए उन्होंने शत्रुजय समेतशिखर, हस्तिनापुर, राजगृही, पावापुरी, चंपापुरी, बनारस आदि अनेक तीर्थों की यात्रा भक्ति भावसे करके अपने जीवन को धन्य बनाया है । जब भी ट्रेन्ट से विरमगाँव जाने का प्रसंग होता है, तब वहाँ जो भी जैन मुनिवर बिराजमान होते है उनको भावपूर्वक वंदन करके उनका प्रवचन सुनते हैं। चातुर्मास में वहाँ जो भी सामूहिक तपश्चर्या करायी जाती है उसमें वे अचूक शामिल होते हैं । धार्मिक सूत्रोंमें गुरुवंदन विधिके सूत्र एवं सामायिक विधि के सूत्र कंठस्थ कर लिए हैं। प्रवचन आदि में जो भी आत्म हितकर बातें सुनने मिलती है उन्हें तुरंत आचरणमें लाने के लिए वे हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं । (सं. २०४२)में अंधेरी (मुंबई) में पर्युषण के दौरान अपने उपकारी गुरुदेवश्री के श्रीमुखसे 'क्षमापना' के विषयमें प्रवचन सुना एवं तुरंत अपने प्रतिस्पर्धी चेरमेन के वहाँ जाकर उससे क्षमा याचना की । यह देखकर चेरमेन भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ चकित रह गया एवं हमेशा के लिए लालुभा का गाढ मित्र बन गया। ... एक बार लालुभा अपनी बेटी की सगाई के लिए कच्छ के एक गांवमें गये थे । वहाँ समधी उनको अपना खेत दिखाने के लिए ले गये। वापस लौटते समय सूर्यास्त हो जाने से उन्होंने अपने समधीके घरमें भी रात्रिभोजन नहीं किया । नवकार एवं धर्म के प्रति दृढ निष्ठा के कारण से लालुभा के जीवनमें कई चमत्कारप्रद घटनाएं हुई हैं जिनमें से कुछ घटनाएँ यहाँ दी जाती हैं। - (१) खूनकी उलटी बंद हुई : दैनिक नित्यक्रम के अनुसार लालुभा मौनपूर्वक सामायिक में थे, तब उनके घरमें आये हुएं भानजे को अचानक खून की उलटी होने से घर के सभी लोग बहुत गबरा गये, और लड़के को अहमदाबाद की किसी अस्पताल में भरती करवाने की तैयारी करने लगे । तब नवकारनिष्ठ लालुभाने मौन के कारण केवल इशारा करके अचित्त जल मंगाया एवं एक पक्की नवकारवाली (१०८ नवकार) का जप करके उस नवकारवाली (माला) को पानीमें डाल दी। कुछ देरके बाद उसको बाहर निकालकर भानजे को वह पानी पिला दिया । लहूकी उलटी बंध हो गई । अस्पतालमें जाने की जरूरत ही न रही । . (२) सर्प का जहर उतर गया : ट्रेन्ट गाँव के एक युवक को खेतमें विषैले सर्पने डंक मारा । युवक मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा। उसके माँ-बाप उसे बैलगाडी में रखकर आक्रंद करते हुए लालुभा के पास आये एवं अपने बेटे को बचाने के लिए विज्ञप्ति करने लगे । दयालु लालुभाने अपने गुरुदेवका स्मरण करके उपरोक्त प्रकार से नवकार महामंत्र से अभिमंत्रित जल उस मूर्छित युवक के मुंह पर छिड़का एवं तुरंत वह लड़का जैसे निद्रामें से जाग्रत हो रहा हो उसी तरह उठकर खड़ा हो गया एवं चलने लगा । विष उतर गया था । युवक के माँ बाप आश्चर्य एवं अहोभाव के साथ कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लालुभा को पैसे देने लगे । नि:स्पृह लालुभाने एक पैसा भी न लेते हुए उस रकम को जीवदया में सदुपयोग करने की प्रेरणा दी। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ लालुभा जब गाँव के सरपंच थे तब भी उन्होंने गांव के कई लोगों के झगड़े प्रेमसे समझाकर निपटाये थे, मगर कभी भी किसीसे एक भी पैसा अनीतिसे लिया नहीं था । __(३) छह महिनों का पेटका असह्य दर्द दूर हो गया । ट्रेन्ट गाँवमें डाक वितरण करनेवाले ब्राह्मण ज्ञातीय डाकियेको पेटमें असह्य दर्द हो रहा था । अहमदाबाद जाकर छह महिनों तक कई प्रकार के उपचार कराने के बावजूद भी दर्द शांत नहीं हुआ । आखिर वह लालुभा की शरणमें आया । लालुभाने उसे भी उपरोक्त विधिसे नवकार महामंत्र द्वारा अभिमंत्रित जल पिलाया । दर्द हमेशा के लिए दूर हो गया। (४) बिच्छू का विष उतर गया । एक बार लालुभा को काले बिच्छूने हाथमें डंक मारा । पूरे हाथमें अवर्णनीय असह्य पीड़ा होने लगी । यह देखकर उनकी माने किसी तांत्रिक को बुलाने की कोशिश की । मगर लालुभा ने माँ को रोका एवं स्वयं एक कमरेमें बैठकर, उसका दरवाजा बंद करके, एक घंटे तक एकाग्र चित्तसे श्रद्धापूर्वक नवकार महामंत्र का जप करने लगे । फलतः बिच्छू की भयंकर पीड़ा भी केवल एक ही घंटेमें संपूर्ण रूपसे उपशांत हो जाने से अनेक लोगों को जैन धर्म एवं नवकार महामंत्र के प्रति आस्था उत्पन्न हुई । (५) धरणेन्द्र नागराजने दर्शन दिये एक बार नित्यक्रमानुसार लालुभा जीनमें सामायिक लेकर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत की तस्वीर के समक्ष जप कर रहे थे । सामायिक पूर्ण होने में १० मिनट की देर थी । तब अचानक विशाल कायावाले धरणेन्द्र नागराज वहाँ आ पहुंचे एवं श्री पार्श्वनाथ भगवंत की तस्वीर के ऊपर अपने विशाल फण का छत्र धारण करके कुछ देर तक स्थिर हो गये । यह दृश्य देखकर लालभा स्तब्ध हो गये, मगर वे जपमें स्थिर रहे। गबराकर स्थान नहीं छोड़ा। आखिर थोड़ी देरमें नागराज अपने फणको सिमटकर कोने में रखे हुए लोहेके सामानमें अंतर्हित हो गये । सामायिक पूर्ण होने के बाद लालुभाने वहाँ खोज की, मगर फिर उनके दर्शन नहीं हुए । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ (६) खारे समुद्रमें मीठा पानी सं. २०४३ में अकाल के समय में लालुभा के खेत के आसपास के खेतों में किसानो ने पानी के लिए जमीन में बोरींग (लोहेका पाईप) डाला, मगर वहाँ खारा पानी निकलने से सभी निराश हो गये थे । तब लालुभा ने अपने खेतमें बोरींग डाला एवं वहाँ मीठा पानी निकला । उन्होंने सारे गाँव के लोगों को मीठा पानी बड़ी उदारतासे यथेच्छ रूपसे देकर सभीका प्रेम संपादन किया। . (७) जीवदया का चमत्कार एक बार ट्रेन्ट गाँवमें जीरे की फसल में बंटी नामका रोग व्यापक रूपसे फैल गया था । मगर अपने खेतमें कभी भी जंतुनाशक दवा नहीं छिड़कानेवाले लालुभा के खेतमें वह रोग लागु न हो सका । यह देखकर गाँवके लोगों को अहिंसामय जैनधर्म के प्रति अत्यंत अहोभाव जाग्रत हुआ। (८) केन्सर केन्सल हुआ वि. सं. २०५४ में लालुभा के एक नजदीक के रिश्तेदार को केन्सर की गांठ होने का डॉक्टरोंने निदान किया, तब भी लालुभा ने नवकार महामंत्र के उपरोक्त प्रकारके प्रयोग से केन्सर को मिटा दिया । डॉक्टर भी अचंभित हो गये । लालुभा के एक सुपुत्र जयेश ने नवसारी में पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री चंद्रशेखरविजयजी म.सा. द्वारा प्रेरित तपोवनमें ८ से १० वीं कक्षा तक अध्ययन करके जैन धर्म के सुंदर संस्कार प्राप्त किये हैं। सुप्रसिद्ध कथाकार श्री मोरारी बापु आदि जैनेतर साधु संत भी लालुभा के आचार विचार एवं उच्चारको देखकर - सुनकर जैनधर्म से अत्यंत प्रभावित हुए हैं। सचमुच लालुभा का जीवन जैनकुलमें जन्मे हुए अनेक आत्माओं के लिए भी खास प्रेरणादायक है । .. लालुभा को कोटिशः धन्यवाद एवं उनको धर्म की राह दिखानेवाले पूज्यश्री को कोटिशः वंदन । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पता : लालुभा मफाजी वाघेला, मु.पो. ट्रेन्ट वाया : वीरमगाम, जि. अहमदाबाद (उत्तर गुजरात) पिन : ३८२१५१, दूरभाष : 02715 - 51482 (लालुभा का दृष्टांत प.पू. पंन्यास प्रवर श्री महायशसागरजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) के श्रीमुखसे पालिताना में आगममंदिर के उपाश्रयमें सुनने के बाद सं. २०५२ में हमारा चातुर्मास वीरमगाँव के पास में मांडल गाँव में हुआ था, तब लालुभा को पत्र द्वारा बुलाने पर हमारे पास आये थे। बाद में सं. २०५३ में शंखेश्वर तीर्थमें चातुर्मास के दौरान भी दो बार मिले थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नंबर 25 के सामने. CC करोड़ नवकार के आराधक, निद्रा विजेता जयंतिलालभाई जयरामभाई वीराणी ( पटेल) जामनगरमें पटेल जातिमें उत्पन्न हुए जयंतिलालभाई (उ.व.५८) ने इलेक्ट्रीक विषयमें 'गवर्मेन्ट डिप्लोमा' की उपाधि प्राप्त की है । आज से १४ साल पूर्व विद्वद्व पू. गणिवर्य श्री अरुणविजयजी म.सा. (हाल पंन्यास) का चातुर्मास जामनगर में हुआ था, तब उनके प्रवचन एवं सत्संग से जयंतिलालभाई के पूर्वभवीय जैनत्व के संस्कार जाग्रत हुए एवं उन्होंने जैन धर्म अंगीकार किया । आज उनकी विशिष्ट दिनचर्या निम्नोक्त प्रकार की है। पिछले १३ साल से वे रातको शय्या पर लेटते नहीं हैं, मगर बैठे बैठे ही अल्पतम आराम करके प्रातः ३ बजे पद्मासन लगाकर सामायिक लेकर नवकार महामंत्र का जप करते हैं । इस क्रम को दि. २६-१-९९ के दिन १३ साल पूरे हुए हैं। अभी १४ वाँ साल चालु है। करोड़ नवकार जप करने की भावनासे प्रतिदिन ३३ पक्की नवकारवाली का जप करते हुए गत वर्ष उनका १ करोड़ नवकार जप पूर्ण हुआ है । कितनी अप्रमत्तता एवं अंतर्मुखता !! बहुरला वसुंधरा - १-2 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ वे प्रतिदिन स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा एवं उभय काल प्रतिक्रमण करते हैं । हमेशा बियासन का पच्चकखाण करते हैं । ५ साल से प्रति माह उभय पंचमी के दिन उपवास करते हैं । प्रातः जिनपूजा करने के बाद प्रथम बार भोजन करते हैं एवं दूसरी बार दुकान से २ बजे घर जाकर बियासन करते हैं । सूर्यास्त से ९६ मिनिट पहले चौविहारका पच्चरखाण ले लेते हैं । प्रथम बार भोजन के बाद 'वीराणी इलेक्ट्रीक स्टोर्स' नामकी अपनी दुकान में जाने से पहले प्रतिदिन कमसे कम १० रु. जीवदया के कार्यों (पक्षियों को दाना, जलचर प्राणीओं को लोट, कुत्तों को बाजरे की रोटी इत्यादि) में खर्च करते हैं । पिछले ११ साल से पति-पत्नी दोनोंने संपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया है। कई साल तक वर्षमें ६ अठ्ठाइओं के दिनोंमें ८ या ९ उपवास करते थे। सिद्धि तप की महान तपश्चर्या पूर्ण की है । हर अष्टमी एवं पूर्णिमा अमावस्या के दिन उपवास करते हैं । कई बार अठ्ठम तप करते रहते हैं। पिछले ५ वर्षमें वर्धमान तपकी ५६ ओलियाँ पूर्ण कर चुके हैं। वर्धमान तप की १०० ओलियाँ एवं चौविहार उपवास से वीश स्थानक तप पूर्ण करनेकी उनकी तीव्र भावना है । वे सभी उपवास चौविहार ही करते है अर्थात् उपवास के दिन उबाला हुआ अचित्त पानी भी नहीं पीते हैं । चारों प्रकार के आहार का संपूर्ण रूपसे त्याग करते हैं । बियासन के दिनोंमें गर्मी की ऋतुमें भी कुन कुना उष्ण जल ही पीते हैं । पानी को ठंडा करने की कोशिश नहीं करते हैं । हर वर्ष फाल्गुन शुक्ल १३ के दिन वे शत्रुजय महातीर्थ की ६ कोस की प्रदक्षिणा करते हैं, मगर उस दिन वे 'पाल' का भोजन एवं प्रभावना नहीं ग्रहण करते । पालितानामें पू. साधु-साध्वीजी भगवंतों की वैयावच्च भक्ति में ८ हजार रू. का सद्व्यय किया है। . जीवरक्षा के लिए वे पाँव में जूते नहीं पहनते एवं चातुर्मास में जामनगर से बाहर नहीं जाते । सं. २०५३ में भा.सु. १५ के दिन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ आयोजित अनुमोदना बहुमान समारोह के निमंत्रण का भी इसी कारण से उन्होंने सविनय अस्वीकार किया था । पूर्वजन्म में वे जूनागढमें जैन श्रावक थे ऐसा जाति स्मरण ज्ञान भी उनको हुआ है। सं. २०४५ में हमारा जामनगर में चातुर्मास था तब ४ महिनों तक निरंतर अखंड जपका आयोजन हुआ था, उसमें रात के तीसरे एवं चौथे प्रहरमें जप करने के लिए जयंतिलालभाई पटेल का सहयोग अत्यंत अनुमोदनीय था । भविष्यमें जिनकल्पी की तरह उत्कृष्ट कोटि का कठोर साधनामय संयमी जीवन जीने के मनोरथ उनके हृदयमें हैं। जयंतिलालभाई की उत्कृष्ट आराधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना। पता : जयंतिलालभाई जयरामभाई वीराणी वीराणी ईलेक्ट्रीक वर्क्स दिग्विजय प्लोट नं. ५८, मु.पो. जामनगर (सौराष्ट्र) पिन : ३६१००५ फोन : ७७७३३ पी. पी. २८ वर्ष की उम्रमें पत्नी के साथ ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करके उपाश्रयमें ही भोजन एवं शयन करनेवाले दरबार रामसंगभाई बनेसंगभाई लीबड़ __'संग वैसा रंग' इस उक्ति के अनुसार तथा प्रकार के मित्रोंकी संगत के कारण चाय-बीड़ी इत्यादि अनेक प्रकार के व्यसनों में फंसे हुए रामसंगभाई दरबार को आजसे करीब १९ साल पहले उनके पड़ोशमें रहनेवाले जैन मित्र श्री चंद्रकांतभाई लाड़कचंद शाहने व्याख्यान श्रवण के लिए प्रेरणा दी । उस समय वढवाण शहरमें संवेगी उपाश्रयमें परम शासन प्रभावक प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पू. आ. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ श्री विजय मुक्तिचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पू. मुनिराज श्री जयभद्रविजयजी म.सा. का चातुर्मास था । उपरोक्त मित्रकी प्रेरणा से रामसंगभाई मित्र के साथ व्याख्यान श्रवण करने के लिए जाने लगे । धीरे धीरे जिनवाणी का रंग लगने लगा। पूर्व जन्म के जैनत्व के संस्कार जाग्रत होने लगे । व्यसन छूटने लगे सामायिक प्रतिक्रमण आदि धर्मक्रियाओं में रस आने लगा । पर्युषणमें ६४ प्रहर का पौषध व्रत करने के लिए मित्रने प्रेरणा की, मगर हररोज स्नान करने के बाद गणपति की पूजा करने के कुलपरंपरागत संस्कार वाले रामसंगभाई को पौषधमें रुचि होने पर भी गणेशपूजामें विक्षेप न हो इसलिए पौषध तो वे नहीं स्वीकार सके मगर आठों दिन अधिकतर समय उपाश्रयमें ही व्यतीत करने लगे। चातुर्मास के बाद शियाणी तीर्थ तक म.सा. के साथ गये । बादमें वढवाण में जो भी जैन साधु भगवंत पधारते उनके प्रवचन एवं वाचना आदिका लाभ वे अचूक लेने लगे। प्रज्ञाचक्षु पं. श्री अमुलखभाई के पास में दो प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिये । अरिहंत परमात्मा की स्वद्रव्य से नियमित अष्टप्रकार की पूजा करने लगे । चंदन भी अपने हाथों से घिसते हैं एवं प्रभुजीकी प्रक्षाल के लिए पानी भी अपने घर से ही छना हुआ लाते हैं । पूजा के लिए चांदी के उपकरण बसाये हैं। आत्महितकर प्रेरणा का तुरंत स्वीकार करने की प्रकृतिवाले रामसंगभाई ने ब्रह्मचर्य की महिमा समझकर, एक पुत्र एवं २ पुत्रियों के पिता बनने के बाद २८ साल की युवावस्थामें अपनी धर्मपत्नी झीकुबाई की सहर्ष संमतिपूर्वक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के पास आजीवन संपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने के लिए गये। आचार्य भगवंतने प्रथम तो उनको अभ्यास के लिए १ - २ साल तक इस असिधारा व्रत को स्वीकारने की प्रेरणा दी, मगर क्षत्रिय कुलोत्पन्न इस दंपतीने आजीवन व्रत स्वीकारने के लिए ही अपने सुदृढ निर्णय की अभिव्यक्ति करने पर आचार्य भगवंतने आशीर्वाद के साथ उनको आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा दी !... Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ २१ इस व्रत का सुविशुद्ध रूपसे पालन करने के लिए रामसंगभाई ने अपने कौटुंबिक सदस्यों की संमतिपूर्वक दुकान के समय के सिवाय दिन - रात उपाश्रय में रहने का प्रारंभ किया । गद्दी का त्याग करके संथारे के ऊपर शयन करने लगे । भोजन के लिए उपाश्रयमें ही टिफिन मँगाने लगे । उसमें से सुपात्रदान एवं साधर्मिक भक्ति करने के बाद ही वे भोजन करते हैं । बस आदिमें यात्रा के दौरान अनायास से भी अगर विजातीय व्यक्ति का थोड़ा सा भी स्पर्श हो जाय तो प्रायश्चित्त के रूपमें एक धान्य का आयंबिल करनेका संकल्प किया । इस तरह करीब २०० आयंबिल हो गये । बादमें प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन के मुताबिक यथायोग्य परिवर्तन किया । व्रत पालन के द्वारा अंतर के अध्यवसाय निर्मल होने लगे एवं भूतकालमें अज्ञानदशा में जो पाप हुए थे वे अटकने लगे । उन पापों की शुद्धि के लिए अध्यात्मयोगी प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के पास विधिवत् निर्दभभावसे भव आलोचना स्वीकार करके चढते परिणाम से दो वर्षमें प्रायश्चित्त परिपूर्ण कर लिया । अपनी आत्मा को अत्यंत निर्मल बना दिया । वर्धमान आयंबिल तप का नींव डाली एवं आज तक ४० ओलियाँ पूर्ण कर ली हैं । सम्यक् ज्ञान की आराधना के लिए ज्ञानपंचमी तप भी विधिपूर्वक पूर्ण किया । यतनाप्रेमी रामसंगभाई लघुशंका एवं स्नान आदि का पानी भी गटरमें नहीं डालते, मगर पारिष्ठापनिका समिति का पालन करते हुए निर्जीव भूमिमें परठवते हैं । प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण एवं पर्वतिथियों में पौषधप्रत अंगीकार करते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर भगवंत, जिनकी विशिष्ट आराधना से अगले तीसरे भवमें तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं उन बीस स्थानकों की महित सुनकर रामसंग भाई ने बीस स्थानक तपका प्रारंभ किया एवं केवल ३ वर्ष एवं ३ महिनोंमें ३८० उपवास एवं २० छठ्ठ (बेला) सहित बीस स्थानक तपको Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ चढते परिणामों से विधिवत् पूर्ण कर लिया । विशिष्ट तपश्चर्या की पूर्णाहुतिमें उजमणा करना चाहिए ऐसी शास्त्राज्ञा के अनुसार रामसंगभाई ने यथाशक्ति बड़ी पूजा पढाकर उद्यापन करने के लिए सोचा था । मगर उनके मातापिता एवं धर्मपत्नी झीकुबाई तथा छोटेभाई दीपसंगने अत्यंत उल्लासपूर्वक अच्छा सहयोग दिया। फलतः सकल श्री संघका साधर्मिक वात्सल्य एवं स्वकीय ज्ञातिजनों को प्रीतिभोजन, तथा बीस स्थानक पूजन सह तीन छोड़के उजमणे से युक्त जिनेन्द्रभक्तिमय त्रिदिवसीय महोत्सवमें ५१ हजार रू. का सद्व्यय किया । इस महोत्सव की रथयात्रा में समस्त राजपूत लोगों ने भी उल्लासपूर्वक उपस्थित होकर खूब अनुमोदना की थी । एक बार रामसंगभाई के मातृश्री धनुबाईने वढवाण की जैन पाठशाला के अध्यापक श्री जीतुभाई को भोजन का आमंत्रण दिया, तब जीतुभाई ने कहा कि 'अगर आप कुछ भी व्रत नियम स्वीकारेंगे तो ही मैं आपके निमंत्रण का स्वीकार करूंगा । धनुबाई ने तुरंत ही प्रतिदिन जिनपूजा एवं चौविहार करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर ली, जो आज भी अखंड रूपसे चालू है । वे भी अपने हाथों से चंदन घिसकर जिनपूजा करती हैं । 1 रामसंग भाई की धर्मपत्नी भी हररोज जिनदर्शन, सोने एवं जागने के समय में १२ १२ नवकार का स्मरण एवं व्याख्यान श्रवण आदि आराधना करती हैं । उनका सुपुत्र महीपतसिंह एवं सुपुत्री तथा छोटेभाई दीपसंग की संतानें भी हररोज जैन पाठशालामें जाती हैं । रामसंग भाई के घरमें कोई भी जमींकंद को नहीं खाते हैं । छोटे भाई दीपसंगभाई भी रामसंगभाई को धर्म कार्योंमें संपूर्ण सहयोग देते हैं । वे स्वयं एवं महीपतसिंह दोनों मिलकर कीराणे की दुकान को सम्हालते हैं, जिससे रामसंगभाई कुछ समय तक प्रामाणिकतापूर्वक दुकानमें व्यवसाय करके बाकी का समय धर्माराधना में व्यतीत कर सकते हैं । सं. २०५३ में रामसंगभाई ने शत्रुंजय महातीर्थ की ९९ यात्रा भी विधिवत् पूर्ण की हैं और इस वर्ष उनका वर्षीतप चालू है । अब तो उनके जीवनमें बस एक ही लगन है कि 'सस्नेही प्यारा रे, संयम कब ही मिले । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ जब तक दीक्षा अंगीकार न कर सकें तब तक सर्वप्रकार की हरी वनस्पति एवं मुंगके सिवाय सभी प्रकारके द्विदलका भी उन्होंने परित्याग किया है। सचमुच, धार्मिक पड़ोशी की मित्रता एवं जिनवाणी का श्रवण जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाकर किस तरह 'कर्म बांधनेमें शूरवीर आत्मा को धर्म द्वारा कर्मों को तोड़ने में शूरवीर' बना देता है, एवं कुटुंबमें जब एक व्यक्ति सम्यक् रूपसे धामिक बनता है तब समस्त परिवार के ऊपर उसका कितना सुंदर प्रभाव पड़ता है, इसका जीवंत उदाहरण श्री रामसंगभाई हैं । उनके चारित्र स्वीकारने के शुभ मनोरथों को शासनदेव शीघ्र पूर्ण करें यही हार्दिक शुभ भावना । २-३ मुनिवरों के मुखसे श्री रामसंगभाई की अत्यंत अनुमोदनीय आराधनाओं की कुछ बातें पालितानामें सुनी थीं और योगानुयोग जूनागढ से बड़ौदा की ओर विहार के दौरान दि. ६-६-१९९५ के दिन वढवाणमें ही रामसंगभाई से प्रत्यक्ष मिलनेका अवसर आया । उनकी आराधना के बारे में विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासा व्यक्त करने पर सर्वप्रथम तो उन्होंने विनम्र भावसे कहा कि 'जिस तरह वृक्षकी जड़ें धरती के अंदर गुप्त रहने से ही वृक्ष मजबूत बनता है, उसी तरह सुकृत भी गुप्त रहें यही इच्छनीय है' । लेकिन बादमें हमारी प्रबल जिज्ञासा को देखकर उन्होंने कुछ बातें बतायीं । बाकी की जानकारी उनके बीस स्थानक तप के उद्यापन महोत्सव की आमंत्रण पत्रिका पाठशाला के अध्यापक श्री जीतुभाई द्वारा प्राप्त हुई, उसमें से मिली । इसी के आधार से प्रस्तुत लेख तैयार किया गया है । शंखेश्वरमें अनुमोदना समारोहमें रामसंगभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 13 के सामने । पता : रामसंगभाई बनेसंगभाई लींबड दाजीपरा, वढवाण सीटी, जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात) पिन : ३६३०३० फोन : ५०८३४ दुकान ५११९१, (घर) पी.पी. दीपसंगभाई Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ एक ही द्रव्य से ठाम चौविहार ५० ओलीके आराधक श्री दानुभाई रवाभाई गोहील (दरबार) .. प.पू. आ.भ. श्री विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ.भ. श्री विजय मानतुंगसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ.भ. श्री विजय पुण्यपालसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ.भ. श्री विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा., प.पू. मुनिराज श्रीकांतिविजयजी म.सा. आदि के प्रवचन श्रवण एवं सत्संग से पिछले ४२ वर्षों से जैनधर्म की विशिष्ट कोटिकी आराधना करनेवाले श्री दानुभाई दरबार (राजपूत) (उ. व. ७३) के जीवनकी विशेषताओं का परिचय हमें सं. २०४९में पोष महिनेमें सुरेन्द्रनगरमें ही हुआ । श्रावक कुलमें उत्पन्न होने के बावजूद भी एवं प्रतिदिन जिनपूजा, तपश्चर्यादि आराधना करनेवालोंमें से भी, हररोज उभयकाल प्रतिक्रमण करनेवाले श्रावक श्राविकाओं की संख्या का आज उत्तरोत्तर हास होता जा रहा है, तब राजपूत कुलोत्पन्न श्रीदानुभाई दरबार की धर्म क्रियाओं के प्रति रुचि सचमूच प्रेरणादायक एवं अत्यंत अनुमोदनीय है। वे प्रतिदिन सुबह शाम उपाश्रय में आकर प्रतिक्रमण करते हैं। राई प्रतिक्रमण करनेवाले जब कोई भी नहीं होते हैं तब वे अकेले भी प्रातः कालमें प्रतिक्रमण अचूक करते हैं । ___ प्रतिदिन भावोल्लासपूर्वक जिनपूजा करनेवाले दानुभाई सुरेन्द्रनगर के सभी जिनालयों के दर्शन करवाने हेतु हमारे साथ सहर्ष चले थे, तब ७० साल की उम्रमें २५ वर्षीय नवयुवक की तरह अत्यंत स्फूर्तिपूर्वक हमसे आगे आगे चलते थे । उन्होंने वर्धमान आयंबिल तपकी ५० ओलियाँ ठाम चौविहार के साथ केवल एक एक द्रव्य से की हैं । जैसे कि कोई ओली केवल मुंगसे की है तो कोई ओली केवल खीचड़ी खाकर की है । पिछले कई सालों से चैत्र एवं आश्विन महिनेमें नवपदजी की ओली एवं महिनेमें पाँच तिथि आयंबिल करते ही हैं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या पान तक लगातार एकाशन तय करने के बाद कुटुंशीजनों बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ डेढ साल तक लगातार एकाशन तप करने के बाद कुटुंबीजनों के आग्रह से पिछले १० सालसे बियासन तप करते हैं । केवल १३ महिनों में तीनों उपधान तपकी आराधना की है। चातुर्मास में हरी वनस्पति का त्याग करते हैं । सालमें दो बार केश लुंचन करवाते हैं। कई वर्षों से पति - पत्नी दोनोंने ब्रह्मचर्य व्रत विधिपूर्वक अंगीकार किया है । मुनि की तरह संथारे के ऊपर ही शयन करते हैं । २५ बार छ:'री' पालक संघों में शामिल होकर अनेक तीर्थों की यात्राएँ की हैं। सुरेन्द्रनगर जाने का अवसर हो तब दानुभाई को सचमुच मिलने जैसा है । पता : दानुभाई रवाभाई गोहील भगीरथ टेलीकोम, वासुपूज्य स्वामी बड़े जिनालय के पास, मु.पो. जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात) पिन : ३६३००१. सार्मिक भक्ति के लिए बेजोड़ दृष्टांत त्य लक्ष्मणभाई (नाई) जोधपुर (राजस्थान) में पिछले कई वर्षों से, अहोरात्रका अधिकांश समय उपाश्रयमें ही व्यतीत करनेवाले लक्ष्मणभाई ( उ. व.६२) जाति से नाई होने के कारण व्यवसाय के रूपमें लोगोंके बाल काटते काटते सत्संग के प्रभावसे जैनधर्म में ऐसे ओतप्रोत हो गये हैं कि अब तो वे दिन-रात विविध आराधनाओं के द्वारा अपने कर्मोंको काटने का ही व्यवसाय मुख्य रूपसे कर रहे हैं ! प.पू.आ.भ. श्रीमद्विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ. भ. श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. एवं प. पू. पंन्यास प्रवर श्री Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ भद्रंकरविजयजी म.सा. का सत्संग लक्ष्मणभाई के जीवन विकासमें मुख्य निमित्त बना है । नव परिणीत दामाद की भक्ति सास जिस प्रकार करती है उससे भी विशिष्टतर साधर्मिक भक्ति के लिए लक्ष्मणभाई खास प्रसिद्ध हैं । किसी भी विशिष्ट सामूहिक धर्मानुष्ठानों में उपस्थित रहने का मौका मिलता है तब लक्ष्मणभाई सभी आराधकों को उबाला हुआ अचित्त जल ठंडा करके पिलाने का लाभ अचूक लेते हैं । सं. २०२८ में पालनपुर में ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में प.पू. आ.भ. श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू. आ. भ. श्री विजयगुणरत्नसूरिश्वरजी म.सा. की निश्रामें ज्ञानसत्र (शिबिर) में २५० युवान शामिल थे । वाचनादाता पूज्यश्रीने सभी युवानों को उबाले हुए पानीको पीनेका महत्त्व समझाकर ज्ञानसत्र में ही उसका प्रयोग करने के लिए प्रेरणा दी । सभी युवक एक साथ कहने लगे कि 'ऐसी भयंकर गर्मीमें उबाला हुआ पानी कैसे पीया जा सकता है ?' तब लक्ष्मणभाई ने कहा 'आप सभी को बर्फसे भी अधिक ठंडा करके उबाला हुआ पानी पिलाने का उत्तरदायित्व मेरा होगा ।' फलतः पहले दिन १०० युवक तैयार हुए । लक्ष्मणभाई ने उबाले हुए पानीको अनेक बर्तनोंमे ठारकर, बार बार पानीको एक बर्तनमें से, दूसरे बर्तनमें डालकर ऐसा ठंडा बना दिया कि दूसरे दिन २५० युवक उबाले हुए पानी को पीने के लिए तैयार हो गये । स्वयं भी उबाला हुआ पानी ही पीते हैं एवं हाथ पैर धोने के लिए भी उबाले हुए पानीका ही उपयोग करते हैं । अपने परिचयमें आनेवाले सभीको छना हुआ और उबाला हुआ पानी पीने के लिए समझाते हैं । जोधपुरमें जो भी मुनिराज पधारते हैं, उनके बढे हुए नाखून काटनेकी भक्ति वे अचूक करते हैं एवं भावपूर्वक विज्ञप्ति करके अपने घर ले जाकर सुपात्र दानका भी लाभ अवश्य लेते हैं । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ कम से कम बियासन का पच्चक्खाण हमेशा करनेवाले लक्ष्मणभाई ने वर्धमान आयंबिल तपकी ४५ ओलियाँ कर ली हैं । प्रतिवर्ष दो बार नवपदजी की ओली भी विधिपूर्वक अचूक करते हैं । उभय काल प्रतिक्रमण एवं अष्टप्रकारी जिनपूजा वे रोज करते हैं । कभी लम्बी यात्रा का प्रसंग होता है, तब वे बीच के स्टेशन पर उतरकर प्रतिक्रमण एवं जिनपूजा करने के बाद ही आगे बढ़ते हैं । टिकट का आयोजन भी उसी प्रकारसे करते हैं। कैसी अनुमोदनीय धर्मदृढता ! उन्होंने कई बार प.पू.आ.भ श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें पालितानामें रहकर चातुर्मासिक आराधनाएँ की हैं । २ बार ९९ यात्रा भी की हैं । कई बार छ:'री' पालक संघोंमें शामिल होकर अनेक तीर्थों की यात्राएँ की है । प्रतिवर्ष केशलुंचन करवाते हैं । हररोज १४ नियम की धारणा करते हैं । रात के समयमें चलने का प्रसंग आता है तब जीवरक्षा के लिए दंडासनका उपयोग खास करते हैं। अपनी एक बेटी एवं दौहित्रों को भी उन्होंने जैन धर्म के संस्कार अच्छी तरह दिये हैं । अपने छोटे भाई को उन्होंने कहा कि 'अगर तू मेरा सार्मिक बने अर्थात् जैन धर्मका स्वीकार करे तो मेरा मकान एवं संपत्ति तुझे दे दूं, क्योंकि मेरी संपत्तिको पापानुबंधी बनाने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है ।' कितनी दीर्घदृष्टि एवं आत्म जागृति । सभी को तारनेकी कैसी उदात्त भावना । ___ लक्ष्मणभाई के जीवनमें से साधर्मिक भक्ति, जीवदया, परार्थवृत्ति, धर्मदृढता आदि सद्गुणों को अपने जीवनमें लाने का सभी पुरुषार्थ करें यही मंगल भावना । सं. २०५४ में शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना बहुमान समारोहमें उपस्थित होनेका निमंत्रण स्वीकार करके लक्ष्मणभाई वहाँ पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 16 के सामने । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पता : लक्ष्मणभाई (नाई श्रावक) त्रिपोलिया बाजार, जोधपुर (राजस्थान) अथवा जैन क्रिया भवन, आहोरकी हवेली के पास, मोती चौक, जोधपुर (राजस्थान), पिन : ३४ २००१. प्रतिदिन २८ हजार रुपयोंकी आमदनी युक्त पोल्ट्री फार्म का व्यवसाय बंद करके अहिंसामय जैन धर्म का अद्भुत रूपसे पालन करनेवाले डॉक्टर खान महमदभाई कादरी ( पठाण) ___ सत्संग भी भीषण भव रोग को मिटानेवाला दिव्य औषध है एवं कुसंग-भवरोग को बढानेवाला महा कुपथ्य है । पठाण जाति (मुसलमान कुल) में उत्पन्न हुए डो. खान महमदभाई कादरी (उ. व. ५७) कुसंग के परिणाम से नील गायों का शिकार करने के बड़े शौकीन थे । अपने विशाल पोल्ट्री फार्ममें हजारों की संख्यामें मुर्गियों को पालते थे एवं उनके अंडे बेचते थे । जिनसे उनको प्रतिदिन २८००० रुपयों की आमदनी होती थी । मगर किसी धन्य क्षणमें एक श्रावक के परिचयसे एवं जैनाचार्य के सतसंग से उनके जीवनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन आया एवं उन्होंने उपरोक्त व्यसन एवं हिंसक व्यवसायका तुरंत त्याग करके अहिंसाप्रधान जैनधर्म का अत्यंत अहोभाव पूर्वक स्वीकार किया। आज से करीब १७ साल पहले की बात है। डॉ. खान जीपमें बैठकर, बंदूक हाथमें लेकर, खंभात के जंगलों में नील गायों का शिकार करने के लिए जा रहे थे । पूर्वजन्म के पुण्योदयसे उसी जीपमें एक श्रावक के साथ परिचय हुआ । धर्मनिष्ठ सुश्रावकने उनको शिकार के व्यसन द्वारा मिलनेवाली नरक आदि दुर्गतियों का शास्त्रानुसारी वर्णन करके सुनाया । एवं सभी जीवोंमें परमात्मा बिराजमान है। सभी जीव सुखसे जीना चाहते हैं । मरना किसीको पसंद नहीं है, इत्यादि प्रेमसे समझाया । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ बादमें उसी श्रावक की प्रेरणासे डॉ. खान व्याख्यान वाचस्पति प.पू.आ.भ. श्री विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगमें आये । पूज्य श्री की हृदयस्पर्शी वाणी से उनके हृदयमें आज तक किये हुए जीवहिंसा आदि पापोंके प्रति तीव्र पश्चात्ताप का भाव उत्पन्न हुआ । उन्होंने फौरन शिकार आदि सात महाव्यसनों के त्याग की प्रतिज्ञा ले ली । पोल्ट्री फार्मका महा हिंसक व्यवसाय भी तुरंत बंद कर दिया, इतना ही नहीं किन्तु हरी वनस्पति एवं सचित्त पानी का भी आजीवन त्याग कर दिया। कंदमूल एवं रात्रिभोजन को हमेशा के लिए जलांजलि दे दी । हमेशा नवकारसी एवं चौविहार का प्रत्याख्यान लेने लगे । वे प्रायः तो एक ही बार भोजन करते हैं । रोटी दाल इत्यादि पाँच सादे द्रव्यों से अधिक द्रव्यों का उपयोग नहीं करते हैं । मांसाहार करनेवाले अपने जातिबंधुओं एवं रिस्तेदारों के घरका पानी भी नहीं पीते हैं । उनकी धर्मपत्नी डोक्टर उषाबेन एवं एक बेटा तथा तीन बेटियोंमें से कोई भी मांसाहार नहीं करते । डॉ. खान हर रविवार को एक सामायिक अचूक करते हैं । इस तरह उनको इस्लाम धर्म को छोड़कर जैन धर्मका पालन करते हुए देखकर आसपासमें रहनेवाले पठाणोंने बहुत विरोध किया एवं जैन साधुओं का परिचय न करने के लिए उन पर दबाव डाला । तब उन्होंने नम्रतापूर्वक अन्य किसी भी धर्म के साधु, पंन्यासी, फकीर, पादरी, इत्यादि से जैन साधुओं की पादविहारीता, निःस्पृहता, निष्परिग्रहिता, दयामयता, तपोमयता इत्यादि अनेक विशेषताओं का अत्यंत अहोभाव पूर्वक वर्णन करके उनको चुप कर दिया । .. कुछ साल पूर्व उन्होंने पर्युषण में पौषध के साथ १६ उपवास किये थे । तब आठवें उपवास के दिन उनको खबर मिली कि उनकी जेनीफर नामकी बेटी अचानक स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण से अहमदाबाद की वी. एस. अस्पतालमें बेहोश एवं गंभीर स्थिति में है । कड़ी परीक्षा की ऐसी क्षणोंमें भी डो. खान पौषध व्रतमें अडिग रहे एवं नवकार महामंत्रका स्मरण भावपूर्वक करने लगे। अन्य श्रावकों को इस बातकी खबर मिली । उन्होंने डॉ. खान को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० . बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पौषध पारकर अस्पतालमें जाने की सलाह दी । मगर दृढतापूर्वक धर्मका पालन करने की भावनावाले डॉ. खानने कहा “बेटी के प्रारब्ध एवं नियति के अनुसार जो भी होनेवाला होगा उसको मैं या अन्य कोई भी रोक नहीं सकते, तो फिर उसके लिए ऐसे अनमोल पौषध व्रत का में कैसे त्याग करूँ ? आखिर श्रावकों ने आचार्य भगवंत को सारी बात सुनायी । पूज्य श्री ने डॉ. खान को बुलाकर कहा "महानुभाव । आपकी धर्मदृढता, श्रद्धा . एवं समझ सचमुच अत्यंत अनुमोदनीय है, लेकिन ऐसी स्थितिमें अगर आप अपनी बेटी के पास नहीं जायेंगे तो अज्ञानी लोगों द्वारा जैनधर्म की निंदा होने की संभावना है । अतः आज शामको जब पौषध का समय पूर्ण होता हो तब पौषध पार कर बेटीके पास जायें, यही समयोचित कर्तव्य है।" गुरु आज्ञाको शिरोमान्य करते हुए डो. खान शाम को पौषध पार कर सामायिक के वस्त्रों में ही अस्पतालमें पहुंचे । ८ दिनसे पौषध होने के कारण उन्होंने न तो स्नान किया था और न ही दाढी बनायी थी । उनकी ऐसी स्थिति देखकर परिचित डोक्टर मित्रोंने आश्चर्य के साथ पूछा 'यह क्या' ? डो. खानने नम्रता से कहा 'इसका रहस्य आपको अभी समझमें नहीं आयेगा, कभी मौका मिलेगा तब शांतिसे समझाऊँगा । फिर हाल तो मुझे इतना बता दो कि मेरी बीमार बेटी कहाँ है ? . आखिर उनको बीमार बेटी के कमरे में ले जाया गया । वहाँ उन्होंने अत्यंत भावपूर्वक श्रद्धा एवं एकाग्रता से नवकार महामंत्र का स्मरण करते हुए बेटी के मस्तक पर हाथ फिराया एवं कुछ ही क्षणों में सभीके आश्चर्य के बीच बेटीने आँखें खोली । कुछ ही देरमें स्वस्थ होकर चलने वह लगी। डोक्टर एवं परिचारिकाओं के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उनके हृदयमें भी जैन धर्म एवं नवकार महामंत्र के प्रति अत्यंत अहोभाव उत्पन्न हुआ। - कुछ देर बाद जेनीफरने पानी पीया एवं फिर केन्टीनमें जाकर चाय पीने का इच्छा को : टो. खान उसे केन्टीनमें ले गये एवं चाय मँगा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ दी । मगर बेटीने कहा कि, "पिताजी ! पहले आप चाय पी लें, मैं आपके बादमें ही चाय पीऊँगी' । डॉ. खानने प्रत्युत्तर देते हुए कहा 'बेटी ! हाल में रोजा (उपवास) कर रहा हूँ इसलिए मैं चाय नहीं पी सकूँगा, मगर तू खुशी से पी ले । तब पितृभक्त सुपुत्रीने पिताके बिना अकेले चाय पीना पसंद नहीं किया एवं दोनों चाय पिये बिना ही वापिस लौट आये। दूसरे दिन डो. खानने प्रातः कालमें उपाश्रयमें जाकर पुनः पौषध व्रतका स्वीकार कर लिया । अपनी धर्मपत्नी डॉ. उषाबहन को उन्होंने कह दिया था कि 'दिनके समयमें बेटीको उपाश्रयमें ले आना एवं आचार्य भगवंत से वासक्षेप एवं आशीर्वाद ग्रहण कराना । धर्म के प्रभावसे बची हुई बेटी को धर्मशासन की शरणमें अर्पण कर देना' । पति की ऐसी दृढ धर्मश्रद्धा देखकर धर्मपत्नी का मस्तक भी अहोभाव से झुक गया । डो. खान मुख्य रूपसे हड्डियों के रोग निवारण में निपुण हैं । केवल तेल की मसाज से ही वे हड्डियों के दर्द का निवारण कर देते हैं। दर्दी को शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो ऐसी भावना से वे तेलसे मसाज करते समय भावपूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण करते हैं । उससे दर्दी को शीघ्र स्वास्थ्य प्राप्ति होती है । अगर नवकार स्मरणमें एकाग्रता नहीं सधती है तब वे समझ जाते हैं कि दर्दी का निकाचित कर्म उदयमें होने से स्वास्थ्य प्राप्तिमें विलंब होगा । ____सं. २०५२ में महा तपस्वी प.पू.आ.भ.श्री नवरत्नसागरसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास अहमदाबादमें आंबावाडी विस्तार के उपाश्रय में था । उनके शिष्य मुनिराज श्री मृदुरत्नसागरजी म.सा. को रीढ के मणकोंमें दर्द था। एक श्रावक डॉ. खान को म.सा. के उपचारके लिए उपाश्रयमें ले आये । बीमार मुनिवर लकड़ी की पाटके उपर लेटे हुए थे । डोक्टर को बैठने के लिए पाटके पासमें कुर्सी की व्यवस्था रखी गयी थी । किन्तु विनयी एवं विवेकी डो. खान कुर्सी पर बैठे नहीं । उन्होंने खड़े खड़े मुनिवरकी सेवा की एवं बादमें नीचे बैठकर बातचीत की । इस प्रसंग से उनको उपरोक्त आचार्य भगवंत के तपोमय जीवन का परिचय हुआ । पूज्यश्री के जीवनमें रहे हुए भद्रिकता, नम्रता, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सादगीप्रियता इत्यादि अनेक सद्गुणोंने डो. खान के हृदय को आकर्षित कर लिया एवं वे उनके खास भक्त बन गये । मुनिराज श्री दीपरत्नसागरजी द्वारा अनुवादित ४५ आगम ग्रंथोंका विमोचन भी उपरोक्त आचार्य भगवंत की निश्रामें डो. खान के शुभ हस्त से कराया गया । अन्य भी मांगलिक प्रसंगों में पूज्यश्री उनका बहुमान करवाना चूकते नहीं हैं । जैन कुलमें जन्म पाकर भी पैसों के लिए कर्मादान के हिंसक व्यवसाय करनेवाले कुछ श्रावक डॉ. खान के दृष्टांतमें से खास प्रेरणा प्राप्त करके हिंसक व्यवसायों का त्याग करके अपने जीवनको अहिंसामय एवं धर्मप्रधान बनायें यही शुभाभिलाषा । उपरोक्त पूज्य आचार्य भगवंतश्री की निश्रामें सं. २०५४ में शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित इसी पुस्तक के दृष्टांत पात्रों के अनुमोदना बहुमान समारोहमें डो. खान भी अपनी बेटी जेनीफर के साथ उपस्थित हुए थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 15 के सामने । पता : डो. खान महमदभाई कादरी त्रिकोण बगीचे के सामने, जागृति मोटर्स के पीछे, मीरझापुर, अहमदाबाद (गुजरात) फोन : ५५०३५४३ साध्वीजी भगवंतों के चातुर्मास परिवर्तन का लाभ लेनेवाले, अनन्य नवकार प्रेमी रसिकभाई विठ्ठलदास जनसारी ( मोची) नवकार महामंत्र के विशिष्ट साधक, पालितानामें जंबूद्वीप रचना के प्रणेता, सुविशुद्ध संयमी, विद्वद्वर्य प. पू. पंन्यास प्रवर श्री अभयसागरजी म.सा. के नाम से श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन समाजमें शायद ही कोई अपरिचित होगा। सांसारिक संबंध की अपेक्षा से उनकी बहन म.सा., वात्सल्यमूर्ति, सुसंयमी सा. श्री सुलसाश्रीजीने अपनी वयोवृद्ध माता साध्वीजी के साथ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १५ साल तक पाटणमें तंबोलीवाड़ा जैन पाठशाला के उपाश्रयमें स्थिरता की थी। तब वे प्रतिदिन पाटण के सुप्रसिद्ध जोगीवाड़े में स्थित श्री शामळाजी पार्श्वनाथ भगवंत के दर्शन हेतु जाते थे । जोगीवाड़ेमें हाल कई सालों से जैन श्रावकों के घर नहीं हैं । वहाँ मुख्य रूपसे पटेल एवं मोदी जाति के लोगों के अधिक घर हैं । इस साध्वीजी भगवंत ने इन जैनेतर लोगों को धर्मप्रेरणा दे कर श्री शामळाजी पार्श्वनाथ भगवंत के प्रतिदिन दर्शन एवं पूजन में जोड़ दिया है । उनमें से गोविंदजीभाई मोदी, बंसीभाई मोदी एवं उनका ११ सालकी उम्र का सुपुत्र श्रीकांत आदिका परिचय हमको दि. ११-१-९७ में पाटणमें ही हुआ । उनकी सरलता एवं सुदेव - सुगुरु सुधर्म के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण भावको देखकर हमें बहुत खुशी हुई। उसी तरह उपरोक्त साध्वीजी भगवंत की प्रेरणा से जैनधर्म की विशिष्ट रूपसे आराधना करनेवाले एवं नवकार महामंत्र के प्रति अनन्य श्रद्धाके साथ जप करनेवाले रसिकभाई मोची (उ. व. ४४) के घर जाने का भी अवसर आया । पाटण की झवेरी बाजार में वंदना फूटवेर्स के नाम से जूतों की दुकान के मालिक एवं दुकान के उपर ही घरमें निवास करनेवाले रसिकभाई विठ्ठलदास जनसारी (मोची) के घरमें प्रवेश करते ही ऐसा लगा, मानो किसी सुश्रावक के घरमें ही प्रवेश किया हो । छोटे से घरकी दीवारके ऊपर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत आदि जिनेश्वर भगवंत एवं उपकारी साध्वीजी भगवंत की तस्वीरें दृष्टिगोचर होती हैं । ____ रसिकभाई की धर्मपत्नी ऊर्मिलाबहन एक उत्तम श्राविका की तरह प्रतिदिन भावसे सुपात्रदान का लाभ लेती हैं, वे प्रत्येक महिनेमें एकबार पाटणसे ९ कि.मी. दूर चाय तीर्थ की यात्रा एवं वहाँके मूलनायक श्री शामलियाजी पार्श्वनाथ भगवंत की पूजा अचूक करती हैं। आर्ट्स कोलेज में पढती हुई सुपुत्री प्रवीणाने पर्युषणमें अट्ठाई तप भी किया है । १२ वीं एवं १० वीं कक्षा में पढते हुए दो पुत्र वंदन एवं हर्षद सहित परिवार के पाँचों सदस्य प्रतिदिन जिनपूजा अवश्य करते हैं । (आज ऐसे कितने जैन परिवार मिलेंगे कि जिनके घरके सभी सदस्य जिनपूजा प्रतिदिन करते हों !) बहुरत्ना वसुंधरा -- १-3 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ रसिकभाई हररोज सुबहमें ६ से ८.३० बजे तक जोगीवाड़े में शामलाजी पार्श्वनाथ भगवान की स्वद्रव्यसे अष्टप्रकारी जिनपूजा एवं नवकार महामंत्र की २ पक्की माला का जप करते हैं । प्रतिकूल परिस्थिति में भी वे अपना यह नित्यक्रम छोडते नहीं हैं । एक बार जब हिंदूमुसलमान समाज के बीच संघर्ष चल रहा था, तब भी वे नवकार महामंत्र का स्मरण करते करते मुस्लिम आबादीवाली तीन गलियोंमें से गुजरकर प्रातः ६ बजे जोगीवाड़े के जिनालयमें ही जिनपूजा के लिए जाते थे । रास्तेमें कुछ मुस्लिम युवक उनको परेशान करने के लिए कुछ न कुछ उलटा सीधा बोलते थे तब वे उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखते हुए नवकार महामंत्र के स्मरणमें ही अपने मनको संलग्न रखते थे । फलतः मुस्लिम युवक भी उनका बाल तक बाँका नहीं कर सके । श्री पार्श्वनाथ भगवंत एवं नवकार महामंत्र के प्रति दृढ श्रद्धा का ही यह चमत्कार था। क्वचित् रातको जगने के समय से पहले आँख खुल जाती तब मनमें निरर्थक विचार प्रवेश न करें इसके लिए वे तुरंत अपने मनमें नवकार महामंत्र का स्मरण चालु कर देते हैं । कभी जप के दौरान अगर मन में कोई अप्रस्तुत विचार आ जाता है तब वे तुरंत मन ही मन बोलते हैं कि 'अरे ! यह दूसरी केसेट कैसे चढ गयी' ? और तुरंत सावधान होकर जपमें मनको जोड़ देते हैं । श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ महामंत्र का जप करने के प्रभावसे उनको कई अद्भुत अनुभूतियाँ होती हैं, जिन से नवकार महामंत्र एवं जैन धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा उत्तरोत्तर बढती ही जाती है । चैत्यवंदन विधि, ९ स्मरण, लघु शांति इत्यादि सूत्र उन्होंने कंठस्थ कर लिये हैं एवं हररोज सामायिक में बैठकर उनका स्वाध्याय करते हैं । अब वे प्रतिक्रमण विधि के सूत्र कंठस्थ कर रहे हैं । पर्व तिथियों में प्रतिक्रमण एवं आयंबिल, महिनेमें ५ बार बियासन बाकी के दिनोंमें नवकारसी एवं चौविहार तथा शीतकाल में पोरिसी का पच्चक्खाण वे करते हैं । कंदमूल आदि अभक्ष्य के त्याग की प्रतिज्ञा ली है। व्याख्यान श्रवण का मौका मिलता है तब अचूक लाभ लेते हैं । हर महिनेमें एक बार श्री शंखेश्वर महातीर्थ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ की यात्रा वे अचूक करते हैं । उस दिन जब तक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत का दर्शन नहीं होता तब तक कुछ भी खाते पीते नहीं हैं । उन्होंने श्री शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा भी एक बार की है । हररोज शामको भी जोगीवाड़ेमें जाकर प्रभुदर्शन अचूक करते हैं । धर्म के विषयमें उनकी समझ बिलकुल स्पष्ट है । विनम्रता आदि सद्गुणों को उन्होंने अच्छी तरह से आत्मसात् किया है। केवल पिछले ५ साल से जैन धर्म को प्राप्त करनेवाले रसिकभाई ने अपने उपकारी सा. श्री सुलसाश्रीजी म.सा. आदि ठाणाओं का चातुर्मास परिवर्तन अपने मकानमें करवा कर लाभ लिया था । ऐसे महान त्यागी तपस्वी साध्वीजी भगवंत के चातुर्मास परिवर्तन का लाभ लेने के लिए पाटण के कई भक्त श्रावकों की . विज्ञप्ति होते हुए भी उपरोक्त मोची परिवार को चातुर्मास परिवर्तन से लाभान्वित करके एक सुंदर आदर्श समाज के समक्ष साध्वीजीने प्रस्थापित किया है । धन्य है ऐसे साध्वीजी भगवंतों को ! धन्य है जन्म से अजैन होते हुए भी आचारसे विशिष्ट जैन ऐसे रसिकभाई जैसी आत्माओं को ! रसिकभाई के बड़ेभाई किशोरभाई भी हररोज जिनपूजा करते हैं । किशोरभाई का सुपुत्र सतीशकुमार भी जब कोलेजमें छुट्टी होती है तब अवश्य जिनपूजा करता है। उसने अाई तप भी किया है । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में रसिकभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर पेज नंबर 16 के सामने प्रकाशित की गयी है। ऐसे अनमोल दृष्टांतोंमें से हम कुछ प्रेरणा ग्रहण करेंगे ? पता : रसिकभाई विठ्ठलदास जनसारी वंदना फूटवेर्स, झवेरी बाजार, मु.पो. पाटण, जि. महेसाणा (उ. गुजरात) पिन : ३८४२६५ फोन : २०५७९ पी. पी. जयेन्द्रभाई पटेल Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ - - सत्संग के प्रभावसे लोहा सोना बना ! याने सोनी संजयभाई डाह्यालाल हररोज ३५०० लीटर जितने बिना छने हुए पानी को बाथमें भरकर उसमें स्नान करनेवाले श्रीमंत व्यक्ति, एक ही झटके में ऐसे, स्नानका परित्याग करके आज बाल्टीमें छने हुए मर्यादित जलको लेकर गाँवके बाहर खुल्ली जमीन पर स्नान करने के लिए जाते हैं, इतना ही नहीं परंतु दातून करने के बाद मुखशुद्धि के समय एक बूंद भी पानी गटरमें न जाय इसके लिए खास मकान अलग रखकर उसकी खुल्ली जमीनमें ही दातून करते हैं । मलशुद्धि के लिए भी संडाश का उपयोग न करते हुए २ कि.मी. चलकर गाँवके बाहर ही जाते हैं । क्वचित् रातको जरूरत पडे तो धातु के पात्रमें निबटकर गाँवके बाहर विसर्जन करते हैं !... ___अज्ञान दशामें अंडे इत्यादि अभक्ष्य का भक्षण, गर्भपात एवं खटमल इत्यादि जीवों की जान बुझकर हिंसा करनेवाले, आज बोध मिलते ही तुरंत इन सभी पापों को तिलांजलि देकर, सदगुरु के पास भवालोचना (प्रायश्चित्त ) स्वीकार कर, कंदमूल, रात्रिभोजन, द्विदल, वासी अचार इत्यादि अभक्ष्य एवं चाय सहित सभी व्यसनों के त्याग की प्रतिज्ञा लेकर, जीवदया के लक्ष्यपूर्वक अत्यंत सूक्ष्म यतनायुक्त जीवन जीते हैं ! व्यवसायमें कदम कदम पर झूठ बोलनेवाले एवं 'पैसा मेरा परमेश्वर और मैं पैसे का दास' जैसा केवल धनलक्षी जीवन जीनेवाले, आज व्यवसायमें जरासी भी अनीति नहीं करने का दृढ संकल्प करके, शाम को ५ बजे कितने भी ग्राहक हों तो भी दुकान बंद करके चौविहार (सायंकालीन भोजन) करने के लिए घर चले जाते हैं और सुबहमें लक्ष्मी पूजाके बदलेमें पंचासरा पार्श्वनाथ भगवंत की अष्टप्रकारी पूजा करने के बाद ही नवकारसी करते हैं ! सुखी बनने के लिए येन केन प्रकारेण धनसंग्रह को ही जीवनमंत्र Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ बनानेवाले व्यक्ति आज तकती एवं प्रसिद्धि की अपेक्षा रखे बिना गुप्त रूपसे हर महिने हजारों रुपयों का अपने गाँवमें एवं अन्य गाँवोंमें भी साधर्मिक भक्ति इत्यादि सत्कार्योंमें सद्व्यय करते हैं । करीब सात महिनों तक अपने गाँवकी भोजनशालामें प्रति महिने ३१०० रूपये देते थे, बादमें गांभू , शंखेश्वर इत्यादि तीर्थों की भोजनशालामें देते हैं !... पिछले २ सालसे प्रतिदिन शामको श्रीपंचासरा पार्श्वनाथ भगवंत की आरती एवं मंगल दीपकका लाभ लेने के लिए हररोज ७ मणसे बोली का प्रारंभ करवाते हैं एवं विशिष्ट दिनों में तो ५०० मणसे भी अधिक बोली बोलकर वे प्रभुभक्ति का लाभ लेते हैं !... जैनेतर कुल में जन्म होने की वजह से ३९ साल की उम्र तक सिद्धाचलजी महातीर्थ की यात्रा के महालाभ से वंचित इस महानुभावने समझ मिलते ही 'जब तक चौविहार छठ्ठ तप करके सिद्धाचलजी की सात यात्राएँ न कर सकुं तब तक दूधका त्याग', ऐसा संकल्प किया। (चायका त्याग तो पहले से है ही ।) और आखिर अगले ही वर्षमें उन्होंने चौविहार छठ्ठ (बेला) तपके साथ गिरिराज की सात यात्राएँ अत्यंत हर्षोल्लास के साथ की । यात्राएँ करते हुए उनको इतना आनंद हुआ कि अब प्रतिवर्ष एक बार इस तरह चौविहार छछ तप के साथ सात यात्राएँ करने की भावना हुई है। दैवसिक एवं राई प्रतिक्रमण के सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं और जब तक पाँच प्रतिक्रमण के सूत्र कंठस्थ न कर सकें तब तक अमुक वस्तु के त्याग का संकल्प भी किया है । केवल एक ही चातुर्मास के कुछ दिनों तक हुए जैन साध्वीजी के सत्संग के प्रभावसे अपने जीवन को उत्तरोत्तर अधिक-अधिकतर धर्ममय त्यागमय संयममय बनानेवाले ये भाग्यशाली पुण्यात्मा कौन होंगे । नहीं, ये जन्म से जैन नहीं हैं, मगर सत्संग द्वारा आचरण से विशिष्ट जैन बने हुए इन महानुभाव का नाम है संजयभाई डाह्यालाल सोनी (उम्र वर्ष ४०)। वे गुजरातमें पाटण शहर के निवासी हैं । सं. २०५१ में पाटणमें अध्यात्मयोगी प.पू. आ. भ. श्री विजय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञावर्तिनी सा. श्री सुभद्रयशाश्रीजी म.सा. एवं उनकी माता म.सा. परम तपस्विनी सा. श्री संयमपूर्णाश्रीजी म.सा. (कि जिन्होंने वर्धमान आयंबिल तपकी ११२ ओलियाँ की हैं, ४० साल से लगातार एकाशन से कम तप नहीं किया है और जो अत्यंत अप्रमत्तता के साथ संयम का पालन कर रहे हैं ) का चातुर्मास हुआ । इनके सत्संग एवं सत्प्रेरणा से संजयभाई में इतना आश्चर्यप्रद परिवर्तन हुआ है। संजयभाई ने अध्यात्मयोगी प.पू.आ.भ.श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के पास भव आलोचना भी कर ली है । दि. ९-१-९७ में पाटणमें संजयभाई की प्रत्यक्ष मुलाकात हुई थी । वे उत्तरोत्तर सविशेष आत्मविकास करते हुए मुक्ति मंझिल की ओर प्रगति करते रहें यही हार्दिक शुभेच्छा । पता : संजयभाई डाह्यालालभाई सोनी सोनीवाडो, खेदडा की पोल, मु.पो. पाटण, जि. महेसाणा (उत्तर गुजरात) पिन : ३८४२६५, दूरभाष : ०२७६६ - ३२९४५ (दुकान) २०५९७ (निवास) प्रतिदिन १८ घंटे जैन धर्म के पुस्तकों को पढनेवाले शंकरभाई भवानभाई पटेल __सौराष्ट्र के खाखरेची गाँव के निवासी शंकरभाई पटेल (हाल उ. व. ७०) को सं. २०४७ में खाखरेची गाँवमें चातुर्मास विराजमान अध्यात्मयोगी प.पू. आ.भ. श्री विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञावर्तिनी पू. सा. श्री वनमालाश्रीजी म.सा. आदिके सत्संगका लाभ मिला । चातुर्मास में प्रतिदिन प्रवचन श्रवणसे एवं साध्वीजी भगवंतों का तप त्यागमय आचारनिष्ठ जीवन देखकर उनके हृदयमें जैन धर्म के प्रति अत्यंत अहोभाव उत्पन्न हुआ । इससे पूर्व में शंकरभाई ने रामायण, महाभारत, भागवत एवं पुराण Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ आदिका बहुत अध्ययन किया था । अनेक जैनेतर साधु संतों के परिचयमें आये थे, लेकिन कंचन कामिनी के सर्वथा त्यागी, आजीवन पादविहारी, पंचमहाव्रतधारी ऐसे जैन साधु साध्वीजी भगवंतों के तप त्याग एवं सदाचारमय जीवन को देखने के बाद शंकरभाई को अंत:स्फुरणा हुई कि सचमुच ऐसे तप त्यागमय धर्मसे ही शीघ्र मुक्ति पायी जा सकती है । इसलिए जैन धर्म के बारेमें सविशेष जानकारी प्राप्त करनेकी उनकी जिज्ञासा प्रबल बनती गयी । इस जिज्ञासा को तृप्त करने के लिए व्याख्यान श्रवणके सिवाय अहोरात्रिका अधिकांश समय वे जैनधर्म के पुस्तक पढनेमें बीताने लगे । प्रतिदिन १८ घंटों तक जैन साहित्य का पठन करने पर भी वे थकते नहीं थे। उपदेश प्रासाद भाग १ से ५, शारदा शिखर, इत्यादि कई बड़े बड़े पुस्तकों का उन्होंने पठन किया है । आज वे जैन धर्मके बारेमें घंटों तक लगातार वक्तव्य दे सकते हैं । अरबी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा भी वे जानते हैं । कुरानकी कई आयातें उनको कंठस्थ हैं। चातुर्मास के लिए कच्छ से मांडल की ओर विहार करने पर दि. १०-६-९६ के दिन खाखरेची गाँवमें शंकरभाई से भेंट हुई तब उन्होंने कुरान की कुछ आयातों को अर्थ के साथ सुनायी थी एवं जैन धर्म संबंधी अनेक दोहे गुजराती भाषामें अत्यंत भाव विभोर होकर उन्होंने सुनाये थे। शंकरभाई पटेल प्रतिदिन जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । साधु साध्वीजी भगवंतों को भावसे गोचरी बहोराते हैं । खाखरेची पधारने वाले साधु साध्वीजी भगवंतों को आसपास के गाँव तक पहुंचाने के लिए वे सेवा भावसे साथ में जाते हैं। "सचमुच, अगर मुझे जैन धर्मकी प्राप्ति छोटी उम्रमें हुई होती तो मैं संसार के चक्कर में पड़ता ही नहीं, दीक्षा ही ले लेता, क्योंकि संयम के बिना संसार सागर को तैरने का और कोई उपाय नहीं है । अब तो वृद्धावस्था के कारण दीक्षा नहीं ले सकता, मगर जीवन के अंतिम श्वासोच्छ्वास तक जैन साधु-साध्वीजी भगवंतों की सेवा करता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ रहूँ, जिससे आगामी भवमें महाविदेह क्षेत्रमें श्रीसीमंधर स्वामी भगवंत के पास दीक्षा ले सकुं" इतना बोलते हुए उनकी आंखें आंसुओंसे व्याप्त हो चुकी थीं । जैन कुलमें जन्म पाने के बावजूद भी जैन साहित्य के पठन पाठन और सत्संग के प्रति अत्यंत उपेक्षा करनेवाली आत्माएँ शंकरभाई पटेल के इस दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर अपने जीवनमें सम्यक्ज्ञान एवं सत्संग के प्रति सुरुचि संपन्न बनें यही मंगल भावना. पता : शंकरभाई भवानभाई पटेल मु.पो. खाखरेची, ता. मालिया मीयाणा, जि. राजकोट (गुजरात) १२ अध्यात्म परायण प्रोफेसर केसुभाई डी. परमार (क्षत्रिय) गुजरात राज्यमें भरुच जिलेके जंबूसर गाँवमें रहते हुए प्राध्यापक केसुभाई परमार को अध्यात्मयोगी प.पू. पंन्यास प्रवर श्रीभद्रंकरविजयजी म.सा. के सत्संगसे जैनधर्म का अनन्य कोटिका रंग लगा है । . हालमें वे कोलेजमें प्राध्यापक के रूपमें अध्यापन कार्यसे निवृत्त हुए हैं, मगर जब वे कोलेजमें पढाते थे तब भी धोती एवं उत्तरासंग पहनकर प्रतिदिन जिनपूजा करने में जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते थे, किन्तु अपूर्व आनंद एवं गौरव का अनुभव करते थे । प. पू. पन्यासजी महाराज के विशिष्ट कृपापात्र आराधक आत्माओं में प्रा. श्री केसुभाई परमार का नाम अग्रगण्य है । कौटुंबिक दायित्व को निभाते हुए भी वे पंन्यासजी महाराज की कृपा के बलसे ध्यान के द्वारा अंतरात्मामें लीन होकर अवर्णनीय आत्मानंदकी अनुभूति करते रहते हैं। प्रतिदिन सामायिक, प्रतिक्रमण, जिनपूजा, नवकार महामंत्र का जाप, घरमें एवं बाहर भी उबाले हुए अचित्त पानी का ही उपयोग इत्यादि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ . श्रावकोचित आचार उनके जीवनमें सहज रूपसे आत्मसात हो गये हैं । चलते-फिरते भी नवकार महामंत्रका स्मरण उनके मनमें हमेशा चलता ही रहता है । इसके प्रभाव से बस दुर्घटना में भी उनका किस तरह चमत्कारिक बचाव हुआ, इसका वर्णन श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित 'जेना हैये श्री नवकार तेने करशे शुं संसार ?' नाम की किताबमें प्रकाशित हुआ है। . पिछले १२ सालों से वे हमारे परिचयमें आये हैं, तब से प्राय : हर वर्षमें एक बार तो दर्शन हेतु आते ही हैं । प्रवचन के समय आँख बंद करके घंटों तक अस्खलितस्पसे बहती हुई उनकी प्रासादिक एवं प्रास युक्त आध्यात्मिक वाणी का आस्वाद जिन्होंने एक बार भी लिया है वे जीवनभर उनको भूल नहीं सकते । इसका यश वे अपने परम उपकारी गुरुदेव श्री पंन्यासजी महाराज को ही देते हैं। वक्तृत्व शक्ति की तरह उनकी लेखन शैली भी अद्भूत एवं असरकारक है । पत्रव्यवहारमें भी सामान्य बातों की अपेक्षा से आध्यत्मिक अमृत ही वे परोसते हैं। पूज्य पंन्यासजी महाराज के जीवनके बारेमें उन्होंने सुंदर पुस्तक का आलेखन किया है, जो सचमुच पढ़ने लायक है। उनकी धर्मपत्नी पुष्पाबेन भी अत्यंत सेवाशील, शांत एवं सरल स्वभावी सुशील सन्नारी हैं । जंबूसरमें पधारते हुए किसी भी समुदाय के साधु साध्वीजी भगवंतों की वे सुंदर वैयावच्च करती हैं ।। _ 'बाप से बेट सवाया' इस उक्ति के अनुसार प्रो. केसुभाई के २ सुपुत्रोंमें से छोटे सुपुत्र सुरेशकुमार पूर्वजन्म की कोई योगभ्रष्ट आत्मा हो उस तरह ३२ वर्षकी युवावस्थामें भी संसार के वातावरण से निर्लिप्त रहकर ब्रह्मचर्ययुक्त अंतर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं । कुंडलिनी शक्ति के जागरण से सहज स्फूर्त कवित्व शक्ति के वे स्वामी हैं ! वे भी घंटों तक सहज स्फुरणासे आध्यात्मिक वार्तालाप देते हैं । ऐसी आत्माओं की आध्यात्मिक शक्तिओं का सकल श्रीसंघको लाभ मिल सके, इसके लिए साधन संपन्न सुश्रावकों को उनकी उचित रूपसे साधर्मिक भक्ति करनी चाहिए । सुज्ञेषु किं बहुना ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ १३ पता : प्रो. के. डी. परमार श्रावक पोल, देरासर शेरी, मु.पो. जंबूसर, जि. भरुच, पिन ३९२१४० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ प 44 सेलून ( नाईकी दुकान) में भी देव - गुरुकी तस्वीरें रखनेवाले पुरुषोत्तमभाई कालीदास पारेख (नाई ) 'महाराज साहब ! मुझे ऐसे आशीर्वाद प्रदान करें कि जिससे इस भवमें ही मुझे शुद्ध समकित की प्राप्ति हो जाय एवं ५-७ भवोंमें ही जल्दी से जल्दी ८४ लाख के चक्कर से छुटकारा हो जाय और शीघ्र मुक्ति की प्राप्ति हो जाय" ये उद्गार किसी जैन कुलोत्पन्न श्रावक के मुखसे नहीं किन्तु साबरमतीमें नाईका व्यवसाय करनेवाले पुरुषोत्तमभाई के मुखसे हमको सुननेको मिले तब हमारे आश्चर्य एवं आनंदकी सीमा न रही। आज से करीब ४० साल पहले गुलाबचाचा एवं मणिचाचा के नामसे प्रसिद्ध सुश्रावक बाल कटवाने के लिए पुरुषोत्तमभाई की दुकान पर जाते थे। उनकी प्रेरणासे पुरुषोत्तमभाई ने उपाश्रयमें जाने की शुरुआत की । फलतः शासन सम्राट प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न प.पू. आ.भ. श्रीविजयउदयसूरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू. आ.भ.श्री विजय मेरुप्रभसूरीश्वरजी म.सा. इत्यादि के चातुर्मासिक सत्संगसे पुरुषोत्तमभाई को जैन धर्म का रंग लगा जो उत्तरोत्तर सुदृढ़ होता चला । जिसके फल स्वरूप वे ३९ वर्षों से हररोज अष्टप्रकारी जिनपूजा करते हैं व्याख्यान - श्रवण करने का मौका मिलता है तो चुकते नहीं हैं । प्रतिमाह पाँच आयंबिल करते हैं । हररोज चौविहार (रात्रि भोजन का संपूर्ण त्याग) का पच्चक्खाण करते हैं । सामायिक प्रतिक्रमण करते हैं एवं पर्युषणमें ६४ प्रहरी पौषध करते हैं । पिछले ५ सालसे उपाश्रयमें ही सोते हैं । ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । 1 1 पुरुषोत्तमभाई ने आज दिन तक ( १ ) चोसठ प्रहरी पौषध के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ साथ २८ बार अट्ठाई तप (२) नवपदजीकी ३५ ओलियाँ (३) वर्धमान तपकी १८ ओलियाँ (४) बीसस्थानक की १ ओली (५) १ उपधान तप आदि तपश्चर्याएँ की हैं । विशिष्ट पर्वतिथियों में चौविहार उपवास के साथ पौषध करते हैं । ३५ वर्षों से जमीकंदका त्याग है। दीक्षा के बिना यह सब आराधना बिना सक्कर के दूध बराबर ऐसा वे मानते हैं। सं. २०३० में प.पू. मुनिराज (हाल पंन्यास प्रवर) श्रीचंद्रशेखर विजयजी म.सा. के साबरमतीमें चातुर्मास के दौरान उन्होंने एक महिने तक सम्मेतशिखरजी आदि अनेक जैन तीर्थों की यात्रा की । साबरमती से पालिताना एवं वलभीपुर से पालिताना छ:'री'पालकसंघोंमें शामिल होकर तीर्थयात्राएँ की हैं। उनके घरके सभी सदस्य जैन धर्म का पालन करते हैं । कंदमूल आदि अभक्ष्य नहीं खाते हैं । पुरुषोत्तमभाई ने सेलूनमें भी अरिहंत परमात्मा एवं गुरु भगवंतोंकी तस्वीरें दिवार पर लगायी हैं, ताकि बारंबार अपने जीवन के लक्ष्य की स्मृति बनी रहे । (आजकाल कई जैन श्रावक भी अपने घरमें आशात-नाके काल्पनिक भयसे देव-गुरु की तस्वीरें एवं धार्मिक किताबें नहीं रखते हैं, किन्तु अभिनेता एवं अभिनेत्रियों की तस्वीर युक्त केलेन्डर अपने घरमें रखनेमें उनको प्रभु-आज्ञाका उल्लंघन रूप आशातना नहीं दिखाई देती ! ऐसे श्रावक-श्राविकाओं को पुरुषोत्तमभाई के दृष्टांत से प्रेरणा लेकर सुधार करना चाहिए । आशातना के भयसे देव-गुस्की तस्वीरें एवं ज्ञान - दर्शन - चारित्र के उपकरणों का अपने घर से दूर करना यह तो गूंके भयसे वस्त्र त्यागने जैसी विचित्र बात है । आशातना न हो इसका पूरा खयाल रखकर रत्नत्रयी के उपकरण आदि श्रेष्ठ आलंबन घरमें अवश्य रखने चाहिए ।) जैन कुलोत्पत्र भी कई श्रावक-श्राविकाएँ, साधु-साध्वीजी भगवंतों के मार्ग में आमने-सामने होने पर अपना विवेक चूक जाते हैं, और कुछ श्रावक तो "क्यों महाराज ! ठीक होना ?" इत्यादि बोलकर जैसे गृहस्थ के साथ बातचीत करते हैं उसी तरह साधु-साध्वीजी भगवंतों के साथ भी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ व्यवहार करते हैं, मगर पुरुषोत्तमभाई अपने सेलून के सामने से कोई भी साधु-साध्वीजी गुजरते हैं तब आदरपूर्वक हाथ जोड़कर " मत्थभेण वंदामि, साहब, सुखशातामें हो न ?" ऐसा बोलना चूकते नहीं हैं । हमारे साथ वार्तालाप के दौरान उनके मुख से ऐसे उद्गार निकल पड़े कि, "महाराज साहब ! पूर्व जन्ममें मैंने कुलमद किया होगा, इसलिए आज नाई कुलमें जन्म पाया हूँ, मगर अब मुझे ऐसे आशीर्वाद प्रदान करो कि आगामी भवमें महाविदेह क्षेत्रमें साक्षात श्री सीमंधर स्वामी के पास जन्म पाकर, उनके वरद हस्तसे दीक्षा अंगीकार करूँ, क्योंकि साधुता के बिना उद्धार नहीं है । जिन शासन की सम्यक् आराधना किये बिना संसार सागर से निस्तार होना असंभव है । " पुरुषोत्तमभाई की वाणी में स्पष्ट रूपसे झलकता हुआ जिनशासन के प्रति अहोभाव, संसार के प्रति निर्वेदभाव एवं संयम के प्रति समर्पणभाव देखकर हमारा अंत:करण भी उनके प्रति अनुमोदना के भावसे गद्गद् हो गया। शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें वे पधारे थे । उनकी तस्वीर पेज नं. 15 के सामने प्रकाशित की गयी है । १४ पता : पुरुषोत्तमभाई कालीदास पारेख पारस हेयर आर्ट्स, इंडिया बैंक के सामने, रामनगर, साबरमती, अहमदाबाद (गुजरात) : ३८०००५. अजोड जीवदयाप्रेमी ठाकोर मंगाभाई काळाभाई भगत गुजरातमें सुरेन्द्रनगर जिले के पाटड़ी गाँवमें रहते हुए ठाकोर मंगाभाई को ५ साल की छोटी उम्र में अकेला छोड़कर उनके माता- पिताने परलोक के प्रति प्रयाण करदिया था । परिवार में उनका पालन-पोषण करनेवाला कोई न था । मगर निराधार के आधार रूप पड़ौसमें रहने वाले एक जैन परिवारने उसको अपने घरमें स्थान दिया और लालन-पालन करके बड़ा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ४५ I किया । सेठ के घरमें कई भैंसें थीं । उनको लेकर मंगाभाई जंगलमें जाते थे और वापस लौटते समय रसोई बनाने के लिए लकड़ियाँ ले आते थे 1 11 एक दिनकी बात है । मंगाभाई ने जंगल से लायी हुई लकड़ियों में से कुछ लकड़ियों में उदई - दीमक (एक प्रकार के कीड़े) दिखाई दिये । सेठानी मंजूबेन अत्यंत जीवदयाप्रेमी थीं । उन्होंने उदईयुक्त लकड़ियाँ दिखाते हुए मंगाभाई को प्रेमसे समझाया कि " देख, प्रमार्जना किये बिना लकड़ियाँ जलानेसे कितने जीवोंकी हिंसाका पाप हमें लगता है 1 सेठानी के हृदयमें रहे हुए जीवदया के परिणाम मंगाभाई के जीवनमें संक्रमित हो गये । उन्होंने निश्चय किया कि " अबसे बराबर देखकर ही जंतुरहित लकड़ियाँ लाऊँगा । हरि वनस्पति को काटुंगा नहीं । पैर में जूते नहीं पहनूँगा । प्रत्येक जीवों के प्रति आत्मीयता का भाव रखूँगा । जैन मुनियों के प्रवचन सुनूँगा । मंगाभाई ने सात महा व्यसनों के त्याग की प्रतिज्ञा ली । पक्षियों को दाना एवं कुत्तों को बाजरे की रोटी वे स्वयं जाकर देते थे । पशुपक्षियोंका शिकार करनेवालों को वे प्रेमसे समझाकर शिकार के व्यसन का त्याग करवाते थे । पशु-पंछी मानो उनके परिवारके सदस्य हों, उसी तरह उनकी भावसे सेवा करते हुए वे कभी थकते नहीं थे । एक बार दुष्काल के कारण तालाबमें पानी लगभग सूख गया था । ऐसी स्थिति में हिंसक लोग कछुए एवं मछलियों को आसानीसे पकड़कर मारने लगे थे । यह देखकर मंगाभाई के हृदयमें करुणा उत्पन्न हुई । उन्होंने भक्त मंडली को संगठित किया । सहायता के लिए पाटडी जैन महाजन से बात की । महाजन के अग्रणी सुश्रावक श्री खोड़ीदासभाई छबीलदास कांतिभाई गांधी और पोपटलालभाई ठक्कर इत्यादिने बैलगाडियाँ एवं गेहूँके आटेकी कणेक (लुगदी ) इत्यादि सामग्री जुटाई। उसे लेकर मँगाभाई आदि तालाब के किनारे पर गये और आटे की कणेक को पानीमें डालने लगे । उसे खाने के लिए आते हुए कछुए और मछलियाँ आदि जलचर जीवों को पानीसे भरे हुए पीपोंमें डालकर बैलगाडी द्वारा वे पीपे जलसे भरे हुए बड़े जलाशयमें खाली करने लगे । इस तरह उन्होंने करीब ८०० कछुए Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ४६ एवं असंख्य मछलियों को बचाया । मंगाभाई अपने संसर्गमें आनेवाले राजपूत, ठाकोर, पटेल, रबारी, वाघरी इत्यादि जातियों के लोगों के साथ इस प्रकारकी धर्मचर्चा करते कि वे लोग भी शराब, मांसाहार और जीव हिंसा का त्याग करने लगे । धन्य है श्राविका मंजुबाईको, कि जिन्होंने मंगाभाई के जीवनमें जीवदया का ऐसा मंगलदीप प्रज्वलित किया कि जिस दीपकने कई लोगों के जीवनमें से जीवहिंसा का अंधकार दूर किया । मंगाभाई की एक सुपुत्री और तीन पौत्रियोंने जैन साध्वीजी के पास दीक्षा अंगीकार की है ! और दो प्रपौत्रियाँ संयमकी भावना से साध्वीजीके पास धार्मिक अभ्यास कर रही हैं । जिनका विशेष वर्णन निम्नोक्त प्रकार से है । मंगाभाई की सुपुत्री कमुबाई प.पू. आचार्य भगवंत श्री नीतिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के पू. सा. श्री वसंतश्री जी म.सा. की शिष्या पू. सा. श्री किरणमाला श्रीजी के रूपमें अनुमोदनीय संयम का पालन कर रही हैं । उन्होंने संस्कृत आदिका सुंदर अध्ययन किया है । सेंकड़ों स्तुति-स्तवन आदि कंठस्थ किये हैं । कंठ भी सुमधुर है । 1 मंगाभाई के तीन पुत्र हैं । उनमें से ज्येष्ठ पुत्र रणछोड़भाई की दो बेटियाँ गौरीबेन और लक्ष्मीबेन उपर्युक्त सा. श्री किरणमाला श्रीजी की शिष्याएँ बनकर अनुक्रमसे पू. सा. श्री पावनप्रज्ञाश्रीजी और पू. सा. श्री अक्षयप्रज्ञाश्रीजी के नामसे सुंदर संयम का पालन कर रही हैं । मंगाभाई के द्वितीय पुत्र चकुभाईकी सुपुत्री तरलाबेन भी संसारपक्षमें पाटड़ी के निवासी पू. सा. श्री जयमाला श्रीजी की शिष्या पू. सा. श्री तत्त्वशीला श्रीजी के नामसे रत्नत्रयीकी सुंदर आराधना कर रही हैं । मंगाभाई के पौत्र फरसुराम चकुभाई की दो सुपुत्रियाँ रेखा और रक्षा उपर्युक्त पू. सा. श्री तत्त्वशीला श्रीजी के पास संयमकी भावना से - धार्मिक अध्ययन कर रही हैं । मंगाभाई का परिवार पाटड़ी गाँव के प्रवेश द्वार के बाहर रहता Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ था। इसलिए उनके घरके सामने से गुजरते हुए जैन साध्वी समुदाय को देखकर उपर्युक्त सभी आत्माओंके हृदयमें शुभ भाव जाग्रत होने लगे कि, हम भी कब ऐसे श्वेत वस्त्रधारी साध्वीजी बनेंगे ? 'यादशी भावना, तादशी सिद्धि' और 'साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः' इस सूक्तिके अनुसार सत्संग के प्रभावसे एक दिन उनकी भावना साकार हुई। .. धन्य है उनके माता-पिताको, जिन्होंने जीवदया रूप धर्मका पालन किया और उसके पुण्य प्रभावसे उनकी संतानें भी संयमी बनीं । पशुसेवा, मानवसेवा, संतसेवा, हररोज प्रभुदर्शन एवं निरंतर नवकार महामंत्रका स्मरण इत्यादि कारणों से 'भगत' के नामसे सुप्रसिद्ध मंगाभाई आज उस पार्थिव शरीर के रूप में विद्यमान नहीं हैं । २० साल पूर्वमें उनका देह विलीन हुआ। लेकिन उनके सुपुत्र रणछोड़भाई आज भी अपने पिताजी के पदचिह्नों पर चलते हुए, कुत्तोंकी रोटीके लिए गाँवमें आटेकी झोली घर घरमें फैलाकर पशुओंकी अनुमोदनीय सेवा कर रहे हैं । प्रतिवर्ष गाँवमें जब भी रथयात्रा निकलती है तब रथ को वहन करने के लिए अपने बैल नि:स्वार्थ भावसे देनेका लाभ रणछोडभाई ही लेते हैं। ६० सालकी उम्रमें मंगाभाई ने फाल्गुन शुक्ल १३ के दिन महातीर्थ शत्रुजय की ६ कोस की प्रदक्षिणा दी थी । मंगाभाई की अंतिम समाधिके स्थान पर गाँवके लोगोंने देवकुलिका (देहरी) बनाकर उसमें उनकी पादुकाएँ स्थापित की हैं। जीवमात्र की नि:स्वार्थ सेवा द्वारा मंगाभाई ने कैसी अदभुत लोकप्रियता हासिल की थी, इसकी परिचायिका के रूपमें वे पादुकाएँ आज भी विद्यमान हैं। ... सचमुच, मनुष्य जन्मसे नहीं किन्तु सत्कार्यों से ही महान बन सकता है । मंगाभाई के जीवन से प्रेरणा लेकर सभी मनुष्य निःस्वार्थ सेवाको ही अपना जीवनमंत्र बनायें - यही शुभ भावना । पता : रणछोडभाई मंगाभाई भगत मु.पो. पाटडी, जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात), पिन : ३८२७६५. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पर्युषण के आठों दिन पक्खी पालनेवाले कांयाभाई लाखाभाई माहेश्वरी । चातुमासिक सत्संग सा. के समुदायके सा. प.पू. आचार्य : कच्छ केसरी, अचलगच्छाधिपति, प.पू. आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायके सा. श्री पूर्णानंद श्री जी आदि के चातुर्मासिक सत्संग से पिछले ९ सालसे जैन धर्मकी आराधना करते हुए कांयाभाई (उ.व. ७०) का जीवन सचमुच अत्यंत प्रेरणादायक एवं अनुमोदनीय है। सं. २०४८ में हमारा चातुर्मास कच्छ-बिदड़ा गाँवमें हुआ तब कांयाभाई की जीवनचर्या को नजदीक से देखने का हमें मौका मिला । चातुर्मास के दौरान वे प्रतिदिन २ टाईम प्रवचन-श्रवण के लिए अचूक आते थे । प्रवचनमें सामायिक लेकर बैठने की प्रेरणा को उन्होंने तात्कालिक स्वीकार की । हररोज दैवसिक प्रतिक्रमण समूहमें करते थे। प्रतिदिन जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करने के बाद मंदिर के भंडारमें वे यथाशक्ति द्रव्य अचूक डालते हैं । प्रतिदिन उभयकाल गुरुवंदन करते थे । क्वचित् अनिवार्य संयोगवशात् दिनमें गुरुवंदन नहीं हुए हों तो वे रात को सोने से पहले अचूक उपाश्रयमें आकर त्रिकाल वंदन करते थे। चातुर्मासमें प्रायः प्रत्येक सामूहिक तपश्चर्यामें कांयाभाई का नाम अचूक होता ही था । वर्धमान आयंबिल तपका थड़ा (नीव) बांधा । अठ्ठम किया । केश-लुंचन भी सहर्ष करवाया । पर्युषण के आठों दिन तक पक्खी पालते हैं । खेतमें नहीं जाते । आरंभ समारंभ नहीं करते । उनके घरके कोई भी सदस्य अभक्ष्य भक्षण नहीं करते । अपने उपकारी साधु-साध्वीजी भगवंत जहाँ भी होते, वहाँ वे पर्युषण के बाद वंदन करने के लिए अवश्य जाते हैं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सं. २०४९ में मणिनगर (अहमदाबाद), सं. २०५० में नारणपुरा (अहमदाबाद), सं. २०५१ में बडौदा, सं. २०५२ में मांडल, सं. २०५३में शंखेश्वर और सं. २०५४ में बाडमेर (राजस्थान) में आकर हमारी निश्रामें प्रत्येक पर्युषणमें ६४ प्रहरी पौषध के साथ कभी अट्ठाई (८उपवास) तो कभी अठुम, उपवास, एकाशन आदि तपश्चर्या करते हैं। ___ संघ के साथ पालिताना, आबु, शंखेश्वर, भद्रेश्वर, सुथरी आदि अनेक तीर्थोंकी यात्रा करने का लाभ भी उन्होंने लिया है । सं. २०५४में बाडमेरसे सम्मेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा का १८ दिनका आयोजन था, उसमें बाडमेर के एक भाग्यशाली सुश्रावकने कांयाभाई आदि १० व्यक्तियों को अपनी ओर से निःशुल्क यात्रा करवाने का लाभ लिया था। कांयाभाई ने अत्यंत अहोभावके साथ तीर्थयात्रा द्वारा अपनी आत्माको लघुकर्मी बनाया । कर्मवशात् महेतारज मुनिवर आदिकी तरह अनुसूचित जातिमें उत्पन्न होने पर भी ऐसी आत्माएँ अपने आचरण द्वारा भवांतरमें उत्तम कुलमें उत्पन्न होने की तैयारी करती हैं । कांयाभाई के जीवनमें से प्रेरणा लेकर हम भी अपने जीवन को आराधनामय बनायें - यही मंगल भावना । शंखेश्वरमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें कांयाभाई भी पधारे थे तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 15 के सामने । पता : कांयाभाई लाखौभाई माहेश्वरी ओतरा फलिया, मु.पो. बिदड़ा, ता. मांडवी, कच्छ (गुजरात) पिन : ३७०४३५ १६ "इस दुनियामें मेरे जैसा सुखी कोई नहीं होगा" पीतांबरदास मोची __गुजरातमें सुरेन्द्रनगर जिले के लखतर गाँवमें जैन स्थानक के पास बैठकर जूतों को सीने द्वारा आजीविका चलानेवाले पीतांबरदास (उ. व. ५४) बहुरत्ना वसुंधरा - १-4 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ को पिछले २० वर्षों से सत्संग द्वारा जैन धर्म का रंग लगा है । सं. २०४९ में लखतरमें तीन दिनकी हमारी स्थिरता थी, तब पीतांबर दास का प्रत्यक्ष परिचय हुआ । उपाश्रय या स्थानकमें कोई भी जैन साधु-साध्वीजी पधारते हैं तब उनके दर्शन-वंदन सत्संग एवं सेवा का लाभ लेने के लिए पीतांबरदास अचूक पहुँच जाते हैं । मानों साक्षात् भगवान पधारे हैं, ऐसा आनंद उनको होता है । तीन दिनकी हमारी वहाँ स्थिरता के दौरान वे हररोज ६-७ बार उपाश्रयमें आते थे । स्वरचित देव - गुरु-भक्ति के गीत भावपूर्वक सुनाते थे । जमींकंद आदि अभक्ष्य भक्षणसे दूर रहनेवाले पीतांबरदासने अपने जीवनमें २२ नियम ग्रहण किये हैं । वे हररोज चौविहार ( रात्रि भोजन त्याग ) करते हैं । (जैन - कुलमें जन्म होने के बाद भी निःसंकोच पसे जमींकंदका भक्षण एवं रात्रि भोजन करनेवालों को एवं जमाने के बहाने से अपना बचाव करनेवालों को इस दृष्टांतमें से खास प्रेरणा लेने जैसी है ।) लोगोंके जूते सीनेका व्यवसाय करते समय भी वे अपने पासमें स्लेट एवं लेखनी रखते हैं और बीच-बीचमें जब थोड़ा सा भी समय मिलता है, तब अपने मनको सदैव शुभ- भावों में रमणता करवाने के लिए वे स्लेट पर 'अच्छे काम करना भाई । बुरे काम करना नहीं । अच्छी दृष्टि रखना भाई । खराब दृष्टिं रखना नहीं' ईत्यादि सुवाक्य लिखते रहते हैं । विहार के समय उन्होंने अत्यंत भावपूर्वक हमको डाक एवं फुलस्केप पन्ने बहोराये एवं गाँवकी सीमा तक हमारे साथ चले और अपने बेटेको अन्य गाँव तक हमारे साथमें भेजा । मणिनगर के चातुर्मास दौरान उनके करीब २० पत्र आये थे । प्रत्येक पत्र केवल उपर्युक्त प्रकारके सुवाक्यों से भरपूर होते हैं । क्वचित् फुल स्केपके चार पृष्ठ भरकर सुवाक्य लिखकर भेजते थे । वे हररोज जिनमंदिर के द्वारके पास खड़े रहकर भगवान के Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ५१ दर्शन करते हुए प्रार्थना करते हैं कि ' हे भगवान ! मुझे अधिक पैसे मत देना क्योंकि पैसोंके बढ़ने से पाप भी बढ़ते हैं ।' - १ अत्यंत आनंद के साथ उनके मुखमें से ऐसे उद्गार भी सहज रूपसे निकल पड़े कि ' महाराज साहब ! इस दुनियामें मेरे जैसा सुखी शायद कोई नहीं होगा' । करोड़ों रुपये एवं टी. वी. सेट, सोफा सेट, केसेट आदि अनेकविध आधुनिक सुख सामग्री के सेटों के बीच वातानुकूलित फ्लेटमें रहने के बावजूद भी 'अपसेट' मनवाले लोगोंको, सच्चे अर्थमें सुखी होनेका कीमिया सीखने के लिए पीतांबरदास जैसे विशिष्ट व्यक्ति से मिलना चाहिए । पता : पीतांबरदास मोची, जैन स्थानक के पास, १७ मु.पो. ता. लखतर, जि. सुरेन्द्रनगर (गुजरात) पिन : ३८२७७५ (पीतांबरदास का बहुमान करने के लिए मणिनगर एवं शंखेश्वरसे उनको निमंत्रण भेजा गया था, मगर मान-सन्मान से दूर रहनेकी भावनासे, निःस्पृही पीतांबरदास ने उस निमंत्रण का सविनय अस्वीकार करते हुए लोक मानसमें अपना स्थान और भी उन्नत बना लिया ।) भाग्यशाली भंगीकी भव्य - भावना आजसे करीब २० साल पहले की बात है । धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. अहमदाबादमें गिरिधरनगर जैन संघके उपाश्रयमें व्याख्यान कर रहे थे । उस समय उपाश्रयमें जगह होने पर भी एक भाई उपाश्रयके प्रवेश द्वारके पास बाहर पायदान पर एक तरफ बैठकर अत्यंत अहोभावपूर्वक व्याख्यान सुन रहे थे । महाराज साहब की दृष्टि अचानक उनके ऊपर पड़ी और प्रवचन पूर्ण होने के बाद उन्होंने उपाश्रय के बाहर बैठकर प्रवचन सुननेका कारण Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पूछा । तब नम्रता से प्रत्युत्तर देते हुए उस भाई ने कहा कि 'साहब ! मैं भंगी हूँ, इसलिए यहाँ बैठकर व्याख्यान सुनता हूँ । कर्म संयोगसे भंगी के घरमें उत्पन्न होने पर भी उनकी जिनवाणी श्रवण की अभिरुचि देखकर म.सा. को उनके प्रति अत्यंत वात्सल्यभाव उत्पन्न हुआ। उनके साथ प्रेमसे वार्तालाप करने से पता चला कि वे वर्धमान तपकी २८९ ओली के आराधक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मसे प्रभावित हुए थे । (योगानुयोग पूज्यश्रीका स्वर्गवास गत वर्ष गिरधरनगरमें चातुर्मास के दौरान हुआ है ।) वे हररोज नवकारसी चौविहार करते एवं नवकार महामंत्रकी माला भी गिनते थे । गिरधरनगरमें सेंकडों भव्यात्माओं को हररोज जिनपूजा करते हुए देखकर एकबार उन्होंने अपनी भावना को आचार्य भगवंत के पास अभिव्यक्त करते हुए कहा कि 'गुरुदेव । मुझे भी हररोज जिनपूजा करनी है, मगर मैं जिनमंदिर को भ्रष्ट करना नहीं चाहता । कृपा करके मेरे लिए कोई उपाय बताइए ।' करुणानिधि आचार्य भगवंतने उनको उपाय बताया । उसके अनुसार उन्होंने अपने घरमें १८ अभिषेकयुक्त प्रभुजीको बिराजमान करके हररोज जिनपूजा करनेकी अपनी भावना पूर्ण की ! कैसी महान आत्मा ! . जैन कुलमें जन्म पाने के बाद और जिनमंदिर अपने घरके पासमें होने पर भी आलस्य, अज्ञानता इत्यादि किसी भी कारणवशात् जिनपूजा नहीं करनेवाली आत्माओंको इस दृष्टांतमें वर्णित आत्माको हररोज सुबहमें अहोभावपूर्वक याद करके नमस्कार करना चाहिए । इससे एक दिन उनका भी पुण्योदय जाग्रत होगा और प्रभुभक्ति के पुनीत पथ पर उनकी आत्मा भी प्रस्थान करेगी, इसमें संदेह नहीं है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १८ ५३ आठ और सोलह उपवासके साथ ६४ प्रहरी पौषध करनेवाले गजराजभाई मंडराई मोची मोची कुलमें जन्मे हुए गजराजभाई मंडराई (उ. व. ४९) हाल अपनी धर्मपत्नी एवं ५ संतानों के साथ मुंबई डोंबीवलीमें रहते हैं और जनताके जूते सीनेका व्यवसाय करते हैं । कर्म संयोगसे उनके पास रहने के लिए पक्का मकान नहीं है, इसलिए जहाँ भी थोडी-सी जगह मिले वहाँ झोंपड़ी बाँधकर रहते हैं । 'रोज कमाना और रोज खाना' ऐसी गरीब परिस्थितिमें जीवनका गुजारा करते हुए गजराज भाई के अंतरकी अमीरात ( समृद्धि) अद्भुत है । कईबार नगरपालिका के अधिकारी उनकी झोंपडी तोड़ देते हैं, तब फुटपाथ के उपर अथवा अन्यत्र जहाँ जगह मिलती है, वहाँ सो जाते हैं । फिरसे मेहनत करके झोंपड़ी बाँधते हैं । ऐसी स्थितिमें समय व्यतीत करते हुए गजराजभाईके जीवनमें भाग्योदय हुआ । वे जहाँ जूते सीने के लिए बैठते थे, उनके पासमें एक कच्छी श्रावक देवेन्द्रभाई आणंदजी गडा (कच्छ - खारुआवाले) की दुकान है। ऋणानुबंधवशात् इस श्रावक को गजराजभाई के प्रति अनुकंपाका भाव पैदा हुआ । ४ साल पहले उन्होंने अपने एक खाली कमरेमें उनको रहनेकी निःशुल्क जगह दी और उनके योग्य काम भी देने दिलाने लगे । एकबार पर्युषण के दिन नजदीक में आ रहे थे, तब देवेन्द्रभाईकी बहनने गजराजभाई को सुखी होने के लिए धर्म-आराधना करने की प्रेरणा दी और जैन धर्म का स्वरूप संक्षेपमें समझाया । लघुकर्मी गजराजभाई को धर्मकी बात सुनकर बहुत खुशी हुई और उन्होंने पर्युषणमें आठ दिन तक एकाशन तप किया । बादमें तो हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करनेके बाद ही अपने व्यवसायका प्रारंभ करने लगे । मांसाहार और जमींकंद के त्यागकी प्रतिज्ञा ले ली और रात्रि भोजनका भी यथासंभव त्याग करने लगे । पर्वतिथियोंमें ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे ' Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ नवकार महामंत्रका जप करते हैं और नीतिपूर्वक व्यवसाय करते हैं । ३ साल पहले उन्होंने पर्युषणमें अठ्ठाई तप (८ उपवास) के साथ ६४ प्रहरी पौषध किये थे और नवपदजी की ओलीमें ९ आयंबिल भी किये थे, उसमें भी अंतिम दिनमें पौषध किया था । गत वर्ष पर्युषणमें ६४ प्रहरी पौषध के साथ १६ उपवास ( सोलभत्ता) की आराधना सुप्रसिद्ध लेखक - वक्ता प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजयरत्न सुंदरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें डोंबीवलीमें की थी । 1 वे रोज संयमकी भावना भाते हैं । उनको धर्मकी आराधना बहुत ही पसंद है । वे कहते हैं कि 'सचमुच जैन धर्म अत्यंत महान् है । ऐसा महान् धर्म मिलने के लिए मैं अपनी आत्माको बहुत ही भाग्यशाली मानता हूँ और शेष जीवन धर्म आराधना करते-करते गुरु भगवंतों के चरणोमें बीताना है' । गजराजभाई को एवं उनको जैन धर्ममें जोड़ने वाले श्रावक परिवार को हार्दिक धन्यवाद सह अनुमोदना । अन्य श्रावक भी इसमें से प्रेरणा ग्रहण करें और ऐसे धर्मात्माकी उचित रूपसे साधर्मिक भक्ति करके उनके हृदयमें धर्मके प्रति अहोभाव बढ़ानेमें निमित्त बनें यही शुभ भावना । शंखेश्वरमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें गजराजभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 16 के सामने । पता : गजराजभाई मंडराई मोची C/o देवेन्द्रभाई आणंदजी गडा, बी-२, सांईकृपा, दत्तमंदिर रोड, डोंबीवली (पूर्व) जि. थाणा (महाराष्ट्र) पिन ४२१२०१. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १९ - ५५ मुस्लिम युवकने पिताकी संपत्ति (विरासत ) छोड़ दी मगर जैन धर्म नहीं छोड़ा ! अहमदाबाद के पालड़ी विस्तारमें रहते हुए मुस्लिम युवक सुलेमानने अपने साथ नौकरी करती हुई एक जैन कन्या (गुण संवत्सर जैसे महान तपके आराधक एक मुनिराजकी संसारी अवस्थाकी बेटी) के साथ प्रेमलग्न किया । आज से करीब २० साल पूर्व वह युवक धर्मचक्र तप- प्रभावक प. पू. पंन्यासप्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. ( हाल आचार्यश्री ) के परिचयमें आया । महाराज साहबने उसको जैन धर्म का स्वरूप समझाया एवं मुस्लिम धर्म के कुछ पारिभाषिक शब्दोंका जैन धर्मकी दृष्टिसे अर्थघटन करके बताया । जैसे कि अल्ला = जो किसीकी ला- ल्हाय-हाय नहीं लेता है वह जैन साधु । अकबर = जिसकी कब्र नहीं होती अर्थात् जिसकी कभी भी मृत्यु नहीं होती है वह अर्थात् सिद्ध भगवंत । खुदा = जो खुदको अर्थात् अपनी आत्माको जाने वह अर्थात् अरिहंत परमात्मा । फलत : उस युवकको जैन धर्मके प्रति अत्यंत आदर उत्पन्न हुआ । पूज्य श्रीकी प्रेरणासे उसने मांस, मदिरा एवं जमीकंदका हमेशा के लिए त्याग किया । वह हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करता है और रविवार को पासके गाँवमें जाकर जिनपूजा भी करता है । प्रतिदिन नवकार महामंत्र का भावपूर्वक स्मरण करता है । उसके माता- पिताने उसे कहा कि 'तू जैन धर्म छोड़ दे नहीं तो तुझे विरासत का वारिस नहीं बनाया जायेगा' । तब उसने गौरव के साथ प्रत्युत्तर दिया कि 'मुझे पिताजीकी संपत्ति नहीं मिलेगी तो चलेगा, मगर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ महा भाग्योदयसे मिले हुए चिंतामणि रत्नसे भी अधिक महिमावंत जैन धर्म को तो किसी भी किंमत पर नहीं छोडूंगा । आखिरमें वह पैतृकी संपत्ति की अपेक्षा छोड़कर अलग रहने लगा और अपना नाम परिवर्तन करके अनुमोदनीय रूपसे जैन धर्मका पालन करने लगा । इस तरह प्रसिद्ध नहीं होने की उसकी भावना को ध्यानमें रखते हुए उसका नाम एवं पता यहाँ पर नहीं दिया गया है । दिन-रात पैसे के पीछे अंधी दौड़ के कारण, जन्मसे ही संप्राप्त जिनशासनकी अनमोल आराधना की उपेक्षा करनेवाले एवं धनके लिए अपने भाई और पिताके सामने अदालतमें दावा करनेवाले लोग इस दृष्टांतमें से प्रेरणा लेकर महापुण्योदय से संप्राप्त श्रीजिनशासनकी महिमा को समझकर उसकी आराधना करनेमें लीन हो जायें तो कितना सुंदर ! प्रभुकृपासे सभीको ऐसी सन्मति मिले यही हार्दिक शुभाभिलाषा । २० विरोध के बावजूद भी हररोज जिनदर्शन और पूजा करनेवाले गेजुमलजी नथमलजी खत्री ( पुलिस ) बाड़मेर (राजस्थान) में पुलिसकी फर्जको अदा करते हुए रीजुमलजी खत्री (उ. व. ५८) के जीवनमें आजसे २० साल पहले माँस, मदिरा, धूम्रपान आदि व्यसनोंने अड्डा जमाया था, मगर खरतरगच्छीय पू. मुनिराज श्री विमलसागरजी म.सा. के व्याख्यान-श्रवण और सत्संगसे उनके जीवनकी दिशा बदली । उन्होंने सभी व्यसनोंका संपूर्ण त्याग किया । इतना ही नहीं परंतु हररोज जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन एवं जिनपूजाका भी प्रारंभ कर दिया । धर्म के प्रभावसे उनकी आर्थिक परिस्थितिमें भी सुधार होने लगा । मगर उस समय बाड़मेरमें जिन मंदिरमें दर्शन करनेवाला एक भी जैनेतर नहीं था, इसलिए उनके घरमें एवं समाजमें उनको भारी विरोधको झेलना पडा । खुद उनकी धर्मपत्नीने भी आत्महत्या करनेकी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ ५७ धमकी दी मगर रीजुमलजी धर्मश्रद्धासे विचलित नहीं हुए। आखिर दृढ़ श्रद्धाके आगे सभीको झुकना पड़ा । 'यतो धर्मस्ततो जयः' महाभारतमें गांधारी द्वारा अपने बेटे दुर्योधनसे कहे गये इन शब्दों के मुताबिक रीजुमलजीकी धर्मश्रद्धा की हुई। पुलिस के रूपमें अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उन्होंने जिनदर्शन एवं पूजाका नित्यक्रम कई वर्षों तक बराबर निभाया है। आज वे उम्रके कारण पुलिस की नौकरीसे निवृत्त हुए हैं, मगर जिनमंदिर जानेसे निवृत्त नहीं हुए हैं। घुटनोंमें वायुका दर्द होने के बावजूद भी वे प्रतिदिन श्री चिंतामणि पार्श्वनाथके जिनमंदिरमें अचूक जाते हैं । अचलगच्छीय मुनिराज श्री मलयसागरजी की प्रेरणासे उनकी धर्मभावना सविशेष रूपसे दृढतर बनी है । सचमुच जैनेतर कुलमें जन्म पाने के बाद विरोधी वातावरण के बावजूद भी दृढ़तापूर्वक प्रभुदर्शन एवं जिनपूजाके नियमका पालन करनेवाले रीजुमलजीका दृष्टांत अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय है । शंखेश्वरजी तीर्थमें अनुमोदना समारोहमें निमंत्रण को स्वीकार करके वे उपस्थित रहे थे, उस समयकी तस्वीर प्रस्तुत पुस्तकमें पेज नं. 16 के सामने प्रकाशित की गयी है । सं. २०५४ का हमारा चातुर्मास बाड़मेर में हुआ, तब रीजुमलजी के जीवनको नजदीक से देखने का अवसर मिला । अब तो उनके परिवार के सदस्य भी जैनधर्मानुरागी बन गये हैं । पता : रीजुमलजी नथमलजी खत्री, आझाद चौक, बाडमेर (राजस्थान) पिन : ३४४००१. २१ जैन धर्मकी आराधना एवं माताकी सेवाके लिए अविवाहित रहनेवाले सरदार पप्पुभाई महाराष्ट्रमें पुना जिले के खड़की गाँवमें रहते हुए सरदारजी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - ५८ पप्पुभाई (उ. व. ३३) को एक दिन पड़ौसी जैन श्रावक जिन मन्दिरमें प्रभुदर्शन करवाने के लिए अपने साथ ले गये । वीतराग परमात्माका मनोहर मुखारविंद देखकर सरदारजी को इतना आनंद हुआ कि तबसे वे हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । धीरे-धीरे जैन साधु भगवंतों के सत्संगसे उनको जैन धर्मका रंग अधिक अधिकतर लगता गया और फलतः उन्होंने पिछले १० सालमें ८ बार अठ्ठाई (८ उपवास ), १ बार १६ उपवास एवं मासक्षमण ( ३० उपवास) भी कर लिया । वि. सं. २०५१ में सम्मेतशिखर तप किया वे तपश्चर्या के दिनोंमें प्रतिकमण भी करते हैं । सं. २०५० में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्रीजगवल्लभ विजयजी गणिवर्य म.सा. ( हाल आचार्यश्री ) का चातुर्मास खड़कीमें हुआ तब पप्पुभाई ने पूज्य श्रीकी प्रेरणासे धर्मचक्रतप जैसे ८२ दिनके दीर्घ तपकी आराधना भी कर ली, इतना ही नहीं किन्तु इस तपके सभी तपस्विओंको एक दिन बियासना करवाने का महान लाभ भी उन्होंने लिया । ३३ वर्षकी युवावस्थामें भी पप्पुभाई शादी नहीं करते हैं, उसके पीछे दो महान हेतु रहे हुए हैं । एक तो माताकी सेवाके लिए एवं दूसरा कारण यह है कि, यदि वे शादी करना चाहें तो सामान्यतः अपनी जातिकी कन्याके साथ शादी करनी पड़ती है, और यदि उस कन्याको तप-त्याग प्रधान जैन धर्मके प्रति अभिरुचि पैदा नहीं हो तो शायद विवाह संबंधको टिकानेके लिए उन्हें जैन धर्म छोड़ना पड़े जो उनको किसीभी हालत में स्वीकार नहीं हैं । V आज के अत्यंत विलासी वातावरणमें भी, जैन धर्मकी आराधना के लिए स्वेच्छासे युवावस्थामें भी ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले सरदारजी पप्पुभाई कोटिशः धन्यवादके पात्र हैं । २ साल पूर्वमें उन्होंने जैन धार्मिक पाठशाला ५५५५ रूपयोंका दान भी दिया था । सचमुच, बहुरत्ना वसुंधरा ( पृथ्वी बहुत रत्नोंवाली है) यह उक्ति यथार्थ ही है न ? पप्पुभाई अरोरा ( गुरु मोहिंदर सींग) पप्पुभाई की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ तस्वीरके लिए देखिए पेज नं. 25 के सामने । पता : सरदारजी पप्पुभाई अरोरा (गुरु मोहिंदर सींग), १५५ जूना बाजार, मु.पो. खड़की, जि. पुना (महाराष्ट्र) पिन : ४११००३ फोन : ३१३२५२ २२ जैन धर्म के कट्टर विरोधी ब्राह्मण अमृतलालभाई राजगोरका हृदय परिवर्तन खेड़ा जिले के वालवोड़ गाँवमें जैन मन्दिर के पीछे रहनेवाले अमृतलालभाई राजगोर (ब्राह्मण उ. व. ५४) एक समय जैन धर्म के अत्यंत विरोधी थे। मगर परिवर्तनशील इस संसारचक्रमें उनके जीवनमें किसी धन्य क्षणमें हृदय परिवर्तन और जीवन परिवर्तनकी शहनाई गूंज उठी। १०३ सालके दीर्घायुषी महा तपस्वी सुसंयमी स्व. प.पू. आचार्य भगवंत श्री सिद्धिसूरीश्वरजी म.सा. का समाधिमंदिर बनवानेकी वालवोड जैन संघको बहुत भावना थी । उसके लिए जिनमंदिरके पासमें अनुकूल खुली जमीन थी वह अमृतलालभाई राजगोरकी होने से श्री संघने उनको योग्य मूल्य द्वारा जमीन देने के लिए विज्ञप्ति की । लेकिन जैन धर्म के अत्यंत विरोधी अमृतलालभाई किसी भी कीमत पर वह जमीन संघको देने के लिए तैयार नहीं थे । मगर एक रातको स्व. आचार्य भगवंत श्री सिद्धिसूरीश्वरजी म.सा.ने स्वप्नमें अमृतलालभाईको दर्शन दिये और संघ द्वारा अपेक्षित जमीन श्री संघको देने के लिए प्रेरणा दी । इस घटनासे उनके हृदयमें जैन साधु भगवंतों के प्रति अत्यंत समादर भाव उत्पन्न हुआ और दूसरे ही दिन उन्होंने संघके अग्रणी श्रावकोंको स्वयं बुलाकर अपनी जमीन बिना मूल्य से. श्री संघको अर्पण कर दी । बादमें उनके हृदयमें जैन शासनके प्रति उत्तरोत्तर बहुमान भाव Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ बढता ही चला और कुछ ही दिनोंमें उन्होंने प्रतिदिन जिनपूजा करनेका भी प्रारंभ कर दिया । पिछले ६ वर्षों से वे नवपदजी की आयंबिलकी ओली भी करते हैं। एकबार उन्होंने आयंबिलकी ओली करवाने के लिए अन्य तीन दाताओंके साथ लाभ लिया, इतना ही नहीं मगर स्वयंने चालू ओलीके अंतिम तीन दिनोंमें अठ्ठम तप भी किया । वे हररोज नवकार महामंत्रकी माला गिनते हैं। उनकी धर्मपत्नी भी प्रतिदिन जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करती है। केवल एक ही बार स्वप्नमें आचार्य भगवंत के दर्शन द्वारा अमृतलालभाई का कैसा सुंदर हृदय परिवर्तन और सुखद जीवन परिवर्तन हो गया । 'दुर्जन के साथ दोस्ती करने की बजाय सज्जन के साथ दुश्मनी रखनी अच्छी ' यह कहावत प्रस्तुत दृष्टांत द्वारा स्पष्ट होती है । प्रभु महावीर को डंक देनेवाले चंडकौशिक नाग, वाद करनेके लिए तैयार हुए इन्द्रभूति गौतम और तेजोलेश्या फेंकनेवाले गोशालकका भी कैसा सुंदर हृदय परिवर्तन हो गया था ! यदि उत्तम आत्माओं के साथ दुश्मनी भी हो तो ऐसा सुंदर परिणाम ला सकती है तो उनके प्रति आदर और भक्तिभाव पूर्वक किया गया सत्संग जीवनमें कौनसे आध्यात्मिक चमत्कारोंका सर्जन नहीं कर सकता है यही एक सवाल है । ____ अमृतलालभाई भी शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उपस्थित हुए थे। उनकी तस्वीर इसी किताब में पेज नं. 16 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : अमृतलालभाई मोहनलाल राजगोर, मु.पो. वालवोड, ता. बोरसद, जि. आणंद (गुजरात) पिन : ३८८५३० फोन : ८८१६१ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ २३ श्रीफल की प्रभावना के निमित ने लिंगायत शिवप्पा को आचार्य गुणानंदसूरि बनाया सिद्धांत महोदधि, कर्म साहित्य निष्णात, वात्सल्य वारिधि, प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. विहार करते हुए कर्णाटक के निपाणी गाँवमें पधारे । सच्चारित्रचूडामणि पूज्यश्री के दर्शन-वंदन और व्याख्यान श्रवणके लिए अच्छी संख्यामें लोग इकट्ठे हुए थे । व्याख्यान के बाद श्रीफलकी प्रभावना हो रही थी। तब लिंगायत जातिका शिवप्पा नामका एक लडका श्रीफलकी प्रभावना लेकर पृष्ठ द्वारसे बार-बार आकर प्रभावना लेने लगा । इस तरह उसने २५ श्रीफल लिये ! आखिरमें एक अग्रणी श्रावकका ध्यान उसकी ओर गया । उन्होंने उसे पकड़ लिया और धमकाया। श्रीफल वापिस ले लिये। अचानक आचार्य भगवंतका ध्यान इस घटनाकी ओर आकृष्ट हुआ । दीर्घदृष्टा और समयज्ञ सूरिजीने तुरंत अग्रणी श्रावकको इशारा करके उस लड़केको छुड़ाया एवं श्रीफल उसे वापिस दिलाये । अपने ऐसे अपराधकी उपेक्षा करके निष्कारण वात्सल्य बरसानेवाले आचार्य भगवंतके प्रति बालकका हृदय अहोभावसे भर गया । उसने सूरिजी से क्षमा याचना की । यथार्थनामी पूज्यश्रीने उसे प्रेमसे परिप्लावित कर दिया। फलतः वह बालक प्रतिदिन सूरिजीका सत्संग करने लगा । आखिर उसने दीक्षा ली । शिवप्पा मुनि गुणानंदविजय बन गया । कुछ वर्षों के बाद उनकी योग्यता देखकर गुरुदेवने उन्हें सूरिपद पर आरूढ कर दिया । अत्यंत निरभिमानी एवं सादगी युक्त जीवन जीनेवाले आ.भ.श्री गुणानंदसूरिजी की वाचना श्रवणका लाभ नवसारीमें तपोवन जिनालयकी अंजनशलाका-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर हमें मिला था ।। ___ इस तरह प्रभावना के निमित्त एवं सूरिजी के वात्सल्यने शिवप्पाको मुनि और सूरि बनाया । किसी भी प्रकारको भूलको सुधारने के लिए आक्रोश और तिरस्कार के बदलेमें प्रेम और वात्सल्य कैसा विस्मयकारक परिणाम ला सकता है, यह इस दृष्टांतमें हमें देखने को मिलता है । यदि इन गुणोंको Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग आत्मसात् किया जाय तो घर-घरमें और घट घटमें व्याप्त संघर्ष और संक्लेश अदृश्य हो जाय और प्रेम वात्सल्य के कारण इसी धरती पर स्वर्गीय वातावरणका अनुभव हो सके इसमें संदेह नहीं । - पंजाब केसरी प. पू. आ. भ. श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायमें वर्तमानकालीन गच्छाधिपति प.पू. आ.भ. श्री विजय इन्द्रदिन्नसूरीश्वरजी म. सा. परमार क्षत्रिय जातिके शासनरत्न हैं । शासन सम्राट प.पू. आ. भ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायके स्व. गच्छाधिपति शासन प्रभावक, प.पू.आ.भ.श्री विजयमेरुप्रभसूरीश्वरजी म.सा. भी ब्राह्मण कुलोत्पन्न शासनरत्न थे । वे गृहस्थ जीवनमें खंभात नगरमें एक जैन श्रेष्ठीके घरमें रसोईये के रूपमें काम करते थे, मगर सत्संगके योगसे उनका जीवन परिवर्तन हुआ था । विमलगच्छके वर्तमान गच्छनायक प.पू. आ. भ. श्री प्रद्युम्नविमलसूरीश्वरजी म.सा. भी ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुए हैं । उनके भाई ने भी दीक्षा अंगीकार की है । सुप्रसिद्ध युवा प्रतिबोधक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न, जोशीले प्रवचनकार प. पू. पं. श्री चन्द्रजितविजयजी म.सा. और प. पू. पं. श्री इन्द्रजितविजयजी म.सा. भी पटेल जातिमें उत्पन्न हुए हैं । प्रजापति बालुभाई ने आठ कोटि बड़ी पक्ष स्थानकवासी संप्रदाय में दीक्षा ली थी और पंडितरत्न श्री छोटालालजी स्वामीके शिष्य प्राणलाल मुनि बने थे । उन्होंने अनुमोदनीय गुरुसेवा की थी । 888 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ____६३ कर्णाटक राज्यमें दावणगिरि गाँवके लिंगायत जाति के युवकने पू. आ. श्री अमरसेनसूरिजी म.सा. एवं मुनिराजश्री अश्वसेनविजयजी की प्रेरणासे दीक्षा ली । मुनि अरसेन विजय के नामसे प्रसिद्ध हुए । तपस्वी पू. आ. श्री अशोकरत्नसूरिजी म.सा.की सेवा एवं तपश्चर्या के द्वारा अपने जीवन को सफल बना रहे हैं। कर्णाटक राज्य के नरगुंड गाँवमें लिंगायत जातिमें जन्मे हुए बालक बसप्पाने शासन सम्राट, प. पू. आ. भ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्तसे दीक्षा अंगीकार की और मुनि श्री विद्याचंद्र विजयजी म.सा. के नामसे आज वे प. पू. आ. भ. श्री विजय श्रेयांसचन्द्रसूरिजी की निश्रामें संयम और तपश्चर्याकी सुंदर आराधना कर रहे हैं । २ वर्षीतप, ३ चौमासी तप, सोलभत्ता, अट्ठाई आदि तप द्वारा अनुमोदनीय कर्म निर्जरा वे कर रहे हैं। ___ इस प्रकारसे और भी कई दृष्टांत हैं जो जैनेतर कुलमें जन्म पाकर भी सत्संगसे जैन साधु साध्वीजी बनकर स्व-पर कल्याणमें निरत हैं, उन सभी महात्माओंकी हार्दिक अनुमोदना । २४ विप्रकुलोत्पन्न दिलीपभाई मापारीका वीतरागता के प्रति प्रधान वह देश धन्य है जहाँ त्याग मार्गका माहात्म्य दृष्टिगोचर होता है। वह गाँव नगर भी धन्य है, जहाँ त्याग मार्ग की अनुमोदना विशाल जनतामें सानंद होती है । वह कुटुंब भी धन्य है, जहाँ त्याग मार्ग को स्वीकार करके जीवनको चरितार्थ करनेवाले पुण्यात्माओंका जन्म होता है । ऐसे ही त्याग प्रधान भारत देशके महाराष्ट्र प्रांत के येवला गाँवमें विप्र शरदचंद्र मापारी सपरिवार रहते हैं । उनकी गुण-गरिष्ठ धर्मपत्नी निर्मलादेवीने अपने पीअरके सिल्लो गाँव (जिला औरंगाबाद) में वि.सं. १९७६ के श्रावण शुक्ल एकम के शुभ दिन (दि. १-१०-७६) एक Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पुत्ररत्नको जन्म दिया, जिसका नाम "दिलीप" रखा गया । संयोगवशात दिलीप १० सालकी उम्र तक अपने मामाके घरमें रहा । मामा चायकी होटल द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे। येवला आने के बाद दिलीप के संस्कारों में परिवर्तन हुआ । माता-पिता चुस्त ब्राह्मण थे, मगर माँ की ममता ऐसी थी कि अक्सर बिमार रहते हुए अपने बेटे के स्वास्थ्य के लिए अनेक प्रकारकी मनौतियाँ रखती थी । कभी पीरके स्थान पर वस्त्र भी चढ़ाती थी। लेकिन एक ऐसी धन्य घड़ी आयी जो दिलीपभाई के जीवनमें सुखद परिवर्तन लायी । जैन श्रावकके वहाँ टयुशन देने के लिए जाते हुए दिलीपभाईको जिनवाणी के पठन का सुनिमित्त मिला । इस तात्त्विक और सात्त्विक वांचनने उनकी हृदय-वीणाके तारों को झंकृत कर दिया । "सूर्यांशु भिन्नमिव शार्वरमंधकारम्" इस उक्ति के अनुसार सम्यकत्व की छोटी-सी ज्योति हृदयमें प्रकाशित होने से मिथ्यात्वके घोर अंधकारने विदा ली । तात्त्विक पुस्तकोंके पठनसे तत्त्व प्राप्त हुआ और साथमें अनेक जीवोंको संसार के समरांगणसे बचाकर संयम के सुरतरु उद्यानमें स्थापित करनेवाले पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. की मनमोहक तस्वीरका दर्शन हुआ । इससे तन-मनमें प्रसन्नता छा गयी। अंतर अहोभावसे आप्लावित हो गया। और साथमें कोट्याधिपति नवयुवक अतुलभाई (हितरूचिविजयजी म.सा.) की भव्यातिभव्य दीक्षाका विशेषांक हाथमें आनेसे हृदयमें कुछ अपूर्व प्रकारके स्पंदनोंका प्रादुर्भाव हुआ । "छोड़ने योग्य संसार, स्वीकारने योग्य संयम, प्राप्त करने योग्य मोक्ष" इस त्रिपदीकी भावनाके सुरम्य उद्यानमें रमते हुए दिलीपभाई ने संयम स्वीकारने का दृढ़ निर्णय कर लिया । . .. 'संसार अनेक पापोंका घर है, आत्माका कत्लखाना है' यह बात दिलमें ऐसी आत्मसात् हो गयी थी कि मां-बाप, बिना पूछे कहीं सगाई न कर दें, इसके लिए वे अत्यंत चिंतित हो उठे । मामाकी बेटीके साथ सगाई की बात सुनकर रागके तूफान और संसारकी श्रृंखलासे बचनेके लिए दिलीपभाई अपने घरसे भागकर, मालेगाँवमें बिराजमान प.पू. आ. भ. श्रीमद् Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. के पास गये और उनके पास दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की। निःस्पृही जैनाचार्यश्रीने शिष्य मोहसे निर्लिप्त रहते हुए दिलीपभाई से पूछा 'सचमुच वैराग्य हुआ है कि माँ-बाप के साथ मन-मुटाव होने से भाग आये हो ? जिनके जीवनमें विरागका चिराग प्रज्वलित हो उठा है, ऐसे दिलीपभाई ने प्रत्युत्तरमें सविनय कहा 'साहबजी । मैं वैराग्यकी भावनासे प्रेरित होकर ही आया हूँ, मगर मालेगाँव नजदीकमें होने से मातापिता मुझे लेने के लिए यहाँ आ सकते हैं । जैन धर्म के विशेष स्वरूपसे अनभिज्ञ दिलीपभाई ने संयमकी तालीम लेना प्रारंभ किया । दूसरे ही दिन चतुर्दशी होने से पौषध करवाया गया। साथमें रसना-विजय कारक, महामांगलिक आयंबिल तप जीवनमें प्रथमबार ही किया । आयंबिलके विशेष स्वरूपसे अनभिज्ञ दिलीपभाई ने आयंबिलमें लालमिर्च की याचना की । सहवर्ती श्रावकने समझाया कि आयंबिलमें लाल मिर्च भी वर्ण्य है। दिलीपभाई ने जरा भी तर्क न करते हुए, "तहत्ति" करके पूर्ण प्रसन्नता शुद्ध आयंबिल किया । आत्मा बलवान बनती है और साथमें मनका संकल्प संमिलित होता है तब कल्पनातीत कार्य भी आसानीसे हो जाते हैं । दूसरे ही दिन माता-पिता वहाँ आ पहुँचे । मोहाधीन माँ-बापने पुत्रको घर चलनेके लिए आग्रह किया । करुणावंत आचार्य भगवंतने तीसरे ही दिन दिलीपभाई को माता-पिताको सांत्वनाके लिए घर जानेको कहा। वे गये, लेकिन विरागी आत्माको माता-पिताका स्नेहराग भी रोक न सका। चौथे दिन पुनः वापिस लौटकर वे आचार्य भगवंत के पास आ गये । पूज्यश्रीने उनको अपने समुदायके सिद्धहस्त लेखक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजयपूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनिराज श्री युगचन्द्रविजयजी के पास भेजा । कुछ दिनके बाद उनके माता-पिताका स्वास्थ्य नादुरस्त होनेसे करीब ढाई महिनों तक माता-पिताके पास आकर उनकी सेवा की। 'संयम कब ही मिले' की भावनावाले दिलीपभाई पुनः पूज्यश्रीके चरण कमलमें उपस्थित हुए । पूज्यश्रीकी आज्ञानुसार वे पुनः प.पू.आ.भ. बहुरत्ना वसुंधरा - १-5 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ श्री पूर्णचन्द्रसूरिजी म.सा. के पास गये । वहाँ अनेकविध आराधनाओं के साथ अहमदाबादसे सिद्धगिरिजी महातीर्थ के छ:'री' पालक पदयात्रा संघमें शामिल होकर तीर्थयात्रा की । बादमें सम्मेतशिखरजी वे भीलडीयाजी आदि तीर्थों की यात्रासे अपनी आत्माको पावन बनाया । इस तरह जिनभक्ति उनके जीवनके उत्कर्षमें उपकारक बनी। आखिर उन्होंने संयम के लिए अनुमतिकी भावनासे अठ्ठम तप किया। उस तपमें कठिनताका अनुभव हुआ, मगर मनकी मस्ती अपूर्व थी। बादमें वे सीधे प.पू. आचार्य भगवंतश्री के चरण-कमलमें उपस्थित हुए और संयम स्वीकार करने के लिए आशीर्वादको अभ्यर्थना की । दिलीपभाइ के माता-पिता मालेगांव आये । प.पू.आ.भ.विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा.के मिताक्षरी उपदेशसे अब माता-पिताने दीक्षाके लिए अनुमति प्रदान की । दिलीपभाई की खुशीका ठिकाना न रहा । ___ वि.सं. २०५१ के ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके शुभ दिनमें येवला श्रीसंघ एवं परिवारजनोंके द्वारा हर्षोल्लासपूर्वक भव्यदीक्षा महोत्सव संपन्न हुआ । दिलीपभाई संयम श्रृंगार सजाकर अणगार बने । गुरु महाराजने उनको मुमुक्षु अवस्थामें प्रेमसे 'प्रेमकुमार' नाम दिया था उसे सिद्धांत महोदधि प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के संयम उपवनमें प्रवेश करने की अनुमति (परमीशन) मिली । प्रेमकुमार अब मुनि प्रभुरक्षित विजय बन गये। जो प्रभुद्वास रक्षित हो उसका बाल भी बांका कौन कर सकता है भला। माता निर्मलाबहन का लाल अब अष्टप्रवचन माताका लाडला बन गया !!! ___आत्मतेज (प्रभा) का विस्तार करनेवाले प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. का सुवर्णमें सुगंध की तरह सुयोग मुनि प्रभुरक्षित विजयको मिला, जो उनके महान् पुष्णोदय को सूचित करता है। गुरुदेवकी तारक निश्रामें वे मुनि जीवनकी विशिष्ट दिनचर्या में मन-वचनकाया की एकाग्रता से ऐसे जुड़ गये कि दर्शन करनेवालों का मन और मस्तक अहोभावसे, झुके बिना रह नहीं सकता । कुशल व्यापारी की तरह वे धर्मरूपी धनका संचय करने के लिए अप्रमत्त भावसे प्रयत्नशील बने । संयमनिष्ठा, सेवा, स्वाध्याय रसिकता, क्रियाचुस्तता, गुरुआज्ञापालन तत्परता, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ६७ समर्पितता, सहवर्ती साधकों के साथ मैत्री प्रमोदभाव पूर्वक रहनेकी कुशलता इत्यादि सद्गुण उनकी विकासयात्रामें परम आलंबन रूप बने हैं। उनकी प्रत्येक चर्यामें जागृति का दर्शन होता है । कभी-गुरुदेवश्री मिष्टान्न ग्रहण करने के लिए प्रेरणा करते हैं, तब वे विनयपूर्वक कहते हैं 'गुरुदेव मुझमें स्थूलिभद स्वामी जैसी-निर्लेपता नहीं है इसलिए'...! दुर्घटना के कारण पैमें कष्ट होते हुए भी दीक्षा के बाद प्रथम वर्षमें ही औरंगाबादसे समेतशिखरजी महातीर्थके छः'री' पालक पदयात्रा संघमें दो महिनेमें १८०० कि.मी. का उग्र विहार भी प्रसन्नता के साथ किया। एक बार विहारमें बुखार आने पर गुरु महाराजने डोलीका उपयोग करनेके लिए प्रेरणा दी तब उनके नेत्रोंमें से उष्ण अश्रुधारा बहने लगी । आखिर डोलीका उपयोग नहीं ही किया । यह है चारित्रकी चुस्तता का .त । आयंबिल तप उनके लिए बहुत कठिन होते हुए भी भगीरथ पुरुषार्थसे वर्धमान तपकी नींव डालकर १० ओलियोंकी आराधना प्रसन्नता के साथ पूर्ण की है। प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा., प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. और प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय मुक्तिचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की दिव्य कृपा और प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. के प्रत्यक्ष आशीर्वादों से मुनि प्रभुरक्षित विजय अपनी आराधनामें दिन-प्रतिदिन अनुमोदनीय प्रगति कर रहे हैं । .. धन्य शासन... धन्य साधक.... धन्य साधना..... हार्दिक अनुमोदना... ११ सालका बाल्यवयमें एकाशन के साथ लाख नवकार जपता हुआ लक्षेशकुमार भूपेन्द्रभाई भावसार - भरूचके समड़ीविहार तीर्थोद्धारके मार्गदर्शक, लब्धिविक्रम गुरु कृपाप्राप्त प.पू.आ.भ. श्री विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. आदिका चातुर्मास वि.सं. २०४३ में भरुचमें हुआ था । तब पूज्यश्री के सत्संगसे भावसार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ (वैष्णव) कुलोत्पन्न लक्षेशकुमारने केवल ११ सालकी उम्रमें २० दिन तक लगातार एकाशन की तपश्चर्या के साथ एक लाख नवकार महामंत्र जप की आराधना की थी । पर्युषणमें अट्ठाई तप भी उसने किया था । भविष्यमें उपधान तप करने की भी वह भावना रखता है । अल्प समयमें ही उसने चैत्यवंदन, गुरुवंदन और सामायिक के सूत्र भी कंठस्थ कर लिये हैं । टी.वी. वीडियो के इस युगमें जैन कुलोत्पन्न बच्चों को भी पाठशालामें या साधु-साध्वीजी भगवंतों के पास भेजकर धार्मिक सूत्रों का अभ्यास करवाने में आजके माता-पिताओंको कितनी कठिनाई का अनुभव होता है, ऐसे कालमें जैनेतर कुलमें जन्मा हुआ बालक छोटी उम्रमें और अल्प समयमें इतनी प्रगति साध सके इसका श्रेय सत्संग और पूर्व जन्म के संस्कारों को मिलता है । लक्षेशकुमार बहुत सम्यक् ज्ञानाभ्यास करके संयम द्वारा मानवभवको सफल बनाये यही हार्दिक शुभेच्छा । पता : लक्षेशकुमार भूपेन्द्रभाई भावसार दाजीकलाकी खड़की, लल्लुभाई चकला, भरूच. पिन : ३९२००१ (गुजरात) परीक्षाके कारण लक्षेशकुमार शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उपस्थित नहीं रह सका था मगर बादमें वह शंखेश्वरमें आया था। लक्षेशकुमारकी पड़ौसमें रहनेवाले रतिलालभाई पुंजाभाई गांधी (उव.७२) जन्मसे प्रजापति (कुम्हार) होते हुए भी १५ साल पहले भरुचसे पालीताना तीर्थ के पदयात्रा संघमें शामिल हुए थे तब से जैन धर्मका पालन करते हैं। हररोज जिनमंदिरमें जाकर जिनपूजा करते हैं। पिछले ५ साल से फाल्गुन शुक्ल १३ को पालिताना की यात्रा करते हैं। कई वर्षों से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । अठ्ठाई, सोलहभत्ता, (१६ उपवास) वर्धमान तप आदि तपश्चर्या की है। ओसतन वे एकाशन ही करते हैं । सम्मेतशिखरजी, जेसलमेर आदि तीर्थों की यात्रा की है । शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोह में वे उपस्थित रहे थे । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ २६ सेवाभावी स्वातंत्र्यसैनिक वैद्यराज अनुप्रसादभाई ( नाई) अहमदाबाद (मणिनगर) में रहते हुए अनुप्रसादभाई वैद्य जातिसे नाई होते हुए भी बचपनसे ही श्रावकों के सानिध्य के कारण से जैन धर्मानुरागी बने। . अहमदाबाद की हाजा पटेल की पोल में लांबेश्वर जिनमंदिर के पास रहते हुए उनके मामा मगनलालभाई एवं उनके सुपुत्र बाबुभाई भी श्रावकों के साथ परिचय से जैनधर्मानुयायी बने थे । अनुप्रसादभाई ने एकाशन, आयंबिल की ओली, उपवास, अठुम और अछाई की तपश्चर्या भी अपने जीवनमें की है । जिनमंदिरमें जाकर चैत्यवंदन करते हैं । अपने पड़ौसमें रहनेवाले गोविंदजीभाई नामके कच्छी श्रावक के घर जाकर उनके साथ प्रतिक्रमण भी करते हैं । जमीकंद और रात्रिभोजन का त्याग किया है । निःस्पृही अनुप्रसादभाई स्वातंत्र्य सैनिक होते हुए भी सरकार के द्वारा दी जाती सेवावृत्ति (पेन्सन) को स्वीकार नहीं करते हैं । कई वर्षों से वैद्यका व्यवसाय करते हुए वे साधु साध्वीजी भगवंतोंकी निःशुक्ल सेवा करते हैं । पहले हररोज १५ रुपयोंकी दवा गरीबों को मुफ्तमें देते थे । अब वे विना मूल्य ही सभीकी सेवा करते हैं। संसार पक्षमें खंभात नगर के तीन साध्वीजी स्व. सा. श्री दिव्यप्रभाश्रीजी, स्व. सा. श्री चारित्रश्रीजी और सा. श्रीललितदर्शनाश्रीजी उनके विशेष उपकारी हैं । उनके दर्शन के लिए वे प्रतिवर्ष एक बार अचूक जाते थे। आर्थिक स्थिति साधारण होते हुए भी प्रभुभक्ति के प्रतीकके रूपमें उन्होंने जिनमंदिरमें प्रभुजीकी अंगरचनाके लिए ४ तिथियाँ लिखाई हैं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सं. २०४९ में हमारा चातुर्मास मणिनगरमें था तब उपाश्रयसे अपना घर २ कि.मी. दूर होते हुए भी ८४ वर्षकी उम्रवाले अनुप्रसादजी प्रवचन सुनने के लिए अक्सर आया करते थे । अठ्ठम तपके दौरान बुखार आने पर भी उन्होंने दृढ मनोबल से अठ्ठम तप पूर्ण किया था । __शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें वे उपस्थित रहे थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 15 के सामने प्रकाशित की गई है। गत वर्ष उन्होंने १ क्रोड ११ लाख नवकार जप किया था, तब प्रातः ६ बजेसे लेकर रातको १० बजे तक नवकार महामंत्रका जप करते थे । वृद्धावस्थामें भी कितनी अनुप्रमत्तता !!! इससे पूर्व श्रीजीरावला पार्श्वनाथका सवा लाख जप भी किया था । पता : वैद्यराज अनुप्रसादभाई ७, महेशकुंज सोसायटी, जूना ढोरबजारके पास, बलीयाकाका रोड, शाह आलम येलनाका, मणिनगर (W), अहमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८००२८. २७ श्रावकों के सत्संगसे कबीरपंथी जुलाहा श्री बाबुलालभाई का जीवन परिवर्तन मध्यप्रदेश के कुक्षि गाँवमें रहते हुए बाबुलालभाई (उ. व. ७७) का जन्म जुलाहा (कपडे बुननेवाला) जातिमें हुआ है । कुल परंपरा से वे कबीरपंथी हैं । मगर पिछले १४ वर्षों से वे सुश्रावक श्री खेमचंदजी और उनके सुपुत्र मणिलालभाई और पौत्र मनोहरलालभाई वकील के निकट के परिचयमें आये हैं । यह पूरा परिवार जैन धर्म से अच्छी तरह रंगा हुआ है । परिणाम स्वरूप उनके सत्संग का बाबुलालभाई के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इसकी फलश्रुतिमें वे प्रतिदिन जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । शामको चौविहारका पच्चक्खाण करते हैं और नियमित रूपसे नवकार महामंत्रकी माला गिनते हैं । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ करीब १२ साल पहले प.पू.आ.भ. श्रीजयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. विहार करते हुए कुक्षी गाँवमें पधारे थे । तब बाबुलालभाई ने अंत:प्रेरणासे अनेक लोगोंकी उपस्थितिमें आचार्य भगवंत के पास जिंदगीमें कभी भी मद्यपान न करने की प्रतिज्ञा ले ली । उनके परिवारमें भी कोई मद्यपान नहीं करते हैं। गत वर्ष भी उपर्युक्त आचार्य भगवंत के चातुर्मासमें बाबुभाई ने ३ दिन नवकार मंत्रकी तपश्चर्या की थी। प्रातः भक्तामर पाठ भी करते थे। . पर्युषणपर्व आदिमें वे नियमित रूपसे व्याख्यान श्रवण करते हैं और यथाशक्ति व्रत-पच्चक्खाण करते हैं। . - शास्त्रोंमें चतुर्विध श्रीसंघको जंगम तीर्थ की उपमा दी गयी है। संसार सागरसे तारे उसे तीर्थ कहा जाता है । चतुर्विध श्रीसंघमें श्रावकश्राविकाओं का भी समावेश होता है । अर्थात् जो तत्त्वत्रयी (सुदेव-सुगुरुसुधर्म) की उपासना द्वारा स्वयं संसार सागरसे तैरें और अपने संपर्क में आनेवाले दूसरे जीवों को भी संसार सागर से तारने के निमित्त बनें ऐसे श्रावक-श्राविकाओंका समावेश चतुर्विध श्रीसंघमें होता है । प्रस्तुत दृष्टांतमें सुश्रावक श्रीखेमचंदजी और उनके पुत्र पौत्रादि के सत्संगसे एक झुलाहे के जीवनमें शुभ परिवर्तन आया, इसी तरह प्रत्येक श्रावक-श्राविकाओंको अपना जीवन ऐसा बनाना चाहिए ताकि वे स्वयं संसार सागरसे पार उतरें एवं दूसरों को भी पार उतारनेमें निमित्त बन सकें । कमसे कम अपने परिवार के सदस्यों को पार उतारनेमें तो अवश्य निमित्त बनें । इसके लिए स्वयंको सुदृढ रूपसे जिनाज्ञापालक बनाना चाहिए । खेमचंदभाई सपरिवारका दृष्टांत सभीके लिए प्रेरणादायक बने यही शुभेच्छा। __बाबुलालभाई शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें पधारे थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 15 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : बाबुलालभाई जवरचंदजी चौहान मुखर्जी मार्ग, वोर्ड नं. १२, रामदेव गली, मु. पो. कुक्षी, जि. धार (मध्यप्रदेश) पिन : ४५४३३१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ २८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ब्राह्मण प्रोफेसर पी. पी. राव की जैन धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा आंध्रराज्यमें ब्राह्मण कुलोत्पन्न, वैष्णव धर्मानुयायी प्रो. श्री पी. पी. राव (उ. व. ६९) पुराने जमानेमें सुंदर अभ्यास करके ग्रेज्युएट बने हैं । उनको बचपन से ही वांचन का बहुत ही शौक था । जिज्ञासु एवं संशोधनशील होने से उन्होंने अनेक धर्म और दर्शन शास्त्रों का बहुत अध्ययन किया था मगर उनसे उनको पूरा संतोष नहीं हुआ था । हरेक धर्मों में उन्हें कुछ न कुछ कमियाँ प्रतीत होती थीं । निवृत्त होने के बाद जैन श्रावककी पेढ़ीमें रहते हुए वे जैनों के आचार-विचारसे प्रभावित हुए । अत्यंत जिज्ञासापूर्वक जैन धर्मके प्रत्येक विधि - निषेध के विषयमें अनेक प्रश्न करके वे अपने मनका समाधान प्राप्त करने लगे । अंग्रेजी भाषामें प्रकाशित जैनधर्मकी किताबें जहाँसे भी मिलती वे उन्हें बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ने लगे । इसके परिणाम स्वरूप उनके हृदयमें अब दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है कि अन्य सभी धर्मों से, सर्वज्ञ और वीतराग परमात्मा द्वारा प्रकाशित जैन धर्म ही सवॉंग संपूर्ण है । वे यथाशक्ति जैन - आचारों का पालन करते हैं । प्रत्येक धर्मों के मुख्य-मुख्य ग्रन्थोंका अध्ययन करनेवाले इंग्लेन्ड के सुप्रसिद्ध फिलोसोफर और नाट्यकार बर्नार्ड शोने, महात्मा गांधीजी के सुपुत्र देवदास गांधीके पास, अगले जन्ममें जैन कुलमें जन्म पाने की भावना व्यक्त की थी । प्रायः सर्वधर्मों का सूक्ष्मतासे अध्ययन करने के बाद उनके हृदयमें भी जैन धर्म ही सर्व श्रेष्ठ होने की दृढ़ प्रतीति हुई थी । अन्य भी अनेक तटस्थ जैनेतर विद्वानोंने जैनधर्मके विषयमें बहुत ऊँचे अभिप्राय व्यक्त किये हैं । तब महान् पुण्योदयसे जैनकुलोत्पन्न प्रत्येक आत्माओंका कर्तव्य है कि अत्यंत जिज्ञासा और पुरुषार्थपूर्वक जैनशासन के सिद्धांतों का अभ्यास करके अचिंत्य चिंतामणि रत्नसे भी अधिक महिमाशाली ऐसे श्री जिनशासन के प्रति बोधयुक्त श्रद्धासंपन्न होकर उसकी उपासना द्वारा देवदुर्लभ मनुष्य जन्मको सफल बनायें । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ७३ प्रत्येक जैन माता-पिताओंको चाहिए कि वे अपने बच्चोंको महेसाणा, और नाकोड़ा जैसी जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठों में, जैन पाठशालाओंमें, धार्मिक ज्ञानसत्रों (शिबिरों) में और उपाश्रयोंमें साधु-साध्वीजी भगवंतोंके पास भेजकर, एवं घरमें धार्मिक अध्यापकोंको ट्युशन के लिए बुलाकर घरमें आकर्षक धार्मिक किताबोंका संग्रह करके और स्वयं भी यथाशक्ति हितशिक्षा देकर, जैन-धर्म के सर्वोत्तम, कल्याणकारी सिद्धांतोंके रहस्यों से बचपन से ही प्रभावित करें अन्यथा आधुनिक विलासी वायुमंडलमें उनके जीवन का सर्वनाश होने में देर नहीं लगेगी और अंतमें माता पिताओंको ही पछताने का अवसर आयेगा । सुज्ञेषु किं बहुना ? - २९ - - १ पता : प्रो. पी. पी. राव, २, जीवन अप्सरा, १४७ अ संतफान्सीस रोड़, विलेपार्ला (पश्चिम) ४०००५६, फोन : ६१५१३५७ मुंबई वर्धमान आयंबिल तपकी नींव डालनेवाले महाराष्ट्रीयन पेइन्टर बाबुभाई राठोड़ सं. २०४९ में हमारा चातुर्मास मणिनगर ( अहमदाबाद) में हुआ था। तब उपाश्रयमें दाताओं की नामावली लिखने के लिए आनेवाले महाराष्ट्रीयन पेइन्टर बाबुभाई राठोड (उ. व. ५७) प्रायः हररोज व्याख्यान में आते थे । 'उपमिति भव प्रपंचा महाकथा' ग्रंथरत्न के प्रवचनोंमें उनको अत्यंत रस आने लगा था । पर्युषणसे पहले संघ प्रमुख श्री लक्ष्मीचंदभाई छेड़ा आदि अनेक श्रावक-श्राविकाओंने वर्धमान आयंबिल तपकी नींव डाली तब पेइन्टर श्री बाबुभाई को प्रेरणा करने पर वे भी वर्धमान तप प्रारंभ करने के लिए सहर्ष तैयार हो गये । इससे पहले उन्होंने कभी एक भी आयंबिल या उपवास किया नहीं था फिर भी चढ़ते परिणामसे एक आयंबिल, एक उपवास २ आयंबिल एक उपवास ... इत्यादि क्रमसे पाँच आयंबिल एक Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ उपवास तक कुल २० दिनकी यह कठिन तपश्चर्या सानंद परिपूर्ण की । इतना ही नहीं, किन्तु इस तपके बादमें केवल तीन दिन पारणा करके पर्युषणमें ५ एकाशन और एक अठ्ठम द्वारा क्षीरसमुद्र तप भी कर लिया। पर्युषण के बाद संघके मंत्री श्री टोकरसीभाई मारु और एक सोलह वर्षीय किशोर आदि कुछ श्रावकोंको मस्तकके बालों का लुंचन करवाते हुए देखकर बाबुभाई को भी लोच करवाने की भावना हो गयी थी। वर्धमान तपके दौरान वे धोती और उत्तरासंग पहनकर जिनपूजा भी करते थे। इस चातुर्मास में रोहितभाई ठक्कर (उ. व. ४०) नाम के एक जैनेतर युवान भाई भी हररोज २ कि.मी. दूरसे पैदल चलकर ठीक समय पर ही व्याख्यान श्रवण के लिए आते थे । उन्होंने ४ महिने तक निरंतर मौन किया था और अधिकांश समय जपमें बिताते थे । सं. २०५१ में सा. श्री चारधर्माश्रीजी आदिका चातुर्मास मणिनगरमें था तब बाबुभाई ने पर्युषणमें अठाई तप भी किया था । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें बाबुभाई भी उपस्थित रहे थे । उनकी तस्वीर पेज नं. 15 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : बाबुभाई राठोड (पेइन्टर) C/ लक्ष्मीचंदभाई शामजी छेडा १५ स्वप्न लोक, लो गार्डन के पास, एलीसब्रीज, अहमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८०००६, फोन : ६५६५५२५ . पाँच तिथि कपड़े नहीं धोनेवाले धोबी रामजीभाई अहमदाबाद जिलेके कोंठ गाँवमें वि. सं. १९९३ में प. पू. आ. भ. श्री विजय मेरुप्रभसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास हुआ था तब वहाँ कपड़े धोनेका व्यवसाय करनेवाले एक धोबी भाई ने पूज्यश्री की प्रेरणासे प्रत्येक महिनेमें पाँच तिथि कपड़े नहीं धोनेका नियम ग्रहण किया था। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ __ आजीवन इस नियमका पालन करनेवाले उस धोबी भाईके सुपुत्र रामजीभाई और उनके भी पुत्र आज भी इस नियमका चुस्त स्पसे पालन कर रहे हैं। __(पर्युषण महापर्व के ८ दिनोंमें से एकाध दिन भी आरंभ - समारंभ युक्त व्यवसायको बंध नहीं रख सकनेवाले आत्माओं को इस धोबी परिवारसे खास प्रेरणा ग्रहण करने योग्य है) रामजीभाई घरमें आज भी कोई जमीकंद और अन्य बड़े अभक्ष्यों का भक्षण नहीं करते हैं। - जैन धर्म के प्रति उनके हृदयमें अत्यंत सद्भाव है । किसी भी जैन मुनिवरका व्याख्यान श्रवण का मौका मिलता है तब वे अचूक सुनते हैं। शंखेश्वरतीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उपस्थित रहने के लिए उनको जब निमंत्रण पत्रिका मिली तब वे अत्यंत गद्गदित हो गये थे । अनुमोदना समारोहमें अपने हृदयोद्गार भावविभोर शब्दों में अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने अपने वक्तव्यमें कहा था कि 'लोगोंके मैले कपड़े धोनेवाले हम जैसे मनुष्यों का बहुमान करवाने के लिए आपने ऐसे महान तीर्थकी यात्रा का हमें जो मौका दिया है उसके लिए कृतज्ञता भाव व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।' रामजीभाई की तस्वीर पेज नं. 16 के सामने प्रकाशित की गयी है। (इसी कोंठ गाँवमें खेंगारभाई दरबारने भी प.पू. आ. भ. श्री विजयमेरुप्रभसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणासे कई व्रत-नियमों का स्वीकार किया था । पता : धोबी श्री रामजीभाई मु.पो. कोंठ, ता. धोलका, जि. अहमदाबाद. (गुजरात) . जि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ : छरी पालक संघके संघपति बनते हुए लोहार कांतिलालभाई एन. पीठवा सुरेन्द्रनगरमें एटलास एन्जिनियरिंग कं. के मालिक कांतिलालभाई एन. पीठवाका जन्म पंचाल अर्थात् लोहार जातिमें हुआ है । किन्तु कुछ साल पहले अध्यात्ममूर्ति प.पू. आचार्य भगवंत श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे उनको जैनधर्मका रंग लगा । पूज्यश्रीने स्व हस्तसे उनको नवकार महामंत्र लिख दिया था । आज भी वे नियमित रूपसे नवकारवाली गिनते हैं । पर्व दिनोंमें जिनपूजा करते हैं । उनको जिनवाणी श्रवण करनेका बहुत रस है । हर साल धर्मकार्योंमें अच्छी रकमका सद्व्यय करते हैं । आजसे करीब १८ साल पहले प.पू. पं. श्री दानविजयजी गणिवर्य म.सा. की निश्रामें सुरेन्द्रनगरसे शंखेश्वरजी महातीर्थका छ'री पालक पदयात्रा संघ निकला था तब कांतिलालभाई ने उसमें संघपति बननेका लाभ लिया था । उन्होंने आज तक शेजय, गिरनार, शंखेश्वर, मेहसाणाकी पंचतीर्थ आदि अनेक जैन तीर्थों की भावपूर्वक यात्रा की है । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उन्होंने सुंदर योगदान दिया था । उनकी तस्वीर पेज नं. 20 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : कांतिलालभाई एन. पीठवा, एटलास एन्जिनियरिंग कं. सुरेन्द्रनगर (गुजरात), पिन : ३६३००१. साधु साध्वीजी की वैयावच्च करते हुए मूलजीभाई मास्टर गुजरातमें महेमदाबाद और नडियाद के बीचमें आये हुए देवकी वणसोल गाँवमें वर्तमानमें एक भी जैन घर नहीं है, लेकिन जैनेतर कुलोत्पन्न मूलजीभाई मास्टरके घरका वातावरण जैनकुल जैसा ही है । वे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ पानी भी बहरके अपने मकान हुए साधु-साध्वी बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ स्नातक (ग्रेज्युएट) हैं । विहारमें आते हुए साधु-साध्वीजी भगवंतोंको वे भावपूर्वक विज्ञप्ति करके अपने मकानमें ठहराते हैं और अत्यंत उल्लासपूर्वक गोचरी पानी भी बहोराते हैं । अनेक साधु साध्वीजी भगवंतोंकी वैयावच्चका उन्होंने लाभ लिया है। इसी तरह कई जैनेतर गाँवोंमें विविध जातिओं के सदगृहस्थ अत्यंत भावपूर्वक जैनसाधु साध्वीजी भगवंतोंकी वैयावच्च करते हैं । साक्षात् भगवान अपने घरमें पधारे हों ऐसे हर्षोल्लासपूर्वक सेवा और सत्संग करते हैं, जो अत्यंत अनुमोदनीय और अनुकरणीय है। दूसरी ओर 'घरकी मुर्गी दाल बरोबर' इस कहावतके अनुसार जैन कुलोत्पन्न भी कुछ लोग इस विषयमें अपना कर्तव्य चूक जाते हैं । ऐसे लोगोंको इस प्रकारके दृष्टांतोंमें से प्रेरणा पाकर अपने कर्तव्यमें जाग्रत होनेकी और सत्संगकी भूख जगानेकी खास जरूरत है ।। शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें मूलजीभाई भी उपस्थित हुए थे । अपने वक्तव्यमें उन्होंने देवकी वणसोल गाँवमें उपाश्रयकी जरूरत होने पर जोर दिया था । कुछ भावुक आत्माओंने इस दिशामें कदम उठाने की तैयारी भी दिखायी थी । आशा है मूलजीभाई की भावना शीघ्र साकार होगी। उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं 15 के सामने । पता : मूलजीभाई मास्टर, मु. पो. देवकी वणसोल, तह. नड़ियांद, जि. अहमदाबाद (गुजरात) साधु सेवाकारी शिवाभाई कोली भावनगरमें 'दादासाहब' के उपाश्रयमें ही दिन रात रहते हुए शिवाभाई कोली (उ. व. ६३) करीब ३५ वर्षोंसे प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद्विजयउदयसूरीश्वरजी म.सा. और प.पू. आ. भ. श्रीमद्विजय मेस्त्रभसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैनधर्मसे प्रभावित हुए है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ बिमार और वृद्ध साधु भगवंतों की हर तरह की वैयावच्च ऐसे सुंदर भावपूर्वक करते हैं कि इसके प्रभावसे उनकी सुवास चारों ओर फैली हुई है। वे ओसतन एकांतर आयंबिल करते हैं। हररोज जिनपूजा करते हैं । फुरसत के समयमें नवकार महामंत्रकी माला उनके हाथमें हमेशां फिरती रहती है । ७८ शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उपस्थित होनेकी उनकी भावना होते हुए भी बिमार साधु भगवंतकी वैयावच्चमें विक्षेप न हो इसलिए उन्होंने वहाँ आनेमें अपनी असमर्थता दिखलायी और समारोहकी अत्यंत सराहना की । उनकी बहुमान सामग्री भावनगर भिजवानेका प्रबंध आयोजकों द्वारा किया गया था । I शास्त्रोंमें वैयावच्चको अप्रतिपाती गुण कहा गया है । अर्थात् अन्य सद्गुणोंके संस्कार विपरीत निमित्तवशात् नामशेष भी हो जाते हैं मगर वैयावच्च का सद्गुण जीवको अचूक मोक्ष अवस्था तक पहुँचाता ही है । मोक्ष पर्यं प्रत्येक भवोंमें उसके संस्कार साथमें रहते हैं । पूर्वभवमें ५०० साधुओं की सेवा करनेवाले बाहु और सुबाहु मुनि भरत चक्रवर्ती और बाहुबलि बनकर मोक्षगामी बने । शिवाभाई भी अनुमोदनीय साधुसेवा द्वारा ऐसा विशिष्ट पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करके शीघ्र मोक्षगामी बनें यही शुभेच्छा । पता : शिवाभाई कोली, दादा साहब का जैन उपाश्रय, भावनगर (सौराष्ट्र) पिन : ३६४००१. ३४ वर्धमान आयंबिल तप करते हुए वयोवृद्ध ब्राह्मण पंडित श्री वैद्यनाथजी मिश्र सं. २०५० में हमारा चातुर्मास अहमदाबादमें नारणपुरा चार रस्ता पास अचलगच्छ जैनउपाश्रयमें हुआ था, तब मेरे शिष्य मुनिराज श्री धर्मरत्न सागरजीको संस्कृत काव्य, न्याय आदिका अध्ययन करवाने के लिए बिहारके पंडित श्री वैद्यनाथजी मिश्र (उ. व. ६६ ) भी हमारे पास रहे थे । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ७९ पर्युषण के बाद वर्धमान आयंबिल तपका प्रारंभ करने के लिए प्रेरणा दी गयी तब कई श्रावक श्राविकाओंने वर्धमान तपका प्रारंभ किया था । उस वक्त पंडितजी को भी सहज भावसे प्रेरणा करने पर उनके हृदयमें भी भावना जाग्रत हो गयी और जीवनमें एक भी आयंबिल या उपवास का अनुभव न होते हुए भी उन्होंने वर्धमान तपका प्रारंभ कर दिया । --- १ ३५ - १ आयंबिल १ उपवास, २ आयंबिल १ उपवास, इस तरह क्रमशः ५ आयंबिल १ उपवास द्वारा कुल २० दिनकी यह कठिन तपश्चर्या उन्होंने वर्धमान परिणामसे परिपूर्ण की । इस तपश्चर्या से उनको शारीरिक और मानसिक ऐसी स्फूर्ति और प्रसन्नता का अनुभव हुआ कि भविष्यमें आयंबिल की ओलियाँ और वर्षीतप करने के मनोरथ भी वे करने लगे । जैन धर्म के प्रति उनका सद्भाव बहुत बढ़ गया । श्री संघने उनका यथोचित बहुमान किया था । उन्होंने संस्कृत व्याकरण और न्यायके विषयमें 'आचार्य' की उपाधियाँ प्राप्त की हैं । संस्कृत महाविद्यालयोंमें प्राध्यापक के रूपमें भी कार्य किया है। पता : पंडित श्री वैद्यनाथजी मिश्र, मु. पो. तरौनी, वाया नेहरा, जि. दरभंगा (बिहार) पिन : ८४७२३३ जीवदया के खातिर कुल परंपरागत व्यवसायमें परिवर्तन करते हुए गणपतभाई पंचाल .वि. सं. २०३५ में वर्धमान तपोनिधि प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य प. पू. आ. भ. श्रीविजय जगच्चंद्रसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास उनकी जन्मभूमि करबटिया (जि. महेसाणा ) गाँवमें हुआ था । तब उस गाँवमें फ्लोर मील (अनाज पीसनेकी चक्की) और लोहारका व्यवसाय करनेवाले गणपतभाई पंचाल (उ. व. ५०) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ को उनके सत्संग रूपी पारसमणिका स्पर्श हुआ और जीवदयाकी दृष्टिसे दोनों व्यवसायोंको बंध करके दूध-दहीका व्यवसाय उन्होंने चालू कर दिया । ( जैन कुलमें जन्म पाकर भी हररोज असंख्य या अनंत स्थावर और त्रस जीवोंकी हिंसासे चलनेवाले १५ प्रकारके कर्मादानोंमें से किसी न किसी प्रकारका व्यवसाय करनेवाले श्रावक इस दृष्टांतमें से प्रेरणा लें तो कितना अच्छा होगा ! ) उत्तरोत्तर धर्मरुचि बढती गयी । आज वे प्रतिदिन जिनालय के गर्भगृहका शुद्धिकरण, प्रभुजीकी प्रक्षाल एवं स्व द्रव्यसे अष्टप्रकारी जिनपूजा करते हैं । 1 अक्सर आयंबिल, उपवास आदि तपश्चर्या करते हैं । उन्होंने अठ्ठाई और उपधान तप भी कर लिया है। केशलुंचन भी करवाते हैं । उनकी सुपुत्रीने पाँच प्रतिक्रमण कंठस्थ कर लिये हैं और दीक्षा नेकी भावना है । टी. वी. वीडियोके इस जमानेमें जैनकुलोत्पन्न बच्चोंको भी धार्मिक पाठशालामें भिजवाने में या प्रतिक्रमणादिका अभ्यास करवाने में माता पिताओं को अत्यंत कठिनाईका अनुभव होता है, तब लोहार जातिके गणपतभाई ने अपनी सुपुत्रीको पाँच प्रतिक्रमण तक धार्मिक अभ्यास करवाकर सचमुच अत्यंत अनुमोदनीय आदर्श खडा किया है । उनके परिवारमें निम्नोक्त सदस्योंने अठ्ठाई तप आदि आराधना की है। (१) चंचलबेन नारायणदास पंचाल (१६) उपवास, ६४ प्रहरी पौषध, बीसस्थानक तप, वर्धमान तप इत्यादि ।) (२) सरोजबेन नारायणदास पंचाल (३) गणपतभाई नारायणदास पंचाल (४) रमीलाबेन नारायणदास पंचाल (५) मनीषाबेन गणपतभाई पंचाल (६) कैलासबेन गणपतभाई पंचाल । पता : गणपतभाई नारायणदास पंचाल मु. पो. करबटिया, ता. खेरालु, जि. महेसाणा ( उत्तर गुजरात) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ मासक्षमण आदि करने वाले सुखाभाई पटल अहमदाबाद जिले के धोलेरा गाँव के जैन मंदिरमें आजसे ४४ साल पहले सहायक पूजारीके रूपमें कार्य करते हुए सुखाभाई पटेल (हाल उ. व. ७८) को साधु भगवंतों के सत्संगसे जैनधर्म के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। परिणाम स्वस्त्पमें उन्होंने एक मासक्षमण, १६ उपवास, और तीन बार अठाईकी तपश्चर्या की है । स्व. चतुरमुनि म.सा. के दीर्घ सानिध्यके परिणामसे उन्होंने संयमके पुनीत पथ पर प्रस्थान करनेकी संपूर्ण तैयारी कर ली थी, मगर किसी अंतराय कर्म के उदयसे उनकी भावना साकार न हो सकी । वर्तमानमें वे धोलेरा के जैन स्थानकमें सेवा प्रदान करते हुए धर्ममय जीवन व्यतीत कर रहे हैं । चारित्रके पथ पर प्रस्थान करने की उनकी भावना आगामी भवमें शीघ्र साकार हो यही शुभेच्छा सह शासनदेव से हार्दिक प्रार्थना । शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोहमें सुखाभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 16 के सामने । पता : सुखाभाई पटेल, जैन स्थानक, मु.पो. धोलेरा, ता. धंधुका, जि. अहमदाबाद. (गुजरात) ३७ साधुसेवा और सामायिक करते हुए _ विजयभाई दरबार खंभात से पालिताना के विहार मार्गमें आते हुए पीपली गांव के निवासी विजयभाई दरबार (राजपूत) (उ. व. ५८) विहारमें पीपली पधारते हुए जैन साधु-साध्वीजी भगवंतों की गोचरी पानी आदिकी व्यवस्था अत्यंत बहुरत्ना वसुंधरा - १-6 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ . बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ भावपूर्वक करते हैं । कई बार साधु भगवंतों के साथ पैदल चलकर वे आसपास के गाँव तक जाते हैं । सत्संग के परिणामसे उन्होंने सामायिक विधिके सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं और सामायिक लेकर धार्मिक अध्ययन करते हैं । चातुर्मास के दौरान अपने पूर्व परिचित मुनिराज जहाँ भी होते हैं वहाँ वंदन के लिए जाते हैं और उनकी निश्रामें कुछ दिन तक ठहरकर उपवास, आयंबिल आदि तपश्चर्या भी करते हैं । विजयभाई की साधुसेवा आदि आराधनाकी हार्दिक अनुमोदना । पता : विजयभोई दरबार, मु.पो. पीपली, ता. धंधुका, जि. अहमदाबाद (गुजरात) ३८ साधु सेवाकारी श्री घनश्यामसिंह डॉक्टर खंभात से पालितानाके विहार मार्गमें आते हुए हेबतपुर गाँवमें एक भी जैन घर न होते हुए भी वहाँ के निवासी घनश्यामसिंह डॉक्टर (उ. व. ५४) हरेक साधु-साध्वीजी भगवंतों की सुंदर सेवा करते हैं । इस रास्ते से गुजरनेवाले छरी पालक यात्रा संघ के लिए भी वे आगे पीछे के विश्राम स्थान की व्यवस्था करनेमें अत्यंत अनुमोदनीय सहयोग देते हैं। उनके ऐसे सद्कार्यों की हार्दिक अनुमोदना । पता : डॉक्टर श्री घनश्यामसिंह, मु.पो. हेबतपुर, ता. धंधुका, जि. अहमदाबाद (गुजरात) उपर्युक्त तीन दृष्टांतों के मुख्य पात्र (१) सुखाभाई पटेल (२) विजयभाई दरबार और (३) घनश्यामसिंह डॉक्टर का श्री धोलेरा श्वे. मू. पू. जैन संघने जाहिरमें बहुमान किया था, इसके लिए श्री धोलेरा संघको भी हार्दिक धन्यवाद । अन्य संघ भी इसमें से प्रेरणा लेंगे और ऐसे सत्कार्य करनेवाले Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ आत्माओंको प्रोत्साहित करेंगे तो उन-उन आराधकों के हृदयमें अधिकतर सत्कार्य करनेका भावोल्लास जाग्रत होगा और संघों को भी लाभ होगा। सुज्ञेषु किं बहुना ? नवकार महामंत्र के आराधक सरपंच बहादूरसिंहजी जाड़ेजा कच्छ-मांडवी तहसिलमें मोटा आसंबीआ गाँवके सरपंच बहादूरसिंहजी जाडेजा (उ. व. ५८) को अध्यात्मयोगी प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म. सा. के सत्संगसे जैन धर्म का रंग लगा है । नवकार महामंत्र के प्रति उनकी आस्था बेजोड़ है । चलते फिरते भी उनकी जिह्वा के ऊपर नवकार महामंत्रका रटण चालू ही रहता है। वे रोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । व्याख्यान-श्रवणका योग होता है तब वे अचूक लाभ लेते हैं । श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी और उनके शासन के प्रति उनके हृदयमें अत्यंत अनुमोदनीय आदर है । गाँवके सरपंच होते हुए भी वे स्वभावसे अत्यंत विनम्र, विनयी और शालीन हैं । अपने उपकारी गुरु भगवंतों को वंदन करने के लिए वे दूर सुदूर भी पहुँच जाते हैं । (अभी वे सरपंच पदसे निवृत्त हुए हैं) शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उन्होंने अत्यंत मननीय वक्तव्य दिया था । उनकी तस्वीर पेज नं. 15 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : बहादूर सिंहजी जाडेजा (भूतपूर्व सरपंच) मु.पो. मोटा आसंबीया, ता. मांडवी, कच्छ (गुजरात) पिन : ३७०४८५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ | ४० जैन धार्मिक पाठशाला के शिक्षक समक्ष लाधुसिंह सोलंकी ( राजपूत ) राजस्थानमें पिंडवाडा के पास जाडोली गाँवमें जैन धार्मिक पाठशालामें शिक्षक के रूपमें बच्चोंमें जैनधर्म के संस्कारों का सिंचन करते हुए श्री लाधुसिंह सोलंकी (उ. व. ३९) को मेवाड देशोद्धारक प.पू.आ.भ.श्रीविजयजितेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मका रंग लगा । उन्होंने चार कर्मग्रंथ तक अभ्यास किया है। आजसे ५ साल पहले उन्होंने वर्धमान तपकी १०० + २० ओली के आराधक प. पू. पंन्यास श्री कनकसुंदरविजयजी म.सा. की निश्रामें वर्धमान आयंबिल तपका प्रारंभ किया और आज तक करीब २० ओली पूर्ण कर चुके हैं । सं. २०५१ के चातुर्मासमें उन्होंने सिद्धि तप जैसा महान तप भी कर लिया। वे अक्सर केश लोच भी करवाते हैं और दीक्षा लेने की भावना रखते हैं । जैनेतर कुलमें जन्म पाकर भी चार कर्मग्रंथ तक अध्ययन करके धार्मिक पाठशालामें अध्यापकके रूपमें सेवा देनेवाले लाधुसिंहजी सोलंकी के दृष्टांतमेंसे प्रेरणा लेकर सभी भावुक आत्मा सम्यक्ज्ञानकी आराधना द्वारा अपनी आत्माको निकट मोक्षगामी बनायें - यही शुभ भावना । पता : लाधुसिंह सोलंकी, जैन पाठशाला, मु.पो. जाडोली, वाया. पिंडवाड़ा, जि. सिरोही (राजस्थान) ४१ ८ सालकी उम्रमें ८२ दिनका धर्मचक्रतप करनेवाला योगीन्द्रकुमार प्रवीणभाई राठौड़ ( राजपूत) गुजरातमें धंधुका के पास खरड़ गाँवमें रहते हुए सद्गृहस्थ श्री भीमजीभाई राठौड़ (राजपूत) को शासन सम्राट, प. पू. आ. भ. श्रीमद् Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ८५ विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मका ऐसा सुंदर रंग लगा कि उनके सुपुत्र प्रवीणभाई और पौत्र योगीन्द्रकुमार भी जैन धर्मका अच्छी तरहसे पालन करते हैं । वि. सं. २०८१ में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री ) का चातुर्मास धंधुकामें हुआ तब उनकी प्रेरणासे योगीन्द्रकुमारने केवल ८ सालकी बाल्य वयमें ८२ दिनका धर्मचक्र तप जैसा महान तप ( प्रारंभमें और अंतमें अठ्ठम तथा बीचमें एकांतरित ३७ उपवास और ३९ बियासना) किया इतना ही नहीं किन्तु चातुर्मास के बादमें धंधुका से शंखेश्वरजी का छौरी पालक संघ निकला उसमें भी यात्रिक के रूपमें शामिल होकर उसने हर्षोल्लास के साथ पदयात्रा की । तीन तीन पीढियोंसे जैनधर्म का अच्छी तरह से पालन करनेवाले राठौड़ परिवार को हार्दिक धन्यवाद सह अनुमोदना । ४२ पता : प्रवीणभाई भीमजीभाई राठौड़, मु. पो. खरड. ता. धंधुका, जि. अहमदाबाद (गुजरात) 'कम्मे शूरा सो धम्मे शूरा' यानि हठीजी दीवानजी ठाकोर अंग्रेजीमें कहावत है कि 'Every Saint has his past and every man has his future' (अर्थ : प्रायः प्रत्येक संतोंका भी पापोंसे दूषित भूतकाल होता है और प्रत्येक (पापी) मनुष्यका भी ( उज्ज्वल) भविष्यकाल हो सकता है) अर्थात् कोई जीव कितना भी पापी क्यों न हो, मगर वह हमेशा के लिए पापी नहीं रहेगा । शुभ निमित्त मिलने पर वह सज्जन या संत भी हो सकता है । इसलिए किसी भी पापी जी का कभी भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए किन्तु प्रेम और सहानुभूतिसे उसे पुण्यशाली बननेका मौका देना चाहिए । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ गुजरातमें बनासकांठा जिले के आंगणवाड़ा गाँवमें रहते हुए सद्गृहस्थ हठीजी दीवानजी ठाकोर (उ. व. ५०) का जीवन भी कुछ ऐसा ही संदेश हमें देता है । हठीजीको पूछने पर वे कहेंगे कि जेसल जाडेजा की तरह मैंने भी हर तरह के पाप किये हैं । आंगणवाड़ा और आसपास के गाँवोंमें हठीजीके नामसे सभी काँपते थे । पाँच सात लीटर शराबसे भरा हुआ केन वे एक साथ गटागट पी जाते थे और शराबका व्यापार भी करते थे । मगर किसी धन्य क्षणमें हठीजीके जीवनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन आया। . आज हठीजी आंगणवाड़ा गाँवमें प्रथम पंक्तिके सज्जन व्यक्तियोंमें गिने जाते हैं । जीवदया के वे श्रेष्ठ पालक हैं । उनके खेतमें खरगोश, मोर आदि कई पशु-पक्षी निर्भयतासे रहते हैं । हठीजी चींटी आदि छोटे से जीव जंतुओं की भी बहुत यतना करते हैं । जैन मंदिरमें वे सुबह शाम दो टाईम जाते हैं । प्रभुजीकी आरती बोलनेका और उतारने का उनको मानो व्यसन लग गया है । प्रभुपूजा किये बिना वे मुँहमें कुछ भी डालते नहीं हैं । अनुकंपा के रूपमें वे पक्षियोंको रोज दाना डालते हैं । पशुओंको पानी पिलानेके लिए उन्होंने खास प्याऊ बनाई है । बिजलीके चले जाने से कभी गाँवके लोगोंको पीने के पानी की तकलीफ पड़ती है तब हठीजी तेलसे चलनेवाला अपना मशीन चलाकर सारे गाँवके लोगोंको पानी की सुविधा कर देते हैं। . जिस हठीजीको पहले कोई एक किलो नमक देनेके लिए भी राजी नहीं होते थे उनको आज सवा लाख रुपये देनेवाले भी आसानीसे मिल जाते हैं । उनके घरका वातावरण बहुत सुंदर है । भगवान के प्रक्षालनके लिए उन्होंने खास गाय रखी है और गायका दूध जिनमंदिरमें निःशुल्क देते हैं। उनका जीवन नीतिमत्तासे व्याप्त है । वे पूर्ण शाकाहारी हैं । जो शाकाहारी नहीं होते हैं ऐसे अपने रिश्तेदारोंके घरका पानी भी वे पीते नहीं हैं । हठीजी पढे लिखे कम है फिर भी धार्मिक किताबें पढनेका उनको बड़ा शौक है । वे सभी व्यसनों से मुक्त हैं और लोगों को भी व्यसन छोड़नेके लिए समझाते हैं । ऐसी आत्माओंको यदि प्रोत्साहित किया जाय तो अपने जीवन द्वारा वे अनेकों के लिए हितकारक हो सकते हैं। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ८७ करीब ३ साल पूर्व हम आंगणवाड़ा गये थे तब हठीजी के जीवन को नजदीक से देखनेका मौका मिला था । आंगणवाड़ा के शिक्षक चंपकभाई एफ. वलाणीने हठीजी को प्रोत्साहित करने में अच्छी दिलचश्पी ली है, इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र हैं । पता : हठीजी दीवानजी ठाकोर, मु. आंगणवाडा, पो. जामपुर, ता. कांकरेज, जि. बनासकांठा (उ. गुजरात) ४३ तीन उपधान करते हुए धर्माजी गायकवाड़ ( मोची) कर्णाटक राज्यमें धारवाड़ जिले के लक्ष्मणपुर गाँवमें मोची कुलोत्पन्न धर्माजी गायकवाड़ (उ. व. ६८) को आजसे करीब १४ साल पहले प. पू. प्रवर्तक श्री धर्मगुप्तविजयजी म.सा. के सत्संगसे जैन धर्मका रंग लगा। वे हररोज जिनपूजा, नवकारसी चौविहार और नवकार महामंत्र का जप एवं भावसे सामायिक करते हैं । उन्होंने तीनों उपधान तपकी आराधना कर ली है । ६८ एकाशन पूर्वक नवकार महामंत्रकी साधना की है। श्रावकों को नवकार महामंत्र आदि धार्मिक सूत्रों के अध्ययन के लिए उपधान तप करने का शास्त्रीय विधान है । मगर जैनकुलोत्पन्न श्रावकोंमें भी तीनों उपधान करने वालोंकी संख्या मर्यादित ही है तब मोची कुलोत्पन्न धर्माजी गायकवाड़ की यह आराधना अत्यंत अनुमोदनीय है । धर्माजीने (१) पूनासे पालिताना (२) नीपाणीसे कुंभोजगिरि और (३) झूनरसे पाबल तीर्थ के छरी पालक यात्रा संघोंमें शामिल होकर तीर्थयात्राएँ भी भावपूर्वक की हैं । पता : धर्माजी गायकवाड़, मु.पो. लक्ष्मणपुर जि. धारवाड़ (कर्णाटक) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ४४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ब्राह्मण छोटालालभाई बने मुनिराज श्री कल्पध्वजविजयजी आजसे करीब ८-९ साल पूर्व साडियों की दुकान में नौकरी करते एवं मुंबई - गुलालवाडी में रहते हुए ( मूलतः आबुरोड ( राजस्थान) के निवासी) ब्राह्मण कुलोत्पन्न छोटालालभाई (उ. व. ५०) को जैन धर्मका परिचय नहीं था। वे अपनी कुल परंपरा के अनुसार शंकर, विष्णु, कृष्ण, हनुमान आदि को इष्टदेव मानकर हररोज उनके मंदिरों में जाते थे तब उनको स्वप्नमें भी कल्पना नहीं थी कि उनको जैन धर्म की प्राप्ति होगी । मूलतः थराद (गुजरात) के निवासी विजयकुमार मोदी नामका युवा सुश्रावक (उ. व. १८) जो उस वक्त ओपेरा हाउस की सुप्रसिद्ध पंचरत्न बिल्डिंग में हीरों का व्यवसाय करते थे, उनके परिचय में छोटाचाचा आये और उनकी प्रेरणा से उनको जैन धर्म का स्वरूप समझ में आया | सच्चे देव-गुरु-धर्मका स्वरूप जाना और विजयभाई के मार्गदर्शन के अनुसार देवाधिदेव श्री अरिहंत परमात्मा की पूजा करने लगे । जैन धार्मिक सूत्रों का अभ्यास किया । विजयकुमार की भावना संयमी मुनि बनने की थी । उनके साथ परिचय होने से छोटुंचाचा को भी संयम का रंग लग गया और एक दिन दोलतनगर - बोरीवली जैन संघमें उनकी दीक्षा अत्यंत उल्लासमय वातावरण में संपन्न हुई । वे मुनि श्री भुवनहर्षविजयजी के शिष्य मुनि कल्पध्वजविजयजी के रूपमें घोषित हुए । दीक्षा लेने के बाद कर्मक्षय के लिए चौविहार अठ्ठाई तप, मासक्षमण तप आदि अनेकविध दीर्घ तपश्चर्याएँ करते हुए वे अनुमोदनीय संयम का पालन कर रहे हैं । उनके बाद विजयभाई ने भी दीक्षा अंगीकार की और वे शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य मुनि प्रशान्तरत्नविजयजी (अपने भाई महाराज) के शिष्य मुनि दर्शनरत्नविजयजी बने । आजसे ८ साल पूर्व २० वर्ष की उम्र में सुरत Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ में उन्होंने दीक्षा ली तब उनके भाई भाभी नरेशभाई और चंदाबहनने भी ३० साल की भर युवावस्थामें विधिवत् आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। नरेशभाई कई वर्षों से नवसारी तपोवन में वर्धमान जैन ट्रस्ट के संचालक के रूप में सेवा कर रहे हैं । तपोवन के प्रेरक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा.ने हजारों श्रोताओं के समक्ष नरेशभाई और चंद्राबहन को कलियुग के मीनी विजय सेठ और विजया सेठानी के रूपमें घोषित किया था । चन्द्राबहन भी प्रतिदिन अष्टप्रकारी जिनपूजा, रात्रिभोजन त्याग, अचिन पानी पीना, अनेकविध तपश्चर्याएँ करना इत्यादि रूपसे धर्ममय जीवन जीती हैं। उनके दो सुपुत्र वृषभ और वीतराग (उम्र वर्ष ६ और ८) प्रतिदिन जिनपूजा, रात्रिभोजन त्याग इत्यादि नियमों का अच्छी तरह से पालन करते हैं । चैत्यवंदन, सामायिक, प्रतिक्रमण के धार्मिक सूत्र भी उन्होंने कंठस्थ कर लिए हैं। आजसे करीब ६ साल पूर्व चन्द्राबहन का स्वास्थ्य अत्यंत खराब हो गया था, शरीर में केवल ३० प्रतिशत खून बचा था, ऐसी स्थिति में चिकित्सकों के आग्रह के बावजूद भी उन्होंने रात को दवाई भी नहीं ली और न ही कच्चे पानी का सेवन किया । संसार में रहते हुए भी जलकमलवत् निर्लेप जीवन जीनेवाले नरेशभाई और चंद्राबहन की हार्दिक अनुमोदना । पता : नरेशभाई फोजालाल मोदी (थरादवाले) वर्धमान जैन ट्रस्ट तपोवन संस्कार धाम, धारागिरि कबिलपोर, नवसारी (गुजरात) पिन : ३९६४४५ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सत्संग के प्रभावसे मोची, मुनि बने प्रभुदासभाई सचमुच प्रभुके दास बने आजसे करीब १६ साल पूर्व शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्री भक्तिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के प. पू. आ. भ. श्री विजय विनयचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. आदिका चातुर्मास सौराष्ट्र के धांगध्रा शहरमें हुआ। जन्म से हलवद गाँव का निवासी लेकिन धांगध्रामें अपने ननिहालमें रहता हुआ प्रभुदास नामका २३ सालकी उम्रका मोचीकुलोत्पन्न एक युवक पूज्यश्री के परिचयमें आया । पूज्यश्री के वात्सल्य से भरपूर स्वभावने प्रभुदास पर मानो वशीकरण किया । वह प्रतिदिन जिनवाणी श्रवण के लिए आने लगा। फलतः उसे दयामय जैन धर्म के प्रति अत्यंत आकर्षण उत्पन्न हुआ। सत्संग प्रेमी प्रभुदास चातुर्मास के बाद जो भी साधु साध्वीजी भगवं वहाँ पधारते उनका सत्संग करने लगा । धीरे धीरे उसके हृदयमें संयमकी भावना अंकुरित होने लगी। माता पिताके पास उसने अपनी भावना अभिव्यक्त की । लेकिन मोची कुल के संस्कारों के कारण माता सविताबेन और पिता मगनलालभाई चावड़ा उसको दीक्षा की अनुमति देने के लिए जरा भी समत नहीं थे । आखिर में अंतिम उपाय के रूपमें उसने माता पिताकी अनुमति के बिना ही संयम स्वीकारने का आयोजन किया और वि. सं. २०५१में मृगशीर्ष शुक्ल दशमी के शुभ दिन, ३७ वर्षकी वयमें, लालबाग (मुंबई)में परम शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायमें सिद्धहस्तलेखक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा के शिष्य पू. मुनिराज श्री युगचन्द्रविजयजी म.सा. का शिष्यत्व स्वीकार करके संयम अंगीकार किया। मोची प्रभुदासभाई अब मुनि पद्मश्रमण विजयके नामसे सच्चे अर्थमें प्रभु आज्ञाके पालक प्रभुके दास बने । . आणंद शहर के पास विद्यानगरमें विवाहित उनकी बहन वसंतबाई को भाई प्रभुदास के प्रति विशेष प्रीति होने से दीक्षा प्रसंगकी उनको Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ९१ जानकारी दी गयी थी इसलिए वह दीक्षा प्रसंगमें अपने पति के साथ उपस्थित हुई थी । लेकिन उसके पति विनोदराय चौहाण अंतरसे खूब नाराज थे, अतः वे दीक्षा के पंडालमें थोडी देर तक उपस्थित रहकर बीचमें ही बाहर चले गये थे 1 - १ इस तरह माता-पिता और बहनोई दीक्षा के लिये अत्यंत नाराज थे, लेकिन बादमें मुनि पद्मश्रमण विजयजीका तपोमय और ज्ञानमय विशिष्ट संयमी जीवन देखकर उनका हृदय परिवर्तन और जीवन परिवर्तन हुआ था । फलत: इन तीनों आत्माओंने श्रावक के १२ व्रतों का स्वीकार कर लिया है, इतना ही नहीं माता - पिताने २ साल पूर्व प. पू. आ. भ. श्री विजय पूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें राधनपुरमें उपधान करके मोक्षमालाका परिधान भी कर लिया है । इसी तरह उनकी भानजी जागृतिने भी राधनपुरमें १८ दिनका उपधान कर लिया । प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. कहा करते थे कि ' एक व्यक्ति मुनि जीवनका स्वीकार करता है तब उसके निमित्तसे अन्य अनेक जीव सच्चे श्रावक बनने लगते हैं । उपरोक्त दृष्टांत में इस कथन की यथार्थता दृष्टिगोचर होती है । मुनिश्री पद्मश्रमण विजयजी का संसारी छोटाभाई हिंमतलाल आज भी हलवद की मोची बाजारमें मोची का व्यवसाय करता है । गृहस्थ जीवनमें एस. एस. सी. तक व्यावहारिक शिक्षामें उत्तीर्ण मुनि पद्मश्रमणविजयजी ने दीक्षा लेकर गुरु आदिकी वैयावच्च के साथ साथ संस्कृत अभ्यास का भी प्रारंभ किया । सं. २०५३ में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन शंखेश्वर तीर्थमें उनसे भेंट हुई थी तब संस्कृत द्वितीय किताब का अध्ययन चालु था । अल्प संयम पर्यायमें उन्होंने वर्षीतप बीश स्थानककी ५ ओलियाँ और वर्धमान तपकी ३९ ओलियाँ इत्यादि तपश्चर्या कर ली है । सचमुच सत्संग पारसमणि से भी अधिक महान है, जो सामान्य आत्मा को भी संत बना देता है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ एक ही प्रवचन से सचित्त पानीका त्याग करके आखिरमें संयमका स्वीकार करनेवाले सायवन्ना (मारुति) ४६ कई वर्षों तक लगातार व्याख्यान श्रवण करने के बाद भी कुछ 'व्याख्यान प्रूफ' श्रोताओं के स्वभावमें या आचरणमें विशेष कुछ सुधार नहीं पाया जाता है और लघुकर्मी सुपात्र श्रोता केवल एकाध बार प्रवचन सुनकर अपने जीवनमें कैसा आश्चर्यप्रद परिवर्तन ला सकते हैं यह निम्नोक्त दृष्टांतमें हम देखेंगे । आंध्रप्रदेश में रायचूरसे १८ मीलकी दूरी पर कूलची गाँवमें गंगेरु गोत्र के पिता हनमंतप्पा के कुलमें माता तिम्मव्वाकी कुक्षिसे एक बालकका जन्म हुआ । उसका नाम सायवन्ना (मारुति) रखा गया । शादीके बाद व्यवसाय के लिए सायवनाका विविध क्षेत्रोंमें परिभ्रमण होता था । एक बार आजसे २२ साल पूर्व आंध्रप्रदेश के कर्नुल गाँवमें उसने एक जैन मुनिका प्रवचन सुना । प्रवचनमें पानी की एक बुंदमें अप्काय के असंख्य जीवोंके अस्तित्वकी बात सुनकर सायवना चोंक उठा । उसने तत्क्षण सचित्त पानी के त्याग का नियम ले लिया । नित्य बियासन तपका प्रारंभ किया। बादमें धार्मिक अध्ययन के लिए बेंग्लोर जाकर अहोभावपूर्वक अध्ययन किया और सं. २०३२ में चतुर्विध श्री संघकी उपस्थितिमें गुंतूर नगरमें संयमका स्वीकार करके प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद विजय नीतिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदायमें पू. मुनिराज श्री कस्तूरविजयजी म.सा. के प्रशिष्य मुनि राजतिलक विजय बने । वर्तमानमें उनकी प्रेरणासे राजस्थानमें जालोरके पास गोविंदपुर तीर्थमें कीर्तिस्तंभका भव्य निर्माण कार्य चालु है । चलो, हम इस दृष्टांतमें से प्रेरणा लेकर, एक कानसे प्रवचन सुनकर दूसरे कानसे निकाल देनेवाले चालनी जैसे श्रोता न बनें, प्रवचनमें सुनी हुई बातें ध्वनिमुद्रक (टेप) की तरह केवल मुख द्वारा दूसरोंको सुनाकर संतोष माननेवाले श्रोता भी न बनें, किन्तु सुनी हुई बातोंको जीवनमें आत्मसात् करनेवाले सच्चे श्रोता बननेका दृढ संकल्प करें । सुनकर हुई बातें ध्वनि वाले प्रोता । श्रोता बननेका Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरला वसुंधर : भाग - १ ४७. जन पाध गावाजाको अपूर्व भक्ति करनवाल झमा गांवक, दरबार ( राजपूत ।। गुजरात में वढवाण से धांगध्रा के विहार मार्गमें झमरगाँव नामका छोट सा गाँव है । उस गाँवमें जिनमंदिर उपाश्रय और एक भी जैन घर नहीं है फिर भी उस गाँवमें पधारते हुए किसीभी जैन साधु साध्वीजीको जरा भी असुविधा नहीं होती है । क्योंकि गाँवमें रहते हुए एक दरबार (राजपूत) एक विशिष्ट श्रद्धालु श्रावककी तरह ही साधु साध्वीजी भगवंतोंकी अपूर्व भक्ति करते हैं। अपना एक मकान उन्होंने जैन साधु साध्वीजी भगवंतोंको ठहराने के लिए अलग ही रखा है। किसी भी समुदायके जैन साधु साध्वीजी वहाँ पधारते हैं तब मानों साक्षात् भगवान अपने घरके आंगनमें पधारे हों ऐसे अहोभावसे वे उनकी भक्ति करते हैं । ___ गोचरी - पानी, औषध आदि तो अहोभाव पूर्वक बहोराते हैं ही, लेकिन शीतऋतु में मेवा और उष्ण कालमें फल आदि द्वारा भी उल्लासपूर्वक भक्ति करते हैं । चाहे कितना भी बड़ा समुदाय आ जाय तो भी हर प्रकारकी वैयावच्च का लाभ वे सानंद लेते हैं। कुछ साल पूर्व उनको कुछ तकलीफ थी, जो किसी जैन मुनिवर के आशीर्वाद से दूर हो जाने से उनके अंत: करणमें जैन साधु साध्वीजी भगवंतों के प्रति श्रद्धा के बीजका वपन हो गया । बादमें जैन साधु साध्वीजी भगवंतोंका तप त्याग और सदाचारमय जीवन देखकर उत्तरोत्तर अहोभाव में अभिवृद्धि होती रही । आज वे व्यावहारिक दृष्टिसे साधन संपन्न हैं और पुण्योदयसे मिली हुई संपत्तिको इस तरह साधु साध्वीजी भगवंतोंकी विशिष्ट भक्ति द्वारा सफल बना रहे हैं । दरबार की सुपात्र भक्तिकी हार्दिक अनुमोदना सह धन्यवाद । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ४८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग प्रत्येक पणिमाकं दिन शंखेश्वर की यात्रा करते हुए कृष्ण मनस्वामी सेटीयार (मद ब्राह्मण) मूल मद्रासके निवासी, लेकिन कई वर्षोंसे मुंबई - मलाड़में रहते हुए कृष्ण मनुस्वामी सेटीयार (मद्रासी ब्राह्मण) (उ. व. ४६ ) को २४ सालकी उम्र से जैन युवक मित्रों की संगति के कारण जैनधर्म का रंग लगा । युवा प्रतिबोधक, प्रखर प्रवचनकार प. पू. पंन्यास प्रवर श्रीचन्द्रशेखरविजयजी म.सा., प. पू. आ. श्री रत्नसुंदरसूरिजी म.सा., प. पू. आ. श्री हेमरत्नसूरिजी म.सा. और प. पू. आ. श्री यशोवर्मसूरिजी म.सा. आदिके प्रवचन मित्रोंके साथ उन्होंने भी सुने और उत्तरोत्तर जैन धर्म के प्रति आकर्षण बढता गया । सत्संग के प्रभावसे वे कई वर्षोंसे निम्नोक्त प्रकारसे जैन धर्मकी नित्य और नैमित्तिक आराधनाएँ कर रहे हैं । (१) प्रतिदिन प्रातः कालमें ३ घंटे तक जिनालयमें प्रक्षाल, प्रभुपूजा और १०८ नवकारका जप करते हैं । (२) यावज्जीव के लिए जमींकंद का त्याग किया है । (३) अनुकूलता के मुताबिक रातको चौविहार या तिविहार करते हैं । (४) दिनमें ५ बारसे अधिक नहीं खानेका अभिग्रह लिया है (इसमें चाय भी पीएँ तो भी १ बार गिनते हैं ) । (५) पाँच बार अठ्ठाई तप किया है (६) पर्युषण के ८ दिन प्रतिक्रमण करते हैं । (८) १८ सालसे हर कार्तिक पूर्णिमा के दिन और ५ सालसे हर फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी के दिन सिद्धगिरिजी महातीर्थ की यात्रा अचूक करते है । (८) चार सालसे प्रति पूर्णिमा के दिन शंखेश्वरजीकी यात्रा करते हैं । उनके दोनों लघुबंधु राजुभाई और आनंदभाई भी हररोज जिनालय में जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । तीनों भाईओंकी धर्मपत्नियाँ और संतानें भी हररोज जिनपूजा करती । २ साल पूर्व शंखेश्वर महातीर्थमें पूर्णिमाकी यात्रा करने के लिए आये कृष्ण मनुस्वामी से भेंट हुई थी । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पता : कृष्ण मनुस्वामी सेटीयार अंकुर ओ ४०४/४०५ तुरल पाकाडी रोड, लीबर्टी गार्डन, हाउसींग सोसायटी के सामने, मलाड (पश्चिम) मुंबई - ४०००६४. फोन : ८८९८८४ (घर), ८८९८२६२ (ओफिस) वर्षीतप, सिद्धितप, सोलहभत्ता आदि तप करनेवाले साहेबसिंह लखुभा जाड़ेजा (क्षत्रिय) मूलतः सौराष्ट्र के ध्राफा गाँवके निवासी लेकिन वर्तमानमें धोराजी (सौराष्ट्र) में रहते हुए साहेबसिंह लखुभा जाडेजा (क्षत्रिय) को धोराजीमें चातुर्मास हेतु पधारते हुए लींबडी संप्रदाय के स्थानकवासी महासतियों के व्याख्यान श्रवणसे जैन धर्मका रंग लगा । सत्संगप्रेमी साहेबसिंहजी व्याख्यान श्रवणका मौका कभी चूकते नहीं है । सत्संग के परिणाम स्वरूप उन्होंने आज तक एकांतर उपवाससे वर्षीतप, आयंबिलसे वर्षीतप, सिद्धितप, अछाई तप इत्यादि अनेक तपश्चर्याएँ की हैं । ३ साल पूर्व बा. ब्र. राजेशमुनिजी की निश्रामें राजकोट भक्तिनगरमें रहकर १६ उपवास (सोलहभत्ता) करके अपनी आत्माको धन्य बनाया । पता : साहेब सिंहजी लखुभा जाड़ेजा, जैनस्थानक, - मु.पो. धोराजी, जि. राजकोट (सौराष्ट्र). १२ सालसे प्रत्येक पर्युषणमें अठ्ठाई तप करते हुए सुरेशभाई अंबालाल पारेख (नाई) - गुजरातमें पेटलाद तहसील के नार गाँवमें वि. सं. २०४२ में - यग्यदेशनादक्ष प. पू. आ. भ. श्री विजय हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य पू. मुनिराज श्री निपुणचन्द्रविजयजी म. सा. (हाल पंन्यास) का Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ चातुर्मास हुआ । पूज्यश्री की जन्मभूमि भी नार गाँव ही है । गाँवमें नाईका व्यवसाय करनेवाले अंबालालभाई पारेख मुनिश्री के परिचयमें आये । प्रायः प्रतिदिन प्रवचन श्रवण करते करते सत्संग का रंग बराबर लग गया । चातुर्मास के बाद म. सा. तो विहार कर गये मगर अंबालालभाई के मानसपट पर जैन धर्मके प्रति अहोभाव जाग्रत हो गया । उसके बाद कर्म संयोगसे अल्प समयमें अंबालालभाई का देहावसान हो गया । लेकिन अंत समयमें परिवार के किसी भी सदस्योंको याद न करते हुए, उपरोक्त पूज्य म. सा. का नाम ही उनके मनमें और मुखमें था । फलतः वे अंत समयमें भी अत्यंत स्वस्थ रह सके । इस प्रसंगसे उनके युवासुपुत्र सुरेशभाई (हाल उ. व. ४७ ) के अंतः करणमें जैन साधु भगवंत और जैन धर्मके प्रति विशिष्ट आकर्षण उत्पन्न हुआ। कुछ समय बाद उपरोक्त पू. मुनिराज श्री का नार गाँवमें पुनः पदार्पण हुआ तब सुरेशभाई भी उनके विशेष परिचयमें आये और पूज्यश्री की प्रेरणासे जैन धर्मकी आराधना करने लगे । सुरेशभाई ने अपने जीवनमें महाविगई त्याग, सप्त व्यसन त्याग, केरी त्याग, दिनमें केवल १ बार १ बाल्टी पानी से स्नान, सालमें ६ जोडी से अधिक वस्त्रों का त्याग, सालमें १ बार तीर्थयात्रा, बचत का ५ प्रतिशत राशि धर्म में वापरना इत्यादि ९ प्रतिज्ञाएँ ली हैं । I I I आज वे बस डेपोमें सरकारी नौकरी करते हैं फिर भी हररोज जिनपूजा अचूक करते हैं । पिछले १२ वर्षों से हर पर्युषणमें ८ उपवास करते हैं । उनकी धर्मपत्नी भी सुशील एवं धर्म संस्कार संपन्न है । उनके हृदय में भी जैन धर्म के प्रति बहुमान भाव है । उन्होंने वांकानेर एवं जूनागढ में उपधान तप की आराधना भी की है । अक्सर जैन साधु साध्वीजी भगवंतोंकी सुपात्र भक्ति का लाभ वे लेते रहते हैं । इस दंपतिने महिनेमें १५ दिन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा भी ली है । सुरेशभाई एवं उनकी धर्मपत्नी की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोहमें सुरेशभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 16 के सामने दी गई है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पता : सुरेशभाई अंबालाल पारेख, मु. पो. नार, ता. पेटलाद जि. खेडा (गुजरात), पिन : ३८८१५० दरजी पिता पुत्रीकी कठोर तपश्चर्या अहमदाबादमें केशवनगरमें रहते हुए दरजी भीखाभाई ने पिछले १८ वर्षों में पू. आ. भ. श्री विजय भुवनशेखर सूरीश्वरजी म.सा. आदि के सत्संगसे उनकी निश्रामें प्रत्येक पर्युषणमें निम्नोक्त प्रकारसे विशिष्ट तपश्चर्याएँ की हैं। वि. सं. २०३८ - ८ उपवास, सं. २०३९ - १६ उपवास, सं. २०४० - २१ उपवास, सं. २०४१ - ३१ उपवास, सं. २०४२ - ३६ उपवास, सं. २०४३ - ४५ उपवास, सं. २०४४ - ५१ उपवास, सं. २०४५ - ६८ उपवास, सं. २०४६ - ६८ उपवास, सं. २०४७ - १०८ उपवास, सं. २०४८ - ५१ उपवास, सं. २०४९ - ५१ उपवास, सं. २०५० - ५१ उपवास, सं. २०५१ - ५१ उपवास, सं. २०५२ - ५१ उपवास, सं. २०५३ - ५१ उपवास, सं. २०५४ - ५१ उपवास । भीखाभाई की सुपुत्री सोनलने वि. सं. २०४४ से सं. २०५१ तक अनुक्रमसे ८/१६/२१/३०/८/१६/२१/१५ उपवास की तपश्चर्या की है। जैनेतर कुल में जन्म पाकर भी इतनी उग्र तपश्चर्या करनेवाले ये विरल तपस्वी हैं । हार्दिक अनुमोदना । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें भीखाभाई पधारे थे । उनकी तस्वीर पेज नं. 16 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : भीखाभाई कचरादास, ५/११ तुलशीश्याम सोसायटी, भीमजीपुरा चार रस्ता, केशवनगर, अहमदाबाद - ३८००२३ बहुरत्ना वसुंधरा - १-7 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ५२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग मासक्षमण और सिद्धितप करनेवाले रमेशभाई बाढेर (मोची) १ वि. सं. २०४१में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जगवल्लभविजयजी गणिवर्य म.सा. (हाल आचार्यश्री) का चातुर्मास धंधुका नगरमें हुआ था । तब उपाश्रयकी खिड़कीमें से आते हुए बरसात के पानी को रोकने के लिए अग्रणी श्रावक की सूचनासे रमेशभाई मोची प्लास्टीक बाँध रहे थे । उसी समय म. सा. एक जैन युवक को धर्मचक्र तप करने के लिए प्रेरणा दे रहे थे । उस युवकने तो इस प्रेरणा का अस्वीकार किया मगर मोची युवकने यह सुनकर स्वयं कहा कि 'महाराज साहब । मैं तैयार हूँ इस तपको करने के लिए । 1 म.सा. ने कहा कि 'हररोज उपाश्रयमें रहकर यह तप और इसकी आराधना करनी होगी । रमेशभाई ने स्वीकार किया । धर्मचक्र तपकी भावनासे प्रथम अठ्ठम तपका पच्चक्खाण लिया । अठ्ठम तप एकदम आसानी से हो जाने से उनके हृदयमें मासक्षमण करने के भाव जाग्रत हुए । म.सा. ने उनकी भावनाको प्रोत्साहन दिया और तीन तीन उपवासके पच्चक्खाण लेते हुए निर्विघ्नतासे मासक्षमण तप उपाश्रयमें रहकर ही परिपूर्ण किया । दूसरे चातुर्मासमें उन्होंने ४२ दिनका सिद्धितप भी कर लिया । अब वे प्रतिदिन नवकारसी - चौविहार और जिनपूजा भी करते हैं । सुपात्रदान का लाभ लेते हैं । कुल परंपरागत मोचीका व्यवसाय करते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं । रमेशभाई की आराधना और उनको आराधनामें जोड़नेवाले पूज्यश्री की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पता : रमेशभाई गोविंदभाई बाढेर ( रवि फूट वेर), मु.पो. धंधुका, जि. अहमदाबाद (गुजरात). Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकारते हुए दो मासक्षमण और २० अढ़ाई के तपस्वी श्री मोहनभाई मोची गुजरातमें भावनगर जिले के गढड़ा (स्वामी नारायण) गाँवमें रहते हुए श्री मोहनभाई जन्मसे मोची और धर्मसे चुस्त स्वामी नारायणी होते हुए भी वि. सं २०३१ में अमी गुरुके चातुर्मासमें जैन मित्रोंके साथ उपाश्रयमें आने लगे। व्याख्यान श्रवणमें रसके साथ उनकी श्रद्धा भी बढती गयी और उन्होंने आयंबिल, उपवास, आदि तपश्चर्या का प्रारंभ कर दिया । मासधर के दिनसे लेकर संवत्सरी तक मासक्षमण की महान तपश्चर्या भी चढते परिणामसे परिपूर्ण की । ऐसी विशिष्ट तपश्चर्यामें भी वे व्याख्यान श्रवणके लिए प्रतिदिन उपाश्रयमें आते थे । श्री गढड़ा स्थानकवासी जैन संघने स्वतंत्र रूपसे मोहनभाई का बहुमान करने के लिए शोभायात्रा निकाली और सार्वजनिक धर्मसभामें उनका बहुमान किया । मोहनभाई की धर्मपत्नी कान्ताबहनने भी अपने पति के साथ १६ उपवास किये। मासक्षमण के पारणे के बाद मोहनभाई ने १ वर्षमें १०१ आयंबिलकी तपश्चर्या की । वि. सं. २०३१ से २०५२ तक लगातार २२ वर्ष प्रत्येक पर्युषणमें उन्होंने अाई से ३१ उपवास तक की तपश्चर्या की है। कुल मिलाकर १२ अठाई, ५ नवाई, १ बार १० उपवास, २ बार १५ उपवास १ बार ३० उपवास और १ बार ३१ उपवास किये हैं। सं. २०५३ में ८ दिन तक समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा भी की है। इस तरह वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित धर्मको संप्राप्त मोहनभाई अत्यंत एकाग्रता पूर्वक सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्माराधना करते हैं । चातुर्मासमें और शेषकालमें यथासंभव बड़ी तपश्चर्याएँ करते रहते हैं । आयंबिल की ओलियाँ करते हैं । जैन साधु साध्वीजी भगवंतों के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति रखते हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ऐसा लोकोत्तर जैन धर्म पाकर अब पुदगल में स्मणता नहीं करनी है ऐसी भावना से भावित मोहनभाई सजोड़े ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करके मोचीका धंधा छोड़कर 'कोहीनूर किराणा स्टोर्स' नामकी किराणे की दुकान चलाते हैं और अत्यंत अनुमोदनीय रूपसे जैन धर्म का पालन करते हैं। यह है जैन शासन का और सत्संग का प्रभाव । शंखेश्वरमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें मोहनभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर पेज नं. 16 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : मोहनभाई लक्ष्मणभाई वाळा, कोहीनूर किराणा स्टर्स, नगरपालिका कचहरीके सामने, मु.पो. गढड़ा (स्वामी नारायण), जि. भावनगर (सौराष्ट्र), पिन : ३६४७५०. ५४ जिनबिम्ब भरानेवाले प्रजापति भाणजीभाई थानगढमें रहते हुए प्रजापति भाणजीभाई (उ. व. ७२) को सं. २०३४में प. पू. पं. श्री भद्रशीलविजयजी म.सा. के चातुर्मासमें धर्मका रंग लगा और दिन-प्रतिदिन वह रंग बढता चला । फलतः वे हररोज जिनपूजा करते हैं। समेतशिखरजी, शत्रुजय आदि अनेक तीर्थोंकी यात्रा उन्होंने की है। बोरीवलीमें चंदावरकर लेनमें आये हुए जिनमंदिरमें उन्होंने प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें पंच धातुका जिनबिंब भराया है। ___ साधु साध्वीजी भगवंतोंकी सुंदर वैयावच्च करते हैं । प्रतिवर्ष चैत्र एवं आसोज महिनेमें नवपदजी की ओलीकी आराधना करते हैं । अपनी अंतिम जिंदगी पालीताना में आदिनाथ भगवंत की भक्ति और साधु साध्वीजी भगवंतों की वैयावच्च करते हुए बीताने की वे भावना रखते हैं। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १०१ उनके स्वर्गस्थ भाई ने अपंग होते हुए भी मासक्षमण किया था । उनकी भी जैन धर्मके प्रति अनुमोदनीय श्रद्धा थी । श्रावकों के लिये आजीवन कर्तव्यों में जिनबिम्ब भरानेका भी शास्त्रीय विधान है । प्रजापति कुलमें जन्मे हुए भाणजीभाई के दृष्टांतमें से प्रेरणा पाकर सभी श्रावक श्राविका अपने इस कर्तव्य के प्रति तत्पर बनें यही शुभ भावना । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें उपस्थित होनेका सौभाग्य पाकर भाणजीभाई अत्यंत भावविभोर हो गये थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 16 के सामने । पता : भाणजीभाई (प्रजापति), वासुकी प्लोट, मु.पो. थानगढ, जि. सुरेन्द्रनगर (सौराष्ट्र) ५५ प्रभुदर्शन के बिना पानीकी बुंद भी नहीं पीनेवाले बिपीनभाई भूलाभाई पटेल शासन प्रभावक युवा प्रतिबोधक, प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चंद्रशेखरविजयजी म.सा. का चातुर्मास सुरत जिले के बारडोली गाँवमें हुआ था तब पूज्य श्री के प्रेरक प्रवचनोंसे Turning point of the life' जीवन परिवर्तन के मोड़ को संप्राप्त हुए बिपीनभाई पटेल ( उ व. ४०) जन्मसे जैनेतर होते हुए भी पिछले १४ साल से चातुर्मास के ४ महिने लगातार एकाशन का पच्चक्खाण करते हैं। शेषकालमें भी हररोज नवकारसी और चौविहार करते हैं। उन्होंने जमींकंद का आजीवन त्याग किया है । वर्धमान आयंबिल तपकी १५ ओलियाँ की हैं। प्रतिवर्ष नवपदजी की दोनों ओलियाँ एक धान्य और एक ही द्रव्यसे करते हैं । प्रतिदिन श्री जिनेश्वर भगवंत के दर्शन किये बिना मुँहमें अन्नका दाना या पानी की बुँद भी नहीं डालने का उनका नियम है । अपने घरके पासमें ही जिनमंदिर होते हुए भी नियमित प्रभुदर्शन करने के लिए आलस्य करनेवाले श्रावक - भाविकाओं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ के लिए यह दृष्टांत खास प्रेरक है। सं. २०४९ में प्रखर प्रवचनकार प. पू. पंन्यास प्रवर श्री रत्नसुंदर विजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) का चातुर्मास बारडोली में हुआ था तब बिपीनभाई ने चातुर्मास एकाशन तप करते हुए पर्युषणमें अठाई की एवं पारणे में भी एकाशन ही किया था । नवकार और गुरुवंदन आदि के सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं । वे प्रतिदिन नवकार महामंत्र की दो पक्की माला का जप करते हैं । जीवनमें धर्म मार्ग में बहुत आगे बढ़ने की उनकी प्रबल भावना है, इसलिए बारडोली में चातुर्मास करने के लिए पधारते हुए किसी मुनिवरके श्रीमुखसे जिनवाणी श्रवण करने का मौका वे चूकते नहीं हैं। बिपीनभाई की आराधना और भावना की हार्दिक अनुमोदना ।। बारडोलीमें एक अन्य जैनेतर कुलोत्पन्न भाई जगदीशभाई दुर्लभभाई मैसुरीआ भी जैन धर्म का पालन करते हैं । उन्होंने धर्मचक्र तप, उपधान तप, आयंबिल ओली इत्यादि तपश्चर्याएँ भी की हैं । __ शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें बिपीनभाई पधारे थे। पता : बिपीनभाई भूलाभाई पटेल मु. पो. बारडोली, जि. सुरत (गुजरात) पिन : ३९४६०१ नवपदजी की ओली और उपधान की आराधना करता हुआ कसाई युवक नबी शासन प्रभावक प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी म. सा. मद्रास (चेनई) में पधारे । तब मूलमें राजस्थान का निवासी किन्तु मद्रासमें रहता हुआ एक खाटकी युवक नबी पूज्यश्री के परिचयमें आया । सत्संग के प्रभावसे पूर्वजन्म के सुसुप्त संस्कार जाग्रत हुए । जैन धर्म के प्रति उसके हृदयमें अत्यंत आकर्षण उत्पन्न हुआ । उसने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १०३ आचार्य भगवंत की पुनीत निश्रामें ९ दिन आयंबिल पूर्वक नवपदजी की. ओली की सुंदर आराधना की। उसके बाद उसने उपधान तप की आराधना भी चढते परिणाम से की । मद्रास जैन संघने उसका अच्छी तरह से बहुमान किया । आज जैनकुलोत्पन्न भी कई ऐसे श्रावक - श्राविकाएँ होंगे जिन्होंने ४०-५० साल की उम्रमें भी शायद एक भी आयंबिल नहीं किया होगा अथवा एक बार भी नवपदजी की ओली नहीं की होगी । ऐसी आत्माओंको, इस खाटकी युवक नबी के दृष्टांतमें से खास प्रेरणा ग्रहण करके, आयंबिल आदि तपश्चर्या के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । सचित्त पानी भी नहीं पीता रामकुमार कैवट (खलासी) - बिहार के मधुबनी गाँवमें रहता हुआ रामकुमार, कैवट जातिमें उत्पन्न हुआ है । जाति के संस्कार के अनुसार इन के परिवार में मांसाहार स्वाभाविक रूपसे होता था । मगर उनके पडोशी गाँव फारसीगंजमें चातुर्मास विराजमान सुमेरमुनिजी और विनोदमुनिजी के सत्संगसे उसने मांस मदिरा आदि सात महाव्यसनों के त्यागकी प्रतिज्ञा ली। इतना ही नहीं मगर अपने परिवारमें भी मांसाहार सर्वथा बंद करा दिया । उसके बाद करीब १२ साल बिहार, बंगाल, आसाम, ओरिस्सा, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्रमें उपरोक्त मुनिवर और उनके गुरु बंधुओं के साथ रहकर वैयावच्च का लाभ लेता है । फलतः वह सचित्त पानी भी नहीं पीता है । रात्रिभोजन नहीं करता है और प्रतिदिन सामायिक करता है। नवकार महामंत्रकी माला फेरता है । मुनिवरोंकी सेवा करते हुए उसने सुंदर धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया है । उपवास, अठ्ठम और अछाई तक तपश्चर्या कर ली है । साधु संतोंकी सेवा अत्यंत भावपूर्वक करता है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ सचमुच, सत्संग रूपी पारसमणि लोहे को भी सोना बना देता है। ऐसे दृष्टांतोंमें से प्रेरणा पाकर सभी जीव सत्संग प्रेमी बनें यही शुभ भावना। पता : रामकुमार कैवट मु. मधुबनी, पो. अम्हारा, वाया फारसीगंज, जि. अरटिया (बिहार) ५८ दामाद को भी रात्रिभोजन नहीं करानेवाले मोतिलालजी गणपतजी पाटीदार मध्यप्रदेश के बड़वाह गांवमें रहते हुए मोतीलालजी (उ. व. ७१) पाटीदार जातिमें उत्पन्न हुए हैं और कपास के व्यापारी हैं लेकिन जैन मुनिवरों के सत्संग से कई वर्षों से उनका संपूर्ण परिवार चुस्त रूपसे जैन धर्मका पालन करता है। मोतीलालभाई के संपूर्ण परिवारमें कोई भी रात्रिभोजन करते नहीं हैं, इतना ही नहीं किन्तु उनका कोई भी रिश्तेदार (फिर चाहे वह दामाद भी क्यों न हों !) मगर शामको सूर्यास्त के बाद उनके घर आता है तो वे उनको भी रात्रिभोजन नहीं कराते हैं। आजकल बड़े बड़े शहरोंमें रहते हुए कई जैन श्रावक भी रात्रिभोजन का त्याग नहीं कर सकते हैं । संपूर्ण परिवार रात्रिभोजन त्यागी हो ऐसे अल्प जैन परिवार पाये जाते हैं तब एक जैनेतर परिवार के सभी सदस्य रात्रिभोजन करते न हों और करवाते भी न हों ऐसा यह दृष्टांत अत्यंत अनुमोदनीय और अनुकरणीय है। .. .. यह परिवार छना हुआ पानी ही पीता है । अन्य खाद्य सामग्री का भी जीवोत्पत्ति न हो इस प्रकारसे तना पूर्वक उपयोग करता है । साधुसाध्वीजी भगवंतोंको भी भावसे बहोराकर सुपात्र दानका लाभ लेता है । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १०५ हालमें मोतीलालजी को कर्म संयोग से पक्षाघातका हमला हुआ है फिर भी वे प्रतिदिन पैदल चलकर व्याख्यान श्रवणके लिए अचूक जाते हैं । जिनवाणी श्रवण का कैसा अनुमोदनीय रस है ! संपूर्ण परिवार को हार्दिक धन्यवाद । पता : मोतीलालजी गणपतजी पाटीदार, मु. पो. बड़वाह, जि. खरगोन (मध्यप्रदेश) अनानुपूर्वी से प्रतिदिन नवकार जप करते हुए जाड़ेजा करसनजी हाजाजी कच्छ-मांडवी तालुका के डुमरा गाँवमें वि. सं. २०४७ में अचलगच्छीय सा. श्री सुरेन्द्र श्रीजी आदिका चातुर्मास हुआ था । तब उनके सत्संगसे करसनजी जाडेजा (उ. व. ६५) को जैन धर्म का रंग लगा । इस चातुर्मास में उन्होंने अठ्ठाई की और जिनपूजा, चौविहार इत्यादि का प्रारंभ किया। तबसे लेकर प्रत्येक चातुर्मासमें छोटी बड़ी सामूहिक तपश्चर्या एवं आराधनाओंमें वे अचूक शामिल होते हैं । सं. २०४९ के चातुर्मास में उन्होंने समवरण तप भी किया था । नवपदजी और वर्धमान आयंबिल तपकी ओलीयाँ भी वे करते हैं। भूजसे शंखेश्वरजी और शंखेश्वरजी से कच्छ ७२ जिनालय तीर्थ के छ'री पालक संघोंमें शामिल होकर उन्होंने पैदल तीर्थयात्राएं की हैं । इसके अलावा समेतशिखरजी, शत्रुजय आदि अनेक जैन तीर्थों की यात्राएँ भी उन्होंने की हैं। वे हररोज अनानुपूर्वीसे नवकार महामंत्रका जप करते हैं । अनानुपूर्वीकी किताबमें १ से ९ तकके अंक बिना क्रमसे लिखे हुए होते हैं । उसमें एक के बाद एक जो अंक लिखा हुआ होता है उसके अनुसार नवकार महामंत्रका पद मनमें बोलने का होता है । जैसे कि ३ लिखा हो तो नवकार महामंत्रका तीसरा पद 'नमो आयरियाणं' बोलना चाहिए और Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ७ लिखा हो तो नवकारका सातवाँ पद 'सव्व-पावप्पणासणो' बोलना चाहिए। इस तरह से अनानुपूर्वी द्वारा नवकार महामंत्रका स्मरण करने से चित्त की चंचलता कम होती है । चंचल मन पर काबू पाने के इच्छुक आत्माओं को यह प्रयोग खास करने योग्य है । करसनजी जाड़ेजा की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : करसनजी हाजाजी जाडेजा मु. पो. डुमरा, ता. मांडवी, कच्छ (गुजरात), पिन : ३७०४९० ६० धर्मरंग से रंगा हुआ पेइन्टर जोषी परिवार वि. सं. २०३० में प. पू. पंन्यास प्रवर श्री अशोक सागरजी म.सा. (वर्तमानमें आचार्यश्री) का चातुर्मास रतलाम हातोद (जिला इंदोर) में हुआ था, तब चित्रकार जोषी (हाल उम्र वर्ष ५५ लगभग) पूज्यश्री के परिचयमें आये और सत्संग द्वारा उनको जैन धर्म का रंग लगा । फिर तो धीरे धीरे उनके सारे परिवारको यह रंग लग गया । उनके परिवार के सभी सदस्य हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । नवकार महामंत्र की माला गिनते हैं और जमीकंद का त्याग करते हैं । उनके छोटेभाई श्यामलभाई (उ. व. २८) ने पंच प्रतिक्रमणके सूत्र कंठस्थ किये थे । वे पर्युषणमें ६४ प्रहरी पौषध करते थे और दीक्षा लेनेकी भावना रखते थे । शास्त्रमें कहा है कि - 'साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थं फलति कालेन, सद्यः साधु समागमः ॥ (अर्थ : साधु भगवंतों का दर्शन भी जीवको पवित्र बनाता है । सचमुच, साधु भगवंत संसार तारक जंगम तीर्थ स्वरूप है । फिर भी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १०७ स्थावर और जंगम तीर्थमें फर्क इतना है कि स्थावर तीर्थ की उपासना का फल कालांतरसे मिलता है, जब कि जंगम (चलते फिरते) तीर्थ स्वरूप साधु भगवंतों का सत्संग तात्कालिक फलप्रद होता है ।) इस शास्त्र वचनों का हार्द ऐसे दृष्टांतों से समझमें आ सकता है। सभी जीव सत्संग द्वारा अपने मानव भवको सफल बनायें यही शुभेच्छा । जोषी परिवारकी आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : पेइन्टर जोषी, मु. पो. जि. रतलाम, हातोद, जि. इंदोर (म.प्र.) प्रतिदिन सुबह-शाम २-२ घंटे खड़े खड़े जिनभक्ति ५१ एवं नवकार जप करते हुए जसभाई मंगलभाई पटेल नडीआद में रहते हुए जसभाई पटेल (उ. व. ७३) को सत्संग से जैन धर्म का रंग लगा है । कई वर्षों से वे प्रतिदिन सुबह-शाम करीब २-२ घंटे तक परमात्मा के समक्ष खड़े खड़े अत्यंत एकाग्रता से नवकार महामंत्र का जप एवं जिनभक्ति करते हैं । जप और प्रभुभक्ति के समय में आँख और मन परमात्मा के सिवाय कहीं भी जाएँ नहीं इसके लिए वे अत्यंत सावधानी रखते हैं । उनकी आराधनामय दिनचर्या निम्नोक्त प्रकार से है ।। प्रात : ५.३० से ८.१५ तक अपने घरमें प्रभुजी की प्रतिकृति के समक्ष जिनभक्ति, ८.३० से १०.१५ तक जिनालय में जाकर खड़े खड़े जिनभक्ति, १२.०० से १४.०० अपने घरमें प्रभुजी के समक्ष जप, १४.३० से १७.०० आध्यात्मिक सदवांचन, १८.०० से १९.४० जिनभक्ति, १९.४५ से २२.१५ जिनभक्ति एवं जप खड़े खड़े । ४० सालकी उम्र में दि. १-६-६५ के दिन उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा ली है । हमेशां नवकारसी एवं चौविहार का पालन करते हैं। रात्रिभोजन का त्याग किया है । सप्त महाव्यन एवं अभक्ष्य भक्षण का भी त्याग है । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ उपरोक्त प्रकार से जिनभक्ति करने से उनको अपूर्व शांति और आनंदका अनुभव होता है । एक भी बार जिनभक्ति का खंडन नहीं हुआ है। कई बार स्वप्नमें श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के दर्शन भी होते हैं । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में संयोगवशात् वे उपस्थित नहीं रह सके थे मगर उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए अत्यंत अहोभाव व्यक्त किया था और उसी चातुर्मास में वे दर्शनार्थ शंखेश्वरमें आये थे । उनकी तस्वीर पेज नं. 20 के सामने प्रकाशित की गयी है । जसभाई की एकाग्रता और अप्रमत्तता पूर्वक जिनभक्ति की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । १०८ ६२ पता : जसभाई मंगलभाई पटेल, १२ बी साधना सोसायटी, सिविल होस्पीटल रोड, मु. पो. ता. नडियाद, जि. खेडा (गुजरात), पिन : ३८७००१. फोन : ६०१०७. त्रिकाल जिनेश्वर भगवंत के दर्शन, पूजा एवं उपधान आदि अदभुत आराधना करते हुए राजपूत श्री लालसिंहजी सवाईसिंहजी राठोड । राजस्थान में पाली जिले के कोट गाँव में लालसिंहजी सवाई सिंहजी राठोड नामके राजपूत रहते हैं आजसे करीब ५ साल पूर्व में उनको एक जैन साध्वीजी भगवंत के सदुपदेशसे जैन धर्म का परिचय हुआ । साध्वीजी की प्रेरणा से एवं बादमें अनेक सद्गुरुओं के सत्संग एवं सदुपदेश से वे निम्नोक्त प्रकार से जैन धर्म की सुंदर आराधना करते हैं 1 (१) प्रतिदिन त्रिकाल जिनदर्शन (२) नित्य जिनपूजा (३) प्रतिदिन प्रतिक्रमण, (४) हररोज २ - ३ सामायिक (५) हररोज ४ पंक्की नवकारवाली का जप (६) प्रतिदिन श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान आदि की अलग अलग २० माला का जप (७) प्रत्येक चतुदर्शी के दिन आयंबिल तप (८) नित्य नवकारसी एवं तिविहार का पच्चक्खाण ( ९ ) प्रतिमाह पाँच तिथि हरी वनस्पति का त्याग (१) ४७ दिनके उपधान तप की सुंदर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ आराधना (११) पालिताना में चातुर्मासिक आराधना (१२) अठुम, अट्ठाई एवं सिद्धि तप की तपश्चर्या (१३) नवपदजी की दो बार ९ ओली की तपश्चर्या (१४) आचार्य भगवंत सहित चतुर्विध श्री संघको दो बार अपने घरमें पगलिया करवा कर उचित भक्ति की। उनकी धर्मपत्नी दरियावकुंवरबहन भी पति के मार्ग का अनुसरण करती हुई जैन धर्मसे अधिवासित हुई हैं । करीब २० जितने जैनेतर भी लालसिंहजी के परिचय से जैन धर्म के प्रति प्रीति रखते हैं । श्री लालसिंहजी की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : श्री लालसिंहजी सवाईसिंहजी राठोड, मु. पो. कोट जि. पाली (राजस्थान), पिन : ३०६७०१ गोविंदजीभाई केशवलाल मोदी की अनुमोदनीय आराधना गुजरातमें पाटणमें रहते हुए गोविंदजीभाई मोदी (उ. व. ५३) को आज से ५ साल पूर्व सागर समुदाय के सा. श्री सुलसाश्रीजी (प. पू. पंन्यास प्रवर श्री अभयसागरजी म.सा. की बहन म.सा.) के सत्संग से जैन धर्मका रंग लगा । बचपन से ही दीन दुःखियों के प्रति दया, मानवता, साधु-संतों के प्रति बहुमान भाव इत्यादि सदगुण गोविंदजीभाई के जीवन में आत्मसात् थे । उस में भी वि. सं. २०५१ में पाटण के जोगीवाड़ा में श्री शामळाजी पार्श्वनाथ भगवंत की प्रतिष्ठा हुई तब से गोविंदजीभाई के हृदय मंदिरमें मानो जैन धर्म की भी प्रतिष्ठा हो गयी । साध्वीजी भगवंत की प्रेरणा से वे निम्नोक्त प्रकार से आराधना अत्यंत रुचि पूर्वक, एकाग्र चित से, भावोल्लास के साथ करते हैं। (१) प्रतिदिन प्रातः ५.३० से ९.०० बजे तक श्री शामळाजी पार्श्वनाथ जिनालयमें नवकार महामंत्र का जप, प्रभुजी के निर्माल्य की Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ प्रमार्जना, वासक्षेप पूजा, एक भगवान की अष्टप्रकारी पूजा, भावोल्लासपूर्वक करीब आधे घंटे तक चैत्यवंदन विधि आदि करते हैं । (२) प्रतिदिन पोरिसी का पच्चक्खाण (३) चातुर्मास में पोरिसी बियासन का पच्चक्खाण (४) पर्व तिथियों में एकासन (५) सचित्त पानीका त्याग (६) संवत्सरी के दिन पौषध के साथ चौविहार उपवास (७) पर्युषण के आठों दिन प्रतिक्रमण (८) पर्व तिथियों में एवं चातुर्मास के ४ महिने निरंतर ब्रह्मचर्य का पालन (९) १० तिथि हरी सब्जीका त्याग (१०) प्रति माह चारुप तीर्थ की यात्रा,, इत्यादि । दो साल पूर्व उनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया तब से वे संथारे के ऊपर ही शयन करते हैं । जीवन में वैराग्य भाव एवं धर्म के प्रति रुचि विशेष रूपसे बढती जा रही है । अनेक प्रकार की सांसारिक उलझनों के बावजूद भी देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति समर्पण में जरा भी कमी नहीं हुई। गोविंदजीभाई की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : गोविंदजीभाई केशवलाल मोदी, केशव भवन, जोगीवाड़ा, मु.पो. पाटण, जि. महेसाणा (उत्तर गुजरात) पिन : ३८४२६५ वैष्णव कुलोत्पन्न, निवृन प्रिन्सीपाल श्री जयेन्द्रभाई |६४ प्राणजीवनदास शाह की जैन धर्मकी अनुमोदनीय आराधना एवं अनुकरणीय स्वावलंबिता मर्यादी वैष्णवकुलोत्पन्न श्रीजयेन्द्रभाई प्राणजीवनदास शाह (उ.व.५६) का जन्म गुजरात के खंभात शहरमें हुआ था । हाल में वे बड़ौदा (वड़ोदरा) में रहते हैं । विविध युनिवर्सिटियों की M. A., Ph.d., M. Ed., Poly-Tech. इत्यादि उपाधियों को धारण करनेवाले, एवं उद्योग अमलदार, जिला खादी Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १११ निरीक्षक, कॉलेज में प्राध्यापक एवं हाईस्कूल और हायर सेकन्डरी स्कूलों में २८ वर्ष पर्यंत प्रिन्सीपाल के रूपमें, कुल ३५ वर्षों का विशाल शैक्षणिक अनुभवों से समृद्ध श्री जयेन्द्रभाई को इ.स. १९५६-५७ में उस वक्त के सुप्रसिद्ध वक्ता जैन मुनि श्री चित्रभानु का परिचय हुआ और उनके जीवनमें जैन धर्म के संस्कारों का प्रारंभ हुआ तब उनकी उम्र २३ साल की थी । - १ उसके बाद महुड़ी (मधुपुरी) तीर्थ में किसी वयोवृद्ध जैन मुनिराज के सत्संग से कंदमूल एवं सचित्त पानी पीने का त्याग किया और भोजन के बाद थाली धोकर पीने का और भोजन की थाली-कटोरी इत्यादि को स्वयमेव साफ करने का प्रारंभ किया जो आज दिन तक चालु ही है !!! उसके बाद हस्तगिरितीर्थोद्धारक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमानतुंगसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संग का लाभ पर्युषण आदिमें मिला और जैनत्त्व के संस्कारों में अभिवृद्धि हुई । बाद में सुरत में वर्धमान तपोनिधि प. पू. आचार्य भगवंत श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में अठ्ठाई तप के साथ ६४ प्रहर का पौषध एवं चातुर्मास में रविवारीय शिबिरों के माध्यम से सम्यक्: ज्ञान का अच्छा लाभ मिला । शंखेश्वर, पाटण एवं उंझा में नवकार महामंत्र समाराधक, पू.पं. श्री अभयसागरजी म.सा. के सत्संग का बहुत सुंदर लाभ मिला । युवाप्रतिबोधक प.पू. आ. भ. श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनिराज श्री रविरत्नविजयजी म.सा. (हाल गणिवर्य) के सत्संग से दो बार उपधान तप कर लिया । उपर निर्दिष्ट महात्माओं के सत्संग और प्रेरणा के प्रभाव से जयेन्द्रभाईने अब तक कुल ११ अठ्ठाई, ७ बार ६४ प्रहरी पौषध, वर्धमान आयंबिल तप की पांच ओलियाँ, २ उपधान, पर्वतिथियों में उपवास, आयंबिल, एकाशन, ४६ बार नवपदजी की आयंबिल ओली की आराधना (इ.स. १९७५ से १९९८ तक ), श्री पार्श्वनाथ और श्री महावीर स्वामी भगवान के कल्याणकों में उपवास आदि तपश्चर्या.... श्री सिद्धाचलजी की : T Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ९९ यात्राएँ, पालिताना में चातुर्मासिक आराधना इत्यादि आराधनाएं की हैं। हररोज प्रातः ३.३० बजे उठकर सामायिक लेकर नवकार महामंत्र की जप ध्यान एवं प्रायः प्रतिक्रमण भी करते हैं । नवपदजी की ओली और पर्युषण में तो वे अचूक उभय काल प्रतिक्रमण करते ही हैं । नवपदजी की ओलियाँ केवल एक धान्य के आयंबिल से की हैं ! इ.स. १९७५ से १९९४ तक सप्ताह में पांच दिन एकाशन और पर्वतिथियों में आयंबिल करते थे । उस वक्त वे उमरेठ गाँव में रहते थे और नौकरी के लिए वड़ोदरा जाते थे । इ.स. १९९४ तक वड़ोदरा में, अहमदाबाद में या अन्य बड़े शहर में कहीं भी जाना हो तो बस या रीक्षा में बैठने के बजाय वे पैदल चलकर ही जाते थे, जिस से हररोज ८-१० मील जितना चलने का होता था । इससे शारीरिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था । वे अधिकांश रूप में सफेद वस्त्र ही पहनते हैं । वस्त्र भी स्वयं सी लेते हैं और अपने वस्त्र धोने के लिए अन्य किसी को भी न देते हुए वे खुद ही धो लेते हैं । वस्त्रों के उपर लोहा ( इस्त्री ) भी स्वयं कर लेते हैं । फटे हुए कपड़ो को भी स्वयं दुरस्त कर लेते हैं । पिछले २५ से अधिक वर्षों से वे अपने बाल भी घर के सदस्य की सहायता से स्वयं काट लेते हैं !!! अनेक विशिष्ट उपाधियों से अलंकृत होते हुए भी एवं घर में भी हर प्रकार की अनुकूलता होने के बावजूद प्रौढ वय में भी वे अपने निजी सभी कार्य स्वयं ही कर लेते हैं। उनकी सादगी एवं स्वावलंबिता का गुण सचमुच अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय है । श्री जयेन्द्रभाई अच्छे लेखक एवं वक्ता भी हैं । उनके कई लेख 'सुघोषा', 'कल्याण' इत्यादि मासिकों में प्रकाशित हुए हैं । औरंगाबाद से समेतशिखरजी के छः 'री' पालक संघ में उनको प्रतिदिन वक्तव्य देने के लिए निमंत्रण दिया गया था । " मांसाहार त्याग", "कंदमूल अभक्ष्य क्यों" ?, " अचित्त जल के लाभ ", जैन धर्म की विशेषताएं इत्यादि विषयों के उपर उनके वक्तव्यों से जैनेतर जनता भी बहुत प्रभावित हुई थी । पाडिव 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ से पालिताना एवं अहमदाबाद से पालिताना के छ:'री' पालक संघों में शामिल होकर छ:'री' के नियमों का पालन करके उन्होंने यात्राएं की हैं। जयेन्द्रभाई की धर्मपत्नी भी उमरेठ की गर्ल्स हायर सेकन्डरी स्कूल में प्रिन्सीपाल थीं । वहाँ एक भी जैन घर नहीं होने से विहार में पधारते हुए जैन साधु-साध्वीजीओं को गौचरी-पानी बहोराना इत्यादि हरेक प्रकार की वैयावच्च का वे उल्लास के साथ लाभ लेती थीं । उन्होंने भी पालिताना, हस्तगिरि, शंखेश्वरजी आदि जैन तीर्थों की सानंद यात्राएं की हैं। उनके एक सुपुत्र भी B. E. Civil सरकारी नौकरी करते हैं और शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान के प्रति अत्यंत आस्था रखते हैं । वे प्रतिवर्ष शंखेश्वर तीर्थ की यात्रा अवश्य करते हैं । इस तरह जैनेतर कुल में उत्पन्न होने के बावजूद भी सत्संग के द्वारा जैन धर्म का विशिष्ट रूप से पालन करते हुए भाग्यशाली आराधकों का जैन समाज के द्वारा अत्यंत गौरव के साथ स्वीकार होना चाहिए और अवसरोचित जाहिर बहुमान करके उपबृंहणा करनी चाहिए। प्रोत्साहन एवं सहयोग देना चाहिए, ताकि वे अधिकाधिक उल्लासपूर्वक जैनशासन की आराधना द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण कर सकें और अन्य भी अनेक आत्माओं के लिए आराधनामय जीवन जीने के लिए उदाहरण रूप बन सकें । सुज्ञेषु किं बहुना ! शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोह में उपस्थित रहने के लिए जयेन्द्रभाई को भी निमंत्रण भेजा गया था मगर उस वक्त वे पालिताना में चातुर्मासिक आराधना में लीन होने के कारण नहीं आ सके थे । पता : जयेन्द्रभाई प्राणजीवनभाई शाह . १६, आभार सोसायटी, एस. आर. पी. पेट्रोल पंप के पास, निझामपुरा, वड़ोदरा (गुजरात) पिन : ३९०००२ दूरभाष : ०२६५ - ७९२४६२ बहुरत्ना वसुंधरा - १-8 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ६५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ परमार क्षत्रिय दंपति अंबालालभाई और रेवाबहन की अनुमोदनीय आराधना में बड़ौदा जिले के बोडेली विभागमें खांडीया गाँव के निवासी परमार क्षत्रिय ज्ञातीय अंबालालभाई रावजीभाई बाटीया (उ. व. ३८) एवं उनकी धर्मपत्नी रेवाबहन को सदगुरुओं के सत्संग से जैन धर्मका रंग लगा है। फलतः अंबालालभाई ने आज तक निम्नोक्त प्रकार से अनुमोदनीय आराधना की है। (१) प्रथम उपधान तप वालकेश्वर (मुंबई) में प. पू. आ. भ. श्री विजय हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें किया (२) प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. की निश्रामें सुरत में २ मास तक धार्मिक शिबिरमें शामिल हुए (३) छठ्ठ तप के साथ शत्रुंजय महातीर्थकी सात यात्राएँ दो बार कीं (४) अठ्ठाई तप, नवपदजी की ओलीयाँ, उपवास से बीस स्थानक की १० ओलियाँ इत्यादि तपश्चर्या की है। (५) समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा (६) पंच प्रतिक्रमण, नवस्मरण इत्यादि धार्मिक अभ्यास एवं ५ साल तक धार्मिक पाठशाला में अध्यापन (७) अच्छारी जैन संघमें १७ साल तक पूजारी का अनुभव (८) हाल २ साल से वापी में महावीरनगरमें अचलगच्छ जैन संघमें पूजारी का कार्य सम्हालते हैं । अंबालालभाई की धर्मपत्नी रेवाबहनने भी २ प्रतिक्रमण सूत्र तक धार्मिक अभ्यास किया है । हररोज जिनपूजा, नवकारसी, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि आराधना करते हैं । नवपदजी की ९ ओली, वर्धमान तपकी १२ ओली, उपधान तप, अठ्ठम एवं अठ्ठाई तप, २४ तीर्थंकरों के एकाशन इत्यादि तपश्चर्या की है । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ११५ उनके दोनों सुपुत्र राजेश और हेमंत हररोज जिनपूजा करते हैं । उन्होंने दो प्रतिक्रमण सूत्र तक धार्मिक अध्ययन किया है । अंबालालभाई बाटीया परिवार की आराधना की हार्दिक अनुमोदना। पता : अंबालभाई रावजीभाई बाटिया, मुं. पो. खांडीआ, तहसील संखेडा, जि. बडौदा (गुजरात) होटल के पानी का भी त्याग करते हुए ६०० हरिजनों का सत्संग मंडल गुजरातमें साबरकांठा जिले के चित्रोड़ा गांव में रहते हुए हरिजनकुलोत्पन्न लालजीभाई भगत (उ. व. ७०) बचपन से ही सत्संग से जैन धर्म का पालन करते हैं और सत्संग मंडल चलाते हैं, जिनमें ६०० सदस्य हैं। सत्संग मंडल के सभी सदस्यों ने बाल ब्रह्मचारी सुश्रावक श्री गोकुलभाई (मूलत: मांडल के निवासी किन्तु हाल अहमदाबादमें पालडी विस्तारमें रहते हुए) के सत्संग से प्रभावित होकर सप्त व्यसनोंका त्याग किया है, इतना ही नहीं किन्तु वे सभी होटलका पानी भी नहीं पीते । आत्मसिद्धि शास्त्र आदि आध्यात्मिक रचनाएँ सभी को कंठस्थ हैं, जिनका वे हररोज स्वाध्याय करते हैं । पूरे हरिजनवासमें जगह जगह पर आध्यात्मिक सुवाक्य लिखे हुए हैं। पता : लालजीभाई भगत एवं सत्संग मंडल मु. पो. चित्रोडा, तहसील ईडर, जि. साबरकांठा (गुजरात) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ |६७ हरिजन दंपति लक्ष्मीबहन नवीनचंद्रभाई चावड़ा की अनुमोदनीय आराधना वर्धमान तपोनिधि, प.पू.आ.भ. श्री विजय वारिषेणसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा एवं सत्संग से जैन धर्म का पालन करते हुए राजकोट निवासी हरिजन कुलोत्पन्न नवीनचंद्रभाई चावड़ा एक कंपनी के मेनेजर हैं, फिर भी वे और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीबहन चावडा हररोज नवकारसी, चौविहार, प्रतिक्रमण, पूजा, नवकार महामंत्रका जप आदि आराधना करते हैं एवं पर्व तिथियों में एकाशन, आयंबिल, उपवास आदि तपश्चर्या भी करते हैं । सप्त व्यसनों के त्यागी हैं। इसी तरह अर्जुनभाई मकवाना आदि ३० भावुकात्मा हरिजन भी जैन धर्म का पालन करते हैं, जिनमें से कुछ भावुकों ने उपरोक्त तपस्वी पू. आ. भ. श्री विजय वारिषेणसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें (सं. २०५३) जामनगर में उपधान तप की आराधना भी मौन अभिग्रह के साथ की है। ६८ ६ बच्चोंको धार्मिक अध्ययन करानेवाले दिलीपभाई बी. मालवीया (लुहार) की अनुमोदनीय आराधना पिण्डवाडा (राजस्थान) निवासी, लुहार कुलोत्पन्न, दिलीपभाई मालवीया का दृष्टांत उनके उपकारी गुरु महाराज के श्रीमुखसे सुनकर, प्रस्तुत किताब की गुजराती आवृत्तिमें संक्षेपमें प्रकाशित किया गया है । एक पैर से विकलांग होते हुए भी वे शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें पधारे थे । अपने जीवन परिवर्तन के प्रसंग को कुछ विस्तार से लिखकर भेजनेकी हमारी सूचनाको शिरोमान्य करते हुए उन्होंने अपना इति वृत्त लिखकर भेजा, जो यहाँ उन्हीं के शब्दोंमें प्रस्तुत किया जा रहा है। वाचक सज्जन इस दृष्टांतमें से यथायोग्य सत्प्रेरणा ग्रहण करेंगे यही मंगल भावना । - संपादक Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ११७ ___ "बचपन से ही एक पैर से विकलांग होने की वजह से मेरे माता पिता आदि मेरी पढाई में विशेष दिलचश्पी लेते थे, अत: ८ वीं कक्षा तक मैं स्कूलमें प्रायः प्रथम नंबरमें पास होता था । मैं पढने के लिए मेरे एक जैन मित्र जितेन्द्र के घर जाता था । उसके घरके वातावरण का मुझ पर भारी प्रभाव पड़ा । एक दिन जितेन्द्र के माता-पिताने मुझे कहा कि "दिलीप ! तू विकलांग है, क्योंकि तूने पिछले जन्ममें जरूर कोई बड़ा पाप किया होगा, अतः प्रकृतिने तुझे यह सजा दी है। तो अब अगर अधिक दुःखी नहीं होना है तो तू इस जीवनमें व्यसन और पापका सेवन नहीं करना और जीवदयामय जैन धर्म का पालन कर" । यह सुनकर मैं गहरे सोच विचारमें उतर गया । क्योंकि हमारे घरमें अण्डे, मांस, शराब आदिका सेवन और जीवहत्या करना सहज बात थी । मैं भी यह सब करता था । इसलिए उपरोक्त बात सुनकर मैं मेरे दोस्त जितेन्द्र की बहन महाराज साहब के पास गया । उनकी प्रेरणा से मैंने उपरोक्त सभी पापों का त्याग किया एवं जैन साहित्य का वांचन शुरु किया । धीरे धीरे मेरा मन मजबूत होता गया । तीन वर्षके बाद मैंने वर्धमान तपकी १०० ओली के तपस्वी प. पू. पं. श्री कनकसुंदरविजयजी म.सा. को मेरे गुरु के रूपमें स्वीकार किया और उनके आशीर्वाद एवं आज्ञासे मैं जैन धर्मकी आराधना करने लगा । आयंबिल की ओली, कषाय जय तप, तीर्थयात्रा, धार्मिक शिबिर आदिमें मैं भाग लेने लगा । आज मैं एकदम बदल गया हूँ । भक्तामर स्तोत्र और पंच प्रतिक्रमण सूत्र आदि को कंठस्थ करनेमें गुरु कृपासे मुझे सफलता मिली है । मैं बच्चों को ट्यूशन देता हूँ उसके साथ साथ धार्मिक ज्ञान भी देता रहता हूँ। मेरे विद्यार्थीओं के साथ मैंने एक धार्मिक शिबिरमें भाग लिया था । उस शिबिरमें मेरा एक विद्यार्थी प्रथम नंबरमें उत्तीर्ण हुआ था । अतः शिबिर के समापन समारोहमें उस विद्यार्थी के साथ मेरा भी बहुमान किया गया था । सं. २०५२ में भाद्रपद पूर्णिमा के दिन शंखेश्वर तीर्थमें पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. द्वारा संपादित बहुरत्ना वसुंरा Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ किताबमें वर्णित आराधकोंके साथ मेरा भी बहुमान किया गया था । इससे मुझे अत्यंत प्रोत्साहन मिला ! बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - धीरे धीरे मैंने अपने परिवार के सदस्यों को भी प्रेरणा देकर उपरोक्त पापों को बंद कराने में सफलता प्राप्त की है । केवल मेरे पिताजीको एक मात्र शराबका व्यसन छुड़ानेमें असफल रहा हूँ । मगर उसके लिए भी मेरे प्रयास जारी हैं। उम्मीद रखता हूँ कि गुरुदेव की कृपासे एक दिन इसमें भी जरूर कामयाब होऊँगा । अब देव - गुरुकी असीम कृपासे मैंने जो संकल्प किये हैं उसका संक्षेपमें वर्णन करता हूँ और आशा रखता हूँ कि इनका अच्छी तरहसे पालन करने के लिए मुझे चतुर्विध श्री संघके आशीर्वादों का बल संप्राप्त होता रहेगा । (१) सालमें एक बार श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ दादाकी पूजा सेवा भक्ति करनी । (२) ३ सालमें एक बार पालीताना जाकर आदिनाथ दादाकी पूजा सेवा - भक्ति करनी । (३) सालमें दोनों बार नवपदजी की आयंबिल ओलीकी आराधना करता हूँ । किसी तीर्थ स्थानमें ओली की आराधना का सामूहिक आयोजन होता है तो उसमें मुझे पूजा, प्रतिक्रमण, प्रभुभक्ति आदि करनेमें अधिक आनंद आता है । (४) सालभर में कहीं से भी यदि बस द्वारा तीर्थयात्रा संघमें जानेका लाभ मिलता है तो मैं उसमें जरूर शामिल होनेकी भावना रखता हूँ । त्याग है । (५) आलु, प्याज, इत्यादि जमींकंद एवं बाजार की मीठाई आदिका त्याग है (६) टी. वी., कोलगेट, और २१ महिनों तक जूते पहननेका (७) भगवान के दर्शन किये बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करता । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ११९ (८) प्रातःकालमें भक्तामर स्तोत्र का पाठ एवं घरसे बाहर निकलते समय नवकार महामंत्रका स्मरण अचूक करता हूँ। (९) हर रविवार को सुबह ११ बजे बच्चोंको जैन धार्मिक सूत्रों की अंताक्षरी सिखाता हूँ । इसमें भाग लेने वाले बच्चोंको मेरी ओरसे इनाम देता हूँ। इस कार्यक्रम में निश्रा देने के लिए मैं उपस्थित साधु साध्वीजी भगवंतों को विज्ञप्ति करता हूँ। वे भी इस कार्यक्रम से प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद प्रदान करते हैं । (१०) बीज, पाँचम और एकादशीको एकाशन तथा अष्टमी और चतुर्दशीको आयंबिल करता हूँ । एकाशनकी अपेक्षा आयंबिलमें मुझे अधिक आनंद आता है। श्रीदेव गुरुकी असीम कृपासे आज तक ९ ओलियाँ, १०८ एकाशन एवं ७६ आयंबिल कर सका हूँ। आगे भी तपश्चर्या जारी है। __ (११) रात्रि भोजन का त्याग है । अचानक कभी बाहर जाना पड़ता है तब मुझे बहुत कठिनाई होती है । क्योंकि मैं बाजार का कुछ भी खाता नहीं हूँ और जैन भोजनशालामें मुझे अनुमति नहीं दी जाती है, जिससे मुझे कई बार भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी मदद करें, ताकि राजस्थानमें किसी भी जैन भोजनशालामें मुझे अनुमति दी जाय" । (दिलीपभाई की इस विज्ञप्ति पर खास ध्यान देने के लिए सभी महानुभावों से खास अनुरोध है । इसी प्रकारसे अन्य भी अजैन कुलोत्पन्न जो आराधक जैन धर्मको अच्छी तरह से समर्पित हों उनको भी जैन श्रावक की तरह हर प्रकारसे सहयोग देना हमारा खास कर्तव्य है । सुज्ञेषु किं बहुना । - संपादक) दिलीपभाई भी अनुमोदना समारोहमें पधारे थे । तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 25 के सामने । पता : दिलीपभाई बी. मालवीया वेलाजी स्ट्रीट मु.पो. पिण्डवाडा, जि. सिरोही (राजस्थान), पिन. : ३०७०२२ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ९ नगर की सफाई करनेवाले हरिजन लालजीभाई की अत्यंत अनमोदनीय नीतिमत्ता लालजीभाई गाँवकी सफाई करने के लिए नगरपालिका में नौकरी करते हैं । एक दिन सोसायटी के बंगले के पास सफाई करते हुए उनको सच्चे हीरों का हार मिला । . बाह्य दृष्टिसे गरीब लेकिन अंतरसे अमीर लालजीभाई ने उस हारको उठा कर पासके बंगले में रहती हुई सेठानी को उनका हार सौंप दिया । उनकी प्रामाणिकता का मूल्यांकन करने के लिए सेठानी ने उनको भोजन के लिए निमंत्रण दिया; मगर लालजीभाई ने उस निमंत्रणका सविनय अस्वीकार किया । सेठानीने अस्वीकार का कारण आग्रहपूर्वक पूछा तब उन्होंने स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि 'मुझे आपकी रसोई नहीं चलती है, क्योंकि उसमें जमीकंद, और कोथमीर आदि होता है और वासी अन्न भी होता है, जब कि मेरा इन सभीका त्याग है !' फिर भी सेठानी का आग्रह चालु रहने पर लालजीभाई ने थोड़ी सी सक्कर और चावल खाये । सेठानी ने बक्षिसके रूपमें कुछ रूपये देनेके लिए बहुत कोशिश की मगर निःस्पृही लालजीभाई ने रूपयोंकी ओर देखा भी नहीं और चले गये । आज जब Top to Bottom (ऊपरसे लेकर नीचे तक) सर्वत्र भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बनता जा रहा है, प्रामाणिकता अदृश्य सी हो रही है, व्यापारमें नीतिमत्ता अशक्यवत् out of date मानी जाती है, ऐसे कलियुगमें ऐसे विरल दृष्टांतरत्नोंमें से प्रेरणा लेकर हमें भी अपने जीवनमें नीतिमत्ता को आत्मसात् करने का शुभ संकल्प करना चाहिए । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ७० आत्मसाधक डॉ. प्रफुल्लभाई जणसारी (मोची) ___ आजसे करीब ३० साल पहले मुमुक्षु के रूपमें कच्छ-मोटा आसेंबीआ गाँवमें हमारा धार्मिक और संस्कृत अभ्यास चालु था तब वहाँ मोची कुलोत्पन्न डॉक्टर बाबुभाई के सुपुत्र प्रफुल्लभाई का थोड़ा परिचय हुआ था । लेकिन बादमें आजसे ८ साल पहले सं. २०५१ में गिरनारजी महातीर्थमें सामूहिक ९९ यात्राके दौरान महाशिवरात्रि के निमित्त से अपने मातृश्रीकी भावना के अनुसार डॉ. प्रफुल्लभाई गिरनारजी में आये थे तब उनके जीवनमें आत्मसात् बन गयी अंतर्मुखता, आत्मलक्षिता, सहज साधकता, सांसारिक भावों के प्रति उदासीनता और आत्मानंदकी मस्ती इत्यादि देखकर अत्यंत आनंद हुआ । महाशिवरात्रि की रातको गिरनारजीमें हजारों शैवधर्मी बावाओं का झुलुस निकलता है मगर आत्म मस्तीमें रमणता करनेवाले डॉ. प्रफुल्लभाई को उस झुलुसको देखने के लिए जरा सी भी उत्सुकता नहीं हुई ! कर्म संयोग से मोची कुलमें उत्पन्न होने पर भी पुरुषार्थ से उपरोक्त भूमिका को पानेवाले डॉ. प्रफुल्लभाई ‘मनुष्य जन्मसे नहीं किन्तु कार्योंसे महान बन सकता है' इस शास्त्रोक्त कथन के दृष्टांत रूप हैं । कुछ साल पहले प्रफुल्लभाई प्रतिदिन प्रातःकालमें पद्मासनमें बैठकर ३ घंटे तक ध्यान करते थे, लेकिन अब वे कहते हैं कि 'अब २४ घंटे सहज आनंदमय अवस्था रहती है । अब कहीं भी जानेकी उत्कंठा नहीं होती । जो भी समय मिला है उसमें निज स्वरूपमें रमणता करते हुए आनंद-परमानंद-निजानंदका अनुभव होता है । किसी भी प्रकारकी अपेक्षा रखे बिना, जीवनमें अधिक से अधिक सहजता और सरलता आ जाय तो निजानंदका अनुभव करने के लिए किसी गुफामें जानेकी या कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं रहती ।' सभी पाठक डॉ. प्रफुल्लभाई के दृष्टांतमें से प्रेरणा पाकर अपने जीवनमें Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ सहजता, सरलता, अंतर्मुखता और आत्मलक्षिता प्राप्त करें यही शुभभावना । पता : डो. प्रफुल्लभाई. बाबुभाई जनसारी, मु. पो. मोटा आसंबीआ, ता. मांडवी कच्छ, पिन : ३७०४५५. ७१ डॉक्टर राधेश्याम अग्रवालकी अनुमोदनीय आराधना 1 महाराष्ट्रमें धुलिया शहर के निवासी डॉ. राधेश्याम भिक्षुलाल अग्रवाल (उ. व. ५८) को पिछले कुछ वर्षों से सत्संगसे जैन धर्म का रंग लगा है । परिणाम स्वरूपमें वे हररोज नवकारसी और जिनपूजा करते हैं। चातुर्मास आदिमें जिनवाणी श्रवण का योग मिलता है तब वे अचूक लाभ लेते हैं । जैन धर्म के साहित्य को पढ़ने का उनको अत्यंत शौक है । सामायिक लेकर वे जैन धर्म संबंधी मननीय ग्रंथों का अध्ययन नियमित रूपसे करते हैं । डॉक्टर होते हुए भी उनको तपश्चर्या करने की अजीब सी लगन है । आज तक उन्होंने २५० एकाशन, ३०० बियासन, बीस स्थानक तप चैत्र और आसोज महिनों में नवपदजी की आयंबिल की ओली, एकांतर उपवास, आदि तपश्चर्याएँ की हैं । चातुर्मास के दौरान संघमें सामूहिक रूपमें जो भी तपश्चर्याएँ होती हैं उनमें प्रायः उनका नाम होता ही है । जीवदया आदिके सुकृतों में वे अपनी संपत्ति का यथाशक्ति सद्व्यय करते रहते हैं। उनके जीवनमें शासन प्रभावक परम तपस्वी प. पू. आ. भ श्री विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. आदि अनेक महापुरुषों का उपकार है । डो. राधेश्याम अग्रवालकी आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : डो. राधेश्याम भिक्षुलाल अग्रवाल 'रामकृष्ण' बर्फ कारखानाके सामने, मु. पो. धुलिया (महाराष्ट्र) पिन : ४२४००१. फोन : ३३३७५ - ( होस्पीटल), ३२९७५ - (घर) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १२३ ७२ केशव नामकर सुपरेकर पाटीलकी अनुमोदनीय आराधना मालेगाँव (महाराष्ट्र) में केशव नामकर सुपरेकर पाटीलको पिछले १२ सालसे जैन धर्म का रंग लगा है । उन्होंने अाई आदि तपश्चर्याएँ भी की हैं। प्रायः हर साल हजारों स्पयोंकी बोली बोलकर संवत्सरी के बाद या नूतन वर्षमें जिनालयके द्वारोद्घाटन का लाभ वे लेते हैं । ७३ ' खीमजीभाई जीवाभाई परमार (दरजी) की अनुमोदनीय आराधना __बोरीवली (मुंबई) में चंदावरकर लेनमें रहते हुए खीमजीभाई जीवाभाई परमार (उ. व. ५५) दरजी का व्यवसाय करते हैं । वि. सं. २०४९में परम तपस्वी प.पू. आ. भ. श्री विजयप्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. के चातुर्मासमें उनको जैन धर्म का रंग लगा है । हररोज जिनमंदिरमें जाकर प्रभुदर्शन करना, रात्रिभोजन का त्याग करना, यथाशक्ति क्रोध आदि कषायों का निग्रह करना, जिनवाणी श्रवण करना, इत्यादि आराधना एवं सद्गुणों का उन्होंने विकास किया है । उपरोक्त चातुर्मासमें प्रति महिने वे ५०० रुपयों का गुप्तदान करते थे । वे अचित्त पानी पीते हैं । धार्मिक अध्ययन करते हैं । उन्होंने शत्रुजय आदि तीर्थोंकी यात्रा की है । खीमजीभाई की आराधना की हार्दिक अनुमोदना। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ७४ हीनाबेन व्रजलाल (वैष्णव) की अनुमोदनीय आराधना मालेगाँव (महाराष्ट्र) निवासी हीनाबेन ब्रजलाल (वैष्णव) को शासनप्रभावक प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वरजी म.सा. की आज्ञावर्तिनी सा. श्री हंसश्रीजी के सदुपदेशसे जैन धर्मका रंग लगा है। उन्होंने अठ्ठाई, वर्धमान तपकी ओलियाँ आदि अनेक तपश्चर्याएँ की हैं । साधु-साध्वीजी भगवंतोंकी अनुमोदनीय भक्ति करते हैं । यथासमय प्रतिक्रमण आदि आवश्यक धर्मक्रियाएँ करते हैं । उनकी पुत्रवधूने अट्ठाई, सोलभत्ता, मासक्षमण आदि तपश्चर्याएँ की हैं। पिछले ४ वर्षों से इस परिवार के ऊपर परम तपस्वी प. पू. आ. भ. श्री विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. का भी बड़ा उपकार है । प. पू. आचार्य भगवंतश्री के चातुर्मास परिवर्तनका लाभ भी इस परिवारने लिया था । हार्दिक अनुमोदना। ७५ काणोदरमें रमेशभाई नाई की अनुमोदनीय देव गुरु भक्ति उत्तर गुजरात में पालनपुर के पास काणोदर नामका एक छोटा सा । गाँव है । हाल वहाँ जैन आबादी नहींवत् है । साधु साध्वीजी भगवंत काणोदर गाँवमें पधारते हैं, तब उनकी अत्यंत भावपूर्वक वैयावच्च वहाँ रहते हुए रमेशभाई (नाई उ. व. ४७) और उनकी धर्मपत्नी करते हैं । गाँव में छोटा सा मनोहर जिनालय है उसकी प्रक्षाल पूजा आदि भी रमेशभाई ही सम्हालते हैं । लेकिन यह कार्य वे अपनी आत्माके उपर अनुग्रह बुद्धि से करते हैं, इसलिए वेतन नहीं लेते, बल्कि ऐसा महान लाभ मिलने के लिए वे अपनी आत्मा को धन्य मानते हैं। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ पहले वे साधु-साध्वीजी भगवंतों की हर प्रकार की वैयावच्च का लाभ अपने पैसों से लेते थे, मगर मर्यादित आय के कारण अभी वहाँ पालनपुर के सुश्रावक के आर्थिक सहयोग से भोजन व्यवस्था होती है, जिसका संचालन रमेशभाई एवं उनकी धर्मपत्नी मानद सेवा के रूपमें करते हैं। उनकी धर्मपत्नी हाल एकांतरित ५०० आयंबिल कर रही हैं । इससे पूर्व में उन्होंने वर्षांतप, उपधान आदि आराधना भी की है । रात्रिभोजन और कंदमूल का आजीवन त्याग किया है। मर्यादित आय होते हुए भी अरिहंत परमात्म भक्ति और साधुसाध्वीजी भगवंतोंकी सेवा बिना वेतन से करते हुए रमेशभाई नाई और उनकी धर्मपत्नी की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पता : रमेशभाई पूजारी, जैन मंदिर, मु. पो. काणोदर, ता. पालनपुर, जि. बनासकांठा (उ. गुजरात) ७६ उपधान करते हुए मोची जीवराजभाई नागरभाई झाला सौराष्ट्र के बोटाद शहरमें रहते हुए मोची कुलोत्पन्न जीवराजभाई नागरभाई झाला (उ. व. ६५) को पिछले करीब १० वर्षों से जैन धर्म के प्रति आकर्षण हुआ । उसमें भी पिछले ५ वर्षों में प. पू. आ. भ. श्री विजयरुचकचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. आदिके सत्संगसे वह रंग अधिक गाढ होता जा रहा है। उपरोक्त पूज्य आचार्य भगवंत की पावन निश्रामें बोटाद से पालिताना का छौंरी पालक पदयात्रा संघ निकला था उसमें जीवराजभाई भी यात्रिक के रूपमें शामिल थे । पूज्य श्री की निश्रामें उन्होंने उपधान तप भी कर लिया। पिछले ५ सालसे वे दिनमें केवल २ टाईम ही भोजन करते हैं। उसमें भी ५ द्रव्यों से अधिक द्रव्य नहीं लेने का पच्चक्खाण लिया है। भोजन के बाद हमेशा थाली धोकर पी जाते हैं । आयंबिल की ओली, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ अठ्ठम तप अदि तपश्चर्या भी की है। पिछले कई वर्षों से ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हैं । जिनवाणी श्रवणका योग होता है तब अचूक लाभ लेते हैं। इस तरह भावपूर्वक जैन धर्मकी आराधना करते हुए जीवराजभाई झालाकी आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : जीवराजभाई नागरभाई झाला शक्ति निवास, वडोदरीया होस्पीटल के सामने, मु. पो. ता. बोटाद, जि. भावनगर (सौराष्ट्र) फोन : ४४७३८. ७७ प्रवीणभाई पटेल परिवारकी आराधना मूलतः कच्छ भडली गांव के निवासी लेकिन वर्तमानमें • अहमदाबादमें रहते हुए प्रवीणभाई पटेल की सुपुत्री पूर्वी (उ. व. २०) को १० वर्षकी बाल्य वय से सत्संग द्वारा जैन धर्म का रंग लगा है। वह हररोज जिनपूजा करती है। उसकी माता लीलाबहन, पिताश्री प्रवीणभाई, बड़े भाई प्रकाशभाई, बड़ी बहन वर्षा एवं स्वयं इस तरह घरके पाँचों सदस्य संवत्सरी के दिन चौविहार उपवास करते हैं । जैन कुलमें जन्म पाने के बावजूद भी जो संवत्सरी जैसे महान पर्व दिनों में भी रात्रिभोजन, कंदमूल और हरी वनस्पतिका त्याग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करते हैं ऐसे जीवों को इस दृष्टांतमें से खास प्रेरणा लेने योग्य है। पता : प्रवीणभाई लधाभाई पटेल समस्त ब्रह्मक्षत्रिय सोसायटी, गुजरात कोलेज के पीछे, अहमदाबाद - ३८०००६. (गुजरात) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ७८ सोमपुरा मयूरभाई की आराधना करीब ३ साल पूर्व उत्तर गुजरातमें बनासकांठा जिले के भोरोल तीर्थमें आबालब्रह्मचारी २२ वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान आदि जिनबिम्बों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा का भव्य महोत्सव सुविशाल गच्छाधिपति प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय महोदयसूरीश्वरजी म.सा. आदि अनेक पदस्थ पूज्यों की निश्रामें आयोजित हुआ था । ___ इस तीर्थमें काम करते हुए सोमपुरा मयूरभाई दीर्घ समय से नवपदजी की ओलीके दिनोंमें ९ आयंबिल पूर्वक आराधना करते हैं । पर्युषण के दौरान उन्होंने अठ्ठाई तप भी किया है । वे हररोज जिनपूजा करते हैं और प्रतिदिन शामको आरती के समयमें अचूक उपस्थित रहकर प्रभुभक्तिका लाभ लेते हैं। आजकल कई गाँवोंमें प्रभुजी की आरती उतारने में पूजारी के सिवाय किसी को खास रस नहीं दिखाई देता है, तब यह दृष्टांत खास विचारने लायक है। ७९ | प्रातादन १ । प्रतिदिन १०८ लोगस्स आदिकी आराधना करती हुई कु. मीनाबहन जगजीवनभाई ( महाराष्ट्रीयन) महाराष्ट्रमें थाणा जिले के शिरसाड़ गाँवमें जैनेतर कुलोत्पन्न कु. मीनाबेन (उ. व. १७) को प्रारब्ध योगसे ५ वर्ष की बाल्य वय से ही गृहकार्यों में जुड़ना पड़ा । मगर ८ सालके बाद उसका भाग्योदय हुआ । ९ सालकी उम्रमें वह (मुंबई) शायनमें रहते हुए धर्म संस्कार संपन्न कच्छी जैन जगजीवनभाई शाह के परिवारमें गृहकार्य करती हुई अपने विनीत और शालीन स्वभाव तथा अपने कर्तव्य की लगन के कारण छोटे बड़े सभी की प्रीतिपात्र बन गयी । फलतः सुश्राविका पुष्पाबहन और जगजीवनभाई Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ने उसको अपनी बेटीकी तरह स्वीकार कर लिया । घरमें धार्मिक माहौलके कारण कु. मीना प्रतिदिन धार्मिक पाठशालामें जाने लगी। देखते ही देखते उसने नवकार महामंत्र से लेकर चैत्यवंदन, गुरुवंदन, सामायिक विधिके सूत्र और रत्नाकर पचीसी, भक्तामर स्तोत्र इत्यादि कंठस्थ कर लिये । बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ वह हररोज जिनपूजा, नवकारसी और चौविहार करने लगी । प्रातः ४.३० बजे उठकर १०८ नवकार, १०८ लोगस्स और १०८ उवसग्गहरं का जप तथा अहँ नम: और सरस्वती देवीकी एक एक माला गिनती है । हररोज प्रातः कालमें बुजुर्गों को चरणस्पर्श करके प्रणाम करती है । जिनमंदिरमें जाते समय पाँवमें जूते भी नहीं पहनती । जिनवाणी श्रवणका सुयोग होता है तब अवश्य लाभ लेती है । जमींकंद त्याग की प्रतिज्ञा ली हुई है। दोपहर के समय में सामायिक लेकर जप और स्वाध्याय करती है । सेवा का एक भी मौका चूकती नहीं है । हररोज रात को सोने से पहले स्वयं स्फुरणासे प्रार्थना करती है कि 'हे प्रभु ! जगत् के सभी जीवों का दुःख मुझे मिलो और मेरा सुख सभी को मिलो । पार्श्वनाथ भगवंत की शरण प्रत्येक भवमें मिलो' । सभी जीवों के साथ क्षमायाचना करके, दिनभर में हुई भूलों का पश्चात्ताप करके बादमें ही शयन करती है । पूर्वजन्म के संस्कार और जगजीवनभाई के घरके वातावरण के कारण कु. मीना हररोज भावना भाती है कि 'सस्नेही प्यारा रे, संयम कब ही मिले !' सभी माता-पिता अपनी संतानोंमें ऐसे सुंदर संस्कार डालें तो कितना अच्छा ! पता : मीनाबहन जगजीवनभाई विसनजी शाह ३४, चमन हाउस, तीसरी मंजिल, ब्लोक नं. २३, सायन (पश्चिम) मुंबई ४०००२२. शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें मीनाबहन, और जगजीवनभाई के साथ आयी थी । उसकी तस्वीर पेज नं. 21 के सामने प्रकाशित की गयी है । प पुष्पाबहन. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ ८० - ८१ १२९ १० सालकी उम्र में पंच प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ करनेवाली नेपालियन बालिका लक्ष्मी 1 वर्धमान तपोनिधि प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय वारिषेणसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास सं. २०४९ में कलकत्तामें हुआ । तब वहाँ १० सालकी उम्र की लक्ष्मी नामकी नेपालियन बालिका रहती थी । उसकी पड़ोशमें जैन श्रावकका घर था । सत्संग और पूर्व जन्म के संस्कारवशात् उसको जैन साधु साध्वीजी और जैन धर्म के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ । फलतः उसने पंच प्रतिक्रमण सूत्र १० वर्षकी बाल्यवय में कंठस्थ कर लिये थे । पाठशाला के सभी विद्यार्थीओं में वह प्रथम क्रमांक में उत्तीर्ण हुई। हररोज जिनपूजा, सामायिक और कुछ व्रत नियमों का वह पालन करने लगी। इतना ही नहीं किन्तु इस छोटी सी बालिका ने अपने माता पिताको भी शाकाहारी बनाने के लिए प्रयत्न किये । हार्दिक धन्यवाद लक्ष्मी को एवं उसका आत्मविकास करनेवाले सत्संग को । पंच प्रतिक्रमण कंठस्थ करनेवाली तीन दरजी बालिकाएँ सौराष्ट्र के धोराजी गाँवमें दरजी की तीन सुपुत्रियाँ हैं । पिछले ४ सालसे उनको जैन धर्म का रंग लगा है । उनके पिताजी का अकस्मातमें निधन हो गया है । उनकी माँ उपाश्रय की सफाई का कार्य करती है । उपाश्रय के पीछे ही उनका घर है । I तीनों बहने हररोज प्रभुदर्शन और प्रतिक्रमण करती हैं । उन्होंने पंच प्रतिक्रमण सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं । चातुर्मास आदिमें एकाशन, आयंबिल, उपवास आदि जो भी तपश्चर्याएँ और आराधनाएँ समूहमें करायी जाती है, बहुरत्ना वसुंधरा - १-9 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ उन सभीमें इन तीनों बालिकाओं का नाम अवश्य होता है । वे जिनपूजा करती हैं । जमीकंदका त्याग है । इन तीनों बालिकाओं को प्रोत्साहित किया जाय तो भविष्यमें जिनशासन की उत्तम श्राविका या साध्वीजी बन सकती हैं । इन तीनों बहनों के नाम हैं अल्पाबहन, भाविषाबहन, पूजाबहन (उम्र वर्ष १६, १३, ११) ८२ मीराबाई जैसी प्रभुभक्त बनने की भावनावाली । नीताबहन चंदुभाई (दरबार) कच्छ मांडवी तालुका के मढ गाँव के निवासी चंदुभाई दरबार पिछले ३३ वर्षों से जामनगर जिले के गांगवा गाँवमें रहते हैं । उनकी ९ बेटियोंमें से सातवें क्रमांककी सुपुत्री नीताबहन (उ. व. २४) को पूर्वजन्म के संस्कारवशात् बचपनसे ही मेवाड़ की भक्त कवयित्री मीराबाई जैसी प्रभुभक्त बनने की लगन थी । मगर परिवारजनों ने जबरदस्ती से उसकी शादी धंधुका के पासमें गांगड गाँवमें कर दी थी, लेकिन कर्मसंयोगसे एक सप्ताह में ही वह ससुराल से वापिस आ गयी ! अचलगच्छीय सा. श्री आर्यरक्षिताश्रीजी और सा. श्री देवरक्षिताश्रीजी सं. २०४९ का चातुर्मास जामनगरमें करके शेषकालमें विहार करते हुए गांगवा गाँवमें पधारे । बचपन से ही सत्संग प्रेमी नीताबहन कथा सुनने के लिए उपाश्रयमें गई । साध्वीजीकी वात्सल्यपूर्ण वाणीने नीताबहन के हृदयमें वैराग्य की तरंगों को जगाया। फलतः माता-पिताकी अनुज्ञा लेकर दो महिनों तक साध्वीजी भगवंतों के साथ रहकर गिरनारजी, पोरबंदर, मांगरोल आदि तीर्थों की यात्रा की; दो प्रतिक्रमण एवं चैत्यवंदन विधिके सूत्र कंठस्थ कर लिये । वह हररोज जिनपूजा, नवकारसी चौविहार और नवकार महामंत्रका जप करती है । तीन बार अट्ठाई तप कर लिया है । कोई भी जैन साधु साध्वीजी भगवंत गांगवामें पधारते है तब वह भावसे गोचरी पानी बहोराकर सत्संग का लाभ लेती है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १ - १३१ "जो भी होता है वह अच्छे के लिए ही होता है" इस कहावत के अनुसार नीताबहन को ससुराल से एक सप्ताह में ही वापिस लौटनेका निमित्त भी आत्मविकास के लिए ही हुआ न ! कहा भी गया है कि 'परिस्थिति भाग्याधीन है मगर धर्म पुरुषार्थ मनुष्य के लिए स्वाधीन हैं । सभी मनुष्य धर्म पुरुषार्थ द्वारा मानव भवको सफल बनायें यही शुभेच्छा । पता : नीताबहन चंदुभाई दरबार ( कच्छ-मउवाले) मुं.पो. गांगवा, जि. जामनगर (सौराष्ट्र ) ८३ हररोज जिनपूजा आदि करते हुए हांसबाईमा (खवास) कच्छ- मुन्द्रा तालुका के मोटी खाखर गाँव के निवासी हांसबाईमा (उ. व. ७२) का जन्म खवास नामकी जैनेतर जातिमें हुआ है, लेकिन उपाश्रय के पासमें ही घर होने से साध्वीजी भगवंतों के सत्संग से और श्राविकाओं के परिचय से पिछले २० सालसे जैन धर्मका रंग लगा है । वे प्रतिदिन नवकारसी, चौविहार, प्रतिक्रमण और जिनपूजा करते हैं। अक्सर आयंबिल, उपवास, अठ्ठम आदि तपश्चर्या करते हैं । जमींकंद आदि अभक्ष्योंका त्याग किया है । अष्टमी, पूर्णिमा, अमावास्या आदि पर्व तिथियों में पक्खी पालते हैं अर्थात् खेत बाड़ी आदिमें नहीं जाते हैं और पौषध भी करते हैं । चातुर्मास में ओसतन उपाश्रयमें ही साध्वीजी भगवंतों के पास सोते हैं और उन की वैयावच्च करते हैं. । हांसबाईमा की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें वे उपस्थित हुए थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 17 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : हांसबाईमा खवास, जैन उपाश्रय के पासमें, मु. पो. मोटी खाखर, ता. मुन्द्रा कच्छ पिन : ३७०४३५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ ८ ४ ___ सिद्धितप करनेवाली मुफ्ताबहन भंगी गुजरात के सुरेन्द्रनगर शहरमें भारत सोसायटीमें वि. सं. २०४६में स्था. छ कोटि समुदाय के श्री भास्करमुनिजी आदिका चातुर्मास हुआ। उनकी प्रेरणासे कई आत्माओंने सिद्धितप किया । तब मुफ्ताबहन नामकी भंगी बहन भी ४४ दिनकी इस महान तपश्चर्यांमें शामिल हुई और विधिपूर्वक तपश्चर्या परिपूर्ण की । तपश्चर्या के दौरान हररोज व्याख्यान श्रवण, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि आराधना करती थी । सकल श्री संघ के अपने घर पगले करवाये। कंदमूल आदि अभक्ष्य का त्याग किया है । अपने रिश्तेदारों में भी अगर कोई मांसाहार करते हों तो उनके घरका पानी भी वह नहीं पीती ! | "यदि ससुराल में कंदमूल एवं रात्रिभोजन का त्याग ८५ करने की अनुमति मिलेगी तो ही मैं शादी कसंगी" __हरिजन कन्या नवलबाई गुजरात के कच्छ-वागड़ प्रदेश में, रापर तहसील में प्राग्पुर गाँव है। जिसमें १२ व्रतधारी, दृढधर्मी, ज्योतिर्विद, विधिकार सुश्रावक श्री वनेचंदभाई पटवा जैसे श्रावकों के करीब १५ जितने घर हैं । वनेचंदभाई के पिताश्री वालजीभाई ने प. पू. आ. भ. श्री विजय कनकसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से शीतलनाथ भगवान का शिखर युक्त जिनालय अपनी देखभाल के नीचे श्री संघ के खर्च से बंधवाया है। इस गाँवमें हरिजन भाणाभाई पाँचाभाई परमार अपने परिवार के साथ रहते हैं । आजसे करीब २२ साल पूर्व उनको सोनगढवाले कानजी स्वामी और पिछडी हुई जातियों में जैन धर्म का प्रचार करते हुए उनके कुछ अनुयायीओं का परिचय हुआ । उन्होंने जैन धर्म एवं उसके आचार विचार भाणाभाई को समझाये । फलतः हरिजन भाणाभाई, उनकी धर्मपत्नी एवं उसके आचार Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १३३ मोंधीबाई एवं मोंघीबाई के भाई मावजीभाई भगतने जैन धर्म को अंगीकार किया । रात्रिभोजन, एवं जमीकंद आदि अभक्ष्यों का आजीवन त्याग किया। माता-पिता की ओर से जैन धर्म के संस्कार मिलने के कारण उनकी १० साल की सुपुत्री नवलबाई ने भी जमीकंद आदि अभक्ष्यों का त्याग किया और रात्रिभोजन नहीं करने का भी नियम लिया। इस कन्या की उम्र जब १८ सालकी हुई तब उसके माता पिता योग्य वर की खोज करने लगे । तब नवलबाई ने माता-पिता को विनयपूर्वक स्पष्ट कह दिया कि "यदि ससुरालमें कंदमूल और रात्रिभोजन त्याग का नियम पालने की अनुमति मिलेगी तो ही मैं शादी करूंगी, अन्यथा नहीं" । माता-पिताने खुश होकर वरपक्ष के परिवार जनों को इस बात से अवगत कराया। वे भी इस बात में संमत हुए तब आज से करीब ९ साल पूर्व नवलबाई की शादी हुई । आज वह कच्छ-गांधीधाम में अपने ससुराल में रहती है । शादी के समय में भी रात्रिभोजन एवं जमीकंद आदि अभक्ष्य त्याग के नियम का बराबर पालन किया गया था । वागड़ प्रदेश के परमोपकारी, अध्यात्मयोगी, प. पू. आ. भ. श्री विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. प्राग्पुर गाँव में पधारते थे तब भाणाभाई, मावजीभाई और नवलबाई आदि व्याख्यान श्रवण के लिए अचूक जाते थे और अपनी आत्मा को धन्य मानते थे । . भाणाभाई की द्वितीय सुपुत्री अललबाईने भी माता पिता के संस्कारों से १० साल की उम्र में रात्रिभोजन एवं जमीकंद आदि अभक्ष्य त्याग का नियम लिया है । उसकी शादी आजसे ५ साल पूर्व कच्छ-गागोदर गाँवमें हुई है । शादी के बाद अपने पति को भी रात्रिभोजन और जमीकंद आदि अभक्ष्य भक्षण से जीवहिंसा का कितना भयंकर पाप लगता है उसे समझाकर त्याग करवाया है। इस तरह "धर्म पत्नी" के रूपमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया है । (अपने आपको 'मोडर्न' कहलानेवाले आज के युवकयुवतियाँ इस दृष्टांत से कुछ बोधपाठ ग्रहण करेंगे ?) प्रागपुर से पूर्व दिशा में ३ कि.मी. की दूरी पर वल्लभपुर नामका गाँव है । वहाँ पीछड़ी हुई जातियों के निम्नोक्त लोग जैन धर्मका पालन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ करते हैं, रात्रिभोजन एवं जमीकंद आदि अभक्ष्यों का त्याग करते हैं । (१) कोली गंगाराम रणछोड़ (२) झीणीबाई गंगाराम (३) कोली राधुभाई रणछोड़ (४) सेजीबाई राधु । । ___प्राग्पुर से उत्तरमें ४ कि.मी. की दूरी पर उमैया गाँवमें हरिजन जाति के निम्नोक्त लोग जैन धर्म का पालन करते हैं । (१) हरिजन कांथड काना (२) हरिजन घेनीबाई कांथड (३) हरिजन देवा काना (४) हरिजन रामजी काना (५) हरिजन गोविंद कांथड (६) हरिजन भचु काना । इन सभी परिवारों में जमीकंद आदि अभक्ष्य भक्षण वर्ण्य है । रात्रिभोजन भी शक्यतानुसार त्याग करने की कोशिश करते हैं । उपरोक्त सभी परिवार अपने घरमें तीर्थकर परमात्मा की तस्वीरें रखते हैं। प्रातःकाल में परमात्मा की तस्वीर का दर्शन करके बाद में ही कृषि हेतु खेतमें जाते हैं और शाम को घर लौटकर प्रभुदर्शन करके अपना जीवन धन्य मानते हैं। ये सभी परिवार जमीकंद का भक्षण तो करते नहीं है किन्तु जमीकंद की खेती भी नहीं करते हैं। वे मानते हैं कि जमीकंद को बोनेवाले तथा खानेवाले मनुष्यों को एवं पशुओं को भी बहुत पाप लगता है। .. इनके अलावा मूलतः वल्लभपुर गाँव के निवासी किन्तु वर्तमान में रापर में रहते हुए हरिजन बेचर आला और उनकी धर्मपली जादवणीबाई भी जैन धर्म का पालन करते हैं । रात्रिभोजन एवं जमीकंद आदि अभक्ष्य का त्याग किया है । ३ साल पूर्व उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत भी विधिपूर्वक . अंगीकार किया है । वे सामायिक एवं नवकार महामंत्रका जप भी करते हैं। भीमासर गाँव में भी कुछ हरिजन जैन धर्म का पालन करते हैं । उपरोक्त हरिजन भाणाभाई, मावजीभाई, बेचरभाई, जादवणी बहिन एवं मोंधी बहन शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोह में पधारे थे । उनकी तस्वीरें प्रस्तुत पुस्तक में पेज नं. 17 के सामने प्रकाशित की गयी हैं । इनमें से भाणाभाई के सिवाय बाकी के ४ भाग्यशालीओंने अनुमोदना समारोह के पश्चात् Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १३५ करीब १ महिने के बाद पुनः शंखेश्वर तीर्थ में पधारकर प. पू. आ. भ. श्री नवरत्न सागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें उपधान तप भी कर लिया। भविष्यमें शत्रुजय महातीर्थ की ९९ यात्रा एवं छ'री पालक संघमें चलकर तीर्थयात्रा भी करना चाहते हैं। जिस तरह कीचड़ में से कमल खीलता है उसी तरह कर्मोदय से हीन कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य भी सत्संग के द्वारा उत्तम कुलोत्पन्न मनुष्यों के लिए भी अनुकरणीय बन सके ऐसा उन्नत जीवन जी सकते हैं, यह बात ऐसे दृष्टांतों से सिद्ध होती है । इसीलिए तो सत्संग को पारसमणि से भी अधिक महिमाशाली कहा गया है । ऐसे सत्संग द्वारा सभी मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाएँ यही शुभेच्छा । पता : हरिजन भाणाभाई परमार एवं बेचरभाई आला Clo वनेचंदभाई वालजी पटवा (प्रागपुर वाले ज्योतिषी) भूतिया कोठा, मु.पो. ता. रापर (कच्छ-वागड) पिन : ३७०१६५ "यदि मुझे बचपन से ही जैन धर्म मिला होता तो ८६ । मैं शादी ही नहीं करती, किन्तु दीक्षा ही अंगीकार __करती'' रेखाबहन ( मिस्त्री) आज जब एक ओर आधुनिक डिग्रीओं को पाया हुआ किन्तु जैन कुलमें जन्म पाने के बावजूद भी जैन धर्म के विषयमें बिल्कुल अज्ञात ऐसा कोई युवक अपने को जैन कुल में जन्म मिला इसके लिए अफसोस व्यक्त करते हुए कहता है कि "क्यों मेरा जन्म ऐसे जैन कुलमें हुआ कि जिसमें यह नहीं खाना, वह नहीं पीना, ऐसा नहीं देखना, वैसा नहीं करना इत्यादि कदम कदम पर कितने नियमों के बंधन की बातें कही गयी हैं ? इससे तो अच्छा होता कि मैं पशु होता या रानी एलिझाबेथ के घर में कुत्ते के रूप में मेरा जन्म हुआ होता तो रानीके हाथों में खेलना मिलता, रानी अपने हाथों से मुझे केक खिलाती" इत्यादि । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ तब दूसरी ओर जैनेतर (मिस्त्री) कुल में उत्पन्न लेकिन बादमें जैन धर्म के मर्म को आंशिक रूपमें भी समझनेवाली एक आत्मा जैन धर्म के प्रति कितनी बेहद आस्था रखती है और कैसे मनोरथ करती है वह हम देखेंगे। मूलत: कच्छ-भूज के पास कुकमा गाँव में मिस्त्री कुल में उत्पन्न हुई किन्तु बाद में ऋणानुबंधवशात् कच्छ-रामपुर वेकड़ा गाँव के स्थानकवासी जैन परिवार में विवाहित हुई रेखाबहन (उ. व. २७) हाल गांधीधाम में अपनानगर विभाग में रहती हैं । बी. कोम. तक व्यावहारिक अभ्यास उन्होंने किया है। जैन परिवार में शादी होने के कारण से जैन साधु साध्वीजी भगवंतों के सत्संग और व्याख्यान श्रवण से रेखा बहन के अंतस्तलमें रहे हुए सुषुप्त धार्मिक संस्कार जाग्रत हो गये हैं, फलतः उन्होंने रात्रिभोजन एवं जमीकंद आदि अभक्ष्यों को आजीवन तिलांजलि दे ही है । (आज जैन कुलोत्पन्न भी कई आत्माएँ नरक के द्वार समान इन दो पापों को छोड नहीं सकते हैं उन्हें रेखाबहन के दृष्टांत में से खास प्रेरणा ग्रहण करने योग्य है ।) एकाशन, आयंबिल, उपवास, छठ्ठ, अठुम इत्यादि तपश्चर्या वे अक्सर करती रहती हैं । संसार के आरंभ समारंभ के कार्यों में अनिवार्य रूपसे होती हुई जीवहिंसा से उनका हृदय एकदम पिघल जाता है और वे घर के सदस्यों को भी अधिक से अधिक यतना युक्त जीवन जीने की प्रेरणा देती रहती है। उनको प्रीत नामका एक ही छोटा सा पुत्र है । अपनी उम्र छोटी होते हुए भी वे अपने पति को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने के लिए अक्सर प्रेरणा देती है । वे अत्यंत भवभीरू और पापभीरू है। कच्छ में ७२ जिनालय की प्रतिष्ठा के प्रसंग पर उन्होंने अठुम तप किया था तब प्रभावना के रूप में मिली हुई 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग - १ किताब में दिये हुए दृष्टांतों को पढकर उन्होंने कहा कि "महाराज साहब! मेरी भी स्थिति कुछ अंश में ऐसी है । अगर मुझे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ १३७ बचपन से ही जैन धर्म मिला होता तो मैं शादी ही नहीं करती, किन्तु अवश्य दीक्षा अंगीकार कर लेती, जिससे पापों से तो बच सकती" इतना बोलते हुए उनकी आंखोमें से अश्रुधारा बहने लगी । कैसी भवभीरुता और पापभीरुता। वे हररोज जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन अचूक करती है । व्याख्यान श्रवण का योग होने पर व्याख्यान श्रवण करती है । चातुर्मास के दौरान जो भी तप जप आदि सामूहिक आराधनाएँ होती है उनमें वे अवश्य शामिल होती है। नवपदजी की ५ ओलियाँ की हैं । एक ओली केवल मुंग की दाल से की थी। प.पू. आ. भ. श्रीविजय रत्नसुंदरसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा लिखित लक्ष्मणरेखा किताब की परीक्षा भी उन्होंने दी थी । हमेशा उबाला हुआ अचित्त जल ही पीती है । वर्षीतप करने की भावना है। हरेक मिष्टान्न का त्यागहै। पानी केवल भोजन के समय ही लेती है। तीन प्रकार के फल सिवाय बाकी सभी फलों का भी त्याग है । करीब ४ साल से अजपाजप चालु है । अनेक प्रकार के दिव्य अनुभव होते हैं। बचपन से ही रेखाबहन के दिल में भावना होती थी कि प्रहलाद और ध्रुवको छोटी उम्र में भगवान के दर्शन हुए तो मुझे क्यों नहीं होंगे ? मैं भी जंगल में जाकर तप करुंगी । मुझे भी कोई संत महात्मा मिल जायेंगे तो उन्हें गुरु बनाउँगी । लेकिन जब से कुछ समझ आयी तब से दिलमें होता था कि मेरे गुरु तो संसार त्यागी ही होने चाहिए, भोगी नहीं। आखिर शादी के बाद मुझे जैन धर्म की प्राप्ति हुई, सच्चे देव गुरु धर्म मिले और जीवन धन्य हो गया । एक बार उन्होंने व्याख्यान में सुना कि 'समेत शिखरजी तीर्थ की चन्द्रप्रभस्वामी की ढूंक से, प्रातः सूर्योदय समय अगर वातावरण स्वच्छ होता है तो अष्टापदजी तीर्थ का दर्शन हो सकता है' और उसी रातको स्वप्न में उनको चन्द्रप्रभस्वामी के दर्शन हुए । तभी से प्रभुजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति एवं संवेग-निर्वेद के भावों में अत्यंत अभिवृद्धि हुई है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ अपने छोटे से सुपुत्र में भी उन्होंने ऐसे अच्छे संस्कार डाले हैं कि वह भी साधु बनने के मनोरथ करता है । रेखाबहन की छोटी बहन को भी दीक्षा लेने की भावना है । उनके ऐसे उत्तम मनोरथ पंच परमेष्टी भगवंतों के अनुग्रह से शीघ्र परिपूर्ण हो यही शुभ भावना । रेखाबहन भी शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोह में उपस्थित हुई थीं। उनकी तस्वीर पेज नं. 17 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : रेखाबहन हरेशकुमार चंपकलाल महेता, बी-१७९ अपना नगर 'अश्विन स्मृति' मु.पो. गांधीधाम कच्छ (गुजरात) पीन ३७०२०१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्नावसुधिर ( भाग दूसरा 8 s 888888880sa उत्कृष्ट आराधक वर्तमानकालीन श्रावक-श्राविकाओं के दृष्टांत Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० — बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ( प्रस्तावना एवं स्तवना । प्रस्तावक : गच्छाधिपति पू.आ.श्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य मुनि जयदर्शन वि. म. ‘णमो तिथ्थस्स' कहकर बादमें ही तीर्थंकर प्रभु द्वारा चतुर्विध संघ को उद्बोधन प्रवचन-देशना भले ही हमें आश्चर्य प्रदान करे, किन्तु यह तथ्य स्वयं परमात्मा भी जानते हैं कि, जगन्नाथ के संप्राप्त पद के पूर्व भवों में वे भी वैसे ही कोई संघ के सदस्य ही थे और उसी संघ के सान्निध्य से साधना की । शक्ति-प्रेरणादि संप्राप्त कर आज संघ-पति से भी सर्वश्रेष्ठ तीर्थपति की उपमा प्राप्त की है। इसलिये तो शास्त्र भी अपेक्षा से यह सत्य स्वीकार कर प्ररूपित करता है कि - - "गुरु पूजात् संघ पूजा गरीयसी" । यह बात हुई संघ के माहात्म्य की । किन्तु उस संघ के चार स्तंभ में दो PILLARS तो श्रावक-श्राविका हैं । तीर्थंकर श्री संघ की स्थापना करते जरूर हैं, किन्तु यही चतुर्विध संघ की सुद्रढ व्यवस्था एक सनातन व्यवस्था ही है, इसलिए तो नंदीसूत्र आगम में संघ को अनुपम उपमा दी गयी है । सर्वज्ञ सत्ता यह जानती है कि, मोक्ष रूपी चतुर्थ पुरुषार्थ मुनिवरों की दिनचर्या हो सकती है, पर वैसे श्रावक-श्राविका जिनके मन में निर्वेद संवेग है, संसार की असारता का गहरा ज्ञान है, परन्तु चारित्र प्राप्तिमें कर्मसत्ता रुकावट ला रही है वैसा आगारी भी अणगार की भावचर्या का प्रतिस्पर्धी बन जाता हो तो ज्ञानी की द्रष्टि में आश्चर्य नहीं । परमात्मा आदिनाथ की छह लारव पूर्व की उम्र हुई तब भरतचक्री का जन्म हुआ, और जब ७७ लारव पूर्व व्यतीत हुए तब प्रभु आदिनाथने ८३ लारव पूर्व की आयु में दीक्षा ली, तब तक भरतचक्री कुमारावस्था में रहे थे । उसके पश्चात् लाख पूर्व चक्री बने रहे । विरति के भाव किन्तु आचरण में शून्यता थी। फिर भी अनित्य भावना से ही गृहस्थावस्था में भी आदर्श भुवन में कैवल्य प्राप्त हुआ । गृहस्थावस्था की श्रावक भूमिका में ही पृथ्वीचन्द्र को सिंहासन पर, गुणसागर को तो विवाह के वक्त Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४१ हस्तमिलन की क्रिया में, रतिसार कुमार को पत्नी की सजावट करते करते, कूर्मापुत्र को घर में बैठे बैठे, अन्यत्व भावनासे पुण्याढ्य राजा को, जिन दर्शन करते करते, माता मस्देवा को तो हाथी पर बैठे बैठे ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति, एक-एक आश्चर्यप्रद उदाहरण हैं । वैसे ही प्रभु वीर के तीर्थ में उनके विचरण काल में ही श्रेणिक, सुपार्श्व, पोटील, उदायी, द्रढायु, शंख, शतक, श्राविका सुलसा और रेवती ने श्रावक-श्राविका रूप में ही आगामी काल के तीर्थंकर पद प्राप्ति के मूल जिननाम कर्म का बंध किया है । इन नौ भाग्यशाली के अलावा अति धनाढ्य दस श्रावक आनंद, कामदेव, चुलनीपिता, तेतलीपितादिने तो श्रावक धर्म की साधना से ही प्रथम देवलोक को प्राप्त किया है और इसी एकावतार के साथ आगामी भव में ही मोक्ष महल की मुलाकात का सौभाग्य उपार्जित कर दिया है । उससे भी आगे बढकर आगामी चौवीसी के इसी भरत क्षेत्र के २४ तीर्थंकर के जीव श्रेणिक, कार्तिक श्रेष्ठि, नारद, सुनंदा श्राविका, देवकी, सत्यकी विद्याधर, अंबड तापसादि गृहस्थ के जीव ही तो हैं । जिसमें से २१ देवलोक में हैं और ३ नर्क में गये हैं, फिर भी प्रगति के पथ पर परमात्मा के पद को प्राप्त करने वाले हैं। राजा श्रीषेण और रानी अभिनंदिता के जीव ने श्रावक-श्राविका स्वरूपमें ही आराधना करते करते बारहवे भव में तीर्थंकर शांतिनाथ और गणधर चक्रायुध का रूप संप्राप्त किया, जिनके नाम-काम आज भी प्रख्यात हैं। हर कोई तीर्थंकर अपनी प्रथम देशना में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को - लक्षमें लेकर समयोचित विषय पर प्रवचन प्रदान करते हैं । जैसे ऋषभदेव प्रभु की प्रथम देशना यतिधर्म और श्रावक धर्म की ही व्याख्या थी । पद्मप्रभु ने संसार भावना समझाई, सुपार्श्वनाथ ने अन्यत्व भावना बतलाई, जब कि प्रभु वीर की प्रथम देशना में श्रावक और श्रमण धर्म की व्याख्या प्रधान थी । यही साबित करता है कि, धर्म पुरुषार्थ प्रधानतया श्रमण Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बनकर और गौणतया श्रमणोपासक बनकर किया जाता है । किन्तु श्रावकावस्था की साधना करने वाला श्रावक शास्त्रविहित भावश्रावक होना जरूरी है, तभी ही वह परमात्मा के शासन का धर्मोपासक गिना जाता है, सिर्फ अज्ञानमूलक बाह्य क्रिया कलापों से नहीं । 'छ: री' पालित संघ की मर्यादा में एक "री" सम्यकत्वधारी की है । अर्थात् जैन श्रावक कमसे कम चतुर्थ गुणस्थानकवर्ती तो होना ही चाहिये, उसके बाद ही १२ अणुव्रतधारी श्रावक बनकर पाँचवें गुणस्थानक को स्पर्श कर सकता है। इस पुस्तक में प्रस्तुत अनेक उदाहरण पूर्वकालीन श्रावक श्राविकाओं की याद दिलाकर आज भी परमात्मा का शासन कैसा ज्वलंत है उसकी प्रतीति कराते हैं । पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. के साथ इस पुस्तक के गुजराती प्रकाशन के पूर्व कोई परिचय भी नहीं था, किन्तु सिर्फ गुणानुराग से स्वयं की जिज्ञासा हेतु परिचय किया, जिसके फल स्वरूप गुजराती प्रकाशन में चारों भाग की प्रस्तावना लिखने का लाभ दिया, और यह प्रस्तावना भी उन्हींके खास आग्रह और प्रेरणा से सर्व जनहिताय लिखने का मौका मिला है । आज संयमावस्था में रहते हुए भी कुछ उत्तम आराधकात्मा श्रावक-श्राविकाओं का परिचय है, जिन्हें देखकर और जिनकी आराधना जानकर स्वयं का संयमोल्लास बढ़ जाता है । अपने अपने स्थान पर की हुई सच्ची आराधना ही जीव की प्रगति का लक्षण है । वैसा सच्चा श्रावक परमात्मा के शासन की शोभा है, कोई तो अल्पावतारी बनकर मोक्ष मंज़िल को भी स्पर्श ले तो आश्चर्य क्या ? राजा कुमारपाल आजीवन श्रावकावस्था में ही रहे, किन्तु धर्म प्राप्ति के बाद आत्मशुद्धि के हेतु जरा भी वीर्य छिपाया नहीं है । मन के पाप को उपवास से, वचन दोष को आयंबिल से और काया की अप्रशस्तता का प्रायश्चित्त करने के लिए एकाशन का अभिग्रह किया । अनेक प्रकार की शासन प्रभावना करके आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर के प्रथम गणधर बनने का सौभाग्य भी उपार्जित कर लिया है न ? वैसे ही बीस-स्थानक तप की आराधना करके जैसे नंदनऋषि ने Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४३ तीर्थंकर नाम कर्म को निकाचित किया था, उसी प्रकार 'संयम कब ही मिले' की प्रशस्त भावना से राजा महेन्द्रपाल ने, गृहस्थ फिर भी ब्रह्मचर्य प्रेम से चंद्रवर्मा राजाने, ज्ञान योग से जयंत राजाने, चारित्रपद की उपबृंहणा से अरूणदेवने, तप धर्म की आराधना से कनककेतु राजवी ने, श्रावक अवस्था से ही तो तीर्थंकर नाम-कर्म उपार्जित कर लिया है । वैसे ही अन्य सभी पदों की आराधना करने वाले श्रावक-राजा द्वारा तीर्थपति बनने का सौभाग्य शास्त्रों में देखने मिलता है। ऐसे श्रावक कृतव्रतकर्मादि ६ लक्षण युक्त, अक्षुद्रतादि २१ गुण युक्त, छह कर्तव्यों के पालन कर्ता, या फिर "मन्ह जिणाणं " में दिखाये ३६ कर्तव्य के अनुगामी और १२ व्रतधारी होते हैं । तथा प्रकार के कर्मों से संयम ग्रहण करने में भाग्य का साथ नहीं होता फिर भी संयमी के प्रति उच्च आदर द्वारा श्रमणोपासक का नाम सार्थक करते हैं । लोगस्स, उवसग्गहरं, जयवीयरायादि सूत्रों से प्रार्थित बोधिलाभ उनको फलता है, फूलता है और वैसी श्रेष्ठ श्रावकधर्मसाधना की नींव जिन जिन आराधनाओं के माध्यम से पड़ती है, वैसी आराधनाओं के दृष्टांत इस पुस्तक के कुछ उदाहरण बन भी सकते हैं । इस प्रसंग पर सार्मिकभक्तिप्रेमी पुणिया श्रावक, भावविभोर जीरण सेठ, श्रद्धा संपन्ना सुलसा, साधुदानप्रेमी अनुपमा देवी जैसे श्रावक-श्राविकाओं को याद कर लें जो कि प्राचीन अर्वाचीन, काल की ही तो उपज हैं । गुरु म.सा. के काल-धर्म के शोक में १२-१२ साल तक अन्नाहार का त्याग करने वाला भीम श्रावक, मौन-साधना का साधक सुव्रतसेठ, सदाचारप्रेमी सुदर्शन श्रेष्ठी, तीर्थस्थापक धन्ना पोरवाल आदि अनेक श्रावकोत्तमों से जिनशासन शोभित है। _ 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्' की सत्योक्ति को सार्थक करने के लिए मानो ऐसे श्रावकों ने देव-गुरु-धर्म को अपना जीवन न्योछावर कर दिया। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ "धन्य धन्य अरिहंतों को, दिखाया जिन्होंने श्रावक धर्म । धर्म परिणत ऐसे जैन ने पा लिया है जीवन का मर्म ॥ तलप रख संयम की, जो जीते हैं जीवन आदर्श । वैसे श्रमणोपासक के दर्शन से, क्यों न होवे हमें प्रहर्ष ?" पू. गणिवर्य म.सा. ने ऐसे धर्मानुरागी अजैन-जैन और व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं का बहुमान करने की प्रेरणा की । फल स्वरूप में वि.सं. २०५४ में श्री शंखेश्वर तीर्थ में श्रीयुत् श्रेणिकभाई कस्तुरभाई आदि अनेक महानुभावों की उपस्थिति में जाहिर सन्मान और प्रभावना-बहुमान का भव्य कार्यक्रम आयोजित हुआ था । . 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः' के नीति वाक्य को खयाल में लेकर इस प्रस्तावना द्वारा उन सभी गुणीजनों के प्रति भावना अभिव्यक्त करता हूँ कि "उदयो भवतु सर्वेषाम्" . गुणसम्पन्नों की अनुमोदना समकिताचार है, अनुपबृंहणा अतिचार HENCE LET ALL BE HAPPY BY COMING ACROSS THE IDEAL ACHIEVEMENTS OF IDEAL PEOPLE, WHICH IS THE UT MOST PURPOSE AND EXPECTATION OF THIS HINDI PUBLICATION BY GANIVARYASREE. आत्म प्रशंसा और परनिंदा के अप्रशस्त अध्यवसायों से बचकर तथा अनुमोदना द्वारा करण-करावण से भी तुल्य लाभार्जन हेतु प्रस्तुत पुस्तक का अध्ययन और आशातना वर्जन आवश्यक जरूर लगता है । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४५ १० वर्ष के सह-जीवन के बाद भी आबाल ८७ ब्रह्मचारी मुमुक्ष दंपती भारतीवहन/ जतीनभाई शाह का अति अदभुत रोमहर्षक जीवन वृत्तांत । विवाह की प्रथम रात्रि से लेकर आजीवन अखंड बाल ब्रह्मचारी, कच्छ-भद्रावती नगरी के सुप्रसिद्ध दंपती विजय सेठ और विजया सेठानी के दृष्टांतमें अगर किसीको काल्पनिकता या असंभवितता लगती हो, तो उन्हें वर्तमान कालमें विद्यमान आबाल ब्रह्मचारी दंपती भारतीबहन और जतीनभाई शाह का यह रोमहर्षक द्रष्टांत खास मननपूर्वक पढकर अपनी मान्यतामें सुधार करना चाहिए । मूलतः कच्छ-मुन्द्रा के निवासी जतीनभाई शांतिलाल शाह का जन्म मद्रासमें हुआ था । १५ वर्षकी "टीन एइज" में ही पूर्वके पुण्यानुबंधी पुण्यका उदय हुआ और उनको वर्धमान तपोनिधि प. पू. आचार्य भगवंतश्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. (उस वक्त गणिवर्य श्री) का सत्संग संप्राप्त हुआ; और वह सत्संग ही उनके जीवन परिवर्तन का बीज बन गया । आइए, हम उस पुण्य प्रसंग का कुछ विस्तार से आस्वाद लें। बाल्यवयमें से किशोर अवस्थामें प्रविष्ट हुआ जतीन, परम पावन तीर्थभूमि श्री समेतशिखरजी के समीपवर्ती झरिया गांवमें रहता था । उस वक्त वह केवल जन्म से ही श्रावक था । जिनशासन की शोभा बढ़ानेवाले मुनिवरों के निर्मल जीवन से वह बिल्कुल अपरिचित था । घर के पासमें . ही रहा हुआ जिनमन्दिर तो उसके लिए क्रीडांगन ही था, न कि आराधना का आस्थान ! ऐसी मनोदशावाले जतीनकुमार के पुण्योदय से वर्धमान तपोनिधि परम पूज्य गणिवर्य श्री भानुविजयजी म. सा. झरिया गाँवमें पधारे । सर्व प्रथम बार जतीनकुमार ने बुद्धिपूर्वक साधु पुरुष के दर्शन किए और उसे लगा कि ऐसे मुनिवरों को पूर्व में कहीं देखा जरूर हैं । ___ पहचान नहीं होते हुए भी जतीन को पूज्यश्री के प्रति पूर्व जन्मके बहुरत्ना वसुंधरा - २-10 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ अदृश्य ऋणानुबंधवशात् अदम्य आकर्षण उत्पन्न हुआ । जब वे किसी श्रावक के घर जा रहे थे तब भद्रिक भाव से उसने जिज्ञासापूर्वक पूछ लिया 'आपश्री को दीक्षा लिए कितने साल हुए हैं ?" 'छोटे मुँह, बडी बात' जैसा लगने से सहवर्ती मित्रने जतीन को रोकते हुए कहा 'दोस्त ! महाराज साहब को ऐसे प्रश्न नहीं करने चाहिए' । इतने में तो पूज्यश्रीने वात्सल्य सभर स्वरमें कहा 'अच्छा प्रश्न किया है तूने, ऐसे प्रश्न खुशी से पूछ सकते हो, लेकिन मैं तेरे प्रश्न का जवाब दूँ तो तुम भी दीक्षा लोगे न ?' - अपने प्रश्न के प्रत्युत्तरमें अचानक ऐसा प्रतिप्रश्न होने की जतीन को कल्पना न थी । गुरु महाराज के युक्ति - युक्त प्रत्युत्तर से उसकी लघुता ग्रंथी तो दूर हो गयी; लेकिन उनके प्रश्नका जवाब देने के लिए उसकी जिहवा मानो स्तब्ध हो गयी । मनमें मौन व्याप्त हो गया । गुरुजीने बात को सम्हालते हुए कहा 'कोई हर्ज नहीं, तुझे दीक्षा लेनी होगी तो देंगे, लेकिन उसके लिए तेरे प्रश्न का जवाब नहीं रुकेगा ।'... बादमें उन्होंने अपना दीक्षा पर्याय बताया और प्रेमपूर्वक जतीनकी पीठ थपथपाकर आशीर्वाद दिये। जतीन भी गुरुदेव के अद्भुत गुरुत्वाकर्षणमें खींचता गया । करीब १० - १२ दिन की स्थिरतामें पूज्यश्रीने दिनको प्रवचन एवं रातको भी पुरुषों के लिए रात्रि सत्संग रखा । खास कर के बच्चों में धर्म संस्कारों का सींचन करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयत्न किये। जतीनकुमारने पूज्यश्री के प्रवचन आदिका लाभ लिया । छोटी उम्र के कारण गुरुदेवश्री की वाणी का हार्द सूक्ष्म रूपसे या गहराई से समझने की उसकी क्षमता नहीं थी मगर स्थूल बुद्धि से जितना भी संभव था उतना उसने ग्रहण किया । मोहाधीन जतीन के माँ-बाप को यह बात पसंद न थी । कहीं अपना बेटा म.सा. के साथ जाने की जिद न कर बैठे ऐसी कल्पना से उन्होंने जतीन को गुरुदेव के बिदाई समारोहमें जानेका मौका भी नहीं दिया ।... इस प्रकार से जतीन के बाल मानसमें धर्म के बीज का वपन हो गया । बादमें उपरोक्त पूज्यश्री के प्रशिष्य तपस्वी रत्न प.पू. पंन्यास प्रवर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४७ (उस वक्त मुनिवर), श्री जयसोमविजयजी म.सा. का झरियामें चातुर्मास हुआ, तब उन्होंने उस बीज को अंकुरित करने के लिए जिनवाणी रूपी पानी का सिंचन किया। इतना ही नहीं, चातुर्मास के बाद लगातार बीस साल तक प्रेरणा पत्रों के माध्यम से भी जल सिंचन करते रहे !!!... उपरोक्त प्रथम सत्संग के बाद माता-पिता के आग्रहवशात् जतीन को सांसारिक अभ्यासमें अपने मनको जोड़ना पड़ा, लेकिन जब जब वे महापुरुष उनको याद आते तब उनका प्रश्न - 'तेरे प्रश्न का मैं जवाब दूं तो तुम भी दीक्षा लोगे न ?' याद आने लगा । उस प्रश्न का जवाब भले उस वक्त वह दे न सका था, मगर जवाब देना ही चाहिए ऐसा कर्तव्य भान उसे अब धीरे धीरे होने लगा । और आखिर एक दिन उस प्रश्न का जवाब वह तैयार कर पाया तब उसका आकार कुछ ऐसा था कि - 'हाँ, मैं भी दीक्षा लुगा !' फिर भी न तो वह उस जवाब को अपनी जिह्वा द्वारा अभिव्यक्त कर पाया और न उस आकार को साकार कर सका। क्योंकि उतनी तैयारी जब तक हो सकी तब युवावस्था का प्रारंभ हो गया था । मूंछ के साथ साथ मोह के धागे भी फूट निकले थे। .Com. तक का व्यावहारिक ज्ञान पाने के लिए कोलेजमें वह जाने लगा और साथ साथ व्यावसायिक ज्ञान प्राप्ति के लिए दुकान भी जाने लगा। इस तरह व्यावहारिक और व्यावसायिक ज्ञानरूपी दो पंख आने से वह लालसा के वायु से तृष्णा के गगन में उड्डयन कर रहा था । मगर सद्भाग्य से उसके जीवन रूपी पतंग का धागा उसके वर्तमान गुरुदेव प.पू. पंन्यास प्रवर श्री जयसोमविजयजी म.सा.ने प्रेरणापत्रों के माध्यम से सम्हाल लिया था । इसी के कारण ही जब उसका तन अधिक-अधिकतर अर्थोपार्जन के लिए व्यावसायिक प्रवृत्तियों के प्रति दौड़ रहा था तब भी उसके मनमें संयम जीवन के प्रति आकर्षण हमेशा बना रहता था । भाई-बहनों में सबसे जयेष्ठ होने के कारण जतीन के ऊपर जिम्मेदारी का भार जल्दी आ गया था, फिर भी किशोर वयमें बोये हुए धर्म के बीजमें से अब श्रेष्ठ मनोरथ के फूल भी खिलने लगे थे । इसीलिए तो जीवन की किसी धन्य क्षणमें जतीनकुमारने पूज्यपाद Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आचार्य भगवंत विजय विक्रमसूरीश्वरजी म.सा. की पावन प्रेरणा के अनुसार २२ वर्ष की युवावस्थामें पाँच वर्ष के लिए ब्रह्मचर्यका व्रत अंगीकार कर लिया था !... पानी से पहले पाली' की तरह इसी प्रतिज्ञाने जतीनकुमार को मुनिजीवन की संप्राप्ति के लिए विशिष्ट बल प्रदान किया है । इस बात का विचार करने से पच्चक्खाण आवश्यक के उपदेशक श्रीअरिहंत परमात्मा और उनके शासन के प्रति मस्तक अहोभाव से अवनत हुए बिना रह नहीं सकता है। आबाल ब्रह्मचारी जतीनभाई के मातृश्री कंचनबहन को किडनी की बीमारी के कारण संपूर्ण शरीरमें सूजन आ गयी थी । गृहकार्यमें तकलीफ पड़ती थी । इसीलिए वे जतीनकुमार की शीघ्र शादी करवाकर पुत्रवधूको गृहभार सौंपना चाहते थे । दूसरी ओर सत्संगकी फलश्रुति के रूपमें जतीनभाई का अंत:करण किसी भी हालत में संसार के बंधनों में फंसने के लिए तैयार नहीं था । वह तो संयम के सुन्दर स्वप्नोंमें उड्डयन कर रहा था । इसी कारण से सगाई के लिए अनेक कन्याओं के माँ-बापों की याचनाको उसने इनकार कर दिया था । वह तो सिद्धिवधू के साथ शाश्वत संबंध करानेवाले सर्व विरति धर्मका स्वीकार करने के लिए उत्कंठित रहा करता था । - फिर भी जब तक संयम का स्वीकार न हो सके तब तक पिताजी के आग्रह से और व्यावहारिक दायित्व की दृष्टि से भी "ओडिटिंग और स्टेटेस्टिक" के साथे B.Com. तक के अभ्यास के बाद सफारी स्यूटकेस कंपनी के अजन्ट के रूपमें जतीनभाईको शामिल होना पड़ा और आगे जाकर उसी कंपनीमें Internal Audit Section के Manager Audit के महत्त्व के पदके ऊपर वे आरूढ हुए । व्यावसायिक दायित्वको निभाने के लिए अब उन्हें पूरे भारतमें हवाई जहाज से जाना पड़ता था । २५० जितने कर्मचारियों को सम्हालने की जिम्मेदारी उन पर थी । उस वक्त वे रहने के लिए बेंग्लोरमें आ गये थे। अर्थोपार्जन के लिए बार बार हवाई जहाजमें उड्डयन करने से Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४९ वैराग्य की ज्योत बुझने नहीं पाये किन्तु देदीप्यमान बनी रहे उसके लिए व्यवसाय के निमित्त से होनेवाली हवाई जहाज की यात्रा के दौरान भी विविध जैन तीर्थों की यात्रासे आत्मा को पावन बनाने की सन्मति भी सत्संग के प्रभाव से उनको मिलती रही । इसीलिए जीवन में कुल २०२ बार की हुई हवाई जहाज से यात्रा के दौरान भारतभर के २५० से भी अधिक तीर्थों की अनेक बार यात्रा करने का और २० तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि श्रीसमेतशिखरजी महातीर्थकी ३६ बार यात्रा करने का दुर्लभ लाभ भी उन्होंने लिया । इसके अलावा झरिया-मद्रास और बेंग्लोर की धार्मिक पाठशालाओंमें तथा पूज्य साधु भगवंतों से जो पंच प्रतिक्रमण, चार कर्मग्रंथ (सार्थ), वैराग्यशतक, ज्ञानसार, शांत सुधारस, उपमिति-भव-प्रपंचा कथा इत्यादिका अभ्यास किया था वह विस्मृत न हो जाय इसलिए बेंग्लोरकी धार्मिक पाठशालामें सम्यक् ज्ञानदानकी प्रवृत्ति चालु रखी थी और ज्ञानभंडारकी स्थापना भी उन्होंने की थी । उस ज्ञानभंडार की व्यवस्थामें सहायक के रूपमें किसी योग्य लड़केकी नियुक्ति के लिए जतीनभाई ने संघ के कार्यकर्ताओं के पास विज्ञप्ति की ! लेकिन संयोगवशात् ऐसे सुयोग्य लड़केकी नियुक्ति शक्य नहीं होने से आखिरमें कार्यकर्ताओंने भारतीबहन लक्ष्मीचंद्र संघवी (उ. व. १६) (Inter Arts) नाम की कन्या की नियुक्ति कर दी, जो जतीनभाई को निरुपायता से मान्य रखनी पड़ी। भारतीबहन मूलतः गुजरातमें भावनगर जिले के वड़ीया गाँव (शिहोर के पास) के निवासी थे, मगर उस वक्त बेंग्लोर की पाठशाला में पढते थे । ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा का अणिशुद्धता से पालन करने के लिए जतीनभाई सजग थे, इसलिए ज्ञानभंडार की व्यवस्था के लिए भी दोनों का समय अलग अलग ही रखा था, फिर भी क्वचित् किताबों के सूचीपत्र आदि निमित्त से परस्पर बातचीत करने का प्रसंग उपस्थित होता था । धीरे धीरे यह बात जतीनभाई के मातृश्री के कानों तक किसी के द्वारा पहुँच गयी । उन्होंने आनंदित होकर भारतीबहन के माँ-बाप के समक्ष Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ भारतीबहन को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा । उन्होंने भी तुरंत सहर्ष संमति दे दी । उसके बाद मातृश्री कंचनबहनने जतीनभाई के पास इस संबंध का स्वीकार करने के लिए आग्रहपूर्ण निवेदन किया । इससे पूर्व जतीनभाई अनेक कन्याओं के माँ-बाप की ओर से किये गये सगाई के प्रस्ताव को इन्कार कर चुके थे । इसलिए 'अब कब तक मातृश्री की विज्ञप्ति का इन्कार करता रहूँ' ऐसी विचारणा और दूसरी और पाँच वर्ष के लिए ली हुई ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा होने से हाँ या ना कहने के लिए असमर्थ होने से मौन रहे । उनके मौन को संमति समझकर मातृश्री ने शीघ्र सगाई के लिए तैयारी करने का प्रारंभ कर दिया । अब परिस्थिति की गंभीरता को समझकर जतीनभाईने भारती बहनको इस हकीकत से अवगत करवाया और उसका अभिप्राय जानने के लिए कोशिष की । टी. वी. के उपर सप्ताह में दो चलचित्र देखनेवाली भारतीबहन को दीक्षा लेने की कल्पना भी नहीं थी । इसलिए उन्होंने इस बात में सहर्ष संमति व्यक्त कर दी । जतीनभाई को ५ साल तक ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा पूरी होनेमें २॥ साल बाकी थे । उन्होंने भारतीबहनको इस हकीकत से भी अवगत कराया और संयम स्वीकारने के अपने मनोरथ की बात भी कही । तब कुलीन आर्य कन्या भारती बहनने प्रत्युत्तरमें कहा कि - "जब आपका संयम स्वीकारने का निर्णय एकदम पक्का हो जायेगा तब अगर मेरे दिलमें भी दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हो जायेगी तो मैं भी आपके साथ दीक्षा का स्वीकार करूंगी और अगर ऐसे परिणाम जाग्रत नहीं होंगे तो भी मैं आपको दीक्षा लेनेमें अंतराय रूप नहीं ही बनूँगी !!!" .... और आखिर वे दोनों सगाई के बंधन से जुड़ गये; लेकिन अभी शादी होने के लिए कुछ महिनों का व्यवधान था । एक दिन जतीनभाई ने अपनी सहधर्मचारिणी से पूछा कि - '५ साल तक ब्रह्मचर्य पालन की अवधि पूरी होने के बाद अगर कुछ समय के लिए प्रतिज्ञा की अवधि को लंबाया जाय अर्थात् पुनः २-४ साल के लिए प्रतिज्ञा को आगे बढाउँ तो तेरी संमति होगी न !... तब भारती बहनके मुँह से सहसा उद्गार निकले - 'इस तरह Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १५१ मर्यादित समय के लिए बार बार व्रत लेने से अच्छा होगा कि हम हमेशा के लिए ही एक साथ व्रत का स्वीकार कर लें !.' जतीनभाई के लिए तो यह बात 'भाता था और वैद्यने बताया' इस कहावत जैसी होने से उन्हों ने इस बात के लिए सहर्ष तैयारी दिखलायी और भारतीबहनने भी इसमें अनुमोदना का सुर मिलाया। परिणामतः दोनोंने सगाई से नव महिने के बाद और शादी से ३ महिने पहले गुजरात में वापी शहर के पास वाघलधरा गाँवमें श्री संभवनाथ भगवान के समक्ष परमोपकारी पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्री भुवनभानुसूरीश्वरीजी म.सा. के श्रीमुख से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया । व्रत ग्रहण के समय पू. गणिवर्यश्री जयघोषविजयजी म.सा. (हाल गच्छाधिपति आचार्यश्री) की वहाँ उपस्थिति होने से उनके साथ ज्ञानचर्चा द्वारा सुंदर मार्गदर्शन प्राप्त किया । इस घटना के तीन महिने बाद जब व्यावहारिक दृष्टि से दोनों की शादी हुई, तब शादी के बाद तुरंत ही वे गिरनारजी महातीर्थ की यात्रा करने के लिए गये । वहाँ आबाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान के समक्ष सुविशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन के लिए शक्ति प्रदान करने की हार्दिक पार्थना की। शुद्ध अंतःकरण से की हुई इस प्रार्थना के प्रभाव से ही लग्न के बाद १० साल तक साथमें रहते हुए भी दोनों भाई-बहन की तरह निर्मल जीवन जी सके । सचमुच प्रभु कृपा और गुरु कृपा का प्रभाव अचिंत्य ही है। दोनों के माता-पिता इस दंपती के व्रत ग्रहण की बात से अनभिज्ञ थे; क्योंकि व्रत लेने से पहले अगर उन्हें खबर दी जाय तो वे इस स्थितिमें व्रत ग्रहण के लिए अनुमति कभी नहीं दे सकते और व्रत ग्रहण के बाद भी अगर उन्हें खबर दी जाय तो भी जोरदार आघात लगने की संभावना थी। इसलिए शादी के बाद माता-पिता को व्रत ग्रहण की बात मालुम न होवे इस हेतु से दोनों को एक ही शयन खंडमें सोना पड़ता था । फिर भी व्रत रक्षा के लिए वे T आकार की पृथक् पृथक् शय्या पर शयन करते थे । जतीनभाई को कभी कभी व्रत पालन करने के लिए मानसिक पुरुषार्थ करना पड़ता था, मगर भारतीबहन के लिए तो व्रत पालन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बिल्कुल साहजिक - नैसर्गिक था !॥... दश वर्ष के सहजीवनमें कभी भी उनकी ओर से व्रत विरुद्ध सहज भी बातचीत या चेष्टा नहीं हुई । अध्यवसायों की निर्मलता के लिए दोनों एक दूसरे को भाई-बहन के रूपमें ही संबोधन करते थे !!!... इस तरह देव-गुरु कृपा से निर्मल व्रत पालन करते हुए दश साल बीत गये । इसके दौरान दोनोंने भारतभर के करीब १७५ से अधिक तीर्थों की अनेक बार यात्रा की और पंच प्रतिक्रमण, चार कर्मग्रंथ (सार्थ), ज्ञानसार, शांत सुधारस, उपमिति-भव-प्रपंचा कथा आदि का अध्ययन भारतीबहनने भी कर लिया । उनकी शादी के करीब डेढ साल के बाद जतीनभाई के मातृश्री का स्वर्गवास हो गया, तब तक भारतीबहनने उनकी बेजोड़ सेवा की । मातृश्री के स्वर्गगमन के ८॥ साल बाद जतीनभाई के छोटे भाई अमित की शादी हुई तब तक दोनों को संसारमें रहना पड़ा। अब मानो दोनों के चारित्र मोहनीय कर्म का उदयकाल पूरा हो रहा था, इसीलिए उनके परमोपकारी पूज्यपाद आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास सं. २०४६ में कोईम्बतुर हुआ, उससे पहेले वे बेंग्लोर पधारे । संयम प्राप्ति की भावना होते हुए भी संयम की उपलब्धि शत प्रतिशत शंकास्पद थी, ऐसे विषम समयमें आचार्य भगवंतश्रीने सामने से जतीनभाई का संपर्क किया और जतीनभाई के दीक्षा-गुरु पू. जयसोमविजयजी म.सा. के माध्यम से उस संपर्क-सांनिध्य को दृढ बनाते गये । समय समय पर हितशिक्षा के द्वारा संयम मार्ग में आगे बढने के लिए प्रेरणा भी देते रहे । इसलिए जतीनभाई उनके मार्गदर्शन के मुताबिक दीक्षाकी तैयारी करने लगे । उन महापुरुषकी अमीदृष्टि से प्रतिकूलताएँ भी अनुकूलतामें परिवर्तित होने लगीं । पहले दीक्षा देने के लिए असहमत ऐसे पिताजी भी अब संमत हो गये । छोटे भाई अमितने गृहस्थ जीवनका भार सम्हाल लिया । और सबसे अधिक अनुकूलता तो यह हुई कि भारतीबहन - जो पापभीरु के साथ साथ संयमभीरु भी थी, उसने भी अपने पतिदेव के कदमों पर चलने का निर्णय कर लिया। उनके मातृहृदया गुरुणी विदुषी Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १५३ साध्वी श्री वसंतप्रभाश्रीजी (वैराग्यदेशनादक्ष प.पू. आ.भ. श्री विजय हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की बहन म. सा.) भी १६ साध्वीजीयों के परिवार के साथ गुजरात से विहार करके बेंगलोर पधारे । पूज्यश्रीने दीक्षा के लिए वि.सं. २०४७ में फाल्गुन कृष्णा तृतीया, रविवार दि. ३-३-९१ का शुभ मुहूर्त प्रदान किया । दीक्षा की जाहिरात होते ही जगह जगह से अनुमोदना के साथ साथ बहुमान के लिए आग्रहपूर्ण निमंत्रण मिलने लगे । विजयवाड़ा, इरोड़, अहमदाबाद, मद्रास एवं मुम्बई में मलाड़, इर्ला, भायखला, गोड़ीजी, गोवालिया टेंक इत्यादि में शासनप्रभावक पूज्योंकी निश्रामें अनुमोदना बहुमान के कार्यक्रम आयोजित हुए। जिनमें २५० से अधिक दंपतिओंने संपूर्ण या आंशिक ब्रह्मचर्य व्रतका स्वीकार किया । बेंग्लोरमें करीब १२५ जितने दंपतिओंने भावोल्लास के साथ संपूर्ण या आंशिक रूप से ब्रह्मचर्य व्रतका स्वीकार करके उनको अपने घरमें भोजन करवाया था । सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजीकी प्रेरणा से २०० से अधिक भावुकोंने ५ या १० सालमें नवलाख नवकार महामंत्रका जप करने की प्रतिज्ञा ली !... और भी कई लोगोंने इस निमित्त से विविध अभिग्रह धारण किये थे । सुवर्ण में सुगंध की तरह अहमदाबाद के तीन श्रद्धा संपन्न, वयस्क, १२ व्रतधारी सुश्रावकोंकी दीक्षा का आयोजन भी उन्हीं के साथ बेंग्लोर में जिन्होंने हुआ । (१) दीपकला साड़ी सेन्टरवाले दीपकभाई शाह करोड़पति होते हुए भी कई वर्षो से अपने लिए नये कपड़े नहीं सिलाये थे, पाँवमें जूते नहीं पहने थे, और जो अपने बंगले के एक ही कमरे में सामायिक - पौषध और स्वाध्यायमें मस्त रहते थे (२) दूसरे श्री रतिलालभाई शाह ( चाय वाले ) जो कई वर्षों से उपाश्रममें ही सोते थे और पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों की उल्लासपूर्वक भक्तिं करते हुए संयम की भावना भाते थे ( ३ ) तीसरे श्री रसिकभाई कि जो नित्य बियासन तप के साथ कई वर्षों से धार्मिक पाठशाला में मानद सेवा के रूप में ४ प्रकरण, तत्त्वार्थ सूत्र इत्यादि का अध्ययन कराते थे और हररोज खड़े खड़े १०० लोगस्सका कार्योत्सर्ग करते थे । जतीनभाई की दीक्षा की बात सुनकर वे भी दीक्षा ग्रहण करने के लिए तुरंत तैयार हो गये । - Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ....और उपरोक्त शुभ मुहूर्तमें भव्य एकादशाह्निक महोत्सव पूर्वक पांचों की दीक्षा संपन्न हुई, तब इस प्रसंग की अनुमोदना के लिए दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र आदि से पधारे हुए करीब २५ हजार जितनी जनता के समक्ष वर्धमानतपोनिधि प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा.ने उनका निम्नोक्त नूतन नाम जाहिर किया। (१) दीपकभाई - मुनि श्री हर्षघोषविजयजी (२) रतिलालभाई - मुनि श्री रत्नघोषविजयजी (३) रसिकभाई - मुनि श्री रम्यघोषविजयजी इन तीनों के गुरु के रूपमें प.पू.आ.भ. श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. (हाल गच्छाधिपति) का नाम घोषित हुआ । (४) जतीनभाई - मुनि श्री जयदर्शनविजयजी के नाम से पू. गणिवर्य श्री जयसोमविजयजी म.सा. के शिष्य के रूपमें घोषित हुए और (५) भारती बहन सा. श्री भव्यगुणाश्रीजी के नाम से सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी म.सा. की शिष्या के रूपमें घोषित हुए। प्रिय पाठक ! पू. गणिवर्य (हाल पंन्यास) श्री गुणसुंदरविजयजी म.सा. और पू. गणिवर्य श्री भुवनसुंदरविजयजी म.सा. के श्री मुखसे इस दृष्टांतको सुनने के बाद दि. १५-६-९५ के दिन अहमदाबाद में खानपुर जैन संघ के उपाश्रय में उपरोक्त मुनिराज श्री जयदर्शनविजयजी से प्रत्यक्ष भेंट हुई तब उनके पूर्व जीवन के विषय में जो प्रश्नोत्तरी हुई उसका सार अंश यहाँ पर प्रस्तुत किया गया है । कलिकालमें भी ऐसे रोमहर्षक अनुमोदनीय दृष्टांत विद्यमान हैं यह जानकर सहज रूप से ही अंत:करण से उद्गार निकल जाते हैं कि - "बहुरत्ना वसुंधरा" !.... दीक्षा के बाद गुरु भगवंतों की कृपादृष्टि से केवल ८ सालके दीक्षा पर्याय में वर्धमान आयंबिल तप की ४५ ओलियाँ मुनिश्री जयदर्शनविजयजीने कर ली हैं । (दीक्षा से पूर्व १२ ओलियाँ सजोड़े की थीं ।) ३७ वी ओली १९ आयंबिल और १९ उपवास एकांतरित कर के पूर्ण की थीं । २ साल पूर्व पालितानामें चातुर्मास था तब चातुर्मास के बाद तपश्चर्या के साथ साथ ९९ यात्राएँ भी कर लीं । ऐसे उग्र बाह्य तप के साथ साथ हररोज ८-९ घंटे तक कठिन शास्त्र ग्रंथों का स्वाध्याय चालु रहता है । इसके अलावा 'शांति सौरभ', 'धर्मधारा' इत्यादि मासिकों में Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १५५ और ग्रंथों में उनकी सिद्धहस्त लेखनी से आलेखित लेख प्रकाशित होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी प्रस्तावनाओं के पठन द्वारा भी उनकी ज्ञान प्रतिभा और विशिष्ट लेखन शैलीका परिचय वाचकवृंदको हो सकेगा । उनके परम उपकारी गुरुदेव प. पू. पंन्यास प्रवर श्री जयसोमविजयजी म.सा. सुविशुद्ध चारित्राचार के पालक हैं । प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के अंतिम समय में उन्होंने विशिष्ट सेवा की थी । वर्धमान आयंबिल तपकी १०८ ओलियाँ, ३६, ३८, ४०, ४१, ४५, ५५, ६८ उपवास, दो वर्षीतप इत्यादि विशिष्ट तपश्चर्या के कारण प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. ने उनको "तपस्वी रत्न" के अलंकरण से अलंकृत किया था । ऐसे उत्कृष्ट तपस्वी, आराधक गुरुदेव श्री के तप के संस्कार मुनिश्री जयदर्शनविजयजी में अभी से दृष्टिगोचर हो रहे हैं । सा. श्री भव्यगुणाश्रीजी भी दीक्षित जीवनमें २ बार मासक्षमण, सिद्धि तप, ५० अठ्ठम, वर्धमान तपकी १५ ओलियाँ एवँ एक वर्षीतप कर के हाल बीस स्थानक तपकी आराधना कर रहे हैं। उनके गुरुणी सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजीने भी पूर्वावस्थामें (कु. विजया के रूपमें) शादी होने के बाद भी बाल ब्रह्मचारिणी रहकर कैसे अद्भुत पराक्रम से संयम की प्राप्ति और साधना की है उसका रोम हर्षक वर्णन इसी किताबमें श्राविकाओंके दृष्टांत विभागमें पढने योग्य है । प्रस्तुत दृष्टांत में आलेखित सभी संयमी पवित्रात्माओं के आदर्श जीवनमें से प्रेरणा पांकर सभी को सुविशुद्ध संयम पालन का बल प्राप्त हो यही मंगल भावना । ८८ एक ही बार प्रवचन श्रवण से २४ वर्ष की उम्रमें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करनेवाले दंपती दक्षाबहन और दिलीपभाई शाह चारित्र संपन्न वक्ता और श्रद्धा संपन्न श्रोता का सुभग समन्वय होने से कैसा आश्चर्यप्रद परिणाम उत्पन्न हो सकता है यह हम दक्षाबहन के दृष्टांत में देखेंगें । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कच्छ-मुन्द्रा शहर के आठ कोटि मोटी पक्ष स्थानक वासी जैन परिवार में उत्पन्न हुए और कच्छ-मांडवी के वीर सैनिक दिलीपभाई नाम के युवक के साथ विवाहित हुए दक्षाबहन हाल मुंबई के पास डहाणु गाँवमें रहते हैं। वर्तमानमें उनकी उम्र ३९ सालकी है । २१ साल की उम्र में उनकी शादी हुई थी । ३ वर्ष के विवाहितजीवन के दौरान उनको एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई है। उनके पति दिलीपभाई सुप्रसिद्ध युवा-प्रतिबोधक प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.ग. के परम भक्त हैं । दक्षाबहन की उम्र जब २४ साल की थी तब वे एक बार प. पू. चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. का प्रवचन सुनने के लिए गयी थीं । उसी प्रवचनमें पूज्यश्रीने ब्रह्मचर्य की महिमा बताकर, एक ही बार के अब्रह्म सेवनमें २ से ९ लाख जितने गर्भज मनुष्य, असंख्य संमूर्छिम मनुष्य और अगणित बेइन्द्रिय जीवों की हिंसाका कैसा भयंकर पाप लगता है उसका असरकारक शैलीमें वर्णन किया । उसे सुनकर लघुकर्मी दक्षा बहन की आत्मा चौंक उठी और उसी प्रवचन के अंतमें उन्होंने दृढ संकल्प कर लिया कि, 'अब से किसी भी संयोगों में क्षणिक सुखाभास के खातिर ऐसा घोर पाप मुझे नहीं ही करना है !'... __घर आकर उन्होंने अपने शुभ संकल्प की बात पति से कही और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकारने के लिए प्रेरणा की । दिलीपभाई को यह बात पसंद थी, लेकिन उनका मनोबल उतना दृढ नहीं होने से उन्होंने धीरे धीरे अभ्यास करने के लिए प्रस्ताव रखा । परंतु दृढ मनोबली दक्षाबहन अब एक भी बार अब्रह्म के पाप को करने के लिए तैयार नहीं थीं । वे अपने निर्णय में अडिग ही रहीं । कुटुंब के अन्य सदस्यों को इस बात का पता चलते ही उन्हों ने दक्षाबहन को समझाने की कोशिष की कि - 'अभी इतनी छोटी उम्रमें अगर तुम ऐसा निर्णय करोगी भी तो संभव है कि तुम्हारे पति नाराज होकर तुम्हें छोड़ देंगे अथवा वे खुद कहीं अन्यत्र भी चले जायेंगे ।' दक्षाबहनने दृढता से प्रत्युत्तर दिया - ‘पतिदेव को दूसरी शादी करनी हो तो मैं बाधा रूप नहीं बनूंगी । वे मुझे छोड़ देंगे तो मैं मेरे आत्मबल पर निर्भर होकर निर्मल जीवन जीऊँगी, लेकिन मेरे इस Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ निर्णयमें बदलाव नहीं हो सकता है" । उस के बाद दक्षाबहन जिन मंदिरमें गये और अत्यंत श्रद्धापूर्वक एकाग्र चित्त से प्रभु प्रार्थना करते हुए कहा कि 'हे प्रभु ! यदि मेरी भावना सच्ची है तो आप मुझे जरूर सहाय करें और इसकी प्रतीतिके रूपमें अभी जो ३ फूल आप के मस्तक पर चढे हुए हैं उसमें से बीचमें रहा हुआ फूल अभी ही मेरी समक्ष नीचे गिरे !'... और सचमुच तुरंत मध्यस्थ फूल नीचे गिरा । दक्षाबहन के आनंद का पार न रहा । उनका मनोबल एकदम बढ गया । उनको लगा कि, 'अब प्रभु मेरे साथ हैं फिर मुझे चिंता किस बातकी !'..... १५७ - 6.00 और सचमुच, उनके पति भी अल्प समय में ही ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करने के लिए तैयार हो गये ! शुभ मुहूर्तमें दोनोंने गुरुदेव के पास विधिवत् आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का स्वीकार किया तब प. पू. पं. श्री चन्द्रशेखर विजयजी म. सा. द्वारा लिखित 'जोजे अमृत कुंभ ढोळाय ना' किताब प्रभावना के रूपमें सभी को दीं । दिलीपभाई की माता को कई साल तक पक्षाघात हो गया था, तब दक्षाबहनने एक बेटी अपनी माँ की सेवा करे उससे भी विशिष्ट रूप से अपनी सास की सेवा की थी। सास के पलंग के पास ही वे बैठती थीं । समय समय पर आहार-निहार कराना, मालिस करनी, दवा पिलानी इत्यादि ऐसी अद्भुत सेवा करते थे कि देखनेवाले चकित रह जाते थे । अभी करीब ३ साल पूर्व ही उनकी सास का समाधिपूर्वक देहावसान हुआ है । कुछ साल पूर्व दक्षाबहन के उपकारी पार्श्वचन्द्रगच्छीय सा. श्री भव्यानंदश्रीजी चतुर्विध श्री संघ के साथ पालितानामें ९९ यात्रा कर रहे थे । तब दक्षाबहनने अपनी सास से सविनय विज्ञप्ति की कि - 'यदि आप की आशीर्वाद सह अनुमति हो तो मैं आप की सेवा का इन्तजाम कर के सिद्धगिरि की एक यात्रा गुरणी श्री की निश्रामें कर आऊँ ।' ऐसी सुशील, सुविनीत और सेवाशील पुत्रवधू की ऐसी उत्तम भावना में अंतराय रूप बनें ऐसी सास वे नहीं थीं । उन्होंने आशीर्वाद के साथ अनुमति दी, तब दक्षा बहनने तुरंत पत्र लिखकर गुरुणीश्री को अपनी भावना का निवेदन किया। तब उचितज्ञ साध्वीजीने Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ २ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग प्रत्युत्तरमें लिखा कि 'प्रक्षाघात से ग्रस्त सास की सेवा को थोड़ी भी गौण करके अभी यात्रा करने के लिए यहाँ आने की आवश्यक्ता नहीं है । तुम्हारे लिए तो अभी बीमार सास की सेवा करके उनके आशीर्वाद प्राप्त करना ही सच्ची तीर्थयात्रा है।' इस पत्रको पढ़ते ही दक्षाबहनने पालिताना जाने की अपनी भावना पर रोक लगा दी । धन्य साध्वीजी...! धन्य श्राविका ...! कुछ साल पूर्व में उन्हों ने एक नया मकान लिया है । उस मकान के वातावरण को मंदिर जैसा पवित्र रखने की भावनावाले दक्षा बहन और दिलीपभाई ने निर्णय किया है कि इस मकान में अतिथिको भी अब्रह्मका पाप करने नहीं मिलेगा । ऐसे दृष्टांत सुनने से ऐसी विचारणा होती है कि- 'अबला मानी जाती स्त्री भी अगर चाहे तो अपने पवित्र आचरण द्वारा परिवारमें भी कैसा धर्ममय अनुमोदनीय माहौल बना सकती है !... मगर इसके लिए जरूरत है कुसंग से दूर रहने की और श्रद्धापूर्वक सत्संग करने की ।' पता : दक्षाबहन दिलीपभाई मूलचंद शाह, फेशन सेन्टर, / १, इरानी, डहाणु रोड - २० ( महाराष्ट्र) ८९ आजीवन बालब्रह्मचारी दंपती ! मुंबई में रहता हुआ एक गुजराती युवक अपने घरमें गृह मंदिर होते हुए भी कभी प्रभु दर्शन करता नहीं था । एक बार धर्मचक्रतप प्रभावक प. पू. पं. श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) का वहाँ चातुर्मास हुआ था । उनकी प्रेरणा से उपरोक्त युवक का बड़ा भाई भी सामूहिक धर्मचक्रतप नामकी ८२ दिन की तपश्चर्या में शामिल हुआ था । तपश्चर्या के दौरान उसका स्वास्थ्य कर्मसंयोग से कुछ अस्वस्थ हुआ । तब अपनी मातृश्रीकी प्रेरणांसे वह नास्तिक युवक उपाश्रय में " Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १५९ • आया और कहने लगा म. सा. ! आपने मेरे भाई को तपश्चर्या करवाई उससे वह मरणासन्न हो गया है। तो अब आप ही उसे बचाईये ।' जरा भी नाराज हुए बिना म. सा. ने उसे प्रेम पूर्वक अपने पास बिठाकर वात्सल्यपूर्ण हितशिक्षा दी । बादमें उसके साथ घर जाकर उसके तपस्वी बड़े भाई को वासक्षेप डालकर मांगलिक सुनाया। बड़ा भाई अल्प समय में ही स्वस्थ हो गया । म.सा. के वात्सल्यपूर्ण वाणी व्यवहार से नास्तिक कहलाता हुआ वह युवक उनके प्रति आकर्षित हुआ और प्रतिदिन उनका सत्संग करने के लिए आने लगा । परिणामतः केवल १५ दिनोंमें ही वह प्रतिदिन जिनपूजा करने लगा और माता- पिताको प्रणाम भी करने लगा !... यह देखकर उसकी माँ के मुखमें से उद्गार निकल गये - ' म. सा. ! मेरे जंगली पशु जैसे बेटे को आपने सच्चा जैन मानव बना दिया है, आप के उपकार को कदापि नहीं भूलूँगी' !... सचमुच, सत्संग का प्रभाव कितना अद्भुत होता है !... कुछ समय बाद उस युवक की शादी हुई। 'जब तक मेरे उपकारी गुरु महाराज का दर्शन नहीं होगा तब तक मैं ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा' ऐसी भावना से वह युवक शादी की प्रथम रात्रि से ही ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा । करीब १ महिने के बाद म. सा. वहाँ पधारे। भावोल्लास पूर्वक उसने म. सा. के दर्शन - वंदन किये । बादमें उसने भद्रिक भाव से म. सा. को कहा कि ‘म.सा. ! आप के कहेनेसे मैं हररोज जिनपूजा और माता-पिता को प्रणाम करता हूँ, मगर कौन जाने क्यों मुझे अभी तक जैसे भाव आने चाहिए वैसे नहीं आते हैं और इसीलिए जैसा चाहिए वैसा आनंद का अनुभव भी नहीं होता है । ' म.सा. ने कहा 'जैसे मैं कहूँ वैसा करेने के लिए तो तू तैयार हैन ? मेरे प्रति तो तेरी श्रद्धा परिपूर्ण है न ?'.... युवक के 'हाँ' कहने पर म.सा. ने तुरंत कहा - " तो अब मैं तुझे कहता हूँ कि तू अब से हररोज 'भावपूर्वक' पूजा कर ।" .. और दूसरे ही दिन उस युवकने अत्यंत भावोल्लास पूर्वक जिनपूजा की !... भावोल्लासपूर्वक की गयी जिनपूजा से ऐसा चमत्कार घटित हुआ कि उसका शब्दोंमें संपूर्ण वर्णन करना शक्य नहीं है । उसके अध्यवसाय Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ इतने सुविशुद्ध हो गये कि दूसरे ही दिन उस युवकने धर्मपत्नी के साथ म.सा. के पास आकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतका स्वेच्छा से सहर्ष स्वीकार कर लिया !! इस तरह शादी की प्रथम रात्रि से ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करनेवाले इस दंपतीकी बात सुनकर हमें सुप्रसिद्ध विजय सेठ और विजया सेठानी की याद सहजता से आये बिना नहीं रहती। आजकल टी.वी. विडीयो के युगमें, मोहमयी मुंबई नगरीमें रहकर, भर युवावस्थामें शादीकी प्रथम रात्रि से लेकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना कितना कठीन है । लेकिन सत्संग और भावोल्लास पूर्वक की गयी जिनपूजा के अचिंत्य प्रभावसे इस युवक के जीवनमें ऐसे चमत्कारका सर्जन कर दिया है, यह वास्तविकता है । ' इस युवक के बड़े भाई भी अत्यंत पापभीरू हैं । व्यापार धंधे में वे अनीति जरा भी नहीं करते हैं । 'इतनी किंमतमें यह माल लाया हूँ और इतनी किंमत में बेच रहा हूँ' इस तरह वे ग्राहक को स्पष्ट निवेदन कर देते हैं । कारकून से लेकर मंत्रीमंडल तक चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार के इस जमाने में नीति और प्रामाणिकता से जीवन जीने वाले ऐसे सज्जन सचमुच धन्यवाद के पात्र हैं, अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय भी हैं । (उपरोक्त प. पू. पंन्यास श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्य श्री ) के श्रीमुख से सुना हुआ यह दृष्टांत यहाँ पर प्रस्तुत किया गया है । नामना की कामना से दूर रहेने की उस युवककी भावना के मुताबिक यहाँ पर उसका नाम और पता प्रकाशित नहीं किया गया है ।) ९० अध्यात्मनिष्ठ बंधुयुगल देवजीभाई और नानजीभाई जिन के अद्भुत जीवन प्रसंग एवं सद्भूत गुण समूह का वर्णन करने के लिए एक स्वतंत्र किताब लिखी जाय तो भी संपूर्ण वर्णन करना असंभव सा प्रतीत होता है और जो प्रसिद्धि से सदा दूर रहना ही पसंद .... Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ करते हैं इसलिए अपने विषयमें ऐसा कोई लेख लिखा जाय वह बात जिनको बिल्कुल नापसंद है, यह जानते हुए भी ऐसी उत्तम आत्माओंकी गुण समृद्धिकी आंशिक भी अनुमोदना किये बिना यह किताब बिल्कुल अपूर्ण सी प्रतीत होती है ऐसा मानकर.... और उनके चाहक वर्ग की भावना को लक्ष्यमें रखकर जिनके विषयमें कुछ लिखने के लिए यह लेखिनी तैयार हुई है, ऐसे अध्यात्मनिष्ठ बंधु युगल श्री देवजीभाई और नानजीभाई को याद करते ही इतिहास प्रसिध्ध बंधु युगल वस्तुपाल-तेजपाल और राम-लक्ष्मण की स्मृति सहज रूप से हुए बिना रहती नहीं । मूलतः कच्छ-मेराउ गाँव के निवासी उपरोक्त सुश्रावक व्यवसाय के निमित्त से कई वर्षों से कच्छ-गांधीधाममें रहते हैं । धर्मनिष्ठ माता मूरीबाई एवं पिताश्री चांपसीभाई पदमसी देढिया की ओर से उदारता, भद्रिकता, धीरता, गंभीरता, नीतिमत्ता, जिनभक्ति, गुरुभक्ति, सार्मिक भक्ति, जीव मैत्री, विनय, वैयावच्च, सादगी, समर्पण आदि अपरिमेय गुण समृद्धि उनको जन्मसे ही मिली हुई है । बिल्कुल सामान्य आर्थिक परिस्थितिमें से पसार होकर प्रारब्ध और प्रामाणिक पुरुषार्थ के द्वारा करोड़पति बनने के बाद भी अपने वयोवृद्ध पिताश्री की चरण सेवा अपने हाथों से करते हुए उनको मैंने अपनी आँखों से देखा तब उनका विनय और कृतज्ञता गुण देखकर अंतःकरण अहोभाव से उभर गया ।... माता-पिताकी सेवा के द्वारा संप्राप्त उनके आशीर्वादों से ही वे आज लाखों लोगों के प्रिय बन सके हैं । कई वर्षों से प्रतिदिन श्रीसिद्धचक्रजीका पूजन एवं अरिहंत परमात्मा की विशिष्ट भक्ति करने से आज वे स्वयं सिद्धचक्रजी के सार रूप अहँ स्वरूपी स्व-स्वरूपमें सुस्थित हो गये हैं। गांधीधाममें पधारते हुए किसी भी समुदाय के परिचित या अपरिचित प्रत्येक साधु-साध्वीजी भगवंतोंकी हर प्रकारकी वैयावच्च-भक्ति अत्यंत उल्लसित भाव से कई वर्षों से वे करते हैं । गांधीधाम की दोनों ओर माथक और पदाणा गाँवमें जैन श्रावकों के घर नहीं होने से वहाँ पधारते हुए प्रत्येक साधु-साध्वीजी भगवंतों की गोचरी-पानी आदि की बहुरत्ना वसुंधरा - २-11 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ व्यवस्था का दायित्व कई वर्षों तक उन्होंने भक्तिभावसे अच्छी तरह निभाया है, परिणामतः हजारों साधु-साध्वीजी भगवंतोंके हार्दिक शुभाशीर्वाद उन्होंने संप्राप्त किये हैं । उसमें भी अचलगच्छाधिपति प. पू. आ. भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म. सा. की आज्ञावर्तिनी महा तपस्विनी, तत्त्वज्ञा प. पू. सा. श्री जगतश्रीजी म. सा. एवं उनकी सुशिष्या योगनिष्ठा प.पू. विदुषी सा. श्री गुणोदयाश्रीजी म. सा. सपरिवारके सत्संगने उनकी आध्यात्मिक विकास यात्रामें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। बड़े भाई देवजीभाई तो मानो जन्म से ही योगी जैसे थे । बाल्य वय से ही वे अत्यंत शांत प्रकृतिवाले और अंतर्मुख वृत्तिवाले थे । व्यवसाय के निमित्त से दफतर में बैठते थे तब भी उनकी साहजिक स्थितप्रज्ञता देखनेवालों के चित्तमें अहोभाव जगाती थी । कई वर्षों तक (आजीवन) गांधीधाम जैन संघ के सर्वानुमति से वरण किये गये प्रमुख के रूपमें उन्होंने अमूल्य सेवाएं प्रदान की हैं । क्रोध करनेका या बार बार मांगने के लिए आते हुए किसी याचक को भी 'नहीं' कहना, तो मानो उनको आता ही नहीं था । दोनों भाइयों के नाम के प्रथम अक्षरों से “देना" शब्द बनता है; उसीको सार्थक बनाने के लिए अर्थात् दूसरों को देने के लिए ही मानो उनका जन्म हुआ हो. ऐसा उनका निःस्वार्थ परोपकार प्रधान जीवन है। किसी भी व्यक्ति की अपेक्षा के अनुसार छोटी या बड़ी रकम सहाय के रूपमें देने के बाद बही खाते में या अपने दिमाग में भी उसकी स्मृति उन्होंने कभी रखी नहीं है । इसीलिए तो देवजीभाई के स्वर्गवास (दि. २५-५-९५) के बाद कई लोग छोटी-बड़ी धनराशि वापिस लौटने के लिये आये तब नानजीभाई ने उन्हें प्रेमपूर्वक प्रत्युत्तर दिया कि - 'सेठने (बड़े भाईने) मुझे इस राशि के विषय में कुछ भी कहा नहीं है, इसलिए उनकी आज्ञा के बिना मैं इसका स्वीकार नहीं कर सकता । इसलिए आप ही इस राशिका सदुपयोग करें।' ... दोनों भाइओं के बीच लोकोत्तर कोटि का भातृस्नेह अनुमोदनीय और अनुकरणीय था। उपाश्रयमें साधु-साध्वीजी भगवंतों के दर्शन-वंदन के Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १६३ लिए दोनों हररोज एक साथ जाते थे तब देवजीभाई स्वयं ज्येष्ठ होते हुए भी लघुबंधु नानजीभाई को ही आगे बैठाकर स्वयं थोड़ासा पीछे हटकर बैठते थे । प्रायः उनके नेत्र निमीलित अवस्थामें ही रहते थे । प्रासंगिक बातचीत प्रायः नानजीभाई ही करते थे । वे अपने बड़े भाईके उत्तर साधककी तरह उनकी छाया बनकर हमेशा साथ ही रहते थे और हर तरहसे देखभाल करते थे । अपने बड़े भाई को “सेठ" शब्दसे ही संबोधन करते थे । ... कोई भी कार्य होता तब वे अपने बड़े भाईकी इच्छा को · ही आज्ञा तुल्य समझकर उसका पालन करते थे। ऐसा अपूर्व भ्रातृप्रेम होते हुए भी उसकी नींवमें आध्यामिकता थी, इसलिए आसक्ति युक्त लौकिक स्नेह रागसे कोई भिन्न ही प्रकार का अलौकिक शुद्ध आत्मिक प्रेम दोनों के बीच था । इसीलिए तो जब देवजीभाई का देहविलय दि. २५-५-१९९५ के दिन सहज समाधिमय अवस्थामें हुआ तब नानजीभाई के नेत्रोंमें वियोग की वेदना के अश्रुबिंदु या मनमें जरा भी आर्तध्यान नहीं था किन्तु ज्येष्ठ बंधु की समाधि अवस्था का गौरव था । वे आज भी कहते हैं कि - "सेठ कहीं भी नहीं गये हैं । वे मेरे साथ एकरूप होकर अभिन्न भावसे विद्यमान ही हैं ! पहले देह भिन्न थे और आत्मा मानों एक रूप थी, अब एक ही देह द्वारा दो चेतनाएँ अभिन्न रूपसे अपना कर्तव्य निभा रही हैं । यदि सेठ चले गये हों तो मेरा यहाँ रहना असंभव हो जाता !!!" उनके इन गूढ शब्दों का, हार्द कौन समझ सकेंगे ? - अपनी धर्मपत्नी सुश्राविका श्री रतनबाई के देहविलय के बाद देवजीभाई की वृत्ति सविशेष रूपसे अंतर्मुखी होनेसे उनको अनाहत नाद और आज्ञाचक्र (दोनों भौहों का मध्य भाग) में ज्योतिका दर्शन - दोनों एक साथ प्रारंभ हो गये थे । परिणामतः मन-वचन-काया के तीनों योग सहजरूपसे हमेशा आत्माभिमुख ही हो गये थे। घंटों तक वे समाधि अवस्थामें आत्म स्वरूपमें लीन रहते थे । तब बहिर्मुख वृत्तिवाले सामान्य लोग विविध प्रकारके तर्क-वितर्क किया करते थे, मगर नानजीभाई उनकी उच्च आध्यात्मिक अवस्था को अच्छी तरह समझ सकते थे । इसलिए उत्तर साधक के रूपमें उनकी हर तरहसे देखभाल भक्ति भावसे गौरव पूर्वक करते थे । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ "समयसार" नामके आध्यात्मिक ग्रंथ के अनुसार बनाये गये एक श्लोक का नानजीभाई की विज्ञप्तिसे बार बार मनन करते हुए देवजीभाई को विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति हुई थी और उनकी अंतरात्मा आनंदसे नाच उठी थी । इसीलिए तो उनके देहविलय के बाद उनके हरेक रिश्तेदारों के घरमें रही हुई उनकी प्रतिकृति के नीचे वह श्लोक अंकित हुआ दृष्टि गोचर होता है । यह रहा वह श्लोक - १६४ 44. 'छिन्न भिन्न सहु थाव के, भले सर्व लुंटाव । विणसो के विखराओ पण, पर द्रव्य मारुं नवि थाव ॥" जीवन की परीक्षा सचमुच मृत्यु के समयमें होती है । जो वास्तविक रूपमें आध्यात्मिकता को समर्पित होते हैं उनका देहविलय भी सहज रूपसे समाधि पूर्वक होता है । मृत्यु उनके लिए जीर्ण वस्त्र बदलकर नूतन वस्त्रों को धारण करने की तरह आनंद का हेतु बनता है । उनकी मृत्यु महोत्सव रूप होती है । अमर जीवन का प्रवेश द्वार होती है। ऐसे साधक ही महान योगीराज श्री आनंदघनजी की तरह गा सकते हैं कि 1 " अब हम अमर भये न मरेंगे, या कारण मिथ्यात्व दीयो तज क्यूं कर देह धरेंगे ?.. अब हम ... " देवजीभाई के देहविलय की घटना भी इस विधान का साक्षात्कार करानेवाली हुई । वि. सं. २०५१ में वैशाख कृष्णा द्वादशी के दिन प्रातः १०.३० के आसपास समयमें उनका देहावसान हुआ, उसी दिन भी वे बिल्कुल स्वस्थ ही थे प्रातः सूर्योदय से २ घंटे पूर्व उठकर अपने आध्यात्मिक नित्यक्रमसे निबटने के बाद, अपने घरमें पधारे हुए साध्वीजी भगवंतोंको अपने हाथों से भावपूर्वक गोचरी बहोराकर सुपात्रदान का लाभ लिया तब किसी को कल्पना भी न थी कि अब केवल १ प्रहर के भीतर ही ये योगीपुरुष अपनी जीवनलीला को स्वेच्छा से सिमट लेंगे । मनवचन - काया के तीनों योग एकदम शांत हों और आत्मा अपने स्वरूपमें लीन हो ऐसी अवस्थामें देवजीभाई कईबार घंटों तक स्थिर रहते थे, इसलिए नानजीभाई ने उनको २-४ बार कह दिया था कि "सेठ ! जब बिदाई का अवसर आये तब हमको खबर जरूर देना, हमको अंधेरेमें - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १६५ रखकर (बिना बताये) चले नहीं जाना !" ... और सचमुच ऐसा ही हुआ। जैसे भगवान श्री महावीर स्वामीने अपने परम विनीत शिष्य श्री गौतम स्वामी गणधर भगवंत को अपने निर्वाण समयमें देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के बहाने से अपने से दूर भेज दिया था, उसी तरह देवजीभाई ने भी अपने देहविलय से कुछ क्षण पूर्व ही नानजीभाई को जिनालय में जाने की सूचना दे दी थी !... .. देहविलय के दिन सुबह ९ बजे वे अपने मकान के उपरवाले कक्षमें गये और पलंग के उपर बायी करवटसे लेटे तब नानजीभाई को ऐसा ही लगा कि ज्येष्ठ बंधु आराम कर रहे हैं । थोड़ी देर के बाद उन्होंने पूछा कि -'सेठ ! मन्दिर-उपाश्रयमें चलेंगे ? तब देवजीभाईने कहा - "आज तुम जाकर आओ, मैं यहीं हूँ।" नानजीभाई को लगा कि सविशेष अंतर्मुखता के कारण ऐसा कहते होगें, इसलिए वे जयेष्ठ बंधु की सूचना अनुसार नीचे उतरे । लेकिन नीचे उतरने के बाद तुरंत उन्हें आभास हुआ कि, 'ऊपर जाने जैसा है।' मगर बड़े भाई की विश्रांति या समाधिमें विक्षेप न हो ऐसी भावना से वे नीचे ही रहे । करीब १०॥ बजे वे पुनः ऊपर गये तब देखा कि ज्येष्ठ बंधु कायोत्सर्ग मुद्रामें पलंग में लेटे हुए थे। इसलिए वे थोड़ी देर तक चूपचाप बैठे रहे ; लेकिन थोड़ी देर के बाद उनको जगाने के लिए थोड़ा प्रयत्न किया तब पता चला कि ज्येष्ठ बंधु की आत्मा इस देह मंदिर में नहीं है। तुरंत डोक्टर को बुलाया गया। डोक्टरने घोषित किया कि - 'सेठजी का देहावसान हो गया है ' । नानजीभाई ने देखा कि पास के कक्षमें जहाँ प्रभुजी को पधराये गये थे, उसका दरवाजा पहले बंद था लेकिन अब वह खुल्ला था। इससे मालुम हुआ कि बिदाई से पहले अंत समयमें भी प्रभु प्रार्थनादि करने के बाद ही योगी की तरह उन्होंने स्वेच्छा से समाधि अवस्थामें देहत्याग किया था। अंतिम समय की वेदना का एक भी चिन्ह उनके शरीर पर या शय्या पर दृष्टि गोचर नहीं होता था। हाथ-पैर कायोत्सर्ग मुद्रामें व्यवस्थित थे। चेहरे पर अपूर्व सौम्यता और तेज व्याप्त था । मानो अभी आँखें खोलकर कुछ बोलेंगे ऐसा प्रतीत होता था। __इस तरह उन्होंने जीवनमें शांति, समता और समाधि भावको आत्मसात् किया था इसलिए अंतिम समयमें भी समाधिभाव रह सका । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग उनके देह को पालखीमें बिराजमान किया गया । अंतिमयात्रामें हजारों की संख्या में दूर- सुदूर से लोग उमड़े थे । लोग एक और देवजीभाई के पार्थिव देह के ऊपर छायी हुई सौम्यता और कांति को देखकर चकित रह जाते थे तो दूसरी ओर ऐसे प्रसंगमें भी नानजीभाई के चेहरे पर व्याप्त साहजिकता और स्थितप्रज्ञता को देखकर आश्चर्यमुग्ध हो जाते थे । शास्त्र निर्दिष्ट सम्यग्दृष्टि जीवके पाँचों लक्षण शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य इस बंधु युगल के जीवनमें अच्छी तरह आत्मसात् हुए दृष्टि गोचर होते हैं । इतना ही नहीं किन्तु गंभीरता रूप, सौम्यप्रकृति, लोकप्रियता, अक्रूरता, पापभीरूता, सरलता, दाक्षिण्य, लज्जा, दया, मध्यस्थ सौम्य दृष्टि, गुणानुराग, सत्कथाप्रियता, धर्मनिष्ठ परिवार, दीर्घदर्शिता, विशेषज्ञता, वृद्धानुसारिता, विनय, कृतज्ञता, परोपकार परायणता और लब्ध लक्ष्यता, श्रावक के इन २१ गुणों से अलंकृत आदर्श श्रावकता का प्रत्यक्ष दृष्टांत यह बंधु युगल है । नवकार, नवपद, नवतत्त्व, नवनिधि इत्यादिमें रहा हुआ ९ का अंक अक्षय अंक के रूपमें सुप्रसिद्ध है । देवजीभाई की आत्मा भी अल्प समयमें ही अखंड - अक्षय ऐसे मुक्ति सुख की भोक्ता बनेगी ऐसा संकेत उनके देह विलय के दिन से भी निम्नोक्त प्रकारसे मिलता है । (१) दि. २५ + ५ + १९९५ = २०२५ = ९ (२) सं. २०५१ वैशाख कृष्णा १२ = २०५१ + ७ + १२ = २०७० = ९ योगानुयोग महाप्रयाण के लिए दिन भी कैसा सुंदर संप्राप्त हुआ !!! इस बंधु युगल को उदार, दानवीर, धर्मात्मा, सज्जन शिरोमणि, श्रावक श्रेष्ठ इत्यादि रूपमें तो बहुत लोग पहचानते हैं, मगर इन सभी सद्गुणों का मूल तो है उनकी आत्मनिष्ठता में, जिसे बहुत कम लोग पहचानते होगें । क्योंकि आत्मश्लाघा या आडंबर का अंश भी उनमें नहीं है । नामना की कामना या प्रसिद्धि के व्यामोहसे वे सदा दूर ही रहे हैं इसके उदाहरण रूपमें हम यहाँ थोड़ी सी घटनाओंको संक्षेपमें देखेंगे । 1 (१) वि. सं. २०५१ में हमारी निश्रामें गिरनारजी महातीर्थ की Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्नों वसुंधरा : भाग - २ १६७ चतुर्विध श्री संघ की सामूहिक ९९ यात्रा का आयोजन हुआ था, तब उन्होंने भी संघपति के रूपमें आर्थिक सहयोग दिया था, मगर ९० दिनों के उस कार्यक्रम के दौरान वे कभी भी बहुमान का स्वीकार करने के लिए या संघपति की माला पहनने के लिए भी आये नहीं थे ! (२) एक नूतन जिनालय में मूल नायक प्रभुजी की प्रतिष्ठा का लाभ बड़ी रकम की बोली बोलकर एक श्रावकने लिया था, मगर बादमें उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होने से, उस धनराशि को वे अर्पण कर सकें ऐसी स्थिति नहीं थी, तब इस बंधु युगलने गुप्त रूपसे उस धनराशि को संघ के कार्यकर्ताओं को अर्पण कर दी और कहीं भी अपने नामकी तक्ती लगवाने की लेशमात्र भी अपेक्षा नहीं रखी !... ___(३) प्रस्तुत किताब की गुजराती आवृत्तिमें अपने माता-पिता की तस्वीर के बदलेमें स्व. देवजीभाई की तस्वीर प्रकाशित करने के लिए गांधीधाम निवासी एक भावुक आत्माने भावभरी विज्ञप्ति की और उसके बदले में उचित घनराशि अर्पण करने की भावना व्यक्त की, तब नानजीभाई ने तस्वीर नहीं प्रकाशित करने की सविनय विज्ञप्ति के साथ वह राशि उन्होंने स्वयं अर्पण कर दी। (४) आज तो नानजीभाई को मानसिक मौनकी अवस्था सहज हो गयी है, मगर साधना के प्रारंभ कालमें वे हर महिनेमें ८ दिन लगातार मानसिक मौनके लक्ष्यके साथ एकांत में रहकर वाचिक मौन करते थे और पर्युषण के ८ दिन तो अचूक मौन करते थे । तब एक बार गांधीनगर से सरकारी ओफिसर का पत्र आया । करोडों रुपयों के एक बड़े प्रोजेक्ट का टेन्डर भरकर प्रत्यक्ष मिलने के लिए नानजीभाई को बुलाया था । लेकिन उस वक्त पर्युषण के दिन होने से नानजीभाई नहीं गये और मौन ही रहे । पर्युषण के बाद जब वे गांधीनगर गये तब उनकी ऐसी साधना निष्ठा देखकर सरकारी ओफिसर भी चकित हो गया । वह ओफिसर रमण महर्षि का भक्त था । अन्य लोगों को मुश्किल से ५-१० मिनट का समय देनेवाले उस ओफिसरने नानजीभाई के साथ २ घंटे तक आनंद पूर्वक चर्चा की और अन्य कंपनीओंकी अपेक्षासे देवजीभाई-नानजीभाई की शाह Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १६८ एन्जिनीयरींग कां. की शर्तें कुछ कठिन होते हुए भी उन सभी शर्तों को मंजूर रखकर ओफिसरने वह प्रोजेक्ट उनको ही सौंपा !!!.... - (५) सं. २०५२ में वैशाख महिने में कच्छमें ७२ जिनालय महातीर्थकी अंजनशलाका - प्रतिष्ठा के प्रसंगमें करीब १ महिने तक १०० से अधिक साधु-साध्वीजी भगवंतों की उदार भक्ति, सुपात्रदान और साधर्मिक भक्ति जो उनके परिवारने की वह सचमुच चिरस्मरणीय रहेगी । उस प्रसंगमें पंच कल्याण कों के उत्सवमें प्रभुजी के माता-पिता नाभिराजा और मरुदेवीमाता बनने की बोली बुलवाने के बदलेमें नुकरे से वह लाभ नानजीभाई को ही लेने के लिए ट्रस्ट के ट्रस्टी मंडलने स्वयमेव भावभरी आग्रहपूर्ण विज्ञप्ति की, यही उनकी अद्भुत लोकप्रियता और धर्मपरायणता का उदाहरण है । माईक और मंच से सदा दूर रहनेवाले नानजीभाईने यह लाभ अन्य किसी भी भाग्यशाली को देने के लिए नम्रतासे विज्ञप्ति की, लेकिन आखिरमें सभी की अत्यंत आग्रहपूर्ण भावपूर्वक बार बार की गयी विज्ञप्ति का, दाक्षिण्य गुण के कारण उनको स्वीकार करना ही पड़ा । और नाभिराजा के रूपमें उनकी अंतरात्मामें से भगवान के पिता के अनुरूप ही ऐसे अद्भुत आध्यात्मिक उद्गार सहज रूपसे निकलते थे, जिनको सुनकर सभी आश्चर्य चकित होकर सोचने लग जाते थे कि, 'सदा मौनप्रिय और मितभाषी नानजीभाई के बदलेमें सचमुच नाभिराजा ही बोल रहे हैं ।' ७३ इंचके मूल नायक श्री आदिनाथ भगवान को प्रतिष्ठित करने का महान लाभ भी नानजीभाईने और एक दूसरे भाग्यशालीने संयुक्त रूपसे अत्यंत अनुमोदनीय बोली बोलकर लिया था । इसके अलावा भी गांधीधाम, बड़ौदा, भद्रेश्वर, अंजार, आदिपुर इत्यादि कई संघों में बड़ी बड़ी राशि का दान उन्होंने अंश मात्रभी नामना की कामना रखे बिना दिया है । आत्मसाधना के प्रारंभकालमें उन्होंने आत्मानुभवी सद्गुरु की खोज के लिए कुछ परिभ्रमण किया, लेकिन कहीं भी संतोष नहीं हुआ । आखिर में जगद्गुरु और परमगुरु ऐसे श्री अरिहंत परमात्मा की शरणागति स्वीकार करके उनके अनुग्रह से जैसी अंतःस्फुरणा होती थी उसीके अनुसार Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ प्रार्थना-मौन आदि द्वारा वे साधना करते थे । जिस तरह बालक अपनी माँ के पास कभी हठ करता है, उसी तरह नानजीभाईने भी एक बार प्रभुजी के समक्ष हठ की कि- 'अब संतोषकारक विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति होगी तभी ही यह मस्तक उपर उठेगा अन्यथा नहीं, चाहे कितने ही घंटे या दिन क्यों न लगें !' ऐसा बोलकर प्रभुजी के समक्ष उन्होंने अपना शिर जमीन पर झुका दिया । करीब २ घंटें तक उसी तरह शरणागति के भावमें, समर्पण मुद्रामें वे स्थिर रहे तब उनको संतोषकारक अनुभूति हुई और उसके बाद ही उन्होंने अपना मस्तक ऊँचा किया । ___ नानजीभाई की विज्ञप्तिसे एक ध्यान साधक महात्माने अपनी विशिष्ट आत्मशक्ति द्वारा उनको केवल २ मिनिट के लिए विशिष्ट शांति का अनुभव कराया था मगर उन्हें ऐसी क्षणिक शांति के बदले में चौबीसों घंटों तक अखंड रहे ऐसी अक्षय और गहन आत्मिक शांति और आनंद की चाहना थी, जो आखिरमें परमात्मा की शरणागति और सद्गुरु की कृपासे परिपूर्ण हुई !... " स्व-स्वरूप की अनुभूति के लिए किस प्रकार की साधना करनी चाहिए" ? ऐसे एक प्रश्न के प्रत्युत्तरमें उन्होंने कहा कि - "स्वानुभूति संपन्न सद्गुरु की शरणागति और उनकी कृपा द्वारा ही वह हो सकती है । लेकिन जब तक ऐसे प्रत्यक्ष सद्गुरु की प्राप्ति नहीं हुई हो तब तक परमगुरु परमात्मा की प्रतिमा या प्रतिकृति के समक्ष समर्पण भावसे प्रतिदिन हार्दिक प्रार्थना करने से समय का परिपाक होने पर साधक का विकास होता है, तब परमात्मा के अचिंत्य अनुग्रहसे एक दिन अवश्य सद्गुरु की संप्राप्ति साधक के ऋणानुबंध के अनुसार होती है और उनकी कृपासे साधक का कार्य सिद्ध होता है ।" . छअस्थ अवस्थामें सद्गुरु की खोज करने में भूल होने की बहुत संभावना रहती है, इसलिए उपरोक्त प्रकार से परमात्मा की शरणागति का स्वीकार करके साधना करने से एक दिन परमात्मा की अचिंत्य आहत्य शक्ति की प्रेरणासे आत्मज्ञानी सद्गुरु स्वयमेव साधक का हाथ थाम लेते Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ हैं और यथोचित मार्गदर्शन देकर उसको कृतकृत्य बना देते हैं ।" . महान योगीराज श्री आनंदघनजी के द्वारा रची हुई स्तवन चौबीसी नानजीभाई को अत्यंत प्रिय है । साधना मार्ग की श्रेष्ठ चाभियाँ इन स्तवनोंमें रही हुई हैं ऐसा वे बताते हैं । ___भूत-भविष्य के विकल्पों से मुक्त होकर वर्तमान क्षणमें आत्म जागृति पूर्वक जीने की कला आज नानजीभाई के लिए सहज हो गयी है । रात को नींद में भी वे केवल एक ही बार करवट बदलते हैं, वह भी जागृति पूर्वक ही । आत्मा की सूचना के बिना उनका शरीर भी करवट नहीं बदलता ! कई बार तो पूरी रात वे एक ही करवटसे आराम करते हैं । करवट भी नहीं बदलते। ऐसी उनकी आत्म जागृति सचमुच अनुमोदनीय है। अंतरात्मामें अनुभूयमान गहन आध्यात्मिक शांति उनकी मुखमुद्रा पर सदा झलकती रहती है । उनकी धर्मपत्नी अ. सौ. हीराकुंवरबाई (बचुबाई) का भी उनको हमेशा सहयोग मिलता रहा है। आत्मार्थी जीवों को नानजीभाई का सत्संग खास करने योग्य है। पता :- नानजीभाई चांपसी शाह शाह एन्जिनीयरींग कं., डी. बी. झेड. एन. १४७ गांधीधाम (कच्छ) (गुजरात) पिन. ३७०२०१ फोन : ०२८३६ - २०४६२ 8988 वृद्धावस्था में साधना का प्रारंभ करके विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियों को पाने वाले आत्मसाधक खीमजीमाई वालजी वास सामान्यतः आत्म साधना के लिए युवावस्था का समय श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि उस समयमें शारीरिक बल सुदृढ होने से तप-जप-ध्यान आदि दीर्घ समय तक स्थिरतापूर्वक किये जा सकते हैं । वृद्धावस्था में Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १७१ शारीरिक शक्ति क्षीण होने से साधना दुष्कर हो जाती है । फिर इसमें अपवाद के रूपमें कुछ साधक ऐसे भी पाये जाते हैं जिन्होंने संयोगवशात् जीवन की उत्तरावस्थामें साधना का प्रारंभ किया हो और तीव्र वैराग्य, प्रबल मुमुक्षा और निरंतर अखंड पुरुषार्थ के बलसे अनुमोदनीय आध्यात्मिक विकास हांसिल किया हो । ऐसे साधकों में कच्छ - नाराणपुर गाँव के निवासी सुश्रावक श्री खीमजीभाई वालजी वोरा ( हाल उम्र व. ८१) का नाम प्रथम पंक्तिमें रखा जा सकता है । खीमजीभाई के जीवनमें बाल्यावस्थामें नम्रता, सरलता, आदि सद्गुणों के साथ धर्म के प्रति अभिरुचि भी थी । पाँच प्रतिक्रमण, चार प्रकरण, कर्मग्रंथ, संस्कृत दो किताब तक अध्ययन उन्होंने किया था । लेकिन बादमें सांसारिक जिम्मेदारियों के कारण से एवं रंगून जैसे क्षेत्र में कई वर्षों तक रहने के कारणसे धार्मिक रुचिको बिल्कुल प्रोत्साहन नहीं मिल सका । दाम्पत्य जीवन एवं नौकरी- व्यवसाय में ही जीवन के अमूल्य वर्ष व्यतीत हो गये । खास कुछ भी आराधना नहीं हो पायी । (हाँ नौकरी में वे अत्यंत प्रामाणिकता से बर्तते थे जिससे उन्होंने परिचय में आनेवाले अनेक आत्माओं के हृदयमें खूब अच्छा स्थान जमाया था।) किन्तु करीब ५७ साल की उम्र में उनके जीवनमें परिवर्तन का निमित्त मिला । किसी व्यावहारिक प्रसंग के कारण उनको संसार की असारता और स्वार्थमयता का बोध हुआ । वैराग्य की ज्योत प्रज्वलित हुई और ६० वर्ष की उम्रमें नौकरीमें से इस्तीफा देकर मुंबई छोड़कर कच्छ - नाराणपुरामें आ गये । सुसुप्त आध्यात्मिक रुचि पुनः जाग्रत हुई । फलतः उन्होंने आध्यात्मिक ग्रंथों का वांचन- मनन, एकांतवास, मौन, नवकार महामंत्र का एवं ॐ ह्रीं अर्हं नमः मंत्रका लयबद्ध रूपसे जप एवं श्री सीमंधर स्वामी भगवान की आर्द्र हृदयसे प्रतिदिन प्रार्थना को उन्होंने साधना के अंग बनाये । हररोज प्रातः कालमें ढाई घंटे तक खेतमें जाकर और रात को भी वहाँ एकांतमें नवकार महामंत्र का एकाग्रता पूर्वक जप करने लगे । एकाध बार कच्छ-डुमरा गाँवमें आयोजित ध्यान शिबिरमें जाकर ध्यानाभ्यास भी चालु रखा । योगीराज श्री आनंदघनजी द्वारा विरचित स्तवन चौबीसी विषयक साहित्य एवं Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आत्मज्ञानी श्रीमद् राजचंद्र के आध्यात्मिक साहित्यका वे विशेष प्रकार से परिशीलन करने लगे । इसके सिवाय भी उन्होंने योगशास्त्र, योगबिंदु, अध्यात्म-कल्पद्रुम, योगदृष्टि-समुच्चय, ध्यान दीपिका, ज्ञानसार अष्टक, ललित विस्तरा, उपमिति-भव प्रपंचा कथा, विशेषावश्यक भाष्य, समयसार आदि अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों का वांचन किया । इस प्रकारसे एकांत वास और मौन पूर्वक ज्ञान-ध्यान, जप, आत्म चिंतन और प्रभु प्रार्थनादि निमित्तोंसे अंतःकरण की उत्तरोत्तर विशद्धि के कारण से उनको विविध प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होने लगीं । कभी घंट, झल्लरी, वीणा, पखावज, शंख, भेरी, दुंदुभि आदि विविध वादित्रों की ध्वनि तुल्य अनाहत नाद का श्रवण भीतरमें होने लगा तो कभी आज्ञाचक्र (दोनों भौहों के बीचमें) प्रकाश पुंज का दर्शन होने लगा । कभी दीपक, सूर्य, चन्द्र या बिजली जैसे विशिष्ट प्रकाश की अनुभूति होती थी । कभी दिव्य सुगंध का अनुभव होता था तो कभी गहन शांति के बादलों की घटा मस्तक से प्रारंभ होकर क्रमशः पूरे शरीर को घेर लेती हो ऐसी अनुभूति होती थी !... इस प्रकार के अनुभवों के कारणसे उनका साधना के लिए उत्साह अभिवर्धित होता जाता था । लेकिन उनको तो आत्मानुभव की लगन थी, इसलिए वे हररोज महाविदेह क्षेत्रमें विहरमान श्री सीमंधर स्वामी भगवान को अत्यंत आई हृदयसे भाव विभोर होकर प्रार्थना करते थे कि - 'हे प्रभु ! अब मुझे ऐसे सामान्य कोटि के क्षणिक अनुभवों से संतोष नहीं होता है । मुझे तो आपके वीतरागतामय आत्मिक स्वरूप की अनुभूति चाहिए'। वे हररोज श्री सीमंधर स्वामी भगवंत का सुप्रसिद्ध स्तवन - . "सुणो चंदाजी ! सीमंधर परमातम पासे जाजो मुझ वीनतड़ी प्रेम धरीने एणी परे तुमे संभळावजो"... अत्यंत भाव विभोर होकर, रोम रोम में से पुकार उठता हो उसी तरह गद्गद कंठ से, आई हृदय से और अश्रु प्लावित नेत्रोंसे दिनमें तीन Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १७३ चार बार ऐसे गाते थे कि सुननेवालों का भी हृदय और आँख आर्द्र हुए बिना रह नहीं सकते थे । मानो सचमुच ज्योतिषी देवताओं के स्वामी चन्द्र (इन्द्र) अपने सामने ही खड़े हों और उनके द्वारा अपनी विज्ञप्ति प्रभुजीसे निवेदित करते हों उस तरह इस स्तवन को वे गाते थे । उनके मुख से इस स्तवन को सुनना यह भी जीवन का एक अनमोल लाभ है । हमको २-३ बार उनके मुखसे इस स्तवन को सुनने का और उनकी साधना के साक्षीरूप साधनाकक्ष को देखने का लाभ मिला है। वीतराग परमात्मा के आंतरिक स्वरूप की आंशिक भी अनुभूति प्राप्त करने के लक्ष्यसे उन्होंने ६ महिनों तक बिल्कुल एकांतवास में मौन पूर्वक साधना करने का दृढ संकल्प किया था । केवल २ बार घर जाकर मौन पूर्वक सात्त्विक भोजन करते थे एवं बाकी का सारा समय घर के पासमें पशुओं का चारा रखने के लिए एक छोटासा कक्ष था उसमें बैठकर सद्वांचन, आत्मचिंतन, जप, ध्यान, प्रार्थना आदि साधनामें निमग्न रहते थे। चित्तमें बिना प्रयोजन का एक भी विचार प्रवेश न करे इसके लिए वे अत्यंत जाग्रत रहते थे । .. इस तरह साधना करते हुए करीब ३ महिने जितना समय पसार हुआ था । बादमें वि. सं. २०३७ में माघ शुक्ल १४, मंगलवार, दि. १७-२-८१ के दिन दोपहर का करीब ३ बजने का समय था, तब उनको निम्नोक्त प्रकार की विशिष्ट अनुभूति हुई । गर्मी के दिन होते हुए भी बाहर के कोई अशुद्ध परमाणुओं का भीतरमें प्रवेश न हो इसी हेतुसे साधना कक्ष का एक मात्र दरवाजा था वह भी बंद रखा था, इतना ही नहीं किन्तु अंधकारमें चित्त की एकाग्रता शीघ्र होती है इसलिए मस्तक से लेकर पूरे शरीर को काले रंग के कम्बलसे ढक कर वे साधनामें बैठे थे । नित्य क्रमानुसार श्री सीमंधर स्वामी भगवान को प्रार्थना कर के साधनामें बैठे थे कि कुछ ही क्षणोंमें मन अचानक एकदम शांत हो गया और शरदपूर्णिमा के चंद्रसे भी करोड़ गुनी शीतल, उज्जवल तेजोमय पद्मासनस्थ वीतराग आकृति उनके बंद नेत्रों के समक्ष प्रकट हुई । जिसकी दीर्घकालसे तीव्र प्रतीक्षा थी वह साक्षात् श्री सीमंधर स्वामी परमात्मा के आंतरिक Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ स्वरूप की मानो झलक थी। खीमजीभाई के रोम रोममें अवर्णनीय आनंद के पूर उमड़े ! स्वयं की अवस्था भी मानो वीतरागतामय हो गयी !... लेकिन वह आकृति २-३ मिनटमें ही अदृश्य हो गयी और खीमजीभाई की एक आँखमें से प्रभु दर्शन के कारण हर्ष और अहोभाव जन्य एवं दूसरी आँखमें से पुनः प्रभु विरह की वेदना जन्य अश्रुधारा १ घंटे तक अस्खलित रूप से चालु रही !... कई दिनों तक इस अनुभूति के आनंद का आस्वाद उनके जीवनमें चालु रहा । वे स्वानुभव के आधार से कहते हैं कि - 'अपनी पुकार अगर सच्ची हो, अंतरतमकी गहराईसे उठती हो, तो प्रभुदर्शन के लिए क्षेत्र और कालका व्यवधान बाधक नहीं बनता है । आज भी यहाँ बैठे बैठे सीमंधर स्वामी भगवान के दर्शन अशक्य नहीं हैं ।.. उपरोक्त अनुभव के बाद भी विविध प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ उनके जीवनमें होती रही हैं । परिणामतः यह दुर्लभ मनुष्य जीवनकी सफलता का अहसास उनको हो रहा है । साधना में विविध अनुभूतियाँ :- खीमजीभाई को आज तक साधनाके दौरान अनाहत नाद एवं प्रकाश दर्शन की कई प्रकार की अनुभूतियाँ होती रही हैं। उनमें से कुछ महत्त्व की अनुभूतियों का बयान यहाँ संक्षेपमें दिया जा रहा है । प्रकाश की अनुभूतियों का वर्णन दिनांक के साथ उन्हों ने अपनी डायरीमें लिखा हुआ है जो आज भी उपलभ्य है मगर अंनाहत नाद का वर्णन जो उन्होंने लिखा था वह आज उपलभ्य नहीं हो रहा, फिर भी जितना याद आया है, उन्होंने अन्य साधकों के हितार्थ यहाँ प्रस्तुत करना उचित समझा है। . (१) वि. सं. २०३६में एक दिन रात को ३ बजे अचानक मानो मस्तक फट जायेगा ऐसा जोरदार घंटनाद मस्तकमें शुरू हुआ । साधना के दौरान ३ घंटों तक वह घंटनाद चालु ही रहा । उसके बाद वह धीरे धीरे मंद होता चला । बादमें थोड़े थोड़े दिनों के व्यवधान पूर्वक क्रमशः झल्लरी नाद... पखावज नाद... तबला नाद... वीणा नाद... शंख नाद... भेरी नाद... दुंदुभि नाद... महा नाद.... (सिंह नाद) मेघ नाद... समुद्र Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरां : भाग २ नाद... इत्यादि विविध नाद के अनुभव होने लगे । - (२) वि. सं. २०३६ अनुभूतियाँ होने लगीं । १७५ से प्रकाश की भी विभिन्न प्रकार की (३). वि. सं. २०४८ में मृगशीर्ष शुक्ल १२ से फाल्गुन शुक्ल ६ तक पौने तीन महिनों के दौरान प्रतिदिन दोनों आंखोंमेंसे प्रकाश के कण बाहर निकलते हुए प्रतीत होने लगे । 1 1 (४) उसके बाद फाल्गुन शुक्ल ६, दि. १०-३-९२ के दिन रात को ३ बजे साधनामें विशिष्ट अनुभव हुआ । एक लम्बी गुफा थी । उसके उपर छत नहीं थी । उसके एक छोर में से सूर्य समान जाज्वल्यमान प्रकाश का जोरदार प्रवाह प्रारंभ होकर दूसरे छोरमें से बाहर निकलता हुआ अनुभवमें आया। परिणामतः वहाँ का संपूर्ण आकाश मंडल प्रकाशसे व्याप्त हो गया था । निरंतर ३ घंटे तक यह अनुभव चालु रहा था !... • (५) सं. २०५३ में मृगशीर्ष शुक्ल १०, गुरुवार, दि. १९-१२-९६ के दिन सुबह ९-३० बजे आज्ञा चक्रमें मणिरत्नों का प्रकाश पुंज प्रवेश कर रहा है और भीतर का संपूर्ण आकाश प्रदेश प्रकाशसे व्याप्त हो गया है ऐसी अनुभूति करीब ५ मिनट तक चालु रही । • (६) उपरोक्त अनुभूति के ३ दिन बादमें दि. २२ - १२-९६ के दिन सुबह ९-३० बजे साधना के दौरान मस्तकमें सहस्रारचक्रमें से हजारों चन्द्रसे भी अधिक शीतल एवं जाज्वल्यमान प्रकाश आकाशमें जा रहा है ऐसा दिव्य अनुभव हुआ जो करीब ५ मिनट तक चालु रहा था । (७) दि. १६/१७ -९-९७ की रात को १२ से २ बजे के दौरान निद्रामें यकायक ॐकार नाद नाभिसे प्रारंभ होकर हृदय, कंठ और ललाट में से पसार होकर ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता हुआ अनुभवमें आया । इस नाद के साथ ॐ ह्रीं अहँ नमः का लयबद्ध जप सारी रात स्वयमेव चालु रहता था । (८) दि. १८/१९/२० -९-९७ की रात को १२ से २ के बीच तुंही - तुंही का नाद हृदय में प्रारंभ हुआ जो १५ मिनट तक चलता था । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ये सभी अनुभूतियाँ अंत:करण की विशुद्धि के संसूचक हैं । आत्मा की अत्यंत लघुकर्मिता के ज्ञापक हैं । निरंजन-निराकार परमानंदमय आत्मानुभवकी अत्यंत नजदीक की उत्तम अवस्था के द्योतक हैं । विशेष तो ज्ञानी भगवंत या उच्चतर भूमिका वाले साधक या सिद्धयोगी महापुरुष कह सकते हैं । महान योगीराज श्री आनंदघनजी महाराज द्वारा विरचित स्तवन चौबीसी के विषयमें स्वानुभव द्वारा सुंदर विवेचन खीमजीभाईने हस्त लिखित पोथीमें लिखा है जो आत्मार्थी मुमुक्षुओं के लिए खास पठनीय है। इस दृष्टांत को पढकर कोई भी ऐसा नहीं सोचें कि- 'हम भी इसी तरह उत्तरावस्था में आत्म साधना कर लेंगे, अभी तो अर्थोपार्जन करके मौज कर लें'... क्योंकि जीवन का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए धर्मकार्यमें विलंब करना श्रेयस्कर नहीं होता । संयोगवशात् जो मनुष्य युवावस्थामें साधना नहीं कर सके हैं और जिनकी उत्तरावस्था का प्रारंभ हो चुका है ऐसे मनुष्य हताश न बनें, किन्तु इस दृष्टांतमें से प्रेरणा पाकर " जब जागे तब सुबह " समझकर आत्म साधनामें आगे बढ़ें यही शुभेच्छा है । ___खीमजीभाई हाल संयोगवशात् मुंबईमें अपने सुपुत्र मणिलालभाई के साथ रहते हैं । वृद्धावस्था के कारण बाह्य दृष्टि से साधना के क्रममें थोड़ी कमी जरूर हुई है मगर आभ्यंतर भावधारा तो उत्तरोत्तर विशुद्धविशुद्धतर बनती जा रही है ऐसी प्रतीति उन्हें हो रही है। खीमजीभाई की तस्वीर पेजनं 25 के सामने प्रकाशित की गयी है। - पता : खीमजीभाई वालजी बोरा Clo. मणिलालभाई खीमजी वोरा डी-९, समीर एपार्टमेन्ट समतानगर, (साइनगर), मु.पो.वसई रोड (पश्चिम) जि. थाणा, (महाराष्ट्र) पिन : ४०१२०२ फोन : 0250-332769 PP. महेन्द्रभाई, प्रतीक्षा बहन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १७७ हिमालय के सिद्धयोगी महात्मा के मार्गदर्शन अनुसार नवकार महामंत्र की साधना करनेवाले श्री दामजीभाई जेठाभाई लोडाया । मंत्राधिराज श्री नवकार महामंत्र !... जिसके विषयमें गाया जाता है कि " योगी समरे भोगी समरे, समरे राजा रंक । देवो समरे दानव समरे, समरे सहु निःशंक ॥" ऐसे महामंत्र नवकार का स्मरण जैन कुलोत्पन्न प्रत्येक मनुष्य अल्पाधिक मात्रा में भी करते हैं इसमें आश्चर्य नहीं, लेकिन हिमालय में रहते हुए सैंकड़ों वर्ष की उम्रवाले सिद्धयोगी महात्मा भी नवकार महामंत्र का आलंबन लेकर योग साधना करते हैं । यह बात निम्नोक्त दृष्टांत से जानकर महामंत्र की सर्व व्यापकता देखकर सानंद आश्चर्य के साथ अहोभाव वृद्धिंगत हुए बिना रहता नहीं । मूलतः कच्छ-सुथरी गाँव के निवासी लेकिन हाल मुंबई-दादरमें रहते हुए सुश्रावक श्री दामजीभाई जेठाभाई लोड़ाया (उम्र वर्ष ८८) पिछले ५२ वर्षों से हिमालय के ऐसे योगीराज के मार्गदर्शन के अनुसार नवकार महामंत्र के आलंबनसे योग साधना कर रहे हैं । आईए, हम उनके जीवनमें थोड़ा दृष्टिपात करें। दामजीभाई के पिताश्री जेठाभाई उज्जैन (म.प्र.) में कपास का व्यापार करते थे । इसलिए उज्जैनमें स्नातक बने हुए दामजीभाई उनके चाचा श्री वालजीभाई लधाभाई की मुंबईमें कपास की बड़ी पेढी चलती थी उसमें हिस्सेदार के रूपमें शामिल हुए। दामजीभाई ने अपने चाचाश्री को सट्टा नहीं करने की विज्ञप्ति की, मगर भवितव्यतावशात् अन्य तीन व्यापारियों के आग्रहसे अपनी कंपनी के नाम से बड़ा सट्टा किया और कर्म संयोग से उसमें ९० लाख रूपयों की हानि हुई। दूसरे व्यापारियोंने वालजीभाईसे नाता तोड़ दिया इसलिए वालजीभाई की कंपनीको इतनी भारी राशि चुकाने की जिम्मेदारी आ गयी। इसके आघातसे उनको हृदय का दौरा पड़ गया और उनका बहुरत्ना वसुंध - २-12 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ देहावसान हो गया । अब वह धनराशि चुकाने की जिम्मेदारी दामजीभाई पर आ पड़ी, इसलिए वे चिंतामग्न हो गये । उनको चिंतातुर देखकर एक श्रावक उनको दादरमें कबूतर खाना के पास शांतिनाथ जिनालय के उपाश्रयमें चातुर्मास बिराजमान परम शासन प्रभावक प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय लक्ष्मणसूरीश्वरजी म.सा. के पास ले गये । उस वक्त दामजीभाई नास्तिक जैसे थे । धर्म के प्रति उनको जरा भी आस्था नहीं थी । यह जानकर आचार्य भगवंतने उनको कहा कि'नास्तिकता को छोड़ दो । जैन धर्ममें अनेक उत्तम मंत्र हैं । आपको मैं एक मंत्र देता हूँ, ३ दिन तक कुछ भी खाये पीये बिना अर्थात् चौविहार अठ्ठम तप करके इस मंत्रका जप करना होगा । मैं जानता हूँ कि नास्तिक होने से आपके पास दीपक, अगरबत्ती, आसन इत्यादि कुछ भी नहीं होगा। इसलिए आप कुर्सी पर बैठकर, पूर्व दिशाकी ओर मुँह रखकर, इस मंत्रका जप करें । रातको केवल २-३ घंटोंसे अधिक समय सोना नहीं । इस प्रकार से मंत्र जप करने द्वारा ३ दिनोमें अगर ९० लाख रूपये मिल जायें तो मेरे पास आना, मैं आपको धर्म में जोड़ दूंगा' !!... (वह मंत्र था - 'ॐ परमगुरु - गुरुभ्यो नमः स्वाहा') _ 'डूबता हुआ मनुष्य तृण को पकड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है।' इस उक्ति के अनुसार दामजीभाई इस अनुष्ठान को करने के लिए तैयार हो गये... और तीसरे ही दिन जैसे कोई चमत्कार ही हुआ हो उसी तरह एक मारवाड़ीभाईने उनको फोन द्वारा अपने घर पर बुलवाकर १ करोड़ रूपये सामने से भेंट के रूपमें दे दिये ! दामजीभाई के आश्चर्य और अहोभाव का पार न रहा । परम पूज्य आचार्य भगवंत के प्रति और जैन धर्म के प्रति उनके हृदयमें अपार श्रद्धा और आदर उत्पन्न हो गये । बात ऐसी हुई थी कि, एक वर्ष पूर्वमें उपरोक्त मारवाड़ीभाई को कपास के सट्टेमें ३ करोड रूपयों की हानि होनेकी परिस्थिति का सर्जन हुआ था। तब वे भाई दामजीभाई के पास आकर कहने लगे कि - 'अंग्रेज गवर्नर के साथ आपकी अच्छी मित्रता है, तो आप उनको समझाइए Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कि कपास का सट्टा बंद करने का वटहुकम जाहिर कर दें और कपास का भाव भी कम कर दें, तो मैं बड़ी हानिसे बच सकूँगा और आपका उपकार कभी भी नहीं भूलँगा। उनकी बात सुनकर दामजीभाईने वैसा करवाया, फलतः उस भाई के ३ करोड रूपये बच गये । उस वक्त उस मारवाड़ी भाईने अपने मनमें संकल्प किया था कि अगर मेरे ३ करोड़ रूपये बच जायेंगे तो १ करोड़ रूपये दामजीभाई को दूंगा । इस संकल्प की बात उन्होंने दामजीभाई को बतायी नहीं थी । फिर भी दामजीभाई की आर्थिक विषम परिस्थिति की खबर मिलते ही उन्होंने स्वयमेव फोन करके दामजीभाई को १ करोड रूपये अर्पण कर दिये । दामजीभाई संकट से पार हो गये । कपास के बड़े बड़े व्यापारी भी दामजीभाई के प्रति आदर की दृष्टिसे देखने लगे । इस प्रसंग के बाद दामजीभाई प्रतिदिन प.पू. आचार्य भगवंत श्री के पास जाने लगे । पूज्यश्रीने भी उन पर कृपा दृष्टि बरसायी और जैन धर्म का मर्म समझाकर नवकार महामंत्र की आराधनामें जोड़ा । दामजीभाई के भाग्य के द्वार खुल गये और नियति उनको और भी आगे बढाने के लिए चाहती हो वैसी एक विशिष्ट घटना उनके जीवनमें घटित हुई । एक बार वे पुनामें एक लायब्रेरीमें बैठकर योग, प्राणायाम और स्वरोदय संबंधी किताबें पढ़ रहे थे तब एक अजनबी महात्मा उनके पास आकर कहने लगे, 'आपको जिसकी चाहना है वह आपको हिमालयमें हर द्वारमें लंगड़ाबाबाकी टेकरी (छोटी सी पहाड़ी) है वहाँ मिल जायेगा ' । दामजीभाई का जिज्ञासु और साहसिक हृदय यह सुनकर अत्यंत हर्षित हो गया और कुछ दिन बाद वे सचमुच हवाई जहाज और रेलगाडी द्वारा हरद्वार पहुँच गये । वहाँ जाकर उन्होंने लंगड़ाबाबा की पूछताछ की तब लोगोंने बताया कि - 'आप उनके पास जाओ भले, मगर वे आपको मार पीटकर निकाल देंगे!'... दामजीभाईने कहा 'जो मेरे भाग्यमें होगा, वैसा होगा ।' बादमें वे हिंमत करके नवकार महामंत्र का स्मरण करते हुए उपर चढने लगे । रास्तेमें अजगर और दो हाथी क्रमशः मिले । ७-७ नवकार Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ सुनाने से वे दूर हो गये और दामजीभाई लंगड़ाबाबा के निवास स्थानमें पहँच गये और उनको प्रणाम किया। महात्माजी ने प्रथम तो उनकी परीक्षा करने के लिए कठोर शब्दोंमें कहा - 'क्यों आये हो यहाँ ? चले जाओ यहाँ से ।' दामजीभाईने नम्रतासे प्रत्युत्तर दिया तो भी विशेष परीक्षा करने के लिए उनका गला पकड़ करके टेकरीसे नीचे फेंक देने के लिए तैयार हो गये । तो भी दामजीभाई डरे नहीं और नवकार महामंत्र का स्मरण करते रहे ! आखिरमें उनकी हिंमत और दृढ श्रद्धा देखकर महात्माजी प्रसन्न हुए और उनको नवकार महामंत्र की साधना के विषयमें सुंदर मार्गदर्शन दिया । पंच परमेष्ठी के पाँच रंगों के साथ पंच भूतमय हमारे शरीरमें और विश्वमें रहे हुए पाँच रंगों का संबंध समझाया और हमारे शरीरमें रीढ की हड्डीमें आयी हुई सुषुम्णा नाड़ीमें रहे हुए मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्रार नाम के सात चक्रों पर नवकार महामंत्र का जप करने की विधि समझायी । दामजीभाई को तो मानो अमृतभोजन मिला हो उतना आनंद हुआ । घर आकर वे महात्माजी के मार्गदर्शन के मुताबिक वे प्रतिदिन रातको और ब्राह्म मुहूर्तमें घंटों तक नवकार महामंत्र की साधना करने लगे । जब जब मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तब दूरभाष (टेलिफोन) की तरह महात्माजी की आवाज स्वयमेव दामजीभाई को सुनाई देती है । इस तरह दूर बैठे बैठे भी वे अपने शिष्य की देखभाल करते हैं । उपरोक्त घटना के बाद हर पल १०-१० साल के बाद वे दामजीभाई को दिल्ली-आबु-कन्याकुमारी और नेपालमें क्रमशः प्रत्यक्ष मिलते रहे हैं । ____ साधना के प्रभावसे दामजीभाई को विविध प्रकारकी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती रही हैं, मगर महात्माजी के मार्गदर्शन के मुताबिक वे उन्हें गुप्त रखना ही पसंद करते हैं; लेकिन योग्य जिज्ञासु मुमुक्षुओं को वे नवकार महामंत्र की आराधना के विषयमें नि:संकोच भावसे मार्गदर्शन देते रहते हैं। कई बार विदेशों से भी उनको निमंत्रण मिलते हैं और वे विदेश Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ जाकर वहाँ के लोगोंको नवकार महामंत्रकी महानता समझाते हैं और उसकी साधना के विषयमें मार्गदर्शन देते हैं । नवकार महामंत्र का शुद्ध उच्चार करने के बारेमें वे खूब भार देते हैं। शुद्ध और अशुद्ध उच्चार करने से विश्व के पाँच महाभूत (पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु और आकाश) के उपर कैसा अलग अलग प्रभाव पड़ता है यह बात उन्होंने विदेश के वैज्ञानिकों के सहयोगसे प्रयोग करके सिद्ध किया है। कच्छी दशा ओसवाल ज्ञातिके मुखपत्र 'प्रकाश समीक्षा' मासिक में दामजीभाई के 'सरल योगदर्शन' के विषयमें करीब १३ लेख प्रकाशित हुए । हैं, जो जिज्ञासुओं के लिए खास पठनीय हैं। आध्यात्मिक साधना के अलावा व्यवहारमें भी वे अंग्रेजों के समयमें और आज भी सरकारमें अच्छा संबंध रखते हैं । दि. १४-४१९४४ में मुंबईमें प्रचंड विस्फोट हुआ था तब एवं उसके बाद भी अकाल, अतिवृष्टि, भूकंप आदि अनेक प्रसंगोंमें सरकार की विज्ञप्ति से उन्होंने अनुमोदनीय लोकसेवा की है । इ.स. १९९४ के एप्रिल महिने के 'जन्मभूमि' अखबारमें दामजीभाई की लोकसेवाओं पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। वि.सं. १९६७ में अषाढ शुक्ल २ के दिन जन्म धारण किये हुए दामजीभाई आज ८८ साल की उम्रमें भी नवकार महामंत्र की साधना प्रतिदिन उल्लासपूर्वक करते हैं । पता : दामजीभाई जेठाभाई लोड़ाया २०/२१, 'दिव्य महाल', ज्ञानमंदिर रोड़, दादर-मुंबई ४०००२८ फोन : २६६०७२४ - २६६०३४६ ओफिस ४२२३४८३ घर Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ९३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग हजार यात्रिकों को १०० दिन पर्यंत ९९ यात्रा करानेवाले बंधु युगल संघवी, संघरत्न श्री शामजीभाई एवं मोरारजीभाई गाला - I पिछले कई वर्षोंसे हर साल पालितानामें अलग अलग १२ - १३ धर्मशालाओं में भिन्न भिन्न संघपतियों की ओरसे श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की सामूहिक ९९ यात्रा का आयोजन किया जाता है । हरेक यात्रा संघ में प्राय: ३००-४०० जितनी संख्यामें यात्रिक होते हैं और लगभग २ या २ || महिनोंमें यह आयोजन पूर्ण हो जाता है । किन्तु वि. सं. २०३५ में कच्छी समाज के सैंकडों वर्षों के इतिहासमें प्रथमबार कच्छ - मोटा आसंबीआ गाँव के संघवी संघरत्न श्री शामजीभाई जखुभाई गाला और उनके लघुबंघु श्री मोरारजीभाई गालाने १ हजार जितने यात्रिकों को एक साथ ९९ यात्रा करवाने का अत्यंत अनुमोदनीय लाभ लिया था । 1 ८ वर्षसे लेकर ७८ वर्षकी उम्रके यात्रिक उसमें शामिल थे । वे सभी सुगमता से हररोज एक एक यात्रा करके अच्छी तरह से प्रभुभक्ति कर सकें ऐसी भावनासे यह आयोजन १०० दिन तक रखा गया था !... कन्वीनर श्री मावजीभाई वेलजी गड़ा ( कच्छ-मोटा रतडीआवाले) और श्री प्रेमजीभाई देवजी ( कच्छ - गोधरावाले ) ने अत्यंत कुशलता से इस कार्यक्रम का संचालन किया था इसलिए संघपति भी एकदम निश्चित होकर ९९ यात्रा कर सके थे । प्रतिदिन प्रातः प्रतिक्रमण एवं भक्तामर स्तोत्रपाठ के बाद मांगलिक श्रवण करके ढोल - शहनाई की सुरावलि के साथ विविध धार्मिक नारे एवं जयनादों से आकाश मंडल को नादमय बनाते हुए एक हजार यात्रिक शिस्तपूर्वक राजेन्द्र विहार धर्मशाला से प्रयाण करके श्री शत्रुंजय गिरिराज की तलहटीमें उत्तम द्रव्यों से तीर्थाधिराज का पूजन करके सामूहिक चैत्यवंदन करते थे । उस समय के अपूर्व दृश्य को देखकर बड़े बड़े आचार्य भगवंत भी विचार मग्न हो जाते थे कि आचार्यादि पदस्थों की निश्रा के बिना, केवल ३ छोटी उम्रवाले मुनिवरों (मुनि श्रीकवीन्द्रसागरजी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १८३ ( हाल गणि), मुनि श्री महोदयसागरजी (हाल गणि- प्रस्तुत पुस्तक के संपादक ) और मुनि श्री पुण्पोदयसागरजी ) की निश्रामें इतना विशाल और भव्य आयोजन कैसे आयोजित हुआ होगा ? !... लेकिन, 'युगादिदेव श्री आदिनाथ दादा एवं श्री सिद्धाचलजी महातीर्थका अद्भुत प्रभाव, तीर्थ प्रभावक अचलगच्छाधिपति प.पू. आ.भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की असीम कृपा और योगनिष्ठा, परमोपकारी सुसाध्वी श्री गुणोदया श्रीजी म.सा. के दिव्य आशीर्वाद ही इस आयोजन की सफलता के अदृश्य कारण हैं' ऐसा श्री संघपतिजी विनम्रभावसे निवेदन करते थे । इसी प्रभाव - कृपा और आशीर्वादों के प्रभावसे ही केवल ४ वर्ष का दीक्षा पर्याय होते हुए भी सिर्फ "नमो अरिहंताणं" पद के ऊपर ही १०० दिन के इस पूरे आयोजनमें व्याख्यान देने का सद्भाग्य भी मुझे संप्राप्त हुआ था ।... यात्रा संघपति श्री शामजीभाई ने स्वयं मौनपूर्वक ९९ यात्रा की थी - पूजा आदि करके करीब ३-४ बजे वे धर्मशाला में वापिस लौटते थे, बादमें एकाशन करते थे तब तक वे मौन ही रहते थे । उन्होंने एवं अन्य भी कई यात्रिकोंने इस ९९ यात्रा के दौरान श्री सिद्धगिरिजी की सभी ट्रंकोंमें रहे हुए सभी जिनबिम्बोंकी नवांगी पूजा रूप 'भवपूजा' की थी । संघपति मालारोपण के समयमें संघपति श्री शामजीभाई ने आजीवन क्रोध न करनेकी प्रतिज्ञा स्वीकार करके इस आराधना रूपी मंदिर के उपर मानो कलश चढाया था । १०० दिन पर्यंत प्रतिदिन सैंकड़ों साधु-साध्वीजी भगवंतों को तीनों टाईम सुपात्रदान का अत्यंत अनुमोदनीय आयोजन भी उन्होंने किया था । पोष पूर्णिमा के बाद जब अन्य धर्मशालाओंमें ९९ यात्रा का आयोजन पूर्ण हो चुका था तब विशेष रूप से यह महान लाभ उन्होंने लिया था । इस संपूर्ण आयोजनमें एक भी रूपये का दान उन्होंने किसी से भी स्वीकार नहीं किया था, संपूर्ण लाभ दोनों भाइयोंने ही मिलकर लिया था । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ अंतमें सभी यात्रिकों का दूध-पानी से चरण प्रक्षालन बहुमान. पूर्वक करके संघपति परिवार के सदस्यों ने उस चरणामृत का आचमन किया तब उनकी विनम्रता देखकर दर्शकोंकी आंखें अहोभाव से अश्रभीगी हो गयीं थीं।... इस ९९ यात्रा के करीब ५ वर्ष बादमें उन्होंने समस्त कच्छ जिले में से, ८० सालसे बड़ी उम्र होते हुए भी जिन्होंने श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की यात्रा नहीं की हो ऐसे सैंकड़ों साधर्मिकों को बसों के द्वारा पालिताना और उसकी पंचतीर्थी की यात्रा करवाने का महान लाभ लिया था । वि. सं. २०३३ में कच्छ केसरी, तीर्थ प्रभावक अचलगच्छाधिपति, प.पू.आ.भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की तारक निश्रामें कच्छ-गोधरासे पालिताना का ४५ दिनका छ:'री'पालक भव्यसंघ निकला था, उसमें तीन संघपतियों में से एक संघपति के रूपमें संघवी श्री शामजीभाई ने भी अनुमोदनीय लाभ लिया था। अपनी जन्मभूमि कच्छ-मोटा आसंबीआ गाँवमें अपने परमोपकारी, योगनिष्ठा विदुषी पू.सा.श्री. गुणोदयाश्रीजी म.सा. कि निश्रामें कुल २७ साध्वीजी भगवंतों का चातुर्मास करवाने का महान लाभ भी उन्होंने वि.सं. २०२४ में लिया था । उस वक्त अन्य संघाटक के साध्वीजी भगवंत भी पू.सा. श्री गुणोदयाश्रीजी म.सा. की निश्रा में संयम जीवन की तालीम लेने के लिए चातुर्मास रहे थे। वि.सं. २०२६ से पाँच साल तक पू.सा. श्री गुणोदयाश्रीजी म.सा. की निश्रामें साध्वीजी भगवंतों को एवं मुमुक्षुओं को संस्कृत व्याकरण, न्याय एवं षट् दर्शन आदि के अध्ययन करवाने के लिए बिहार के पंडित शिरोमणि श्री हरिनारायण मिश्र (व्याकरण-न्याय-वेदांताचार्य) को वे कच्छमें लाये थे और ५ वर्ष तक उनके वेतन आदिका लाभ भी उन्होंने मुख्य रूपसे लिया था । उस वक्त मुझे भी उपरोक्त पंडितजी के पास ५ साल पर्यंत व्याकरण-न्याय-षट्दर्शन आदि के अध्ययन का महान सौभाग्य संप्राप्त हुआ था । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १८५ अनेक मुमुक्षुओं को एवं उनके माता-पिताओं को उन्होंने समेतशिखरजी आदि महातीर्थों की यात्रा करवाने का महान लाभ भी लिया है। __ वि.सं. २०३७में तपस्वीरत्न (हाल अचलगच्छाधिपति) प.पू.आ.भ. श्री गुणोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रामें १०८ जिन बिम्बों की अंजनशलाका कच्छ-मोट आसंबीआ गाँवमें करवाने का अपूर्व लाभ उन्होंने लिया था । उनमेंसे अनेक जिनबिम्ब गुजरात, मुंबई एवं अन्य क्षेत्रों में प्रतिष्ठित हुए हैं । बाकी के जिनबिम्ब मोटा आसंबीआ के जिनालयमें बिराजमान हैं, उन सभी जिन बिम्बों की प्रक्षाल एवं नवांगी पूजा वे स्वयं प्रतिदिन करते हैं। शामजीभाई के सुपुत्र व्यवसाय हेतु मुंबई-मुलुन्डमें रहते हैं, मगर वे स्वयं पिछले कई वर्षों से आराधना के हेतु से कच्छमें ही रहते हैं । हररोज प्रातः ६ बजे से लेकर दोपहर को २ बजे तक वे प्रायः जिन मन्दिरमें ही होते हैं। प्रक्षाल, पूजा, चैत्यवंदन, जप, आरती आदि द्वारा प्रभुभक्ति करते हैं। जिनवाणी श्रवण का योग होता है तो बीचमें १ घंटे के लिए उपाश्रयमें जाते हैं, अन्यथा मंदिरमें ही विविध प्रकार से प्रभुभक्तिमें लीन रहते हैं। जीव रक्षाके लिए चातुर्मासमें अपना गाँव छोड़कर पास के गाँवमें भी नहीं जाते । अपने गाँवमें भी अपने घरसे लेकर जिन मन्दिर-उपाश्रय की गली छोड़कर दूसरी गलीमें भी नही जाते ! नीची दृष्टि रखकर, ईर्या समिति का पालन करते हुए गज-गति से धीरता पूर्वक जिनालय या उपाश्रय में जाते हुए उनको देखना भी आनंदप्रद होता है। बोलने का प्रसंग आता है तब मुँह के आगे रुमाल (वस्त्रांचल) रखकर भाषा समिति के उपयोग पूर्वक अनिवार्य हो इतना ही बोलते हैं। व्याख्यान के समयमें आँखें बंद करके अत्यंत एकाग्रता और भावपूर्वक एक एक शब्द का पान करते हैं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ सचमुच, ऐसे धर्मनिष्ठ श्रावकरत्नोंसे संघ-शासन और समाज भी गौरवान्वित होते हैं । उनके जीवनमें से सभी यथाशक्ति प्रेरणा प्राप्त करें यही शुभाभिलाषा। पता : शामजीभाई जखुभाई गाला मु.पो. मोटा आसंबीआ, ता. मांडवी-कच्छ (गुजरात) पिन : ३७०४८५ | अनेक सद्गुणोंसे अलंकृत, उदार चरित, सुश्रावक श्री बाबुभाई (खीमजीभाई) मेघजी छेडा । नि:स्वार्थ सेवा जिनका जीवनमंत्र है, श्री जिनेश्वर भगवंत के प्रति जिनकी भक्ति अहोभाव प्रेरक है, जिनाज्ञा पालक साधु-साध्वीजी भगवंतों के प्रति जिनके हृदयमें अनन्य श्रद्धा है, नवकार महामंत्र जिनका श्वास-प्राण है, करोड़पति होते हुए भी विनम्रता, सरलता, सौजन्य, सादगी, सेवा, संयमप्रेम, सदा प्रसन्नता, उदारता आदि अनेकानेक सद्गुणोंने जिनके हृदयमें हमेशा के लिए स्थान जमाया है, लाखों लोगों के परम प्रीतिपात्र, साधुसंतों के कृपापात्र और सर्व विरति धर्म की प्राप्ति के लिए हमेशा उत्सुक ऐसे श्रावक श्रेष्ठ श्री बाबुभाई मेघजी छेड़ा के गुणों का वर्णन करने के लिए यह लेखिनी असमर्थ सी लगती है । मूलतः कच्छ-कांडागरा गाँवके निवासी किन्तु वर्तमानमें मुंबईचर्चगेटमें रहते हुए बाबुभाई छेड़ा (उ.व. ६२ आसपास) कोई आसन्न मोक्षगामी जीव होंगे ऐसा उनके परिचयमें आनेवाले किसी भी मनुष्य को लगता है। ___ हररोज सुबह ४ बजे उठकर २ घंटे तक नवकार महामंत्र का एकाग्र चित्तसे जप और अरिहंत परमात्मा का ध्यान करते हैं। उसके बाद Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १८७ जिनालयमें जाकर भावपूर्वक प्रभुपूजा करते हैं । जिनवाणी श्रवणका योग होता है तब वे अचूक लाभ लेते हैं । प्रतिदिन कम से कम बियासन का पच्चक्खाण करते ही हैं । उसमें केवल ५ द्रव्यों से अधिक द्रव्योंका उपयोग नहीं करते हैं । घी-दूध, फल और मेवे का आजीवन त्याग है, लेकिन साधु-साध्वीजी भगवंतों को अत्यंत भाव पूर्वक उपरोक्त द्रव्य बहोराकर भक्ति करते हैं । २-३ सब्जियों के सिवाय बाकी सभी हरी सब्जियों का त्याग है । सब्जी भी बिना मसालेवाली ही खाते हैं ।... नवपदजी की ओलीकी आराधना अपनी जन्मभूमि कांडागरा गाँवमें जाकर करते हैं तब धर्मभावनाशील अनेक साधर्मिकों को अपने साथ ले जाते हैं और अपने घरमें ही आयंबिल करवानेका लाभ लेते हैं । ओली के दौरान व्याख्यानमें हररोज संघपूजन करते हैं और तपस्वियों का पारणा करवाकर विशिष्ट प्रभावना द्वारा बहुमान करते हैं । स्वयं नवपदजी की आराधना करते हैं और अनेकोंको उपरोक्त प्रकार से नवपदजीकी आराधना करवाते हैं, इसलिए कांडागरा जैसे छोटे गाँवमें भी अत्यंत अनुमोदनीय धर्मजागृति पायी जाती है । चातुर्मास के ४ महिने तक वे कांडागरामें रहते हैं, तब किसी भी गच्छ-संप्रदाय के साधु-साध्वीजी भगवंत उनके गाँवमें चातुर्मास बिराजमान होते हैं उनके दर्शन-वंदन हेतु जो भी साधर्मिक बाहर से आते हैं, उन सभीको वे आग्रह पूर्वक अपने घर ले जाकर अत्यंत भाव पूर्वक उनकी साधर्मिक भक्ति करते हैं। यदि कोई साधर्मिक भोजन करने के लिए 'ना' बोलते हैं तब वे स्वयं उपवास का पच्चक्खाण लेने के लिए तैयार हो जाते है ! ऐसी है बेजोड़ उनकी साधर्मिक भक्ति की भावना ! ' चातुर्मास के प्रारंभ होने से पूर्व सारे कच्छ जिले के अनेक गाँवोंमें जहाँ भी साधु-साध्वीजी भगवंत बिराजमान होते हैं वहाँ वे अपनी गाड़ी से पहुँच जाते हैं और रत्नत्रयी के उपकरण अत्यंत भावपूर्वक बहोराकर अपने आपको धन्य मानते हैं। चातुर्मास के दौरान एवं शेष कालमें भी जब साधु-साध्वीजी भगवंतोंका योग होता है तब अपने घरमें गौचरी-पानीका लाभ देने के लिए Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ वे तीनों टाईम अत्यंत भावपूर्वक विज्ञप्ति करके अत्यंत अहोभाव से सुपात्रदान का लाभ लेते हैं। मुंबईमें 'बोम्बे अस्पताल' में उनका अनमोल योगदान है। प्रत्येक मरीजों को वे नवकार महामंत्रका कार्ड देते हैं और उसका जप करने की प्रेरणा करते हैं । स्वयं एवं उनके परिवार के सदस्य भी मरीज की देखभाल करने के लिए जाते हैं तब नवकार महामंत्र सुनाते हैं । मरीजों के लिए भोजन की व्यवस्था भी वे अपने घर से करवाते हैं । ऐसी निःस्वार्थ सेवावृत्तिके कारणसे वे "बाबुभाई बोम्बे होस्पीटलवाले" के रूपमें प्रख्यात हो गये हैं । अस्पताल के डॉक्टर एवं स्यफ भी उनको "देवदूत' के रूपमें पहचानते हैं। ___ अपने मकानको बनानेवाले मजदूरों को उन्होंने बक्षिस के रूपमें सुवर्ण मुद्रा देकर उनका आभार मानते हुए बाबुभाईने कहा कि- "आप लोगोंने अगर मेरा घर बनाया नहीं होता तो मैं कहाँ रहता ? आप तो मेरे अत्यंत उपकारी हो"। इस तरह जीवमात्रमें शिवत्वका दर्शन करने वाले बाबुभाई सभीके दिलमें बस जायें तो उसमें आश्चर्य कैसा !!... उनके द्वारा उपकृत हुए अनेक मरीजोंने खत लिखकर अपने हृदयोद्गार अभिव्यक्त किये हैं, उनमें से एक व्यक्तिने गुजराती भाषामें काव्य के रूपमें बाबुभाई के प्रति कृतज्ञता भाव अभिव्यक्त किया है जो निम्नोक्त प्रकारसे है -- "दिल जेनुं दरियाव छे, जेना गुणोनो नहीं पार । ए बाबुभाई छेड़ाना चरणमां, वंदन करुं हुं वारंवार ॥१॥ सेवा करे छे खंतथी, भले ए रंक होय के राय । सवार-सांज नित्य ए, दर्दीने मलवा जाय ॥२॥ साधु बनवू सहेल छे, बाबु बनवू मुश्केल । निखालसता नयणे झरे, जेना मनमां नथी मेल ॥३॥ मलकता होय ए मानवी, जवाब आपे मीठो । जीवतो जागतो भगवान, में बाबुभाईमां दीठो ॥४॥ निराधारनो आधार छे, अने गरीबोनो दातार । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____१८९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ नामनी नथी लालसा, अने मतलब नथी लगार ॥५॥ होस्पीटलमां हॉसथी, हाजर रहेता हमेश । लेंघो झब्भोने धोळी टोपी, सादो एमनो वेश ॥६॥ मुंबईमां मोटप मले, ने विदेशमां वंचाय । कच्छने गामड़े गामड़े, गुजराते पण गवाय ॥७॥ मुंबई जेवा शहेरमां, कोण कोने पूछे छे ? पण ओलीयो आ अवतारी, सहुना आंसु लूछे छे ॥८॥ धन्य मात पिता कांडागरा गाम, जेणे बाबुभाईने जन्म दीधो । दुःखीयाना दुःख भांगवा, मनुष्य जन्म लीधो ॥९॥ भचाउ तालुको ने वाया सामखीयारी, जंगी मारु गाम । नागजी महाराजनो दीकरो, ने दयाराम मारुं नाम ॥१०॥ अध्यात्मयोगी प.पू. पन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. एवं विशिष्ट नवकार साधक पपू. पन्यास प्रवर श्रीअभयसागरजी म.सा. की निश्रामें रहकर उनके मार्गदर्शन के मुताबिक बाबुभाई ने नवकार महामंत्रकी विशिष्ट साधना की है और आज भी उनकी साधना चालु ही है । उसके फल स्वरूपमें उनको अनेक विशिष्ट अनुभूतियाँ भी हुई हैं । इसी के प्रभावसे वे असीम लोक चाहना के बीच भी अनासक्त कर्मयोगी जैसा जीवन जी रहे हैं । उनकी साधना एवं सेवाकी प्रवृत्तियोंमें उनकी धर्मपत्नी शान्ताबहन और सुपुत्र महेन्द्रभाई आदि का भी सुंदर सहयोग है । बाबुभाई की साधना एवं सेवा आदि सद्गुणों की हार्दिक अनुमोदना । पता : बाबुभाई मेघजी छेड़ा छेड़ा सदन, दूसरी मंजिल, जे. या रोड, चर्चगेट मुंबई - ४०००२० फोन : २०४२८५०/२८५३१५५ (घरमें) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ स्वस्थ होते हुए भी आजीवन अपने मकानसे बाहर नहीं जानेका संकल्प करनेवाले बेजोड़ आराधक प्रेमजीभाई (प्रेम सन्सवाले) कच्छ-मुन्द्रा तहसील के कांडागरा गाँवमें सुश्रावक श्री प्रेमजीभाई (प्रेमसन्सवाले) अद्भुत आराधना के द्वारा अपना जीवन सफल बना गये और अनेकों के लिए प्रेरणा रूप बनते गये । ३ साल पूर्वमें अनसन द्वारा, अपूर्व समाधि पूर्वक स्वर्गस्थ बने हुए प्रेमजीभाई करोड़पति एवं आरोग्य संपन्न होते हुए भी आत्म साधना के लक्ष्यसे उन्होंने पिछले करीब १० सालसे आजीवन अपने मकानसे बाहर नहीं जानेका संकल्प किया था । कैसा अद्भुत होगा उनका संवरभाव । कैसी बेमिशाल होगी उनकी आत्म तृप्ति और आत्म मस्ती !!!.... आज कल कई धनिक लोग केवल मौज-शौक या घूमने के लिए लंडन-पेरीस,, हॉगकॉग आदि विदेशोंमें जाते हैं, लेकिन जब तक आत्म तृप्ति का अनुभव नहीं होगा तब तक दुनिया भरमें घूमने के बाबजूद भी सच्ची शांति का अनुभव अशक्य ही है । और जिन्होंने साधना के द्वारा स्वाधीन और साहजिक ऐसे आत्मिक आनंदका अनुभव किया होता है ऐसे साधक घरमें या वनमें, स्मशानमें या गुफामें कहीं भी हों तो भी प्रसन्नता के महासागरमें हमेशा निमग्न रहते हैं । ऐसे महापुरुषों को "मुड" लाने के लिए या "माइन्ड फेस" करने के लिए बाहर कहीं भी घूमने-फिरने की जरूरत ही नहीं रहती या टी.वी. विडियो इत्यादि माने हुए मनोरंजक साधनों की भी पराधीनता नहीं भुगतनी पड़ती । इस बात का प्रत्यक्ष . उदाहरण प्रेमजीभाई थे। वे अगर चाहते तो अपने बंगलेमें हर प्रकार के मौज-शौक की आधुनिक सामग्री बसा सकते थे। फिर भी - 'बाह्य किसी भी पदार्थमें सुख नहीं है, सच्चा सुख तो आत्मामें है और उसका अनुभव करने के लिए सर्वथा नि:स्पृह बनने की जरूरत है' ऐसा स्पष्ट रूपसे समझते हुए प्रेमजीभाईने अपने घरका माहौल उपाश्रय जैसा सादगी पूर्ण और रत्नत्रयी के उपकरणों से अलंकृत बनाया था । उनके घरकी प्रत्येक Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १९१ दीवारों पर आत्म जागृति प्रेरक सुवाक्य लिखे हुए हैं । स्वयं पौषध लेकर पौषध कक्षमें ही रहते थे । भोजनमें अनेक चीजों का त्याग कई वर्षों से था, जिसका विशेष वर्णन उनके जीवन के विषयमें प्रकाशित हुई किताबमें दिया गया है। पिछले दीर्ध समयसे वे अठ्ठम के पारणे अठ्ठम करते थे और पारणे में भी केवल ५ सामान्य द्रव्यों से ठाम चौविहार एकाशन ही करते थे !!! बिना नमक के चावल (भात), बिना सक्कर का दूध और चने इत्यादि ५ द्रव्योंसे ठाम चौविहार एकाशन करके दूसरे दिनसे पुन: वे अठुम तप का प्रारंभ कर देते थे !... ऐसी उग्र तपश्चर्या करने के बाबजूद भी उनकी मुखमुद्रा पर जरा सी भी ग्लानि या म्लानि दृष्टि गोचर नहीं होती थी । बल्कि अद्भुत प्रसन्नता और विशिष्ट तेज हमेशा दृष्टि गोचर होता था । उनका जन्म आठ कोटि नानी (छोय) पक्षके स्थानकवासी परिवारमें हुआ था, मगर वे मंदिर मार्गी साधु-साध्वीजी भगवंतों के प्रति भी अत्यंत आदरवाले थे और उनको भावसे बहोराते थे । विशिष्ट जीवदयाप्रेमी प्रेमजीभाईने समस्त जीवराशि के प्रति लोकोत्तर प्रेमभाव आत्मसात् करके अपने नाम और जीवनको सार्थक बनाया था । उनके जीवनमें से सभी यथाशक्ति प्रेरणा पाकर अपने जीवनको सार्थक बनायें यही शुभेच्छा । प्रेमजीभाई के सुपुत्र मुबईमें बीच केन्डीमें रहते हैं । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ९६ | नवकार महामंत्र के प्रभावसे केन्सर को केन्सल । करानेवाले धीरजलालभाई खीमजी गंगर ___ अनादिकालीन महा भयंकर भवरोग को मिटाने के लिए महान धन्वंतरी वैद्यराज समान श्री नवकार महामंत्र के प्रभाव से केन्सर जैसे असाध्य माने जाते बाह्य रोग केन्सल (नष्ट) हो जायें इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं है, मगर इसके लिए आवश्यक है साधक के हृदय की भद्रिकता, एकाग्रता और नवकार महामंत्र के प्रति सच्ची शरणागति । ऐसी भद्रिकता, एकाग्रता और शरणागति के द्वारा नवकार महामंत्रको सिद्ध करके, अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूतियों के आनंदमें अहर्निश मस्त रहनेवाले सुश्रावक श्री धीरजलालभाई खीमजी गंगर (उ.व. ५२) आजसे करीब १२ साल पूर्व अचलगच्छीय मुनिराज श्री सर्वोदयसागरजी म.सा. की प्रेरणासे धर्ममें जुड़े। मूलतः कच्छ-मेराउ गाँवके निवासी धीरजलालभाई वर्तमानमें मुंबई में पंतनगर विस्तार में रहते हैं । संसार पक्षमें उनके गाँवके एवं संबंधी ऐसे उपरोक्त मुनिराज की प्रेरणासे गुरुवंदन और चैत्यवंदन के सूत्र सीखने के बाद उनके अर्थका अभ्यास करते समय उवसग्गहरं स्तोत्रके अर्थमें परमात्मा को किये जानेवाले नमस्कार का प्रभाव जानकर अत्यंत अहोभावसे भावित हुए । उसके बाद अध्यात्मयोगी प.पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी म.सा. द्वारा लिखित नमस्कार महामंत्र संबंधी साहित्य एवं कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट-मुंबई द्वारा प्रकाशित 'जेना हैये श्री नवकार, तेने करशे शुं संसार ?' (संपादक-गणिवर्य श्री महोदयसागररजी म.सा.) पुस्तकमें नवकार महामंत्र के प्रभाव सूचक अनेक अर्वाचीन दृष्टांत पढ़कर नवकार महामंत्र के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। गुरुमुखसे नवकार महामंत्रको ग्रहण करके विधि पूर्वक जप का प्रारंभ किया । हृदय की साहजिक भद्रिकता - सरलता और श्रद्धा के कारण जपमें सुंदर तन्मयता होती थी । फलतः अल्प समयमें ही विविध प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होने लगीं। विजयजी । उसके बाद अध्यापार का प्रभाव जानकर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १९३ जप के प्रभावसे धीरजभाई को कभी गोदोहिका आसनमें तो कभी कायोत्सर्ग मुद्रामें, इस तरह अलग अलग प्रकारसे कुल ७ बार 'भगवान श्री महावीर स्वामी के साक्षात् स्वरूप का (प्रतिमास्वरूप का नहीं) दर्शन हुआ है । २ बार गणधर भगवंत श्री गौतम स्वामी के भी मानो साक्षात् स्वरूपमें ही दर्शन हुए हैं। मनमें जो भी इच्छा या संकल्प उठे वह अनायास ही तत्काल परिपूर्ण होने लगे। मनमें कुछ भी प्रश्न उठता तो वे जिनालयमें जाकर, नवकार महामंत्र का स्मरण करके, छोटे बच्चे की तरह सरल हृदयसे परमात्मा को प्रश्न पूछते हैं और श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान मानो साक्षात् बातचीत करते हों इस प्रकारसे उनको प्रत्युत्तर देते हैं । उसी प्रत्युत्तर के अनुसार आगामी कालमें घटनाएं घटने लगी, ऐसा कई बार अनुभव होने लगा। एकबार किसी निमित्तवशात् धीरजभाईने अपनी धर्मपत्नी सुश्राविका दिव्याबहन के उपर गुस्सा किया और बादमें जब वे मंदिरमें पूजा करने के लिए. गये तब परमात्माने उनसे कहा कि - 'पहले घर जाकर दिव्याबहनसे क्षमा याचना करो, बादमें ही तुम्हारी पूजा का स्वीकार होगा' और सचमुच धीरजभाई ने वैसा किया तभी उनकी पूजा का स्वीकार हुआ !..... एक बार महाराष्ट्र के डीग्रस शहरमें १८ अभिषेक प्रसंगमें धीरजभाई गये थे । वहाँ उनको विचार आया कि - ' प्रभु भक्ति के ऐसे शुभ प्रसंगों में देव-देवी भी साक्षात् पधारते हैं, तो मुझे उनका दर्शन मिले तो कितना अच्छा हो !' और तुरंत दो देवियों का उनको दर्शन हुआ । साथमें प्रभुजी का भी साक्षात् दर्शन हुआ । देवियों का रूप अद्भुत था लेकिन परमात्मा का रूप तो उनसे कई गुना अधिक अद्भुत और अलौकिक था । एक बार धर्मपत्नी दिव्याबहनने धीरजभाई को पूछा कि 'पंतनगरमें हाल छोटासा गृह मंदिर है, उसकी जगह बड़ा जिनालय कष बनेगा ?' नवकार महामंत्र के जप के प्रभावसे धीरजभाई ने प्रत्युत्तर दिया कि - 'तीन महिनों में हो जायेगा और सचमुच वैसा ही हुआ । ऐसे तो कई अनुभव उनको होते रहते हैं, जिसका विस्तृत वर्णन बहुरत्ना वसुंधरा - २-13 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ किया जाय तो शायद एक स्वतंत्र किताब ही तैयार हो जाय । वि.सं. . २०५० के चातुर्मास में नारणपुरा (अहमदाबाद)में एवं वि.सं. २०५१ के चातुर्मासमें बड़ौदामें हमारे पास धीरजभाई आये थे तब हमारी प्रेरणासे उन्होंने ऐसे कुछ अनुभव निखालसतासे हमें सुनाये थे । उनमेंसे नवकार महामंत्र के प्रभाव से एक मुनिराज का केन्सर का असाध्य दर्द कैसे केन्सल हुआ उसका रोमांचक अनुभव हम धीरजभाई के शब्दों में ही पढेंगे। "वि.सं.२०४९में शीतकालमें पंतनगर (मुंबई) के तपागच्छीय उपाश्रयमें वर्षमान तपोनिधि प.पू.आ.भ. श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के प.पू.पं. श्री जयतिलक विजयजी म.सा. के शिष्य पू. मुनिराज श्री त्रिभुवनतिलक विजयजी म.सा. पधारे थे । उनको गलेमें भयंकर केन्सर हुआ था, जो दूसरे स्टेज तक आगे बढ़ चुका था । उनकी शुश्रूषा के लिए भाई म.सा. पू. मुनि श्री हंसरत्नविजयजी म.सा. (पू. मुनि श्री तत्त्वदर्शन विजयजी म.सा. के भाई म.सा.) साथमें थे । केन्सर की भयंकर पीड़ा होते हुए भी म.सा. किसी भी प्रकार की दवाई लेने के लिए तैयार नहीं थे । उनके गुरु महाराज एवं संघ के अग्रणी श्रावक तथा संसारी रिश्तेदारों की आग्रह पूर्ण विज्ञप्ति के बावजूद भी दवाई लेने लिए संमत नहीं हुए। उन्होंने अब अधिक जीने की आशा छोड़ दी थी। - मेरी धर्मपत्नी दिव्याबहन को इस बात का पता चलते ही उसने मुझे कहा कि 'आप म.सा. को औषध ग्रहण करने के लिए संमत कर दें ।' मैंने कहा 'ठीक है, मैं कोशिश करूँगा । नवकार के प्रभावसे वे जरूर संमत हो जायेंगे ।' बादमें मैंने २ दिन तक लक्ष्य पूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण यथासमय किया । तीसरे दिन नवकार के प्रभावसे मुझे अंतः स्फुरणा हुई कि - 'आप अभी उपाश्रयमें जाकर म.सा. को जो भी कहेंगे, वे स्वीकार कर लेंगे' !... __मैं पू. मुनि श्री हंसरत्न विजयजी म.सा. के पास गया और सारी बात बतायी । उन्होंने मुझे कहा - 'आपको निषेधात्मक प्रत्युत्तर ('नहीं') सुनना हो तो ही औषध की बात करना' । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ १९५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उसके बाद मैं पू. मुनि श्री त्रिभुवनतिलकविजयजी म.सा. के पास गया और अनको कहा कि - 'म.सा. ! आपको हानि न हो और लाभ ही हो ऐसी बात हो तो आप करेंगे या नहीं ? हानि का भुगतान हम करेंगे और लाभ होगा वह आपके लिए' । म.सा. ने कहा - 'हाँ, भले ।' मैंने कहा - ' आपको निसर्गोपचार के अनुभवी डॉक्टर देखने के लिए आयेंगे। आप उन्हें आपके दर्द की जाँच-परख के लिए अनुमति प्रदान करना। म.सा. ने कहा - 'भले, लेकिन मैं पेशाब नहीं पीऊँगा ।' मैंने कहा - 'भले' । इस तरह नवकार के प्रभावसे म.सा. तबीबी जाँच-परख के लिए संमत हुए यह जानकर पू.मुनि श्री हंसरत्नविजयजी म.सा. को बहुत आश्चर्य हुआ। उसके बाद मैंने 'मानव मित्र' के उपनाम से सुप्रसिद्ध सुश्रावक श्री वल्लभजीभाई को फोन करके सारी बात बतायी । उनकी सूचना से दो दिन के बाद डो. अजय शाह वहाँ आये । म.सा. के दर्द की जाँचपरख करके निसर्गोपचार की विधि लिख दी । लेकिन दूसरे दिन फिरसे म.सा.ने उपचार के लिए निषेध कर दिया। . पू. हंसरत्नविजयजी म.सा. ने मुझे आह्वान के साथ कहा कि - 'म.सा. तो उपचार का निषेध कर रहे हैं, तो कहाँ गया आपके नवकार स्मरण का प्रभाव' ? मैंने दो दिन का समय माँगा । रवि - सोमवार दो दिन मैं फिरसे नवकार महामंत्र के जपमें लीन हुआ । ऐसे उलझन भरे प्रसंगोंमें मेरे मित्र श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रभुजी मुझे अनेक बार मार्गदर्शन देते थे । इस प्रसंगमें भी प्रभुजीने मुझे कहा कि - 'दो दिनमें म.सा. उपचार करवाने के लिए संमत हो जायेंगे' । और सचमुच दूसरे दिन जगडुशा नगरमें रहते हुए एक कच्छी श्रावक को एक सज्जन वहाँ ले आये । उनको भी केन्सर हुआ था, जो निसर्गोपचारसे दूर हो गया था । उन्होंने म.सा. को अपना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ दृष्टांत सुनाया और म.सा. भी निसर्गोपचार के लिए संमत हो गये ... उपचार शुरू हुए । डॉ. अजय शाहने ६ महिनों की अवधि बतायी थी, मगर नवकारने ९ महिनों की समय मर्यादा बतायी और ठीक वैसे ही हुआ !... बाह्य-द्रव्य उपचारों के साथ साथ आभ्यंतर-भाव उपचार के रूप में मेरा नवकार जप चालु ही था । हररोज घरमें बैठकर अंगुलियों की रेखाओं पर अंगुठे के सहारे से १०८ नवकार का जप करके मेरे हाथ से श्वेत रंग के किरणों का सेल म.सा. के गले पर मैं देता रहा । ३ महिने व्यतीत हुए । डो. अजय शाह जो थोड़े दिनों के बाद म.सा. की जाँच करने के लिए आते थे वे बहुत दिनों से नहीं आ सके तब संघके अग्रणी श्रावकोंने डोक्टर को बुला लाने के लिए मुझे आग्रह पूर्वक कहा। मैं डोंबीवली गया । वहाँ डॉ. अजय शाह भयंकर ज्वरग्रस्त थे । मैंने घर आकर नवकार महामंत्र का स्मरण किया और भवरोग निवारक श्री महावीर स्वामी भगवंत का ध्यान किया । ध्यानावस्था में प्रभुके दर्शन हुए । मैंने कहा - "प्रभु ! आपके शिष्य बीमार हैं, आपतो परम धन्वन्तरी हैं तो कुछ औषध प्रदान करने की कृपा करें ।" .. करुणानिधान प्रभुजीने श्वेत कटोरीमें श्वेत रंगका मलम दिया । मैंने ध्यानावस्था में ही वह मलम म.सा. के गले पर भावसे लगाया और सचमुच ५० प्रतिशत पीड़ा कम हो गयी ! दूसरे दिन भी जैसे ही नवकार स्मरण पूर्वक प्रभुका ध्यान एवं . प्रार्थना करने पर प्रभुजीने श्वेत मलम दिया । मैंने कहा - "प्रभो ! आपही अपने वरद हस्तसे म.सा. को मलम लगा देने की कृपा करें, क्योंकि मैं तो इस विषयमें बिल्कुल अज्ञानी हूँ। और सचमुच प्रभुजीने स्व हस्तसे मलम लगाया वह मैंने स्पष्ट रूपसे देखा !... और थोड़ी ही देरमें गले की सूजन और पीड़ा अदृश्य हो गये। केन्सर की गाँठ छोटी होती गयी। ६ महिनों के बाद म.सा. ने चातुर्मास के लिए माटुंगा की और Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १९७ विहार किया । माटुंगा में चातुर्मास के दौरान वहाँ के ट्रस्टी सुश्रावक श्री पंकजभाई डोक्टर के मार्गदर्शन के मुताबिक म.सा. की सेवा करते थे । कुल ९ महिनों तक उपचार हुए । अब केन्सर की गाँठ चने की दाल जितनी छोटी-सी हो गयी थी और पीड़ा बिल्कुल दूर हो गयी थी, इसलिए द्रव्य-भाव दोनों उपचार बंद किये गये । ६ महिनों के बाद पुन: पीड़ा शुरू होने से उन्होंने मेरा संपर्क किया। मैने पुन: नवकार महामंत्र का जप शुरू किया और डॉक्टर की राय के अनुसार ५० प्रतिशत अन्न और ५० प्रतिशत फल पर रहने का निर्णय हुआ। वि.सं. २०५१ में अक्षय तृतीया के दिन डॉ. अजय शाह म.सा. को देखने के लिए आये और - 'अब केन्सर बिलकुल केन्सल हो गया है' ऐसा निदान लिख दिया । प्रस्तुत दृष्टांतमें धीरजभाई को ध्यानावस्थामें महावीर स्वामी भगवान, चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान और गौतम स्वामी गणघर भगवंतके साक्षात् रूपमें दर्शन हुए, प्रभुजीने प्रश्नों के प्रत्युत्तर दिये, औषध प्रदान किया ... इत्यादि पढकर किसी भी बुद्धिजीवी व्यक्तिको स्वाभाविक रूपसे प्रश्न हो सकता है कि यह सब कैसे संभव हो सकता है ? क्योंकि परमात्मा वीतराग होते हैं और निरंजन निराकार स्वरूपसे सिद्धशिला के उपर बिराजमान होते हैं ऐसे शास्त्रोमें कहा गया है, तब उपरोक्त बातें कैसे घटित हो सकती हैं ?... इत्यादि । इन प्रश्नों का समाधान निम्नोक्त प्रकारसे हो सकता है । एक तो उपरोक्त बातों को कहनेवाले .धीरजभाई एकदम भद्रिक परिणामी, निष्कपटीनिखालस हैं इसलिए उनकी बातों को मिथ्या कह देने का दुःसाहस करना उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि उनको ध्यानावस्थामें प्रभुजी की ओर से जो भी सूचनाएँ मिली हैं, उसके अनुसार ही हमेशा घटनाएँ घटित हुई हैं इसलिए इन अनुभवों को केवल कल्पना, भ्रमणा या मिथ्या आभास मानकर उपेक्षा करना भी उचित नहीं है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ इसलिए ऐसी अनुभूतियों का समन्वय इस प्रकारसे हो सकता है कि -महामंत्रके जपसे एवं साधक की हृदय शुद्धिसे आकर्षित कोई शासन देव साधककी श्रद्धाको सुदृढ बनाने के लिए और महामंत्र का प्रभाव फैलाने के लिए विविध प्रकार के दृश्य साधक को दिखलाते हैं और साधक को सहाय भी करते हैं। दूसरी बात यह है कि हमारी बुद्धि की सीमा होती है, इसलिए ऐसी अतीन्द्रिय बातें बुद्धिगम्य या तर्क गम्य नहीं किन्तु श्रद्धागम्य होती हैं। आत्मा की अनंत शक्तियों, लब्धियों और सिद्धियों का निर्देश शास्त्रोंमें किया गया है। इसलिए विशिष्ट कोटिके साधक संकल्प सिद्ध हो सकते हैं । वे जो भी संकल्प करते हैं उसको पूरा करने के लिए प्रकृति हर तरहसे सहयोग देती है। इसलिए उपरोक्त प्रकारकी अनुभूतियाँ होना असंभवित नहीं हैं। ___ अन्य भी कुछ विशिष्ट साधकों को इस प्रकार की अनुभूतियाँ होने की बातें उन्हीं के श्री मुख से हमने सुनी हैं । इसलिए ऐसी आंतरिक अनुभवों की बातों को कपोलकल्पित नहीं मानना चाहिए, किन्तु श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके निष्ठा पूर्वक साधना द्वारा ऐसे अनुभवों को संप्राप्त करने के लिए सुज्ञ आत्माओं को कटिबद्ध बनना चाहिए । ऐसे अतीन्द्रिय अनुभवों की वास्तविक बाते भी किसीका वादविवाद शंका-कुशंका या कुतर्क का निमित्त कारण न बनें ऐसी भावना से ही अधिकांश साधक ऐसे अनुभवों को सद्गुरु या श्रद्धासंपन्न किसी सुपात्र आत्मा को छोड़कर अन्य जीवों को निवेदन करना नहीं चाहते हैं। फिर भी अन्य साधकों को साधना में सविशेष रूप से प्रोत्साहन मिले और तटस्थ विचारकों को मध्यस्थ बुद्धिसे विचार करने के लिए शुभ आलंबन मिले ऐसे शुभ आशय से इतने स्पष्टीकरण के साथ इन अनुभवों को यहाँ प्रस्तुत किया गया है । धीरजभाई के घर के सभी सदस्य नवकार महामंत्र की आराधना में लीन हैं । धीरजभाई जहाँ भी जाते हैं वहाँ अनेक आत्माओं को नवकार महामंत्र के जप की महीमा एवं विधि समझाकर नवकार की आराधनामें जोड़ते रहते हैं। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ __ १९९ एकबार तो धीरजभाई से प्रत्यक्ष मिलकर उनके श्री मुख से ही नवकार महामंत्र के अनुभवों को सुनने जैसा है। सूचना : कृपया आध्यात्मिक हेतु के अलावा किसी भी प्रकारके सांसारिक प्रयोजन से प्रेरित होकर धीरजभाई जैसे साधकों को पत्र या फोन द्वारा परेशान न करें । पता : धीरजलालभाई खीमजी गंगर ११८/३४ २४, पंतनगर, धाटकोपर (पूर्व), मुंबई-४०००७५ शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें धीरजभाई भी पधारे थे। १ करोड नवकार जप के आराधक प्राणलालभाई लवजी शाह 568800000330008 सौराष्ट्र के ध्रांगध्रा शहरमें रहते हुए प्राणलालभाई (उ.व. ६८)ने B.Sc. तक व्यावहारिक अभ्यास किया है । पहले अनाजका होलसेल का धंधा एवं सूद पर पैसे देने का व्यवसाय करते थे । आज वे पिछले १५ सालसे निवृत हैं। अध्यात्मयोगी प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजयकलापूर्ण सूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से पिछले १० सालसे वे नवकार महामंत्र की आराधना में विशेष रूपसे संलग्न हुए हैं । उत्तरोत्तर जपमें अभिरूचि बढ़ती गयी और वे प्रतिदिन १३-१४ घंटों तक नवकार महामंत्र का जप करते रहते हैं । प्रातः ३ बजे से लेकर शामको ७ बजे तक आहार- निहार एवं जिनपूजा सिवाय के समयमें वे नवकार महामंत्रका जप करते रहते हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग जैसे जैसे जप की संख्या बढ़ती गयी वैसे वैसे कुछ मिथ्यादृष्टि व्यंतर देव जप को छुड़ाने के लिए अनेक प्रकार के प्रतिकूल एवं अनुकूल उपसर्ग करने लगे। भयंकर सर्प आदि दिखाकर जप छोड़ देने के लिए दबाव देने लगे तो कभी रूपवती महिलाओं को दिखाकर उनको चलायमान करने के लिए प्रयत्न करने लगे । लेकिन उपरोक्त आचार्य भगवंत एवं महा तपस्वी प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय हिमांशुसूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन के मुताबिक वे डरे नहीं ओर जपमें अडिग रहे । फलतः मिथ्यादृष्टि देवों का कुछ भी बस चलता नहीं है । २०० 1 एक बार प्राणलालभाई एक पेड़ के नीचे लघुशंका निवारण करने के लिए बैठे थे, तब उस वृक्षमें रहनेवाले एक व्यंतर देवने उनके शरीरमें प्रवेश किया और उनको अत्यंत परेशान करने लगा । लेकिन मुनि श्री शांतिचन्द्रसागरजी म.सा. की प्रेरणा के मुताबिक अन्य कोई उपाय न करते हुए प्राणलालभाई ने नवकार महामंत्र का जप चालु रखा था । आखिर एक दिन वह व्यंतर कहने लगा कि 'नवकार महामंत्र के तेज को मैं सहन नहीं कर पाता, मैं जलकर भस्म हो जाऊँगा इतना दाह मुझे हो रहा है, इसलिए मैं जाता हूँ' ऐसा कहकर हमेशा के लिए उसने उपद्रव करना छोड़ दिया !... - जिस तरह मिथ्यादृष्टि व्यंतर देव जप से चलित करने के लिए उपसर्ग करते रहे उसी तरह दूसरी और अनेक सम्यग्दृष्टि शासन देव-देवी श्री प्राणलालभाई को दर्शन देने लगे । अभी तक चक्रेश्वरी, पद्मावती, महाकाली, लक्ष्मी, सरस्वती इत्यादि देवियोंने एवं मणिभद्र, घंटाकर्ण, कालभैरव, बटुकभैरव इत्यादि देवोंने जप के दौरान उनको दर्शन दिये हैं और उनके जप की बहुत अनुमोदना की है । कुछ देवोंने उनकी परीक्षा करने के लिए प्रलोभन भी दिये हैं मगर वे लुब्ध नहीं हुए एवं किसी भी भौतिक वस्तु की याचना कभी भी देव - देवियों के पास नहीं की है इसलिए देव अधिक प्रसन्न हुए हैं । प्रतिदिन के जप की संख्या एवं अनुभवों का वर्णन वे लिखते रहते हैं जो हमें दिखाया था । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उनके पिताजीने भी सवा करोड़ नवकार का जप किया था । उन्होंने भी देवलोकमें से आकर प्राणलालभाई को दर्शन दिये एवं जप के लिए अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की है। उनके परिचित अन्य भी कुछ रिश्तेदार जो स्वर्गवासी हुए हैं उन्होंने भी दर्शन दिये हैं । कई बार देवोंने गुलाब के पुष्पों की वृष्टि और अमीवृष्टि भी की है। पूर्व जन्म की पत्नी जो हाल देवी है उसने भी उनको दर्शन दिये हैं । अगले जन्ममें एक संपन्न कच्छी परिवारमें मुम्बईमें उनका जन्म हुआ था । वहाँ भी उन्होंने नवकार महामंत्रकी सुंदर आराधना की थी ऐसा पत्नी-देवीने बताया है । नवकार महामंत्र के प्रभाव से होनेवाले ऐसे अनेकविध आधिदैविक अनुभवों का वर्णन पढ़कर सामान्य मनुष्य को जरूर आश्चर्य का अनुभव होता है, मगर विशिष्ट आत्म साधकों को इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं होगा । वे तो आध्यात्मिक अनुभूतियों को ही महत्त्व देते हैं। नवकार के जप द्वारा विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ जरूर हो सकती हैं मगर उनके लिए पंच परमेश्वष्ठी भगवंतों का अद्भुत आत्म स्वरूप गुरुगमसे एवं सद्वांचन द्वारा समझकर ऐसे निर्मल आत्म स्वरूप की अनुभूति करने के स्पष्ट लक्ष्य पूर्वक जप करना अत्यंत आवश्यक है । दि.२९-१-९६ के दिन ध्रांगध्रामें व्याख्यान के बाद प्राणलालभाई ने अपने आधिदैविक अनुभूतियों का वर्णन सहज भावसे हमारी समक्ष किया तब उनका लक्ष्य उपरोक्त दिशामें परिवर्तित करने का विनम्र प्रयास किया था । समय का परिपाक होने पर द्रव्य नवकार भाव नवकार में परिवर्तित होगा उसमें संदेह नहीं है । व्याख्यान श्रवण का योग होने पर प्राणलालभाई जरूर लाभ लेते हैं। चातुर्मास के दौरान समूहमें प्रतिक्रमण भी करते हैं । पिछले ७ वर्षो से नवपदजी की आयंबिल की ओली भी सालमें दो बार करते हैं और प्रतिमाह ६-७ आयंबिल भी करते हैं । जीवनमें ४०० आयंबिल करने की उनकी भावना है। करीब ४०० आयंबिल हो चुके हैं। अभी तक ४ अट्ठाई एवं १३ अट्ठम भी उन्होंने की हैं । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ 'कच्छमित्र' अखबार के भूतपूर्व व्यवस्थापक जमनादासभाई धनजी वोरा की सुपुत्री गुणवंती बहन उनकी धर्मपत्नी हैं । वे भी प्रतिदिन १० पक्की माला का जप करती हैं । ___'योग असंख्य जिनवर कह्या, नवपद मुख्य ते जाणो रे' इस शास्त्रानुसारी पंक्ति के अनुसार जिनेश्वर भगवंतोंने आत्मा की मुक्ति के लिए असंख्य उपाय बताये हैं। उनमें से अपनी रुचि के मुताबिक किसी एकाध योग की आराधना अपनी रुचि के अनुसार मुख्य रूपसे करके और अन्य योगों के प्रति सापेक्ष भाव रखकर अनंत आत्माएँ संसारसागर से पार हो चुकी हैं । उसी तरह प्रस्तुत दृष्टांतमें प्राणलालभाई मुख्य रूपसे नवकार महामंत्र के जपयोग की आराधना करते हैं और जिनपूजा, व्याख्यान श्रवण, प्रतिक्रमण, तपश्चर्या आदि अन्य योगों के प्रति भी उनका सापेक्षभाव दृष्टि गोचर होता है । - इस दृष्टांत से प्रेरणा लेकर सभी भावुकात्माएँ अचित्य चिंतामणि श्री नवकार महामंत्र की सम्यक् प्रकारसे आराधना करके निकट मोक्षगामी बनें यही मंगल भावना। शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें प्राणलालभाई उपस्थित थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 18 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : प्राणलालभाई लवजी शाह नानी बजार, मु.पो. ध्रांगध्रा, जि. सुरेन्द्रनगर, (गुजरात) पिन : ३६३३१० Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २० ९८ श्री ऋषिमंडल महास्तोत्र के विशिष्ट साधक कांतिलालभाई केशवलाल संघवी विशिष्ट कक्षा के साधक महापुरुषकी कृपासे संप्राप्त मार्गदर्शन के मुताबिक जब कोई श्रध्धालु श्रावक भी विधि पूर्वक अखंड साधना करते हैं तब वे साधना मार्गमें कैसी अद्भुत सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं यह हम निम्नोक्त दृष्टांत में देखेंगे। मूलत : गुजरातमें वीरमगाम तहसील के मांडल गाँव के निवासी किन्तु पिछले २१ वर्षों से सुरेन्द्रनगर में रहते हुए सुश्रावक श्री कांतिलालभाई केशवलाल संघवी (उ.व. ६३) जब २८ सालकी उम्र के थे तब उनके घर से स्वयमेव कभी कभी सुगंध का उद्भव होता था । इस विषयमें मार्गदर्शन लेने के लिए वे उस वक्त वहाँ विद्यमान पू. मुनिराज श्री सुबोधविजयजी म.सा. (भाभरवाले पू. आ. श्री शांतिचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय वाले) के पास गये । वे अच्छे साधक थे। उन्होंने कुछ समय तक आँखें बंद की, बाद में कहा कि 'ऋषिमंडल स्तोत्र की आराधना करो' । - उसके बाद कांतिलालभाई ने उनके मार्गदर्शन के मुताबिक ८ महिनों तक रात्रि भोजन त्याग इत्यादि करीब २० जितने नियमों की मर्यादा का पालन करते हुए निश्चित स्थान एवं निश्चितं समय में अखंडित रूपसे श्री ऋषिमंडल महास्तोत्र (१०२ श्लोक) और उसके मूल मंत्रकी साधना की । उस साधना के दौरान उनको चलायमान करने के लिए कई प्रकार के प्रतिकूल एवं अनुकूल उपसर्ग हुए । कभी शरीरमें भयंकर दाह होता था तो कभी उनकी चारों ओर आग की ज्वालाएँ उत्पन्न हो जाती थीं। कभी पूरे शरीर पर अजगर लिपट जाता था तो कभी तीक्ष्ण भाले अपनी ओर जोरसे आते हुए दिखाई पड़ते । कभी देव-देवीओं के नाटक और नृत्य भी दिखाई देते थे । लेकिन म.सा. ने उनको पहले से ही कह दिया था कि इस प्रकार के उपसर्ग होंगे मगर तुम जरा भी डरना नहीं और चलायमान नहीं होना : इसलिए वे जरा भी डरे बिना साधनामें लीन रहते थे । फलत : श्री ऋषिमंडल महास्तोत्र में निर्देश Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ किया गया है उसके अनुसार तीसरे महिनेमें उनको जाज्वल्यमान तेजोमय श्री जिनबिम्ब के दर्शन हुए ... अन्य भी कुछ विशिष्ट अनुभव हुए । कई बार साधना के दौरान सुनहरे या श्वेत अक्षरोंमें कुछ सांकेतिक वाक्य या कुछ प्रश्रों के प्रत्युत्तर आँखे बंद होते हुए भी टी.वी. (दूरदर्शन) की तरह दिखाई देने लगे। पिछले ३५ वर्षों में केवल एक दिन के अपवाद को छोड़कर उनकी साधना अखंड रूपसे चालु है । उनके पिताश्री के देहविलय के दिन संयोगवशात् एक दिन उनकी साधना नहीं हो पायी यह बात आज भी उन्हें बहुत खटकती है। वर्तमानमें भी वे प्रतिदिन प्रातःकालमें ४ से ८ बजे तक निम्नोक्त प्रकारसे साधना करते हैं । प्रातः ४ बजे उठकर ४॥ से ५॥ बजे तक श्री पार्श्वनाथ भगवान या श्री सिमंधर स्वामी वीतराग परमात्मा का ध्यान सिद्धासन में बैठकर करते हैं । उस वक्त दोनों हाथ जोडकर हृदय या ललाट के सन्मुख रखकर परमात्मा की वीतराग मुद्रा एवं वीतरागता को भाव पूर्वक वंदना करते हैं एवं अपनी आत्माको परमात्मा के प्रति समर्पित करते हैं । ऐसी भावदशामें करीब ५० मिनिट तक स्थिर रहते हैं । उस वक्त उनको अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है । इस ध्यान के दौरान उनके आसपास तेजोवलय एवं मस्तक के पीछे भामंडल की तरह तेज का वर्तुल उत्पन्न होता है, जिसको कई आत्माओं ने प्रत्यक्ष रूपमें देखा भी है। उनकी अनुमति के बिना कोई भी व्यक्ति साधना के दौरान उनके पास बैठने की हिंमत भी नही कर सकता, ऐसा उस साधना का प्रताप होता है । ५॥ से ६ बजे तक श्री ऋषिमंडल स्तोत्रपाठ एवं उसके मंत्रका जप करने के बाद मंदिर में जाकर जिनपूजा करते हैं । बादमें ७ से ८ तक भक्तामर स्तोत्र पाठ, वर्धमान शक्रस्तव पाठ, नवकार. महामंत्र की १ माला, उवसग्गहरं स्तोत्र की २ माला, ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नम : और ॐ हीं अहँ नम : का जप एवं श्री वीतराग परमात्माका ध्यान करते हैं। कभी बाहर गाँव जानेका प्रसंग उपस्थित होता है तब रात को २२॥ बजे उठकर भी वे अपने नित्य क्रमका अचूक पालन करते हैं । साधनामें निरंतरता बहुत महत्त्व की बात है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कुछ वर्ष पूर्व एक दिन साधना से उठने के समयमें उपरसे दिव्य सुगंधमय सुपारी नीचे पड़ी । उसके बाद संप्राप्त संकेत के अनुसार दूध और पानी से प्रक्षालन करने पर दूसरे दिन वह प्रक्षालन जल घी के रूपमें परिवर्तित हो गया । करीब २ साल तक वह दिव्य सुपारी उनके घर में रही ओर उसके प्रक्षालन जलसे केन्सर जैसी असाध्य बीमारियाँ भी दूर हुईं। और भी अनेक चमत्कार हुए । उसके बाद अचानक कांतिलालभाई को मुंबई जाने का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब घर में रखी हुई दिव्य सुपारी की प्रतिदिन वासक्षेप पूजा आदि नहीं होने से उसमें छिद्र हो गया और उसका प्रभाव कम हो गया । बादमें एक साध्वीजी भगवंत के मार्गदर्शन के मुताबिक उस सुपारी को एक कुएं में विसर्जित कर दिया ।... कांतिलालभाई ने पूर्वोक्त मुनिराज श्री सुबोधविजयजी के मार्गदर्शन के मुताबिक एक बार अठ्ठम तप के साथ श्री ऋषिमंडल स्तोत्र के मंत्रका ८ हजार बार जप किया था । दूसरी बार पोली अठ्ठम के साथ ८ हजार जप एवं ३ बार ३-३ एकाशन पूर्वक ८-८ हजार जप किया था । इसके अलावा श्री शंखेश्वर तीर्थमें रहकर ३ एकाशन पूर्वक उवसग्गहरं स्तोत्रका १००८ बार जप किया था । दूसरी बार शंखेश्वर तीर्थमें ३ एकाशन पूर्वक १२ ॥ हजार बार पद्मावती माताका जप किया था तब उनके घर पर उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका श्री पुष्पाबहन को पद्मावती माता का दर्शन हुआ था। एक बार रसोई बनाने वाली बाई के रूपमें एवं दूसरी बार गृहकार्य करनेवाली स्त्री के रूपमें भी पद्मावती माताने उनको दर्शन दिये थे । करीब ३ साल पूर्व कांतिलालभाई को कुंडलिनी जागरण का एक विशिष्ट अनुभव हुआ था । नाभि चक्रमें ठम... ठम... ठम... इस तरह जोर से ढोल जैसी ध्वनि होने के साथ पूरा शरीर उछलने लगा । उस के बाद हृदय चक्र (अनाहत चक्र) में हूँ-हूँ-हूँ... इस प्रकार का अनाहत नाद उत्पन हुआ जो आज भी चालु है मगर श्री कांतिलालभाई उसके प्रति ध्यान नहीं देते किन्तु श्रीवीतरागपरमात्मा के ध्यान में ही लीन रहते हैं । पिछले दो साल से श्री पार्श्वनाथ प्रभुकी एवं पद्मावती माता की पूजा करते समय में प्रभुजी के मस्तक के उपर रही हुई फणा का स्पर्श करते हैं तब वह स्पष्ट रूपसे जीवंत फणा की तरह दबती हुई महसूस होती Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग है । जब निर्विकल्प चित्त होता है तभी ही ऐसा अनुभव होता है । मनमें कोई विचार चलता है तब ऐसा अनुभव नहीं होता है । तीसरे भवमें महाविदेह क्षेत्रसे मुक्ति प्राप्तिका विशिष्ट संकेत भी कांतिलालभाई को संप्राप्त हुआ है 1 भूमि परीक्षा आदि कुछ विशिष्ट शक्तियोंका विकास भी साधना के आनुसंगिक फल के रूपमें हुआ है, जिसका उपयोग मुख्यतः शासन के कार्यों में ही वे करते हैं । कांतिलालभाई की प्रत्यक्ष भेंट ४ साल पूर्व सुरेन्द्रनगर में हुई थी । उसके बाद दि. २४-४-९७ के दिन शंखेश्वर तीर्थमें भी वे मिले थे, तब प्रश्नोत्तरी द्वारा संप्राप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत की गयी है । इसमें से प्रेरणा प्राप्त करके आत्मसाधना के लक्ष्य पूर्वक गुरुगम द्वारा श्री वीतराग परमात्मा का ध्यान, नवकार महामंत्र आदिका सात्त्विक जप एवं विशिष्ट स्तोत्रपाठ द्वारा प्रभुभक्ति के मार्गमें अखंडित रूपसे उत्साह पूर्वक आगे बढते हुए शीघ्र सम्यग्दर्शनादि आत्मिक गुणों को संप्राप्त कर के सभी भव्यात्माएँ मुक्ति के अधिकारी बनें यही शुभाभिलाषा । सांसारिक सुख-दुःख के प्रश्नों के लिए ऐसे साधकों की साधनामें विक्षेप नहीं डालना चाहिए । केवल कुतूहल वृत्तिसे प्रश्न पूछकर भी ऐसे साधकों का अमूल्य समय किसीको भी गवाँना नहीं चाहिए । यह विनम्र सूचना सभी के लिए सदैव स्मरणीय है । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोहमें कांतिलालभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर प्रस्तुत पुस्तकमें पेज नं. 18 के सामने प्रकाशित की गयी है । पता : कांतिलालभाई केशवलाल संघवी ४, किशोर सोसायटी देशल भगतकी वावके पासमें मु. पो. सुरेन्द्रनगर, पिन : ३६३००१, फोन : ०२७५२-२३५२३ घर / २५५२५ ओफिस Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २०७ । ४०० उपवास की भावना रखते हुए २११ उपवास | के महा तपस्वी हीराचंदभाई रतनसी माणेक गुजरात राज्य में कच्छ-सुजापुर गांव के निवासी श्री हीराचंदभाई रतनसीं छेडा व्यापार के निमित्त से केराला राज्य के कलिकट शहर में रहते हैं । कच्छ से सैंकड़ों मील दूर रहते हुए भी हीराचंदभाई के हृदयमें जैन धर्म के संस्कार बरकरार हैं । दि. १२-९-१९३७ के दिन जन्मे हुए हीराचंदभाई को पिता रतनसींभाई की ओर से धर्म के संस्कार संप्राप्त हुए । गुजरात से इतना दूर रहते हुए भी उन्होंने धर्म आराधना गौरव के साथ चालु रखी । इ.स. १९७४ से लेकर प्रति वर्ष पर्युषण में ८,९,११,१६,३२,३५ उपवास तक तपश्चर्या की । १६ महिनों तक छठ्ठ के पारणे छठ्ठ (२ उपवास) किये। आयंबिल की २५ ओलियाँ भी की । तप के साथ उन्होनें कभी भी अपने नित्य कर्तव्योंमें कमी नहीं रखी। व्यावसायिक एवं सामाजिक कार्यों के कारण कभी तपश्चर्या में गरम जल पीने का भी समय नहीं बचता था फिर भी तपश्चर्यां की लगन बढ़ती ही रही । दि. ४-३-९५ के दिन हृषीकेश की पावन भूमि पर उनको किसी योगसिद्ध महापुरुष के दर्शन हुए । हीराचंदभाई के हृदयमें तपका प्रकाश था, गुरुदेवों के परम आशीर्वाद थे और अब आध्यात्मिक महापुरुष के दर्शन हुए। उनके आशीर्वाद से तपश्चर्या के मार्ग से आध्यात्मिक उन्नति को पानेकी अभिलाषा जगी । इसी समयमें २०१ उपवास के तपस्वी सहज मुनि की बात भी उन्होंने सुनी । अभी तक ३५ उपवास तक की तपश्चर्या करने वाले हीराचंदभाई को अपने सत्त्व की कसौटी करने की भावना हुई । प्रारंभ में १११ उपवास करने का संकल्प किया लेकिन ४० वें उपवास के दिन उनका स्वास्थ्य कुछ कमजोर हुआ। करीब ४ दिन तक शरीरमें कुछ अस्वस्थता लगी, मगर बादमें आत्मबल से देह पर विजय पाया और तप यात्रा चालु रखी। ... एन्जिनीयरींग में बी.इ. मिकेनीकल की डीग्री पानेवाले हीराचंदभाई को साहित्य एवं संशोधन के विषयमें भी काफी रस है । कलिकट जैसे Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ शहर में एकबार उन्होंने गुजराती स्कूल बनवाने का संकल्प किया । कार्य बहुत कठीन था मगर हीराचंदभाई का संकल्प भी उतना ही सुदृढ था । उन्होंने निश्चय किया कि जब तक विशाल सभागृह युक्त स्कूल नहीं बनावाऊँ तब तक पाँवमें जूते नहीं पहनूँगा । . मध्यम वर्ग के मनुष्य के लिए यह संकल्प बहुत बड़ा था । कई लोग मजाक करते हुए हीराचंदभाई को कहते भी थे कि-'खुद गुजरात में से भी गुजराती भाषा के प्रति लगाव कम होता जा रहा है तब आप कलिकट में गुजराती स्कूल बनाने के दिवा स्वप्न क्यों देखते हैं ?' कोई कहते थे कि हम बच्चों को अंग्रेजी स्कूलमें भेजेंगे, फिर गुजराती स्कूल की क्या जरूरत है ?' ___तपश्चर्या की यही विशेषता है कि मनुष्य के आभ्यंतर जीवन की तरह बाह्य जीवन को भी सुदृढ बनाती है । हीराचंदभाई को तप के प्रभावसे विचारों की शुध्धि और कार्यक्रम की रूपरेखा के विषयमें स्पष्ट दर्शन था । ५ वर्ष तक कड़ी सर्दी और भयंकर धूपमें भी जूते बिना घूमते रहे । उनका व्यवसाय भी ऐसा था कि कई स्थानों पर घूमना ही पड़ता था । शुरू में सिंधीया स्टीम नेवीगेशनमें अजन्ट थे और बाद में श्रीफल के व्यापारी के रूपमे उन्होंने अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की थी। आखिर गुजराती समाज का मकान तैयार हो गया । एशिया के प्रथम १० सभागृहों में स्थान पा सके ऐसा भव्य सभागृह तैयार हुआ । कलिकट का गुजराती समाज कच्छ की धरती के इस सपूत पर फिदा हो गया । उसने चमड़े आदि के जूते नहीं पहनने की प्रतिज्ञा करने वाले हीराचंदभाई का सन्मान चांदी के जूते अर्पण करके किया । कई वर्षों तक वे गुजराती समाज के अध्यक्ष पद पर रहे। साहित्य की तरह संशोधनमें भी उनको काफी दिलचश्पी रही है। धर्म और विज्ञान दोनों मनुष्य जीवन की आँखें हैं । इसलिए हीराचंदभाई ने दि. १९-६-९५ से दीर्ध तपश्चर्या का प्रारंभ किया तब चिकित्सों को भी साथमें रखा । कलिकटकी हॉस्पीटल के डॉ. सी.के. रामचंद्रन प्रति सप्ताह उनकी शारीरिक जाँच करते थे । इग्लेंडमें FR.C.P. और M.R.C.P. की Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २०९ उपाधियाँ प्राप्त करनेवाले डॉ. सी.के. रामचंद्रन को उनके शारीरिक संशोधनं में काफी दिलचश्पी थी। __हीराचंदभाई कई वर्षों से सूर्यशक्ति के योग्य उपयोग के लिए संशोधन करते थे। भारत की 'सोलर एनर्जी सोसायटी' के सभ्य के रूपमें कई साल तक कार्य किया है । विशेष में समुद्र के पानीका उपयोग पीने के लिए किस तरह हो सके यह उनके संशोधन का मुख्य विषय रहा है। अध्यात्म और विज्ञान के विरल समन्वय के साथ हीराचंदभाई ने उग्र तपश्चर्याका प्रारंभ किया । पिछले २२ वर्षों से प्रत्येक पर्युषण पर्वमें ८ उपवास या उससे अधिक तपश्चर्या करनेवाले हीराचंदभाई ने तप के द्वारा मनोविजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ किया । प्रति सप्ताहमें डॉकटर उनकी संपूर्ण शारिरिक जाँच करते थे । कई बार एक्स-रे एवं स्क्रीनींग भी होता था । दिनमें वे ५०० ग्राम जितना उबाला हुआ पानी लेते थे। प्रारंभ में तो तपश्चर्या के साथ व्यवसाय करते हुए हीराचंदभाई को देखकर लोग आश्चर्य चकित हो जाते थे । कभी हीराचंदभाई सूर्यशक्ति और सूर्य चिकित्सा की बातें करते थे, तो कभी तप के अध्यात्मिक अनुभवों की बात करते थे । शुरु में डॉ. सी.के. रामचंद्रन के मनमें थोड़ी सी शंका बनी रहती थी, मगर उन्होंने देखा कि हीराचंदभाई की तपश्चर्या वैज्ञानिक संशोधन का विषय बन सकती है । इसलिए उन्होंने इस तपश्चर्या की वैज्ञानिक जाँच करने की संपूर्ण जिम्मेदारी ली । १११ उपवास का प्रारंभिक संकल्प पुरा होने के बाद भी हीराचंदभाई ने तपश्चर्या चालु ही रखी । तपश्चर्या के पूर्वमें ८९ किलो वजनवाले हिराचंदभाई के शरीर का वजन १५० उपवास के बाद ५९ किलो हो गया था । प्रति सप्ताह करीब डेढ किलो वजन कम होता जा रहा था । फिर भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान . को विस्मय मुग्ध बनाने वाले इस तपस्वी की उग्र तपश्चर्या चालु ही रही। तपके प्रभावसे उनकी संकल्प शक्ति प्रबल होती गयी है । आज वे सर्व चिंताओंसे मुक्त हैं । उनका कहना है कि मनुष्य सूर्य के पास से उर्जा प्राप्त करके आहार के बिना भी दीर्घ समय तक जिन्दा रह सकता है। बहुरत्ना वसुंधरा - २-14 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग एक समय था कि जब हीराचंदभाई अपने परिवार जनों को एवं समाज को परिग्रह कम करने के लिए कहते थे, तब कुछ लोग उनकी बातको मज़ाक समझकर टाल देते थे, मगर बाद में उनकी तपश्चर्याका ऐसा प्रभाव पड़ा कि परिवार जनोंने अपनी आवश्यकताओं में स्वयमेव अंकुश रखा इतना ही नहीं, अन्य परिचितों ने भी अपनी सुख-सुविधा को १० प्रतिशत कम किया । तपश्चर्या के द्वारा धर्म प्रभावना करने के साथमें हीराचंदभाई विश्वशांतिका संदेश भी देते रहे । कलिकट से तीर्थाधिराज शंत्रुजयकी यात्रा के लिए निकले हुए हीराचंदभाई ने अनेक गाँव- नगरों में तप की अनुमोदना का माहौल बनाया था । उग्र तप के प्रभाव से वे प्रगाढ विचार शून्यत्व एवं प्रशांतता का अनुभव करते हैं। जीवन में अनासक्ति का भाव सहज रूपसे आत्मसात् होता जा रहा है । २०७ वें उपवासमें हीराचंदभाई ने शत्रुंजय गिरिराज पर पैदल चढकर यात्रा की थी और दि. १६-१-९६ के दिन कच्छमें अचलगच्छाधिपति प.पू. आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से प्रस्थापित ७२ जिनालय तीर्थमें उनके पट्टधर प. पू. आ. श्री गुणोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें २११ उपवासका पारणा किया था, तब हजारों लोगों ने वहाँ उपस्थित होकर महा तपस्वीकी भूरिशः हार्दिक अनुमोदना एवं अभिवंदना की थी । अदभुत शासन प्रभावना हुई थी । (डॉ. कुमारपालभाई देसाई लिखित 'इंट और इमारत ' कोलम - गुजरात समाचार दि. ४ - १ - ९६ से साभार उद्धृत) विशेष : २०५ वें उपवास के दिन हीराचंदभाई अहमदाबाद आये थे तब हमारी निश्रामें अहमदाबाद अचलगच्छ जैन संघ एवं अन्य संस्थाओंने उनका बहुमान किया था । उस वक्त करीब १५ मिनिट तक स्वस्थतासे खड़े खड़े वक्तव्य देते हुए हीराचंदभाई को देखकर सभी आश्चर्य चकित हो गये थे और 'आत्मा में अनंत शक्ति है' इस शास्त्र वचन की प्रतीति प्रत्यक्ष रूपसे सभीने की । शास्त्रोंमें आठ प्रकार के महापुरुषों को 'शासन प्रभावक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २११ कहे गये हैं, उसमें पाँचवे नंबरमें ऐसे विशिष्ट तपस्वीओं का 'शासन प्रभावक' के रूपमें वर्णन करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी म.सा.ने 'समकित सडसठी' सज्झाय में कहा है कि - " तप गुण ओपे रे रोपे धर्मने, गोपे नवि जिन आण । . आश्रव लोपे रे नवि कोपे कदा, पंचम तपसी ते जाण ॥ धन धन शासन मंडन मुनिवरा" दि. २८-८-९६ से हीराचंदभाई ने अन्न त्याग करके पानी सहित केवल ९ प्रवाही के उपर जीवन जीनेकी प्रतिज्ञा ली थी । उसमें भी प्रति ६ महिने में १-१ प्रवाही कम करने का संकल्प था । आज वे पानी, छाछ और नारियल का पानी इन तीन प्रवाही का ही उपयोग करते हैं । दि. ४ से १० डीसेम्बर १९९८ तक विविध चिकित्सा पध्धतियों के करीब ५०० विशेषज्ञों की वैश्विक कोन्फरन्स का अहमदाबाद में आयोजन हुआ था । उस में हीराचंदभाई ने सूर्य ऊर्जा और उपवास के विषय में अपने वक्तव्य के समापन में उद्दघोषणा की है कि अगर आंतरराष्ट्रीय मान्य चिकित्सकों की टीम वैज्ञानिक पद्धति से परीक्षण करने के लिए तैयार होगी तो वे दि. १-१-२००० से या उससे भी पहले केवल गर्म जल से ४०० या उससे भी अधिक दिनोंके उपवास का प्रारंभ करेंगे!!!... हीराचंदभाई उपवास, विश्वशांति और सूर्यऊर्जा के विषय पर गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी एवं मलयालम भाषा में प्रवचन देते हैं। शंखेश्वर में अनुमोदना समारोहमें हीराचंदभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर पेज नं. 12 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : हीराचंदभाई रतनसी माणेक HF2-131-KSHB, Vikashnagar Appartment, Chakkorath Kullam, Calicut (Kerala), Pin : 673006. Ph : 0495-369928 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग चिकित्सकों से असाध्य हजारों दर्दीओंको बिना १०० दवाई से और बिना मूल्यसे स्वस्थता प्रदान करते हुए सेवाभावी रतिलालभाई पदमसी पनपारीया २१२ कुछ मनुष्यों का जीवन अनेक व्यसन एवं दुर्गुणों के कारण समाज के लिए अभिशाप रूप बन जाता है, जब कि कुछ विरल मनुष्यों का जीवन विशिष्ट सद्गुण और निःस्वार्थ सेवावृत्ति के कारण संपूर्ण मानव समाज के लिए आशीर्वाद रूप होता है । ऐसे विरल सेवाशील व्यक्तिओं में रतिलालभाई का समावेश होता है । मूलतः कच्छ-नाग्रेचा गाँव के निवासी किन्तु वर्तमान में बड़ौदामें रहते हुए, कच्छी दसा ओसवाल ज्ञाति के लिए गौरव रूप श्री रतिलालभाई के पूर्व जन्म के विशिष्ट पुण्योदय से उनके मामाश्री नरसीभाई रामैया धरमर्सी (कच्छ-सांयरा निवासी) की और से ऐसी विशिष्ट कला या प्रकृति का वरदान प्राप्त हुआ है कि पिछले ७ वर्षोंमें डॉक्टरों से असाध्य ऐसे करीब पाँच हजार रोगीओं को बिना मूल्यसे और प्रायः बिना दवाई से अल्प समयमें ही आरोग्य प्रदान करने में वे कामयाम रहे हैं ..... खास करके रीढ़ की हड्डीमें ज्ञानतंतु अपना कार्य करने में अक्षम हो रहे हों या हड्डी में कहीं भी फेक्चर हो ऐसे केसों में उनकी 'मास्टरी' है। डोक्टरोंने जिनको शस्त्रक्रिया (ओपरेशन) करनेका अनिवार्य बताया था; ऐसे २०० से अधिक हड्डियों के मरीजों को शस्त्रक्रिया बिना ही उन्होंने ठीक कर दिया है । पक्षाघात के करीब ३० से अधिक दर्दीओं को उन्होंने ठीक किया है । लंड़न और अमरीका से उपचार के लिए बड़ौदा आये हुए कुछ भारतीयों को रतिलालभाईने रोग मुक्त किया है । आँखों की रगें सूख जाने के कारण आँखोंकी रोशनी बिल्कुल नष्ट हो गयी थी और आधुनिक चिकित्सकों ने जिसको असाध्य जाहिर कर दिया था ऐसे ५ व्यक्ति रतिलालभाई के उपचार से आज बराबर देख सकते हैं। उनमें से एक व्यक्ति तो आज स्कूटर भी अच्छी तरह से चला सकते हैं । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बड़ौदा के एक सोनी की दृष्टि भारी मधुप्रमेह के कारण बिल्कुल बंद हो गयी थी । आधनिक चिकित्सा के पीछे लाखों रूपयों का खर्च करने के बाद भी सफलता नहीं मिली थी । आखिर वे भी रतिलालभाई के उपचार से केवल १५ दिनों में देखते हो गये । लक्ष्मी पल्स (दाल-चावल की मील) वाले पादरा के हसमुखभाईकी आँख का गोला टेढा हो जाने से एक ही वस्तु ८-१० की संख्या में दिखाई देती थी । वे फौरन रतिलालभाई के पास आये । उनके उपचार से ठीक हो गये। बड़ौदा के एक भाई को लेसर ट्रीटमेन्ट से फायदा नहीं हुआ था, वे भी इस उपचार से ठीक हो गये । ५-७ साल पुराने कर्ण रोगी करीब ५ व्यक्ति रतिलालभाई के उपचार से ठीक सुन सकते हैं । मधुप्रमेह के कई रोगियों को उन्होंने भीडी के प्रयोगसे ठीक किया है । असाध्य .मधुप्रमेह के कारण शस्त्रक्रिया में बाधा होती थी ऐसे भी रोगी भीडी के प्रयोगसे ठीक हो गये हैं । अर्स रोग को वे केवल एक ही बार दवाई देकर केवल ६ घंटोंमे मिटाते हैं । ___ अधिक या कम रक्तचाप के कई रोगियों को उनके उपचार से स्वास्थ्य लाभ हुआ है। दिनमें ट्रान्सपोर्ट के व्यवसायमें व्यस्त होने से वे प्रतिदिन शाम को ७ बजे से लेकर रात को ११ बजे तक अनेक मरीजोंका इलाज अपने घरपर ही करते हैं । खास विशेषता यह है कि वे किसी भी रोग के उपचार के बदले में एक रुपया भी नहीं लेते हैं । बिल्कुल मुफ्त सेवा ही करते हैं। . अगर वे चाहते तो लाखों-करोड़ों रूपये इस उपचार पद्धति से अर्जित कर सकते हैं, लेकिन ऐसी प्राकृतिक भेंट को वे आजीविका का साधन बनाने में पाप मानते हैं । सच तो यह है कि ऐसी निःस्पृहता होती Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ है तब तक ही ऐसी प्राकृतिक भेंट टिक सकती है । _ वि. सं. २०५१ में हमारा चातुर्मास बड़ौदामें कच्छी भवनमें था तब रतिलालभाई का अच्छा परिचय हुआ था । ऐसी निःस्वार्थ सेवा के द्वारा हजारों मनुष्यों की शुभेच्छाएँ एवं महात्माओं के शुभाशीर्वाद पाकर रतिलालभाई अल्प भवों में भव रोग से मुक्ति को प्राप्त करें यही शुभेच्छा । शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोहमें रतिलालभाई भी उपस्थित हुए थे । उनकी तस्वीर इस पुस्तक में पेज. नं. 18 के सामने प्रकाशित की गयी है। पता : रतिलालभाई पदमसी पनपारीया १ B, वैभव नगर, संगम सोसायटी के पीछे . हरणी रोड़, बड़ौदा (गुजरात) पिन : ३९००२२ फोन : ०२६५-६३५८८/५५६०८२ (ओफिस) [प्रतिदिन १ घंटे पद्मासनमें नवकार महामंत्रका जप | करते हुए अप्रमत्त "श्रावक शिरोमणि" दलीचंदभाई धर्माजी THEHREE अप्रमत्तता में अनुपम और बेमिसाल आराधना द्वारा कर्म दलिकों का दलन करने वाले "श्रावक शिरोमणि" श्री दलीचंदभाई की अद्वितीय धर्मचर्या जानकर मुनिवर भी उनकी बार-बार प्रशंसा किये बिना रह नहीं सकते हैं। कर्मसाहित्यनिष्णात, सुविशुद्ध संयमी प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संग से वे विशेष रूपसे धर्ममय जीवन जीते हैं। आज ८७ साल की उम्र में भी वे जो अदभूत आराधना करते हैं उसे जानकर किसी भी मनुष्य का मस्तक अहोभाव से झुके बिना रह नहीं सकता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २१५ हररोज रात को ९ बजे से लेकर सूर्योदय पर्यंत करीब ९ घंटे तक पद्मासन में बैठकर सामायिक पूर्वक नवकार महामंत्र का जप और अरिहंत परमात्मा का ध्यान धरते हुए इस सुश्रावक को देखकर भगवान महावीर स्वामी के अनन्य भक्त पुणिया श्रावक एवं आनंद श्रावक इत्यादि की स्मृति सहज रूपसे आ जाती है । - २ आज तक २ लाख से अधिक सामायिक करने वाले इन श्राद्धवर्य को प्रतिदिन १५ सामायिक करने का नियम है । सूर्यास्त के आसपास दैवसिक प्रतिक्रमण करने के बाद केवल २ घंटे तक शरीर को विश्रांति देकर पुनः ९ बजे से पद्मासन पूर्वक जप - ध्यान में बैठ जाते हैं । अहो ! कितनी अप्रमत्तता ! देव दुर्लभ मनुष्य भवकी एक एक क्षण का कैसा जागृति पूर्वक सदुपयोग ! 'समयं गोयम मा पमायए' प्रभु महावीर स्वामी के इस उपदेश को कैसा आत्मसात् किया होगा ?... पर्युषण के ८ दिन एवं प्रत्येक चतुर्दशी आदि में पौषध जैसे पवित्र अनुष्ठान द्वारा आत्म गुणों की पुष्टि करने वाले इन सुश्रावक श्री ने आज तक २००० से भी अधिक पौषध किये हैं । हररोज ५००० नवकार महामंत्र (५० पक्की माला) का जप करनेवाले इस आराधक रत्नने आज तक ५ करोड़ से अधिक नवकार जप द्वारा पंच परमेष्ठी भगवंतों को प्रणिधान पूर्वक प्रणाम करके अपनी आत्मा को नम्रता से अत्यंत भावित कर दिया है । (यह पढकर हमें भी कम से कम प्रतिदिन १ पक्की नवकारवाली का जप करने का दृढ संकल्प करके दलिचंदभाई की यथार्थ अनुमोदना करनी चाहिए ) अठ्ठम से वर्षीतप, पारणे में ठाम चौविहार एकाशन पूर्वक वर्षीतप, कुल २५ वर्षीतप १० अठ्ठाई तप, सिद्धि तप, श्रेणि तप, चत्तारि अठ्ठ दश दोय तप, धर्मचक्र तप, स्वस्तिक तप, इत्यादि दीर्घकालीन बड़ी तपश्चर्याओं के साथ कुल ६००० से अधिक उपवास, हजारों की संख्यामें आयंबिलएकाशन, २२ वर्ष की वय से बियासन, मात्र ६ साल की उम्र से लेकर प्रतिदिन शामको चौविहार का पच्चक्खाण, केवल १६ साल की उम्रसे प्रतिदिन उबाला हुआ अचित पानी पीना इत्यादि अत्यंत अहोभावप्रेरक Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ तपश्चर्या करनेवाले इन महातपस्वी श्रावकरन की तपश्चर्या का वर्णन पढकर हे धर्मप्रिय वाचक ! कम से कम आजीवन नवकारसी - चौविहार करने का दृढ संकल्प तो आप जरूर करेंगे ऐसी अपेक्षा है । घरमें गृह जिनालय एवं ज्ञानभंडार का सुंदर आयोजन करनेवाले इन सुश्रावक श्री के घरमें ("आधुनिक कई गृहस्थों के घरों की तरह सिने अभिनेता-अभिनेत्रीओं के केलेन्डर तो कहाँ से होंगे" !!) प्रवेश करते ही मानो किसी उपाश्रय आदि धर्मस्थान में प्रवेश किया हो ऐसे पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं। सात लाख से अधिक रूपयों का सात क्षेत्रों में सद्व्यय करने द्वारा दानधर्म की आराधना करनेवाले, ४० वर्ष की उम्रसे ब्रह्मचर्य व्रत एवं श्रावक के १२ व्रतों के स्वीकार करने द्वारा शीलधर्म की आराधना करने वाले, तीन उपधान तप के साथ उपरोक्त अनेक प्रकार की तपश्चर्या से तपधर्म की आराधना करनेवाले, छरी पालक संघों के द्वारा अनेक तीर्थों की भावपूर्वक यात्रा करनेवाले, कई वर्षोसे खड़की (पूना) जैन संघ के जिनालय में एवं श्री जीरावल्ला पार्श्वनाथ तीर्थ (राजस्थान)में ट्रस्टी के रूपमें निष्ठापूर्वक सेवा देनेवाले इन धर्म सपूत को, धर्मचक्रतप के बहुमान प्रसंग पर घर्मचक्रतप प्रभावक प.पू. गणिवर्य श्री जगवल्लभविजयजी म.सा.ने सकल श्री संघ की उपस्थिति में दि. ८-१०-९८ के दिन "श्रावक शिरोमणि" की उपाधि प्रदान करने द्वारा आशीर्वाद दिये वह अत्यंत उचित ही है। मूलत: मारवाड़ के किन्तु वर्षों से खड़की (पूना) जैन संघमें रहते हुए एवं देश-विदेश के लाखों लोगों के प्रिय इन सुश्रावक की जिनशासन . को मिली हुई भेंट की कथा भी अत्यंत रोमांचक है । जब जन्म हुआ तब नहीं रोते हुए इस बालक को मृत जानकर परिवार के लोग स्मशान की ओर ले जा रहे थे मगर रास्ते में नवजात शिशु का हलन चलन देखकर उसे वापिस घर लाया गया । जन्म के समय में अत्यंत ठंड लगने से मृतप्राय: हो गये इस बालक को संघ एवं समाज के महान पुष्पोदय से उसकी मौसीने जिनशासन को समर्पित कर दिया । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २१७ ७३ साल की उम्र में हृदय के दौरे के कारण बेहोश हो जाने से उनको अस्पताल में भरती किया गया था । ग्लुकोस एवं खून की बोतलें चालु थीं तब अचानक होश में आते ही उन्होंने इंजेक्शन की सूई अपने हाथ से बाहर निकाल दी और तुरंत सामायिक में बैठ गये !... देहाध्यास से कैसी मुक्तदशा !... चिकित्सक आदिने आश्चर्य व्यक्त किया तब उन्होंने कहा - 'देव - गुरु और धर्म की कृपा हार्ट एटेक के उपर भी ओटेक कर सकती है' !.. कैसी अद्भुत खुमारी और गौरव !!!... - पिछले ४० से अधिक वर्षों से व्यवसाय एवं जूते का भी त्याग करके विनम्र भावसे, अप्रमत्तता के साथ अद्भुत आराधनामय, अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय जीवन के द्वारा अनेकों के लिए आदर्श रूप बने हुए इन श्रावक शिरोमणि' के दृष्टांत से प्रेरणा लेकर हे धर्मप्रिय पाठक ! आप भी अपने जीवनमें अधिक से अधिक आराधकभाव के साथ तत्वत्रयी की उपासना एवं रत्नत्रयी की आराधना द्वारा देवदुर्लभ मानव भव को सार्थक बनायें यही शुभाभिलाषा । पुना (खड़की) जाने का प्रसंग हो तब 'श्रावक शिरोमणि' दलीचंदभाई का दर्शन करना चूकें नहीं । 44 पता : दलीचंदभाई धर्माजी जैन मंदिर के पास, खड़की (पूना) (महाराष्ट्र) पिन ४११००३ प्रतिदिन पंचकल्याणक की उजवणी एवं ५०० १०२ रूपयों के पुष्प आदिसे पाँच घंटे तक अद्भुत प्रभुभक्ति करनेवाले गिरीशभाई ताराचंद महेता जिस तरह राख जड़ होते हुए भी तथा प्रकार के स्वभाव से उसके अस्तित्वमात्र से कोठीमें रखे हुए धान्य में कीड़े उत्पन्न नहीं हो सकते..... जिस तरह हरीतकी (हरड़े) या परगोलक्स की गोली में कर्तृत्व भाव नहीं होते हुए भी उसके तथा विध स्वभाव के कारण उसका मनुष्य के पेट Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ में अस्तित्व मात्र से भी मलशुद्धि का कार्य अपने आप हो जाता है, उसी तरह वीतराग परमात्मा में कर्तृत्वभाव (मैं इस भक्तका दुःख दूर करके उसे सुखी बना दूं इत्यादि विचार) नहीं होते हुए भी, उनके विशुद्ध आत्म स्वरूप का प्रभाव ही ऐसा अद्भुत होता है कि जो व्यक्ति भक्तिभाव पूर्वक अपने हृदय मंदिरमें उनकी प्रतिष्ठा करता है उसका राग-द्वेष आदि भावमल स्वयमेव दूर होने लगता है और उसके आत्मिक सद्गुण रूपी धान्य में विषय-कषाय के कीड़े उत्पन्न नहीं हो सकते । जिस तरह अग्नि के यथायोग्य रीत से किये गये सेवन से ठंड की पीड़ा दूर होती है, उसी तरह वीतराग परमात्मा की बहुमान पूर्वक पर्युपासना करने से राग आदि दोषों की भयंकर पीड़ा भी अवश्य शांत होती है । भावोल्लास पूर्वक की गयी निष्काम प्रभुभक्तिसे प्रचंड पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन होता है और अशुभ कर्मों की विपुल निर्जरा होने से विज-आपत्ति आदि दूर होने लगते हैं । अनुकूलताएँ संप्राप्त होती हैं । सुखमें अलीनता और दुःखमें अदीनता की प्राप्ति होती है । भक्ति की मस्ती में मस्त बने हुए सच्चे भक्त को सांसारिक सुखों की स्पृहा भी नहीं रहती । वह आत्मतृप्त हो जाता है । इस बात की प्रतीति हमें गिरीशभाई महेता के दृष्टांत से होती है । वीतराग, अरिहंत परमात्मा की निष्काम प्रभुभक्ति से वर्तमान जीवन में भी अदभुत चित्त प्रसन्नता, मानसिक शांति, आत्मिक आनंद की अनुभूति, मृत्युमें समाधि, परलोक में भी सद्गति की परंपरा और अल्प भवों में परम मुक्ति की प्राप्ति होती है । तो चलो हम एक ऐसे विशिष्ट प्रभुभक्त आत्मा के जीवन में थोडा दृष्टिपात करें । मूलत: सौराष्ट्र में वंथली के निवासी किन्तु वर्षों से मुंबई में कालबादेवी रोड-५४/५६ रामवाडी में रहते हुए गिरीशभाई ताराचंद महेता (हाल उम्र करीब ४२ वर्ष) को आजसे करीब १४ साल पहले पायधुनी में गोडी पार्श्वनाथ जिनालय में अत्यंत भावोल्लास के साथ भक्ति करते हुए देखा तब उनकी प्रभुभक्ति का कार्यक्रम पूरा हुआ तब तक हमको भी वहाँ से हटने का मन नहीं हुआ । करीब ४ घंटे क्षणभरमें पसार हो गये हों वैसा लगा। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २१९ लगभग १० लाख रूपयों के सोने-चांदी के उपकरण प्रभुभक्ति के लिए उन्होंने बनाये हैं । एक्रीलेक के आकर्षक समवसरण में प्रभुजी को बिराजमान करके उत्तम प्रकार के पंचरंगी पुष्पों से ऐसी नयन रम्य अंगरचना बनाते हैं कि हम देखते ही रह जाय । अग्रपूजा के लिए भी ५ प्रकार के उत्तम फल, ५ प्रकार के सच्चे घी से बने हुए नैवेद्य... इत्यादि हररोज ५०० रूपयों के पुष्प-फल-नैवेद्य से वे प्रभुपूजा करते हैं। चांदी के १०८ कलसों से १ घंटे तक प्रभुजी की अभिषेक पूजा करते हैं । हररोज अरिहंत परमात्मा के च्यवन-जन्म-दीक्षा-केवलज्ञान और मोक्ष रूप पंच कल्याणकों की भाव पूर्वक उजवणी करते हैं । द्रव्यपूजा उपरोक्त प्रकारसे करने के बाद चैत्यवंदन रूप भावपूजा करते हैं तब हाथमें धूंधरु बाँधकर, स्वयमेव ढोलक बजाते हुए आनंदघनजी महाराज, उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज आदि द्वारा विरचित १० - १२ स्तवन अत्यंत भाव विभोर होकर गाते हैं । इस तरह प्रतिदिन ४-५ घंटे तक जिनालय में प्रभुभक्ति करके बादमें वे घर जाते हैं । - कुछ वर्षों से उन्होंने अपने घरमें श्री सीमंधर स्वामी भगवान का छोटा सा लेकिन अत्यंत भव्य गृह मंदिर बनवाया है । जो भव्यात्माएँ वहाँ शुद्ध भावसे प्रभुभक्ति करती हैं उनको विशिष्ट अनुभव भी होते हैं । इसके अलावा दोपहर को सामायिक लेकर जैन धर्म के ग्रन्थोंका स्वाध्याय-चिंतन आदि करते हैं । कई बार वे अपनी माता पार्वतीबाई को लेकर शांत तीर्थस्थानों में जाते हैं वहाँ १०-१५ दिन रहकर विशेषरूपसे प्रभुभक्ति में लीन हो जाते हैं। प्रति मास शुक्ल बीज के दिन वे शंखेश्वर महातीर्थमें जाते हैं तब प्रभुजी की अभिषेक पूजा आदि की बोलियाँ हजारों रूपयों का खर्च कर के वे ही बोलते हैं। बूचड़खानों में होती हुई प्रतिदिन लाखों अबोल प्राणीओं की हिंसा बंद हो या कम हो ऐसे शुभ संकल्प पूर्वक गिरीशभाई ने वि.सं.२०५२ में ज्येष्ठ महिने में शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ में १८ अभिषेक के सभी चढावे Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ स्वयं लेकर अत्यंत विशिष्ट रूपसे प्रभुभक्ति की थी तब सद्भाग्य से हम भी वहाँ उपस्थित थे । गृह मंदिर में पूजा करने के समय में प्रभुभक्ति के रंग में भंग न हो इसलिए वे टेलीफोन का रिसीवर भी नीचे रख देते हैं ।... प्रभुभक्ति की तरह गिरीशभाई प्रभुजी के पूजारी की भी उदारता से भक्ति करते हैं । पूजारी को अपेक्षा से अधिक वेतन देते हैं । उसके गाँव में उसका घर बना दिया है । उसे अपने घर के सदस्य की तरह ही अपने साथ प्रेमसे रखते हैं । 1 द्रव्यानुयोग के प्रखर चिंतक एवं विशिष्ट आत्मसाधक बा.ब्र. पंडितवर्य श्री पन्नालालभाई उनके सम्यक्ज्ञानदाता विद्यागुरु हैं । उनका वे अत्यंत बहुमान करते हैं । विशिष्ट प्रभुभक्ति एवं सात्त्कि मंत्र साधना से कई प्रकार के विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभव भी गिरीशभाई को होते हैं । कुछ वर्ष पूर्व जब उनकी मासिक आय अत्यंत मर्यादित थी तब भी वे स्वयं सादगी से जीवन जीते थे, मगर प्रभुभक्ति में आय का अधिक हिस्सा लगाते थे । आज उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है, मगर अधिक कमाने के लिए उन्हें अधिक समय तक परिश्रम नहीं करना पड़ता । केवल २-३ घंटे ही व्यवसाय के लिए जाते हैं, बाकी का सारा समय वे प्रभुभक्ति, जप, सामायिक, स्वाध्याय और सत्संग में बिताते हैं । 2. इस तरह विशिष्ट प्रभुभक्ति करने से उनको ऐसी अदभुत चित्त प्रसन्नता, और सात्त्विक आनंद की अनुभूति होती है कि मोहमयी मुंबई नगरी में रहते हुए भी, अनेक प्रकार से सुविधा युक्त युवावस्थामें भी उनको शादी करने की इच्छा ही नहीं हुई । विवाह के लिए आग्रह करनेवाले परिवार जनोंको उन्होंने विनय पूर्वक प्रत्युत्तर दिया कि - 'मेरा विवाह परमात्मा के साथ हो चुका है, अब मुझे अन्य किसी से भी विवाह करना नहीं है । गिरिशभाई की एक बहनने नित्य भक्तामरस्तोत्र पाठी, तीर्थ प्रभावक Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ प.पू. आचार्य भगवंत श्री विजय विक्रमसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय में दीक्षा ली हुई है और एक भानजे भी उपरोक्त आचार्य भगवंत के शिष्य मुनिराज श्री अजितयश विजयजी बनकर हररोज अनुमोदनीय प्रभुभक्ति करते-करवाते हैं। उनकी एवं उनके गुरुबंधु मुनिराज श्री वीरयशविजयजी म.सा.की स्मरण शक्ति इतनी तेज है कि दोनों पर्युषण में बारसा सूत्र बिना किताब में देखे ही सुनाते हैं । करीब ३५० श्लोक प्रमाण पक्खीसूत्र भी एक ही दिनमें कंठस्थ कर लिया था । वे दोनों आज सुप्रसिध्ध प्रवचनकार प.पू. आ.भ. श्री विजय यशोवर्मसूरीश्वरजी म.सा. के साथ विचरते हैं । गिरिशभाई के दृष्टांतमें से प्रेरणा लेकर सभी निष्काम विशिष्ट प्रभुभक्ति के द्वारा मानव भवको सफल बनायें यही शुभाभिलाषा । पत्ता : गिरीशभाई ताराचंदजी महेता ५४- ५६ रामवाडी, कालबादेवी रोड, मुंबई-४००००४ फोन : २०६०५७९-२०१३०६५-घर प्रतिदिन ५४ जिनालयों में पूजा करनेवाले सुश्रावक 'जिनदास आज जब एक ओर जिन मंदिर घर के पास में होते हुए भी प्रतिदिन प्रभुदर्शन या जिनपूजा करने के लिए उपेक्षा या आलस्य करने वाले जैनकुलोत्पन्न अनेक आत्माएँ विद्यमान हैं तब दूसरी और भूतकाल के विशिष्ट जिनभक्त श्रावक पुंगवों की स्मृति करानेवाले बेजोड़ प्रभुभक्त सुश्रावक भी जिनशासन में विद्यमान हैं । प्रतिदिन ५४ जिनालयों में न केवल प्रभुदर्शन किन्तु जिनपूजा करनेवाले श्रावकरत्न आज भी विद्यमान हैं यह बात शायद किसी को असंभव सी लगती होगी मगर दि. २८-१-९६ के दिन अहमदाबाद के एक उपाश्रय में ऐसे श्रावकरत्न से हमारी भेंट हुई तब उनके हृदय के Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उद्गार सुनकर हमारा हृदय भी अत्यंत भाव विभोर हो गया था । अपना नाम मुद्रित नहीं करने की उन निःस्पृह प्रभुभक्त आत्मा की खास विज्ञप्ति होने से हम यहाँ उनको 'जिनदास' नाम से उल्लेख करेंगे । मूलतः राधनपुर के निवासी किन्तु वर्तमान में अहमदाबाद में रहते हुए 'श्री जिनदासभाई' (उ.व.४७) को धार्मिक संस्कार तो माता-पिता से संप्राप्त हुए थे, उसमें भी प.पू. आचार्य भगवंत श्री. कल्याण सागरसूरीश्वरजी म.सा. एवं मामा रमणिकभाई की शुभ प्रेरणा से प्रभुभक्ति का अनूठा रंग लग गया है। अपनी पूर्वावस्था का निखालसता से वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि 'वि.सं. २०३१ से २०४५ तक १५ साल तो मैंने भौतिक समृद्धि के हेतु से पद्मावती देवी की बहुत उपासना की थी, लेकिन उससे कुछ लाभ का अनुभव नहीं हुआ था । फिर एक दिन मेरे मामा ( कि जिनकी बेटी ने दीक्षा अंगीकार की है) ने मुझे झकझोरते हुए कहा कि 'जिनदास ! देव-देवी की पूजा के पीछे पागल बनने के बजाय ६४ इन्द्र असंख्य देव-देवी जिनके दास हैं ऐसे देवाधिदेव अरिहत परमात्मा की भक्ति के पीछे पागल बनेगा तो तेरा बेड़ा पार हो जायेगा ।.' ... और समय पर की गयी इस टकोर ने मेरे जीवन में परिवर्तन ला दिया । वि.सं. २०४५ के भाद्रपद महिने में मैं शंखेश्वर तीर्थ में गया। वहाँ पद्मावती देवी से मैंने कहा कि - 'आज से मैं केवल अरिहंत परमात्मा की शरण अंगीकार करता हूँ, इसलिए साधर्मिक के रूप में आप के ललाट पर तिलक करुंगा, इससे अधिक कुछ भी नहीं कर सकूँगा तो मुझे क्षमा करें । उसके बाद देवी उपासना के कारण अरिहंत परमात्मा की की हुई उपेक्षा के लिए सारी रात प्रभुको याद करके बहुत रोया। उस रातको मुझे प्रभुदर्शन हुए।... तब से मैं प्रतिदिन प्रभुभक्ति करने लगा । प्रारंभ में कुछ दिन तक पूजा करने में विशेष भाव नहीं आते थे, फिर भी मैंने संकल्प किया कि, 'अगर मेरी आर्थिक परिस्थिति में थोड़ा सुधार होगा तो मैं एक जिनालय बनवाऊँगा।' देव-गुरु की कृपा से मेरी यह भावना अल्य समय में सफल Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा, : भाग २ २२३ हुई, फलतः अहमदाबाद में ही एक जगह जिनालय की खास आवश्यकता थी । उसके समाचार मुझे मिलते ही मैंने मौका देखकर वहाँ के श्री संघ को विज्ञप्ति कि यह लाभ मुझे दें । संघने मेरी विज्ञप्ति का स्वीकार किया । वि.सं.२०४६ में माघ शुक्ल चतुदर्शी के शुभ दिन में उस जिनालय में ४५० वर्ष प्राचीन श्री सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवंत की प्रतिष्ठा प.पू. आचार्य भगवंत श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्त हुई । प्रारंभ में हम किराये के मकान में रहते थे, लेकिन जब से उपरोक्त जिनालय बनवाने का संकल्प किया तब से आर्थिक परिस्थिति ठीक होती गयी। फलतः वि.सं. २०४९ में राधनपुर से सिद्धाचलजी महातीर्थ का छ: 'री'पालक यात्रा संघ प.पू. आ.भ. श्रीकल्याण सागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें निकालने का महान लाभ भी हमारे परिवार को मिला । (अन्य श्रावक के द्वारा हमें ज्ञान हुआ कि इस संघ की पूर्णाहुति के प्रसंग पर अहमदाबाद से ७५ बस एवं राधनपुर आदि से ७५ बस, कुल मिलाकर १५० लक्झरी बसों के द्वारा श्री जिनदासभाईने साधर्मिक बंधुओं को पालिताना निमंत्रित कर के २ दिन तक उनकी अत्यंत अनुमोदनीय भक्ति की थी । तीर्थमाल के दिन पूरे पालिताना नगर को भोजन का निमंत्रण दिया था । उस दिन कोई तांगेवाला भी अगर भोजन के लिए आता तो उसे भी प्रेमसे भोजन कराया गया था । ) 1 उपरोक्त जिनालय निर्माण एवं छ: 'री' पालक यात्रा संघ के बाद प्रभुभक्ति के भावों में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती गयी । मेरे परम उपकारी आचार्य भगवंत ने भी मुझे जिनभक्ति विशिष्ट रूपसे करने के लिए प्रेरणा दी । मुझे भी लगा कि मुझमें तप करने की विशेष शक्ति नहीं है, लेकिन प्रभुभक्ति संसार सागर को तैरने के लिए सरल और सचोट उपाय है । पार्श्वनाथ भगवान के जीवने पूर्व भवमें प्रभुजी के ५०० कल्याणकों की उजवणी हर्षोलास के साथ की थी, तो मैं कम से कस हररोज ५०० प्रभुजी के दर्शन-पूजन तो करूं ! ऐसी भावना से प्रेरित होकर मैं हररोज सुबह ५.३० से ९.३० तक ४४ जिनालयों में प्रभुपूजा करता हूँ । उसके बाद नवकारसी करके पुनः आसपास के १० जिनालयों में पूजा करता हूँ । I Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ अन्य किसी गाँव में मैं रहता होता तो शायद इतने जिनालयों में पूजा करने की सुविधा मुझे नहीं मिल सकती, मगर अहमदाबाद में यह लाभ आसानी से मिल रहा है उसका मुझे अत्यंत आनंद है । 'आप किस किस जिनालय में हररोज पूजा करते हैं ?' इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में उन्होंने निम्नोकत जिनालयों की गणना करवायी । शाहपुरमें२, खाडियामें-१, हठीसिंगका-१, पंचभाईकी पोल में-२, घीकांट में-१, जेसिंगभाई की वाडीमें-१, पांजरापोल विस्तारमें-५, रिलीफ रोड-शांतिनाथ जिनालय-१, लहेरीया की पोल-१, जगवल्लभपार्श्वनाथ आदि-५, झवेरी वाड़ एवं दोशीवाड़ा की पोल में-१२, पतासा की पोल में -४, शेख के पाड़े में-४, देवसा की बारी में-४, इस तरह ४४ जिनालयों में पूजा करने के बाद ९-३० बजे नवकारसी करके पुनः विजय नगर में-१, नारणपुरा चार रस्ता में-१, प्रगति नगर में-१, मीरांबिका-१, ओसमानपुरा में-२, शांतिनगर में-२, झवेरी पार्क में-१, हसमुख कोलोनी में-१, इस तरह के १० जिनालय मिलाकर कुल ५४ जिनालयों में पूजा करता हूँ । प्रत्येक जिनालय में मूलनायक प्रभुजी की नवांगी पूजा करता हूँ, बाकी के भगवान के दो अंगुष्ठ एवं ललाट पर तिलक करता हूँ। __ प्रारंभ में एकाध जिनालय में पूजा करता था तब अपेक्षित एकाग्रता और भाव नहीं आते थे, लेकिन इस तरह अनेक जिनालयों में • पूजा करने में अत्यंत आनंद और उल्लास का अनुभव होता है । प्रभुजी का दर्शन करते ही हृदय भाव विभोर बन जाता है । आँखोमें से हर्षाश्र की धाराएँ बहने लगती हैं । ऐसे अवर्णनीय आनंद की अनुभूती होती है, कि न पुछो बात ! मेरा अंतस् कहता है कि अब ४-५ भवों से ज्यादा समय तक संसार में भटकना नहीं पड़ेगा । ये अश्रु ही मेरी सच्ची संपत्ति है । इसके सिवा मुझे और कुछ नहीं आता । इस तरह अनेक जिनालयों में दर्शन-पूजन करने से आनुषंगिक रूप से दूसरा विशिष्ट लाभ यह भी होता है कि विविध जिनालयों में प्रभुदर्शन करने के लिए पधारे हुए करीब २०० जितने साधु-साध्वीजी भगवंतों के दर्शन भी हो जाते हैं । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ र लाभपात्रय में जाना पड़ता जाना पड़ता है बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ हाल में तो जिनदर्शन करने के लिए जिनालय में जाना पड़ता है और जिनवाणी श्रवण करने के लिए उपाश्रय में जाना पड़ता है, मगर अब इन दोनों का एक ही स्थान पर लाभ लेने की भावना रहती है, अर्थात अब तो समवसरण में साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवंत के दर्शन और देशना श्रवण करने के मनोरथ हैं और वे जरूर पूरे होंगे ही ऐसी श्रद्धा है । अब तो साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवंत के वरद हस्त से ही चारित्र अंगीकार करना है और ऐसा निरतिचार चारित्र पालन करना है कि जिससे उसी भवमें मुक्ति की प्राप्ति हो जाय । उन्होंने यह भी कहा कि - "मुझे अब जब भी तीर्थंकर परमात्मा या केवली भगवंत मिलेंगे तब मुझे उनसे निम्नोकत ४ प्रश्र पूछने हैं - (१) मुझको किन सिध्ध भगवंत ने निगोद से बाहर निकाला ? (२) इस से पूर्व में कौन से तीर्थंकर भगवंत की देशना मैंने.सुनी थी ? (३) परमात्मा की देशना सुनने के बाद भी किस कारण से मैं अब तक संसार में भटकता रहा? (४) अब किन भगवान के शासन में मेरा मोक्ष होगा ?" 'अब तक आपने किन किन तिर्थों की यात्रा की है।' ऐसे एक प्रश्र के प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि- "प्रतिवर्ष ९ बार पालिताना की यात्रा करता हूँ और निम्नोकत ५ तीर्थों में प्रत्येक महिने में एक बार अवश्य जाता हूँ । (१) मेड़ता रोड़ - श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ भगवान . का ५२ जिनालय (२) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ (३) श्री जीरावल्ला पार्श्वनाथ (४) चारूप (५) भीलाड़-नंदीग्राम । प्रत्येक शनि-रविवार के दिन तीर्थयात्रा का लाभ लेने में बहुत आनंद का अनुभव होता है । उसमें भी राजस्थान में नागौर जिले में मेड़ता रोड़ के श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ भगवंत के जिनालय में मुझे सब से यादा आनंद की अनुभूति होती है । यदि आप किसी भी श्रावक को तीर्थयात्रा के लिए प्रेरणा करें तो मेड़ता रोड़ की यात्रा करने की खास प्रेरणा करें ऐसी मेरी नम्र विज्ञप्ति है । ४-५ घंटे तक वहाँ जिनभक्ति करने के बाद उस गाँव में अन्य कोई प्रवृत्ति न करते हुए अन्यत्र चले जाना चाहिए। अब भारत के सभी जैन तीर्थों की यात्रा २-३ सालमें करनेकी मेरी भावना है।" बहुरत्ना वसुंधरा - २-15 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ _ "सूरत में अडाजण पाटिया चार रस्ता के पास एक जिनालय की आवश्यकता होने से वहाँ जिनालय बनवाने का लाभ भी श्री देव-गुरु की कृपासे मुझे मिला है । वहाँ २१० किलोग्राम वजन के पंचधातु के श्री विमलनाथ भगवान की प्रतिष्ठा करवाने की भावना है। जिनभक्ति और उपकारी गुरु महाराज की प्रेरणा की फलश्रुति के रूप में मेरा मुख्य लक्ष्य निम्नोक्त तीन सद्गुणों को आत्मसात करने का है । (१) समता (२) एकाग्रता (३) जीवमैत्री । किसी जीवको यदि अन्य कुछ भी नहीं आता हो, मगर इन तीन सद्गुणों को अगर वह आत्मसात् कर ले तो उसका बेडा पार हुए बिना रहेगा नहीं । सभी जीव मूल स्वरूप की अपेक्षा से सिध्ध परमात्मा हैं, इसलिए किसी भी जीवकी अवगणनाआशातना नहीं हो उसके लिए में सजग रहता हूँ ...." ऐसा भी ज्ञात हुआ है कि 'जिनदासभाई' राधनपुर में रहते थे तब अपने पिताजी की प्रति मासिक तिथि के दिन समूह आयंबिल करवाते थे और आयंबिल के प्रत्येक तपस्वी को ४०-५० रूपयों के उपकरण प्रभावना के रूपमें देते थे। ऐसे उदारदिल, विशिष्ट प्रभुभक्त, सुश्रावकश्री के दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर सभी जीव विशिष्ट प्रभुभक्ति द्वारा अपने जीवनको सफल बनायें यही शुभ भावना । ARESHERIRE গী ঘি মাখনায় মান্নান কী। करोड़ खमासमण देनेवाले भोगीलालभाई माणेकचंद महेता इन्सर्ट करके (कमीज को पेन्टमें डालकर) आधुनिक युवक शायद कभी जिनमंदिर में प्रवेश भी करता है तो वस्त्रों की इस्त्री खराब हो जाने के डरसे देवाधिदेव, त्रिलोकीनाथ अरिहंत परमात्मा के समक्ष भी झुके बिना अक्कड खड़ा रहता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २२७ तो अन्य कुछ लोग प्रभुजी को ३ खमासमण देते तो हैं मगर उसमें भी शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दो हाथ, दो जानु और ललाटसे जमीं का स्पर्श करते हुए पंचांग प्रणिपात करनेवाले कितने होंगे ? - कुछ लोग शायद प्रथम बार खमासमण के समय पंचांग प्रणिपात करते होंगे मगर बाकी के दो खमासमण देते समय खड़े होने की तकलीफ शरीर को नहीं देते ! ....तब दूसरी ओर वृद्धावस्था में भी प्रत्येक खमासमण के समय खड़े होकर पंचांग प्रणिपात पूर्वक परमात्मा को पंद्रह साल में करोड़ बार वंदना करनेवाले भोगीलालभाई को ( हाल उम्र वर्ष ८० ) वंदन करने का दिल किसका नहीं होगा ? कच्छ- - गोधरा गाँव में वि.सं. २०२६ में परम तपस्वी, तत्त्वज्ञा पू. सा. श्री जगतश्रीजी म.सा. और उनकी परम विनीत सुशिष्या, योगनिष्ठा पू. सा. श्री गुणोदयश्री जी म.सा. आदि का चातुर्मास हुआ था, तब उनके सदुपदेश से सुश्रावक श्री भोगीलालभाई को 'वंदना से पाप निकंदना' का महत्त्व समझ में आया, और उनकी प्रेरणा से धर्म में उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए भोगीलालभाई ने निम्नोक्त प्रकार से आश्चर्यप्रद, अनुमोदनीय आराधना की है और आज भी कर रहे हैं। आराधना का प्रारंभ किया तब उनकी उम्र ५१ सालकी थी । (१) 'श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमो नमः' इतना खड़े खड़े बोलकर बाद में पंचांग प्रणिपात पूर्वक प्रभुजीको खमासमण देते हुए १५ साल में कुल १ करोड़ खमासमण देकर परमात्मा को वंदना की है। अपनी आत्मा को लघुकर्मी बनाई है । रातको २ बजे उठकर वे खमासमण देते थे । एक साथ ५०-१०० खमासमण देने के बाद थोड़ा हलन चलन करते थे । फिर आगे खमासमण देते थे । रोज सुबह में तथा रातको कुल मिलाकर करीब ३ हजार खमासमण देते थे। १ घंटे में करीब १ हजार खमासमण देते थे ! - (२) उपरोक्त मंत्र बोलकर, बैठे हुए, दो हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर ३ साल में १ करोड़ बार परमात्मा को वंदना की है (३) उभड़क आसन में बैठकर, उपरोक्त मंत्र बोलकर, दो हाथ जोड़कर, शिर झुकाकर ५ वर्षमें १ करोड बार परमात्मा को वंदना की है । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ किया है। बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ (४) १५ वर्षमें स्थिरता पूर्वक उपरोक्त मंत्रका १ करोड बार जप (५) नवकार महामंत्र का १ करोड़ बार जप किया है । (६) "नमो अरिहंताणं" पदका १ करोड़ बार जप किया है । हाल में हररोज २५ पक्की नवकारवाली और शांतिनाथ भगवान एवं श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की २५ - २५ माला का जप करने के बाद राई प्रतिक्रमण एवं सामायिक करने का उनका नित्यक्रम चालु है १ घंटे में १२ पक्की माला का जप कर सकते हैं । । 1 (७) नवपदजी की आयंबिल ओली की आराधना ३५ बार की है । १ वर्षीतप, समवसरण तप एवं छठ्ठ, अठ्ठम, अठ्ठाई आदि तपश्चर्याएँ की हैं। (८) पालिताना, शंखेश्वर एवं कच्छ और राजस्थान के अनेक तीर्थों की यात्रा कई बार की है । हररोज ३ घंटे तक प्रभुपूजा करते हैं । करोड़ों बार जप एवं खमासमण के सुंदर अनुभव होते हैं जो उनके स्वमुख से शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में भोगीलालभाई भी उपस्थित हुए थे । उनकी तस्वीर प्रस्तुत पुस्तक में पेज नं. 13 के सामने प्रकाशित की गयी है । - प्रभाव से उनको अनेक बार सुनने योग्य हैं । श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ को करोड़ों बार वंदना करनेवाले भोगीलालभाई का बहुमान भी शंखेश्वर तीर्थ में हुआ और बुझर्ग वय में भी शंखेश्वर महातीर्थ की यात्रा का लाभ मिलने से वे अत्यंत भाव विभोर हो गये थे । भोगीलालभाई के दृष्टांत में से प्रेरणा पाकर हम भी परमात्मा को पंचांग प्रणिपात पूर्वक नमस्कार एवं जप द्वारा कर्मनिर्जरा के मार्गमें आगे बढें यही शुभाभिलाषा । पत्ता : भोगीलालभाई माणेकचंद महेता मु. पो. गोधरा पिन : ३७०४५० कच्छ, ता. मांडवी कच्छ (गुजरात) - Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २२९ । १० वर्षमै ५५ हजार कि.मी. के प्रवास द्वारा । १०५ भारतभर के जैन तीर्थों की पदयात्रा करनेवाले श्री रामदयाल नेमिचंदजी जैन समग्र विश्वमें मनुष्य मनुष्यका दुश्मन बन रहा है और सभी अपने अपने लौकिक स्वार्थ की साधना में व्यस्त हैं तब किसी समृद्ध परिवार का ५५ वर्ष की उम्र का प्रौढ आदमी समग्र भारत की पदयात्रा के लिए प्रयाण करे और वह भी तीर्थयात्रा के साथ साथ समग्र मानव समाज में मैत्रीभावना के विकास की भावना के साथ !... यह बात शायद हास्यास्पद या असंभव सी लगती होगी, मगर यह वास्तविक हकीकत है कि श्री रामदयाल नेमिचंदजी जैन नाम के ५५ वर्षीय सुश्रावक राजस्थान में आयी हुई अपनी जन्मभूमि-भरतपुर से दि. १६-११-८७ को मंगल प्रयाण करके उपरोक्त भावनाके साथ तामिलनाडु, कर्णाटक, ओरिस्सा, आंध्र, पोंडिचेरी, कन्याकुमारी, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, आसाम आदि की पदयात्रा करके, वि.सं.२०५१ में सौराष्ट्र के गिरनार जी महातीर्थ में सर्वप्रथम बार आयोजित सामूहिक ९९ यात्रा की पूर्णाहुति के प्रसंग पर फाल्गुन महिनेमें हमको मिले, तब उन्होंने ८ साल में ४४ हजार कि.मी. की पदयात्रा द्वारा २५० तीर्थों की यात्रा पूर्ण की थी.... उनके कहने के मुताबिक १० साल में कुल ५५ हजार कि.मी. के पदयात्रा द्वारा समग्र भारत के जैन तीर्थों की यात्रा करने की उनकी भावना थी जो अब पूर्ण हो चुकी होगी । 'गुजरात में थरा के पास आया हुआ रूनी तीर्थ चमत्कारिक है' ऐसा उन्होंने कहा था । वे हररोज करीब २५ कि.मी. जितना चलते थे । एक ही टाईम भोजन करते थे। इसके सिवाय एक या दो बार चाय पीते थे, लेकिन होटल की चाय कभी भी नहीं पीते थे। जमीकंद एवं बाजारू चीजों का त्याग है । प्रतिदिन जिनपूजा करते हैं। नवकार महामंत्र के प्रति उनकी अनन्य आस्था है। कुछ साल पूर्व उन्होंने समेतशिखरजी महातीर्थ में कुछ नियम पूर्वक विधिवत् १ लाख नवकार महामंत्र के जप की आराधना की थी। उसमें कुछ क्षुद्र उपद्रव होने पर भी वे अडिग रहे थे, तब वहाँ के अधिष्टायक श्री भोमियाजी देव ने उनको दर्शन दिये थे । उनकी प्रेरणा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २३० से ही उन्होंने इस पदयात्रा का प्रारंभ किया था । नवकार महामंत्र द्वारा उन्होंने मध्यप्रदेश के हटा एवं मंडोवर नाम के गाँवो में और अहारजी जैन सिद्धक्षेत्र में अनेक लोगों को भूत-प्रेत की बाधा से और पथरी, पक्षाधात आदि रोगों से मुक्त किया था । गुजरात में बड़ौदा में एक केन्सर पीड़ित बच्चे को उन्होंने नवकार महामंत्र के द्वारा रोगमुक्त किया था । प्रांतीज में एक व्यक्ति को बिच्छूने काटा था, उसका जहर भी नवकार महामंत्र के द्वारा उतारा था । पंचमहाल जिले के गोधरा गाँव में ८ मुसलमानों को प्रतिज्ञा देकर माँसाहार का त्याग करवाया था । नवकार महामंत्र का स्मरण करके वे भोमियाजी देव की स्तुति के रूप में एक संस्कृत श्लोक बोलते हैं, तब तुरंत उनके शरीर में भोमियाजी देव का प्रवेश होता है जो उनकी विविध चेष्टाओं के द्वारा हम समझ सकते हैं । बाद में जो भी प्रश्न उनसे पूछे जाते हैं उनके प्रत्युत्तर भोमियाजी देव अपने अवधिज्ञान की मर्यादा के मुताबिक देते हैं । यह घटना हमने प्रत्यक्ष रूपसे देखी है । रामदयालभाई के परिवार में उनकी धर्मपत्नी उर्मिलाबहन स्कूलमें शिक्षिका हैं । ३ बेटियाँ एवं १ बेटा मिलकर ४ संतान हैं । कपड़े का व्यवसाय करते थे और मेलेरिया विभाग में १६ साल तक इन्स्पेटकर के रूपमें काम करने के बाद उन्होनें इस्तीफा दे दिया । ३ भाईयों की मिलकर १८० बीघा जमीन है 1 रामदयालभाई ने पदयात्रा का संकल्प जाहिर किया तब प्रारंभ में उनकी धर्मपत्नी ने विरोध किया था मगर बादमें समझाने से वे संमत हो गयी थीं । पदयात्रा की पूर्णाहुति कश्मीर में होनेवाली थी । "कश्मीर में शांति की स्थापना हो ऐसी भावना से पदयात्रा करते हुए अगर कश्मीर की धरती पर मेरा खून भी हो जायेगा तो उसे मैं अपना सद्भाग्य समझँगा" ऐसे उद्गार उन्होंने व्यक्त किये थे । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बिहार में ४ डकैतियों ने चप्पु दिखाकर उनसे ६५० रूपये लूट लिये थे । मध्यप्रदेश के आदिवासी विस्तारमें उनकी पीटाई भी हुई थी फिर भी वे अपने संकल्प में अडिग रहे थे । इ.स. १९९७ में पदयात्रा पूर्ण होने के बाद वे भरतपुर वापिस लोटकर अपने खेत के मकान में वानप्रस्थाश्रमी की तरह जीना चाहते थे । शंखेश्वर में अनुमोदना समारोह में पधारने के लिए उनको निमंत्रण . पत्र भेजा गया था एवं प्रस्तुत किताब का दूसरा भाग भी भेजा गया था मगर उनके परिवार की और से कुछ प्रत्युत्तर नहीं मिल सका था । गिरनार में रामदयालभाई से संप्राप्त तस्वीर पेज नं. 24 के सामने प्रकाशित की गयी है। पत्ता : रामदयाल नेमिचंदजी जैन इन्द्र कोलोनी बस स्टेन्ड के पासमें मु. पो. जि. भरतपुर (राजस्थान) पिन : ३२१००१ | श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की ४८ बार ९९ यात्रा । करनेवाले भी रतिलालभाई जीवराजभाई सेठ इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ९९ पूर्व ( १ पूर्व = ७० लाख ५६ हजार करोड़) बार श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ के उपर पधारे थे । इस के आंशिक अनुकरण स्वरूप में प्रति वर्ष हजारों भावुक आराधक व्यक्तिगत रूप से या विविध संघों में शामिल होकर इस गिरिराज की ९९ यात्रा विधिपूर्वक करके अपनी आत्मा को धन्य मानते हैं । कुछ बुझुर्ग आराधक प्रतिदिन गिरिराज के उपर चढने की अशकित के कारण चातुर्मास में या शेषकाल में गिरिराज की तलहटी की ९९ यात्रा विधिपूर्वक करते हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कई भाग्यशालीओं ने एक से अधिक बार श्री सिधाचलजी महातीर्थकी ९९ यात्रा की होगी, मगर वर्तमान काल में सब से अधिक ९९ यात्रा करनेवाले अगर कोई भाग्यशाली हैं तो वे हैं श्री रतिलालभाई जीवराजभाई सेठ । . हाल ७४ सालकी उम्रवाले श्री रतिलालभाई ने किसी विशिष्ट अंतः प्रेरणा से २६ साल की भर युवावस्थामें ही दुकान में से निवृत्ति स्वीकार ली और पिछले ४८ सालसे वे प्रति वर्ष शेषकाल में तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ के उपर चढकर विधिपूर्वक ९९ यात्रा करते हैं। चातुर्मास में भी एकाशन आदि छ 'री' के नियमों का पालन करते हुए गिरिराज की तलहटी की विधिवत ९९ यात्रा करते हैं । इस तरह उन्होंने ४८ बार ९९ यात्राएँ श्री सिद्धगिरि के उपर चठकर एवं ४४ बार ९९ यात्राएँ गिरिराज की तलहटी की की हैं !!... वे पालिताना में ही रहते हैं । दो बार उपधान तप भी किया है । नवपदजी की आयंबिल ओली पिछले २२ सालसे प्रतिवर्ष २ बार अचूक करते हैं । अक्सर उनको स्वप्न में श्री आदिनाथ भगवान के दर्शन होते हैं । आज दिन तक उन्होंने छ 'री' पालक संघों द्वारा एवं बस आदि वाहन द्वारा कुल १२ बार विविध तीर्थों की यात्राएँ की हैं । उनकी आराधना देखकर अनेक गाँवों के संघोंने प्रसन्नता से उनका बहुमान किया है । पालिताना में "राजा" के उपनाम से उन्हें सभी पहचानते हैं । पालिताना में रथयात्रा या झुलुस में लाल रंग की धोती और लाल रंग के उत्तरासंग पहने हुए यदि कोई श्रावक को आप देखें नो मानना कि प्राय : रतिलालभाई होंगे । सं.२०३५ में, २०४५ में एवं २०४७ में हमारी निश्रामें कच्छी समाज की सामूहिक ९९ यात्राएँ हुई थीं तब रतिलालभाई का परिचय हुआ था । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में रतिलालभाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर इसी पुस्तक में पेज नं. 18 के सामने प्रकाशित की गयी है। रतिलालभाई की आराधना की हार्दिक अनुमोदना करते हुए आप भी अपने जीवन में कम से कम एक बार भी सिद्धाचलजी महातीर्थ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ की ९९ यात्रा करने का संकल्प करें यही शुभापेक्षा । रतिलालभाई के एक सुपुत्र चेतनभाई पालिताना में पन्नारूपा धर्मशाला में मेनेजर हैं । अन्य सुपुत्र मुंबई में रहते हैं । पत्ता : रतिलालभाई जीवराजभाई सेठ हठीभाई की धर्मशाला, दाणापीठ पालिताना (सौराष्ट्र) पिन : ३६४ २७० [ १५ लाख रूपयोंके सोने-होरके उपकरण आदिसे १०७ जिनभक्ति करते हुए अपूर्व गुरुभक्त मुमुक्ष, - विमलभाई जीवराजजी सिंघवी । मगध सम्राट श्रेणिक महाराजा प्रतिदिन भगवान श्री महावीर स्वामी जिस दिशामें विहार करते थे उस दिशा के सन्मुख सोने के नूतन १०८ जवों के द्वारा अष्टमंगलका आलेखन करके परमात्मा के प्रति अद्भुत भक्तिको अभिव्यक्त करते थे। इस शास्त्रोक्त दृष्टांत में अगर किसीको अतिशयोक्ति लगती हो, उन्हें मुंबई के पास भीवंडी में रहते हुए विमलभाई सिंघवी नाम के मारवाड़ी युवक की प्रभुभक्ति के खास दर्शन करने योग्य हैं । शास्त्रोक्त सुविशुध्ध मुनिचर्यां को पालन करने के चुस्त पक्षपाती, युवा प्रतिबोधक प. पू. आ. भ. श्री विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. के संसार संबंध में रिश्तेदार ऐसे विमलभाईने करीब १९ सालकी उम्रमें शादी के बाद एक ही वर्षमें पूज्य श्री की निश्रामें आज से करीब १९ साल पहले अपनी जन्मभूमि तखतगढ (राजस्थान) में धर्मपत्नी के साथ उपधान तप की आराधना की । ४७ दिन तक लगातार सत्संग से उनके दिल में चारित्र स्वीकारने की प्रबल भावना जाग उठी थी, मगर परिवार जनोंके दबाव के कारण उनको अपनी भावना को मन में ही दबानी पड़ी और मुंबई के पास भीवंडी में जाकर अपने भाईओं के साथे पावरलूम के व्यवसाय में Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ शामिल होना पड़ा। व्यवसाय में व्यस्तता आदि कारणों से कुछ समय के लिए वे मानो धर्म से थोड़े दूर हट गये थे, मगर एक दिन प्रखर प्रवचनकार मुनिराज श्री अक्षयबोधिविजयजी महाराज के प्रवचन श्रवण से पुन: सुसुप्त धर्म संस्कार जाग्रत हो गये और जीवन को धर्म द्वारा विमल बनाकर अपने नामको सार्थक बनाने का उन्होंने दृढ संकल्प किया । प्रतिदिन जिनपूजा करने का प्रारंभ किया और जिनवाणी श्रवण से भावोल्लास में अभिवृद्धि होती गयी । फलत: उन्होंने अष्टप्रकारी जिनपूजा के लिए करीब १५ लाख रूपयों के सद्व्यय द्वारा हीरों से जड़ित सुवर्ण के उपकरण बनवाये, जिनमें ५ लाख रूपयोंका हीराजड़ित सुवर्ण कलश, ४ लाख रूपयों का दर्पण, १ लाख रूपयों के चामर युगल, १ लाख रूपयों की सुवर्ण कटोरी इत्यादिका समावेश होता है !!!... संसार की चार गतियों से छुटकर, ज्ञान- दर्शन - चारित्र रूपी रत्नत्रयी की प्राप्ति द्वारा पंचम गति मोक्षको पाने की पार्थना करने के लिए वे प्रतिदिन स्वस्तिक के उपर चांदी की तीन मुद्राएँ रखकर सिद्धशिला का आलेखन करते हैं और महिने में एक बार सोने की ३ मुद्राएँ रखकर प्रार्थना करते हैं । इसके लिए वार्षिक १ लाख रूपयों का सद्व्यय वे करते हैं । प्रभुभक्ति के साथ साथ उनकी गुरुभक्ति भी बेमिशाल ही है । साल में एक बार प्रभुजी के समक्ष एवं १ बार उपकारी गुरुदेव ( उपर्युक्त आचार्य भगवत) के समक्ष वे सुवर्ण के स्वस्तिक का आलेखन करते हैं । पिछले करीब ५ सालों से अपने उपकारी गुरु भगवंत का जहाँ भी चातुर्मास प्रवेश होता है वहाँ जाकर गुरुदेव के समक्ष उनके देहप्रमाण जितने करीब ६ फूट के चांदी के स्वस्तिक का आलेखन करने द्वारा गुरुभक्ति की अभिव्यक्ति करते हैं और उपस्थित हजारों लोंगों के हृदय में गुरुदेव के प्रति आस्था बढाने का सुप्रयास करते हैं । इसी भावना से आज से ३ साल पूर्व जब उपरोक्त आचार्य भगवंतश्री का चातुर्मास अहमदाबादमें गिरधरनगर उपाश्रयमें था तब एक दिन विमलभाई ने वहाँ गुरुदेव श्री की निश्रा में हठीसिंह की वाड़ीमें एक साथ साढे पाँच हजार पुरुषों के समूह सामायिक का भव्य आयोजन भी करवाया था और एक दिन अहमदाबाद के समस्त संघों के ट्रस्टीयों का बहुमान भी गुरुदेव श्री Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ की निश्रामें करवाया था । इन सभी आयोजनों में आर्थिक सहयोग संपूर्णतया विमलभाई का होते हुए भी वे हमेशा पर्दे के पीछे ही गुप्त रहना पसंद करते हैं और श्री संघका नाम ही हमेशा आगे रखते हैं । इतनी आर्थिक अनुकूलता होते हुए भी वे खुद सोने के आभूषण और रंगीन कपड़ों का त्याग करके श्वेत वस्त्र ही पहनते हैं, दो टाईम प्रतिक्रमण एवं सामायिक करते हैं । उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका श्री रतनबाई स्वयं धर्मनिष्ठ होती हुई अपने पतिदेव को भी विशेष रूपसे धर्ममय जीवन जीने के लिए हमेशा प्रेरणा देती रहती है, अत: दोनों ने वर्षीतप साथमें किया तब ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन किया था । उपर्युक्त प्रकार से विशिष्ट जिनभक्ति और गुरुभक्ति करते हुए अपने पतिदेव को रतनबाई हमेशा आरंभ-परिग्रह का त्याग करके चारित्र जीवन का स्वीकार करने के लिए प्रेरणा करती रहती हैं, फलतः उन्होंने २ साल पूर्व अपने सुपुत्र पृथ्वीकुमार को शंखेश्वर महातीर्थ में भव्य महोत्सव के साथ उपरोक्त आचार्य भगवंत श्री के शिष्यरत्न, कुशल प्रवचनकार गणिवर्य श्री रश्मिरत्नविजयजी म.सा. के शिष्य मुनि मोक्षांगरत्न के रूपमें दीक्षा दिलाई तथा साथमें दूसरे १२ मुमुक्षओं की भी दीक्षा हुई । इस भव्य दीक्षा महोत्सवमें हेलीकोप्टर द्वारा वर्षीदान इत्यादि आयोजनों द्वारा लाखों रूपयों का सद्व्यय विमलभाई ने किया मगर कहीं पर भी अपने नाम का बेनर वगैरह लगाने नहीं दिया । दूसरे सुपुत्र रुचितकुमार (उम्र वर्ष ९) को भी उपरोक्त गुरु भगवंत के पास संयम का प्रशिक्षण दिला रहे हैं । और अब स्वयं भी चारित्र की भावना से गुरुदेव श्री के साथ विहार कर रहे हैं । संभवतः इस चातुर्मास के बाद वे अपनी धर्मपत्नी और सुपुत्र के साथ चारित्र ग्रहण करेंगे । भावोल्लास में अभिवृद्धि होने से एक बार विमलभाईने अपने गुरु भगवंत को कह दिया था कि मेरी तिजोरी की चाभी मैं आपको अर्पण कर दूँ और आप जहाँ और जितना दान देने का आदेश करें वहाँ उतना दान देने के लिए तैयार हूँ। ऐसे बेमिशाल प्रभुभक्त और अनन्य गुरुभक्त मुमुक्षुरत्न श्री विमलभाई संघवी की देव-गुरु-धर्म भक्तिकी भूरिश: हार्दिक अनुमोदना । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पता : विमलभाई जीवराजजी सिंघवी ३२०/१४, आदर्श बिल्डींग, गोकुलनगर, भीवंडी, जि. थाणा (महाराष्ट्र). फोन : ५२४०२ (घर) / २२४५९ (फेक्टरी) || सामायिक और जिनपूजा नहीं होने पर १०-१० हजार १०८ वाये जिनमंदिर के कोष में डालने का अभिग्रह धारण करते हुए युवा प्रावकरल धीरुभाई झवेरी श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामीने मगधसम्राट श्री श्रेणिक महाराजा को कहा था कि - 'हे राजन् ! सारे मगध देश का साम्राज्य पुणिया श्रावक को देने से भी उसके एक सामायिक के पुण्य को तुम नहीं खरीद सकोगे।' पुणिया श्रावक के इस दृष्टांत को व्याख्यान में अनेक बार सुनने के बावजूद भी सामायिक को जीवन में आत्मसात् करने का नियमित पुरुषार्थ करने वाले कितने होंगे ? शायद व्यवसाय या गृहकार्य से निवृत्त हुए कुछ श्रावक-श्राविकाएँ प्रतिदिन ३-४ या अधिक सामायिक करते भी होंगे मगर व्यवसाय की जिम्मेदारी होने से अक्सर विदेश भी जाना पड़ता हो फिर भी प्रतिदिन एक सामायिक अचूक करने का अभिग्रह धारण करनेवाले सुरत के युवा श्रावकरत्न धीरुभाई झवेरी (पू.आ.भ.श्री भद्रगुप्तसूरिजी म.सा. और पू.प्रवर्तक श्री धर्मगुप्तविजयजी म.सा. के संसारी भानजे) का दृष्टांत सचमुच अत्यंत अनुमोदनीय और अनुकरणीय है । सामायिक और जिनपूजा की महिमा व्याख्यानमें श्रवण करने के बाद उन्होंने नियमित जिनपूजा और एक सामायिक करने का संकल्प किया। लेकिन हीरों के व्यवसाय निमित्त से उनको अक्सर एन्टवर्प इत्यादि विदेशों में जाना पड़ता था, जिस के कारण उपरोक्त संकल्प कई बार टूट जाता Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ था। यातायात में समय एवं जिनालयादि के अभाव के कारण सामायिक और जिनपूजा करना संभव नहीं होता था । सच्चे धर्मात्मा धीरुभाई के हृदयमें यह बात उचित न लगी । आखिर उन्होंने प्रखर प्रवचनकार पू. मुनिराज श्री रत्नसुंदरविजयजी म.सा. (हाल आचार्य) के पास १४ साल पहले अभिग्रह लिया कि 'जिस दिन सामायिक या जिनपूजा नहीं होगी उस दिन प्रायश्चित के रूप में १०० रूपये जिनमंदिर के कोष में डालूंगा'। प्रथम वर्षमें २५० दिन सामायिक/जिनपूजा बिना गये । दूसरे वर्ष १००० रूपये प्रायश्चित्त के रूपमें जिनमंदिर के कोष में डालने का अभिग्रह लिया तब सालमें केवल २५ दिन सामायिक/जिनपूजा नहीं हुई । तीसरे साल से १० हजार रूपयों का दंड निर्धारित किया तब केवल ३ ही दिन सामायिक/जिनपूजा के बिना गये ! धीरूभाई की धर्मपत्नी वर्षाबहनने सामायिक न होने पर अठ्ठम तप करने का अभिग्रह प. पू. आ. भ. श्री यशोवर्मसूरिजी म. सा. के पास ग्रहण किया है !!!... . अब धीरुभाई इतनी सावधानी से बरतते हैं कि विदेशयात्रा के लिए टिकट भी इस तरह लेते हैं कि जिससे बीच के स्टेशन पर उतरकर प्लेटफोर्म पर बैठकर भी सामायिक कर लेते हैं और साथमें रखे हुए जिनबिंब की पूजा करने के बाद ही आगे बढ़ते हैं ..... जिनभक्ति और सामायिक के साथ साथ जीवदया के सत्कार्यों में भी वे गुप्तरूप से अच्छी राशि का सद्व्यय करते रहते हैं । धीरुभाई की एक बहनने तीर्थप्रभावक प.पू.आ.भ. श्री : विजयविक्रमसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय में दीक्षा ली है । तपस्वी सा. श्री सुभद्राश्रीजी की प्रशिष्या सा. श्री कल्पज्ञाश्रीजी के रूपमें सुंदर संयमका पालन करती हैं । . धीरुभाई के अद्भुत दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर सभी भावुकात्माएँ सामायिक और जिनपूजा को अपने जीवन में आत्मसात् करें यही शुभाभिलाषा। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पता : धीरुभाई सी. शाह ६०४-७०४ धरम पेलेस, पारले पोइन्ट अठवा लाइन्स, सुरत (गुजरात) पिन : ३९५००७ फोन : ०२६१-२२८०१८, २२८०७८, २२८५५९ (घर) ४१७३५०-४३५७४२-४३२८९३ (ओफिस) फेक्स : ३५७३९ हररोज त्रिकाल ३४६ लोगस्स का कायोत्सर्ग। करते हुए उत्कृष्ट आराधक श्राद्धवर्य । श्री हिमतभाई बेड़ावाले ___'वे तो करीब साधु जैसा जीवन जीते हैं। ऐसे उद्गार कई लोगों के मुखसे जिनके लिए निकलते रहते हैं ऐसे श्राद्धवर्य श्री हिंमतभाई वनेचर बेड़ा (राज.)वाले (उ.व.-७० करीब) अध्यात्मयोगी प.पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. के विशिष्ट कृपापात्र एवं उन्हीं के मार्गदर्शन के मुताबिक आत्मसाधना के पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए महान साधक आत्मा हैं । अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्र और सम्यक्तप स्वरूप नवपदजी की आराधना उनके रोए रोंए में आत्मसात् हो गयी है, इसीलिए वे नवपदजी के ३४६ गुणों के अनुसार ३४६ लोगस्स का कायोत्सर्ग प्रतिदिन त्रिकाल करते हैं !.... प्रायः ६ विगइयों का त्याग, ५ द्रव्यों से अधिक द्रव्य नहीं खाना, वर्धमान तप एवं नवपदजी की आयंबिल ओलियाँ करना, दिन-रात का अधिकांश समय सामायिक में ही बीताना , पर्वतिथियों में पौषध करना, केश लुंचन करना, जीव विराधना से बचने के लिए चातुर्मास में कहीं भी बाहर गाँव नहीं जाना, वर्षाचातुर्मास सिवाय के कालमें सिद्धचक्र महापूजन की विधि करवाने के लिए मुंबई से बाहर भी जाना पड़े तो बाहर का पानी भी नहीं पीना, हररोज संक्षेप में श्री सिद्धचक्र पूजन विधि करना, पंच परमेष्ठी भगवंतों को खमासमंण देकर वंदना करना... इत्यादि अनेकविध Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २३९ आराधनाओं से मघमघायमान उनका जीवन सचमुच अत्यंत अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय भी है 1 - २ हिंमतभाई की धर्मदृढता के कुछ अनुमोदनीय प्रसंग हम यहाँ देखेंगे । (१) एकबार शामको प्रतिक्रमण के बाद वे जिनालयमें कायोत्सर्ग कर रहे थे तब भवितव्यतावशात् पूजारी को उनकी उपस्थिति का खयाल नहीं रहा और उसने जिनालय के द्वार बंद कर दिये । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर हिंमत भाई को इस बात का खयाल आया मगर उन्होंने द्वार खुलवाने के लिए जरा भी कोशिश नहीं की, बल्कि 'आज तो सारी रात प्रभुजी के सांनिध्य में रहने का परमसौभाग्य संप्राप्त हुआ है' ऐसी भावना से पूरी रात कायोत्सर्गमें ही बीतायी। प्रातः कालमें द्वार खोलने के बाद पूजारी को अपनी गलती का ख्याल आया तब उसने क्षमायाचना की किन्तु हिंमतभाई ने उसे जरा भी उपालंभ नहीं दिया, बल्कि प्रभुध्यान का ऐसा उत्तम मौका मिलने के कारण आनंद ही व्यक्त किया । कैसी अप्रमत्तता ! अंतर्मुखता !! और प्रभु के साथ प्रीति !!!.... (२) ७-८ साल पहले महाराष्ट्र के अहमदनगर शहरमें सिद्धचक्र महापूजन की विधि करवाने के लिए हिंमतभाई गये थे तब मुंबई से फोन आया कि - तुरंत वापिस लौटें, आपकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य अत्यंत गंभीर है । लेकिन दृढधर्मी हिंमतभाई ने प्रत्युत्तर में कहा कि- 'श्री सिद्धचक्र महापूजन को अधूरा छोड़कर मैं नहीं आ सकता, जो होनेवाला होगा वह होगा । प्रभु भक्ति के प्रभाव से अच्छा ही होगा' ऐसा कहकर जरा भी चिता किये बिना अत्यंत भाव पूर्वक पूजन करवाया और धर्मप्रभाव से उनकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य भी अच्छा हो गया । कैसी अपूर्व धर्मश्रद्धा । कैसा अनासक्त भाव !!! (३) एकबार हिंमतभाई के घरमें सरकार की और से रेड़ पडी ।" धर्म श्रद्धा से चाभिएँ अमलदारों को सौंपकर वे स्वयं भावपूर्वक नवकार महामंत्र का स्मरण करने लगे । अमलदार तिजोरियाँ खोलकर देखने लगे । अनेक रूपये आदि होते हुए भी उनको दिखाई नहीं दिये ! आखिर वे चाभियाँ वापिस लौटाकर चले गये । इसे कहते हैं 'धर्मो रक्षति रक्षितः ' । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ करीब १२ साल पूर्व वालकेश्वर में हिंमतभाई के घर पर हम गये थे तब वे सामायिक में मौनपूर्वक जप कर रहे थे । हिंमतभाई की धर्मनिष्ठा की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पता : विधिकार श्री हिंमतभाई वनेचर (बेड़ावाले) १०२, चंदनबाला एपार्टमेन्ट वालकेश्वर, मुंबई - ४००००६ फोन : ८१२९८८५/३६९६८८५ घर २४० ११० प्रतिदिन सिद्धचक्रपूजन करनेवाले, स्वानुभूति संपत्र श्राद्धवर्य श्री बाबुभाई कड़ीवाले नवकार महामंत्र के परम आराधक और प्रभावक, अजातशत्रु अध्यात्मयोगी यथार्थनामी, पं.पू. पन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. के विशिष्ट कृपापात्र उत्तम आराधक, विरल श्राद्धवर्गों में से एक आत्म साधक हैं श्री बाबुभाई कड़ीवाले । ? प्रतिदिन जब तक सिद्धचक्र पूजन नहीं होता तब तक मुँहमें पानी भी नहीं डालनेवाले श्री बाबुभाई, सिद्धचक्र महापूजन एवं त्रिदिवसीय अर्हत् महापूजन करानेवाले विधिकार के रूप में जैन संघों में सुप्रसिद्ध हैं । सालंबन ध्यानप्रयोग, महाविदेह की भावयात्रा, श्रीपाल - मयणा रास के आध्यात्मिक रहस्य, दिव्य जीवन जीने की कला - श्री नवकार... इन विषयों पर उन्होंने अत्यंत मननीय किताबें लिखी हैं । विविध संघों में पूजन के दौरान इन विषयों पर यथाशक्य विवेचन करके श्रोताओं को भाव विभोर बना देते हैं। 1 हालमें प्राय: प्रतिवर्ष पर्युषण या नवपदजी ओली की आराधना करवाने के लिए या उपरोक्त विषयों पर आध्यात्मिक वार्तालाप के लिए उनको अमेरिका आदि विदेशों के जैन संघों के आमंत्रण से विदेश में जाने के अवसर आते हैं तब ३० घंटे तक निरंतर हवाई जहाज की यात्रा के Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २४१ कारण सिद्धचक्र पूजन नहीं हो सकता है तब तक वे पानी भी नहीं पीते । कैसी अद्भुत भक्तिनिष्ठा । • हररोज रात को २.३० से ५.३० बजे तक सामायिक पूर्वक जप और अरिहंत परमात्मा का सालंबन ध्यान और प्रातः ७ से १० बजे तक जिनमंदिर में लघुसिद्धचक्र पूजन करने के बाद महाप्रभावशाली श्री वर्धमान शक्रस्तव ( श्री सिध्धसेन दिवाकरसूरिजी के उपर प्रसन्न होकर सौधर्मेन्द्र ने दिया हुआ भक्ति गर्भित स्तोत्र, जिसमें श्री अरिहंत परमात्माकी २७३ विशिष्ट विशेषणों से अद्भुत स्तवना की गयी है ) का पाठ करते हैं और उस स्तव के मूल मंत्र 'ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः ' की २५ माला का जप करते हैं । उनके घर के प्रत्येक सदस्य भी श्री वर्धमान शक्रस्तव का हररोज पाठ करते हैं । ( वर्धमान शक्रस्तव का नियमित पाठ करने की भावना रखते हुए आराधकों के लिए उसकी सार्थ पुस्तिका 'श्री कस्तुर प्रकाशन ट्रस्ट' - मुंबई. दूरभाष : ४९३६२६६ से प्राप्त हो सकेगी 1 ) आजीवन कमसे कम बिआसन का पच्चक्खाण करने की बाबुभाई की प्रतिज्ञा है । विशिष्ट आत्मसाधना के लिए सालमें एकाध महिने तक गिरनारजी महातीर्थ में सेसावन (सहसाम्रवन) के पवित्र शांत वातावरण में वे रहते हैं । वि. सं. २०१३ में प्रथम बार प.पू. पन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. के दर्शन होते ही बाबुभाई का मन मयूर नाच उठा । घीरे घीरे सत्संग करते हुए एक दिन उन्होंने पूज्य पन्यासजी महाराज के पास 'आत्मानुभव' कराने के लिए प्रार्थना की । पूज्यश्रीने भी उनकी योग्यता को पिछान कर सर्व प्रथम तो व्यवसाय से निवृत्ति लेने की प्रेरणा दी जिसका उन्होंने तुरंत अमल किया । बादमें 'शिवमस्तु सर्व जगतः ' की भावनापूर्वक त्रिकाल १२ - १२ नवकार का स्मरण करने के संकल्प द्वारा आत्मसाधना का प्रारंभ हुआ । पूज्यश्री की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के मुताबिक साधना करते हुए वि.सं. २०२९ में उपधान के दौरान उनको विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूति हुई । उसके बाद जो जो आध्यात्मिक बहुरत्ना वसुंधरा - २-16 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग अनुभव होते गये उनको वे अपनी डायरी में लिखते गये । दि. १९-६-९५ के दिन अहमदाबाद में करीब डेढ घंटे तक बाबुभाई के साथ वार्तालाप हुआ, उसके दौरान उन्होंने कुछ आध्यात्मिक अनुभवों की बातचीत की, मगर वे अनुभव अपने जीवन के दौरान ही जाहिर हो जायँ ऐसा अधिकांश साधक सहेतुक नहीं इच्छते हैं और सद्गुरु की ओरसे भी उनको ऐसी ही आज्ञा होती है, इसलिए उन बातों को यहाँ प्रकाशित करना संभव नहीं है । आत्मसाधक श्री बाबुभाई की आत्म साधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । विशिष्ट आत्म जिज्ञासुओं को बाबुभाई का सत्संग करने योग्य है । १११ पता : श्री बाबुभाई कड़ीवाले सोनारिका बिल्डींग, जैन नगर, नवा शारदा मंदिर रोड, पालडी- अहमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८०००७, फोन : ०७९-६६२१७०५ (घर) जन श्री सिद्धचक्र महापूजन के बेजोड़ विधिकार श्राद्धवर्य श्री हीरालालभाई मणिलालभाई शाह आज कल अनेकविध नये नये पूजन पढाये जाते हैं, मगर प्राचीन कालमें मुख्यतः श्री सिद्धचक्र महापूजन और श्री अष्टोत्तरी बृहत् शांतिस्त्रात्र ही पढ़ाये जाते थे । विविध महापूजनों की विधि करनेवाले विधिकार आज अनेक हैं मगर जिनका श्री सिद्धचक्र महापूजन एकबार ध्यानपूर्वक देखने-सुनने के बाद आजीवन याद रह जाय ऐसे बेजोड़ विधिकार श्राद्धवर्य श्री हीरालालभाई मणिलालभाई शाह (उ.व. ७२ करीब ) भी नवकार, सामायिक एवं मैत्रीभावना की महिमा को जैन संघमें विशिष्ट रूपसे फैलानेवाले प. पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी म. सा. के एक विशिष्ट कृपापात्र सुश्रावक हैं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २४३ हररोज श्री सिद्धचक्र पूजन करनेवाले, प्रतिदिन कम से कम बिआसन का पच्चक्खाण करनेवाले, करीब ४ विगइयों के त्यागी, श्रीमंत होते हुए भी सादगी प्रिय, उभय काल प्रतिक्रमण आदि श्रावक के आचारों का अच्छी तरह से पालन करनेवाले श्री हीराभाई कई वर्षों से अहमदाबाद में श्री गिरधरनगर श्वे.मू.पू. तपागच्छ जैन संघ के अध्यक्ष के रूपमें संघ का संचालन सुचारुरूपसे करते हुए लोगों के अत्यंत आदर के पात्र बने हुए हैं। 'जिनभक्ति और जीवमैत्री यह दो, संसार सागर को तैरने के लिए अद्भुत तुम्बे (काष्ठपात्र) हैं' यह उनके वार्तालाप एवं आचरण का मुख्य विषय होता है। बीमार साधु-साध्वीजी भगवंतों की वैयावच्च के लिए उन्होंने अपना एक मकान अलग ही रखा है और उसमें प्रायः हमेशा किसी भी समुदाय के बीमार साध्वीजी भगवंतों को विज्ञप्ति पूर्वक स्थिरता करवाकर उनकी अनुमोदनीय वैयावच्च करते-करवाते हैं । गच्छ या समुदाय के भेदभाव बिना वे हरेक साधु-साध्वीजी . भगवंतों की सुंदर भक्ति करते हैं, । हीरालालभाई के विशिष्ट नेतृत्व से श्री गिरधरनगर संघमें अत्यंत ऐक्यभावना है । मतभेद या मनभेद का नामोनिशान नहीं है। _ वि.सं. २०५१ में गच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. आदि मुनिवर एवं जिनको भी शास्त्राभ्यास करना हो ऐसे अलग-अलग साध्वीसमूह के करीब १२५ जितने साध्वीजी भगवंतों का चातुर्मास गिरधरनगर श्री संघने करवाया था, तब विद्वान पू. गणिवर्य श्री अभयशेखरविजयजी म.सा. ३ घंटे तक अलग अलग तीन विषयों का सुन्दर अध्ययन करवाते थे । गिरधरनगर से शंखेश्वरजी महातीर्थ एवं गिरनारजी महातीर्थ के छरी पालक संघ भी निकले थे। प्रायः प्रत्येक चातुर्मास में अत्यंत अनुमोदनीय आराधनाएँ श्री गिरधरनगर संघमें होती हैं । किसी भी जैन साधु-साध्वीजी भगवंत की नि:शुल्क चिकित्सा करने की शर्त से वहाँ की चत्रभुज होस्पीटल में गिरघरनगर जैन संघने ११ लाख रूपये प्रदान किये हैं। यह सब मुख्यतः 'यथा राजा तथा प्रजा' उक्ति के अनुसार संघ प्रमुख श्राद्धवर्य श्री हीरालालभाई की Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ विशिष्ट धर्मभावना, मैत्रीभावना और व्यवहारकुशलता का परिणाम है 1 धर्मचर्चा के दौरान वे अपने परम उपकारी गुरुदेव श्री पन्यासजी महाराजको अत्यंत बहुमान पूर्वक बार बार याद करते हैं । अगर प्रत्येक संघोंमें हीरालालभाई जैसे धर्मनिष्ठ कुशल सुश्रावकों का नेतृत्व संप्राप्त हो जाय तो जिनशासन का कितना जय जयकार हो जाय !!!... हीरालालभाई के ज्येष्ठ सुपुत्र सुरेशभाई नारणपुरा चार रस्ता जैनमंदिर के सामने रहते हैं । वहाँ संघमें जो आयंबिलखाता है उसका संपूर्ण आर्थिक सहयोग सुरेशभाई की ओर से होता है, इतना ही नहीं किन्तु आयंबिल के तपस्वियों की भक्ति वे स्वयं करते हैं । ऐसे विशिष्ट श्राद्धवर्यों को तैयार करनेवाले प. पू. पंन्यासजी महाराजको अनंतशः वंदना एवं श्राद्धवर्य श्री हीरालालभाई की आराधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : विधिकार श्री हिरालालभाई मणिलाल भाई शाह ७७, गिरघरनगर, शाहीबाग, अहमदाबाद - ३८०००४. अठ्ठम के पारणे अठ्ठम तप के साथ गिरिराज की ११२ ९९ यात्रा करनेवाले अप्रमत्त आराधक दंपती बचुबाई टोकरसीभाई देठिया (सामान्यतः धर्मश्रेत्र में श्रावकों की अपेक्षा से श्राविकाओं की 'मोनोपोली' विशेष प्रमाणमें दृष्टिगोचर होती है । कई श्रावक अपनी धर्मपत्नी को ऐसा भी कहते हैं कि - "तू भले धर्म कर, मुझे तो अभी व्यावसायिक प्रवृत्तिओं के पीछे धर्म करने की फुरसत ही कहाँ है ? तू धर्म करेगी उससे मुझे भी लाभ होगा ही " । किन्तु इसमें अपवाद रूप कुछ ऐसे भी विरल दंपती श्रावक-श्राविका होते हैं कि जो प्रत्येक आराधना दोनों साथमें मिलकर ही करते हैं। ऐसे विरल दंपतिओं में कच्छ-लायजा के अ. सौ. बचुबाई टोकरसीभाई एवं टोकरसीभाई Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ देवजी देढिया का नाम प्रथम पंक्तिमें लिखा जा सकता है । यह दंपती अनेक बार हमसे मिले हैं। उनकी अत्यंत अनुमोदनीय आराधना की बात मेरे शिष्य मुनि श्री अभ्युदयसागरजी के शब्दोंमें यहाँ प्रस्तुत है -संपादक) वि.सं. २०४० के कार्तिक महिने (दि. २९-१२-८५) की यह बात है । मैं उस वक्त गृहस्थ जीवन में था और धर्मपत्नी के साथ ९९ यात्रा करने के लिए पालिताना गया था । हम वीसा नीमा धर्मशाला में ठहरे थे । उसी समय कच्छ-लायजा के येकरसीभाई (उ.व. ६२) भी अपनी धर्मपत्नी के साथ पालिताना आये थे और वे केशवजी नायक धर्मशाला में ठहरे हुए थे । हम कभी कभी गिरिराज के उपर या कभी तलहटी में साथ हो जाते थे । टोकरसीभाई को ९९ यात्रा करने की भावना थी, मगर उनकी धर्मपत्नी बचुबाई का अर्स का औपरेशन हुआ था इसलिए वह तो अशक्ति के कारण विश्रांति लेने के लिए अपने पतिदेव के साथ पालिताना आयी थीं। . पहले दिन वे दोनों गिरिराज की तलहटी तक साथमें ही आये थे, बाद में टोकरसीभाई ने ९९ यात्रा का प्रारंभ किया तब बचुबाई को विचार आया कि, 'कम से कम एक यात्रा तो मैं भी श्रावक के साथ करूं...' और आदिनाथ दादा को प्रार्थना करके उन्होंने यात्रा का प्रारंभ किया । दादा के दरबार में पहुँचने के लिए उनको पूरे पाँच घंटे लगे । प्रभुभक्ति से सब श्रम दूर हो गया । दूसरे दिन भी तलहटी तक दोनों साथ में आये, बाद में टोकरशीभाई को यात्रा के लिए ऊपर चढते हुए देखकर आदर्श धर्मपत्नी बचुबाई को भी कुछ सीढियाँ तक पतिदेव के साथ जाने की भावना हो गयी और दादा की प्रार्थना पूर्वक आगे बढ़ते हुए संपूर्ण यात्रा करने की हिम्मत आ गयी । इस दूसरी यात्रा में उपर पहुँचनेके लिए ४ घंटे लगे । फिर तो गिरिराज और आदिनाथ दादा के प्रति अनन्य श्रद्धाभक्ति के प्रभाव से उत्तरोत्तर हिम्मत बढ़ती गयी और दोनों ने ९९ यात्रा एक साथ ही परिपूर्ण की । जहाँ एक यात्रा की भी संभावना नहीं थी वहाँ ९९ यात्राएँ हो गयीं, जिससे बचुबाई की श्रद्धा एवं आत्मविश्वासमें अत्यंत अभिवृद्धि हुई । फिर तो पतिदेव जो भी तपश्चर्यादि आराधनाएँ करते पहल उत्तरोत्तर हि एक यात्रा की श्रद्धा एक आराधना Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग थे उसमें बचुबाई भी हमेशा सहयोगी होने लगे । फलतः पिछले १५ साल में इस दंपतीने निम्नोक्त अनुमोदनीय आराधनाएँ की हैं । (१) ४ वर्षीतप एकांतरित उपवास- बिआसन द्वारा । (२) १ वर्षीतप छठ्ठ के पारणे छठ्ठ से । (३) १ मासक्षमण (टोकरसीं भाई का ) और सिद्धितप ( बचुबाई का ) (४) शत्रुंजय गिरिराजकी १६ बार ९९ यात्रा । (५) छठ्ठ के पारणे छठ्ठ तप के साथ २ बार ९९ यात्राएँ कीं । इसमें प्रथम उपवासमें ६ यात्राएँ + दुसरे उपवासमें ६ यात्राएँ + पारणे के दिन २ यात्राएँ इस तरह कुल १४ यात्राएँ करने के बाद स्वयं रसोई बनाकर पारणा करते थे !!! (६) अठ्ठम के पारणे अठ्ठम से ९९ यात्राएँ । इसमें तीनों उपवास के दिन ५ + ५५ इस तरह कुल १५ यात्राएँ करने के बाद स्वयं रसोई बनाकर सुपात्रदान करने के बाद पारणा करते थे । (७) सं २०५१ में मेरे गुरुदेव पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. ठाणा ३ की निश्रामें सर्व प्रथमबार गिरनारजी महातीर्थ की सामूहिक ९९ यात्रा का आयोजन सा. श्रीज्योतिष्प्रभाश्रीजी की प्रेरणा से हुआ था तब भी यह दंपती सिद्धाचलजी की १३ वीं ९९ यात्रा केवल ३६ दिनों में पूर्ण कर के गिरनारजी पधारे थे । उस वक्त उन दोनों के बीसस्थानक तप के एकांतरित उपवास चालु थे । उपवास के दिन गिरनारजी महातीर्थ की ४ यात्राएँ एवं पारणे के दिन २ यात्राएँ कर के ९९ यात्राएँ कीं । इस तरह सिद्धाचलजी की १६ + गिरनारजी की २ + समेतशिखरजी महातीर्थ की १ बार - कुल मिलाकर १९ बार ९९ यात्राएँ हुईं । प्रायः हरेक ९९ यात्रा के दौरान वे हमेशां स्वयं रसोई कर के भोजन करते 1 थे । किसी भी संघ के रसोड़े में भोजन नहीं करते थे । गिरनारजी में भी स्वयं मुँग पकाकर पारणा करते थे, बाद में दोपहर को १ बजे भोजनशालामें खाना खाते थे । केवल समेतशिखरजी महातीर्थ की ९९ यात्रा के दौरान भोमियाजी भवन के एक ट्रस्टी महानुभाव के अत्यंत आग्रह के Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २४७ कारण उनको वहाँ का भोजन स्वीकारना पड़ता था । गिरनारजी की ९९ यात्रा के दौरान कुछ ही यात्राएँ बाकी थीं तब अचानक टोकरसीभाई के पाँव में ऐसी भयंकर पीड़ा होने लगी कि एक भी यात्रा करनी असंभव हो गयी । आखिर उनको मुंबई जाना पड़ा । वहाँ उनको डोक्टर ने ओपरेशन करवाने की राय दी, मगर दृढ मनोबल एवं सुदृढ श्रद्धालु टोकरसीभाई ने ओपरेशन करवाने के बदले में अठ्ठम तप पूर्वक नेमिनाथ भगवान को प्रार्थना की और बाकी की यात्राएँ पूरी करने के लिए फिर से गिरनारजी गये और बिना किसी प्रकार की सहायता लिए ही ९९ यात्राएँ परिपूर्ण कीं । (८) एक ही साल में समेतशिखरजी, सिद्धगिरिजी और गिरनारजी महातीर्थ की ९९ यात्राएँ कीं । (९) वि. सं. २०५५ में एकांतरित ५०० आयंबिल की तपश्चर्या के साथ श्री शत्रुंजय गिरिराज की ६ कोसीयं प्रदक्षिणा की ९९ यात्राएँ कीं, यह शायद रेकोर्ड रूप आराधना है । आज दिन तक किसीने भी ६ कोसीय प्रदक्षिणा की ९९ यात्राएँ की हों ऐसा सुनने में नहीं आया है । (१०) १०८ पार्श्वनाथ भगवान के संलग्न १०८ अठ्ठम किये । प्रत्येक अठ्ठम में उन उन पार्श्वनाथ भगवान के नाम मंत्र की १२५ मालाओं का जप करते थे । टोकरसीभाई हररोज रात को ८-३० बजे सोते हैं और १२-३० बजे जाग जाते हैं । बाद में जप, प्रतिक्रमण आदि आराधना में ही शेष रात्रि व्यतीत करते हैं । दिन को भी सोते नहीं हैं । हर अठ्ठम के तीसरे दिन प्रायः संपूर्ण रात तक वे जागते ही रहते हैं । ऐसी विशिष्ट आराधना के प्रभाव से उनको कई बार अद्भुत स्वप्न आते हैं । कई बार आदिनाथ दादा का दर्शन स्वप्न में होता है, हृदय आनंद से झुम उठता है । (११) तीनों उपधान किये हैं । (१२) बीस स्थानक की २० ओलियाँ परिपूर्ण हुई हैं । (१३) आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया है । (१४) भव आलोचना द्वारा आत्मशुद्धि कर ली है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ सचमुच पाँचवें आरे में भी चौथे आरे के धर्मात्मा जैसे ऐसे आराधकरत्नों से श्री जिनशासन सदा जयवंत है । श्री शंखेश्वरजी महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में टोकरसीभाई और बचुबाई भी पधारे थे। उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं 18 के सामने । पता : टोकरसीभाई देवजी देढिया 'कृपा' प्लोट नं. २१, जयप्रकाश नगर, रोड नं. ४ गोरेगाम (पूर्व) मुबई-४०००६३ फोन : ८७३७७२१, ८७३३४ २२ (घर) ८७३४ ०८४, ८७३३४ २२ (प्रेस) एक बेमिशाल प्रेरणादायी व्यक्तित्व कुमारपालमाई ची. शाह शासन प्रभावक, दया-करुणा और प्रवित्रता के अवतार, दीर्घदृष्टा आयोजक, आपत्तिमें आँसु पोंछनेवाले, युवकों के पथदर्शक और प्रेरणा के श्रोत एक व्यक्ति का नाम है ...... कुमारपालभाई विमलभाई शाह ! आज उनकी उम्र ५१ साल की है । मूलतः बीजापुर (जि. महेसाणा- उत्तर गुजरात) के निवासी कुमारपालभाई कई वर्षों तक मुंबई में हीरों का व्यवसाय करते थे मगर आज कुछ वर्षों से उन्होंने धोलका (जि. अहमदाबाद) को अपनी धर्मकार्यों की भूमि बनायी है । हीरों के समृद्धिप्रद व्यवसाय को छोड़कर देश के - समाज के और शासन के पुण्यकार्यों में वे तन-मन-धन, मन-वचन-काया और समय-शक्ति का समर्पण कर रहे हैं । .. ____ कुलीन माता-पिता के इस संतान में बचपन से ही धर्म के संस्कार थे । इ. स. १९६४ के ग्रीष्मावकाश के दिनों में १७ साल के कुमारपाल अपने मित्रों के साथे आबू पर्वत के अचलगढ शिखर पर जैन Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ धार्मिक शिक्षण शिबिर द्वारा जैन आचार, जैन तत्त्वज्ञान, मार्गानुसारी जीवन, जैन इतिहास, धार्मिक सूत्रों के रहस्य इत्यादि पढने के लिए गये थे । इस जैन धार्मिक शिक्षण शिबिरमें युवकों के पथदर्शक थे.... वर्धमान, तपोनिधि, न्याय विशारद, धार्मिक शिबिरों के माध्यम से आध्यात्मिक क्रांति लानेवाले प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहब । . उनकी हृदयस्पर्शी वाणी से आज तक हजारों युवक आकर्षित हुए हैं और न्याय, नीति, सदाचार और संयम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। इस हृदयस्पर्शी वाणी का आकर्षण कुमारपालभाई के उपर भी हुआ । धार्मिक शिक्षण के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए कुमारपालभाई के जीवनमें एक आकस्मिक घटना ने परिवर्तन का मोड़ ला दिया । माउन्ट आबू के उस ऊँचे शिखर अचलगढ पर अचानक बारिस के साथ भयंकर पवन का तूफान उठा । उस विनाशक तूफान में शिबिर के टेन्ट उड गये, तो उष्ण जल को ठंडा बनाने की परातें भी उडीं । मकान के नलिये भी उडे और विशालकाय वृक्ष भी धराशायी हुए । ऐसे आपत्तिकालमें १७ साल की उम्रवाले नवयुवक कुमारपालभाई ने एक पवित्र संकल्प किया कि - 'अगर यह तूफान थोड़ी ही देरमें शांत हो जायेगा तो मैं आजीवन ब्रह्मचर्य पालनका व्रत ले लूंगा' । ..... और आश्चर्य हुआ । वह भयानक तूफान क्षणभरमें शांत हो गया। कुमारपालभाई ने ज्ञानदाता गुरुदेव पू.आ. श्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. को अपने शुभ संकल्प की बात कही । पूज्यश्री को अपार प्रसन्नता हुई और अनेक शुभाशिष पूर्वक अपने इस प्रिय शिबिर शिष्य को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान किया । सर्वत्र आनंद का वातावरण फैल गया । बाद में तो कुमारपालभाई ने प्रतिज्ञा की कि - 'जब तक चारित्र न ले सकुँ तब तक मिष्टान्न एवं घी का मूल से त्याग' !!!... कुमारपालभाई की भीष्म प्रतिज्ञा और भव्य संकल्प ने जैन शासन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ में एक इतिहास का सृजन किया । उसमें गुरुकृपा ने चार चाँद लगाये। कई शासन प्रभावक सत्कार्य हुए । उन सत्कार्यों की थोड़ी सी रूपरेखा अनुमोदना करने के लिए और प्रेरणा पाने के लिए यहाँ पर प्रस्तुत की जा रही है। सन १९७० में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समयमें, बंगलादेश से भारत में आये हुए लाखों बंगाली मुस्लिम शरणार्थीओं की धान्य, आहार, औषध-वस्त्र आदि द्वारा भव्य मानव सेवा की । . आंध्रप्रदेश में समुद्र में उत्पन्न हुए भयंकर प्राकृतिक प्रकोप से लाखों लोग अत्यंत मुसीबत में फंस गये थे, तब कुमारपालभाईने लाखों रूपयों का सद्व्यय कर के मानव सेवा के बड़े बड़े आयोजन कुशलतापूर्वक पार लगाये थे । सन १९७० से १९८५ तक राजस्थान के पिछड़े हुए पल्लीवाल (जिला सवाई माधोपुर, भरतपुर और अलवर) क्षेत्र में और गुजरात के बोडेली विस्तार में अनेक कष्टोंको सहर्ष झेलते हुए, गाँव गाँव में पैदल घुमकर, जो जैन होते हुए भी जैनधर्म को बिलकुल भूल गये थे ऐसे हजारों लोगों के हृदय में जैनधर्म की पुनः प्रतिष्ठा की । अनेक गाँवों में जिनालय, उपाश्रय, पाठशाला आदि की नूतन स्थापना एवं जीर्णोद्धार करवाये साथ में धार्मिक शिक्षण शिबिरों के माध्यम से हजारों युवकों का जीवनोद्धार भी किया। हाल करीब ८० स्थानों पर उनकी प्रेरणा से जीर्णोद्धार के कार्य चालु हैं । सन १९८४ में सौराष्ट्र के मोरबी शहर के पास मच्छु नदी का बाँध टूटने से जो भयानक जानलेवा पूर आया था उसमें हजारों लोग बूरी तरह फंस गये थे, तब दयालु कुमारपालभाईने अपने मित्र मंडल के साथ वहाँ जाकर अन्न, वस्त्र, औषध आदि की अनेकविध सहायता देकर पीड़ित लोगों के आँसु पोंछकर आश्वासन दिया था। सन १९८७ से १९८९ तक तीन साल निरंतर गुजरात में भयंकर अकाल हुआ था तब जीवदया, अनुकंपा और मानवसेवा के महान कार्य किये.... इस विशाल कार्य में वे हिम्मत और लगन से पार उतरे और अपूर्व कर्मनिर्जरा की। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २५१ सन १९८९-९० में ओरिस्सा में भयंकर अकाल हुआ । अन्न और पानी के बिना हजारों-लाखों मनुष्य और पशुओं की स्थिति अत्यंत दयापात्र हो गयी थी तब वहाँ जीवदया और मानवसेवा के अद्भुत कार्य किए । सन १९९३ में महाराष्ट्र के लातुर जिले में भयंकर भूकंप हुआ था, जिसमें करीब ३२ हजार लोगों ने जान गँवायी । हजारों लोग विकलांग और निराधार बन गये थे, उनको भी अन्न-वस्त्र- औषधि और नकद राशि की सहायता देकर सेवा की और जैन शासन का दया करुणा का संदेश सच्चे अर्थ में फैलाया । कुमारपालभाई धोळकामें अपने वहाँ शिल्पी को रखकर जिन बिम्ब बनवाते हैं और इच्छुक संघों को भक्तिपूर्वक भेंट देते हैं । अगर कोई संघ के अग्रणी श्रावक जिनमूर्ति का नुकरा लेने के लिए आग्रह करते हैं तो कुमारपालभाई हँसते हुए उनको कहते हैं कि 'आप प्रतिमाजी को प्रेम से ले जाईए, मगर मुझे नुकरा लेकर व्यवसाय नहीं करना हैं' !... इन के अलावा भी साधु-साध्वीजी भगवंतों की वैयावच्च, साधर्मिक भक्ति, जीवदया, पांजरापोलों की सहायता सत् साहित्य का प्रकाशन, जैन आचारों का प्रचार-प्रसार इत्यादि अनेकविध सत्कार्य कुमारपालभाई निःस्पृहभाव से हमेशा किया करते हैं । सन्मान - सत्कार से वे सदा दूर ही रहते हैं । आज तो उपरोक्त प्रकार की शुभ प्रवृत्तियों के लिए श्री के. पी. संघवी आदि कई दानवीर स्वयमेव उनको लाखों-करोड़ों रूपयों का सद्व्यय करवाने के लिए विज्ञप्ति करते रहते हैं, मगर प्रारंभ में तो वे स्वयं अपने ही तन-मन-धन से यथाशक्ति सत्कार्य करते रहते थे । सत्प्रवृत्तियों के लिए भी वे कभी किसी से कुछ भी राशि माँगते नहीं हैं। बिना माँगे स्वयमेव जो दानवीर उनको विज्ञप्ति करते हैं, उनको वे दान देने के स्थानों का निर्देश करते हैं और दाताओं के हाथों से ही सत्कार्य करवाते हैं !!!..... अपने परमोपकारी गुरुदेव पू. आ. श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मननीय चिंतन स्वरूप 'दिव्यदर्शन' - हिन्दी और गुजराती पाक्षिक और साप्ताहिक पत्रों का वर्षों तक संपादन कर के कुमारपालभाईने सत् साहित्य को लाखों लोगों तक पहुँचाया है । जिनपूजा, सामायिक, शास्त्र स्वाध्याय, चिंतन-मनन इत्यादि आत्मजागृति प्रेरक श्रावक के आचारों का भी वे अच्छी तरह से पालन करते रहते हैं । वे अत्यंत उदार, दयालु, उत्तम विचारक और आचार संपन्न सुश्रावक हैं । अब हम कुमारपालभाई की उत्तम विचारणा और बातचीत के कुछ अंश देखेंगे। . (१) एकबार किसीने उनको पूछा - 'आपकी ओफिस में आप के गुरुदेव की तस्वीर क्यों नहीं लगायी ?' हँसते हुए कुमारपालभाईने प्रत्युत्तर दिया कि - 'गुरु को दीवार पर नहीं, दिलमें रखना चाहिए !'..... (२) 'सेवा और त्याग के क्षेत्र में अपने-पराये का विचार नहीं करना चाहिए ।' ___ (३) शिबिर के किसी युवक को पान खाता हुआ देखकर कुमारपालभाई ने मजाक की - 'अरे भाई ! पान तो भेड़-बकरियाँ खाती हैं, हम तो मानव हैं !' (४) कभी कोई कुमारपालभाई के पास से कुछ राशि सहाय के रूपमें ले गये, बाद में अन्य व्यक्ति ने कहा कि - 'उस व्यक्तिने आप के साथ बनावट की है, तब कुमारपालभाईने कहा - 'कोई हर्ज नहीं, सुकृत करते हुए कभी ऐसा भी होता है, मगर हमें उदार दिल रखना चाहिए । हमें तो सुकृतका लाभ मिल ही गया ।' कुमारपालभाई के अनेकविध सुद्गुण एवं सत्कार्यों में से सभी अच्छी प्रेरणा प्राप्त करें यहीं शुभाभिलाषा । शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में कुमारपालभाई की प्रेरणा से श्री के. पी. संघवी की ओर से सभी आराधकरत्नों को चांदी का सिक्का भेंट दिया गया था । मगर सन्मान से दूर रहनेवाले वे स्वयं उस समारोह में अनुपस्थित ही रहे थे । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ____२५३ पता : कुमारपालभाई वी. शाह श्री वर्धमान सेवा केन्द्र, ३९, कलिकुंड सोसायटी मु. पो. धोलका, जि. अहमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८७८१० फोन : ०२७१८-२२२८२-२३९८१ 889 ११४ मुंबई में भी संडाश-बाथरूम के उपयोग को . टालते हुए अरविंदभाई दोशी पहले के जमाने में आर्य लोग प्राय: घर का ही भोजन करते थे। होटेल आदि के - बाजार के वासी भोजन से प्रायः दूर ही रहते थे और नीहार के लिए गाँव के बाहर जंगलमें जाते थे । आज कल गाँवों की संस्कृति छिन्न-भिन्न होती जा रही है और गाँव के लोग आजीविका इत्यादि के लिए शहरोंमें जाते हैं । शहरों के माहौल में जीनेवाले लोगों को अब अपने घर का भोजन चाहे कितना भी सात्त्विक और स्वादिष्ट हो मगर वह कम भाता है और होटल आदि का भोजन चाहे कैसा भी वासी और प्रदूषित होने से बीमारी पैदा करनेवाला हो तो भी उसके प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है । और मलत्याग के लिए बाहर जाने के बजाय अपने घर में ही प्रायः रसोड़े के पास में ही रहे हुए संडाश में जाना पड़ता है। ...और स्नान भी बाथरूम में करना पडता है, मगर संडाश-बाथरूमका पानी इत्यादि जिस गटर में से पसार होता है उसमें असंख्य कीड़े, संमूर्छिम मनुष्य इत्यादि की घोर हिंसा होती है उसका ख्याल उनको नहीं होता है । लेकिन आज भी ऐसे विरल आराधकरत्न विद्यमान हैं कि जो सत्संग के द्वारा इन बातों को समझकर विवेक पूर्वक जीवन जीते हुए आर्य संस्कृति को जीवंत रख रहे हैं । ___ मूलतः महुवा बंदरगाह (सौराष्ट्र) के निवासी किन्तु हाल में कुछ वर्षों से मुंबई-बोरीवली में रहते हुए श्रमणोपासक श्री अरविंदभाई दोशी (उ. व. ३९) भी ऐसे ही एक आदर्श युवक हैं । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ युवा प्रतिबोधक, सुप्रसिद्ध प्रवचनकार, प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. के प्रवचन श्रवण से धर्म में विशेष रूप से जुड़े हुए अरविंदभाई मुंबई में रहते हुए भी संडाश या बाथरूम का उपयोग नहीं करते हैं । परात में बैठकर मर्यादित जल से यतनापूर्वक स्नान कर के उसका पानी बाल्टीमें डालकर अगाशी के उपर या अन्य खुल्ली जमीन पर यतना पूर्वक परठवते हैं । मलोत्सर्ग के लिए भी वे दूर रेल की पटरियों के पास जाते हैं किन्तु संडाश इस्तेमाल नहीं करते हैं । साल में २ बार दाढी के बालों का एवं १ बार मस्तक का केशलोच करवाते हैं किन्तु नाई की दुकान (सेलून) में नहीं जाते हैं। कर्मसंयोग से आज से करीब ९ साल पूर्व में उनके ७ और ९ साल की उम्र के दोनों सुपुत्र - गोयम और मुन्ना को खुन का केन्सर हुआ था । हररोज रात को डोक्टर इंजेक्शन लगाता था । और सुबह में बाहर निकालता था । ऐसा करने के बाद भी एक दिन डोक्टर ने अरविंदभाई को कह दिया कि हमारी थियरी के मुताबिक ये दोनों बच्चे अनुक्रम से १७ और २३ दिनों से ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रह सकेंगे। तो भी धर्म की शक्ति के उपर अटूट श्रद्धा रखने वाले अरविंदभाई हताश नहीं हुए । उन्हों ने धर्मचक्रतपप्रभावक प.पू. पंन्यास प्रवर श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) की प्रेरणा के मुताबिक धर्मचक्र की आरती का चढ़ावा लिया और अपने दोनों सुपुत्रों के हाथों से आरती करवाई । सचमुच चमत्कार हुआ हो इस तरह वे दोनों ब्लड केन्सर जैसे जानलेवा रोगमें से बाल बाल बच गये । चिकित्सक भी आश्चर्यचकित होकर धर्मसत्ता के आगे झुक गये । इस बात को आज ९ साल बीत चुके हैं। . दोनों भाई खूब अच्छी तरह से धर्म आराधना कर रहे हैं । सचमुच जो व्यक्ति मुसीबत में भी निष्ठापूर्वक धर्म का पालन करता है । उसकी रक्षा धर्म द्वारा अवश्य होती ही है । (धर्मो रक्षति रक्षितः) उपरोक्त प्रसंग से अरविंदभाई की धर्मश्रद्धा और प्रभुप्रीति में अत्यंत अभिवृद्धि हो गयी है । प. पू. महाराज साहब की प्रेरणा से उन्हों ने गृहमंदिर भी बनवाया है और प्रतिदिन २-३ घंटे तक एकाग्र चित्त से प्रभु भक्ति करते हैं । अरविंदभाई ने आज से करीब ७ साल पूर्व में महुवा से पालिताना Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २५५ । का छ 'री' पालक संघ अत्यंत उल्लास से निकाला था । · अरविंदभाई के दृष्टांत से प्रेरणा लेकर सभी लोग धर्मनिष्ठ, आचार चुस्त, प्रभुभक्त और गुरुआज्ञापालक बनें यही शुभाभिलाषा । पता : अरविंदभाई दोशी १२, आनंद मंगल' बिल्डींग. जांबली गली, बोरीवली (वेस्ट) मुंबई - ४०००९२. फोन : ८०५३२४१ लगातार ३ साल तक अप्रमत्तभाव से खड़े खड़े | साधना करनेवाले बसौलालजी चोरडिया पूना (महाराष्ट्र) में रहते हुए सुश्रावक श्री बंसीलालजी उमेदमलजी चोरडिया (उ. व. ७९) की साधना आश्चर्यप्रद है । १५ साल की किशोरवय में उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि भोजन के समयमें कुछ माँगना नहीं । सहज रूप से जो भी भोजन परोसा जाय उसीमें संतोष रखना। झूठा नहीं छोड़ना । घर में या बाहर गाँव या शादी आदि के प्रसंगों में भी अगर कोई स्वयं कहे कि - 'भोजन करो' तो ही भोजन करना, नहीं तो भूखा रहना !..... .. २४ साल की उम्र में उन्हों ने ६ साल के लिए - 'गेहुँ की कोई भी वस्तु का भोजन नहीं करना, जुवार या बाजरी की रोटी और दाल ये दो ही द्रव्यों का भोजन करना' ऐसी प्रतिज्ञा लेकर उसका अच्छी तरह पालन किया था । पिछले ४२ वर्षों से वे हररोज १ घंटे तक नवकार महामंत्र का जप और ११ घंटे तक नाड़ी बंद कर के ध्यान करते हैं । बीच में ३ साल तक लगातार खड़े खड़े अप्रमत्तभाव से साधना की थी। ३ साल तक लगातार ठाम चौविहार एकलठाणा तप किया था। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ पिछले ३९ साल से हर शनिवार को पूरे दिन का मौन रखते हैं। पिछले ३८ वर्षों से पाँवमें जूते नहीं पहनते । पिछले ३५ वर्षों से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया है । पिछले ४९ वर्षों से हररोज २ सामयिक अचूक करते हैं । ८ साल से हररोज परिमड्ड का पच्चक्खाण करते हैं । अपने प्राण जाय तो भी झूठ नहीं बोलने की एवं किसी की भी निंदा नहीं करने की प्रतिज्ञा भी करीब ५ साल से उन्हों ने ली है । श्रावक के १२ व्रतों का भी करीब पिछले ७ साल से स्वीकार किया है । २५६ एकबार अठ्ठम तप किया था तब भी ३ दिन तक लगातार खड़े खड़े ही साधना की थी । बीच में कुछ साल तक ठाम चौविहार अवड्ड एकलठाणा करते थे तब सूर्यास्त से करीब २ घड़ी समय पहले केवल ५-१० मिनिट में ही आहार- पानी ग्रहण कर लेते थे । संपूर्ण जीवन निर्व्यसनिता पूर्वक व्यतीत किया है । उपरोक्त प्रकार से साधना करते हुए उनकी आत्मा में कुछ विशिष्ट शक्तियों का प्रादुर्भाव भी हुआ है, जिस के प्रभाव से कई बार सामनेवाले व्यक्ति के मन के विचार भी जान लेते हैं । भूत-प्रेतादिकी बाधा भी दूर कर सकते हैं । कई असाध्य बीमारियाँ भी जप के द्वारा दूर कर सकते हैं । आजसे करीब १२ साल पूर्व में ६७ साल की उम्र में उनके शरीर में अर्धांग पक्षाघात के ७ बार अटेक हुए थे फिर भी उन्हों ने डॉक्टर की दवाई नहीं ली । श्रद्धा के बल से देव गुरु की कृपा से ही ठीक हो गये । आज ७९ साल की वृद्धावस्था में भी प्रतिदिन प्रात: ५ || बजे पूना की गणेश पेठ में आये हुए सादड़ी सदन जैन स्थानक में तो कभी नाना पेठ में साधना सदन जैन स्थानक में २ घंटे तक एकाग्र चित्त से भक्तामर स्तोत्र पाठ, प्रार्थना एवं ध्यान करते हैं । उनके जीवन की अप्रमत्तता अनुकरणीय है । पता :: बंसीलालजी उमेदमलजी चोरड़िया सादडी सदन जैन स्थानक, गणेश पेठ, पूना (महाराष्ट्र) पिन ४११००१ 给 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २५७ लगातार १८ साल तक मौनवती, विशिष्ट आत्मसाधक सुश्रावक श्री अमरचंदजी नाहर खरतरगच्छमें सा. श्री विचक्षणाश्रीजी प्रखर व्याख्यात्री एवं अपूर्व समता की साधिका थीं । उनके • उपदेश से विशेष रूप से आत्म साधना में संलग्न हुए जयपुर (राजस्थान) के सुश्रावक श्री अमरचंदजी नाहर एक विशिष्ट आत्म साधक थे । वे हमेशा एकाशन करते थे । एकाशन में भी एक ही द्रव्य लेते थे। कई बार वे केवल दूध या छाछ का पानी या चोपड़ (आटा) की थूलि से ही एकाशन करते थे ! उनकी प्रेरणा से उनके परिवार के एवं अन्य भी कई लोगोंने सप्ताह में ३ या २ या १ दिन नमक त्याग (अस्वाद व्रत) का संकल्प किया है। जैन साधु की तरह वे स्नान नहीं करते थे । पाँव में जूते नहीं पहनते थे। तप-जप भक्ति-मौन-आध्यात्मिक स्वाध्याय-ध्यान-आत्म स्वरूप का निदिध्यासन इत्यादि में ही वे अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे, जिसके फल स्वरूप देह भिन्न चैतन्य स्वरूप की अनुभूति भी उनको हुई थी !... ___ एक विशिष्ट धर्मात्मा के रूपमें उनकी ऐसी सुंदर ख्याति थी कि जयपुर में किसीने भी मासक्षमण आदि बड़ी तपश्चर्या की हो तो उनका पारणा श्री अमरचंदभाई के हाथों से कराया जाता था और उस बड़े तपस्वी के वहाँ उबाला हुआ अभिमंत्रित अचित्त जल भी श्री अमरचंदभाई के घर से ही पहुँचाया जाता था । अमरचंदभाई ने एवं उनके परिवार के ४-५ सदस्यों ने भी २-२ मासक्षमण किये हुए हैं !... बहुरत्ना वसुंधरा - २-17 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ अपनी ७७ साल की उम्र में उन्होंने कुल मिलाकर केवल ५०० ख्मयों के ही कपड़े पहने हैं । जौहरी होते हुए भी कितनी अपूर्व सादगी !!! जवानी में जौहरी का व्यवसाय करते हुए उन्होंने आत्मा रूपी सच्चे हीरे को पहचान लिया और ज्ञानियों की दृष्टि से आध्यात्मिक जौहरी बन गये। वि. सं. २०१६ में उन्हों ने अपने परमोपकारी सा. श्री विचक्षणाश्रीजीकी निश्रामें जयपुर से मालपुरा का छ 'री' पालक पदयात्रा संघ निकाला था । सा. श्री विचक्षणाश्रीजी जयपुर से दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान कर रही थीं तब अमरचंदभाई ने एक विशिष्ट अभिग्रह लेकर अपनी गुरुभक्ति अभिव्यक्त की थी कि, 'जब तक सा. श्री विचक्षणाश्रीजी महाराज पुनः जयपुरमें नहीं पधारेंगे तब तक संपूर्ण मौनव्रत अंगीकार कर के साधना करूँगा' !... कैसी बेमिसाल गुरुभक्ति !... कैसा अनुपम साधना प्रेम !! केसी अद्भूत अंतर्मुखता !!... उपरोक्त अभिग्रह के बाद साध्वीजी १८ साल के पश्चात् जयपुरमें पधारे तब तक वे मौन ही रहे !!! साधना के द्वारा उनको अपनी आयुष्य की समाप्ति का संकेत भी मिल चुका था । तद्नुसार उन्होंने दि. १४-१-१९७६ से सागारिक अनशनका प्रारंभ कर दिया था । ३५ दिन के अनशन के दौरान इनकी साधना की स्थिति अपूर्व कोटिकी थी । दि. १७-२-१९७६ के दिन दोपहर को करीब ४ बजे उनका समाधिपूर्ण स्वर्गवास हुआ था । तब उनके घरमें एवं सा. श्री विचक्षणाश्रीजी जहाँ स्थित थे उस उपाश्रयमें भी केसर की वृष्टि हुई थी। ...स्वर्गवास से एक ही दिन पूर्व में उन्होंने मुनिवेष भी धारण कर लिया था। दक्षिण भारत से लौटने के बाद सा. श्रीविचक्षणाश्रीजीने अमरचंदभाई को पूछा था कि, 'आपके १८ साल के मौन की फलश्रुति क्या है।' तब उन्होंने अपना मौन खोलकर कहा कि, 'मेरी भावना थी कि मेरे अंतिम समयमें गुरु महाराज की उपस्थिति होनी चाहिए और मेरी वह भावना आज परिपूर्ण हो रही है उसका मुझे अपार आनंद है' इतना बोलकर वे पुनः मौन हो गये थे। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २५९ अमरचंदभाई के परिवारमें उनके सुपुत्र सुश्रावक श्री धरमचंदभाई नाहर आज विद्यामान हैं एवं सुपुत्रीने खतरगगच्छ में दीक्षा ली है, जो आज सा. श्री निर्मलाश्रीजी के नाम से सुंदर संयम की आराधना करती हुई वृद्धावस्था के कारण जयपुर में 'विचक्षण भवन' उपाश्रय में स्थिरवास हैं। दि. ५-३-१९९९ के दिन हम जयपुर गये थे। तब श्री धरमचंदभाई नाहर एवं उनके परिवार से भेंट एवं सत्संग हुआ था । पूरे परिवार में एवं अनेय भी अमरचंद के अनन्य भक्त श्री हीराचंदभाई पालेचा आदि के हृदय में श्रीअमरचंदभाई के प्रति रहा हुआ अपूर्व अहोभाव देखकर हम अत्यंत प्रभावित हुए थे। सा. श्री विचक्षणाश्रीजी द्वारा प्रदत्त आत्मज्ञानी श्रीमद् राजचंद्र के आध्यात्मिक साहित्य में श्री अमरचदभाई को अत्यंत अभिरुचि थी। उन्होंने केवलस्वद्रव्य से निर्मित किया हुआ श्रीमद् राजचंद्र साधना भवन आज भी उनके घर के पासमें ही विद्यमान है । श्री धरमचंदभाई के द्वारा संप्राप्त भी अमरचंदभाई की प्रतिकृति भी श्रीमद् राजचंद्र का ही मानो दूसरा रूप हो वैसी प्रतीत हो रही है। अमरचंदभाई के तप-त्याग एवं आत्मसाधना की हार्दिक अनुमोदना । पता : धरमचंदजी अमरचंदजी नाहर सौंथली वालोंका रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर (राज.) पिन : ३०२००३ फोन : ५६१४७६/५६०७३७/५६६३०६/५७१२७७ (निवास) ११७ आजीवन बालब्रह्मचारी कच्छी दंपती शादी करने के बावजूद भी आजीवन बालब्रह्मचारी रहे हुए कच्छभद्रावती के दंपती विजय सेठ-विजया सेठाणी का दृष्टांत शास्त्रों में सुप्रसिद्ध Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ है, मगर वर्तमान कलियुग में भी उसी कच्छ की धरती के एक पवित्र दंपती की बात जानने मिली है जो शादी करने के बावजूद भी आत्मसाधना के लिए स्वेच्छासे आजीवन ब्रह्मचारी रहे हुए हैं। हम इस पवित्र आत्म साधक तेजस्वी युवक का भास्करभाई के नाम से यहाँ उल्लेख करेंगे । वे आज कई वर्षों से मुंबई में रहते हैं । उनके एक छोटे भाई ने दीक्षा अंगीकार की है। एक मुमुक्षु बहिन थी जो ८-१६-३१-४५-६१-७११०८ उपवास आदि तपश्चर्या द्वारा कर्म निर्जरा करके कौमार्य अवस्थामें ही स्वर्गस्थ हुई है। भास्करभाई को भी योगासन आदि सीख कर आत्मसाधना करने की तीव्र अभिलाषा थी। उसी अभिलाषा के निमित्त से उन्हें एक आत्म साधक महापुरुष का संपर्क हुआ। उन्हीं की प्रेरणा के मुताबिक भास्करभाईने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत अंगीकार किया। कुछ समय के बाद उनकी माताजीने शादी करने के लिए भास्करभाईको आग्रह किया मगर शादी की बात को वे टलते ही रहे। कुछ कन्याओं के माँ-बाप की ओर से समाई के लिए प्रस्ताव भी आये मगर भास्करभाईने किसी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। आखिर एक दिन उनकी माँ ने आग्रह करते हुए कहा कि अब जो भी कन्या के माँ-बाप की ओर से प्रस्ताव आयेगा उसका तू स्वीकार नहीं करेगा तो मैं अग्निस्नान कर लुंगी । नगरसेठ का घर होने से उनकी माँ को वंश परंपरा कायम रखने की भावना थी, इसीलिए उन्होंने धर्मनिष्ठ होते हुए भी अपने बेटे को विवाह के लिए इतना आग्रह किया था। आखिर भास्करभाईने आत्म साधना के पथदर्शक महापुरुष के मार्गदर्शन के मुताबिक माताकी संतुष्टि के लिए शादी करके भी ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया। अपने साथ शादी करने के लिए इच्छुक कन्या को उन्होंने अपने पवित्र संकल्प एवं व्रतकी बात समझाकर उसकी संमति प्राप्त कर ली। बाद में दोनों की सगाई हई। सगाई के बाद भी विवाह की बात को दो वर्ष तक विलम्बित किया और दो वर्षों में वे अपनी धर्मपत्नी की मानसिकता को व्रत पालन सुविशुद्ध रूप से करने के लिए सुदृढ बनाते रहे । बादमें दोनों का विवाह हुआ । आज उस घटना को २९ साल बीत चुके हैं । अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं में से सजगता से पसार होते हुए वे दृढता पूर्वक ब्रह्मव्रत का Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ _ २६१ विशुद्ध रूपसे पालन करते हैं । हररोज जिनपूजा करते हैं । नीतिपूर्वक व्यवसाय करते हैं और अत्यंत सादगी युक्त पवित्र जीवन जीते हैं । घरमें टी.वी. आदि आधुनिक साधन नहीं बसाये हैं । समाजमें उनकी अच्छी प्रतिष्ठा है। समता गुणको उन्होंने अच्छी तरह से आत्मसात् किया है। प्रतिकूल प्रसंगों में भी वे समता से चलित नहीं होते हैं । संतति नहीं होने के कारण कभी कोई उनकी घर्मपत्नी को कुछ अनुचित शब्द सुनाते हैं तो भी वे समझा-बुझाकर पत्नी के मनका समाधान कर देते हैं और अपने व्रत को गुप्त रखते हुए दृढता से पालन करते हैं एवं आत्म साधना के पथ पर आगे बढते रहते हैं। भास्करभाई एवं उनकी धर्मपत्नी के ब्रह्मचर्य की और आत्मसाधना की भूरिश: हार्दिक अनुमोदना । बेमिसाल ब्रह्मचर्य गति का पालन 3888888880 हम उन सुश्रावकश्री का 'त्रिभुवनभानुगुणप्रिय' के नाम से उल्लेख करेंगे। सरकारी गेझेटेड कक्षा के वे अधिकारी थे। उनकी धर्मपत्नी सुशील और धर्मनिष्ठ सुश्राविका है। इस दंपती को एक ही पुत्र था मंगर वह ८ साल की छोटी-सी उम्र में ही अल्पकालीन बीमारी के बाद चल बसा । संसार सुखों की अनित्यता, असरणता आदि की बातें उन्होंने सद्गुरुओं के मुख से सुनी थी। पुत्र गमन के बाद धर्मपत्नीने अपने पतिदेव से कहा - 'अब हमें दूसरी संतान नहीं चाहिए, और कटु विपाकवाले सांसारिक भोग भी नहीं चाहिए । आपकी संमति हो तो अब हम गुरुदेव के पास जाकर ब्रह्मचर्य व्रत का स्वीकार करें ।' धर्मपत्नी की धर्मप्रेरक बात सुनकर सुश्रावक गहरे चिंतनमें उतर गये। कुछ ही समय के बाद सद्गुरु की विशिष्ट प्रेरणा से इस दंपतीने ३२ और ३५ साल की भर युवावस्थामें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया। इस असिधारा व्रतका सुविशुद्ध रूप से पालन करने के लिए दोनों बडे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ सजग रहते थे। एक ही मकान में रहते हुए भी शय्या हमेशा अलग अलग कमरे में ही करते थे। मकान की चाभी या अन्य कोई वस्तु एक दूसरे को देनी हो तो भी वे एक दूसरे के हाथको स्पर्श किये बिना उपर से ही देते थे। वि.सं. २०२९ में उन्होंने पालिताना में प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भद्रसुरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू.आ.भ. श्री विजय ॐकारसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें २८ दिनका लोगस्स सूत्र का उपधान तप किया। तब सुश्रावकश्री ने अपनी धर्मपत्नी को कहा कि - 'अब हमें २८ दिन तक पौषध के द्वारा साधु जैसा शुद्ध जीवन जीना है, इसलिए अब हम २८ दिन तक एक दूसरे से बात भी नहीं करेंगे । ऐसी जिनाज्ञा उनके जीवनमें आत्मसात् की हुई थी। . उपधान तप के अंतमें बर्तन एवं नकद राशि आदि जो भी विशिष्ट प्रभावना मिली थी वह सब उन्होंने पालिताना की वर्धमान तप आयंबिल संस्थामें अर्पण कर दी । तप के शिखर पर त्याग का कलश चढाया । बाद में उपरोक्त सुश्रावकश्री ने सद्गुरू की विशेष कृपा प्राप्त करके दीक्षा ली है। आज २८ साल से वे संयम की अनुमोदनीय आराधना कर रहे हैं । शारीरिक अवस्था आदि कारणों से उनकी धर्मपत्नी दीक्षा नहीं ले सकी हैं मगर वह भी श्रावकधर्म का अत्यंत अनुमोदनीय रूप से पालन कर रही हैं । सौराष्ट्र के जिला कक्षा के एक शहरमें रहती हुई इस सुश्राविका ने अपने पतिदेव को कहा था कि आप सरकारी अधिकारी हैं । आप चाहेंगे तो रिश्वत लेकर करोड़ों रूपये कमा सकेंगे, मगर मेरी आपसे आग्रह पूर्वक विज्ञप्ति है कि - 'हमारे घरमें अनीति का एक भी रूपया नहीं आना चाहिए । मैं अनीति के धन से झेवर पहनने के बजाय नीति के घन से सादगी युक्त जीवन जीती हुई शील-सदाचार रूप अलंकार से जीवन को सजाना चाहती हूँ।' पतिने भी धर्मपत्नी की विचारधारा की अहोभाव से अनुमोदना की और नीतिपूर्वक ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाया था। इस दंपती की बेमिसाल ब्रह्मगुप्ति एवं नीति-निष्ठा संयम आदि सद्गुणों की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । धन्य श्री जिनशासन । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ११९ ब्रह्मचर्य के संकल्प का अद्भुत प्रभाव २६३ अहमदाबाद के निवासी उस भाई का नाम है हसमुखभाई । एक सुपुत्र के जन्म के बाद उनकी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य खराब हो गया । ऐसा विचित्र रोग हुआ कि अहमदाबाद के करीब सभी चिकित्सकों को दिखाया और अनेक प्रकार की चिकित्साएँ कीं मगर कुछ भी सुधार नहीं हुआ । आखिर वे हताश हो गये । पत्नी का शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा था । यदि यही परिस्थिति चालु रही तो पत्नी की ज्यादा दिन तक जिन्दा रहने की संभावना नहीं थी । हसमुखभाई को पत्नी के वियोग में खुद विधुर होंगे उससे भी ज्यादा चिन्ता यह सताती थी कि अपने छोटे बच्चे की देखभाल कौन करेगा ? उसके जीवन को धर्म संस्कारों से कौन सुवासित बनायेगा ? आखिर उन्होंने शुभ संकल्प किया । 'यदि धर्मपत्नी का स्वास्थ्य ठीक हो जायेगा तो मैं आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करूँगा । ऐसा भीष्म संकल्प होते ही मानो चमत्कार हुआ । यकायक घर के दूरभाष की घंटी बजने लगी । हसमुखभाईने फोन उठाया । सामने से एक लेडी डॉक्टर बोल रही थीं 'आप की पत्नी का स्वास्थ्य कैसा है ? हसमुखभाई ने प्रत्युत्तर में कहा मुझे अब अहमदाबाद के किसी डोक्टरमें दिलचस्पी ही नहीं हैं । मैंने अहमदाबाद के करीब सभी नामांकित डोक्टरों को दिखाया मगर रोग को दूर करने की बात तो दूर रही, वे रोग का निदान भी नहीं कर सकते हैं !' लेडी डॉक्टरने कहा 'आप मेरे पास तो अभी तक आप की पत्नी को लाये ही नहीं, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि मैंने अहमदाबाद के सभी डॉक्टरों को दिखाया है !' तुरंत हसमुखभाई अपनी धर्मपत्नी को लेकर लेडी डॉक्टर के पास गये । मरीज की जाँच करके इस लेडी डॉक्टर ने कह दिया कि ' इनको रोग अलग है और चिकित्सा दूसरी ही की गयी है । इनको प्रसूति का रोग है और दवाइयाँ टाईफोइड की दी गयी हैं । कुछ ही दिनों में लेडी डॉक्टर की दवाई से उनका - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ स्वास्थ्य ठीक हो गया मगर हसमुखभाई तो आज भी यही बात कहते हैं कि दवाई एवं डोक्टर तो निमित्त मात्र हैं बाकी तो ब्रह्मचर्य के पवित्र संकल्प के कारण ही वह बच गयी है !... विवाह के २ वर्ष बाद आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा हसमुखभाई की सगर्भा धर्मपत्नी को टेबल से नीचे गिरने के कारण चोट लगी । डोक्टरने निदान करते हुए कहा कि - ' शरीरमें ज़हर हो गया है, ओपरेशन करना पड़ेगा, जन्मनेवाला बच्चा या उसकी माँ दो में से एक ही बच सकेंगे' । हसमुखभाईने कह दिया - 'मुझे ओपरेशन नहीं करवाना है ।' बाद में हसमुखभाई ने संकल्प किया कि धर्मपत्नी का स्वास्थ्य ठीक हो जाय इस निमित्त से ८१ आयंबिल करूँ एवं ८१ आयंबिल पूर्ण नहीं हो तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा । शादी को केवल दो ही साल हुए थे, फिर भी ऐसे भीष्म संकल्प के प्रभाव से कुछ ही देर में उनको स्फुरणा हुई कि अमुक डोक्टर को दिखलाऊँ । उस डॉक्टरने निदान करते हुए कहा कि - "चिन्ता मत करो, टाईफोइड है, ठीक हो जायेगा ।' डोक्टरने दवाई दी एवं बुखार उतर गया। बच्चा और माँ दोनो बच गये । ओपरेशन करवाना नहीं पड़ा । आयंबिल करने का अभ्यास बिलकुल नहीं होने से बहुत कठिनाई महसूस होने लगी । ३ सालमें भी ८१ आयंबिल पूरे नहीं हो पाये । आखिर उन्होंने अपनी भावना को बढाते हुए धर्मपत्नी की संमति से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। हसमुखभाईने होनेवाली पुत्रवधु के साथ शर्त रखी कि उबाला हुआ पानी पीना पड़ेगा और हमेशा नवकारसी - चौविहार का पालन करना पड़ेगा। शर्त का स्वीकार होने पर ही शादी हुई । इसी तरह अपनी बेटी की शादी से पहले उसके श्वसुर पक्ष के सदस्यों को भी Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २६५. कहा कि - 'मेरी बेटी शादी के बाद भी नवकारसी -चौविहार करेगी एवं उबाला हुआ अचित्त पानी पीएगी। श्वसुर पक्ष से संमति मिलने पर ही उसकी शादी हुई। हसमुखभाई के घर के सभी सदस्य एवं उनकी विवाहित बेटी इन तीनों कठिन नियमों का आज भी अच्छी तरह से पालन करते हैं । कैसा जबरदस्त आचारप्रेम ।। .... बिना कारण से या सामान्य कठिनाई में भी अभक्ष्य-अनंतकाय का भक्षण एवं रात्रिभोजन करनेवाले जैनकुलोत्पन्न आत्माओं को इस दृष्टांतमें से प्रेरणा लेकर नरकप्रद रात्रिभोजन आदि भयंकर पापों से बचने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। आजीवन बहाचर्य व्रत स्वीकारने की तीव्र तमन्ना ब्रह्मचर्य के कट्टर पक्षपाती प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री मेघदर्शनविजयजी के पास कार्तिक महिने में एक दंपती ने आकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान करने की विज्ञप्ति की ! दोनों रूपवान थे । उम्र करीब ३२ साल के आसपास की थी । उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा कि - 'इसी साल से धर्म में जुड़े हैं । चातुर्मास के दौरान संघ में जो भी तपश्चर्या आदि आराधना करायी गयी वह सब हमने भी की है ।' भरयुवावस्था के कारण इतना कठिन व्रत आजीवन देने के लिए महाराजश्रीने ना कही। उन्होंने पुनः आग्रह करते हुए कहा कि- 'हमने चातुर्मास के ४ महिनों में संपूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया है और आगे भी अच्छी तरह से पालन करेंगे ही।' फिर भी दीर्घदृष्टा मुनिश्री ने उनको, पुनः वंदन करने के लिए न आयें तब तक ब्रह्मचर्य का व्रत लेने की सलाह दी। आखिर उन्होंने Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ गुरुवचन 'तहत्ति' करते हुए कम से कम ३ माह तक और जब तक पुनः वंदन करने के लिए नहीं आ सकें तब तक ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रतिज्ञा ली। एक वर्ष के बाद वे पुनः मुनिराजश्री के पास आये और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान करने की विज्ञप्ति की ! मुनिवरने उनको एक साल के लिए प्रतिज्ञा दी । इस तरह ४५ साल तक वे हर वर्ष आते रहे और हमेशा आजीवन व्रत देने के लिए विज्ञप्ति करते रहे । और हर बार मुनि श्री उनको एक साल की ही प्रतिज्ञा देते रहे । तीन साल पूर्व उनको एक साथ ५ वर्ष के लिए प्रतिज्ञा दी है। भरयुवावस्थामें भी असिधाराव्रत को स्वीकार करने की कितनी तीव्र तमन्ना ! एक ही कमरेमें शयन करने के बाबजूद उनको मनमें भी अब्रह्म का विचार तक नहीं आता है । कितने पवित्र ! हे जैनों ! आप भी इनको हृदय से प्रणाम करके ऐसे सद्गुणों की प्राप्ति के लिए प्रभुप्रार्थना करके अपनी आत्माको पवित्र बनाओ यही शुभाभिलाषा । २५ साल की युवावस्थामें, वर्ष में केवल २ घंटे १२२ की जयणा के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकारनेवाले आकोला के रतिलालभाई आज से ३२ साल पहले की बात है । महाराष्ट्र के आकोला शहरमें सागर समुदाय के एक महान तपस्वी मुनिराज श्रीनवरत्नसागरजी म.सा. (हाल आचार्य) उपाश्रय में बिराजमान थे। उनके पास २५ साल की उम्र के रतिलालभाई नामके एक श्रावक आये । वंदनविधि करने के बाद उन्होंने अभिग्रह पच्चक्खाण देने की विज्ञप्ति की । पूज्यश्री ने पूछा - 'भाग्यशाली ! कैसा अभिग्रह लेना है?' जवाब मिला - 'ब्रह्मचर्य का'!... 'कितने दिनों के लिए ?...' 'प्रति माह २८ दिनों के लिए - आजीवन !..' Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २६७ रतिलालभाई की भरयुवावस्था और विशिष्ट रूप देखकर पूज्यश्रीने पूछा - 'बराबर सोच समझकर निर्णय किया है न ?' श्रावक ने कहा - 'जी हाँ, ऐसे तो शादी करने की मेरी इच्छा ही नहीं थी, किन्तु कर्म संयोग से शादी करनी पड़ी है । फिर भी पुण्ययोग से पात्र मेरी भावना के अनुसार अनुकूल मिला है, इसलिए व्रत पालन में कोई दिक्कत नहीं होगी ।' पूज्यश्री ने आनंद पूर्वक पच्चक्खाण के साथ आशीर्वाद दिये !... लेकिन यह क्या ?... कुछ दिन बाद पुन: वे श्रावक म.सा. के पास आये। और अभिग्रह पच्चक्खाण देने के लिए विज्ञप्ति की । पूज्यश्रीने पूछा - 'अब किस बात का अभिग्रह लेना है ?... जवाब मिला - . 'ब्रह्मचर्य का' !! 'वह अभिग्रह तो आप कुछ ही दिन पहले ले गये हैं न ? "जी हाँ, किन्तु पीछे से मुझे विचार आया कि महिने में २ दिन याने कि ४८ घंटे तक अविरति का भयंकर पाप मैं क्यो शिर पर लुं ? इसलिए अब दो दिनों में भी केवल ५-५ मिनिट की जयणा रखकर बाकी के समय के लिए भी ब्रह्मचर्य के पच्चक्खाण जीवन पर्यंत के लिए दे दो ताकि सालभर में कुल मिलाकर २ घंटे के सिवाय बाकी समय विरतिमय हो जाय !!..." ऐसा अद्भुत प्रत्युत्तर सुनकर मुनिराज भी आश्चर्य चकित हो गये। सुश्रावक श्री रतिलालभाई की पापभीरुता और विरतिप्रेम देखकर अहोभाव के साथ पच्चक्खाण एवं आशीर्वाद दिये । ऐसे महान श्रावकरत्न रतिलालभाई आज विद्यमान नहीं हैं किन्तु उपरोक्त पूज्यपाद आचार्य भगवंतश्री के मुख से दो साल पूर्व शंखेश्वर महातीर्थ में यह दृष्टांत सुनकर यहाँ प्रस्तुत किया गया है । - रतिलालभाई के दृष्टांत द्वारा उन्होंने अनेक आत्माओं को ब्रह्मचर्य के विशिष्ट अभिग्रह दिये हैं । धन्य है श्री जिनशासन का कि जिसमें ऐसे श्रावकरत्न पैदा होते रहते हैं ।... Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ प्रज्ञाचक्ष प्रावकों की - अदभुत आराधना कर्म संयोग से बाल्यवय में ही आँखों की रोशनी खोने के बावजूद भी हताश होकर आत्महत्या के निर्बल विचार करने के बजाय, सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की शरण अंगीकार करके जीव सम्यक् पुरुषार्थ करता है तब कैसी अद्भुत स्थिति को प्राप्त कर सकता है उसको हम विविध दृष्टांतों के द्वारा देखेंगे। (१) शंखेश्वर महातीर्थ के पास समी गाँव में प्रज्ञाचक्षु पंडितश्रावक मोतीलालभाई डुंगरजी (उ.व. ७९) रहते हैं । १० साल की छोटी उम्र में उन्होंने मेहसाणा में श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला में पाँच साल तक रहकर संस्कृत-प्राकृत एवं कर्मग्रन्थादिका अच्छा अभ्यास किया। हाल कई वर्षों से वे समी में रहकर साधु-साध्वीजी भगवंतों को एवं मुमुक्षुओं को ६ कर्मग्रंथ आदिके अर्थ का अध्ययन अच्छी तरह से करवाते हैं । उनके पास पढकर १५ मुमुक्षु कुमारिकाओंने दीक्षा ली है । वे बाल ब्रह्मचारी और महातपस्वी हैं । वर्धमान आयंबिल तप की १४५ (१०० + ४५) ओलियाँ, सिद्धितप, श्रेणितप, आदि दीर्घ तपश्चर्याएँ की हैं । हाल वृद्धावस्थामें भी प्रतिदिन एकाशन तप करते हैं । पाठशाला में धार्मिक अध्ययन करवाते हैं। संघ का कारोबार सम्हालते हैं । हररोज जिनालय की प्रथम मंजिल पर रहे हुए ११ प्रभुजी की प्रक्षाल से लेकर नवांगी पूजा वे स्वयं करते हैं । आसपास के गाँवों में जहाँ जैन आबादी नहीं है वहाँ जब जैन साधु-साध्वीजी पधारते हैं तब एक लड़के को साथमें लेकर वे वहाँ जाते हैं और पूज्यों की हर प्रकार की वैयावच्च वे अच्छी तरह से करते हैं। प्रातः करीब ३ बजे निद्रात्याग करके सामायिक- प्रतिक्रमण- कार्योत्सर्गजप- ध्यान आदिविशिष्ट साधना भी करते हैं । शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोह में पंडित श्री मोतीलालभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 18 के सामने । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २६९ पता : पंडित श्री मोतीचंदभाई डुंगरजी मु. पो. समी, जि. महेसाणा (उ. गुजरात) पिन : ३८४२८५ फोन : ०२७३३ - ४४४०५, ४४४६२, ४४३११ (२) महेसाणा में श्री यशोविजयजी जैन पाठशाला के मुख्य अध्यापक पंडित श्री पुखराजभाई भी बाल्य वयमें ही प्रज्ञाचक्षु बने थे । उन्होंने भी उत्साह पूर्वक ६ कर्मग्रंथ कम्मपयड़ी - पंचसंग्रह आदि का ऐसा तलस्पर्शी अध्ययन किया था । कई आचार्य भगवंतादि साधु-साध्वीजी भगवंतों को भी जब कर्मग्रंथ के विषय में किसी दुर्गम प्रश्न का समाधान नहीं होता तब वे पंडितवर्य श्री पुखराजभाई को प्रश्न पूछते थे और प्रत्युत्तर पाकर संतुष्ट होते थे । वे भी बाल ब्रह्मचारी और उत्तम आराधक थे । ४ साल पूर्व ही उनका स्वर्गवास हुआ है । 1 (३) कच्छ - भुजपुर में पंडितजी आणंदजीभाई भी बाल्यवय में प्रज्ञाचक्षु बने थे । वे भी संस्कृत व्याकरण और कर्मग्रंथादि के अर्थ बहुत अच्छी तरह से पढाते थे । भुजपुर के योगनिष्ठा तत्त्वज्ञा पू. सा. श्री गुणोदया श्रीजी म.सा. आदि अनेक जिज्ञासुओं को उन्होंने बहुत अच्छी तरह अध्ययन कराया था । (४) कच्छ- नाना रतडीआ गाँव के सुश्रावक श्री मीठुभाई वेलजी गडा (उ. व. ६५) केवल २ साल की छोटी उम्र में प्रज्ञाचक्षु हुए थे। उन्होंने १४ साल की उम्र में वर्षीतप के साथ धार्मिक अध्ययन का भी प्रारंभ किया था । आज उनको पाँच प्रतिक्रमण, स्नात्रपूजा पं. श्रीवीरविजयजी कृत बड़ी पूजाएँ, अनेक चतुर्दालिक और श्री आनंदघनजी चौबीसी, उपा. श्री यशोविजयजी चौबीसी श्री ज्ञानविमलसूरिजी चौबीसी आदि करीब २५० जितने स्तवन कंठस्थ हैं । अधिकांश धार्मिक अध्ययन उन्होंने अचलगच्छाधिपति प.पू. आ. भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की संसार पक्षमें चाचा की बेटी सुश्राविका श्री हीरबाई के पास से सुन सुनकर किया है । हररोज जिनपूजा, प्रतिक्रमण, नवकारसी एवं चौविहार करते हैं । ७ वर्षीतप २११ अट्ठम, नवपदजी की ४५ ओलियाँ, बीसस्थानक तप वर्धमान तप, २८ तीर्थंकर के एकाशन, ज्ञान पंचमी, १४ पूर्व, अक्षयनिधि, रोहिणी समवसरण आदि अनेकविध तपश्चर्या द्वारा विपुल कर्म निर्जरा की है ! Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ दो बार शत्रुजय महातीर्थ की ९९ यात्राएँ एवं छ'री' पालक संघ द्वारा पालिताना की यात्रा की है। पता : मीठुभाई वेलजी गडा मु. पो. नाना रतडीया ता. मांडवी-कच्छ (गुजरात) पिन : ३७०४६५ (५) जामनगर के पास रावलसर गाँव में मगनलालभाई जीवराज (उ.व. ७७) नाम के प्रज्ञाचक्षु श्रावक थे । ९ साल पूर्व उनके साथ हमारी मुलाकात हुई थी । बाल्यवय में चेचक रोग के कारण दोनों आँखों की रोशनी नष्ट हुई थी फिर भी सुन-सुनकर उन्होंने पाँच प्रतिक्रमण और भक्तामर स्तोत्रादि कंठस्य कर लिया था । प्रतिदिन सुबह-शाम दोनों टाईम लकड़ी के सहारे जिनमंदिर में जाकर सुस्पष्ट स्वरसे विधिपूर्वक चैत्यवंदन करते थे । - "दृष्टि के अभावमें में भले प्रभुजी का दर्शन नहीं कर सकता हूँ लेकिन परमात्मा की अमीदृष्टि मुझ पर पड़ेगी तो भी मेरा बेड़ा पार हो जायेगा, इसीलिए हररोज उभयकाल जिनालय में आता हूँ" यह थी उनकी अनुमोदनीय श्रद्धा और निष्ठा । ७ साल पूर्व ही उनका स्वर्गवास हुआ है। नि:स्पृह कच्छी विधिकार त्रिपुटी (१) बंकीमचंद्रभाई केशवजी शाह (२) नरेन्द्र भाई रामजी नंदु (३) केशवजीभाई धारसीं गड़ा ये तीनों कच्छी विधिकार अंजनशलाका - प्रतिष्ठा आदि एवं अन्य महापूजनों के विधि-विधान शुद्ध शास्त्रोक्त विधि के अनुसार कराते हैं । तीनों विधिकार यातायात के किराये के सिवाय कुछ भी राशि या भेंट का स्वीकार नहीं करते । तीनों नवकार महामंत्र के विशिष्ट आराधक हैं। नरेन्द्रभाई और केशवजीभाई हमेशा एकाशन ही करते हैं । भारतभर में से अनेक Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ स्थानों से इन विधिकारों को आमंत्रण मिलता है और वे परिश्रम की परवाह किये बिना हर जगह जाते हैं। प्रारंभ में वे तीनों साथ में ही जाते थे, मगर बाद में एक साथ अनेक संघों से आमंत्रण मिलने पर सहयोगी विधिकारों की ३ टीम बनाकर वे तीनों स्वतंत्र रूप से भी विधिविधान कराने के लिए जाते हैं । कच्छी समाज एवं अचलगच्छ जैन संघ को ऐसे नि:स्पृह और शुद्ध विधिकारों के लिए गौरव है। तीनों के पास वक्तृत्व शक्ति भी होने से पूजन आदि के हार्द को भी अच्छी तरह से समझाते हैं। बंकीमचंद्रभाई एवं केशवजीभाई शंखेश्वर तीर्थं में आयोजित अनुमोदना समारोह में पधारे थे । उनकी तस्वीरों के लिए देखिए क्रमशः पेज नं. 19 एवं 21 के सामने । पता : (१) बंकीमचंद्रभाई केशवजी शाह १४९/१, जैन सोसायटी, शायन (वेस्ट) मुंबई ४०००२२, फोन : ४०९१२२२ पता : (२) नरेन्द्रभाई रामजी नंदु विभा सदन, सहकार रोड, जोगेश्वरी (वेस्ट) मुबई - ४००१०२ फोन : ६२०८५२४ (घर) ६२८१३८८ (दुकान) पता : (३) केशवजीभाई धारसी गड़ा ३/१७ श्री सदन सोसायटी, नवघर रोड़, मुलुन्ड, (पूर्व) मुंबई : ४०००८१ फोन : ५६८१६२६ घर इनके अलावा कच्छी युवा विधिकार चंद्रकांतभाई प्रेमजीभाई देढिया भी शुल्क लेकर विधिकार एवं संगीतकार के रूपमें विविध पूजनादि एवं भावना अच्छी तरह कराते हैं । पता : चंद्रकांतभाई प्रेमजी देढिया मु.पो. बिदडा, तह. मांडवी-कच्छ पिन : ३७०४३५ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि में भी कई विधिकार निस्पृह भाव से विधि-विधान एवं पूजनादि अच्छी तरह से करवाते हैं उन सभी की भी हार्दिक अनुमोदना । उनमें से कुछ विधिकारों के दृष्टांत इसी पुस्तकमें पूर्वमें दिये गये हैं। बाल श्रावक रनों के अद्भुत पराक्रमोंकी गौरवगाथा छोटे पौधे को चाहें वैसा मोड़ दिया जा सकता है, कोरी स्लेट के उपर चाहें वेसा चित्र अंकित किया जा सकता है, कार्बन पेपर के उपर जैसा लिखते हैं वैसा ही नीचे के पन्ने पर लिखा जाता है... उसी तरह छोटे बच्चों में हम चाहें वैसे संस्कार डाल सकते हैं। इस जगत में जो भी महापुरुष हुए हैं उनके जीवन चरित्र देखने से पता चलता है कि उनकी महानता की नींव में उनकी गर्भावस्था में या बाल्यावस्था में माता-पिता-अध्यापक या सद्गुरु आदि द्वारा किया गया सुसंस्कारों का सिंचन ही कारण रूप होता है। इस दुनिया में शरीर धारण करते हुए प्रत्येक बच्चे में महान बनने की संभावना छिपी रहती है । फिर भी उनमें से कुछ महापुरुष बनते हैं और कुछ शयतान जैसे भी बनते हैं उसमें मुख्यतया जिम्मेदार उनकी बाल्यवस्थामें मिले हुए शुभ या अशुभ संस्कार ही होते हैं। आईए, हम सुसंस्कारों को संप्राप्त बाल श्रावकरत्न कैसे अद्भुत पराक्रम दिखा सकते हैं उनके कुछ दृष्टांत देखें और अपने आश्रित बच्चों में भी वैसे सुसंस्कारों का सिंचन करने के लिए संकल्प करें । (१) ढाई सालकी उम्र के बच्चे ने किया अठ्ठम तप । वि. सं. २०४३ में वलसाड़ (गुजरात) में अध्यात्मयोगी प. पू. आ. भ. श्री विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य मुनिराज श्री Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २७३ पूर्णचन्द्रविजयजी म.सा. के चातुर्मास में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभुजी के सामूहिक अठ्ठम तपका आयोजन हुआ था, जिसमें १२२ तपस्वी शामिल हुए थें । तब केवल ढाई सालकी उम्र के बाल श्रावक जिनलकुमारने भी आनंदपूर्वक अठ्ठम तप किया था । श्री संघ के द्वारा जिनपूजा के लिए २५०० रूपयों के चांदी के उपकरण आदि भेंट द्वारा जिनलकुमार का बहुमान किया गया था । यह बाल श्रावक जिनलकुमार डेढ साल की उम्र से नित्य जिनपूजा, नवकारसी, रात्रिभोजन त्याग, अचित्त जल पीना इत्यादि नियमों का चुस्त रूपसे पालन करता है । ये सुंदर संस्कार उनकी माता शोभनाबहन और पिता नवीनभाई शाह की देखभाल का फल है । भविष्यमें यह बालक महान संयमी साधु बने ऐसी उनकी भावना है । धन्य जिनलकुमार ! धन्य माता पिता । (२) शा सालकी उम्र में अठ्ठाई ४॥ सालकी उम्र में १० - उपवास । मुंबई में मीरां रोड में रहते हुए विवेक नाम के बालक ने केवल शा साल की उम्र में अठ्ठाई तप एवं ४॥ साल की उम्र में लगातार १० उपवास करके विश्व विक्रम स्थापित किया है । आज उसकी उम्र करीब १० साल की है । वह मुमुक्षु के रूप में संयम की तालीम 'ले रहा है, । ६ कर्मग्रंथ आदि का अध्ययन कर चुका है । उनको एकाग्र चित्तसे, भावोल्लास पूर्वक जिनपूजा भक्ति करते हुए देखनेवाले भी भाव विभोर हो जाते हैं । एकाध साल में उसकी दीक्षा होनेवाली है । विवेककुमार मुनि बनकर आत्म कल्याण के साथ साथ जबरदस्त शासन प्रभावना करे यही हार्दिक शुभेच्छा । विवेककुमार के माता पिता को भी अनेकशः धन्यवाद। शंखेश्वरमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें विवेककुमार भी अपने माँ-बाप के साथ आया था । उसकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 14 के सामने । (३) डेढ साल की उम्र में श्रेयांसकुमार ने किया हुआ उपवास । बहुरत्ना वसुंधरा २-18 - Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मुंबई वालकेश्वर में वि.सं.२०४९में चातुर्मास बिराजमान प्रखर प्रवचनकार प.पू.आ.भ.श्री विजय यशोवर्मसूरिजी म.सा.की निश्रामें केवल डेढ सालकी उम्रके श्रेयांसकुमार कमलेशभाई शाहने १ उपवास करके सभीको आश्चर्यचकित कर दिया था । श्री संघने इस बालकको तपस्वीरत्न का बिरुद दिया था । भविष्यमें ऐसे बालश्रावकरन जिनशासन के धर्म धुरंधर बनने के लिए शक्तिशाली हो सकते हैं इसमें शंका नहीं है । (४) ४ सालकी उसमें अठाई तप । वि.सं.२०४५ में हमारा चातुर्मास जामनगर में था,तब वहाँ पाठशाला के उपाश्रय में प.पू.आ.भ. श्री विजय अशोकचन्द्रसूरजी म.सा. की निश्रामें केवल ४ सालकी उम्र के सागरकुमार दिलीपभाई सुतरीया ने अछुई तप करके सभीको आश्चर्यान्वित कर दिया था। उसकी माता दीनाबहन ने उसमें सुसंस्कारों का सिंचन किया है। वह रोज माता - पिता को प्रणाम करता है और जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन करता है। रविवार एवं अन्य छुट्टी के दिनों में धोती और खेस (उतरासंग) पहनकर भावपूर्वक जिनपूजा करता है । हालमें वह मोरबी में रहता है। पता : साउसर प्लोद शेरी नं.९, पारस मेडीकल के मकान में, मोरबी, जि. राजकोट पिन - ३६३६४१. सागरकुमार की तस्वीर के लिए देखिए पेज नं.14 के सामने । (५) एन्टवर्प (विदेश) में पर्युषण की आराधना करवाने के लिए गया हुआ तपोवन संस्कार धाम का एक बालक : गुजरात में नवसारी से ७ कि.मी की दूरी पर आये हुए तपोवन संस्कार धाम का एक बालक हेमलकुमार ए. शाह वि.सं.२०४९ में एन्टवर्प में पर्युषण की आराधना करवाने के लिए गया था । एन्टवर्प याने वैभव का महासागर । जहाँ लोगों के घरों में सोने के नल एवं चांदी के पाइप हैं । चांदी की थाली-कटोरी-ग्लास इत्यादि तो वहाँ सामान्य बात है । घर घर में ५-५ मर्सीडीझ मोटरकार हैं । ऐसे एन्टवर्प में ५० साल के इतिहास में पहलीबार पर्युषण की Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २७५ आराधना हुई.। इस तपोवनी बालक के साथ अन्य दो वीर सैनिक युवक भी गये थे । इस बालक ने वहाँ कुमारपाल महाराजा की भव्य सामूहिक आरती भी करवायी । उभय काल शुद्ध उच्चार और विधिपूर्वक प्रतिक्रमण कराये । व्याख्यान, पंच कल्याणकों की पूजा, भावना, युवकों एवं बालकों के जीवन को उच्चतम बनाने के लिए प्रेरणादायक संमेलन आदिका आयोजन करवाया था। इस बालक के पास वतृत्वशक्ति विशिष्ट प्रकार की हैं । इसकी माँ ने बाल्यावस्था से ही इस बालक का उच्चतम जीवन निर्माण करने के लिए अथक परिश्रम किया है । धन्य है इसकी माता को । धन्य है ऐसे दो-दो तपोवनों के प्रणेता शासन प्रभावक, युवा प्रतिबोधक, प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखर विजयजी म.सा. को ! (६) सुरत के तपस्वी बालक : वि.सं. २०४९ में सुरत में परम शासन प्रभावक प .पू. आ.भ. श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य पू. मुनिराज श्री कीर्तियशविजयजी म.सा. ( हाल आचार्यश्री ) की प्रेरणा से चातुर्मास में ६६ तपस्वी सिद्धितप में शामिल हुए थे । कई भाग्यशाली अठ्ठाई आदि तपश्चर्या में शामिल हुए थे। - तब केवल ९ साल की उम्रमें कु. निकिता दीपकभाई मसालियाने भी सिद्धितप जैसी महान तपश्चर्या की थी । इस तपश्चर्या में ४४ दिनों में ३६ उपवास और ८ बिआसन करने के होते हैं । और भी अनेक बाल श्रावकों ने अठ्ठाई तप किया था, उनमें से १० साल से छोटी उम्र में अढ़ाई तप करने वाले बालकों के नाम निम्नोक्त प्रकार से हैं । (१) खुश्बु भद्रेशभाई शाह (उ. व. ५) (२) कोमल शांतिलाल शाह (उ.व.६) (३) कोमल महेशकुमार शाह (उ. व. ५) (४) पूजा ललितभाई शाह (उ. व. ६) (५) चिंतन महेशकुमार (उ. व. ६) अमी कौशिककुमार (उ व. ७) (७) बिजल गिरिशभाई शाह (उ.व. ८) भविष्या भद्रेशकुमार शाह (उ. व. ८) (९) रचना केतनकुमार शाह (उ. व. ८) (१०) प्रियंका वीरेशभाई शाह (उ. व.८) (११) जीरल विरलभाई शाह (उ व. ५) (१२) विराट Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ अश्विनभाई शाह (उ. व. ९) (१३) क्रीना भद्रेशकुमार शाह (उ. व. ९) . (७) अहमदाबाद के तपस्वी तेजस्वी बालश्रावक : अहमदाबाद याने धर्मनगरी । जहाँ प्रतिवर्ष सैंकडों साधु-साध्वीजी भगवंतों के चातुर्मास होते हैं और शेषकाल में भी करीब एक हजार जितने साधु साध्वीजी भगवंत विविध उपाश्रयों में हमेशा विद्यमान होते हैं। फलतः उनके सत्संग से सैंकडों बालकों ने छोटी उम्र में तपश्चर्या एवं विशिष्ट धार्मिक अध्ययन किया होता है। उनमें से यथाप्राप्त थोड़े से दृष्टांत यहाँ प्रस्तुत किए जाते हैं । - साबरमती रामनगर में वि. सं. २०५० में प. पू. पं. श्री इन्द्रसेनविजयजी म.सा. (हाल आचार्यश्री) की निश्रामें सौरभकुमार सतीशभाई शाह (उ. व. ८) एवं कमल प्रियकांत झवेरी (उ. व. ८)ने अठ्ठाई तप किया था । शंखेश्वरमें आयोजित अनुमोदना समारोहमें सौरभकुमार भी आया था । उसकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 19 के सामने । काळुशी की पोल में कु. सोनल नीतिनकुमार शाह (उ. व. १०) ने १६ उपवास की तपश्चर्या की थी। श्री दानसूरि ज्ञानमंदिर में पू. मुनिश्री कुलशीलविजयजी म. एवं पू. मुनि श्री हर्षशीलविजयजी म.सा. की निश्रामें कौशलकुमार जयेन्द्रभाई शाह (उ. व. ११) ने पंच प्रतिक्रमण और ४ प्रकरण तक अध्ययन किया है । उसने ९ साल की उम्रमें अट्ठाई तप किया था । पिछले ६ वर्षों से वह पर्युषण में ६४ प्रहरी पौषध करता है। रंगसागर उपाश्रय में सा. श्री देवेन्द्रश्रीजी म. की प्रेरणा से कु. शिवांगी रोहितकुमार शाह (उ. व. ७) ने पंचप्रतिक्रमण, और ९ स्मरण कंठस्थ कर लिए हैं और बहुत स्पष्ट उच्चार पूर्वक बोलती है । वहाँ कु. बिरवाने ८ वर्ष की उम्रमें अट्ठाई तप किया था । नारणपुरा में देवकीनंदन सोसायटी में ५ साल पूर्व एक ७ साल की उम्र के बालक को धोती एवं खेस पहनकर जिनपूजा करके Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ विधिपूर्वक चैत्यवंदन करते हुए हमने देखा था । वह बालक श्रीआनंदघनजी कृत चौबीसी का एक स्तवन भावपूर्वक गा रहा था । चैत्यवंदन के बाद में उपाश्रय में आकर स्पष्ट उच्चार पूर्वक गुरुवंदन किया। यह बालक पाँच प्रतिक्रमण और ४ प्रकरण सीखने के बाद ३ भाष्य सीख रहा था । उसकी माताने ६ कर्मग्रंथ तक अध्ययन किया था, इसलिए वह बालक अपनी माँ के पास ही भाष्य सीख रहा था । हररोज व्याख्यान श्रवण भी करता था । धन्य है उस बालक को !! धन्य है उसकी माता को ! . जैन नगर मैं प. पू. आ. भ. श्री अशोकसागरसूरिजी म. सा. की निश्रामें ५ से ८ सालकी उन के करीब ७ बालकों ने अट्ठाई तप किया था। . कृष्णनगरमें ९ साल की उम्र के जिगरकुमार कमलेशभाई शाह ने पर्युषण में सैंकडो लोगों की उपस्थिति में अतिचार सूत्र, बड़ी शांति और अन्य धार्मिक सूत्र बोलकर लोगों को आश्यर्यमुग्ध बना दिया था । श्री संघने उसका बहुमान किया था । वह हररोज जिनपूजा एवं नवकारसी करता है । प्रति माह पाँच पर्वतिथियों में हरी वनस्पति का त्याग करता है। (८) १० सालकी उम्र से प्रति वर्ष अट्ठाई तप करते हुए कच्छी युवा श्रावक किरणभाई वेरसी गडा (उ. व. ३९): अहमदाबाद में जैननगर-सौराष्ट्र सोसायटी में रहते हुए सुश्रावक श्री जसवंतभाई लालभाई (उ व. ६८) पिछले २९ साल से हर पर्युषण में अाई तप करते हैं, किन्तु कच्छ चीआसर के (हाल मुंबई-शिवरी)में रहते हुए किरणभाई वेरसी गडा (उ. व. ३९) ने १० सालकी बाल्य वय में अट्ठाई तप का प्रारंभ किया था, तभी से लेकर पिछले २९ साल से प्रत्येक पर्युषण में वे अछाई तप करते हैं। ___ कच्छ केसरी, अचलगच्छाधिपति, प. पू. आ. भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा में वि. सं. २०४० में मुंबई से समेतशिखरजी महातीर्थ का एवं सं. २०४१ में समेतशिखरजी से पालिताना का छ: 'री' पालक विराट पदयात्रा संघ निकला था तब २५ वर्ष Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ के किरणभाई ने अपने दो युवा मित्र रामजीभाई शामजी धरोड और जतीनकुमार मोरारजी छेडा के साथ मिलकर कन्वीनर के रूप में ऐसे महान संघों का संचालन अत्यंत व्यवस्थित रूप से किया था और प. पू. अचलगच्छाधिपति गुरुदेवश्री की अद्भूत कृपा प्राप्त की थी । सं. २०४६ में पालिताना में कच्छी भवन धर्मशाला में १००० यात्रिकों के विराट ९९ यात्रा संघ का सुंदर संचालन भी उपरोक्त त्रिपुटी ने किया था । पता : किरणभाई वेरसी गडा, वेरसी माणेक एन्ड कुं. ९५६ कात्रक रोड, वडाला, मुंबई-४०००३१, फोन : ४१५१८०. श्री शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना बहुमान समारोह की व्यवस्था में भी किरणभाई एवं अन्य कार्यकर्ताओं ने अच्छा योगदान दिया था । किरणभाई की तस्वीरों के लिए देखिए पेज नं. 18 इत्यादि के सामने। (९) कांदीवली - महावीरनगर में रहती हुई एक बालिका ने केवल १२ सालकी उनमें मासक्षमण: की महान तपश्चर्या की थी। (१०) राजस्थान के देशनोक गाँव में वि. सं. २०४९में कु. समता बांठीयाने केवल ११ साल की छोटी उम्र में मासक्षमण की उग्र तपश्चर्या की थी। (११) कु. रिध्धि हरीशभाई (दिओरा) ने वि. सं. २०४९ में मुंबई-मलाड में ४ वर्ष की बाल्यवय में प्र. पू. आ.भ. श्री पूर्णानंदसूरीश्वरजी म. सा. की निश्रा में अट्ठाई तप किया था । (१२) मलाड़ (पूर्व) में रत्नपुरी उपाश्रय में वैराग्य देशनादक्ष प. पू. आ. भ. श्री विजयहेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें केवल ७ साल की उम्र के जिज्ञेश नाम के बालक ने वि. सं. २०३९ में आसोज महिने में ४७ दिन का उपधान तप करके सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। ___ (१३) कु. कीमी एवं कु. हर्षिता ने केवल ५॥ साल की उम्र में प. पू. आ. भ. श्री अशोकसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में गिरिराज की ९९ यात्रा विधिपूर्वक पूर्ण की थीं। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ____२७९ (१४) मुंबई घाटकोपर में ऋषभकुमार ने १० साल की उम्र में मुनिराज श्री कल्याणबोधिविजयजी म.सा. द्वारा सुन सुनकर केवल ३ घंटों में ४४ श्लोकका संस्कृत भक्तामर स्तोत्र कंठस्थ करके आत्मा की अचिंत्य शक्ति का सभी को परिचय कराकर आनंदविभोर बना दिया था। विशेष आश्चर्य की बात तो यह है कि यह बालक अंग्रेजी माध्यममें पढ़ता है, अत: उसे गुजराती ठीक से पढने भी नहीं आती है फिर भी सुन-सुनकर विविध मुनिराजों की निश्रामें रत्नाकर पचीसी (२५ गाथा), अरिहंत वंदनावलि (४९ श्लोक) और सकलाईत स्तोत्र का गुजराती में पद्यानुवाद (३४ श्लोक) भी केवल २ - २ घंटों के अंदर ही कंठस्थ कर लिया था । श्री संघने एवं अन्य अनेक संस्थाओंने ऋषभकुमार का बहुमान किया था। हाल वह ११वीं कक्षामें पढता है । स्कूल में हमेशा प्रथम क्रमांक में उत्तीर्ण होता है । धार्मिक ५ कक्षा की परीक्षाओं में प्रथम वर्ग में उत्तीर्ण हुआ है । भारतीय विद्याभवन द्वारा ली गयी संस्कृत की परीक्षामें भी प्रथम क्रमांक में उत्तीर्ण हुआ है । ऋषभकुमार की तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 14 के सामने । पता : ऋषभकुमार बिपीनभाई मेहता 'पंकज' बी-ब्लोक नं. ८०, होटल एरवेझ के पास, एल. बी. शास्त्री मार्ग, घाटकोपर मुंबई ४०००८६, फोन : ५१४९०७८ आजन्म चौविहार करते। हुए बालश्रावक नवसारी (गुजरात) में उत्पन्न हुआ वह बालक कितना पुण्यशाली होगा कि उसके परिवार में कोई भी रात्रिभोजन नहीं करता । बच्चे की माँ को विचार आया कि, 'मेरे बेटे को जन्म से लेकर रात्रिभोजन के पाप : से मुक्त रखना है,' अतः वह उसे दूध भी केवल दिन को ही पिलाती Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ है। मुंबई मलाड़ में भी एक ऐसा बालक है। . - इन बच्चों ने पूर्व जन्म में कैसा पुण्य किया होगा कि नरक के प्रथम द्वार समान रात्रिभोजन के पाप से जन्म से ही बच गये । इस काल में करोड़पति और अरबपति बहुत मिलेंगे किन्तु आजन्म चौविहार करनेवाले पुण्यसम्राट कितने होंगे ? - दूसरे भी ऐसे कुछ बच्चे हैं । लेकिन कुल मिलाकर पूरे विश्वमें ऐसे कितने बालक होंगे ? शायद २५-३० होंगे ! ऐसे महापुण्यशालिओं का दर्शन करने की भावना होती है ? जिस तरह गिनेश बुक में विविध विषयों में विश्व विक्रम करनेवालों के नाम दर्ज होते हैं उसी तरह इन बच्चों के नाम गिनेश बुक में तो नहीं किन्तु धर्मराजा की किताबमें जरूर दर्ज हो गये होंगे। हम सभी जन्म के समय में तो अज्ञानी थे और पुण्य भी शायद उतना उच्च कोटिका नहीं था, इसलिए उपरोक्त प्रकार के महाधर्मा माँबाप नहीं मिले, फिर भी आप पुण्यशाली तो जरूर हैं जिससे उत्तम कुलमें जन्म मिला है और आप पढे लिखे सुज्ञ भी हैं, तो हे भाग्यशाली पाठकों! आप आज से इतना दृढ निश्चय जरूर करें कि अभी से लेकर आजीवन रात्रिभोजन तो नहीं ही करेंगे। .. मुंबई आदि में ऐसे अनेक धर्मात्मा हैं कि जो घर से टिफिन मंगाकर या अपने साथ में खाना ले जाकर या अन्य कोई भी व्यवस्था करके चौविहार करते हैं । कुछ ऐसे भी धर्मप्रेमी सज्जन हैं जो अपने सेठ से विज्ञप्ति करके स्वेच्छा से अपना वेतन कुछ कम लेकर भी सायंकाल घर जाकर चौविहार करते हैं । आप अगर चाहें तो आसानी से इस महापाप से बच सकते हैं। _आज विश्वमें हजारों लोग ऐसे साहसिक हैं कि जो बाल युवा या प्रौढ वयमें खेल-कूद, रेस, पर्वतारोहण, ध्रुवसंशोधन, अवकाशयात्रा, समुद्र तरण आदि विविध क्षेत्रोमें अपने जान की बाजी लगाकर जगत्प्रसिद्ध होते हैं, तो आप ऐसे छोटे से धर्मकार्य में भी पीछेहठ क्यों करते हैं ? अपने भावों को उन्नत बनाकर आत्महित साधे । संतों के आशीर्वाद आपके साथ हैं। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ जिस तरह श्री व्रजस्वामीने जन्म से लेकर दीक्षा के मनोरथ एवं सफल प्रयत्न किये उसी तरह ये बच्चे भी अमुक अपेक्षा से कितने पुण्यशाली हैं कि जन्म से ही रात्रिभोजन के महापाप से बच गये हैं ! भूरिशः हार्दिक अनुमोदना सह उनके माँ-बाप को भी बहुत बहुत धन्यवाद । 8888 8888888888804 ४ सालकी उम्र से नवपदजी की आयंबिल १२७ ओली की आराधना करते हुए भाई बहन कुमारपाल और मयणा एक श्राविका को कुमारिका अवस्था में दीक्षा ग्रहण करने की प्रबल भावना थी, मगर कर्म संयोग से उनको शादी करनी पड़ी । विवाह के बाद भी उनके हृदय में धर्म की भावना वैसी ही बरकरार रही । ___ अपने दो बच्चे एक साल की उम्र के थे तभी से दोनों को रात्रिभोजन बंद करवाया और उबाला हुआ अचित्त पानी पीने का प्रारंभ करवाया । . उनकी छोटी सी बच्ची मयणा को अगर कोई पूछेगा कि 'रातको खाना चाहिए ?' तो वह तुरंत जवाब देगी कि नहीं खाना चाहिए, क्यों कि जो रात को खाते हैं उसको नरक में मार खाना पड़ता है।" कभी शाम को खाने का रह गया तो और अंधेरा हो जाता है उसके बाद उसको कितना भी प्रलोभन देने पर वह रात को नहीं खाएगी। उसको घडी देखने नहीं आती फिर भी इतनी बात तो उस के दिल और दिमाग में एकदम दृढ हो गयी है कि, अंधेरा हो जाने के बाद नहीं खाया जाता । कभी पड़ौसियों के घरमें रात को खेलने के लिए गयी हो और पड़ौसी उसे चोकलेट पीपरमेन्ट आदि खाने के लिए बहुत आग्रह करें तो भी वह नहीं खाती । यह बालिका अभी ७ साल की है और उसका भाई कुमारपाल ९ साल का है। जन्म के बाद ४१ वें दिन से दोनों ने जिनपूजा का प्रारंभ किया है, उसके बाद शायद ही कोई दिन पूजा बिना खाली गया Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ होगा । आज तो मुंबई में उनके घर में गृह जिनालय है । दोनों भाई बहन घंटों तक परमात्मा की अद्भुन भक्ति करते हैं । दोनों बच्चे जब ४ साल की उम्र के थे तब से उनके मातापिता ने उनको नवपदजी की आयंबिल की ओली की आराधना शुरू करवायी है। प्रति वर्ष दो बार ओली के दिनों में इतनी छोटी सी उम्र में दोनों भाई बहन प्रसन्नता से ९ - ९ दिन तक आयंबिल तप करते हैं । ओली के दिनों में अगर कभी बुखार भी आया हो या स्कूल में परीक्षा भी चालु हो तो भी वे आयंबिल की ओली करने का कभी भी चूकते नहीं हैं। दोनों भाई बहन अपनी माँ के साथ धार्मिक पाठशाला में हररोज जाते हैं । कुमारपाल को तो पाँच प्रतिक्रमण आदि के सूत्र भी कंठस्थ हो गये हैं। धन्य है इन बालकों को । धन्य है उनके माता-पिता आदि को। ११ साल की उम्र में श्री सिद्धचक्र महापूजन बिना किताब के आधार से पढाते हुए बाल विधिकार कयवत्रकुमार नरेन्द्रभाई नंदु बच्चों के जीवन को उन्नत बनाने के लिए माँ-बाप यदि सजग होते हैं तब बच्चे कैसे महान हो सकते हैं उसका प्रत्यक्ष दृष्टांत तेजस्वी बाल विधिकार श्री कयवनकुमार नरेन्द्रभाई नंदु हैं। उसके पिताश्री नरेन्द्रभाई नंदु मूलत: कच्छ-मांडवी तहसील के वांढ गाँव के हैं किन्तु हाल वे मुंबई जोगेश्वरी में रहते हैं । वे न केवल कच्छी समाज या अचलगच्छ के लिए किन्तु समस्त जैन शासन के लिए गौरवरूप एक प्रतिभावंत आदर्श विधिकार और उत्तम आराधक युवा श्रावकरत्न हैं। जब भी देखो तब उनके हाथ में नवकार महामंत्र की गणना चालु Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २८३ ही होती है । एक क्षण भी वे निरर्थक नहीं गंवाते हैं । स्वयं अप्रमत्तता से करोड़ नवकार की आराधना करते हैं और अनेक आत्माओं को वे करोड़ नवकार जप में जोड़ते रहते हैं । वे स्वयं नवकार महामंत्र की आराधना में कैसे जुड़े और नवकार के प्रभाव से जीवन में कैसे कैसे चमत्कारों का अनुभव किया उसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किताब के संपादक द्वारा संपादित और श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट मुंबई (फोन : ४९३६६६०) के द्वारा प्रकाशित "जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?" (गुजराती-हिन्दी-अंग्रेजी में कुल २३०० प्रतियाँ)में प्रकाशित हुआ है, जो.खास पढने लायक है। शादी के बाद अल्प समय में ही उन्होंने २ बार एकाशन तप और ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा पूर्वक एक एक लाख नवकार की आराधना पूर्ण की थी। अब तो कई वर्षों से वे हमेशा एकाशन ही करते हैं । कहीं भी अंजनशलाका प्रतिष्ठा महापूजन आदि के विधिविधान करवाने के लिए उनको बुलाया जाता है तो वे यातायात की टिकट के सिवाय कुछ भी नहीं लेते हैं । बहुमान में भी तिलक के सिवाय कुछ भी नहीं स्वीकारने की उनकी प्रतिज्ञा है । - ऐसी नि:स्पृहवृत्ति और उत्तम आराधना द्वारा उनके जीवन में ऐसी सूक्ष्म शक्ति का प्रचंड निर्माण हुआ है कि भारतभर में वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ उनका प्रत्येक वाक्य आदर के साथ स्वीकृत होता है । हैद्राबाद (चैतन्यपुरी), गाडरवाड़ा, जबलपुर आदि अनेक स्थानों में उनकी प्रेरणा से जिनालयों का निर्माण हुआ है, जिनमें उन्होंने स्वयं भी अच्छा योगदान दिया है। अपने घर के गृहमंदिर के लिए उन्होंने सुवर्ण का जिनबिम्ब भी उत्कृष्ट जिनभक्ति के परिणामों से बनवाया है । जिनभक्ति और धार्मिक वार्तालाप के लिए उनको विदेशों से भी निमंत्रण मिलते रहते हैं । उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका श्री दमयंतीबहन भी नवकार महामंत्र के विशिष्ट आराधक और धर्म के रंग से रंगी हुई हैं । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कहावत है कि 'जैसा बाप वैसा बेट' । मगर कवयन्नकुमार को तो गर्भावस्था से ही ऐसे उत्तम माता-पिता के संस्कार मिले होने से 'बाप से बेय बढकर' इस उक्ति को वह सार्थक करेगा, वैसे लक्षण बचपन से ही उसके जीवन में दृष्टिगोचर हो रहे हैं । माता-पिता की तरह कयवनकुमार भी करोड़ नवकार की आराधना में बचपन से ही जुड़ गया है । उस के हाथ में जब देखो तब नवकार महामंत्र की गणना चालु ही होती है। नवकार महामंत्र के प्रति उसको ऐसी सुदृढ आस्था है कि किसी भी कार्य में अगर विघ्न या विलंब होता हो तो वह आदिनाथ भगवान को प्रार्थना करके नवकार महामंत्र का स्मरण करता है और तुरंत कार्यसिद्धि हुए बिना रहती नहीं। कयवन कुमार हररोज अपने माँ बाप का चरण स्पर्श करके उनके आशीर्वाद लेता है। करीब ५ साल की उम्रसे वह छुट्टियों के दिनों में अपने पिताश्री के साथ पूजनों में बैठता था, फलतः ११ साल की उम्र में तो वह श्री सिद्धचक्र महापूजन और श्री बृहत् शांतिस्नात्र जैसे पूजन पुस्तक या प्रत के बिना अत्यंत शुद्ध उच्चार पूर्वक पढाने लगा है। कई बार एक साथ २-३ स्थानों में पूजन पढाने के लिए निमंत्रण मिलते हैं तब कयवनकुमार अकेला भी (पिताश्री के बिना) अपनी पार्टी के साथ जाकर बहुत अच्छी तरह से पूजन पढाता है । उसने पढाये हुए पूजनकी विडियो केसेट विदेश में भी अत्यंत लोकप्रिय हुई है। पूजन के दौरान अभिषेक के समय में प्रभुजी के जन्म कल्याणक की उजवणी के प्रसंग में हरिणेगमेषी देव का कर्तव्य वह अत्यंत अद्भुत रीत से करके दिखलाता है। .. वह हररोज प्रात:काल में २ - २॥ घंटे तक जिनमंदिर में स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा करता है । करीब ३० जितने स्तवन और दो प्रतिक्रमण के सूत्र कंठस्थ हैं । महिने में करीब १५ दिन अपने मातापिता के साथ प्रतिक्रमण भी करता है । जमीकंद तो कभी भी उस के पेट में गया ही नहीं। सभी पापों की माँ "सिने-मा' की तो उसने परछाई भी नहीं ली। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २८५ कयवनकुमार बड़ा होकर जिनशासन की जबरदस्त प्रभावना करेगा उसमें संदेह नहीं । उसका चचेरा भाई जयकुमार आज ९ साल की उम्रका है और वह भी अक्सर पूजन पढाने की शिक्षा ले रहा है। दोनों बच्चे जब धोती और खेस पहनकर पूजन में बैठे हुए होते हैं तब मानो लव-कुश की जोड़ी हो वैसे शोभते हैं। सभी माँ बाप इस दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर अपनी संतानों में ऐसे सुसंस्कारों का सिंचन करने के लिए कटिबद्ध बनें और उसके लिए अपना जीवन भी आराधना से मघमघायमान बनायें यही शुभाभिलाषा । पता : कयवनकुमार नरेन्द्रभाई रामजी नंदु विभासदन, सहकार रोड, जोगेश्वरी (वेस्ट), मुंबई ४००१०२,. फोन : ६२०८५२४ (घर) / ६२८५०१४ (दुकान) अपनी जान को जोखिम में डालकर घोड़े एवं मछलियों को बचानेवाले सुश्रावक श्री रतिलालभाई जीवण अवजी .. [दि. ६-६-९५ के दिन हम वढवाण (जि. सुरेनद्रनगर - गुजरात) में श्रीरामसंगभाई दरबार को उनकी अनुमोदनीय आराधना के विषय में जानकारी प्राप्त करने हेतु मिले थे, तब उन्होंने अपनी बात तो संक्षेप में ही पूर्ण की, मगर वढवाण के जीवदयाप्रेमी सुश्रावक श्री रतिलालभाई की अत्यंत अनुमोदनीय बातें विस्तारसे कहीं । रतिलालभाई कुछ ही साल पूर्व स्वर्गवासी हुए हैं मगर उनके जीवन प्रसंग अत्यंत प्रेरक होने से यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं । रतिलालभाई के सुपुत्र के घर में वढवाण में आज भी गृह जिनालय विद्यमान है, जिसके दर्शनार्थ हम गये थे । मुंबई - माटुंगा में रतिलालभाई के पिताजी के नाम से जीवण अबजी ज्ञानमंदिर (उपाश्रय) सुप्रसिद्ध है । संपादक ] Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ (१) इ.स. १९४७ में भारत देश स्वतन्त्र हुआ उससे पहले के समय की यह बात है । उस वक्त हिंदुस्तान के उपर अंग्रेजों की हकूमत चलती थी। कुछ अंग्रेज अमलदार जब उनके घोड़े वृद्ध होते थे तब उनको गड्ढे में उतारकर बंदूककी गोली से सूट कर देते थे । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की जीवनदृष्टिवाले वढवाण के जीवदया प्रेमी सुश्रावक श्री रतिलालभाई को यह बात अत्यंत खटकती थी । ___ एक बार उनको खबर मिली कि अंग्रेज अमलदारोंने वृद्ध घोड़ों को गड्ढे में उतारा है और कुछ ही समय में उनको सूट करनेवाले हैं। रतिलालभाई तुरंत अंग्रेज अमलदार के पास गये और घोड़ों को नहीं मारने के लिए उनको बहुत समझाया, मगर अमलदार टस से मस नहीं हुआ। तब रतिलालभाई स्वयं उस गड्ढे में उतरे और घोड़ों के आगे खडे रहकर अमलदार को कहा कि 'पहले मेरे उपर बंदूक चलाईए, उसके बाद ही घोड़ों पर बंदूक चल सकेगी'। यह सुनकर अमलदार आग बबूला हो गया और रतिलालभाई को पकड़वाकर कमरे में बंद कर दिया । रतिलालभाई वहाँ भी नवकार महामंत्र का स्मरण करते हुए घोड़ों को बचाने के लिए प्रभुप्रार्थना करने लगे। . सच्चे हृदय की नि:स्वार्थ प्रार्थना का स्वीकार हुआ हो वैसी एक घटना घटित हुई । उस कमरे की दीवार ईंट या पत्थरों की नहीं थी मगर लकड़ी की पट्टियों से बनी हुई थी. रतिलालभाई ने उसके छिद्रों में से पास के कमरे में दृष्टिपात किया तो वहाँ अंग्रेज अमलदारों के लिए एक बड़ी कढाई में दूधपाक तैयार हो रहा था । उसमें उपर के नलियोंमें से पसार होते हुए साँपका जहर गिरता हुआ उन्होंने देखा । समयसूचकता से तुरंत उन्होंने लकडी के द्वारा कढाई को जोर से धक्का मारकर दूधपाक जमीं पर गिरा दिया । अंग्रेज अमलदारों को जब इस बात का पता चला तब पहले तो वे अत्यंत क्रुद्ध हुए, मगर बादमें साँपके जहर की बात जानकर दूधपाक को प्रयोगशाला में भेजा । उसमें जहर का अस्तित्व सिद्ध होने पर आश्चर्य चकित होकर उन्होंने रतिलालभाई को पूछा कि 'हम तो तुम्हारे Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २८७ दुश्मन हैं, फिर भी तुमने हमको मृत्यु से क्यों बचाया है ?' तब . रतिलालभाई ने प्रत्युत्तर दिया कि, 'साहब ! आप भी मेरे मित्र हैं और घोड़े भी मेरे मित्र हैं । आप यदि मुझ पर प्रसन्न हुए हों तो घोड़ों को सूट नहीं करने का मुझे वचन दीजिए ।' और सुप्रसन्न होकर अंग्रेज अमलदारों ने घोड़ों को सूट नहीं करने का वचन दिया और एक सुवर्णचंद्रक भी रतिलालभाई को बहुमान के साथ अर्पण किया । (२) १० बार मछलियों को बचाया । कुछ मच्छीमार लोग वढवाण के तालाब में से रात के समय में बहुत मछलियाँ पकड़ने की कोशिष करते थे। दिन में महाजन लोगों से डरकर वे रात को ही यह कार्य करते थे । इस बात की खबर रतिलालभाई को मिलने पर वे रातको २-३ बजे अकेले तालाब के पास पहुँच जाते थे। दूर से मच्छीमारों को रतिलालभाई के आगमन की खबर मिलते ही वे क्रोधित होकर उनको धमकी देते थे कि, 'वापिस लौट जाओ, नहीं तो बंदूक की एक ही गोली से आप को खत्म कर देंगे ' तो भी जरा भी डरे बिना रतिलालभाई मच्छीमारों के पास पहुँच जाते थे । कई बार मच्छीमार लोग बंदूक की नोंक रतिलालभाई के सीने पर रखकर कहते थे कि, 'अगर जिन्दा रहना है तो अभी भी वापिस लौट जाओ और हमें हमारा काम करने दो' । तब रतिलालभाई अपनी जेबमें से पत्र निकालकर टोर्च के प्रकाश में मच्छीमारों को दिखाते थे, जिसमें लिखा था कि 'मैंने स्वयं कुछ तकलीफों से ऊबकर खुदकुशी कर ली है, मुझे किसीने भी मारा नहीं है, इसलिए इस मृत्यु के कारण किसी को भी सजा नहीं होनी चाहिए ।' पत्थर दिल के मच्छीमार भी दैवी दिल वाले इस आदमी को देखकर पिघल जाते थे । बाद में रतिलालभाई उनको कहते थे कि 'अब भले आपको बंदूक चलानी हो तो मेरे उपर चलाओ मगर मुझे इतना तो वचन दो कि मुझे मारने के बाद आप या आप के संतान एक भी मछली को नहीं मारोगे ।' ___ मछलियों की खातिर अपनी जान को प्राणांत जोखिम में डालने वाले इस इन्सान की करुणा का भाव देखकर मच्छीमार भी उनके उपर Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ फिदा हो जाते थे । तब रतिलालभाई अपनी जेबमें से ५०० रूपये उनको देकर निर्दोष आजीविका के लिए प्रेरणा देते थे, फलतः मच्छीमार भी हमेशा के लिए मच्छीमारी का त्याग कर देते थे । ऐसे तो करीब १० से अधिक प्रसंग उनके जीवन में हुए हैं। (३) जिनमंदिर की देखभाल करने में भी रतिलालभाई इतने ही जाग्रत रहते थे । कभी रात को ३-४ बजे जिनालय में छिपकर बैठ जाते थे और पूजारी पूजा के कपड़े पहनने से पहले स्नान करता है या नहीं उसका भी वे खयाल करते थे। (४) जिनमंदिर का कोष खोलने के समय में कभी भी एक दो जने नहीं किन्तु ४ - ५ व्यक्ति साथमें बैठकर ही कोष को खोलते थे और तुरंत राशि की गिनती करते थे । बीच में कभी अपने को लघुशंका के लिए बाहर जाना पडता था तो वे अकेले न जाते हुए बैठे हुए व्यक्तियों में से किसी भी एक व्यक्तिको साथ में लेकर ही वे बाहर जाते थे, इसलिए अन्य कार्यकर्ताओं से भी वे इसी पद्धति का अनुसरण सहज रूपसे करा सकते थे। सचमुच जिनशासन की यह महिमा है कि कलियुग में भी ऐसे जीवदयाप्रेमी, प्रामाणिक सुश्रावक होते रहते हैं । वर्तमानकालीन संघों के अग्रणी भी इसमें से कुछ प्रेरणा ग्रहण करेंगे यही शुभाभिलाषा । (५) रतिलालभाई नियमित रूपसे हररोज जिनपूजा करते थे । एकबार उनको मस्तक का ओपरेशन करवाने का प्रसंग आया । डोक्टरने कहा कि, 'आपको संपूर्णतया आराम करना होगा' । रतिलालभाईने जवाब दिया कि, 'आराम करूँगा मगर केवल प्रभुपूजा के लिए मुझे इजाजत मिलनी चाहिए। डोक्टरने कहा, 'हलनचलन से टाँके टूट जायेंगे इसलिए इजाजत नहीं मिल सकेगी'। रतिलालभाईने कहा, 'प्रभुपूजा के बिना मुझे चैन नहीं पडता, इसलिए कुछ भी हो मगर पूजा के लिए मुझे इजाजत देनी ही होगी ।' डोक्टर लोग आपस में अंग्रेजी में बातचीत करने लगे कि, 'ये जिद्दी लगते हैं, ओर्थोडोक्स हैं, मगर हम उनको एनेस्थिसिया दे देंगे ताकि वे बेहोश ही रहेंगे। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ रतिलालभाई धोती पहनते थे, इसलिए डोक्टरों को लगा कि ये अंग्रेजी नहीं जानते होंगे । मगर रतिलालभाई अंग्रेजी जानते थे, वे डोक्टरों की बात समझ गये और ओपरेशन के समय में अनेस्थिसिया लेने के लिए निषेध कर दिया । डोक्टरों ने आग्रह किया तब रतिलालभाई ने कह दिया कि, 'मैं पीड़ा के निमित्त से एक शब्द भी नहीं बोलुंगा, कितनी भी पीड़ा होगी उसे चूपचाप सहन करूँगा। आखिर अनेस्थिसिया के बिना ही ओपरेशन हुआ । दूसरे दिन रतिलालभाई ने नर्स को कुछ रूपयों की बक्षिस देकर पूजा के लिए इजाजत माँगी, मगर नर्सने इजाजत नहीं दी तब रतिलालभाई पीछे की बारी से नीचे उतरने की कोशिश करने लगे । आखिर नर्सने गबराकर किसीको नहीं कहने की शर्त पर पूजा के लिए अनुमति दी । इस प्रकार से उन्होंने ओपरेशन के दूसरे ही दिन भी जिनपूजा की। डोक्टर ने कहा 'क्यों रतिलालभाई ! आपने अगर आज पूजा की होती तो कितनी तकलीफ हो जाती । धर्म का ऐसा पागलपन नहीं रखना चाहिए । - रतिलालभाईने निर्भयता और निखालसता से प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि 'डोक्टर ! आज सुबह भी मैंने प्रभुपूजा की है । मेरे प्रभुजी की पूजा से ही मैं बच गया हूँ। ओपरेशन के बाद आपने की हुई सिलाई भी नहीं टूटी है । प्रभुकृपा से ही सब अच्छा होता है । धर्म करने के लिए कभी भी किसी को मनाई नहीं करनी चाहिए'। रतिलालभाई की ऐसी अद्भुत धर्मदृढता देखकर डोक्टर का शिर भी अहोभाव से झुक गया। (६) एक बार रतिलालभाई की सुपुत्री की शादी का प्रसंग था। रास्ते में कुछ कारण से समय ज्यादा लग गया इसलिए बारात जब रतिलालभाई के घर पर आयी तब सूर्यास्त होने में बहुत अल्प समय बचा था । रतिलालभाईने अपने समधी आदि को स्पष्ट कह दिया कि 'आप जानते हैं कि मैं रातको न स्वयं खाता हूँ औन न किसी को भी रातको खिलाता हूँ । चाय तैयार करवा दी है। आप सभी चाय नास्ता जल्दी कर लें । रात्रिभोजन का पाप मैं किसीको नहीं करने दूंगा । रिश्तेदारों बहरत्ना वसुंधरा - २-19 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ने रतिलालभाई को समझाते हुए कहा कि 'रतिलालभाई ! बेटी की शादी के प्रसंग में ऐसा व्यवहार करने से दुषपरिणाम आ सकता है । मगर रतिलालभाईने बेटी की शादी के प्रसंग में भी किसी को रात्रिभोजन नहीं करने दिया । कैसी अद्भुत धर्मदृढता ! (७) रतिलालभाई इंदोर के सेठ हुकमीचंदजी का माल लाकर व्यापार करते थे । हुकमीचंदजी करोड़पति थे । एक बार उनको किसी प्रयोजनवशात् वढवाण में आने का प्रसंग आया । रतिलालभाईने उनको अपने घर पर ही ठहरने की विज्ञप्ति की थी और साथ में यह भी सूचित किया था कि 'शेठजी! सूर्यास्त के बाद मैं किसी को पानी भी नहीं पीलाता हूँ, इसलिए आप दिन में ही समयसर पधारने की कृपा करें । ___मगर हवाई जहाज को किसी कारणवशात् देर हो जाने से हुकमीचंदजी सूर्यास्त के बाद रतिलालभाई के घर पहुँचे । रतिलालभाई ने उनको भोजन करने के लिए निमंत्रण नहीं दिया । रतिलालभाई के भाई आदिने रतिलालभाई को कहा कि, 'अगर सेठजी को भोजन नहीं करवायेंगे तो वे नाराज हो जायेंगे और माल नहीं देंगे, इसलिए इस एक बार आप उन्हें रातको भी भोजन करा दो' । मगर रतिलालभाई नहीं माने । उन्होंने कहाँ, 'व्यवसाय भले बंद करना पड़े मगर मैं रात्रिभोजन तो नहीं ही करवाऊँगा। ___ हुकमीचंदजीने कहा, 'रतिलालभाई ! लविंग तो दीजिए । (उनको लविंग खाने की आदत थी ।) रतिलालभाईने कहा, 'सेठजी ! क्षमा कीजिएगा, रातको मैं कुछ भी खाने की वस्तु नहीं दे सकता, इसमें मेरी अंतरात्मा मनाई कर रही है ।। . रातको जाहिर सभामें सभी बहुत डरते थे कि जरूर सेठजी बहुत गुस्से में आकर टीका करेंगे, लेकिन हुकमीचंदजीने तो रतिलालभाई को जाहिर सभा में अपने पास बुलाकर बहुत बहुत धन्यवाद दिये । प्रिय पाठक ! देखा न, धर्मदृढता का कैसा सुखद परिणाम आया इसलिए आप सभी भी दृढ संकल्प कर के रात्रिभोजन के महापाप के तिलांजलि देकर रतिलालभाई के जीवन की सच्ची अनुमोदना करें । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २९१ (८) एक बार रतिलालभाई ट्रेईन में यात्रा कर रहे थे । रास्ते में चेकर आया । रतिलालभाई ने टिकट दिखायी । फिर भी टी. सी. ने कहा कि, 'उत्तर जाईए' । रतिलालभाई जीवदया के जरूरी कार्य के लिए इंदोर से मक्षीजी की ओर जा रहे थे । टिकट होते हुए भी टी.सी. ने जबरदस्ती से उनको नीचे उतार दिया । उसके बाद ट्रेइन को थोड़ी ही देर में अकस्मात् हुआ । उस डिब्बे के सभी मुसाफिर मर गये । रतिलालभाई बच गये !!! कहा भी है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः" अर्थात् जो प्रतिकूलता में भी अपने धर्मनियमकी रक्षा करता है उसकी धर्म भी अवश्य रक्षा करता ही है । रतिलालभाई के जीवन प्रसंगों को पढकर सभी धर्म का दृढतापूर्वक पालन करें यही हार्दिक शुभाभिलाषा । १०० १५०० सूअरों को बचानेवाले जीवदयाप्रेमी । सुश्रावक श्री बाबुभाई कटोसणवाले . ___ "श्रावकजी ! मैं अभी अभी स्थंडिल भूमि से वापिस आ रहा हूँ। वहाँ गाँव के बाहर एक वाड़ेमें सैंकडों सूअरों को इकट्ठे किए गये हैं । मुझे लगता है कि उनको कसाइयों के वहाँ बेचने के लिए पकड़ा गया होगा । आप बराबर जाँच करके उनकी रक्षा के लिए उचित करें ।" गुजरात के कड़ी गाँव (जिला महेसाणा) में प. पू. आ. भ. श्री विजय लब्धिसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पू. पं. श्री पद्मविजयजी गणिवर्य म.सा. ने उस गाँव के एक जीवदयाप्रेमी सुश्रावक को करुणाद्र हृदय से उपरोक्त बात कही। ___ "महाराज साहब । आपकी बात सच्च है । हम सब संमिलित होकर उनको बचाने के लिए यथाशक्य प्रयत्न अवश्य करेंगे" श्रावक ने विनय पूर्वक प्रत्युत्तर दिया । गाँव के अन्य अग्रणी श्रावकों को साथ में लेकर वे श्रावक म्युनिसिपल प्रेसिडेन्ट एवं मुख्य ओफिसर को मिले । चीफ ओफिसर ने Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कहा कि "महाजन की बात अत्यंत उचित है, मगर गाँवमें सूअरों की संख्या बहुत बढ गयी है । लोगोंकी बारबार शिकायत आती है, इसलिए नगरपालिका ने ही सूअरों को पकड़नेवाले आदमियों को बुलवाया है ।" __"लेकिन साहब ! इतने सारे निर्दोष जीवों को हमारी आँखों के सामने यमदूतों के हाथमें जाते हुए हम कैसे बरदाश्त कर सकें ? आप इसका दूसरा कोई रास्ता निकालें तो अच्छा" श्रावकोंने कहा । - "यदि आप इन सूअरों को गाँव से हमेशा के लिए दूर भेज सको तो हम आपको सौंपने के लिए तैयार हैं" ओफिसरने कहा । आपस में विचार विनिमय करके श्रावक सूअरों को स्वीकारने के लिए तैयार हो गये । नगरपालिका के अधिकारी एवं पुलिस कमीश्नर आदि की सहायता से उन्होंने १३०० जितने सूअरों को कसाई जैसे लोगों के पास से कब्जा ले लिया । आर्थिक रूप से उन लोगों को भी संतुष्ट किया. गया । बादमें १० मजदूरों द्वारा उन सभी सूअरों को ट्रकों में भरकर गाँव नगर से दूर दूर अरावली की घाटियों में अग्रणी श्रावक स्वयं जाकर छोड़ आये जिससे उनको फिर से कोई पकड़ नहीं सके और वहाँ पानी के झरने होने से उनको आहार पानी भी मिल सके। उसके बाद बेचराजी और कटोसण रोड़ के लोगों को इस बात की खबर मिलने पर उनकी विज्ञप्ति से बेचराजी से १२० और कटोसण रोड़ से ६५ सूअरों को एवं अन्य भी जाल में फंसे हुए १४ सूअरों को छुड़ाकर अरावली की घाटियों में छोड़कर बचाया । इस पुण्य कार्य में उन्होंने १३ हजार रूपयों का सद्व्यय प्रसन्नता से किया और समय एवं जात मेहनत का बहुत भोग दिया । पू. पंन्यासजी महाराज को यह समाचार मिलते ही उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त करके उन श्रावकको बहुत बहुत शुभाशीर्वाद दिये । इन जीवदयाप्रेमी सुश्रावकश्री का नाम "बाबुभाई कटोसणवाले" था। "Live and let live''अर्थात् 'जीओ और जीने दो' इस लौकिक सूत्र से भी आगे बढकर "Die and let live" अर्थात् 'जरूरत पड़ने पर स्वयं का बलिदान देकर भी दूसरे जीवो को बचाओ, स्वयं प्रसन्नता से कष्ट सहन Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ करके भी अन्य जीवों को सुख चैन से जीने दो' ऐसे लोकोत्तर जीवदया के उपदेश को संप्राप्त श्रावकों को बाबुभाई के दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर ऐसे प्रसंगों में अपने तन-मन-धन और संबंधों का सदुपयोग करके अबोल जीवोंको बचाने के लिए प्रयत्न करने चाहिए । ___आजकल पालीताना जैसे महातीर्थधाम में भी कई बार कसाइयों की जाल में फंसे हुए सूअरों की दर्दनाक चीखें सुनाई देती हैं तब शक्तिसंपन्न सुश्रावकों को उनको बचाने के लिए बाबुभाई की तरह सतप्रयत्न करने चाहिए। ____ जीवदया के परिणामों में अभिवृद्धि होने पर बाबुभाईने अपनी ओर से सभी जीवों को अभयदान देने के लिए वि.सं. २०३८ में मृगशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन भोयणी तीर्थ में संयम का स्वीकार किया और आगमप्रज्ञ प. पू. मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न मुनिराज श्री बाहुविजयजी के रूपमें तपोमय मुनिजीवन जी रहे हैं । हाल में ७७ साल की उम्रवाले इन महात्माने ५८ साल की उम्र से हि आजीवन कम से कम एकाशन तप करने का अभिग्रह लिया है। इसके अलावा एकांतरित ५०० आयंबिल-एकाशन, नवपदजी की ७१ ओलियाँ, दीक्षा के बाद प्रथम चातुर्मास में ही मासक्षमण तप इत्यादि द्वारा वे अनुमोदनीय कर्म निर्जरा कर रहे हैं। कुछ साल तक उन्होंने गुरु आज्ञापूर्वक साणंद में रहकर वर्धमान तप की १०८ ओली के आराधक महातपस्वी पू. मुनिराज श्री मनोगुप्तविजयजी म.सा. की अनुमोदनीय वैयावच्च की थी । दि. २८-१-९६ के दिन साणंद में और दूसरी बार भीलडीयाजी तीर्थमें इन महात्मा के दर्शन हुए थे । परार्थव्यसनी महात्मा को कोटिशः वंदन। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ १३१| बहुरत्ना वसुंधरा : भाग प्रतिवर्ष सैंकड़ों बकरों की सामूहिक बलि प्रथा को बंद करानेवाले श्राद्धवर्य सुमतिभाई राजाराम शाह आज जब चारों ओर हिंसा का भयंकर तांडव नृत्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है तब उसको रोकने के लिए अत्यंत जरूरत है गाँव गाँव में से सुश्रावक श्री सुमतिभाई राजाराम शाह जैसे नररत्नों की । तो चलो हम सुमतिभाई का रोमहर्षक दृष्टांत पढें । महाराष्ट्र में कोल्हापुर जिले के कागल तहसील में लिंगनूर (कापसी) नामका एक छोटा सा गाँव है । इस गाँव के पिछड़े हुए लोग अज्ञानता के कारण अंधश्रद्धा से प्रेरित होकर प्रतिवर्ष ३ बार अम्बिका देवी की यात्रा के समय में ३०० से ४०० बकरों की बलि चढाते थे । इन लोगों की ऐसी मान्यता थी कि इस तरह बकरों का बलि देने से देवी प्रसन्न होती है और फसल बहुत होती है। किसी प्रकारके रोग नहीं होते । बकरों का माँस खाने के लिए वे अपने रिश्तेदारों को निमंत्रण देते थे । शराब और माँसकी महेफिल जमती थी । ऐसे अकार्य हर साल में ३ बार सामूहिक रूपसे होते थे । यह गाँव महाराष्ट्र और कर्णाटक की सीमा पर आया हुआ हैं । 1 लिंगनूर से थोडी दूरी पर कर्णाटक राज्य के निपाणी. गाँव में सुमतिभाई राजाराम शाह नाम के अत्यंत जीवदयाप्रेमी, धर्मनिष्ठ सुश्रावक रहते थे । (आजसे करीब २ साल पूर्व में ही उनका स्वर्गवास हुआ है ।) धर्म के नाम पर चलते हुए इस सामूहिक हत्याकांडसे वे अत्यंत खिन्न थे । पिछले १५ सालों से वे इस हत्याकांड को बंद कराने के लिए कई प्रयत्न करते थे मगर सफलता नहीं मिलती थी । फिरसे दि. २६-२-९२ के दिन इस यात्रा और बलिप्रथा का दिन आ रहा था तब सुमतिभाई ने दृढ निश्चय किया कि इस बार तो किसी भी हालत में इस हत्याकांड को रोकना ही है । वे भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी के जिनालयमें गये । प्रभु के चरणों के पास मस्तक झुकाकर Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ २९५ उन्होंने आई हृदय से प्रार्थना की कि 'हे देवाधिदेव ! जीवदया के महान शुभ कार्य के लिए मैं जा रहा हूँ, आप मुझे शक्ति प्रदान करें। उसके बाद वे लिंगनूर गये और वहाँ के अग्रणी लोगों को इकठ्ठा करके उनके समक्ष अपने हदय की भावना अभिव्यक्त करते हुए कहा कि 'आप लोग इस हत्या को बंद करें तो अच्छा होगा क्योंकि यह अंधश्रद्धा है। इससे तो आप दुःखी हो रहे हैं । यह धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। इससे तो आप लोग भवोभव बरबाद हो जायेंगे' इत्यादि । लिंगनूर गाँव के अग्रणी लोग सुमतिभाई की प्रतिष्ठा एवं धार्मिकता से प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा कि 'सेठजी ! हम आज ही रात को ढंढेरा पीटकर गाँव के लोगों को समझाने की कोशिश करेंगे ।' दूसरे दिन दि. १२-१-९२ के दिन सुबह ८ बजे सारे गाँव के लोगों की मिटींग अंबिका देवी के मंदिर के प्रांगण में हुई । उस मिटींग में सुमतिभाई भी उपस्थित रहे थे। उन्होंने लोगों को जीवहिंसा के भयंकर दुष्परिणामों की बात प्रेमसे समझायी। ...और सचमुच उस दिन जैसे चमत्कार ही हुआ हो वैसे कई वर्षों से चली आयी बलि प्रथा को हमेशा के लिए बंद करने का निर्णय सर्वानुमति से लिया गया । किसीने जरा भी विरोध नहीं किया ॥ .. सुमतिभाई भी खुशी से झूम उठे । उन्होंने लोगों को कहा कि, 'इस साल अम्बा माता की यात्रा ठाठ से मनाओ, जो भी खर्च होगा वह मैं दूंगा। लेकिन एक बात का खयाल रखें कि एक भी पशु-पंछी की हिंसा नहीं होनी चाहिए' । इस उद्घोषणा से सारे गाँव में आनंदोल्लास का वातावरण फैल गया। लेकिन कुछ दिनों के बाद गाँव के कुछ अग्रणी लोगों को ऐसा भय लगा कि बकरों का बलि नहीं देने से देवी कोपायमान होगी तो ? ___ इस द्विधा का निवारण करने के लिए गाँव के १५० लोग कर्णाटक में आये हुए यल्लामा देवी के मंदिर में गये । भारतभरमें से प्रति वर्ष हजारों लाखों लोग वहाँ जाते हैं। महा सुदि १५ के दिन वहाँ विराट मेला लगता है । उस मेले में लिंगनूर के १५० लोग गये थे । वहाँ जब Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ भक्त के शरीर में देवी ने प्रवेश किया तब उन लोगोंने देवी को पूछा कि ' हे माताजी ! हमने सुमतिभाई सेठजी को वचन दिया है उसके मुताबिक बकरों की बलि बंध करें या चालु रखें ? देवीने जवाब दिया कि -'सेठजी को दिये हुए वचन का पालन करो, क्योंकि हिंसा दुःख की खान है उसको बंद करो, उससे तुम्हारे गाँव का कल्याण होगा' । इससे उन लोगों का भय हमेशा के लिए दूर हो गया । वे नाचते हुए अपने गाँवमें वापस लौटे और सभी लोंगों को देवी के प्रत्युत्तर की बात बता बादमें दि. २६ - १२ - ९२ का दिन आया तब यात्रा का प्रारंभ हुआ। सारे गाँव के लोग वार्जित्रों के नाद के साथ साष्टांग दंडवत् प्रणाम करते हुए अम्बामाँ के मंदिर में पहुँचे और अपने अपने घर से आये हुए श्रीफल और नैवेद्य चढाकर उत्सव मनाया । जिस दिन खून की नदी बहती थी उसी दिन गाँव लोगों के सहयोग से मैत्री के पवित्र वातावरण का सृजन हुआ । अम्बाजी के मंदिर को रोशनी से सजाया गया था । पत्रकार वहाँ आ पहुँचे । गाँव के लोगों · का इन्टरव्यू लिया । वर्तमानपत्रों में यह बात प्रकाशित हुई । चारों ओर से सुमितभाई के उपर धन्यवाद की वृष्टि हुई ।. हिंसा बंद होने से सुमतिभाई को अत्यंत आनंद हुआ । उन्होंने लिंगनूर गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को १ - १ मोतीचूर लड्डु की प्रभावना घरघरमें स्वयं जाकर अपने हाथों से दी । लोग बहुत प्रसन्न हुए । अहिंसामय जैन धर्म का जय जयकार हुआ। २ - ३ घरों में गुप्त रूप से उस दिन माँसाहार होने की खबर मिलते ही गाँव के लोगोंने मिटींग बुलायी और माँसाहार करनेवालों को ५०० रूपये का दंड दिया और क्षमायाचना करवायी । तब से वहाँ उस दिन तो कोई भी माँसाहार नहीं करते । अम्बाजी के मंदिर के जीर्णोद्धार का खर्च सुमतिभाई ने दिया । इतना ही नहीं किन्तु प्रति वर्ष यात्रा के दिन वे स्वयं सभी को नैवेद्य अपनी और से देते थे मगर लोगों का उत्साह बढाने के लिए कहते थे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कि - 'आप लोगों ने बलिप्रथा बंद की है इससे प्रसन्न होकर मुंबई के संघोंने नैवेद्य के लिए राशि भेजी है ।' _ वि. सं. २०४८ में धर्मचक्र तपप्रभावक प. पू. पं. श्रीजगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्य) का निपाणीमें चातुर्मास हुआ तब धर्मचक्र तप का बिआसन सुमतिभाई ने कराया था। राशि उन्होंने दी मगर दाताके रूप में नाम लिंगनूर गाँव का लिखाया और उस गाँव के अग्रणिओं का बहुमान करवाया। उस गाँव के लोग सुमतिभाई की ऐसी उदारता पर फिदा हो गये थे। उस गाँव के एक युवकने म.सा. को बताया कि - 'म.सा. ! जबसे हमारे गाँव में यह हिंसा बंद हुई है तबसे तीन लाभ हमको हुए हैं । खेतों में पहले की अपेक्षासे फसल ज्यादा होने लगी है । (२) फसल का दाम भी पहले से ज्यादा मिलने लगा है ।। (३) गाँव के अग्रणी को अनिवार्य रूपसे ओपरेशन करवाना ही पड़े ऐसी बीमारी थी मगर वे बिना ओपरेशन ही ठीक हो गये हैं। - इस प्रकार से भगीरथ पुरुषार्थ के द्वारा जीवदया का झंडा लहरानेवाले अहिंसा के पूजारी श्री सुमतिभाई शाह को कोटिशः धन्यवाद सह हार्दिक अनुमोदना । उनके दृष्टांत का अनेक स्थानों पर अनुसरण हो ऐसी शुभ भावना। सुमतिभाई आज हमारे बीचमें नहीं हैं । २ साल पूर्व ही उनका स्वर्गवास हो गया है इसलिए उनके सुपुत्र श्री सतीशभाई को शंखेश्वर में आयोजित समारोह में निमंत्रित करके उनका बहुमान किया गया था । तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 18 के सामने । पता : सतीशभाई सुमतिभाई राजाराम शाह ११२४/४ २१ गुरुवार पेठ, मु.पो. निपाणी, जि. बेलगाम, (कर्णाटक) पिन : ५९१२३७ फोन : ०८३३८ - २००८२ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ १३२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ जीवदया के चमत्कार से मृत्यु के द्वार से वापस लौटे श्री बापुलालभाई मोहनलाल शाह गुजरातमें पालनपुर जिले के चीमनगढ़ गाँव में एक अजीब जीवदया प्रेमी सुश्रावक रहते हैं । आसपास के गाँवों में से कसाइओं को पशु बेचनेवाले लोगों के पास से हर महिने करीब १०० जितने जीवों को अभयदान देने का महान कार्य वे पिछले २३ साल से कर रहे हैं । जिस दिन एक भी जीव को अभयदान न दे सकें उसके दूसरे दिन उपवास करने की प्रतिज्ञा वि.सं २०३२ में ५७ साल की उम्र में उन्होंने ली है । आज ८० साल की उम्र में भी जीवदया के अनेकविध कार्यों में वे दिनरात लीन हैं । पिछले २३ साल से वे नित्य एकाशन करते हैं । बीचमें लगातार दो वर्षीतप भी कर लिए जिसमें से एक वर्षीतप चौविहार उपवास के साथ किया था । ५०० आयंबिल भी कर लिए । आश्चर्य की बात तो यह है कि आज से २३ साल पहले जब उनका स्वास्थ्य अत्यंत खराब हो जाने से चिकित्सकों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि " अब यह केस हमारे बस की बात नही हैं, यह मरीज अब थोड़े ही दिनों का मेहमान है " ऐसी स्थितिमें से बचकर आज २३ साल से इतना तपोमय जीवन जी रहे हैं और ८० साल की उम्र में भी जवान की तरह उत्साह से जीवदया के अनेकविध कार्य कर रहे हैं यह सब गुरु भगवंत की प्रेरणा से ली हुई जीवदया की उपरोक्त प्रतिज्ञा का ही चमत्कार है !.... पालनपुर के चिकित्सक डो. चंपकलाल ठक्करने वि.सं. २०३२ में जब चीमनगढ के उपरोक्त सुश्रावक श्री बापुलालभाई मोहनलाल शाह की बीमारी को 'असाध्य' घोषित कर दी तब वे डीसा में बिराजमान व्याख्यान वाचस्पति प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयरामचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. एवं वर्धमान तप की २८९ ओली के बेजोड़ तपस्वी प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजयराजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. के पास गये एवं पूज्यश्री को गद्गद हृदय से प्रार्थना की कि मुझे होस्पीटलमें बालमरण से मरना नहीं है, मैंने Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ २९९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग जीवनमें बहुत पाप किये हैं और धर्म कुछ नहीं किया । आप मुझे कुछ रास्ता बताईए ।' तब गुरु भगवंतने वात्सल्यभाव पूर्वक वासक्षेप दिया और शेष जीवन को सार्थक बनाने के लिए संयम ग्रहण करने की प्रेरणा दी । मगर बापुलालभाईने मुनि जीवन जीने का अपना असामर्थ्य व्यक्त किया तब म.सा. ने उनको अपना व्यवसाय न करते हुए जीवदया के कार्यों में अपना शेष जीवन बीताने के लिए उपरोक्त प्रतिज्ञा लेने की प्रेरणा दी और साथ में एकाशन से कम तप नहीं करने की भी प्रेरणा दी । बापुलालभाई ने गुरु महाराज की उपरोक्त प्रेरणा को शिरोमान्य की एवं प्रेरणा अनुसार २० साल के लिए प्रतिज्ञा भी ग्रहण कर ली । उसी प्रतिज्ञा के मुताबिक सं. २०३२ से लेकर आज तक प्रतिमाह करीब १०० पशुओं को वे कसाइयों, मुसलमान आदि से छुड़ाकर पांजरापोलमें भेजकर अभयदान देते हैं । फलतः जो कार्य लाखों रूपयों की दवाई से नहीं हो सका वह कार्य प्राणीओं को अभयदान दिलाकर संप्राप्त दुहाई के द्वारा हो गया; अर्थात् उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया और चिकित्सकों को भी आश्चर्य हुआ । एक बार उनको समाचार मिला कि चिमनगढ के पड़ौसी गाँव कोदर में एक भोपा सधी माताजी को बलि चढाने के लिए दो बकरों को मारने के लिए ले गया है, तो वे फौरन वहाँ पहुँच गये और भोपे (माताजी का पुजारी) के बच्चों के हाथमें १० -१० रूपये एवं उसकी पत्नी को पहनने के लिए एक साड़ी देकर उसको 'धर्म की बहिन' बनायी और बकरों को न मारने के लिए भोपे की पत्नी को एवं भोपे को भी बहुत समझाया । भोपे की पत्नी को कहा कि, 'तुम्हारी बेटी की शादी के समय मैं मामा के रूपमें ५०० रूपये दहेज दूँगा, मगर मेहरबानी करके तुम्हारे पति को समझाकर बकरों की बलि चढाना बंद करा दो ।' बादमें उन्हों ने शंखेश्वर पार्श्वनाथ को प्रार्थना करके अठ्ठम तप का संकल्प किया । पत्नीने भोपे को समझाया और माताजी एवं बकरों के द्वारा अनुकूल संकेत मिलने पर भोपा भी बकरों को नहीं मारने के लिए संमत हो गया । बकरों की बजाय नैबेद्य की थाली माताजी को चढायी । बापुलालभाईने Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ बकरों को एक दिन अपने घर पर रखा और दूसरे दिन पांजरापोल में दाखिल करा दिये । इस तरह एक बार एक साथ ३६ बकरों को बचाया और धानेरा की पांजरापोल में भेजा। ___ गाय आदि पशुओं की सेवा के लिए बापुलालभाई ने चीमनगढ आदि ३ स्थानों में पांजरापोल की स्थापना करवायी है । कुल ५ पांजरापोल की स्थापना करवाने की उनकी भावना है । पांजरापोल में पशुओं को भी पानी छानकर पिलाया जाता है !!! बापुलालभाई के खेत के पास तालाब में पानी सूख जाने से उसकी मिट्टी को लोग अपने खेतों में डालते थे तब कई जीवों को मरते हुए देखकर उन्होंने अपने बोर के पानी से. तालाब को भरा दिया और मछली आदि जीवों को कोई मार नहीं सके उसके लिए चौकीदार को नियुक्त किया । जीवदया के प्रभाव से उनकी आँखों के मोतिये शस्त्रक्रिया के बिना ही दूर हो गये !.. म.सा. की प्रेरणा से उन्होंने ६ महिनों तक नमक खाना छोड़ दिया था । एक बार कोई जहरीले जंतुने उनको डंक मारा, मगर नमक त्याग के कारण उनको ज़हरका असर नहीं हुआ । बापुलालभाई की जीवदया एवं तप-त्याग की हार्दिक अनुमोदना । तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 19 के सामने । पत्ता : बापुलालभाई मोहनलाल शाह मु.पो. चीमनगढ़, ता. कांकरेज, जि. बनासकांठा, पिन :३८५५५५ (गुजरात) मैस को बचाने के लिए जीवदयाप्रेमी अशोकभाई शाह का अद्भुत पराक्रम पूना (महाराष्ट्र) में श्री गोडीजी पार्श्वनाथ जिनालय की सामनेवाली गलीमें एक सुश्रावक रहते हैं । "अशोकभाई जीवदयावाले" के रूप में उनको सभी पहचानते हैं । उनकी धर्मपत्नी एवं दो सुपुत्रोंने दीक्षा अंगीकार की है। दोनों सुपुत्र प.पू.आ.भ. श्रीदोलतसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मुनिराज श्री हर्षसागरजी म.सा. के शिष्य मुनि विरागसागरजी एवं मुनि श्री विनीतसागरजी के रूपमें संयम की अनुमोदनीय आराधना करते हैं। सर्व जीवों को अभयदान देनेवाले सर्वविरति धर्म (साधु जीवन) का स्वीकार करने में असमर्थ अशोकभाई जीवदया के अनेकविध सत्कार्य अत्यंत उत्साह के साथ हमेशा करते रहते हैं । एक ही प्रसंग द्वारा उनकी जीवदया के विषयमें रुचि का हमें खयाल आ जाएगा । एक बार कसाइयों के पास से ३ भैंसें अपना जीवन बचाने के लिए भाग निकलीं । उनमें से २ भैंसे ट्रेइन अकस्मात से मर गयीं और तीसरी भैंस रेल की पटरियों के पास एक गहरे और संकरे गड्ढे में फंस गयी। कुछ लोगों का ध्यान उसकी ओर जाने पर उन्होंने नगरपालिका के अधिकारी को फोन कर इस घटना की खबर दी, मगर किसी कारणवशात् उस भैंस को बाहर निकालने के लिए २ दिन तक तो कोई भी नहीं आया। आखिर तीसरे दिन किसीने अशोकभाई को इस बात की खबर देने पर वे अपने सारे कार्य छोड़कर उपर्युक्त घटना स्थल पर दौड़ आये । बादमें तुरंत वे रेल्वे स्टेशन पर गये और रेल्वे अधिकारी को सारी बात समझाकर भैंस को बचाने के लिए ३ एन्जिन, ३ डिब्बे और २५ आदमियों का स्टाफ देने की विज्ञप्ति की । प्रारंभ में तो रेल अधिकारीने इस बात को टालने के लिए अपने पिताजी का श्राद्धदिन होने का बहाना निकाला, मगर जीवदया की खुमारीवाले अशोकभाईने तुरंत उनको स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि 'आपके पिताजी तो परलोक में चले गये हैं और यह भैंस तो अभी जिन्दा है, इसलिए किसी भी हालतमें आपको इतनी सहायता देनी ही पड़ेगी अन्यथा... ।' ... और तुरंत अधिकारीने उनको उपर्युक्त व्यवस्था कर दी । उनकी सहायता से भैंस को गड्ढे में से बाहर निकालकर योग्य उपचार किए गये, मगर कमनसीब से दूसरे दिन उस भैंस की आयु खत्म हो गयी । लेकिन चमत्कार यह हुआ कि वह रेल्वे अधिकारी अशोकभाई को कहने लगा कि - "सचमुच तुम कोई ओलिया आदमी हो । २ घंटों तक दोनों ओर से किसी भी गाडी को आगे बढ़ने के लिए हमने सिग्नल नहीं दिया फिर भी हमारे उपरी अधिकारीयोंमें से किसी ने भी मुझे फोन से भी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ उपालंभ नहीं दिया और किसीने शिकायत भी नहीं की । यह सब तुम्हारी जीवदया के शुभ भावों का अद्भुत प्रभाव है ।" खरगोश की रक्षा के लिए ढाई दिन तक अपना पैर अद्धर रखनेवाले हाथीने श्रेणिक राजा का सुपुत्र मेघकुमार बनकर भगवान श्री महावीर स्वामी के वरद हस्तसे संयम प्राप्त करने का महान पुण्य उपार्जन किया तो एक भैंस को बचाने के लिए इतनी मेहनत करनेवाले अशोकभाईने कितना जबरदस्त पुण्य उपार्जन किया होगा !!! धन्य है ऐसे जीवदयाप्रेमी श्रावकरत्न को ! जीवदयामंडल पूना के माध्यम से वे कई प्रकार के जीवदया के कार्यों में व्यस्त रहते हैं । १३४ - अशोकभाई भी शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना समारोह में पूना • से पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज. नं. 15 और 19 के सामने । पता : अशोकभाई शाह (जीवदयावाले) ५९४, गणेश पेठ, पूना (महाराष्ट्र) पिन : ४११००२ ४७३३९६ (ओफिस) / ६५२७२२ (घर) फोन : ०२१२ - - निःशुल्क ज्ञानदान का सेवायज्ञ करते हुए आदर्श शिक्षक शुश्रावक श्री जसवंतभाई डी. दफ्तरी काल के प्रभाव से आज जब शिक्षण का क्षेत्र भी भ्रष्टाचार और अनीति से व्याप्त होने से बाकी नहीं बचा, स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए भी बड़ी राशि का डोनेशन कई जगह अनिवार्य हो गया है, तेजस्वी छात्रों के लिए भी महँगे ट्यूशन करीब अनिवार्य जैसे हो गये हैं, महँगी शिक्षण प्रणाली के कारण गरीब विद्यार्थीओं को तेजस्वी होने के बावजूद भी आगे बढ़ने के लिए कई बाधाएँ अवरोध रूप बनती हैं, शिक्षक वर्ग भी ट्यूशनों के द्वारा अधिकतर अर्थोपार्जन के प्रलोभन के कारण विद्यालयों में अध्यापन कोर्स पूरा करने के प्रति बेपरवाह बनता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है... तब ऐसे समय में आदर्श शिक्षक श्री जसवंतभाई डी. दफ्तरी का जीवन सचमुच अनुमोदनीय और अनुकरणीय है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३०३ मूलत: मोरबी (सौराष्ट्र) के निवासी किन्तु हालमें वर्षों से मलाड़ (मुंबई) में रहते हुए और जसुभाई के नामसे हजारों विद्यार्थीओं के प्रिय श्री जसवंतभाई (उ.व. ६२) सचमुच जैन समाज के लिए गौरव रूप हैं । आज तक १३० से अधिक साधु साध्वीजी भगवंतों को एवं मुमुक्षओं को B.A. तथा M.A. समकक्ष हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के विविध विषयों का निःशुल्क ज्ञानदान दिया है । ६० प्रतिशत से अधिक गुणांक प्राप्त करनेवाले अनेक मध्यम वर्गीय एवं श्रीमंत विद्यार्थीओं से वे अपने लिए कुछ भी नहीं लेते हैं किन्तु एक गरीब विद्यार्थी को उच्च अभ्यास के लिए फी देने की वे सलाह देते हैं । मलाड़ सेन्ट्रल स्कूल में आदर्श शिक्षक के रूपमें उनकी प्रतिष्ठा सभी के मानस पर अंकित है । - आज जब स्कूल- कोलेजों के आचार्य (प्रिन्सीपाल) के पद पर रहे हुए कितने अध्यापकों के जीवनमें आचार पालन के विषय में बहुत कमी दृष्टिगोचर होती है तब उनसे अत्यंत भिन्न जसवंतभाई का जीवन सदाचार की सुवास से अत्यंत मघमघायमान दिखाई दे रहा है । २९ वर्ष की भर युवावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत का स्वेच्छा से पालन करते हुए उन्होंने दूध एवं घी की समस्त वस्तुओं का हंमेशा के लिए त्याग कर दिया है । उपवास से, आयंबिल से एवं एकाशन से इस तरह तीन प्रकारों से बीस स्थानक तप की आराधना उन्होंने ३ बार की है । लगातार ११ उपवास, संलग्न ७ छठ्ठ तप, २४ तीर्थंकरों के चढते-उतरते क्रम से ६२५ एकाशन इत्यादि अनेक प्रकार की तपश्चर्या से उनका जीवन देदीप्यमान हो रहा है । प्रतिमाह १० पर्वतिथियों में वे प्रायः एकाशन करते हैं । उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका नीताबहनने भी एकांतरित ५०० आयंबिल और वर्षीतप की आराधना की है । जसवंत भाई का जन्म स्थानकवासी (छोटा संघाणी - गोंडल संप्रदाय) जैन परिवार मैं हुआ है फिर भी वे तीर्थस्थानों में वासक्षेप से जिनपूजा करते हैं । हररोज जिनमंदिर में जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । पर्वतिथियों में पाँच जिनमंदिरोमें जाकर प्रभुदर्शन करते हैं । उन्होंने शत्रुंजय महातीर्थ की Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ २ बार ९९ यात्राएँ की हैं और तलहटी की ३ बार ९९ यात्राएँ की हैं। मुंबई आदि से कुल १०८ बार पालिताना गये हैं। अपने पैसों से उन्होंने ३१ व्यक्तियों को पालिताना की यात्रा करवायी है । ३५ साल से हररोज १ सामायिक करनेका, १ घंटे तक धार्मिक सूत्रों का स्वाध्याय करने का एवं पर्वतिथियों में प्रतिक्रमण करने का नियम है । इस तरह ज्ञान - दर्शन - चारित्र और तप के संगम रूप श्री जसवंतभाई सर्वविरति चारित्र को स्वीकारने की भावना में रमणता करते हैं । उनकी यह भावना शीघ्र साकार बने यही हार्दिक शुभेच्छा । जसवंतभाई भी शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 19 के सामने । 1 पता : जसवंतभाई डी. दफ्तरी ६/२५ पोदार पार्क को. ओ. हाउसींग सोसायटी, पोदार रोड, मलाड़ (पूर्व), मुंबई : ४०००९७. फोन : ८८३४८९२ / ८४०४८९२ (घर) १३५ श्री शांतिलालभाई शाह की अद्भुत नीतिमत्ता “मामा ! मामा ! मैं आपको ढुँढते ढूँढते इतने दूर तक आ गया हूँ । मामा ! एक बड़े मजे की एवं आपके फायदे की बात है ।" " बोल भानजे ! क्या बात है ?" मामा जिला कक्षा के जाहिर बांधकाम विभाग के सरकारी एन्जिनीयर थे । समग्र गुजरातमें जहाँ जहाँ से रास्ते - मकान - पुल - इत्यादि के निर्माण कार्योंमें गैरव्यवस्था की शिकायत राज्य सरकार को मिलती वहाँ उस शिकायत की जाँच करने के लिए सरकारने उनको नियुक्त किया था । आज वे एक गाँव के विश्रांति गृह में ठहरे थे ! कल उस गाँव के पास Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ एक पुल के निर्माण कार्य में कुछ अनीति हुई है या नहीं उसकी जाँच करने के लिए उनको जाना था। - "इस पुल के निर्माण कार्य में कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है" ऐसा प्रमाणपत्र लिखने के बदलेमें उनको बहुत बड़ी राशि मिलेगी ऐसी बात उनके भानेजेने पुल निर्माण से संबंधित व्यकित की और से अपने मामा को की। - मामा की ३ सुपुत्रियाँ एवं २ सुपुत्र कोलेज-स्कूल में पढते थे । समाज में व्यवस्थित व्यवहार निभाने के लिए उनको रूपयों की बहुत जरूरत थी और सामने से बड़ी राशि मिलने की बात आयी थी मगर ये एन्जिनीयर कोई अलग ही मिट्टी से बने हुए थे । उन्होंने रूपये लेने की बात का स्वीकार नहीं किया और स्पष्ट शब्दों मे प्रत्युत्तर दिया कि -"जाँच करने पर जो भी वस्तुस्थिति का पता चलेगा उसे स्पष्ट शब्दों में उपरी अधिकारी को बताउँगा । पैसा मेरी पवित्र फर्ज में बाधा नहीं डाल सकेगा ।" - "लेकिन मामा ! इतनी बड़ी राशि सामने से मिलनी मुश्किल है, और इतनी राशि देनेवाला भी दूसरा कोई जल्दी नहीं मिलेगा ।" .. "भानजे ! राशि देनेवाला तो मिल भी जाएगा लेकिन उसका अस्वीकार करनेवाला नहीं मिलेगा । रूपयों के खातिर मैं अपने प्रामाणिकता गुण को बेचना नहीं चाहता !!!" मामा ने बहुत स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया ! इससे पहले भी उनको पालनपुर जिले में एन्जिनीयरींग का कार्य सौंपा गया था । झूठी उपस्थिति, झूठे नाप लिखने के द्वारा लाखों रूपयों की प्राप्ति हो सकती थी, ऐसे प्रसंगों में भी उन्होंने नीतिमत्ता गुण के द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र रखी थी। प्रामाणिकता-नीतिमत्ता के परम आदर्शयुक्त इन सज्जन का शुभ नाम है शांतिलालभाई शिवलाल शाह । वे आज सेवा निवृत्त कार्यकारी एन्जिनीयर हैं । आदर्श श्रावक जीवन द्वारा वे अपना मनुष्य जन्म सफल बना रहे हैं। शांतिलालमा की प्रामाणिकता की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । शंखेश्वर तीर्थमें आगाज अनुमोदना समारोह में शांतिलालभाई भी पधारे थे । उनकी तस्र के लिए देखिए पेज नं. 19 के सामने । बहुरत्ना वसुंधरा - २-20 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पता : शांतिलालभाई शिवलाल शाह . १८/१०५, विजयनगर कोलोनी, विजयनगर, नारणपुरा, अहमदाबाद-३८००१३. फोन : ७४८२३१३ (घर) ३२ सालको उसस आजीवन बहाचर्य एकाशन आदि के उत्तम आराधक श्री छोटलालमाई मश्कारीया मूलत: सौराष्ट्र के सुदामड़ा गांव के निवासी और हालमें अहमदाबाद में रहते हुए सुश्रावक श्री छेयलालभाई भीखाभाई मश्कारीया (उ.व. ६२) की तप-त्याग की अत्यंत अनुमोदनीय आराधना निम्नोक्त प्रकार से है। (१) ३२ सालकी उम्र से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत (२) ३२ सालकी उम्र से आजीवन एकाशन तप करने का नियम (३) ३२ साल की उम्र . से दूध-घी-दही-तेल-गुड़ और कढ़ा विगई इन ६ विगईयों में से ५ विगइयोंका त्याग (४) आजीवन भूमि संथारे का नियम (५) आजीवन पाँवमें जूते आदि का त्याग (६) १ बार मासक्षमण तप (७) ३ बार वर्षीतप (८) २ बार सिद्धि तप (९) १ बार २१ उपवास (१०) २ बार १६ उपवास (११) २ बार ११ उपवास (१२) ६ बार अट्ठाई तप (१३) २ बार शत्रुजय तप (१४) २ बार सिद्धिवधू कंठाभरण तप (१५) १ बार १०८ पार्श्वनाथ तप (१६) १ बार लगातार १००८ आयंबिल तप (१७) १ बार ५०० आयंबिल तप (१८) ४५ और ३५ दिन के दो उपधान तप (१९) वर्धमान आयंबिल तप की ८२ ओलियाँ (२०) १ बार पालिताना में चातुर्मास ... इत्यादि । छालालभाई की आराधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना ! उनकी तस्वीर के लिए देखिये पेज नं. 15 के सामने । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पता : छोयलालभाई भीखाभाई मश्कारीया ९७/५८०, विजयनगर, नारणपुरा, अहमदाबाद-३८००१३. फोन : ७४१९२३३ (घर) महातपस्वी पंडितश्री नरेशभाई लालजीभाई शाह । मूलतः कच्छ के निवासी किन्तु वर्षों से मुंबई में रहते हुए पंडित श्री नरेशभाई की उग्र तपश्चर्या सचमुच अनुमोदनीय है । ज्ञानयोग के साथ साथ ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या का समन्वय विरल व्यक्तियों में ही मिल सकता है । उन्होंने निम्नोक्त प्रकारसे तपश्चर्या द्वारा मनुष्य देह को सार्थक बनाया। (१) १२२ उपवास (२) १०८ उपवास (३) ७२ उपवास (४) ६८ उपवास (५) ४५ उपवास- ३ बार (६) ३६ उपवास (७) मासक्षमण - ६ बार (८) शंखेश्वर तीर्थमें ३०० अद्रुम तप इत्यादि । ऐसे महा तपस्वी पंडितवर्य श्री नरेशभाई हाल हमारे बीच विद्यमान नहीं हैं । कुछ ही साल पूर्व उनका स्वर्गवास हो गया है। उनके सुपुत्र आदि शंखेश्वर महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में पधारे थे और विशिष्ट चढावा बोलकर सभी आराधकों का बहुमान करने का लाभ भी उन्होंने लिया था । स्व. पं. श्री नरेशभाई के सुपुत्र की तस्वीर के लिए देखिए पेज. नं. 19 के सामने. पता : पं. नरेशभाई लालजीभाई शाह पद्मावती जैन मंदिर, २/६ अमीना चाल, हरियाली विलेज म्यु. स्कूल के सामने, विक्रोली, (पूर्व) मुंबई - ४०००८३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ वर्धमान आयबिल तप की लगातार |१०३ ओली के बेजोड़ भाराधक, महातपस्वी श्री रतिलालभाई खोडीदास शिष्य पूछता है - 'जितं हि केन ?' अर्थात् इस जगत्में -जीवन संग्राममें सचमुच कौन विजय प्राप्त कर सकता है ? तब प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं कि - 'रसो वै येन' अर्थात् जिसने रस = रसनेन्द्रिय के उपर विजय प्राप्त किया उसने ही जीवन संग्राम में विजय प्राप्त किया । ___ शास्त्रमें कहा है कि, 'अक्खाण रसणी' अर्थात् पाँच इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय को जीतना सबसे अधिक दुष्कर है । जो रसनेन्द्रिय को जीत सकता है वह बाकी की इन्द्रियों को एवं मन को भी जीत सकता है और वही साधक आत्मविजेता बनकर जगत विजेता -जगत्पूज्य बन सकता है। रसनेन्द्रिय के उपर विजय पाने के लिए आयंबिल तप यह जिनशासन की जगत् को अनुपम देन है। आयंबिल में दूध-दही-घी-तेल-गुड़ और कढा विगई इन छह विगइयों से (विकारोत्पादक द्रव्यों से) सर्वथा रहित निर्विकारी सात्त्विक आहार से केवल १ टंक भोजन करने का होने से इन्द्रियाँ एवं मन निर्विकारी बनते हैं । चित्त सात्विक और प्रसन्न बनता है । ब्रह्मचर्य का पालन शुलभ होता है । शरीर नीरोगी एवं हल्का हो जाता है । फूर्ति में . अभिवृद्धि होती है एवं मन शांत होकर जप-ध्यानमें आसानी से लीन हो सकता है। उपवास से भी उपरोक्त लाभ मिल सकते हैं किन्तु उपवास मर्यादित प्रमाणमें हो सकते हैं और आयंबिल तो महिनों तक या वर्षों तक भी लगातार हो सकते हैं । होटेल, रेस्टोरन्ट, खाने-पीने की लारियाँ एवं फास्ट फुड के इस जमानेमें भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय आदिका विवेक भूलकर मनुष्य जीने के लिए खाने के बजाय मानो खाने के लिए जीता हो ऐसा लगता है । फलतः कई नये नये असाध्य रोगोंने मानव शरीरमें प्रवेश किया है तब Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३०९ सर्वज्ञ-सर्वदर्शी ऐसे जिनेश्वर भगवंतोंने बताया हुआ आयंबिल तप शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक आरोग्य के लिए अत्यंत आशीर्वाद रूप सिद्ध हुआ है । इसीलिए तो ऐसे विलासी विज्ञान युगमें भी हजारों आराधक, विषमिश्रित मोदक तुल्य परिणाम कटु ऐसे स्वादिष्ट भोजन का स्वेच्छा से त्याग करके अमृत तुल्य आयंबिल तप को मानो जीवन व्रत बनाया हो उसी तरह चढते परिणाम से आयंबिल तप की ओली के उपर ओली सहर्ष करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । आयंबिल तपकी आराधना भी नवपदजी की ओली, एकांतरित या संलग्न ५०० या १००० आयंबिल, पर्वतिथियों में आयंबिल इत्यादि अनेक तरह से होती हैं, मगर वर्धमान आयंबिल तप की महिमा अपने आप में अनूठी है, क्योंकि इसमें वर्धमान याने आगे बढ़ते हुए क्रमसे ओलियाँ करने का विधान होने से अधिक अधिकतर ओलियाँ करने का उत्साह वृद्धिगत होता ही रहता है। इसी वजह से आज सैंकडों तपस्वीओंने वर्धमान तपकी १०० ओलियाँ पूर्ण करके पुनः दूसरी बार वर्धमान तप की नींव डालकर ओलियाँ करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, और कोई विरल आत्माएँ तो २ बार सौ ओलियाँ पूर्ण करके तीसरी बार इसी तप की नींव डालकर आगे बढ रहे हैं । ऐसे परम तपस्वी आत्माओं के दर्शन, वंदन या स्मरण मात्र से भी हमारी अनंत कर्मराशि की निर्जरा होती है । एक आयंबिल के बाद तुरंत एक उपवास करने पर प्रथम ओली पूर्ण होती है, फिर लगातार दो आयंबिल और एक उपवास करने से दूसरी ओली पूर्ण होती है । इस तरह क्रमशः आगे बढ़ते हुए पाँच ओलियाँ लगातार करने से कुल १५ आयंबिल और ५ उपवास के द्वारा २० दिनों में वर्धमान तप की नींव डाली जाती है । मकान की नींव डालने के बाद अनुकूलता के मुताबिक उपर की मंजिलें बनाई जा सकती हैं, उसी तरह लगातार ५ ओलियों द्वारा वर्धमान तपकी नींव डालने के बाद छठ्ठी, सातवीं इत्यादि ओलियाँ अनुकूलता के अनुसार लगातार या कुछ समय के व्यवधान के बाद भी की जा सकती Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ हैं। यदि एक भी दिन पारणा किये बिना लगातार १०० ओलियाँ परिपूर्ण की जायं तो कुल ५०५० आयंबिल एवं १०० उपवास द्वारा १४ साल, ३ महिने एवं २० दिन लगते हैं। भूतकाल में श्रीचंद्रकेवली एवं महासेना और कृष्णा नामकी साध्वीजी भगवंतोंने वर्धमान आयंबिल तपकी १०० ओली के द्वारा कर्म निर्जरा करके कैवल्य एवं मुक्ति की प्राप्ति की होने की बात शास्त्रों में उल्लिखित की गयी है । आज निर्बल संहनन होने के बावजूद भी चतुर्विध श्री संघमें से सैंकडों आत्माओंने १०० ओलियाँ परिपूर्ण की हैं । उनमें से ७० मुनि भगवंत, १७९ साध्वीजी भगवंत, ३६ श्रावक एवं ३८ श्राविकाओं की नामावलि प्रस्तुत पुस्तक की गुजराती आवृत्तिमें प्रकाशित की गयी है । स्थान संकोच के कारण उसे पुनः यहाँ प्रकाशित नहीं किया गया है। उनमें से अनेक तपस्वीओंने कई ओलियाँ केवल चावल और पानी से ही की होंगी । कई तपस्वीओं ने कवल एक ही धान्य से या एक ही द्रव्य से कुछ ओलियाँ पूर्ण की होंगी । कई महानुभावों ने ठाम चौविहार ओलियाँ की होंगी । कई साधुसाध्वीजी भगवंतोंने उग्र विहारों में भी छोटे छोटे गाँवोंमें सहजता से मिल सकें ऐसे चने चुरमुरे या खाखरे एवं पानी से आयंबिल करके ओलियाँ की होंगी । कई तपस्वीओंने लगातार ५०० या १००० से भी अधिक दिनों तक लगातार ओलियाँ की होंगी। इन सभी तपस्वीओं की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । अब हम वर्धमान तप की लगातार १०३ ओलियाँ परिपूर्ण करनेवाले महातपस्वी, वीरमगाम (गुजरात) के श्राद्ववर्य श्री रतिलालभाई खोडीदास की बेजोड़ तप सिद्धि की अनुमोदना करेंगे । पान, बीड़ी, तम्बाकु, रात्रिभोजन इत्यादि के व्यसनी रतिलालभाई के जीवनमें सत्संग के प्रभाव से मोड़ आया एवं उन्होंने ५७ साल की उम्र में वि. सं. २०१७ में भाद्रपद वदि १० के दिन वर्धमान तप का प्रारंभ किया। इस तपकी नींव के २० दिन पूरे होते ही उनके दिल में मनोरथ उठा कि अगर २० दिन तक यह तपश्चर्या हो सकी तो आगे भी क्यों नहीं Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३११ होगी ? और उन्होंने पारणा किये बिना तपश्चर्या चालु रखी । फिर तो दूसरे वर्ष प्रवर्धमान परिणामों के कारण आजीवन आयंबिल चालु रखने के संकल्प के साथ लगातार १०० ओलियाँ पूर्ण करने की भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की ! यह भीष्म प्रतिज्ञा ऐसी कोई पुण्य, पल में हुई कि रतिलालभाई के जीवन में उत्तरोत्तर भावना की बाढ बढती ही गई । आयंबिल का तप स्वाभाविक रूप से भी कष्ट साध्य है ही, लेकिन रतिलालभाई ने विविध अभिग्रहों के द्वारा उसे विशेष रूपसे कष्ट साध्य बनाया। वि. सं. २०१९ से उन्होंने ठाम चौविहार (आयंबिल करते समय ही पानी पीना) और बिना नमक के केवल ५ द्रव्यों से ही आयंबिल करने की प्रतिज्ञा ली । वि. सं. २०२३ से केवल दो ही द्रव्य (रोटी और दाल) द्वारा ठाम चौविझर आयंबिल करने का अभिग्रह लिया । ऐसी भीष्म आयंबिल तपश्चर्या के दैरान भी बीच बीच में उपवास छठ्ठ आदि भी करते रहते थे । इस तरह विविध अभिग्रहों के द्वारा वर्धमान तप को भीष्मातिभीष्म बनाकर वि. सं. २०३२ में कार्तिक सुदि ६ के दिन रतिलालभाईने लगातार १०० ओलियाँ परिपूर्ण की तब विविध व्यक्ति एवं अनेक संघों की उदार भावना से, वीरमगाम श्री जैन स्वयंसेवक मंडल के अथक प्रयत्नों से भव्यातिभव्य समारोह का आयोजन किया गया था । उस आयोजन में प. पू. वर्धमान तपोनिधि आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय राजतिलकसूरीश्वरजी म.सा. की १९५ (१०० + ९५) वी ओली के पारणे का प्रसंग भी सम्मिलित होने से इसकी अनुमोदना के आंदोलन भारतभर में व्याप्त हो गये थे । लगातार १०० ओलियों के बाद भी रतिलालभाईने अपनी तपोयात्रा आगे बढाई मगर १०३ ओलियाँ पूर्ण होने के बाद उनकी शरीर शक्ति एकदम क्षीण हो गयी और अनेक लोगों के आग्रह से उनको पारणा करना पड़ा, मगर केवल ७ महिनों तक एकाशन-बियासन आदि करने के बाद पुनः बिना नमक के दो द्रव्यों से आयंबिल चालु किये गये और ऐसे भीष्म आयंबिल तपकी आराधना करते करते वि. सं. २०३४ में चैत्र वदि ५ के दिन श्री रतिलालभाई का समाधि पूर्वक स्वर्गवास हुआ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ इस तरह तपोमय, समाधिमय और समतामय जीवन द्वारा वर्तमान युगमें एक नया ही कीर्तिमान स्थापित करके श्री रतिलालभाईने बिदा ली। उनकी आदर्श एवं आश्चर्यप्रद तपःसिद्धि को कोटिशः नमन । रतिलालभाई के सुपुत्र धीरुभाई वर्तमान में विद्यमान हैं । वीरमगाम के कोई भी श्रावक-श्राविका दीक्षा लेते हैं उनकी अनुमोदनार्थ प्रतिमाह दीक्षातिथि के दिन वे आयंबिल करते हैं । इसके अलावा भी वे अनेकविध तपश्चर्या यथाशक्ति करते रहते हैं । पता : धीरुभाई रतिलालभाई खोडीदास मु.पो. वीरमगाम, जि. अमदाबाद (गुजरात) पिन : ३८२१५० लगातार दश हजार से अधिक आयंबिल | (१४० ओली) के परम तपस्वी श्राध्दवर्य श्री दलपतमाई बोथरा मूलत: राजस्थान में नागौर में दि. १५-९-१९३६ के दिन जन्मे हुए और कई वर्षों से मद्रास में रहते हुए परम तपस्वी श्राद्धवर्य श्री दलपतभाई बोथरा (उम्र वर्ष ६३) ने लगातार दश हजार से भी अधिक आयंबिल (लगातार १४० ओलियाँ) की तपश्चर्या करके एक अनूठा विश्वविक्रम प्रस्थापित किया है । विशेषतः उल्लेखनीय बात यह है कि सामान्यतः वर्धमान आयंबिल तपकी १०० ओलियाँ परिपूर्ण होने के बाद यदि तपस्वी को वर्धमान तप की ही आराधना आगे चालु रखनी होती है तो वे पुनः वर्धमान तप की नींव (१ से ५ ओली लगातार) डालकर दूसरी बार ६-७-८ इत्यादि ओलियाँ करते हैं। कुछ विरल तपस्वियोंने ऐसा न करते हुए, १०० ओलियों के बाद १०११०२-१०३ इत्यादि क्रमसे प्रायः १०८ या १११ ओलियाँ की हैं । मगर परमतपस्वी सुश्रावक श्री दलपतभाईने १०१-१०२-१०३ इत्यादि क्रमसे लगातार १४० ओलियाँ करके सचमूच एक बेमिसाल अद्वितीय और अद्भूत कीर्तिमान प्रस्थापित किया हैं। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३१३ दूसरा कीर्तिमान यह भी है कि भगवान श्री महावीर स्वामी के शासन में वर्धमान तप की १०० ओलियाँ पूर्ण करनेवाले हजारों तपस्वी चतुर्विध श्री संघ में हुए हैं और आज भी सैंकडों ऐसे तपस्वी विद्यमान हैं परन्तु उनमें से 'लगातार १०० ओलियाँ (१०३ ओली) परिपूर्ण करनेवाले वीरमगाम के स्व. सुश्रावक श्री रतिलालभाई के सिवाय अन्य कोई सुना नहीं गया है । मगर परम तपस्वी सुश्रावक श्री दलपतभाईने एक भी पारणा किये बिना लगातार १४० ओलियाँ करके इसमें भी बेजोड़ कीर्तिमान प्रस्थापित किया है । बाल ब्रह्मचारी श्री दलपतभाई ने वर्धमान तप प्रारंभ करने से पूर्व अठ्ठम के पारणे अठ्ठम से पाँच वर्षीतप भी किये हैं !!! माता सिरीयाबाई के इन सपूतने २० साल की उम्र से अपनी आत्मा को तप आराधना में जोड़ दिया है ! इसी वर्ष (वि. सं. २०५६ ) में चैत्र महिने में राजस्थान में मेड़ता रोड़ ( फलवृद्धि पार्श्वनाथ ) तीर्थ में शांतिदूत प. पू. आ. भ. श्री विजय नित्यानंदसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें श्री नवपदजी की सामूहिक आराधना हुई थी तब सुश्रावक श्री दलपतभाई बोथरा भी वहाँ पधारे थे एवं उन्होंने वहाँ १३९ ओली की पूर्णाहुति के साथ तुरंत १४० वी ओली का प्रारंभ किया था। ऐसे रसनेन्द्रिय विजेता परम तपस्वी श्री दलपतभाई बोथरा की उत्कृष्ट तपश्चर्या की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । १४० पता : श्री दलपतभाई ताराचंदजी बोथरा C/o हुक्मीचंदजी समदड़ीया, १५, विरप्पन स्ट्रीट, सोवकार पेठ, चैन्नई (मद्रास) पिन : ६०००७९. फोन : ५८७५२१ बेलगाम जिले के सर्वोत्तम आराधक निपाणी के युवा डोक्टर अजितभाई दीवाणी कुछ लोगों को जब कोई साधु-संत धर्म करने की प्रेरणा करते हैं, तब वे प्रत्युत्तर देते हैं कि, "महाराज साहब ! अभी तो रूपये कमाने Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ की उम्र है, संसार की मौज मजा करने की वय है, युवावस्था में धर्म करने की क्या जरूरत है ? जब व्यवसाय से निवृत्त होंगे तब वृद्धावस्था में प्रभुगुण गायेंगे" (टाईम पास करने के लिए !).. इत्यादि । लेकिन ज्ञानी भगवंतोंने तो युवावस्था में ही खास धर्म करनेका कहा है । वृद्धावस्थामें इन्द्रियाँ शिथील हो जाती हैं, शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । तब, यदि बाल्यावय से या युवावस्थामें धर्म के संस्कार दृढ नहीं किये होते हैं तो प्रभुका नाम स्मरण करने की बात तो दूर रही, किन्तु प्रभुका नाम सुनना भी अरुचिकर लगे तो आश्चर्य की बात नहीं । इसलिए युवावस्था में शरीर सशक्त होता है तभी ही विशिष्ट कोटि की धर्म आराधना और आत्मसाधना करके अनंत भवों में की हुई भूलों को सुधार लेनी चाहिए । कर्णाटक राज्य के बेलगाम जिले के निपाणी गाँव में रहते हुए डोक्टर अजितभाई हीराचंद दीवाणी (हाल उम्र व. ३६) को यह बात पूर्व के पुण्योदय से सत्संग द्वारा समझ में आ गयी और फौरन तदनुसार आचरण करना भी प्रारंभ कर दिया । वि. सं. २०४३ में २५ साल की उम्र में प. पू. आ. भ. श्री विजय धर्मजित्सूरिजी म.सा. की प्रेरणा से उन्होंने हररोज जिनपूजा और नवकारसी करने का प्रारंभ कर दिया । उस के बाद उसी साल में पू. मुनिराज श्री जयतिलकविजयजी म.सा. का चातुर्मास निपाणी में होने पर उनकी प्रेरणा से स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा और हररोज चौविहार करने का प्रारंभ कर दिया । वि. सं. २०४८ में धर्मचक्रतप प्रभावक प.पू. पं. श्री जगवल्लभविजयजी गणिवर्य म.सा. (हाल आचार्य) के चातुर्मास में उनकी प्रेरणा से ८२ दिनका धर्मचक्र तप किया, नवपदजी की आयंबिल की ओली की और नित्य बियासन और उभय काल प्रतिक्रमण करने का प्रारंभ कर दिया। जिंदगी में ५०० आयंबिल पूरा करने की भावना से पर्वतिथियों में आयंबिल करते हैं । हररोज प्रातः काल में १ सामायिक एवं प्रतिक्रमण करते हैं । हररोज २॥ घंटे तक भावपूर्वक स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी जिनपूजा करते हैं। जिनवाणीश्रवण का मौका वे कभी चूकते नहीं हैं। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३१५ प्रति रविवार के दिन वे कुंभोजगिरि तीर्थ की यात्रा करने के लिए अचूक जाते हैं और वहाँ के दवाखाने में अवेतन सेवा देते हैं । गरीबों के वे आधार हैं। गरीबों को निःशुल्क सेवा देते हैं । अपने पिताजी को वे कहते हैं कि, 'मुझे किसी को लूटना नहीं है, मुझे तो सभी की सेवा करनी है "। कैसी उदात्त भावना ! सारे बेलगाम जिले के सभी पुरुष आराधकों में डो. अजितभाई प्रथम नंबर के आराधक हैं । अन्य जैन डोक्टर भी अजितभाई के जीवनमें से प्रेरणा पाकर आराधनामय एवं सेवालक्षी जीवन जीने लगें तो आत्मकल्याण के साथ समाज का उद्धार एवं शासन की कैसी अद्भुत प्रबावना हो सकती है ! __इसी तरह जैन वकील, जैन प्रोफेसर, जैन शिक्षक, जैन एन्जिनीयर इत्यादि व्यावहारिक दृष्टिसे अग्रगण्य माने गये महानुभाव भी इस दृष्टांतमें से प्रेरणा लेकर अपने अपने जीवन को आराधनामय और निःस्वार्थ सेवालक्षी बनाएँ तो कितना अच्छा ! डॉ. अजितभाई के ज्येष्ठ बंधु दीपकभाई भी वि. सं. २०४८ के चातुर्मास से अजितभाई की तरह ही आराधना में लीन हो गये हैं ।। ऐसे धर्मात्माओं की एवं उनको धर्म में जोड़नेवाले महात्माओं की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोहमें डॉ. अजितभाई भी पधारे थे । उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 18 के सामने । पता : डॉ अजितभाई दीवाणी गुरुवार पेठ, मु.पो. निपाणी, जि. बेलगाम (कर्णाटक) पिन : ५९१२३७ फोन : ०८३३८ - २०४८५/३१४८५ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ भक्ति-मैत्री-शद्धि के त्रिवर्णी संगमरूप बजाड तपस्वी शेषमलजी एका मूलतः सादड़ी (राजस्थान) के निवासी किन्तु कई वर्षों से मद्रासमें रहते हुए बेजोड़ तपस्वी श्राद्धवर्य श्री शेषमलजी पंड्या अध्यात्मयोगी प. पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. के सत्संग से विशेष रूप से आराधना साधनामय जीवन जी रहे हैं । उन्होंने वर्धमान आयंबिल तपकी १०० + १५ ओलियाँ की हैं। उनमें से १ से ९४ तक की ओलियों में एकांतरित उपवास करते थे । सभी ओलियों के सभी आयंबिल ठाम चौविहार पुरिमनु के पच्चक्खाण पूर्वक बहुधा दो ही द्रव्यों से अभिग्रह के साथ किये हैं । ६८ वी ओली केवल चावल और पानी से ही की। १०० वी ओली एक ही धान्य से की । उनके घर में सुंदर गृह जिनालय है । तपश्चर्या और प्रभुभक्ति के साथ साथ अनुकंपा और जीवमैत्री भी बहुत अच्छी तरह से उन्होंने आत्मसात् की है । मद्रास में गरीबों के लिए नित्य भोजन की अद्भुत व्यवस्था द्वारा वे अनुमोदनीय शासन प्रभावना कर रहे हैं। इस तरह गृह जिनालय आदि के द्वारा श्रेष्ठ जिनभक्ति, दीनदुःखियों के प्रति अनुकंपा द्वारा जीवमैत्री और बेजोड़ तपश्चर्या के द्वारा आत्मशुद्धि के त्रिवर्णी संगम द्वारा सुश्रावक श्री शेषमलजी पंड्या अपने मानवभवको सार्थक बना रहे हैं और अनेकों के लिए उत्तम प्रेरणा रूप बन रहे हैं । उनके जीवनमें रहे हुए भक्ति-मैत्री-शुद्धि आदि सद्गुणों की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पता : शेषमलजी पंड्या ७४ ई. वी. के. सम्पथ रोड, वेपेरी चुलाई, चेन्नई-६००००७ फोन : ०४४-५८९७६८-५६४६९९ (घर) मद्रासमें श्री ललितभाई शाह नाम के सुश्रावक भी नवकार महामंत्र के विशिष्ट साधक एवं प्रभावक हैं । वे भी अध्यात्मयोगी प. पू. पंन्यास प्रवर श्रीभद्रंकर विजयजी म.सा. के परम भक्त एवं कृपापात्र श्राद्धवर्य हैं। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पता : श्री ललितभाई एम. शाह १, एलीफन्ट गेट स्ट्रीट, सहकार पेठ, चेन्नई (मद्रास) - ६०००७९ फोन : ५८१५४८ (निवास) इसके अलावा मद्रासमें श्री शौरीलालभाई नाहर नामके सुश्रावक रहते हैं । उनके मित्र विशिष्ट आराधक थे । वे देवगति को प्राप्त हुए हैं और अपने सुपुत्र जितेन्द्रकुमार के शरीर में प्रवेश करके अपने मित्र शौरीलालभाई द्वारा पूछे गये धर्म संबंधी अनेक प्रश्नों के प्रत्युत्तर देते हैं। कई साधु - साध्वीजी भगवंत भी धर्म संबंधी अनेक प्रश्न उनको पूछते हैं । यदि किसी प्रश्नका प्रत्युत्तर देना उनके अवधिज्ञान की मर्यादा से बाहर होता है तब वे महाविदेह क्षेत्र में विहरमान श्री सीमंधरस्वामी को पूछकर, परमात्मा से संप्राप्त प्रत्युत्तर भी देते हैं । मगर ऐसे साधकों को कुतूहल प्रेरित सामान्य प्रश्न पूछकर उनका अमूल्य समय गंवाना नहीं चाहिए । (ता. क. हालमें ही ज्ञात हुआ है कि श्री शौरीलालजी का १ . साल पहले स्वर्गवास हो गया है ।) पता : श्री शौरीलालभाई नाहर (श्री जितेन्द्रकुमार) २०, वीनायगा मैसीरी स्ट्रीट चेनई (मद्रास) - ६०००७९. 888888 सुंदरभाई का सच्चा सौदर्य ___ गुजरात के सुंदरभाई के इस अत्यंत अनुमोदनीय प्रसंग को पढकर सभी सद्गृहस्थों को शुभ संकल्प करना चाहिए । सोनोग्राफी के बाद उनकी पत्नी आदि सभीको चिकित्सकने कहा कि, 'गर्भ में बालिका है और वह अपंग है । ज्यादा से ज्यादा २० साल से अधिक जिन्दा नहीं रह सकेगी। शायद ६ महिनों में भी इसकी आयु समाप्त हो सकती है। उसके मस्तकका ही केवल विकास होगा, शरीर का बाकीका हिस्सा अविकसित ही रहेगा । उसकी आकृति राक्षसी जैसी होगी' इत्यादि समझाकर चिकित्सक ने उनको गर्भपात करा लेनेका आग्रह किया । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ लेकिन धर्मप्रेमी परिवार के सदस्यों ने विचार विनिमय करके गर्भपात नहीं करवाने का निर्णय किया । कुछ महिनों के बाद चिकित्सक की रिपोर्ट के मुताबिक राक्षसी जैसी बच्ची का जन्म हुआ । उसका नाम 'विरति' रखा गया । उसके शरीर में से अक्सर मवाद निकलता रहता था। उस धर्मिष्ठ परिवार ने निर्णय किया कि इसको बहुत धर्म आराधना करवायेंगे और पुण्यशाली बना देंगे । ४० दिन के बाद उसको स्नान कराकर जिनपूजा करवायी । शरीरमें से अक्सर मवाद निकलता होने के कारण केवल मूलनायक प्रभुजी के चरणांगुष्ठ के उपर ही तिलक करवाते थे । शत्रुजयादि अनेक स्थावर तीर्थों की एवं आचार्य भगवंतादि अनेक जंगम तीर्थों की यात्रा और वंदन विरति को करवाने लगे । आचार्य भगवंतादिको उसके माता-पिता कहते थे कि, 'अल्प समय के अतिथि को हम स्थावर-जंगम तीर्थों की यात्रा-वंदन करवाते रहते हैं । शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने से इसका भव्यत्व निश्चित हो गया है। पूर्व जन्म के किसी पाप के उदय से इसको ऐसा शरीर मिला है मगर अब उसका पुण्य बढे और इसकी सद्गति एवं आत्महित हो इसके लिए हमने इसको बहुत धर्म करवाया है। केवल महिनोंमें उसकी आयु समाप्त हो गयी । अंतिम समयमें उसको अच्छी आराधना करवायी गयी । यह बालिका कितनी भाग्यशाली कि इसको ऐसे धर्मी माता-पिता मिले जिन्होंने गर्भपात न कराते हुए इसको अच्छी तरह से आराधना करवायी । स्वार्थ से भरपूर इस संसारमें इसके माँ-बाप इत्यादि ने इसके आत्मा की हितचिन्ता की। भाग्यशाली वाचक वृंद से विज्ञप्ति है कि इस दृष्टांत को पढकर आप भी संकल्प करें कि अपने बच्चों में भी धर्म संस्कारों का सिंचन करेंगे और उनको खूब धर्म आराधना करवायेंगे । आपके संतान तो इससे बहुत पुष्यशाली हैं । उनको अच्छी तरह से धर्म आराधना करवाने से आपको भी ऐसा पुण्योपार्जन होगा कि जिससे आपको भी भवोभव धर्मनिष्ठ मातापिता मिलेंगे और जन्म से ही विशिष्ट कोटिकी धर्मसामग्री संप्राप्त होगी। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ १४३ शादी के दिन रात्रिभोजन त्याग । एक अजीब लग्नोत्सव की बात ध्यान से पढ । के पिताओंने निर्णय किया कि हम रात्रिभोजन नहीं करवायेंगे । कन्या के पिताकी ओर से शादी के बाद शामको अनेक मेहमानों के साथ दामाद को भोजन करवानेका था । शादी के बाद पति-पत्नी प. पू. आचार्य भगवंत को वंदन करने के लिए गये थे । ट्राफिक इत्यादि कारणों से वापस लौटने में बहुत देर हो गयी । सूर्यास्त होने में केवल ५ मिनिट की ही देर थी । कन्या के पिता उलझन में पड गये कि यदि भोजन का निषेध करेंगे तो दामाद नाराज हो जायेंगे तो जीवन पर्यंत मेरी बेटी को परेशान करेंगे । अब क्या किया जाय ? १४४ ३१९ लेकिन जैसे ही पति-पत्नी भोजन के पंडाल में पधारे कि वर के पिताने उद्घोषणा की कि, 'सूर्यास्त हो रहा है इसलिए रसोड़ा बंद किया जाय' । कन्या के पिता की उलझन दूर हो गयी । रात्रिभोजन के पाप से सभी बच गये । शादी के दिन भी सभी को रात्रिभोजन के पाप से ऐसे धर्मप्रेमी श्रावकरन बचाते हैं । तो हे प्रिय पाठक । आप भी मन को दृढ करके नरकदायक रात्रिभोजन के पाप से अवश्य बचने का संकल्प करें। शादी के प्रसंग में सभी पापों का त्याग ! शादी करते हुए एक युवक की पापभीरुता को आप हाथ जोड़कर पढें । अपनी शादी के प्रसंग में पिताजी आदि के समक्ष उसने स्पष्टता की कि, 'इस प्रसंगमें रात्रिभोजन, बर्फ और अन्य किसी भी प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग नहीं होना चाहिए ।' शादी के निमित्त का Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० । बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ भोजन भी इसी कारण से दोपहर को ही रखा गया । पानी को ठंडा करने के लिए उसने जमीन में गड्ढे बनवाकर उनमें काली मिट्टी से बनी हुई नव कोठियाँ रखवायीं । उनमें पानी भरवाकर ७ दिन तक रखा । हररोज उस पानी को छाना जाता था । शादी के प्रसंग में बर्फ का उपयोग किये बिना भी फिज जैसा ठंडा पानी पीकर सभी को अत्यंत आश्चर्य हुआ । सत्कार समारंभ इत्यादि भी इस पापभीरु युवक ने दिनके समय में ही रखवाया था । लेकिन बिदाई का मुहूर्त रात्रि के समय में ही था । सामाजिक रीति-रिवाज के मुताबिक उस वक्त सभी को चाय पीलानी पड़े ऐसी परिस्थिति थी लेकिन युवक ने अपने पिताजी को स्पष्ट कह दिया कि, 'हमें रात को किसी को भी चाय नहीं पीलानी है ।' फिर भी लोकरीति के कारण पिताजी यह पाप न करें इसलिए उस युवकने अपने मित्रों के साथ मिलकर एक योजना बना ली थी । बिदाई के समय में ट्रे में चाय लायी जा रही थी तब उसके मित्रोंने दूर से ही उसे देखकर वहाँ जाकर चाय जप्त कर के धरती में डाल दी । शादी करते हुए युवक की भावना कितनी उत्तम ! आप भी अपने मन को दृढ करके छोटे मोटे बहानों से अभक्ष्य आदि भयंकर पापों से बचें एवं दूसरों को भी बचायें यही मंगल भावना । | 'कम्मे सूरा सो घम्मे सूरा' चेइन स्मोकर १४५ धनजीभाई बने उत्कृष्ट आराधक पू. पंन्यास श्री भद्रशीलविजयजी म.सा. एक सुभाषित में कहा गया है कि 'सतां संगो हि भेषजम्' अर्थात् सत्पुरुषों का संग भवरोग का निवारण करने के लिए उत्तम औषध है । ___ संत तुलसीदासने भी कहा है कि 'एक घड़ी धी घड़ी, आधी में पुनि आध । तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध' । उपरोक्त सुभाषितों की यथार्थता हमें धनजीभाई के निम्नोक्त दृष्टांतमें देखने मिलेगी । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मूलत: कच्छ-अबडासा तहसील के सांधव गाँव के निवासी किन्तु व्यवसाय के निमित्त से कलकत्ता में रहते हुए धनजीभाई शिवजी शाह अपने जीवन की पूर्वावस्था में सत्संग के अभाव से जैनाचार से विपरीत जीवन जी रहे थे । रातको १२ बजे रात्रिभोजन, जमीकंद का भक्षण, और हररोज गोल्ड स्लेक सीगारेट के ३ - ४ डिब्बे जितना धूम्रपान इत्यादि उनके जीवनमें सहज हो गया था । - लेकिन किसी धन्य क्षण में वि. सं. २०११ में ३८ साल की उम्रमें पूर्व जन्म का कोई पुण्यानुबंधी पुण्य उदय में आया और उन्होंने प्रथम बार ही व्याख्यान वाचस्पति प. पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. का व्याख्यान सुना । केवल एक ही प्रवचन के श्रवण से उनके हृदयमें सुसुप्त रूपसे रहे हुए जन्म जन्मांतर के धर्म संस्कार जाग्रत हो गये और केवल १५ दिनों में ही उन्होंने रात्रिभोजन, जमीकंद का भक्षण, चाय एवं सीगारेट का हमेशा के लिए त्याग कर दिया । और ऐसी चुस्तता से चौविहार करने लगे कि सूर्यास्त होते ही उनके घरमें पानी के घड़े उल्टे कर दिये जाते थे । घर के सभी सदस्य चौविहार करते थे और उन के घर में आनेवाले अतिथिओं को भी रातको पानी नहीं मिलता था ! _ वि. सं. २०१२ से केवल रोटी, दाल, चावल और दूध इन चार द्रव्यों से ही एकाशन करने का प्रारंभ किया, कि जो वि. सं. २०४९, तक आजीवन चालु ही रहे । त्रिकाल स्वद्रव्य से जिनपूजा करने लगे । यदि किसी अनिवार्य संयोगवशात् पूजा नहीं हो सके तो दूसरे दिन चौविहार उपवास करने का नियम लिया । . प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने का प्रारंभ किया । यात्रा आदि के . कारण यदि प्रतिक्रमण न हो सके तो दूसरे दिन उपवास करते थे । __हररोज साधर्मिक के पैर दूध एवं पानी से धोकर, तिलक करके श्रीफल और सवा रुपया देकर प्रेम से भोजन कराकर साधर्मिक भक्ति करते थे । जिस दिन साधर्मिक भक्ति नहीं हो सके उसके दूसरे दिन चौविहार उपवास करनेका नियम था । बहरत्ना वसंधरा - २-21 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग हररोज प्रत्येक मुनिवरों को विधिपूर्वक वंदन करते थे । पदस्थ मुनिवरों को हररोज दो बार एवं अपने परमोपकारी आचार्य भगवंत को ३ बार वंदन करते थे । किसी भी साधु को वंदन करने में 1 चूक जाते तो दूसरे दिन उपवास करते थे । ३२२ - २ वि. सं. २०१३ में ४० वर्ष की उम्र में इस दंपती ने ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया था । उसके बाद अगर अपनी छोटी बेटी का स्पर्श हो जाय तो आयंबिल करते थे । वि. सं. २०१९ में ज्येष्ठ सुदि १० के दिन अपने २ सुपुत्र और १ सुपुत्री एवं धर्मपत्नी के साथ दीक्षा ली एवं धनजीभाई में से मुनिराज श्री भद्रशीलविजयजी बने । पुत्र मुनिवर आज प. पू. आ. श्री गुणशीलसूरिजी म.सा. एवं मुनिराज श्री कुलशीलविजयजी के रूपमें अनुमोदनीय आराधना एवं शासन प्रभावना कर रहे हैं । वि. सं. २०२५ में मुनिराज श्री भद्रशीलविजयजीने वर्षीतप किया । उसमें भी प्रारंभ में चौविहार छठ्ठ तप के पारणे में भी एकाशन ही करते थे । चालु वर्षीतप में केवल ९ दिनों में तलाजा तीर्थ की ९९ यात्राएँ विधिपूर्वक पूर्ण कीं । प्रभुभक्ति ऐसी भावपूर्वक करते थे कि भोजन करना भी भूल जाते थे । पालिताना में बिराजमान प्रत्येक प्रभुजी को ३ ३ खमासमण देकर वंदना की है। धातु के छोटे से जिनबिम्ब को भी ३ खमासमण देकर वंदना करते थे । हररोज त्रिकाल देववंदन करते थे डिग्री बुखार में भी देववंदन किये बिना पानी भी नहीं पीते थे । गुरु - भक्ति भी ऐसी अप्रतिम थी कि ५ डिग्री बुखार में भी आचार्य भगवंत की सेवा - भक्ति ( पैर दबाना, स्थंडिल परठवना इत्यादि) स्वयं ही करते थे 1 क्रियाशुद्धि भी ऐसी अनुमोदनीय थी कि १७ संडाशा ( शरीर के अवयवों के जोड़) की प्रमार्जना पूर्वक खड़े होकर अप्रमत्तता से खमासमण और वांदणा देकर प्रतिक्रमण आदि करते थे । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३२३ अप्रमतत्ता भी ऐसी थी कि रातको ११ बजे के बाद ही सोते थे और प्रातः ४ बजे निद्रा त्याग करके स्वाध्याय जप आदि करते थे । प्रौढ वय में दीक्षा लेने के बावजूद भी संस्कृत व्याकरण की दो किताब, संस्कृत चरित्र वांचन, संस्कृत काव्य, न्याय इत्यादि अध्ययन किया था और आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग इत्यादि आगमों का भी अध्ययन किया था । - वि. सं. २०४९ में चातुर्मास के लिए पालिताना की ओर जा रहे थे तब कर्म संयोग से जानलेवा अकस्मात से उनका कालधर्म हो गया मगर उस वक्त भी वे अंगुलियों की रेखाओं के सहारे नवकार महामंत्र ही गिनते थे । सचमुच कर्म को किसीकी शर्म नहीं होती । उनकी आत्मा जहाँ भी होगी वहाँ समाधिभावमें ही होगी, क्योंकि उन्होंने इस भवमें भी अनुकूल और प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थितियों में समताभाव को अच्छी तरह से आत्मसात् किया था । वि. सं. २०४९ में अहमदाबादमें पालडी एवं साबरमती में उनके दर्शन का लाभ मिला था तब अत्यंत वात्सल्यभाव से उन्होंने वार्तालाप किया था । इस दृष्टांत में से प्रेरणा पाकर सभी भव्यात्माएँ धर्माराधना में सुदृढ बनें यही शुभाभिलाषा । १४६ तोते ने आदीश्वर दादाकी पूजा की और बन गया श्री सिद्धराजजी ढड्डा (पुनर्जन्म की अद्भुत घटना) सर्वज्ञ कथित आगमों में पुनर्जन्म के हजारों दृष्टांत उपलब्ध हैं । इसी तरह जयपुर की राजस्थान युनिवर्सिटी में परामनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हेमेन्द्रनाथ बेनरजीने आजसे करीब ३० साल पूर्व में विश्वभरमें से पूर्वजन्मस्मृति की करीब ५०० से अधिक घटनाओं का संशोधन करके आत्मा के अमरत्व के सिद्धान्त में अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी । डो. एलेकझान्डर कॅनन नामके वैज्ञानिक ने संमोहन विद्या के 4 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ द्वारा १३०० व्यक्तियों को उनके पूर्वजन्म की स्मृति दिलायी थी और 'The Power Within' नामकी किताब में इसका विस्तृत जिक्र भी किया है । उसमें एक अंग्रेज महिला ने अपने पूर्वजन्म में शुक्र ग्रह में देव के रूप में होने का विस्तृत बयान दिया है जो जैनागमों में वर्णित ज्योतिषी देवों के वर्णन की सत्यता को सिद्ध करता है। HARINEETEHREE PEEBERREARRIERE दि. ५-३-१९९९ के दिन हम जयपुर में श्री सिद्धराजजी ढड्डा (उ. व. ९०) नामके सुश्रावकश्री को मिले । उन्होंने पूर्व जन्म में तोते पंछी के भवमें श्री सिद्धाचलजी तीर्थ के मूलनायक श्री आदीश्वर दादा की पूजा की थी। करीब जन्म के साथ ही वे पूर्वजन्म की स्मृति को साथ लेकर आये थे, मगर २॥ साल की उम्र में वे स्पष्ट रूप से अपने पूर्व जन्म का वर्णन करने लगे थे । इस घटना का विस्तृत वर्णन श्रीसिद्धराजजी ढड्डा के पालक पिता स्व. श्री गुलाबचंदजी ढड्डा (जो सिद्धराज के चाचा थे और नि:संतान होने के कारण अपने भत्तीजे को गोद लिया था) ने एक अंग्रेजी लेखमें किया था । उसका हिन्दी अनुवाद 'श्री सिद्धराजजी ढड्डा अभिनंदन ग्रंथ' में प्रकाशित हुआ है, उसे यहाँ अक्षरशः प्रस्तुत किया जा रहा है । आशा है कि आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से जो लोग पुनर्जन्म को नहीं मानते हैं या पुनर्जन्म के सिद्धांत के प्रति शंकित हैं वे ऐसे दृष्टांतों को गौर से पढकर नास्तिकवाद के विषचक्र से छुटकारा पायेंगे और सर्वज्ञ कथित पुनर्जन्म आदि सिद्धांतों के प्रति नतमस्तक होकर अपने आगामी जन्मों को सुधारने के लिए वर्तमान भव में न्याय-नीति, परोपकार, सदाचार, संयम, सेवा, भक्ति आदि सद्गुणों को आत्मसात् करने का एवं व्यसनों और पापों से छुटकारा पाने के लिए भव्य पुरुषार्थ करेंगे । एक सम्प्रदाय मानता है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता है, पशु मरकर पशु और पंछी मरकर पंछी ही बनता है, वह भी ऐसे प्रामाणिक Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३२५ दृष्टांतों को पढकर अपनी मान्यता पर तटस्थ रूप से पुनर्विचारणा करें यही शुभापेक्षा। हाथ कंगन को आरसी की क्या जरूरत है ? जो सम्प्रदाय मूर्तिपूजा में जड़ता या पाप मानता है वह भी ऐसे दृष्टांतों को पढकर गंभीरता से सम्यक् चिंतन करके अपनी गल्ती को सुधार ले यही मंगल भावना । नियति के अनुसार श्री सिद्धराजजी ढड्डा आज कई वर्षों से महात्मा गांधीजी, विनोबा भावे एवं जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित होकर सर्वोदय नेता के रूप में निःस्वार्थभाव से सामाजिक कार्यों को करते हुए कर्मयोगी जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं । ९० सालकी उम्रमें भी वे स्वस्थ हैं। - संपादक पूर्वजन्म की स्मृतियाँ लगभग ३० वर्ष पहले की वात है । मेरी माताजी अपने प्रपौत्र के जन्मोत्सव के लिए अनेक योजनाएँ बना रही थीं । लेकिन उनकी सारी आकांक्षाएँ उस समय प्रपौत्री पैदा होने के कारण व्यर्थ हो गईं। उनके मन में यह तीव्र आकांक्षा थी कि मरने के पहले वे अपने प्रपौत्र का मुंह देख लें। उस घटना के ४ वर्ष के पश्चात् उनकी आशा की किरण प्रकट हुई । जन्म के पहले बालक का नामकरण पर्दूषण पर्व के पवित्र सप्ताह में उन्होंने एक दिन सब परिवारजनों को एकत्र किया और इस प्रकार सम्बोधित किया "तुम सब जानते हो कि मेरे मन में चार वर्ष पहले सोने की सीढी चढने की जो तीव्र आकांक्षा थी, वह प्रपौत्री के पैदा होने के कारण निष्फल रह गयी थी । उसके पश्चात् में सदा प्रपौत्र के जन्म के सम्बन्ध में ईश्वर से प्रार्थना करती रही हूँ और मुझे विश्वास है कि अब चार पाँच महीनों में मेरी प्रार्थना सफल हो जायगी । यदि मेरे प्रपौत्र का जन्म हो जाय तो उसके नाम के सम्बन्ध में आप लोगों का विचार जानकर मुझे प्रसन्नता होगी ।" Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समूह बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ बड़े लोग इस समस्या का समाधान निकालते उसके पहले ही में से एक दस वर्षीय बालिका चुपचाप निकलकर वृद्ध महिला के पास पहुँची और उसकी गोद में बैठकर मुस्कराते हुए बोली " अपने रिवाज के अनुसार मेरी भाभी के होने वाले बच्चे के जन्म के अवसर के लिए तैयार की गई सोने की सीढ़ी पर आपके चढ़ने के बाद फिर वह दान में दे दी जानी चाहिए। संबंधितों और मित्रों को भोजन कराना चाहिए और जाति में मिठाई बौंटनी चाहिए, मन्दिरों और यात्रा के स्थानों पर भेंट चढानी चाहिए और पूजा करनी चाहिए । नवजात शिशु का नाम पवित्र शत्रुंजय तीर्थ 'सिद्धाचलजी' के नाम पर रखना चाहिए । जहाँ हम लोग हाल ही में यात्रा को गये थे ।" सब परिवार जन इस प्रस्ताव को सुनकर प्रसन्न हुए । मेरी माताजी ने भी इसे स्वीकार कर लिया । मैने आदर के साथ अपनी माँ को सुझाव दिया कि उनके बाद भी उनका प्रिय नाम सदा हमारी स्मृति में ताजा रहे इसलिए "हम सिद्धाचलजी के पहले भाग 'सिद्ध' को पहले रखें और उसके साथ आपका नाम ( माताजी का नाम राजकुंवर था) जोड़ दें । इस प्रकार जब बालक जन्म ले तो उसका नाम 'सिद्धराज कुमार' रहे ।" उन्होंने इसकी स्वीकृति दे दी । ३२६ सिद्धराज कुमार का जन्म फरवरी, १९०९ में सिद्धराज कुमार का जन्म हुआ । जिससे पूज्य माताजी तथा परिवार के सभी लोगों को अत्यधिक प्रसन्नता हुई । उस छोटी लड़की के द्वारा सुझाये गये सभी सामाजिक रीति-रिवाज तथा खुशियाँ दादीजी के द्वारा पूरी की गईं । रोता हुआ बालक चुप हो गया ! बम्बई संघ की लालवाग की बैठक में सर्व सम्मति से जो प्रस्ताव स्वीकार किया गया था उसके अनुसार मैं उस समय कलकत्ते में समेतशिखर के मुकद्दमें में लगा हुआ था । बालक के जन्म के शुभ समाचार पाकर मैं शीघ्र जयपुर आ गया । संभवतः जन्म के १०वें या ११ वें दिन मैंने उसे अपनी गोदमें लिया । तब अचानक ही वह जोर जोर से रोने चिल्लाने लगा । हम लोगों ने हर सम्भव प्रयास उसे शांत करने Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३२७ के लिए किये, लेकिन हमारी सभी योजनाएँ व्यर्थ गयीं । बच्चा निरंतर रोता ही रहा, और हमारी चिन्ताएँ बढती गयीं । अंतिम उपाय के रूप में मेरी माँ ने एक गीत गाकर उसे चुप करने का सुझाव दिया । उस समय यह गीत गाया गया । "सिद्धवड़ रूख समोसऱ्या " जैसे ही 'सिद्धवड़' शब्द बालक के कानों में पहुँचा, उसने रोना बन्द कर दिया और पूरा गीत उसने बहुत ध्यान से सुना । अब बालक को चुप कराने का यही तरीका हमारे घर में मान्य कर लिया गया । जब कभी भी बालक बेचैन होता, तभी वह गीत उसे सुनाया जाता और वह हमेशा उसे ध्यानपूर्वक सुनता । बालक की स्मृतियाँ १९११ में १९०९ से १९९४ तक के समय में मैं बम्बई रहा । जब बालक ३ वर्ष का हुआ तभी से वह मेरे ओर मेरे बड़े भाई साहब के साथ 'सामायिक' में बैठता था । उसने 'सामायिक' पाठ सीख लिया था । वह हमारे साथ मन्दिर जाता और पूजा भी करता । पूजा के समय " ९ अंगों के दोहे" बोलता था । १९११ में एक दिन परिवार की महिलाओं के साथ बालक बंबई के वालकेश्वर स्थित जैन मन्दिर में दर्शन हेतु गया । वहाँ की मुख्य प्रतिमा को देखकर वह आवेश के साथ बोला "इस प्रतिमा से आदीश्वर भगवान की प्रतिमा ज्यादा बड़ी थी ।" महिलाएँ इस पर बहुत चकित हुईं और निम्नलिखित वार्तालाप चल पड़ा सोना ( बालक की बुआ ) तुम कौन से आदीश्वर भगवान की बात करते हो ?' - सिद्ध सोना सिद्धाचल के आदीश्वर भगवान की । यह तुझे कैसे मालुम ? सिद्ध मैंने उस प्रतिमा की पूजा की है । - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ .. सोना - तु झूठ बोलता है। तेरे पैदा होने के बाद हम सिद्धाचल गये ही नहीं । सिद्ध - मैं झूठ नहीं बोलता, सच कह रहा हूँ । सोना - यह कैसे हो सकता है ? सिद्ध - मैं कहता हूँ, मैंने उस प्रतिमा की पूजा की है । सोना - कब ? सिद्ध - पहले वाले जन्म में । सोना - पहले वाले जन्म में ! उस जन्म में तुम क्या थे ? सिद्ध - मैं तोता था । सोना - तुम कहाँ रहते थे ? सिद्ध - "सिद्धवड़' में। . बचपन की सी बात समझ कर सोना ने इस वार्तालाप को और आगे नहीं बढाया । पर उसने मुझे और मेरे भाई साहब को यह सारी घटना सुनाई । हमारे प्रश्न करने पर बालक ने वही कथा दोहराई और उसके बाद उस पवित्र तीर्थ पर ले चलने के लिए हमारे पीछे पड़ा रहा । हमने उसे टालने के लिये कह दिया कि यात्रा में लगने वाले खर्च का प्रबन्ध होने पर चलेंगे । इस बीच वह बालक प्रतिदिन कुछ न कुछ बचाता रहा और इस प्रकार उसने कुछ रूपये इकट्टे कर लिये । उन्हें सिद्धाचलजी में खर्च करने की दृष्टि से वह सावधानी से रखता रहा । सिद्धाचलजी के मार्ग में; तथा बालक की परीक्षा १९११ की अंतिम तिमाही में मुझे दमे का गंभीर प्रकोप हुआ। मेरे डोक्टरोंने हवा-पानी बदलने की सलाह दी । मैं प्रात:काल ही काठियावाड़ फास्ट पैसेंजर से सिद्धाचलजी के मार्ग पर वढ़वाण के लिए रवाना हो गया। अब बालक उस पवित्र तीर्थ की यात्रा करने की सम्भावना से बहुत प्रसन्न था। रास्ते में पालघर आता था । वहाँ कुछ पहाडियाँ हैं । बालक के Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२९ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पूर्व कथन की सत्यता जाँचने की दृष्टि से पालघर पहुँचकर मैने बालक से कहा कि, 'हम लोग सिद्धाचलजी आ गये । सामने की पहाडियाँ ही वह पवित्र तीर्थ है ।' बालकने एकदम उत्तर दिया "बिलकुल नहीं" मैने सूरत पहुँच कर वही प्रश्न फिर किया और वही उत्तर फिर मिला । रात्रि के लगभग १० बजे हम वीरमगाँव पहुँचे और आगे न बढ सकने के कारण हम उत्तर गये तथा रात में वेटींग रूम में ठहरे । बालक को यह कहने पर कि हम अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये हैं, उसने पुनः नकारात्मक उत्तर ही दिया । वढवाण शिबिर में और परीक्षाएँ दूसरे दिन हम वढवाण कैम्प पहुँचे और लगभग दो महीने लीमड़ी की धर्मशाला में ठहरे । बालक जब भी मन्दिरमें 'चैत्य वन्दन' और भजन बोलता तो लोग चारों ओर इकट्ठे हो जाते थे । वह आने जाने वाले साधुओं के प्रवचन भी बहुत ध्यान से सुनता था । हमारे वढवाण पहुँचने के कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि जब एक दिन बालक मंदिर से वापस लौट रहा था तो किसी ने उससे पूछा कि, 'तुम कहाँ जा रहे हो ?' उसने उत्तर दिया कि मैं सिद्धाचलजी जा रहा हूँ । आश्चर्य की बात यह है कि जैसी बातचीत बम्बई के वालकेश्वर मन्दिर में हई थी वैसी ही बातचीत यहाँ फिर बालक और उस सज्जन के बीच हुई । वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को गोद में उठा लिया और घर ले आये । अब तो बालक को पूर्वजन्म की स्मृति होने के समाचार जंगल में लगी आग की तरह फैल गये और दूर-पास, सब जगह से पूछ-ताछ होने लगी । उस डेढ़ महीने के समय में लगभग १५००० लोग गुजरात और काठियावाड़ से उसे देखने आये होंगे । कुछ वृद्ध महिलाएँ तो ४० - ४० मील से पैदल चलकर उपवास करती हुइँ आईं और उन्होंने बच्चे को आदर देकर ही अपना उपवास तोड़ा, साथ ही उन्होंने उनके पूर्वजन्म और उत्तर-जन्म के संबन्ध में प्रश्न भी किये । इस प्रकार की सैकडों घटनाओं में से २ - ३ घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ न्यायाधीश तथा बालक मोरबी रेल्वे हल्के के मेजिस्ट्रेट बालक सिद्धराज से मिलने आये और उन्होंने विस्तारपूर्वक उसकी जाँच और जिरह की । यह जिरह विशेष उल्लेखनीय इसलिए है कि उससे यह साबित होता है कि बालक को अपने पूर्वजन्म की याद कितनी स्पष्ट है । इस जन्म में सिद्धाचलजी की यात्रा किये बिना ही वह अपने पूर्वजन्म 'तोते के जीवन' की घटनाओं को बता सकता था । मेजिस्ट्रेट - तुम पूर्व जन्म में क्या थे ? सिद्ध - मैं तोता था । मेजिस्ट्रेट - तुम कहाँ रहते थे ? सिद्ध - 'सिद्धवड' में । मेजिस्ट्रेट - यह क्या है और कहाँ है ? सिद्ध - यह एक पवित्र वृक्ष है जो ६ कोस की परिक्रमा में पहाड के दूसरी तरफ है । मेजिस्ट्रेट - तुम वहाँ क्या करते थे ? सिद्ध - मैं आदीश्वर भगवान की पूजा करता था । मेजिस्ट्रेट - तुम किससे पूजा करते थे ? सिद्ध - केसर से । मेजिस्ट्रेट - तुम्हें केसर कहाँ से मिलती थी ? सिद्ध - मरुदेवी माता के छोटे हाथी पर रखे हुए प्यालों से। मेजिस्ट्रेट - केसर की प्याली तुम किस तरह ले जाते थे ? सिद्ध - अपने पंजों से पकड़कर । मेजिस्ट्रेट - अपनी चोंच से क्यों नहीं ? सिद्ध - उससे तो कैसर अपवित्र हो जाती । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ मेजिस्ट्रेट - अब मैं पूछता हूँ सो बताओ, उससे तुम्हारे सच झूठ की जाँच हो जायेगी। बताओ वहाँ (सिद्धाचलजी में) कितने मन्दिर है ? वे किस प्रकार से घिरे हुए है और मन्दिरों में पहुँचने के कितने दरवाजे हैं ? सिद्ध - बहुत मंदिर हैं । वे एक चार-दीवारी से घिरे हुए हैं, जिसके तीन दरवाजे हैं ।। मेजिस्ट्रेट - अच्छा, तुम किस दरवाजे से जाते थे ? सिद्ध - पीछे के दरवाजे से । मेजिस्ट्रेट की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था । वह बालक को गोद में उठाकर मेरे कमरे में आया और अपने परिवार में इस प्रकार का अमूल्य रत्न प्राप्त करने के लिये मुझे हार्दिक बधाई दी। स्थानकवासी साध्वी और बालक कुछ स्थानकवासी साध्वियाँ बालक से मिलने आई । उनमें से एक ने बालक की जाँच की । साध्वी - तुम कहते हो कि तुम आदीश्वर भगवान की पूजा करते थे। तुम यह पूजा कैसे करते थे ? सिद्ध - मैं केसर और फूलों से पूजा करता था । साध्वी - तुम्हें ये कैसे मिलते थे ? सिद्ध - (केसर की उपरोक्त कथा दोहराने के बाद) सिद्धवड़ के पास वाले बगीचे से मैं फूल लाता था । साध्वी - क्या केसर और फूलों से मूर्ति की पूजा करना पाप नहीं था? सिद्ध - अगर पाप होता तो मैं तोते की योनि से मानव की __योनि में कैसे जन्म पा सकता था ? Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ इस जवाब को सुनकर साध्वी एकदम चुप हो गई । सभी साध्वियाँ बालक की सराहना करती हुई वहाँ से चली गईं । चमेली के फूल की पहचान ३३२ - I बीमारी से मुक्त होने के बाद विशेष पूजा के लिए पालीताना से मैने गुलाब और चमेली के फूल मँगवाये थे । पार्सल खोलने पर बालक ने चमेली का एक फूल उठा लिया और बोला "मैं आदीश्वर भगवान् की ऐसे फूलों से पूजा करता था । सिद्धाचल की पहचान 1 6 सन् १९१२ के जनवरी मास में रात की गाड़ी से वढवाण से पालीताना के लिए रवाना हुए। प्रातःकाल हम सोनगढ पहुँचे । चारों और की पहाडियों को देखते ही बालक ने उत्साह से कहा कि " अब हम उस पवित्र पहाड़ के आसपास है ।" सीहोर स्टेशन पर पालीताना के लिए गाडी बदलने के समय बालक प्लेटफोर्म पर खड़ा हो गया और उस पवित्र पर्वत की दिशा में मुड़कर अत्यन्त आनन्द के साथ उसकी वंदना की । फिर मेरी तरफ मुड़कर वह अत्यन्त आनंदपूर्वक मन से बोला "देखिये, देखिये काका साहब, वह सामने की तरफ का उँचा काला पहाड़ सिद्धाचल है । जल्दी करिए, हम तुरंत पहाड पर चलें ।" पहाड़ के नीचे बाबु माधोलाल की धर्मशाला में ठरहने का इन्तजाम करके हम लोग शाम को पहाड़ों के नीचे पहुँचे । जब हम लोगों ने रिवाज के मुताबिक वंदन किया तो बालक ने पहले स्तुति की और फिर जमीन पर लेटकर पूरा दण्डवत् किया । उसने इस पवित्र भूमि का बहुत प्रेम से आलिंगन किया। लगता था जैसे बालक मुग्ध हो गया हो । वह तलहटी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगभग १५ बार लोटा होगा । उसने उसी समय पहाड़ पर जाने के लिए अत्यंन्त उत्साहपूर्वक हम लोगों से कहा । पर बाद में मेरे समझाने पर दूसरे दिन प्रातः काल पहाड़ी पर जाने के लिए राजी हो गया । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ तीन मील के बजाय तीन सीढ़ियाँ जब हम लोग प्रातःकाल ४ बजे यात्रा के लिए उठे तो बालक पहले से ही जाग रहा था । तलहटी में पूजा-प्रार्थना के पश्चात् कमजोरी के कारण मैंने पहाड़ पर आने-जाने के लिए 'डोली' किराये पर कर ली थी । मैं बच्चे को अपने साथ डोली में बैठाकर ले जाना चाहता था । उसने मेरे साथ डोली में बैठने से इन्कार कर दिया और पर्वत शिखर की तरफ निगाह फैलाते हुए कहा, "आप यहाँ से चोटी तक कितनी दूरी समझते हैं ?" मैंने कहा, "लगगभग तीन मील ।" उसने प्रफुल्लता से कहा - "यह तो केवल सीढियों की तीन कतारें ही हैं, तीन मील नहीं । मैं पहाड़ पर पैदल जाउँगा। आप पैदल चलें ।" ऐसा कह कर बिना मेरा इन्तजार किये मुझे पीछे छोड़कर उसने मेरे भाई की ऊँगली पकड़ ली ओर खुशी-खुशी पहाड़ की ओर पैदल चल पड़ा । बिना रुके चढाई मेरे भाईने मुझे बताया कि पूरे रास्ते बालक सम्मोहन जैसी अवस्था में पर्वत शिखर की ओर तेजी से बढ़ता गया । उसे ऊबड़-खाबड़ जमीन का कोई ध्यान ही नहीं था । आमतौर पर छोटी उम्र के बालक उस मौके के लिए किराये पर तय किये हुए कुलियों के कंधों पर ले जाये जाते हैं । कुली मेरे भाई के पास आये और उन्होंने कंधे पर बच्चे को न जाने देने के संबंध में उनकी बेरहमी और दयाहीनता की निंदा की। कुछ कुलियों ने बिना पैसे लिए ही बच्चे को ले जाने को कहा। जब इस प्रकार की फटकारें असह्य हो गईं तो मेरे भाई ने कुलियों से कहा कि, 'अगर कोई भी बालक को कंधे पर चलने के लिए राजी कर ले तो मैं दुगुना किराया दूँगा।' कुछ कुलियों ने बालक के पास पहुँचने का प्रयत्न किया । लेकिन बालक ने घृणापूर्वक उनका स्पर्श करने से इन्कार कर दिया । यही नहीं, उसने उँचे पहाड़ पर जाने में विघ्न डालने के बारे में बुरा-भला भी कहा । इस प्रकार का बर्ताव पहले दिन ही हुआ, उसके _ बिना २० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ बाद वे कुली भी समझ गये कि यह बालक पदयात्रा ही करना चाहता है । तत्पश्चात् सब लोग बालक को आदर और सराहना की निगाह में देखने लगे । वे उसके लिए रास्ता छोड़ देते थे और उसके साहस, उसकी आश्चर्यजनक शक्ति और धीरज के लिए उसे आशीर्वाद देते थे । - चढ़ाई के मध्य में एक स्थान बहुत सीधी चढ़ाई का है और सभी यात्री 'हिंगलाज का हड़ा' नामक इस स्थान पर कुछ समय के लिए आराम करते हैं । मेरे भाई तथा परिवार के अन्य सदस्य आगे बढ़ने के पहले थोड़ा आराम करना चाहते थे । लेकिन वह बालक तो ऊपर पहुँचने के लिए उतावला था । उसने उन्हें क्षण-भर रुकने का भी मौका नहीं दिया और सीधा ऊपर ले गया । वे सब मेरे वहाँ पहुँचने से पन्द्रह मिनट पहले ही हाथीपोल पहुँच गये । मेरे भाई ने मुझसे कहा कि, 'इस बालक में आदीश्वर भगवान के दर्शन करने और पूजा करने की इच्छा इनती तीव्र है • कि यह सारे समय चलने के बजाय दौड़ता ही रहा है' । के पाँच स्थान और परिक्रमायें पूजा आम तौर पर यात्री पाँच स्थानों की पूजा करके और मुख्य मंदिर की तीन परिक्रमायें देकर बादमें मूलनायक भगवान के दर्शन करते हैं । पूजा के स्थान ये हैं : (१) शांतिनाथ का मंदिर (२) नया आदीश्वर मंदिर (३) आदीश्वर चरण - छतरी (४) सीमंधर स्वामी का मंदिर (५) पुंडरीक स्वामी का मंदिर जब हम लोग क्रमशः इन स्थानों पर पूजा करने गये तो बालक ने कहा कि उसने पहले तीन मंदिरों में तो पूजा की थी, अन्तिम दो में नहीं की थी । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ____३३५ मुख्य मन्दिर में बालक के पूजाभाव मुख्य मंदिर के चौक में घुसने के बाद जब सीढ़ियाँ चढकर हम ऊपरके चौक में पहुँचे तो बालक ने तुरन्त अत्यन्त उत्साह के साथ 'मूलनायक' की ओर संकेत करके कहा कि इन्हीं आदीश्वर भगवान की उसने पूर्वजन्म में पूजा की थी। मंदिर के मुख्य मण्डप में पहुँचकर उसे बहुत प्रसन्नता हुई । हम लोगों ने पूजा की, उसके बाद बालक मुर्तिवत् 'कायोत्सर्ग' ध्यान में खड़ा हो गया । उसकी खुली हुई आँखें बिना पलक झपके आदीश्वर भगवान पर स्थिर थीं । वह इस ध्यान मुद्रामें अपने आपको भूल गया । मंदिर में जो कुछ हो रहा था उसे भी भूल गया, सैंकड़ों यात्रियों के शोर-शराबे और पूजा-संगीत के गुंजन को लगभग आधे घंटे तक वह भुलाये रहा । अनेक साधु-साध्वियाँ, गृहस्थ स्त्री-पुरष इस छोटे बालक के दर्शन और ध्यान को देखकर चकित हो गये । लगभग आधे घंटे तक के अनवरत मुग्ध ध्यान के पश्चात् मैंने उसके कंधे थपथपाये तब वह चौंक कर होश में आया । ध्यान में जो स्वर्गीय आनन्द उसे प्राप्त हुआ, उसका वर्णन करना उसके सामर्थ्य के बाहर था । शांत-मूर्ति मुनि कपूरविजयजी बालक के पास बैठे हुए बराबर उसकी तरफ देख रहे थे। उन्होंने बालक की उच्च ध्यानावस्था पर अनावश्यक विघ्न डालने के मेरे कार्य को ठीक नहीं माना । संगमरमर का छोटा हाथी ४-५ पुजारियों में से एक बूढ़े चौकीदार को बालक पहचान गया और उसकी तरफ इशारा करके बोला कि “यही सदा केसर की प्याली इस छोटे से संगमरमर के हाथी पर रखता था । 'यहाँ से वह घुटी हुई केसर मैं अपने पंजों में उठाता था और आदीश्वर भगवान की पूजा करता था ।" बालक उस छोटे हाथी के पास हमें ले गया जो बड़े हाथी के दाहिनी तरफ था, और इसलिए जो यात्री बाईं तरफ पूजा के लिए बैठे थे उनकी निगाहों से छिपा रहता था । मैंने भी पहले इस हाथी को नहीं देखा था । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आदीश्वर भगवान की प्रथम पूजा । बालक के अद्भुत तथा आनन्दपूर्ण भाव को अभिव्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं । उस समय जो प्रेरणा उसमें उत्पन्न हुई वह मेरी समझ के बाहर थी । ऐसा दिखता था कि वह सबका स्वामी हो। उसके भाव इस समय एक ऐसे यौद्धा के भाव से मिलते-जुलते थे जिसने किसी प्रबल शत्रु को हराने के बाद हारे हुए शत्रु की राजधानीमें विजयोत्सव मनाते हुये प्रवेश किया हो । फिर बालक का ध्यान 'प्रथम पूजा' की तरफ गया । वहाँ के प्रचलित रिवाज के अनुसार सबसे उँची बोली लेकर मैंने दूध, जल, केसर, फूल, मुकुट और आरती की पहली पूजाएँ प्राप्त की । भक्ति भाव से बालक भी अपनी बचत राशि से तुरन्त परत जाकर बहुत सारे फूल और मालाएँ खरीद कर लाया । उसने एक के बाद एक ये सब पूजाएँ बहुत ध्यान तथा भक्ति से की। उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि पक्षी से मनुष्य योनि पाने के बाद पुनः अपने भगवान की पूजा करने का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ था । बालक का व्रत बालक अपने ३१ दिन के यात्रा काल में प्रतिदिन पर्वत पर आदीश्वर भगवान की पूजा किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करता था अपने व्रत की दृढ़ता के लिए मुनि कपूरविजयजी की मंदिर में आने की प्रतीक्षा करता था । उनके आने पर वह उनके पास जाकर उनकी वंदना करता तथा दोपहर के पहले अन्न-जल ग्रहण न करने के अपने दैनिक व्रत को दुहराकर पक्का कर लेता । बालक की परीक्षा - १२.३० बजे पूजा समाप्त करने के बाद हम नीचे उतरने की तैयार कर रहे थे । बालक की जाँच करने के लिए उसे कुछ खाना खा लेने के लिए कहा(यद्यपि मैं उसके लिए कोई भोजन नहीं लाया था ।) बालक ने मेरी तरफ देखा और विनोद में पूछा, 'क्या आपको भूख लगी है ? काका साहब, मुझे लगता है कि आदीश्वर भगवान की पूजा के बाद Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३३७ आपको भूख लग आई । मुझे तो भूख नहीं लगी है । मेरा पेट को इस बात से ही भर गया है कि अपने इस जन्म में इतनी जल्दी आदीश्वर भगवान की मैं पूजा कर सका । मैंने बातचीत का रुख बदल दिया और कहा 'मेरे साथ डोली में चलो ।' लेकिन वह पैदल चलने के व्रत पर अडिग था । आचार्य (तब मुनि) अजितसागरजी ने बालक को मेरे साथ चले जाने के लिए राजी करना चाहा । पर वह राजी नहीं हुआ और पैदल ही पहाड़ से उतरा । रास्ते में अनेक लोगों ने उससे पानी पीने को कहा, पर उसने इन्कार कर दिया । बल्कि उसने यात्रियों को झिड़का और कहा कि इस पवित्र पहाड़ पर पानी पीने का रिवाज बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। उसने दोपहर ढाई बजे धर्मशाला में पहुँच कर भोजन किया । हजारों यात्री बालक से मिले - - वढवाण की भाँति पालीताना में भी बालक से प्रतिदिन मिलने के लिए बड़ी संख्या में यात्री आते थे और बालक की वह कड़ी परीक्षा संध्या को देर तक चलती थी । सेठ गिरधरभाई आनन्दजी, भावनगर के सेठ अमरचन्द घेलाभाई तथा अन्य कई लोग बालक से अनेक प्रश्न करते थे और उन्हें संतोषजनक उत्तर प्राप्त होता था । सिद्धवड़ की यात्रा पालीताना के यात्रियों ने सिद्धवड़ में उसका घोंसला देखने पर जोर दिया । तब एक दिन निश्चित किया गया और लगभग एक हजार यात्री बालक के पीछे ही हो लिये । उसने उन्हें वृक्ष की वह शाखा दिखाई, जहाँ तोते का घोसला था और लोग संतुष्ट हुए । पालीताना में ३१ दिन का निवास पालीताना की ३१ दिन की यात्रा में इस ४ वर्ष के बालक ने प्रतिदिन पैदल यात्रा की । इस प्रकार पहाड़ पर चढ़ने-उतरने में लगभग ८ मील का फासला तब करना पड़ता था । वह बिना अन्न-जल ग्रहण किये हुए पहाड़ पर चढता था और तीसरे प्रहर पहाड़ से उतर कर ही बहुरत्ना वसुंधरा - २-22 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ भोजन करता था । वह प्रतिदिन अत्यन्त निर्मल चित्त से ध्यानस्थ होकर पूजा करता था । मुनि श्री हंसविजयजी का निर्णय मुनि श्री हंसविजयजी की राय थी कि बालक को 'जाति-स्मरण' उस समय हुआ जब मैने बालक को गोद में लिया था और उसे सिद्धाचलजी का भजन सुनाया था, और उसकी स्मृति तब जागृत हुई जब उसने वालकेश्वर मन्दिर की प्रतिमा के दर्शन किये । मुनि श्री कपूरविजयजी का निर्णय मुनि श्री कपूरविजयजी ने भी कहा कि बालक को जन्म के १० वे दिन ही 'जाति-स्मरण' हो गया था । जब उसे रोते समय सिद्धचल का भजन सुनाया गया । मात्र १० दिन का होने के कारण उस समय वह अपने विचार प्रकट नहीं कर सका था किन्तु जब वालकेश्वर के मन्दिर की मूर्ति में उसने आदीश्वर भगवान् की पूर्व जन्म से समानता देखी तो इसे अपने उद्गार व्यक्त करने का सु-अवसर मिल गया । ___ मुनि श्री मोहनविजयजी की जाँच और निर्णय मुनि श्री मोहनविजयजी ने बालक की बहुत गहराई से इस प्रकार जाँच की : प्रश्न -- तुम अपने पूर्वजन्म में क्या थे ? उत्तर - मैं तोता था। प्रश्न - उसके पहले के जन्म में तुम क्या थे ? उतर - मैं नहीं जानता। प्रश्न - तुम्हारे तोते के जन्म में कोई तुम्हारा साथी था क्या ? उत्तर - हाँ, एक भाई था । प्रश्न - वह भाई अब कहाँ है ? उत्तर - मैं नहीं जानता । प्रश्न - क्या वह तुम्हारे बाद जीवित रहा ? उत्तर - हाँ । प्रश्न - तुम तोते के जन्म में क्या करते थे ? उत्तर - मैं आदीश्वर भगवान् की पूजा करता था । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३३९ प्रश्न - तुम किस चीज से पूजा करते थे ? उत्तर - केसर और फुल से । प्रश्न - ये चीजें तुम्हें कहाँ से मिली थीं ? उत्तर - मैं केसर एक प्याली से लेता था जो मरुदेवी माता के छोटे हाथी पर रखी रहती थी और फूल सिद्धवड़ के घोंसले के निकट वाले बगीचे से । प्रश्न - यात्रियों की भीड़ में पूजा के लिए तुम मन्दिरमें कैसे प्रवेश पाते थे ? उत्तर - मैं दोपहर बाद पूजा को जाता था तब भीड़ छंट जाती थी। प्रश्न - लेकिन तब तो दरवाजे बन्द हो जाते थे, फिर तुम अन्दर कैसे प्रवेश करते थे ? उत्तर - मैं किंवाड की ताड़ियों के बीच से जाता था । प्रश्न - मृत्यु के समय तुम्हारे मन में क्या भाव थे ? उत्तर - आदीश्वर भगवान की पूजा करने का संतोष । प्रश्न - तुम कहते हो कि तुम सिद्धवड़ में रहते थे जो काठियावाड़ में हैं और ढड्ढा बन्धु ५०० मील दूर मारवाड़ में रहते हैं। तुमने उनके परिवार में जन्म कैसे लिया ।। उत्तर - उन्होंने मुझे निमंत्रण दिया था और मैने उनका निमंत्रण . स्वीकार कर लिया । जाँच के दौरान इन बिन्दु पर हमें बालक से यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि उसे हमने निमंत्रण दिया था । बालक हमारी तरफ मुड़ा और बोला - 'जब आपने और माँ साहब (वह वृद्ध सम्भ्रांत महिला जो इस प्रिय बालक के कार्य-कलाप को देखने के लिए जीवित नहीं रही थी) मण्डप में सिद्धवड़ के नीचे पूजा कर रहे थे तब मैं छतरी पर बैठा हुआ था । माँ साहब को मैं प्यारा लगा । उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनके साथ रहना चाहूँगा ? और मैंने उनको स्वीकारात्मक संकेत कर दिया । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ इस बात पर मैं और मेरे भाई साहब अपनी स्मृति को कुरेदने लगे और याद करने लगे - क्या ऐसा हुआ था ? यह सही था कि अहमदाबाद सम्मेलन के बाद हमारा परिवार सिद्धाचल गया था । उस समय हम सब ६ कोस की यात्रा में गये थे और फाल्गुन सुदी १३ को (मार्च महीनेमें) हमें मण्डप पर बैठे हुए एक तोते की और इंगित करते हुए हमारी माँ का यह कथन याद आया कि तोता सुन्दर है । पर हमें नहीं मालूम था कि माँ ने तोते से बात की थी । फलतः जाँच और आगे बढ़ी - प्रश्न - इस निमंत्रण के बाद तुम और कितने जिये ? उत्तर - लगभग १२ महिने । प्रश्न - क्या तुम्हें मृत्यु के समय यह बात याद आयी थी ? उत्तर - हाँ । . निमंत्रण का समय, तोते की मृत्यु और पुनर्जन्म का समय और इस बातचीत के समय बालक की अवस्था आदि बातों का गणित से हिसाब लगाया गया । यह सब अहमदाबाद के सम्मेलन के समय से मेल खाता था। मुनि श्री मोहनविजयजी को इस गहरी जाँच के बाद संतोष हो गया और उन्होंने मुनिश्री हंसविजयजी और मुनिश्री कपूरविजयजी द्वारा व्यक्त अभिमत से सहमति प्रकट की और अपना निर्णय भी वैसा ही दिया। बालक के संबंधमें जो कुछ देखा है और जो अनुभव किया है उसका यह संक्षिप्त वृत्तांत है । अगर यह पाठकों के लिए उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक हो तो मुझे प्रसन्नता होगी । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग १४७ दृढ सम्यग्दर्शन प्रेमी श्रीनेमिचंदजी कोठारी "गोर महाराज ! शादी की विधि करवाने की आपकी फी क्या है ? देखिए, आज शामको जो शादी होनेवाली है उसकी विधिमें आप मुझे किसी देव-देवी आदि को पानी चढाना, कंकुका तिलक करना, चावल लगाना इत्यादि का आग्रह नहीं करना । आप अपनी विधि के मुताबिक श्लोक वगैरह बोलते रहना, मैं अपने मनमें मुझे जो बोलना या करना होगा वह करुँगा । आपको आपकी फीस से दुगुनी राशि मिल जायगी !"... महाराष्ट्र के एक शहरमें से एक राजस्थानी युवक बारात लेकर शादी के लिए आया था । उसके हृदयमें जैनत्व का गौरव था । सुदेवसुगुरु- सुधर्म को ही वंदनीय - पूजनीय के रूपमें स्वीकारना ऐसा उसका सम्यक्त्व उसको समजा रहा था। शादी की विधिमें किसी अन्य देव - देवी का पूजन भूल से भी नहीं करना पड़े इसके लिए गोर महाराज को शादी से पहले ही बुलाकर सारी बात समझा दी । ३४१ 'मुझे मेरी फीस से काम है, वरराजा पूजन करे या नहीं उससे मुझे क्या लेना देना ?' ऐसी समझवाले गोर महाराजने इस बात का सहर्ष स्वीकार कर लिया । ... योग्य समयमें शादी की विधि का प्रारंभ हुआ । गोर महाराज संगीतमयी भाषामें शादी की विधि के श्लोक आदि बोलने लगे ।' 'वर कन्या कंकुसे पूजा करो चावल चढाऔ पानी की अंजलि चढाओ विधि करने लगी, लेकिन ? वे तो दिल में इष्टदेव का इत्यादि शब्दों के अनुसार कन्या तो सभी वरराजा तो इन शब्दों को सुनते ही कहाँ थे स्मरण करने में लीन थे । ... अपनी सूचनाओं का पालन नहीं होने से गोर महाराज नाराज हुए ऊँची आवाज से बार बार सूचना देने पर भी वरराजा उसका पालन नहीं करते थे इसलिए वे गुस्से में आकर वरराजा को धमकाने लगे ! वरराजाने Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग पूर्व में हुई बात की याद दिलायी मगर इस वक्त गोर महाराज अपने प्लेटफोर्म पर थे । वे अब वरराजा की बात मानने के लिए तैयार नहीं थे । - गोर महाराज की तेज आवाज सुनकर वर-कन्या के पिता दौड़ आये । 'आप आपके स्थान पर पधारें, अभी परिस्थिति शांत हो जायगीं, आप जरा भी चिन्ता नहीं करे इत्यादि शब्दों द्वारा दोनों को समझाकर वरराजाने बदाय किये । बादमें गोर महाराज को शांति से समझाने पर जब वे वरराजा की बात का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए तब वरराजाने उनको एक ओर हट जाने की सूचना दी । गोर महाराज के दूर होने पर उनके स्थान पर वरराजा के जैनधर्मी मित्र बैठ गये । स्नात्रपूजा, प्रभुभक्ति, भक्तामर स्तोत्र पाठ इत्यादि करनेवाले उन्होंने सुंदर आलाप पूर्वक संस्कृत स्तुतियाँ बोलने का प्रारंभ कर दिया । अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धि स्थिताः आचार्या जिनशासनोंन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः.... तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ... ' इत्यादि श्लोकों के जयघोष से मंगलमय माहौल बन गया । यह तो शादी की ही विधि चल रही है ऐसा समझकर गोर महाराज तो डर गये । रूपये और इज्जत दोनों जाने के भय से तो वे ढीले हो गये। उन्होंने दो तीन बार वरराजा को विज्ञप्ति करके शादी की विधि कराने की तैयारी दिखलायी । वरराजा ने उसे मान्य की। शादी की विधि वरराजा की इच्छानुसार ही पूर्ण हुई । वरराजा ने और उनके मित्रोंने बाद में महाराष्ट्र में कई जगह पर 'सीता के मन एक राम, जैन के मन एक अरिहंत' वाली बात सिद्ध करके बतायी । (२) शादी के बाद वरराजा घर लौटे । घर में माताजीने कुलदेवी को नैवेद्य चढाने की बात कही तब बेटा कहने लगा, 'माँ ! तुझे जो कुचाँ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३४३ भी करना हो उनकी बात तू जाने लेकिन मुझे कुलदेवी की पूजा करने का आग्रह मत करना । मेरे लिए तो वंदनीय - नमनीय-पूजनीयआराधनीय देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा ही हैं। मुझे अन्य देव-देवीयों की आराधना में कोई दिलचस्पी नहीं है ।' - माँ ने पुत्र की बात सुन ली, मगर उसी रात उस बेटे को बुखार आ गया । ‘कुलदेवी को नैवेद्य नहीं चढाया इसलिए बुखार आ गया' ऐसा किसीने कह दिया । उसे सुनकर वरराजा की माँ भी उसे कुलदेवी को नैवेद्य चढाने के लिए आग्रह करने लगी । पुत्र के लिए 'व्याघ्र - नदी - न्याय' जैसी बात हो गयी । उसने अपनी माँ को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया लेकिन बुखार के निवारण के लिए वैद्यकीय उपचार बढ़ा दिये । प्रातः होते ही उसका बुखार बिलकुल उतर गया, तब उसने विनम्रभाव से अपनी माँ को नमस्कार करके कहा कि 'हमको शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा करने के लिए पालिताना जाने की इजाजत दो । 1 'यकायक शेत्रुंजय की यात्रा कै से याद आ गयी ? माँ ने पूछा । 'माँ ! रात को मुझे बुखार आ गया था, इस प्रसंग को कुलदेवी के नैवेद्य के साथ जोड़कर घरमें कई तरह की बातें होती थीं, मगर मुझे कुलदेवी के नैवद्य की विधि में बैठना नही था और इसके लिए बुखार का उतर जाना जरूरी था । इसलिए मैंने रातको संकलप किया था कि अगर बुखार उतर जायेगा तो हम दोनों श्री शेत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा करने के लिए तुरंत जायेंगे। अब बुखार उतर गया है इसलिए हमको शेत्रुंजय जाना जरूरी है' सुपुत्रने विनम्रभावसे अपनी माँ को समझाया ! कुलदेवी के नैवेद्य की बात से उसे मनचाही मुक्ति मिल गयी । श्री शेत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा दोनोंने अत्यंत हर्षोल्लास पूर्वक की । I (३) उपरोक्त युवक के एक पुत्र को दराद ( चमड़ी का रोग) हुआ था । अनेक प्रकार के वैद्यकीय उपचारों के बावजूद भी यह रोग दूर नहीं हुआ । युवक की पत्नी को किसीने पडौश के गाँव के पीर के पास ले जाने की बात कहीं । लेकिन अरिहंत परमात्मा के प्रति अनन्य समर्पण भाववाले Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३४४ उपरोक्त युवक की पत्नी सीधी तरह से तो ऐसा कैसे कर सकती थी । इसलिए वह 'मैं पडौश के गाँवमें मेरे स्वजनों को मिलने के लिए जाती हूँ ऐसा सेठजी को कहना' इस तरह नौकर को कहकर अपने बच्चे को लेकर पीखाले गाँवमें जाने के लिए बस स्टेन्ड की और रवाना हुई । युवक भोजन के लिए घर आया तब नौकरने सेठानी द्वारा कही हुई बात बतायी। युवकको शंका हुई । उसने नौकर को जरा धमकाकर पूछा तब उसने सही बात बता दी । दृढ सम्यक्त्वी इस युवक को यह बात कैसे मान्य हो सकती है ? उसने अपनी गाड़ी के द्वारा नौकर के साथ संदेश भेजा कि 'पीर - फकीर के पास जाना हो तो खुशी से जाना मगर बादमें मेरे घरमें प्रवेश मत करना !...' इसे सुनते ही पत्नी बीचमें से ही वापस लौट आयी !!! - ये तीन प्रसंग जिन के लिए कहे गये हैं वे थे अमलनेर (महाराष्ट्र) के नेमिचंद्र मिश्रीमल कोठारी पेढीवाले दृढ सम्यग्दर्शनप्रेमी सुश्रावक श्री नेमिचंदजी कोठारी । उनके दृढ सम्यक्त्व प्रेमने उनको बादमें सर्वविरति चारित्र दिलाया । नेमिचंदजी तपोनिधि प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय त्रिलोचनसूरीश्वरजी म.सा. के सुविनीत शिष्य मुनिराज श्री नंदीश्वरविजयजी बने । उनकी दीक्षा के दिन अमलनेरमें विविध गाँव-नगरों के ३६ मुमुक्षों की दीक्षा एक साथ संपन्न हुई थी । उस दीक्षा महोत्सवमें श्रीनेमिचंदजी कोठारी के परिवार जनोंने तन-मन-धन से अत्यंत अनुमोदनीय सहयोग दिया था । (जय हो दृढसम्यग्दर्शन प्रेम के दाता श्री अरिहंत परमात्माका प्रूफ रिडींग (गुजरातीमें) चालु था तब उपरोक्त मुनिराज श्री नंदीश्वरविजयजी म.सा. के प्रथम बार दर्शन हमको हुए थे । तब ७२ साल की उम्र में भी अठ्ठम तपका तीसरा उपवास था । वे हंमेशा एकाशन तप करते हैं । पाँव में फेक्चर होने से नटबोल बैठाये हैं फिर भी पैदल विहार ही करते हैं । डोली या विल चेर का उपयोग करने की उनकी जरा भी इच्छा नहीं 1 है । धन्य है उनकी पापभीरुता को । -संपादक) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ | बेटी की शादी के प्रसंग को धर्म महोत्सव के । स्वपमें मनाने वाले नासिक के बोस वकील । नासिक (महाराष्ट्र) में वकील बोराभाई नामके एक दृढ धर्मप्रेमी सुश्रावक रहते थे । सद्गुरुओं द्वारा उनको रात्रिभोजन के पाप की भयंकरता समझने मिलीथी । __ अपनी सुपुत्री सुनंदा की शादी के प्रसंग की निमंत्रण पत्रिका को उन्होंने धर्म प्रसंग की पत्रिका के रूपमें परिवर्तित कर दी थी । पाँच पन्नों की उस आकर्षक पत्रिका में उन्होंने स्वयं पत्नी सहित ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करेंगे, जिनभक्ति रूप पंचाग्निका महोत्सव का कार्यक्रम, कांतिभाई वकील, कारमलजी आदि दीक्षार्थीओं का महोसव के दौरान सन्मान.... इत्यादि के वर्णन से ४ पन्ने भर दिये थे । केवल अंतिम पेज पर संक्षेप में शादी की बात लिखी थी । नासिकमें वि.सं. २०३३ में मनाये हुए इस महोत्सवमें उन्होंने शादी के पंडाल को धर्म महोत्सव के पंडाल के रूपमें परिवर्तित कर दिया था। उन्होंने स्वयं चतुर्मुख प्रभुजी के समक्ष पत्नी के साथ संपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का विधिपूर्वक स्वीकार किया । भोजन समारोह में विशिष्ट मेजिस्ट्रेट, बेरीस्टर आदि को निमंत्रित किया था मगर किसी को भी रात्रिभोजन नहीं करवाया था । उन्होंने अपने घरमें गृहजिनालय का भी आयोजन किया था, उसमें वे हररोज अत्यंत भावोल्लास पूर्वक पूजा भक्ति करते थे । श्री बोरा वकील आज विद्यमान नहीं हैं मगर उनके सुपुत्रादि परिवार जन आज भी नासिक में रहते हैं । बोरा वकील के दृढधर्मानुराग की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग राजा ऋषभ द्वारा प्रवर्तित आर्यसंस्कृति की परंपरा १४९ एवं मर्यादानुसार संपत्र हुए कुछ शासन प्रभावक सत्कार्यों की अनुमोदनीय झांकी ३४६ तथाकथित लोकशाही के इस जमाने में आज जब आधुनिक शिक्षण, विज्ञानवाद और यंत्रवाद के परिणाम से चारों ओर नास्तिता, भौतिकता और हिंसा का साम्राज्य फैल गया है... गरीबी, बेकारी और महँगाई' के विषचक्रमें आर्य महाप्रजा अधिक अधिकतर फँसती जा रही है तब इन सभी के मूलकारण के रूपमें प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) भगवानने अपनी राज्यावस्थामें प्रवर्ताए हुए उत्तम व्यवहारों से बिलकुल विपरीत ऐसी आधुनिक जीवन पद्धति और उसके प्रवर्तक अंग्रेज लोग हैं । इस बातको दीर्घदृष्टा, आर्यसंस्कृति प्रेमी, सूक्ष्मतत्त्वचिंतक श्राद्धर स्व. पंडितवर्य श्रीप्रभुदासभाई बेचरदास पारेख ने अपनी प्रचंड मेधा, निर्मल बुद्धि और दीर्घदृष्टि से जानकर उन उन भयस्थानों से प्रजा एवं धर्मगुरु आदि को अवगत कराने के लिए उन्होंने करीब डेढ लाख पन्ने जितना साहित्य लिखा है । जिनमें से कुछ साहित्य 'हित मित पथ्यं सत्यं' मासिकों की फाइलें एवं श्री पंच प्रतिक्रमण सूत्र, श्रीतत्त्वार्थ सूत्र आदि का विवेचन इत्यादि रूपमें प्रसिद्ध हुआ है । इस साहित्य द्वारा अनेक लोगों को नयी जीवन दृष्टि संप्राप्त हुई है। और अनेक लोगोंने यथाशक्ति तदनुसार जीवन जीने के लिए पुरुषार्थ भी किया है । लेकिनि वर्तमानकालमें इस साहियका सब से अधिक विधायक असर यदि किसीके जीवनमें हुआ है तो वे हैं एक कोट्याधिपति, गर्भश्रीमंत, हीरों के व्यापारी वडगाँव ( पालनपुर के पास) के सुश्रावक श्री दलपतभाई और रत्नकुक्षि सुश्राविका श्री शांताबहन के घर में आज से ३७ साल पहले जन्मे हुए अतुलकुमार कि जिन्होंने आजसे ८ साल पहले अहमदावाद के सरदार स्टेडियममें लाख से अधिक जनसंख्या की उपस्थितिमें सुविशालगच्छाधिपति, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३४७ व्याख्यान वाचस्पति, प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्त से संयम अंगीकार किया है और गुरु द्वारा प्रदत्त मुनि श्री हितचिविजयजी ऐसा यथार्थ नाम धारण किया है । उनके जीवन को एवं उस ऐतिहासिक दीक्षा प्रसंग के बारेमें अच्छी तरह से जानने के लिए तो उस दीक्षा के बाद अल्प समयमें प्रकाशित 'कल्याण' मासिक का विशेषांक 'अतुलम्' अचुक पढना जाहिए। यहाँ तो केवल अति संक्षेप में उस विशेषांक के आधार से उनके जीवन की कुछ विशेषताएँ अनुमोदन एवं अनुकरण हेतु प्रस्तुत की जा रही है। (१) वे टूथपेस्ट टूथब्रस के बदले में आयुर्वैदिक दंतमंजन या दातून का उपयोग करते थे । (२) हेन्डलूम की खादी के कपड़े ही पहनते थे । (३) केमिकल्स रहित गुड़-चीनी का उपयोग करते थे (४) मील के पोलिस किए हुए चावक की जगह हाथों से छेडे हुए चावल का उपयोग करते थे। (५) रीफाईन्ड तेल की जगह बेलघाणी से निकाला हआ तिल का तेल ही वापरते थे । (६) इलेक्ट्रीक घंटी की बजाय हाथघंटी से ही धान्य पीसाते थे। (७) फर्टिलाईझर, पेस्टीसाईक्स बिना के देशी खाद से उत्पन्न धान्य का उपयोग करते थे (८) ताजा दूध और शुद्ध घी का उपयोग करते थे । (९) नल के पानी की बजाय कुएँ के पानी का उपयोग करते थे । (१०) स्टील की बजाय कांसे की थाली कटोरी में भोजन करते थे। (११) गैस स्टव की बजाय चूले द्वारा बनी हुई रसोई का भोजन करते थे । (१२) लगभग पिछले ७ साल से एकाशन करते थे । उस में भी बचपन से सभी फल, एवं मिठाई (सुखडी, सीरा एवं पूरणपूरी के सिवाय) का त्याग है । (१३) टी. वी., विडियो, रेडियो, टेप, फिझ, एरकंडीशन, वोशिंग मशीन, गीझर, मिश्चर, ज्यूसर, ग्राईन्डर इत्यादि आधुनिक पापजनक यांत्रिक साधनों का उपयोग कभी नहीं करते थे । (१४) प्राकृतिक रूपसे मरे हुए पशुओं के चर्म से बने हुए जूते पहनते थे। (१५) फोटु खींचवाने का निषेध करते थे । (१६) गृहस्थ जीवनमें भी अति विशाल सभा के सिवाय माइक का उपयोग नहीं करते थे । (१७) एलोपथी या होमियोपथी दवा के बजाय अल्प हिंसा से बनती Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग आयुर्वेदिक औषधिओं का उपयोग करते थे । (१८) बाथरूम की बजाय खुल्ली जगह में स्नान करते थे (१९) फर्निचर के लिए कारखानेमें बनते हुए सनमाइका, फोरमाइका, प्लायवुड इत्यादिका उपयोग न करते हुए साग इत्यादिका प्राकृतिक लकडे का उपयोग करने के वे पक्षपाती थे और अपने घरमें भी उसका अमल किया था । ( २० ) डोरबेल की जगह दोरी युक्त घंटी रखी थी । (२१) गृहमंदिर में लाइट का फिटींग भी नहीं कराया था । (२३) दीक्षा के आमंत्रण पत्र खादी के कागज पर हाथसे लिखवाये थे (२३) दीक्षा की विशिष्ट आमंत्रण पत्रिका खादी के कपडे पर हेन्डप्रिन्ट से बनवायी थी उसमें रासायणिक रंगों की बजाय प्राकृतिक रंगों का उपयोग करवाया था । (२८) वरघोडा एवं दीक्षा के बेनर भी हाथ से लिखवाये थे । (२५) वर्षीदान के ५ विशिष्ट अति भव्य वरघोडों में पेट्रोल डीझल के वाहनों एवं बेन्ड का उपयोग नहीं करवाया था । (२६) दीक्षा के किसी भी प्रसंग में बिजली की रोशनी नहीं करवायी थी । मुंबई एवं अहमदाबाद के प्रत्येक जिनालय में दीपक की रोशनी करवायी थी । (२७) वरघोडा या दीक्षा के प्रसंगमें विडियो मूवी तो क्या मगर फोटोग्राफर भी उनकी ओरसे नहीं बुलाया गया था । (२८) वायणा के प्रसंग में स्मृति के लिए तस्वीर के बदले में कंकु - केसर से हाथ पैर के चिह्न स्थापित किये थे । (२९) उनके पात्र - तरपणी भी देशी पद्धति से रंगे गये थे । (३०) उनका रजोहरण, कम्बल, आसन, संथारा इत्यादि उपकरण देशी ऊन से बनाये गये थे । (३१) साधु-साध्वीजी भगवंतों को बहोराने के लिए विपुल प्रमाणमें हाथ बनावट की खादी के कपड़े का उपयोग किया गया था । (३२) वरघोडा एवं दीक्षा के दिन में कर्णावती ( अहमदाबाद) और बाहरगाँव के करीब डेढ दो लाख साधर्मिक भाई बहनों को बुफे पद्धति की बजाय बैठकर साधर्मिक भक्ति का अपूर्व आदर्श खड़ा किया था । 4 इन सभी बातों से उनके हृदय में रहा हुआ यंत्रवाद की हिंसा के प्रति अरुचिभाव एवं अहिंसक प्राचीन परंपरा के प्रति प्रेम अभिव्यक्त होता है । दीक्षा के बाद भी (३३) प्रायः निर्दोष गोचरी पानी का ही उपयोग Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३४९ करते हैं । (३४) प्रतिदिन एकाशन तप चालु है । योगोद्वहन में भी आयंबिल खाते के आहार का त्याग । (३५) दीक्षा के दिन उनके निमित्त से लाये गये कम्बल कपड़ा आदि गुरु आज्ञा लेकर नहीं बहोरे । (३६) दीक्षा के दूसरे दिन वसुधा बंगले में बहोरने के लिए जाने का प्रसंग आया । वहाँ पर भी दोष की संभावनावाली अनेक चीजें नहीं बहोरी । (३७) प्राचीन विधि के अनुसार श्री दशवैकालिक सूत्र के ४ अध्ययन संपूर्ण कंठस्थ करने के बाद ही बड़ी दीक्षा अंगीकार की । (३८) बडी दीक्षा के अवसर पर भी सांसारिक परिवारजनों के अति आग्रह के भी वशीभूत हुए बिना पात्र आदि नहीं बहोरे । (३९) अधिकांश स्वाध्याय हस्तलिखित प्रत के आधार से ही करते हैं (४०) दीक्षा ग्रहण के बाद ज्ञान-ध्यान और तप-जप में अदभूत लीनता के प्रभाव से ओघनियुक्ति, आवश्यक नियुक्ति, योग बिन्दु, तिलक मंजरी, मुक्तावलि इत्यादि ग्रंथों का अध्ययन अल्प समय में ही कर लिया । प्रसंगोपात 'श्राद्धविधि' ग्रंथ के आधार से उनके द्वारा प्रदत्त वाचना का लाभ सैंकडों श्रावक लेते रहते हैं। (४१) प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं की अप्रमत्तभाव से आराधना । (४२) ज्ञान-ध्यान की साधना के साथ साथ वंदन हेतु आते हुए जिज्ञासुओं के साथ मर्यादित वार्तालाप पूर्वक उनको भी धर्मसन्मुख बनाने की हितबुद्धि । इत्याति अनेकविध विशेषताओं से दिदीप्यमान व्यक्तित्व का ही एक नाम याने मुनि श्री हितरुचिविजयजी महाराज । पिछले ४ वर्षों में अलग अलग समुदायों के पूज्यों की निश्रामें कुछ छ'री पालक यात्रासंघ ऐसे निक ले कि जिन में आधुनिकता की बजाय उपरोक्त प्रकारकी कुछ प्राचीन परंपराओं का अनुसरण किया गया था, इसके पीछे भी साक्षात् या परंपरया उपरोक्त मुनिवर की प्रेरणा या मार्गदर्शन था ऐसा कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन संघों में विजली और माइक का उपयोग नहीं किया गया था। पेट्रोल या डिझल से चलते हुए एक भी वाहन का उपयोग नहीं किया गया था । यात्रियों का सामान, तंबू इत्यादि लेने के लिए बैलगाडियाँ, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उंटगाडियाँ इत्यादि का उपयोग किया गया था । हरेक तंबूओं में रातको मसाल, दिवेल के दीपक और कहीं पर पेट्रोमेक्स कीव्यवस्था रखी गयी थी । मलोत्सर्ग के लिए आधुनिक संडाश की बजाय मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया गया था। रसोई और पानी गर्म करने के लिए गेस इत्यादि की बजाय लकडीओं का उपयोग किया गया था । लकडीओं की प्रमार्जना के लिए खास आदमी नियुक्त किये गये थे । सूर्योदय होने के बाद ही रसोडा चालु किया जाता था । इत्यादि अनेक विशेषताओं से युक्त निम्नोक्त सघ निकाले गये थे । (१) सागर समुदाय के पूज्यों की निश्रामें निकला हुआ पालिताना से गिरनारजी महातीर्थ का संघ (२) गच्छाधिपति प. पू. आ. भ. श्री विजय महोदयसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में निकला हुआ पाटण से पालिताना का छ'री' पालक संघ (३) युवक जागृतिप्रेरक प. पू. आ. भ. श्री विजयगुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें निकला हुआ नारलाई से शंखेश्वरजी इत्यादि का संघ (४) गच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री विजय अरिहंतसिद्धसूरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू.आ.भ.श्री विजयहेमप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें निकले हुओ कलकत्ता से समेतशिखरजी संघ.. इत्यादि । मुनिराज श्री हितरुचिविजयजी के मार्गदर्शन के मुताबिक प्राचीन परंपरानुसारी ऐसे शासन के कार्यों को करने के लिए कुछ उत्साही युवक सदा तैयार रहते हैं । किसी भी समुदाय के पूज्यों की निश्रामें ऐसे कार्यों में सेवा देने के लिए वे तैयार हैं । ____(४) उपरोक्त संघों के अलावा कुछ साल पूर्व में धर्मचक्र तप प्रभावक प. पू. गणिवर्य श्री जगवल्लभविजयजी म.सा. (हाल आचार्य म.सा.) की निश्रामें पूना (महाराष्ट्र) से पालिताना का छ'री' पालक संघ निकला था। उस संघमें कुछ मर्यादाएँ अत्यंत अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय थी जिसका संक्षिप्त सार निम्नोक्त प्रकार से है । रसोडा विभाग में रसोई करने के लिए या धान्य और बर्तन की सफाई के लिए एक भी महिला को नियुक्त नहीं की गयी थी । पुरुष रसोईये ही सभी कार्य सम्हालते थे ताकि एम. सी. का अपालन या Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३५१ विजातीयता के कारण किसी प्रकारके अनर्थ होने की संभावना नहीं रहती थी । ___ कोई भी पुरुष स्वयंसेवक महिलाओं के विभागमें नहीं जा सकते थे और कोई भी महिला स्वयंसेविका पुरुष विभागमें नहीं जा सकती थी। स्नात्रपूजा और अष्ट्प्रकारी पूजा के लिए भाईओं और बहनों के लिए अलग अलग दो स्थानों पर व्यवस्था रखने में आयी थी । इसके लिए प्रभुजी के दो रथों की व्यवस्था की गयी थी । विहार के दौरान भी प्रथम साधु भगवंत, उनके बाद श्रावक, फिर साध्वीजी और उनके बाद श्राविकाएँ यह क्रम विहार के प्रारंभ से लेकर अंत तक निश्चित रूपसे रहता था । जिससे रास्ते में भी कोई विजातीय के साथ बातचीत नहीं कर सकते थे । सब के अंत में चौकीदार एवं २ - ३ प्रौढ श्रावक रक्षण के लिए रहते थे । चतुर्विध श्री संघ के प्रायः सभी यात्रिक गन्तव्य गाँव के पास पहुँच जाते उसके बाद ही स्वागतयात्रा का प्रारंभ होता था । संघ में बेन्डपार्टी को भी साथ में रखी गयी थी जो गुजरात से बुलायी गयी थी और पिरोसने की जिम्मेदारी उन्हीं को सौंपी गयी थी । पूना के किसी भी स्वयंसेवकको यह कार्य नहीं सौंपा गया था । इस प्रकार की कई विशेषताओं के कारण यह संघ अत्यंत शासन प्रभावक हुआ था । आज प्रतिवर्ष कई छ'री' पालक यात्रा संघ, ९९यात्रा संघ, उपधान इत्यादिके सामूहिक आयोजन होते है। उनमें भी यदि उपरोक्त प्रकार की मर्यादाओं का व्यवस्थित रू पसे पालन करवाने के लिए पूज्यवर्ग, संघपति एवं कन्वीनर जाग्रत रहें तो संभवित अनेक अनर्थ एवं आशातनाओं से बचा जा सकता है और सच्चे अर्थमें वे अनुष्ठान शासन और धर्म की प्रभावना करानेवाले बन सकेंगे । (५) शेजय महातीर्थ की ९९ यात्रा का आयोजन पिछले कुछ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ वर्षों से प्रतिवर्ष १२-१४ जितनी धर्मशालाओं में विविध संघपतिओं के द्वारा किया जाता है और हजारों भाग्यशाली ९९ यात्रा की आराधना द्वारा अपनी आत्मा को लघुकर्मी बनाते हैं । लेकिन शेजय महातीर्थ की एक टेक के रूप में माने गये श्री गिरनारजी महातीर्थ की ९९ यात्रा का सामूहिक आयोजन सैंकडों वर्षों के इतिहास में सर्वप्रथमबार वि. सं. २०५१ में अचलगच्छाधिपि प. पू. आ. भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य प्रशिष्य पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. आदि ठाणा ३ की निश्रामें सा. श्री निर्मलगुणाश्रीजी एवं सा. श्रीज्योतिप्रभाश्रीजी की प्रेरणा से किया गया था । गिरनारजी की तलहटी में एक ही जैन धर्मशाला और वह भी जर्जरित स्थिति में होने से ५० जितनी मर्यादित संख्या में ही यह आयोजन ५ संघपतिओं के सहयोग से आयोजित हुआ था । कुल ९० दिनों के इस आयोजनमें ७८ सालके वयोवृद्ध माजी भी वर्षीतप करे हुए शामिल हुए थे । ४० जितने यात्रिकोंने छ? तप के साथ दो दिनों में ७ यात्राएँ की थीं । उनमें से अधिकांश यात्रिकों ने चौविहार छठ्ठ तप किया था । कुछ यात्रिकोंने अठ्ठम तप के साथ ११ या ९ यात्राएँ की थीं । कुछ यात्रिकोंने १ उपवास के साथ एक दिनमें ४ यात्राएँ की थीं। वर्षीतप, एकांतरित ५०० आयंबिल और वर्धमान आयंबिल तप की ओली के साथ उत्साहपूर्वक ९९ यात्राएँ की थी। - ३ यात्रिकोंने ९० दिनोंमें दो बार ९९ यात्राएँ की थीं । एकबार - ९९ यात्रा पूर्ण करने के बाद शंखेश्वरजी तीर्थ में सामूहिक अठ्ठम तप में शामिल होकर पुनः दूसरी बार ९९ यात्राएँ की थीं । ३ आराधकों ने ९० दिन तक संपूर्ण मौन के साथ ९९ यात्राएँ की थीं । कुछ श्रावकोंने ९९ यात्रा के दौरान केशलोच भी करवाया था। गिरनारजी के प्रत्येक जिनालय एवं प्रत्येक देहरी के समक्ष सामूहिक चैत्यवंदन हो जाय इस रह हररोज नेमिनाथ जिनालय एवं अन्य Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ जिनालयों में सामूहिक चैत्यवंदन किया जाता था । गिरनारजी जैसे महातीर्थ की तलहटीमें अन्य जैन धर्मशाला की आवश्यकता को लक्ष में रखते हुए वहाँ ली गयी जमीं के उपर ५. गणिवर्य श्रीने माँगलिक सुनाकर वासक्षेप किया था । वहाँ जिनालय उपाश्रय धर्मशाला भोजनशाला इत्यादिके निर्माणकार्य का प्रारंभ हो चुका है । अल्प समय में यह कार्य परिपूर्ण होने पर अक्सर ९९ यात्रा आदि आयोजन होने से तीर्थ की महिमा बढेगी इसमें संदेह नहीं । · | १५० - ३५३ स्कूल का शिक्षण वर्ज्य किया, घर को ही शाला बनाया, अहमदाबाद का जैन परिवार भूतकाल .को वर्तमानमें ला रहा है । स्नातक और अनुस्नातक होने के बाद भी नौकरी प्राप्त करने के लिए आधी जिंदगी व्यतीत हो जाती है । ऐसी परिस्थिति सामने आने पर कई लोग कहते हैं कि इस शिक्षण से क्या लाभ कि जो दो टाईम रोटी भी नहीं दे सके ? ऐसे सभी प्रश्नों के प्रत्युत्तर अहमदाबाद के एक जैन परिवार के पास हैं । इस परिवार के ११ बालकोंने स्कूल में जाना छोड़ दिया है और घर में ही संस्कृत, प्राकृत और वैदिक गणित की पढाई शुरू कर दी है । अब उनके मन में तथाकथित आधुनिक शिक्षण और डिग्रीयाँ महत्त्वकी नहीं हैं । जीवन जीने की कला सिखाये वही सच्चा शिक्षण है। इस प्रयोग का अमल तो पिछले ३ साल से हुआ है किन्तु सचमुच तो इसका विचार २२ साल पुराना है । मूलतः राजस्थान के निवासी किन्तु कई वर्षों से गुजरातमें सुरत जिले के किम गाँव में रहते हुए जवानमलजी शाह को चार पुत्र हैं । जवानमलजी का किममें धान्य का व्यवसाय अच्छा चलता था । उनका घर समृद्धिशाली था । ई. स. १९७० में जवानमलजी के द्वितीय पुत्र उत्तमभाई अस.अस.सी. में ७२ प्रतिशत गुणांक प्राप्त हुए । सारे किम में प्रथम क्रमाँकमें वे उत्तीर्ण हुए थे । उनकी प्रगति को देखकर गाँव के कुछ बहुरत्ना वसुंधरा - २-23 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग अग्रणीने जवानमलजी के पास अपनी भावना व्यक्त की कि उत्तमभाई को डोक्टर बनाना चाहिए । उत्तमभाईने सायन्स स्ट्रीम में पढना शरू किया लेकिन कुछ संयोगों के कारण उन्होंने अभ्यास अधूरा छोड़ दिया और अपने पिताजी के साथ धान्य के व्यवसायमें जुड गये । व्यवसाय के साथ साथ उन्होंने जैन मुनि श्री चंद्रशेखरविजयजी महाराज द्वारा लिखित किताबें पढना प्रारंभ किया । तब से उनके विचारों में परिवर्तन होने की शुरुआत हुई । सायन्स स्ट्रीम में पढे हुए बायोलोजी केमिस्ट्री इत्यादि व्यर्थ लगने लगे लेकिन दूसरा विकल्प क्या हो सकता है उसकी समझ नहीं थी । समय का चक्र चलता रहा । उत्तमभाई किम के सरपंच बने । आज भी पिछले १५ साल से वे किम के सरपंच हैं । यद्यपि शहरीकरण के असर से उनका परिवार बच नहीं सका है । आज जवानमलजी और उनके सुपुत्र रमणभाई, उत्तमभाई, शैलेषभाई एवं अजितभाई अहमदाबाद में धान्य का व्यवसाय करते हैं । उत्तमभाई की आत्मामें अभी भी किम के प्रति लगाव है । इ.स. १९९२ में उत्तमभाईने मुंबईके अतुल शाह में से हितररुचिविजयजी महाराज बने हुए जैन मुनिका नवसारी में प्रवचन सुना, तब उनके शब्द थे, 'पश्चिम की संस्कृति भड़का है । भड़का क्षणिक होता है, जब कि प्रकाश लंबे समय तक चलता है अहमदाबाद के साबरमती विस्तारमें संयुक्त परिवार में रहते हुए उत्तमभाईने इ.स. १९९३ में अपने पिताजी एवं तीनों भाईओं के साथ चर्चा की । भानजे के साथ घरमें रहते हुए ११ बालकों को स्कूलका शिक्षण बंद कराना चाहिए ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया । वर्तमान शिक्षा के गैरफायदे और ऋषिओं के युग की शिक्षाप्रणाली के लाभ प्रस्तुत किये । आखिर सभीने उत्तमभाई की योजना का स्वीकार किया था । घर में सब से बड़े भाई रमणभाई की बेटी पूनम १२वीं कक्षा में, पुत्र चेतन १०वीं कक्षामें, अक्षय ७वीं कक्षा में और धर्मेश ५वीं कक्षा में पढता था। दूसरे नंबर के उत्तमभाई की बेटी काजल १२वीं कक्षा में, आरती १०वीं कक्षामें, अंकिता ९वीं कक्षामें, और अखिल ७वीं कक्षामें, Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३५५ था । तीसरे भाई शैलेषभाई की बेटी श्वेता ७वीं कक्षा में थी और सबसे छोटे अजितभाई की बेटी अनिता तो दो साल की ही थी । चारों भाई की एक बहन थी इन्दिराबहन जिसका विवाह मुंबई में हुआ था । उनका पुत्र विशाल भी १०वीं कक्षामें था। इन ११ बालकों को स्कूल की शिक्षा बंद करायी गयी तब प्रारंभ में तो भूकंप जैसी हलचल मच गयी । अधिकांश लोगोंने उत्तमभाई के निर्णय की टीका की और कुछ लोगोंने इस निर्णय की सराहना भी की । पिछले डेढ साल से इन ११ बालकों ने पुराना सब भूलकर संस्कृत पढना प्रारंभ किया है । संस्कृत की पढाई करीब पूर्ण होने आयी है, अब प्राकृत पढना प्रारंभ किया है । स्कूल की बजाय घर की ही पाठशाला में प्रतिदिन ८ घंटे तक अध्ययन करते हुए इन बालकों को अध्ययन के साथ में संगीत की शिक्षा भी दी जाती है । इसके अलावा तैरना, घुडसवारी, योगासन इत्यादि की शिक्षा भी उन्होंने ली है । इस सभी विषयों के लिए अलग अलग शिक्षक रखे गये हैं । एक सामान्य प्रश्न होने की संभावना है कि संस्कृत और प्राकृत भविष्य में क्या काम आ सकते हैं । इसका जवाब भी इस परिवार के पास है । संस्कृत और प्राकृत तो प्रारंभिक स्टेज है, उसके बाद वे गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी, ज्योतिष, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, इतिहास, खगोलशास्त्र, नीतिशास्त्र और वैदिक गणित का भी अध्ययन करेंगे । इतना ही नहीं किन्तु राइफल शूटिंग, व्यापार संचालन, हस्तकला, कृषि-पशुपालन, नाट्य, वक्तृत्व इत्यादि की शीक्षा भी इन्हें दी जायेगी । उत्तमभाई शाहने 'अभियान' को दी हुई भेंट में कहा था कि, "संस्कृत के बारे में लोगों में गलतफहमी है कि संस्कृत याने धर्म की ही शिक्षा । मेरा अभिप्राय है कि संस्कृत नहीं सीखा हुआ भारतीय अधूरा है । ये सभी बालक हाइटेक जमाने के विषयों का भी अध्ययन करेंगे, लेकिन अपनी मूल भाषा के उपर तो काबू होना ही चाहिए।" आधुनिक शिक्षण अर्थहीन होने का दावा करते हुए उत्तमभाई ने कहा था कि हम पश्चिम की ओर दौड़ रहे हैं । जिनको हम विकास Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ कहते हैं वह मनुष्य के लिए खतरा सिद्ध हुआ है । हालमें रोड़, उद्योग, मकान इत्यादिको विकास माना जाता है, लेकिन वास्तवमें तो वह अवनति का संकेत है। उत्तमभाई अपनी बात के समर्थन में कहते हैं कि, 'उद्योग शुरू होने पर विकास माना जाता है, लेकिन उद्योगों के कारण फैलते हुए प्रदूषण ने बहुत ही नुकशान पहुँचाया है । जहाँ अभी रोड़ नहीं बने हैं, उद्योगोंकी स्थापना नहीं हुई है वहाँ जाकर जाँच करो कि वहाँ के लोग कितने सुखी हैं । वहाँ कोई रोग नहीं होते। __बालकों को इस प्रकार की शिक्षा देने के हेतु को स्पष्ट करते हुए उत्तमभाई ने कहा था कि, “सैकडों साल पूर्व में चलती हुई नालंदा जैसी विद्यापीठे ही सच्चे अर्थ में विश्वविद्यालय थीं। इन विद्यापीठों में अध्ययन करने के लिए दूर दूरसे भी विद्यार्थी आते थे। अध्ययन पूरा होने के बाद विद्यार्थी हिम्मतपूर्वक हर परिस्थिति का सामना कर सकता था । आज डिग्री प्राप्त करने के बाद भी विद्यार्थी नौकरी के लिए लाचार होता है। मेरी भावना नालंदा जैसा गुरुकुल निर्माण करने की है। रूपयों की कमी नहीं है, किन्तु आजकी शिक्षा के गैरफायदे और गुरुकुल की शिक्षा के लाभ लोग समझें यह बहुत जरूरी है। तात्कालिक कोई फलश्रुति दृष्टिगोचर नहीं होगी किन्तु समय जाने पर अवश्य इसका अच्छा परिणाम मिलेगा ही।" बालकों को स्कूल के शिक्षण की बजाय गुरुकुल की पद्धति से शिक्षण देने का निर्णय तो इस घर के बुजुर्गों का था, किन्तु जिनके लिए ऐसा निर्णय किया गया था वे बालक क्या कहते हैं वह भी महत्त्व का हैं । सातवीं कक्षा तक स्कूल का शिक्षण लेनेवाला अखिल स्कूल की शिक्षा को परीक्षालक्षी मानता है और अभी जो पढ रहा है वह ही जीवनलक्षी होने का उसका दावा है । अखिल को अध्ययन पूरा होने के बाद दीक्षा लेने की भावना है, जब कि १०वीं कक्षा तक पढनेवाले आशिष को व्यवसाय करने की इच्छा है ।। अपने मामा के घर पढने के लिए आये हुए मुंबई के विशाल को शुरूमें संस्कृत पढना कठीन लगता था लेकिन अब सब सरल हो गया Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३५७ है । इस शिक्षा के बाद उसको कम्प्युटर का व्यवसाय करने की इच्छा है । ४थी कक्षा तक पढनेवाले धर्मेश को यह पढाई पसंद है, लेकिन उसको सब से ज्यादा क्रिकेट खेलना पसंद है । पूनम, काजल, अंकिता और श्वेता को अभी तक स्कूल में की हुई पढाई व्यर्थ लग रही है। स्कूल छोड़ने का उनके हृदय में जरा भी अफशोस नहीं है, क्योंकि उनको मनपसंद नृत्य, संगीत और चित्रकला का अभ्यास करने का मौका मिला है । चेतन को बंसरी बजाने में बहुत मजा आता है । अक्षय इन सभी से अलग प्रकार का है। वह पाठशाला में पढ़ने के लिए राजी नहीं है । उसके दिल में स्कूल नहीं जाने का अभी भी दु:ख है । उसको संस्कृत पढना अच्छा नहीं लगता । उसको क्रिकेट खेलना और मित्रों के साथ घूमना अच्छा लगता है । अब बाकी रही अनिता, लेकिन साढे तीन सालकी अनिता को तो स्कूल क्या होती है । यह मालूम भी नहीं है, उसके मनमें तो पाठशाला ही स्कूल है। वह भी अपने भाई-बहनों के साथ हररोज पाठशाला में जाकर धीरे धीरे पढने का प्रयत्न करती है । __जवानमलजी के सबसे छोटे सुपुत्र अजितभाई का कहना है कि मैंने बी. कोम. तक आधुनिक शिक्षा प्राप्त की मगर उससे क्या फायदा हुआ ? अभी तक तो हमारे पास स्कूल-कोलेज की पढाई का दूसरा कोई विकल्प नहीं था । अब एक नया रास्ता खुला है। यदि भारत को सही अर्थ में सुदृढ बनाना होगा तो उसे प्राचीन भारतीय संस्कृति का समादर करना ही पड़ेगा। मुझे बहुत आनंद है कि मेरी बेटी अनिता ने स्कूल कभी देखी ही नहीं है। मेरा जो समय बिगड़ा वह उसका नहीं बिगड़ेगा। हाँ, इन बालकों के पास सरकारी डिग्री नहीं होगी, लेकिन दुनिया के किसी भी स्थान से उनको पीछे नहीं हटना पड़ेगा उसकी मुझे पूरी तसल्ली है । जीवन में नहीं चाहिए आधुनिकता : अहमदाबाद का यह जैन परिवार केवल शिक्षण के द्वारा ही प्राचीन भारत में जाना नहीं चाहता किन्तु क्रमशः अपनी जीवनशैली भी वह बदल रहा है । शहरीकरण के कारण खड़े हुए कों क्रीटों के जंगलों में अब Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उन्होंने नहीं रहने का निश्चय किया है । साबरमती विस्तारमें ही उन्होंने वास्तुशास्त्र के अनुसार बंगला बनाने का प्रारंभ किया है । इस बंगले में सिमेन्ट और लोहे का उपयोग नहीं होगा । उसके बदले में चूना और लकड़ी का उपयोग होगा । बिजली का कनेक्शन भी नहीं लिया जायेगा । बिजली के बजाय हररोज रातको घी के दीपक जलाये जायेंगे । यह मकान वास्तुशास्त्र के अनुसार बनता है, अतः उसमें पंखे की भी जरूरत नहीं रहेगी । शर्दी की ऋतुमें ठंडी नहीं लगेगी और गर्मी की ऋतुमें गर्मी भी नहीं लगेगी । शास्त्र के अनुसार गायका दूध पृथ्वी पर रहा हुआ अमृत है, इसलिए इस घर के आँगन में गायें भी रखी जायेंगी। ___ इस बंगले के निर्माण में लाखों रूपयों का व्यय होनेवाला है फिरभी इसमें मिट्टी से ही लीपन किया जायेगा । कांसे के बर्तनों में भोजन होगा, ताम्रपात्रों में पानी रहेगा और पित्तल के गिलास में पानी मिलेगा । इस घर में फीज तो नहीं होगा, क्योंकि इस परिवार का मानना है कि ताजी वस्तुओं को बासी बनाने का मशीन याने फिज । टी.वी. का तो प्रश्न ही नहीं होता। जैन शास्त्रों के अनुसार शाम को ६ बजे के बाद चूला नहीं जलाया जायेगा। ले. प्रशांत दयाल ('अभियान' दि. ११-१२-९५) में से साभार उद्धृत) पता : उत्तमभाई जवानमलजी बेड़ावाले सिद्धाचल वाटिका, रामनगर, साबरमती, अहंमदाबाद-३८०००५. फोन : ०७९-७४८६१७८ (निवास) ३ घंटे की तेजस्वी शाला आजका विद्यार्थी स्कूल अध्ययन के पीछे हररोज ६ घंटे समयका व्यय करता है । दूसरे ३ घंटे होम वर्क और ट्युशन के पीछे व्यय करता है, फिर भी कोचिंग क्लास बाकी रह जाते हैं । प्रतिमाह युनिट टेस्ट, ३ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३५९ महिने में सेमिस्टर, ६ महिनों में टर्मिनल और फिर वार्षिक परीक्षा के हथोड़े उसके सिर पर लगाये जाते हैं। इन सबमें से पसार होने के बाद डिग्री मिलती है मगर उसकी भी जब कोई किंमत नही होती है तब वह हताश हो जाता है । उसको लगता है कि उसकी जिंदगी के सुवर्ण समान कई वर्ष बेकार हो गये । वह एक निष्फल और निराश नागरिक बनता है । मुंबई - गिरगाँव में रहते हुए किरणभाई शुकल ने इसी कारण से अपने दोनों बच्चों को स्कूल में से वापस उठा लिया है । पिछले ६ सालसे वे उनको सभी विषय स्कूल से भी अच्छी तरह से घरमें ही पढाते हैं । १२ सालकी श्रद्धा और १० साल का विश्वास आज अत्यंत खुश हैं । श्रद्धा ने अंग्रेजी माध्यम की स्कूलमें सिनियर के. जी. किया । उसके बाद शिक्षण के असहय बोझमें से अपनी बगीची के इस सुकोमल पुष्प को बचा लेने के लिए, संवेदनशील पिताके हृदय को धारण करनेवाले किरणभाई को हुआ कि वे स्कूल का त्रास ज्यादा सहन नहीं कर पायेंगे। अध्यापक का व्यवसाय करते हुए किरणभाई करोड़पति श्रीमंतों के बालकों को टयुशन पढाते हैं । उनको आत्मविश्वास था कि स्कूल में ६ घंटों में जो पढ़ाया जाता है उससे बेहतर वे केवल २ घंटों में घर पर पढ़ा सकेंगे। इस तरह ६ साल पूर्वमें उनकी गृहशाला शुरू हुई । उनका पुत्र विश्वास उसमें ५ साल पहले शामिल हुआ । केवल २ घंटोंकी गृहशाला होने के कारण दोनों भाई-बहन को संगीत, चित्रकला, कविता, साहित्य, नृत्य इत्यादि कलाओं को सीखने के लिए बहुत समय मिलता था । इन क्षेत्रों में भी उनकी प्रतिभा का अच्छा निखार हुआ है । १२ सालकी श्रद्धा भारतनाटयम सीख रही है और विश्वास तबलावादन में पारंगत हो रहा है । वह १५ साल का होगा तब उसको नौकरी के लिए कहीं भी भीख माँगने के लिए नहीं जाना पड़ेगा । तबलावादन की कला द्वारा आजीविका को संप्राप्त करने की ताकत उसमें आ गयी होगी । उसी वक्त एस.एस.सी. की परीक्षा प्राप्त करने जितना व्यावहारिक शिक्षण भी उसने प्राप्त कर लिया होगा । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ शिक्षण के बारे में किरणभाई के विचार मौलिक और क्रांतिकारी हैं। उनकी शिक्षण पद्धति में ढेर सारी माहिती विद्यार्थीओं के दिमाग में ढूंस ढूंसकर भर देनेका अभिगम नहीं है । विद्यार्थी को परीक्षा का त्रास देने के पक्षमें वे नहीं है । मातृभाषा और अंग्रेजी की शिक्षा वे संभाषण और संवाद के द्वारा देते हैं । विज्ञान तो बालकों को प्रयोगशाला में ही सीखाना चाहिए ऐसा वे मानते हैं । गणित की नींव अंकगणित होनी चाहिए । केलक्युलेटर और कम्प्युटर के बिना विद्यार्थी सूदकी गिनती कर सके और लाभ-हानि का हिसाब लगा सके इतनी क्षमता यदि उसमें नहीं आती है तो वैसी गणितकी शिक्षा को वे अधूरी मानते हैं । इतिहास की शिक्षा प्रेरणात्मक कथाओं के रूपमें और भूगोल की शिक्षा पर्यटन और प्रवास के द्वारा देने में वे मानते हैं। किरणभाई की शाला में पढता हुआ बालक एस.एस.सी. में पहुँचेगा तब तक उसको ३०० संस्कृत सुभाषित हँसते-खेलते हुए कंठस्थ हो गये होंगे। गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी में ५०० से अधिक कथाएँ, गीत और काव्य उसको आत्मसात् हो गये होंगे । उसका भाषाकोश अत्यंत समृद्ध होगा। अपनी आजीविका संप्राप्त कर सके वैसी कला भी वह जानता होगा । किरणभाई की इस समांतर लेकिन अधिक तेजस्वी शाला को देखकर मेरे -आपके जैसे अनेक लोगों को होता होगा कि, 'हम भी अपने बालक को इस तरह शिक्षण और संस्कार प्रदान कर सकें तो कितना अच्छा !' लेकिन किरणभाई जितना समय आदि का भोग अपने बालकों के लिए देना सभी माँबाप के लिए संभव नही होता है। शायद समय का भोग देने की तैयारी हो तो भी उतना ज्ञान नहीं होता है। इसलिए दक्षिण मुंबई के कुछ बुजुर्गों ने इकट्ठे होकर किरणभाई को विज्ञप्ति की कि, आप हमारे बच्चों को भी आप की शाला में दाखिल करें' । अपने बच्चों को स्कूल में से उठाकर इस तरह की शिक्षा देने के लिए करीब १० जितने श्रीमंत और शिक्षित माँ-बाप तैयार हो गये हैं । इन बालकों को ६ सालमें कक्षा ५ से लेकर १० तक की शिक्षा मौलिक पद्धति से दी जायेगी। यह शाला केवल ३ घंटे ही चलेगी। उसके बाद कोई होमवर्क Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३६१ नहीं, टयुशन नहीं, कोचिंग क्लास नहीं और परीक्षा भी नहीं । बाकी के समय में बालक की प्रतिभा के विकास के लिए उसको कौनसी कला सीखनी होगी, उसका मार्गदर्शन दिया जायेगा । छ साल में बालक एस.एस.सी. पास हो जायेगा और विविध कलाओं में पारंगत हो जायेगा । - पहली बेच में १५ विद्यार्थीओं से प्रारंभ किया जायेगा । आप भी आपके बालक को इस प्रकार की शिक्षा देना चाहते हों तो ३८६८२१६ इस नंबर से दूरभाष के द्वारा किरणभाई का संपर्क कर सकते हैं । क्रांतिका प्रारंभ ऐसे छोटे से प्रयोग से ही होता है । किरणभाई के प्रयास में शैक्षणिक क्रांतिका बीज द्रष्टिगोचर होता है । ('मिड डे' दि. १०-५-९६ में से साभार) 錦 १५२ श्री के.पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट के सुक्तों की हार्दिक अनुमोदना भारत में ट्रस्ट अनेक हैं, किन्तु निःस्वार्थभावसे, परोपकार के हेतुसे धर्मोद्धारक और जनहित के कार्यों में सदा प्रयत्नशील ट्रस्ट के रूपमें श्री के.पी.संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट एक बेजोड़ संस्था है । मालगाँव (जि. सिरोही राजस्थान) निवासी माता कनीबहन और पिताश्री पूनमचंदजी के अनेकविध सुकृतों की अनुमोदना हेतु एवं उनका ऋण यत् किंचित् अंश में भी अदा करने की भावना से धर्मवीर, आबु गोड़रत्न ( १ ) सुपुत्र श्री हजारीमलजी पूनमचंदजी संघवी ( २ ) सुपुत्र बाबुलालजी पूनमचंदजी संघवी और (३) पौत्र श्री किशोरभाई हजारीमलजी संघवी ( श्री के. पी. संघवी परिवार) द्वारा संस्थापित उपरोक्त ट्रस्ट के द्वारा कराते हुए अनेकविध उत्तम और अनुमोदनीय सत्कार्यों का विवरण श्री प्रकाशभाई के. संघवी के द्वारा संप्राप्त हुआ है, जो अन्य ट्रस्टों को प्रेरणा और अनुमोदना का लाभ मिले और उपरोक्त ट्रस्ट को शुभेच्छा रूप शक्ति संप्राप्त हो इस हेतु से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ (१) श्री के. पी. संघवी रिलीजियस ट्रस्ट :- इस ट्रस्ट की और से जिनालयो के जीर्णोद्धार और नूतन जिनालय के निर्माण में सहयोग दिया जाता है । जिनालयों के लिए प्रभु प्रतिमाजी अर्पण किये जाते हैं । साथ में चाँदी के १४ स्वप्न, प्रभुजी का पारणा, त्रिगडा, भंडार, जिनमूर्ति एवं परमात्मा के चक्षु-टीका इत्यादि परमात्मभक्ति के रूपमें अर्पण किये जाते हैं। (२) श्री के. पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट :- भारत सरकार की और से "लाडला' राष्ट्रीय एवोर्ड को संप्राप्त इस ट्रस्ट की और से साधर्मिकों को आवश्यकता के अनुसार दवा आदि की सेवा और शैक्षणिक प्रवृत्तिमें सहाय दी जाती है । (३) तीर्थाधिराज श्री शेजय महातीर्थ की यात्रा हेतु पधारते हुए भक्तजनों को गिरिराज के उपर चढते एवं उतरते समय शीतल छाया और नैसर्गिक वातावरण मिले इस हेतुसे विशाल संख्या में वृक्षारोपण किया गया है। (४) श्री सिद्धाचलजी भक्ति ट्रस्ट : इस ट्रस्ट के द्वारा श्री शेजुंजय महातीर्थ में पधारते हुए पू. साधु-साध्वीजी भगवंतों की भक्ति, दीक्षार्थी भाई-बहनों की भक्ति एवं 'के. पी. संघवी भक्तिगृह' में पधारते हुए यात्रिकों की भक्ति की जाती है । (५) श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भक्ति ट्रस्ट : इस ट्रस्ट के द्वारा प्रकट प्रभावी श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभुजी की भक्ति के लिए पधारते हुए पू. साधु-साध्वीजी भगवंतों की भक्ति एवं यात्रिकों के लिए सुविधायुक्त धर्मशाला बनवाने का कार्य निर्माणाधीन है । (६) श्री सुमति जीवरक्षा केन्द्र पावापुरी :- इस ट्रस्ट के द्वारा जीवदया के महान कार्य करने की ट्रस्ट के संचालकों की उँची भावना है। सिरोही जिले में कृष्णगंज (राजस्थान) में विशाल जगह के अंदर गौशाला-पांजरापोल के द्वारा जीवदया के अनेक प्रकार के कार्य करने का इस ट्रस्ट का आयोजन है। किसी भी जगह में कोई भी महाजन या संघ के द्वारा ३०० या उनसे अधिक पशुओं का समावेश हो सके ऐसी पांजरापोल का निर्माण होता हो तो इस केन्द्र के द्वारा ५ लाख रूपयों का दान दिया जाता है! Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३६३ पिछले ४ वर्षोंमें प्रत्येक वर्षमें एक बार पालिताना, शंखेश्वरजी, जीरावला आदि तीर्थोंमें, अपने गाँवमें जिनालय, उपाश्रय, पांजरापोल आदिमें सहायता इच्छुक २०० से अधिक संघों के प्रतिनिधिओं को एक साथ बुलाकर करीब २-३ करोड़ की राशि के चेक उन्हें के. पी. संघवी ट्रस्ट द्वारा अर्पण किये जाते हैं । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में श्री के. पी. संघवी परिवार द्वारा आराधकरत्रों को चांदी का सिक्का अर्पण किया गया था एवं बहुरत्ना वसुंधरा भा. ३-४ (गुजराती) के प्रकाशन में भी सुंदर सहयोग दिया गया था । 1 यह ट्रस्ट उपरोक्त प्रकार के शासनसेवा के अनेकविध सत्कार्य करने के लिए उत्तरोत्तर सविशेष रूपसे सक्षम बने एवं मोक्षमार्ग में आगे बढने के लिए सभी को सहायक बनता रहे यही शुभेच्छा । १५३ पता : (१) श्री के. पी. संघवी परिवार २०१ अल्पा एपार्टमेन्ट, बडुंगरा नाका, लाल दरवाजा, सुरत (गुजरात) ३९५००१ फोन : ०२६१-४२१२५१-४२६१५३ (२) १३०१ प्रसाद चेम्बर्स, ओपेरा हाउस, मुंबई - ४००००४ फोन : ०२२- ३६३०३१५/३६३०४४९ "दानवीर" स्व. भेरूमलजी हुकमीचंदजी बाफना (मालगाँव-राजस्थान) परिवार के सुकृतों की अनुमोदना मालगाँव (जि. सिरोही - राजस्थान) निवासी स्व. संघवी भेरुमलजी हुकमीचंदजी बाफना एवं उनके ३ सुपुत्र श्री ताराचंदजी, मोहनभाई एवं ललितभाई के द्वारा पिछले कुछ वर्षों में किये गये अनेकविध सुकृतों में से मुख्य मुख्य सुकृतों की संक्षिप्त तालिका अनुमोदना हेतु यहाँ प्रस्तुत की जा रही है । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग (१) आजसे ७-८ साल पहले युवक जागृति प्रेरक प.पू. आ. भ. श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रामें श्री जीरावल्ला पार्श्वनाथ तीर्थ में ३२०० आराधकों को श्रीनवपदजी की ओली की भव्य आराधना करवायी । १५०० आराधकों की व्यवस्था की गई थी मगर अकल्पित रूपसे ३२०० आराधक आ गये तो जंगल में रहे हुए उपर्युक्त तीर्थ में भी एक ही रात में सारा इन्तजाम करवा दिया !!! इस आयोजन में करीब ३५ लाख रूपयों का सद्व्यय करके महान् पुण्योपार्जन किया । ३६४ - (२) उपर्युक्त पूज्यपाद आचार्य भगवंतश्री की तारक निश्रामें मालगाँव से शत्रुंजय महातीर्थ का भव्यातिभव्य छ'री' पालक संघ निकाला, जिसमें शामिल हुए २७०० यात्रिकों को प्रत्येकको करीब १० हजार रूपयों के उपकरण आदि की प्रभावना दी । (३) मातृश्री सुंदरबाई भेरुमलजी संघवी के वर्षीतप के उपलक्ष में वि.सं. २०५१ में शत्रुंजय महातीर्थ में हजारों तपस्वीयों के सामूहिक पारणे का और बियासन का लाभ लिया । उस दिन शत्रुंजय महातीर्थ के सभी यात्रिकों को चांदी का बड़ा सिक्का देकर बहुमान किया । (४) मालगाँव से पालिताना के छ'री' संघ के दौरान शंखेश्वर महातीर्थ में २२०० अठ्ठम तप का सामूहिक भव्य आयोजन किया और प्रत्येक तपस्वी को ५०० रूपयों की सामग्री प्रभावना के रूपमें देकर बहुमान किया । (५) श्री जीरावल्ला तीर्थमें भोजनशाला का निर्माण करवाया । (६) श्री शत्रुंजय महातीर्थ की तलहटी के पास 'संघवी भेरु विहार' धर्मशाला का निर्माण करवाकर उपरोक्त पूज्यश्री की निश्रामें उद्घाटन करवाया । वहाँ हररोज सैंकड़ों पू. साधु-साध्वीजी भगवंतों की एवं साधर्मिकों की भक्तिका आयोजन किया जाता है । (७) देलवाड़ा तीर्थमें भोजनशाला भवनका निर्माण (८) अचलगढ तीर्थमें भोजनशाला भवनका निर्माण (९) शंखेश्वर तीर्थ में धर्मशाला की एक वींग का निर्माण (१०) श्री हस्तगिरिजी तीर्थमें नीर तृप्ति गृह निर्माण (११) वि.सं. २०५१ में शत्रुंजय महातीर्थ में श्री आदिनाथ भगवंत आदि जिनबिम्बों के १८ अभिषेक एवं स्वामी वात्सल्यका आयोजन (१२) पालिताना में शासनसेवापरायण जैनेतरों को उचितदान (१३) जीवदया और समाजसेवा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३६५ के लिए मालगाँव में सेवा केन्द्र निर्माण (१४) दुष्काल में ५ गाँवों में पशुओं की विशिष्ट अनुकंपा (१५) मालगाँव में भव्यातिभव्य उपधान तप, उद्यापनअठ्ठाई महोत्व (१७) श्री राणकपुर आदि पंचतीर्थी की यात्रा का आयोजन (१८) श्री जीरावल्ला आदि १० स्थानों पर नेत्ररोग निवारण शिबिर द्वारा १५०० दर्दीओं की सेवा (१९) श्री शत्रुजय महातीर्थ की ९९ यात्रा का आयोजन (२०) गुलाबगंज जिनमंदिर प्रतिष्ठा में महत्त्वपूर्ण सहयोग (२१) ११ गुप्त छ'री' पालक संघ निकालने की भावना है, जिसमें से १ गुप्त संघ निकाल चुके हैं । अर्थात् संघपति के रूपमें अपना नाम जाहिर किये बिना ११ संघों का आयोजन करने की भावना है। (२२) संघवी श्री भेरुमलजी का वि.सं. २०५१ में स्वर्गवास हो गया है। बादमें उनके उपर्युक्त तीन सुपुत्रों द्वारा वि.सं. २०५२ में स्पेश्यल ट्रेइन द्वारा करीब १००० से अधिक यात्रिकों को श्री समेतशिखरजी महातीर्थ की यात्रा करवायी और प्रत्येक यात्रिक को एक एक सोने की कटोरी प्रभावना के रूपमें देकर बहुमान किया । (२३) आबुतीर्थ की तलहटी में करीब १० करोड रूपयों की लागत से 'संघवी भेरु तारक धाम' आयोजन चालु है जिसमें श्री अर्बुदगिरि सहस्रफणा पार्श्वनाथ तीर्थ, जिनालय, उपाश्रय, धर्मशाला, भोजनशाला आदि का आयोजन है । (२४) मोहनभाई मारवाड़ी की धर्मपत्नी के ५०० आयंबिल की पूर्णाहुति के उपलक्षमें आबुजी तीर्थ में भव्य महोत्सव के दौरान प्रत्येक यात्रिकों को करीब ५०० रूपयों के उपकरणादि की प्रभावना ! (२५) कुल १०८ सुकृत करने की भावना है !!! ___ इस कलियुग में भी पूर्वकालीन दानवीरों की स्मृति को जीवंत करानेवाले ऐसे महादानवीरों की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पत्ता : (१) संघवी ताराचंदजी एवं ललितभाई संघवी एन्ड सन्स, ११ ए, प्रसाद चेम्बर्स, ओपेरा हाउस, मुंबई - ४००००४. फोन : ०२२ - ३६८२००२ निवास, फेक्स - ३६३०७१६ पत्ता : (२) मोहनभाई मारवाड़ी ७४१५५, सुंदर सदन, सुतार फलिया, गलेमंडी, सुरत (गुजरात) पिन - ३९५००१. फोन : ०२६१-४२९५७४ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ साधर्मिक उत्कर्ष ट्रस्ट के स्थापक श्री प्रकाशभाई झवेरी . मूलत: उत्तर गुजरात के सुश्रावक श्री प्रकाशभाई झवेरी ने मुंबई में 'साधर्मिक भक्ति ट्रस्ट की स्थापना की है । जैन साधर्मिक बंधु अपने को मिलती हुई बिना व्याजकी लोन के द्वारा अपना और अपने परिवारजनों का आत्म कल्याण कर सकें ऐसा इस संस्थाका हेतु है । यह ट्रस्ट साधर्मिक भाई-बहनों को मूर्तिपूजक-स्थानकवासी तेरापंथी-दिगंबर आदि भेदभाव रखे 'बिना १० हजार रूपयों तक की लोन देता है । गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में इस ट्रस्ट के कुल ८० केन्द्र हैं । प्रत्येक केन्द्रमें एक मुख्य व्यवस्थापक होता है । लोन की अपेक्षा रखनेवाले साधर्मिक प्रथम निम्नोक्त पते पर विज्ञप्ति पत्र लिखते हैं, तब ट्रस्ट उनको लोन के लिए फोर्म भेजता है । उस फोर्म में पता, व्यावसायिक और कौटुम्बिक माहिति, रेशनींग कार्ड की नकल, तस्वीर, दो भरोसेमंद व्यक्तिओंकी सही एवं पता लिखने का होता है । इस तरह फोर्म की विधि पूर्ण होने के बाद स्थानिक केन्द्र द्वारा जाँच करवाकर उसका अभिप्राय मँगवाया जाता है। जहाँ स्थानिक व्यवस्थापक नहीं होते हैं वहाँ ट्रस्ट के कार्यकर्ता स्वयं जाकर जाँच कर लेते हैं । बाद में विज्ञप्ति करनेवाले साधर्मिक की योग्यता और ट्रस्ट की नियमावलि के अनुसार ट्रस्ट लोन को मंजुर या ना मंजुर करता है । स्वीकृत लोन का ड्राफ्ट व्यवस्थापक के उपर भेजा जाता है । व्यवस्थापक साधर्मिक को कोई भी एक धर्मक्रिया का नियम देकर ड्राफ्ट देता है । लोन का हप्ता व्यवस्थापक के पास भरने की व्यवस्था होती है। आज तक करीब १३०० साधर्मिकों को १ करोड़ से अधिक रूपयों की लोन दी गयी है। ट्रस्ट की साधर्मिक भक्ति की हार्दिक अनुमोदना । पता : साधर्मिक उत्कर्ष ट्रस्ट Clo. प्रकाशभाई झवेरी, २६८ राजा राममोहनराय रोड़, ओपेरा हाउस, मुंबई : ४००००४. फोन : ३६१४४७५ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३६७ बेजोड़ सामिक भक्ति करते हुए, उदार दिल श्राद्धवर्य श्री रसिकभाई शाह "मेरे ३२ साल के दीक्षा पर्याय में ऐसे उदारदिलवाले सार्मिक भक्त मैंने देखे नहीं हैं" ! - सुप्रसिद्ध प्रवचनकार, युवा प्रतिबोधक, प.पू.आ.भ. श्री रत्नसुंदर सूरीश्वरजी म.सा. ने अपने एक प्रवचन में जिनके लिए ऐसे उद्गार अभिव्यक्त किए थे वे श्राद्धवर्य श्री रसिकभाई शाह (उव. ७० करीब) गुजरात में सुरत के पास बारडोली (स्टेशन रोड़) जैन संघ के प्रमुख के रूप में श्री संघ की अनुमोदनीय सेवा कर रहे हैं। कोई भी महाराज साहब आर्थिक दृष्टि से कमजोर किसी भी सार्मिक के प्रति रसिकभाई का ध्यान खींचते हैं तब तुरंत वे म.सा. सूचित करें उससे अधिक या दुगुनी राशि प्रदान करने द्वारा साधर्मिक भक्ति करते हैं । __ प्रतिदिन हजारों रूपयों और प्रतिमाह लाखों रूपयों का दान करते हुए इस उदारदिल सुश्रावक का बहुमान बारडोली के १८ ज्ञातीय लोगोंने मिलकर किया तब रसिकभाईने नम्रता पूर्वक प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि, " मैं तो मेरी शक्ति की अपेक्षा से आधा दान भी नहीं करता हूँ ।" आज से कुछ साल पहले प.पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखर विजयजी म.सा. का बारडोली में चातुर्मास हुआ था तब से रसिकभाई विशेष रूप से धर्म में जुड़े हुए हैं। धन्य है ऐसे उदारदिल साधर्मिक भक्त सुश्रावकश्री को ! आज तकती पर नाम लिखवाने की शर्त से लाखों-करोड़ों रूपयों का दान देनेवाले कई दाता मिलते हैं मगर आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए साधर्मिक बंधुओं को गुप्त रूपसे सहाय करने वाले ऐसे दाता बहुत विरल होते हैं। प्रत्येक श्रीमंत श्रावक रसिकभाई के जीवन से प्रेरणा लेकर उनका अनुसरण करें तो कितना अच्छा होगा ! Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोह में रसिकभाई ने भी अच्छा सहयोग दिया था । वृद्धावस्था के कारण वे स्वयं उस समारोह में उपस्थित नहीं रह सके थे मगर उनका व्यवसाय सम्हालने वाले सुश्रावक श्री चंद्रकांतभाई शाह शंखेश्वर में पधारे थे । पता : रसिकभाई मगनलाल शाह सरदारबाग, स्टेशन रोड़, मु.पो. बारडोली, जि. सुरत (गुजरात) पिन : ३९४६०२ फोन : ०२६२२-२००४५/२०६४५ ४२ साल से लगातार छठ्ठ के पारणे एकाशन करते हुए महा तपस्वी श्री रसिकभाई शाह ___ पूना केम्प (महाराष्ट्र)में रहते हुए महा तपस्वी सुश्रावक श्री रसिकभाई केशवलाल शाह (उ.व. ६७) पिछले ४२ वर्षों से छठ्ठ (बेला) के पारणे छठ्ठ और पारणे में भी एकाशन ही करते हैं । अठ्ठाई आदि बड़ी तपश्चर्या के पारणे में भी एक ही एकाशन करके छठ्ठ के पारणे छठ्ठ चालु ही रखते हैं !!! धन्य तपस्वी ! पता : रसिकभाई केशवलाल शाह ५५३ सेन्टर स्ट्रीट पूना (महाराष्ट्र) पिन : ४११००१ 13558 अवाई से वर्षातप के आराधक महा तपस्वी नवीनमाई शाह मुंबई-भाइंदर में रहते हुए महातपस्वी सुश्रावक श्री नवीनभाई शाहने अठ्ठाई के पारणे अठ्ठाई (८ उपवास) में वर्षीतप करके वि.सं. २०५३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३६९ में अक्षय तृतीया के दिन वालकेश्वर में पारणा किया । वर्षीतप के अंत में लगातार ३३ उपवास किये थे । अब वे मासक्षमण के पारणे मासक्षमण करने के मनोरथ कर रहे हैं । इस पंचमकाल में भी ऐसे महातपस्वीरत्नों से श्री जिनशासन शोभायमान है । धन्य तपस्वी ! धन्य जिनशासन ! १५८ सपरिवार धर्मरंग से रंगे हा डोक्टर प्रविणभाई महेता - मूलतः सौराष्ट्र में जामकंडोरणा गाँव के निवासी किन्तु वर्तमान में राजकोट की सरकारी अस्पताल में मेडीकल ओफिसर के रूपमें कार्य करते हुए डॉ. प्रविणभाई हिंमतलाल महेता (उ.व. ५०) M.B.B.S. सपरिवार धर्मरंग से पूरे रंगे हुए हैं । डो. प्रवीणभाई एवं उनकी धर्मपत्नी डो. ज्योतिबहेन महेता, सुपुत्री निशा (उव. २०) एवं सुपुत्र समीर (उ.व. ११) सभीने पंचप्रतिक्रमण, जीव विचार, नततत्त्व आदिका अध्ययन किया हुआ है । न केवल धार्मिक अध्ययन ही किया है, किन्तु सम्यकज्ञान को सम्यकक्रिया के रूप में भी इन्होंने परिणत किया है । घर के चारों सभ्य शाम को चौविहार करते हैं !... 'सुबहशाम प्रतिक्रमण, नवकारसी-चौविहार, भक्तामर स्तोत्र पाठ, जिनपूजा इत्यादि आराधनाएँ इनकी प्रतिदिवसीय दिनचर्या में शामिल हैं । शामको ६ बजे उनका रसोईगृह बंद हो जाता है । अर्थात् घर के सभी सदस्य हमेशा रात्रिभोजन का त्याग करते हैं । विशेष उल्लेखनीय एवं अनुमोदनीय बात यह है कि डॉ. प्रविणभाई महेता श्री सिद्धचक्र-भक्तामर-शांतिस्नात्र-१८ अभिषेक-१०८ पार्श्व-पद्मावतीकल्याणमंदिर-नंद्यावर्त-बीस स्थानक संतिकरं आदि सभी महापूजन एवं प्रतिष्ठा आदि के विधि-विधान भी अच्छी तरह से जानते हैं एवं राजकोट के आसपास के क्षेत्रों में भी अपने खर्च से सपरिवार जाकर उपर्युक्त पूजनादि धर्मानुष्ठान बिना मूल्य से, भक्ति के रूपमें करवाते हैं । प्रत्येक महापूजनों के मंडल का आलेखन भी उनके सुपुत्र एवं सुपुत्री स्वयं बहुरत्ना वसुंधरा - २-24 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० करते हैं । राजकोट एवं उसके जाकर निःशुल्क रूपसे पूजन पढाते हैं 1 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग आसपास के स्थानों में वे स्वयं सपरिवार प्रभु भक्ति की तरह साधु-साध्वीजी भगवतों की शारीरिक चिकित्सा आदि वैयावच्च भी वे पूज्यभाव से करते रहते हैं । पर्युषण महापर्व की आराधना श्री संघों को करवाने के लिए वे बाहरगाँव भी जाते हैं । पर्वतिथियों में पौषध की आराधना भी वे करते एवं करवाते हैं । किसी भी प्रकार की धार्मिक प्रतियोगिताओं में वे हमेशा शामिल होने की अभिरुचि रखते हैं एवं परिश्रम के द्वारा उसमें अच्छे गुणांक प्राप्त करते हैं । आत्महित के साथ साथ जैनशासनकी प्रभावना, साधु-साध्वीजी भगवंतों की वैयावच्च आदि आपके जीवन के मुख्य ध्येय हैं । डो. प्रविणभाई महेता सपरिवार अपने ध्येय में उत्तरोत्तर आगे बढने में सफलता हांसिल करें यही शुभेच्छा सह हार्दिक अनुमोदना । आपके जीवन पर वर्धमान तपोनिधि प.पू. आ. भ. श्री विजय वारिषेणसूरीश्वरजी म.सा. आदि अनेक पूज्यों के द्वारा महान उपकार हुआ है । पता : डॉ. प्रवीणभाई महेता १५९ "शीतल" ४, जयराय प्लोट, बंधगली, राजकोट (सौराष्ट्र) पिन : ३६०००१ फोन : २८३०४ ३०० से अधिक बार मुंबई से शंखेश्वर तीर्थ की पूर्णिमा तिथि में यात्रा करने वाले भाग्यशाली चौबीसों तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान - केवलदर्शन - अनंत आनंदअनंतवीर्य इस अनंत चतुष्टयी में समान होते हुए भी वर्तमान चौबीसी के २३ वें तीर्थंकर पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ भगवंत की महिमा एवं उनके तीर्थ और मंदिर सबसे ज्यादा विद्यमान हैं। क्योंकि पार्श्वनाथ भगवान के जीवने देव भव में विविध तीर्थंकर भगवंतों के ५०० कल्याणक प्रसंग अत्यंत भक्तिभाव से मनाये थे । इस उत्कृष्ट जिनभक्ति के कारण उनका Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३७१ यश और आदेय नामकर्म इतना प्रबल कोटिका उत्पन्न हुआ कि मोक्षमें जाने के बाद भी उनके अधिष्ठायक देव धरणेन्द्र-पद्मावती अत्यंत जागरूक होने से पार्श्वनाथ भगवान की विशिष्ट भक्ति करनेवाले श्रद्धालुओं के विघ्नों को दूर करते हैं और प्रभुभक्ति में सहायक बनते हैं । इसी कारण से वर्तमान में शासन भगवान श्री महावीर स्वामी का होते हुए भी श्रीपार्श्वनाथ प्रभुजी के तीर्थ और मंदिर प्रभु महावीर के तीर्थ और मंदिरों की अपेक्षा से अधिक संख्या में दृष्टिगोचर होते हैं । पुरूषादानीय : श्रीपार्श्वनाथ प्रभुजी के सैंकड़ों तीर्थोंमें भी प्रकट प्रभावी श्री शंखेश्वरजी पार्श्वनाथ तीर्थ की महिमा सबसे अधिक है, क्योंकि गत चौबीसी के ९ वें तीर्थंकर श्री दामोदर स्वामी के समय में अषाढी श्रावकने अपना निर्वाण पार्श्वनाथ भगवान के गणधर बनकर होने की बात तीर्थंकर परमात्मा द्वारा ज्ञात होने पर अपने भावि परमोपकारी श्री पार्श्वनाथ परमात्मा का बिम्ब बनवाकर आजीवन पूजा की थी । बाद में विविध देव निकायों में इन्द्र आदि अनेक देव-देवियों द्वारा भी उसी जिनबिम्ब की पूजा हुई और आखिर जरासंध प्रतिवासुदेव द्वारा प्रयुक्त जरा विद्या के प्रभावसे ग्रसित अपने सैन्य की मूर्छा दूर करने के लिए श्री कृष्ण वासुदेव ने श्री नेमिनाथ भगवान (राज्यावस्था में ) द्वारा प्रदत्त सूचना के अनुसार अठुम तप से प्रसन्न पद्मावती देवी से प्राप्त उपरोक्त जिनबिम्ब के स्नात्रजल से अपने सैन्य को स्वस्थ बनाया और बादमें शंखध्वनि पूर्वक शंखेश्वर नगर बनाकर उसी नगर में उपर्युक्त जिनबिम्ब की स्थापना करवायी तभी से लाखों भक्तों द्वारा प्रपूजित परमात्मा की महिमा कलियुग में भी दिनप्रतिदिन अधिकाधिक बढती जा रही है । ___ प्रतिदिन सैंकडों श्रद्धालु भक्त गुजरात, राजस्थान, मुंबई इत्यादि से शंखेश्वर तीर्थमें पधारकर सुबह से शाम तक भगवान की पूजा-सेवा-भक्ति करते रहते हैं । पोष दशमी के दिन करीब ५ हजार से अधिक भाग्यशाली अठुम तप द्वारा वहाँ परमात्मा की पर्युपासना करते हैं। उसी तरह प्रत्येक महिने के पूर्णिमा के दिन भी करीब ५ हजार जितने भाग्यशाली दूर-सुदूर से शंखेश्वर आकर प्रभुभक्ति करते हैं । कई भाग्यशाली कुछ वर्षों से प्रत्येक पूर्णिमा के दिन नियमित रूप से शंखेश्वर तीर्थ में पधारकर प्रभुपूजा-भक्ति करने द्वारा धन्यता का अनुभव करते हैं, वे 'पूनमिया यात्रिक' भी कहे जाते हैं । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ऐसे पूनमिया यात्रिकों में से सबसे अधिक यात्राएँ किन भाग्यशाली आत्माओं ने की होंगी और कितनी यात्राएँ की होंगी ? यह जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है । इसके प्रत्युत्तर में जिन्होंने आज करीब ३११ से अधिक यात्राएँ की हैं ऐसे तीन भाग्यशालीओं के नाम-ठाम जानने मिले हैं। (१) विनोदभाई देवजीभाई गंगर (कच्छ-गोधरा) ब्लु स्काय बिल्डींग, कार्टर रोड़ नं. ५ बोरीवली (पूर्व) मुंबई - ४०००६६ (२) प्रेमचंदभाई देवराज देढिआ (नवागाम-हालार-निवासी) विक्टरी हाउस, घर नं. ९/१०, पीतांबर लेन, माहीम स्टेशन-मुंबई ४०००१६. फोन : ४४५७१३३ निवास (३) हीरजीभाई रणमल (दांता-हालार निवासी) धामणकर नाका, भूमैया चाल, रुम नं. १-२ भीवंडी जि. थाणा (महाराष्ट्र) पिछले २६ से अधिक वर्षों से ये तीनों भाग्यशाली प्रत्येक पूर्णिमा के दिन मुंबई से शंखेश्वर पधारकर प्रभुभक्ति करते हैं । इन में से प्रेमचंदभाई की विशेषता यह है कि पूनम के दिन अपने बेटे की शादी का प्रसंग भी उन्हें पूनम की यात्रा से रोक न सका। वे बेटे की शादी में अनुपस्थित रहकर भी शंखेश्वर तीर्थ की यात्रा में उपस्थित रहे !!! इसी तरह आफ्रिका स्थित नायरोबी में प्रतिष्ठा के प्रसंग में उपस्थित रहने के लिए उनके नायरोबीस्थित रिश्तेदारोंने बहुत आग्रह किया था फिर भी वहाँ जाने से पूनम की शंखेश्वर यात्रा का क्रम खंडित होत: था, इसलिए उन्होंने अपने बदले में परिवार के अन्य सदस्यों को नायरोब भेज दिया मगर स्वयं तो श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभुजी के चरणारविंट की सेवा के लिए ही उपस्थित रहे !!! वे चतुदर्शी-पूर्णिमा और एका यह तीन दिन तक शखेश्वर में रहकर श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के नाम मं. की १२५ माला का जप करते हैं। साल में ३ बार श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की यात्रा भी करते हैं और पिछले १३ साल से प्रत्येक साल फाल्गुन शुक्ला Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३७३ १३ के दिन श्री शत्रुंजय महातीर्थ की ६ कोस की परिक्रमा भी नियमित रूप से देते हैं । - १६० २ इस तरह प्रत्येक पूर्णिमा के दिन अपने समस्त सांसारिक कार्यों को छोड़कर नियमित रूपसे तीर्थयात्रा और प्रभुभक्ति के लिए सैंकड़ों कि.मी. की यात्रा करते हुए और घंटों तक कतारमें खड़े रहकर प्रभुपूजा की प्रतीक्षा करते हुए सभी यात्रिकों की हार्दिक अनुमोदना । भले इनमें से कोई गतानुगतिकता से या ऐहिक फलाकांक्षा से आज यात्रा करते होंगे मगर श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के अचिंत्य प्रभाव से उनके हृदय में भी एक न एक दिन जरूर सम्यक् भावों का उदय होगा और निष्काम भाव से, सम्यक् तीर्थयात्रा और प्रभुभक्ति द्वारा उनकी आत्मा भी उर्ध्वगामी बनेगी ऐसी आशा रखनी अनुचित नहीं होगी । धर्मनिष्ठा के अनुमोदनीय प्रसंग [प. पू. पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. द्वारा लिखित "मारी तेर प्रार्थनाओ" और " मुनि जीवननी बालपोथी" में से साभार अद्भुत ] (१) एक घर की दीवार के उपर वर्षा के पानी के कारण से नील (अनंतकाय वनस्पति ) जमी हुई थी । उसी दिवार का स्पर्श करती हुई एक तिजोरी पड़ी हुई थी । उसको वहाँ से हटाने की जरूरत थी, मगर वैसा करने से नील के अनंत जीवों की संभावना होने से दोनों भाईओं में से किसीने भी उस तिज़ोरी को हटाई नहीं । कुछ महिनों के बाद ग्रीष्म ऋतुमें जब नील स्वयमेव सुख गयी उसके बाद ही उस तिजोरी को वहाँ से हटाई गयी । (२) १६ साल की उम्र का कोलेजीयन किशोर कोलेज द्वारा आयोजित विदेश के प्रवास में अपनी माँ के आग्रह से गया । २० दिन का कार्यक्रम था । इस प्रवास में जिनपूजा - प्रभुदर्शन की कोई शक्यता नहीं Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ थी इसलिए वह बहुत व्याकुल हो उठा । उसने पाँचवे ही दिन अपनी माँ को पत्र लिखकर ऐसी टूरमें अपने को भेजने के लिए उपालंभ दिया । किशोर वय में भी प्रभुभक्ति की कैसी लगन ! (३) एक भारतीय जैन युवक की सगाई अमरीका में उत्पन्न हुई जैन कन्या के साथ हुई । सगाई होते ही युवकने अपनी भावी पत्नी को कह दिया कि, "जब तक तू पाँच प्रतिक्रमण, चार प्रकरण एवं छह कर्मग्रंथ अर्थ के साथ कंठस्थ नहीं करेगी तब तक शादी नहीं होगी । यह सुनते ही युवती स्तब्ध हो गयी । उसे तो केवल नवकार मंत्र ही आता था । मगर भावी पति की अपेक्षा के अनुसार उसने उपर्युक्त सूत्र, अर्थ के साथ कंठस्थ कर लिए बादमें ही दोनों की शादी हुई !!! (४) एक श्रावकने अपने वील में लिखा था कि, 'मेरे शरीर का अग्नि संस्कार, मेरे मरने के बाद दो घड़ी ( ४८ मिनट) में तुरंत कर देना, ताकि संमूर्छिम जीवों की हिंसा न हो !!! (५) माणेकलाल सेठ उत्तम श्रावक थे । अपने गृह जिनालय में से ८० हजार रूपयों के मूल्य की नीलम रत्न की जिन प्रतिमा की चोरी करके, उसको बेचकर अपना कर्ज चुकाने के लिए तैयार हुए साधर्मिक को उन्होंने पकड़ लिया और अपने घरमें मिष्टान्न के द्वारा उसकी साधर्मिक भक्ति करने के बाद नकद ८० हजार रूपये की प्रभावना देकर अपने परम प्रिय परमात्मा का बिम्ब वापस प्राप्त किया !!! (६) सुश्रावक श्री कमलसीं भाई के ज्येष्ठ सुपुत्र की सगाई के प्रसंग में पाटण (गुजरात) के महान जैन सुश्रावक श्री नगीनदासभाई करमचंद संघवीने दो तोला सुवर्ण का हार भेंट के रूप में दिया । आर्थिक दृष्टि से सामान्य स्थितिवाले कमलसींभाई ने कहा, "आपके जैसे धर्मात्मा यदि सगाई के रूप सांसारिक व्यवहार की इस तरह अनुमोदना करेंगे तो फिर अब 'धर्म' कहाँ देखने मिलेगा ?" ऐसा कहकर उन्होंने हार वापस लौटा दिया । • (७) श्राद्धरत्न श्री रजनीभाई देवड़ी और शांतिचंद बालुभाई ने आजसे ९ साल पूर्व में तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय के १८ अभिषेक कराये Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३७५ तब हजारों युवक स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए थे । शत्रुंजय के उपर रहे हुए १३ हजार जिनबिम्बों के चक्षु बदलने का महान कार्य दो दिनोंमें कुल १८ घंटे तक चला। सैंकड़ों युवक इस कार्य के लिए दिनमें ८१० घंटे तक महातीर्थ के उपर रहे थे । तीर्थाधिराज की आशातना को टालने के लिए वे लघुशंका बर्तन में करते थे और बाल्टी में इकठ्ठा करते थे । ८ बाल्टी जितना पिशाब उन्होंने स्वयं गिरिराज से नीचे उतार कर योग्य भूमि में विसर्जन किया मगर गिरिराज पर एक बुंद भी गिरने नहीं दिया । कैसी पापभीरुता ! कैसा उद्भुत तीर्थप्रेम ! - २ (८) मुंबई में रहते एक सुश्रावक हररोज जिनालय में प्रभुप्रक्षाल, प्रथम पूजा, आरती, मंगल दीपक आदि बोलियों में से कोई भी बोली का आदेश लेते हैं । मगर प्रक्षाल आदिका लाभ लेने से पहले अपनी बेटी को आवाज देकर ७वीं मंजिल से बुला लेते हैं और उसके द्वारा बोली की राशि मंगाकर श्री संघ की पेढी में अर्पण करने के बाद ही बोली के अनुसार प्रभुभक्ति का लाभ लेते हैं !!! (९) करीब ६ से ७ हजार युवक और युवतीओं ने एवं प्रौढोंने भी मेरे पास भवालोचना की है । जिनमें से कई युवकों ने तो गर्भ में रहकर ९ महिने तक अपनी माँ को दुःख देने की भी आलोचना की है !!! (१०) एक भाईने धर्मपत्नी की प्रेरणा से स्वद्रव्य से जिनालय का निर्माण किया है । जिसमें करीब ३० लाख रूपयों का सद्व्यय हो चुका हैं । अभी काम चालु है । जिनालय के भंडार की आय वे बाहर देते हैं मगर अपने इस जिनालय में उसका उपयोग नहीं करते ! (११) एक श्राविकाने अपने बेटे को सिनेमा देखने का निषेध किया था । एक दिन माँ की अनुपस्थिति में बेटे ने मित्रों के अति आग्रह से सिनेमा देख लिया । दूसरे दिन माँ को इस बात का पता चलने पर बेटे को उपालंभ देने की बजाय स्वयं प्रायश्चित के रूप में अठ्ठम तप का प्रारंभ कर दिया । बेटे ने क्षमायाचना की और आजीवन सिनेमा त्याग कर दिया !!! Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ १६१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - विवाह होने के बावजूद भी आबाल ब्रह्मचारिणी विजयाबहन का विस्मयकारक विमल व्यक्तित्व गुजरात में खंभात नगर करीब ९० जिनमंदिरों से अलंकृत है । इस नगर में सुश्रावक श्री अंबालालभाई एवं सुश्राविका श्री मूलीबहन का परिवार एक धर्मनिष्ठ परिवार के रूप में सुप्रसिद्ध है । इसी दंपति के एक सुपुत्र ने प्रेमसगाई होने के बाद वर्धमान तपोनिधि प.पू. आ.भ. श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. की वैराग्यवाहिनी देशना सुनकर शादी किये बिना ही वि.सं. २००८ में दीक्षा अंगीकार की और आज वे वैराग्यदेशनादक्ष प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयहेमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. के रूप में अद्भुत शासन प्रभावना कर रहे हैं । वि.सं. २००९ के कार्तिक महिने में खंभात नगरमें प.पू. आ.भ. श्रीमद्विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रामें उपधान तप का आयोजन हुआ था तब उपर्युक्त सुश्राविका मूलीबहन के साथ उनकी १६ वर्षीय कु. विजया भी अपने उपर्युक्त भाई महाराज साहब की प्रेरणा से उपधान तप में शामिल हो गई । प्राचीन काल की प्रथा के अनुसार कु. विजया जब ९ सालकी नटखट कन्या थी तब उसकी सगाई श्रीप्रविणचंद्र रमणलाल पारेख नामके विसा ओसवाल ज्ञातीय बाल श्रावक के साथ हो गयी थी । मगर उस उम्र में उसे सगाई से कोई संबंध नहीं था । वह तो बाल सुलभ क्रीडा और खाने-पीने में मस्त थी । उपघान की पूर्णाहुति के प्रसंग पर कु. विजया ने उपर्युक्त वर्धमान तपोनिधि प.पू. आचार्य भगवंत श्री की प्रबल प्रेरणा से ५ साल तक ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा लेकर उपधान की माला पहनी !!!... तब लोग कहने लगे- 'तू तो तेरे भाई महाराज की सच्ची बहन बनेगी ऐसा लगता है, मगर तुझे मालुम है कि तेरी शादी थोड़े दिनों में हो जायेगी, फिर तेरे व्रतका क्या होगा ! '... और कुछ हुआ भी वैसा ही ! व्रत स्वीकार के केवल ३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३७७ महिने बाद में मोहाधीन माता-पिता ने कु. विजया की शादी कर दी । विजया को अनिच्छा से भी बुजुर्गों की आज्ञा शिरोमान्य करनी पड़ी । मगर वह अब अबला नारी नहीं थी किन्तु ब्रह्मवत के कारण सबला हो गयी थी । उसने सुमधुर किन्तु स्पष्ट शब्दों में अपने पतिदेव को समझाने की कोशिश की कि- " मैं चतुर्थव्रतधारी हूँ, इसलिए शादी होने पर भी अपना व्रत अखंडित रखना चाहती हूँ, संयम की भावना से भावित हूँ, आप किसी अन्य कन्या से शादी करना चाहते हैं तो कर सकते हैं ।" यह सुनकर प्रविणभाई चौंक उठे । उन्होंने अपने मन को समझाने की कोशिश की मगर निष्फल हुए । इसलिए विजयाबहन अपने व्रत को अखंडित रखते हुए केवल ६ महिने ससुराल में रही बादमें अपने पिताके घर वापस लौट आयी । कभी कभी औपचारिक रूप में ससुराल में जाती थी और ससुरालवालों को संयम मार्ग की महिमा समझाकर अपने को संयम का स्वीकार करने के लिए अनुमति प्रदान करने के लिए समझाती थी। ससुराल वाले भी एक और विजयाबहन को मनाने का और दूसरी ओर अपने मन को भी मनाने का प्रयास करते थे, मगर दोनों में से किसी भी बात में सफलता नहीं मिलती थी । आखिर ससुरालवालों को मनाने में निष्फल हुई विजयाबहन पीहर की पालखी में बैठकर, वर्षीदान देकर वि.सं. २०११ में वैशाख सुदि ७ के दिन दीक्षित हुई और ३६ करोड़ नवकार जप के आराधक प.पू. आ.भ.श्री. यशोदेवसूरिजी म.सा. के शिष्यरत्न प.पू. तपस्वी आ.भ. श्री त्रिलोचन सूरिजी म.सा. के आज्ञावर्तिनी पू.सा. श्री चंद्रश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री सुभद्राश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री रंजनश्रीजी की शिष्या पू.सा. श्री वसंतप्रभाश्रीजी के नाम से उद्घोषित हुए । . दीक्षा लेने के बाद प्रगुरुणी और गुरुणीजी की वैयावच्च करते हुए उन्होंने कर्मक्षय के लिए उग्र तपश्चर्या करने का प्रारंभ किया । मासक्षमण, सिद्धितप, श्रेणितप, धर्मचक्रतप, चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप, बीस स्थानक तप, वर्षीतप, १७-१६-१५-१२-११ उपवास, अछाई, अनेकबार अठ्ठम-छठ, वर्धमान तप की ५० ओलियाँ इत्यादि तप के द्वारा अपने Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ जीवनको अलंकृत किया और साथमें अपूर्व वात्सल्यभाव के कारण २१ मुमुक्षुओं की जीवननौका के सुकानी भी बन गये हैं। संसारी पति प्रविणभाई भी अब उनकी जीवनप्रतिभा से प्रभावित होकर नतमस्तक हुए हैं और विविध पुण्य प्रसंगों पर सा. श्रीवसंतप्रभाश्रीजी आदि की प्रेरणा से अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय करके संयमजीवन की अनुमोदना करते हैं। महाराष्ट्र, मुंबई, गुजरात, कच्छ, कर्णाटक आदि में विहार के द्वारा सुंदर शासन प्रभावना करनेवाले उग्र विहारी, मिताहारी,स्वउपधि के स्वयंधारी, साध्वीरत्न सा.श्री वसंतप्रभाश्रीजी को, प.पू.आ.भ. श्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. ने जंग-ए-बहादूर के विशेषण से अलंकृत किया है। इस तरह शादी के बाद भी आबालब्रह्मचारी रहकर विजयाबहन में से वसंतप्रभाश्रीजी बने हुए 'जंग-ए-बहादूर' साध्वीजी के तप-त्यागमय संयम जीवन की हार्दिक अनुमोदना । "मुझे औदारिक देहधारी मनुष्य के साथ शादी नहीं करनी है" कुमुदबहन का अद्भुत पराक्रम युवावस्था में आयी हुई, रूपवती, सुकुमाल आकर्षक गात्र युक्त, अपनी गुणवती बेटी-बहन के लिए माता-पिता और भाई अच्छे वर की खोज कर रहे थे और एक दिन वे अपने मनचाहे युवक एवं उसके परिवारजनों को कन्या दिखाने के लिए अपने घर ले आये । कन्या को वस्त्रालंकार से अलंकृत होने की सूचना दी गयी थी ... मगर यह क्या? यह कन्या तो फटेपुराने वस्त्रों को पहनी हुई, बिखरे हुए बालों के साथ नौकरानी जैसी दिखती हुई वहाँ उपस्थित हुई ! ऐसी कन्या के साथ कौन शादी करना पसंद करे? वे अपना स्पष्ट नकारात्मक अभिप्राय सुनाकर चले गये ! कन्याने ऐसा क्यों किया ? क्योंकि उसे औदारिक देहधारी किसी Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३७९ भी मानव को अपना हाथ नहीं देना था । उसका दिल तो अशरीरी अनंत सिद्ध भगवंतों के साथ एकात्मरूप हो जाने के हेतु से चारित्रधर्म की आराधना करने के लिए लालायित हो उठा था । स्वजनों के द्वारा शीघ्र चारित्र स्वीकार के लिए अनुमति पाने की भावना से उसने जिनभक्ति, गुरु भक्ति, उभयकाल आवश्यक क्रिया, स्वाध्याय तप-त्याग-इत्यादि से जीवन को अलंकृत किया था । वस्त्रों में अत्यंत सादगी, ६ महिनों तक एक ही साड़ी का उपयोग, संथारे के उपर शयन, रोटी-पानी या दाल-रोटी से भोजन करने का अभ्यास, दही और कढा विगई का मूलसे त्याग, अपने भाई की शादी के प्रसंग में भी केवल दाल-चावल का भोजन इत्यादि के द्वारा उसने अपने वैराग्य को मजबूत बनाया था और स्वजनों को भी अपने वैराग्य की प्रतीति करायी थी। एक बार तो चारित्रधर्म को शीघ्र पाने की उत्कंठा से वह घर से चूपचाप भाग गयी थी और 'तुझे खुशी से शीघ्र चारित्र दिलायेंगे' ऐसा पक्का भरोसा मिलने पर ही वह वापस लौटी थी ! उसका तीन वैराग्य देखकर माता-पिता और भाई आदिने प्रसन्नतापूर्वक अष्टाह्निका महोत्सव के साथ चारित्र दिलाया । 'अपने गाँव की मूर्तिपूजक कुमारिका की यह प्रथम ही दीक्षा हो रही है' ऐसा सोचकर साणंद संघ भी अत्यंत उल्लसित हुआ था । गुजरात में अहमदाबाद के पास साणंद गाँव के इस कन्यारत्न का नाम था कुमुदबहन केशवलाल संघवी । २१ साल की भरयुवावस्था में प्रवजित होकर वे प.पू.आ.भ. श्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के अलंकार रूप सा.श्री पद्मलताश्रीजी बने । "चौथे आरेके साध्वीजी" के रूपमें ख्यातियुक्त, आत्मैकलक्षी इन साध्वीरत्न के ५० वर्ष के सुदीर्घ संयम पर्याय को लोग आज भी नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं । धन्य साध्वीजी ! धन्य श्री जिनशासन ! Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ दीक्षा ग्रहण करती हुई आठ सगी बहनें ।।। आजसे करीब २३५० साल पूर्वमें श्री स्थूलिभद्रसूरिजी की सात बहनों-यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणा,- ने दीक्षा अंगीकार की थी। उसके बाद अब तक इतनी संख्या में सगी बहनों ने दीक्षा ग्रहण की हो वैसी कोई घटना हुई नहीं थी। किन्तु दि.१३-२-१९९५ के दिन उपरोक्त विश्व विक्रम को भी अतिक्रमण करनेवाली अद्भुत घटना कच्छ-वागड़ क्षेत्रमें रापर गाँवमें घटित • हुई थी । रापर से २१ कि.मी. की दूरी पर स्थित रामावाव गाँव के निवासी किन्तु व्यवसाय के हेतु से रापर में रहते हुए सुश्रावक श्री मणिलालभाई छगनलाल महेता और उनकी धर्मपत्नी रत्नकुक्षि सुश्राविका श्री कुंवरबाई की ६ सुपुत्रियाँ - वनिताबहन, मधुबहन, भारतीबहन, चांदनीबहन, रोशनीबहन और ज्योतिबहन ई.स. १९७८ से १९८४ तक में दीक्षा ग्रहण करके अनुक्रम से वंदिताबाई महासतीजी, मिताबाई महासतीजी, भारतीबाई महासतीजी, चांदनीबाई महासतीजी, रोशनीबाई महासतीजी और सुव्रताबाई महासतीजी के रूप में संयम की साधना कर रही हैं । उसके बाद उनकी बाकी रही हुई दो बहने शीलुबहन और पीतिबहन ने भी दि. १३-२-१९९५ के दिन संयम का स्वीकार किया है जिससे सगी आठ बहनों की दीक्षा का विश्व विक्रम भगवान श्री महावीर स्वामी के शासन में स्थापित हुआ है । इन दोनों बहनों के नाम सुहानीबाई महासतीजी और प्रियांशीबाई महासतीजी के रूपमें घोषित हुआ है । आठों बहनें बालब्रह्मचारिणी एवं उच्च व्यावहारिक शिक्षा संपन्न हैं । उनका केवल एक ही भाई है - भोगीलालभाई महेता जो रापर में व्यवसाय कर रहे हैं । आठों बहनोंने स्थानकवासी लीबड़ी अजरामर समुदाय में दीक्षा ग्रहण की है । उनमें से दो महासतीजीयों ने २८ आगम सूत्र कंठस्थ कर लिये हैं। दूसरे नंबर के मीताबाई महासतीजी मौनप्रिय एवं आध्यत्मिक साधना परायण हैं। उन्होंने लगातार १२-१२ महिनों तक भी मौन किया है। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____३८१ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ एकांतरित दिनका मौन तो कई बार रखते हैं । व्याख्यान भी अत्यंत असरकारक शैलिमें देते हैं। रात को २॥-३ बजे उठकर आगमसूत्रों के अर्थ का सुंदर चिंतन करते हैं । किसीकी भी निंदा करनी नहीं और सुननी भी नहीं ऐसी उनकी प्रतिज्ञा है !!! टी.वी., विडीओ, ब्यूटी पार्लर और फाईवस्टार होटेलों के इस विलासी विज्ञानयुग में भरयुवावस्था में सभी भौतिक सुविधाओं का परित्याग करके स्वेच्छा से संयम का स्वीकार करते समय इन दीक्षार्थीओंने उपस्थित हजारों की जनसंख्या को संबोधित करते हुए कहा था कि _ "संयम हमारा पक्ष और मोक्ष हमारा लक्ष्य है । अब हम समभाव के सरोवर में स्नान करके साधनाओं का श्रृंगार धारण करेंगे । संयम के विविध अनुष्ठान ही हमारी आत्मचाहना होगी । संयम के स्वैच्छिक स्वीकार के साथ हम संसार को सलाम करते हैं । विश्वमैत्री के साथ संबंध बाँधने के लिए हम तथाकथित तुच्छ ऐहिक सुखों का त्याग कर रहे हैं तब आपकी आंखों में से आशिष बरसनी चाहिए, आँसु नहीं !" । . ...."संसार में सुविधाएँ हैं, मगर शांति कहाँ ? कोई भी काम टेन्शन बिना सेन्सन नहीं होता । डोनेशन के बिना एडमिशन नहीं मिलता ! ओपरेशन के बिना दर्द को दूर करनेवाले नहीं हैं । संसार में वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम, त्यक्ताश्रम, कानूनी और गैरकानूनी गर्भपात यह सभी दर्द रूप ही हैं, जब कि हम लोग तप-त्याग, साधना-सिद्धि और मोक्ष के मार्ग में प्रयाण करके मरीज बने बिना ही संपूर्ण निरामय स्वरूप में इस संसार से बाहर निकल रहे हैं । यहाँ हमारा सत्कार हो रहा है मगर वास्तविकता यह है कि जो सर्वसंग का परित्याग करता है उसीका सत्कार होता है।..." धन्य है संयमीओं को ! धन्य है उनके माता-पिता को ! धन्य वह नगरी, धन्य वेला-घड़ी, मात-पिता-कुल-वंश... ! Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १८०/१७५/१२४ उपवास एवं एक ही द्रव्य से ठाम चौविहार ५०० आबिल की आराधिका | महा तपस्विनीअ. सौ. विमलाबाई वीरचंद पारख । श्री जैन शासन में तपश्चर्या का अनूठा स्थान है। जन्म-जन्मांतर के कर्मों को काटने के लिए अमोघ उपाय है। अर्जुनमाली ओर दृढप्रहारी जैसे घोर पापी भी तप के प्रभाव से ही कैवल्य और मुक्ति को पा गये । पामर आत्मा को परमात्मा बनानेबाला तपधर्म आज भी जयवंत हैं। अकबर बादशाह के समय में चंपाश्राविकाने १८० उपवास की महान तपश्चर्या के द्वारा अद्भुत शासन प्रभावना करवायी थी । वर्तमानकालमें मूल फलोदी (राजस्थान) के निवासी किन्तु हाल मद्रास में रहती हुई अ.सौ. श्रीमती विमलाबाई वीरचंद पारख (उ.व. ४०) ने निम्नोक्त प्रकार से महान तपश्चर्या द्वारा आत्मशुद्धि के साथ साथ अद्भुत शासन प्रभावना करवायी है। ८-९-११-१५-१५ (चौविहार उपवास)-१६(दो बार) -१७३०-३६-४१-५१ चौविहार उपवास-६१-६८-१२४-१७५-१८० उपवास !!! उपवास के पारणे आयंबिल द्वारा वर्षांतप,अंत में मासक्षमण ! द्वितीय वर्षीतप अठ्ठम के पारणे आयंबिल द्वारा !!! उसके दौरान ६-९-६१ और अंतमें ५१ उपवास के बाद पारणा । इस वर्षांतप में अठ्ठम के पारणे में केवल गेहूँ की रोटी और गरम पानी से ही आयंबिल करती थीं !!! वर्धमान आयंबिल तप की ३६ ओलियाँ, एक धान से नवपदजी की ११ ओलियाँ, एक दाने से नवपदजी की ९ ओलियाँ, लगातार ३१५१-१२०-५०० आयंबिल !... .. वि.सं. २०५० में १८० उपवास करने के बाद वि.सं. २०५१ में ७२ दिन का सिद्धिवधू कंठाभरण तप किया, जिसमें प्रथम अठाई और एक दाने का आयंबिल, फिर लगातार ६ छठ्ठ, प्रत्येक छठ (बेला) के पारणेमें केवल १ दाने से आयंबिल, अंतमें अठ्ठम और उसपर लगातार ४१ उपवास इस तरह ७२ दिनों में कुल ६४ उपवास और ८ एक दाने के आयंबिल किये !!! Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ ३८३ वि.सं. २०५२ में वर्धमान तप की ३५ वीं ओली की । ओली का पारणा न करते हुए आचार्य पद के ३६ उपवास संलग्न किये । इस तरह यह भी ७२ दिन की बड़ी तपश्चर्या हुई !!! - वि.सं. २०५२ में दि. १३-६-९६ से बेले के पारणे आयंबिल करते हुए उपरोक्त प्रकार से वर्षीतप का पारणा ५१ उपवास के बाद दि. ९-५-९७ को किया और केवल १२ दिन के पारणे के बाद दि. २२-५-९७ से वर्धमान तप की ३६ वीं ओली प्रारंभ करदी । उसका पारणा दि. २८--६-९७ को करके दूसरे दिन से उपर निर्दिष्ट १७५ उपवास की महान तपश्चर्या का प्रारंभ कर दिया । उस में ९९ दिन तक दिन में दो बार गरम पानी का सेवन, २५ दिन तक अवड़ के समय के बाद १ बार पानी का सेवन और अन्त के ५१ उपवासं चौविहार किए ! इस महान तपश्चर्या के दौरान ८२ वें दिन शत्रुंजय महातीर्थ की पैदलयात्रा की ! और ९० वें उपवास के दिन शंखेश्वरजी महातीर्थ में आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोह में पधारी थीं ! (तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 22 के सामने) और १५७ वें दिन गिरनारजी की एवं १५९ वें दिन शत्रुंजय महातीर्थ की पुनः यात्रा की । दि. २१ -१२-९७ के दिन उड़द के एक दाने ले आयंबिल द्वारा १७५ उपवास की महान तपश्चर्या का पारणा किया !!! उसके बाद दि. २७-१२-९७ से अखंड ५०० आयंबिल चालु किये हैं। आयंबिल में सिर्फ गेहूँ की ४ रोटियाँ बिना नमक की एवं गर्म जल का सेवन करती हैं, साथ में ठाम चौविहार करती हैं !!! इन ५०० आयंबिल के दौरान ही दि ४-६ - ९८ से १२४ उपवास की महान तपश्चर्या का प्रारंभ किया । जिसमें प्रारंभ के ४० उपवास तक अवड्ड के समय के बाद केवल १ बार गरम जल का सेवन किया और पिछले ८४ उपवास बिना पानी के चौविहार ही किये !!! दि. ६-१०-९८ के दिन एक दाने के आयंबिल से पारणा करने के बाद लगातार उपर्युक्त प्रकार से आयंबिल की तपश्चर्या चालु ही है । बीच में दि. २८-३-९८ से लगातार चौविहार, २१ उपवास एवं एक बार १२ उपवास चौविहार भी किए इन सभी उपवासों ( १२४ +२१+१२ ) की गिनती ५०० आयंबिल में नहीं की है। उपर्युक्त प्रकार से ४०० आयंबिल पूरा होने के बाद अंतिम १०० दिन केवल १ दाने के आयंबिल चालु हैं । ५०० आयंबिल के उपर तुरंत चौविहार मासक्षमण करके 1 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ दि. १४-११-९९ को ५०० आयंबिल का पारणा होने के बाद भविष्य में अठाई के पारणे आयंबिल से वर्षीतप करने की भावना वे रखती हैं !!! विशेष आश्चर्य की बात यह है कि इतनी दीर्घ तपश्चर्याओं के दौरान भी वे हमेशा घर के सभी कार्य स्वयं करती हैं । तपश्चर्या में इतनी स्फूर्ति का कारण उन्होंने पूज्य दादा गुरु श्री जिनकुशलसूरीश्वरजी म. सा. की अनेक बार स्वप्न में प्रेरणा एवं कृपा को बताया था । सचमुच, ऐसी महातपस्वी आत्माओं की जितनी अनुमोदना करें उतनी कम ही है । महातपस्विनी विमलाबाई पारख की तपश्चर्या में अनंतराय न करते हुए सहायक बनने वाले समस्त पारख परिवार भी अत्यंत धन्यवाद के पात्र है। पता : विमलाबाई वीरचंद पारख 412, Mint Street, Chennai, (T.N.) 600079 Phone : 5211447, (Resi.) 5342598 (Offi.) लगातार अतुम तप के साथ ७ बार छरी' पालक १६५ संघोंमें पदयात्रा करती हुई महातपस्वी समाविका कंचनबहन गणेशमलजी लामगोता वि.सं. २०५३ में फाल्गुन सुदि ३ का शुभदिन था । राजस्थान के नारलाई तीर्थ से प्रयाण करके शंखेश्वरजी महातीर्थ की और जाता हुआ छ'री' पालक पदयात्रा संघ उपरोक्त दिन में उत्तर गुजरात के विसनगर शहर में आया ! संघवी श्री ताराचंदजी रतनचंदजी परिवार के सौजन्य से निकले हुए इस संघमें युवकजागृतिप्रेरक, विद्वद्वर्य, सुसंयमी, प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. थे योगानुयोग उसदिन हमारी उपस्थिति भी विसनगर में थी। निश्रादाता के रूप में बिराजमान थे। इसलिए पूर्वपरिचित आचार्य भगवंतादि चतुर्विध श्री संघ के दर्शन हेतु हम भी विसनगर से १॥ कि.मी. की दूरी पर खेत में जहाँ श्री संघ का आवास स्थान था वहाँ गये थे । आचार्य भगवंतश्री की अमृतमयी देशना सुनने की प्रबल भावना थी । मगर सौजन्यशील, Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ___३८५ उदारमतना पूज्यश्री ने प्रथम मुझे ही प्रवचन देने के लिए आग्रह किया। आखिर पूज्यश्री की आज्ञा को शिरोमान्य रखते हुए थोड़ी देर के लिए प्रासंगिक प्रवचन दिया । जिसमें चतुर्विध श्री संघ के विशिष्ट आराधकों की हार्दिक अनुमोदना की। तब एक श्रावकने सूचित किया कि, 'इस संघमें भी एक श्राविका अठ्ठम के पारणे अठ्ठम करते हुए पादविहार कर रही हैं ! विसनगर आदि से आये हुए श्रावक श्राविकाओं को भी दर्शन का लाभ मिले इस हेतु से उस तपस्वी श्राविका को खड़े होने की विज्ञप्ति करने में आयी। तब कुछ झिझकते हुए उस श्राविकाने खड़े होकर सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। इतनी उग्र तपश्चर्या करने के बावजूद भी उनकी मुखमुद्रा के उपर छायी हुई अद्भुत प्रसन्नता और अपूर्व तेज देखकर सभी आश्चर्य चकित हो गये ! मानो हररोज ३ बार भोजन करती हों ऐसा लगता था !... प्रवचनादि की पूर्णाहुति के बाद उनकी आराधना के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करने के हेतु से प्रवचन पंडाल में ही कुछ प्रश्न पूछे । सामायिक में रही हुई तपस्वी सुश्राविका श्री कंचनबहन (उ.व. ५६) ने आत्मश्लाधा के भय से कुछ झिझकते हुए भी गुरुआज्ञा को शिरोमान्य करके विनम्रभाव से जो प्रत्युत्तर दिये उसका सारांश निम्नोक्त प्रकार से है। मूलतः राजस्थानमें पाली जिले के खीमाड़ा गाँव के निवासी यह श्राविका हालमें कुछ वर्षों से मुंबई-परेल में रहती हैं । बचपन से ही दादीमाँ की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से उनको धर्म का रंग लगा था। शादी के बाद भी पति की अनुमति पूर्वक अपनी बिमार माँ की सात साल तक सेवा करने से माँ के भी बहुत आशीर्वाद मिले । बाद में केन्सर की व्याधि से ग्रस्त बिमार सास की १॥ साल तक अपूर्व सेवा करने से उनके भी अत्यंत आशीर्वाद मिले । इन तीन आत्माओं की सेवा के द्वारा मिले हुए हार्दिक शुभाशीर्वादों को ही वे अपनी आध्यात्मिक प्रगति का मुख्य कारण विनम्रभाव से बताती हैं । जिसको भी आत्मविकास साधना है उन्हें अपने बुजुर्गों की सेवा के द्वारा उनकी हार्दिक शुभाशिष अवश्य प्राप्त करनी ही चाहिए,' ऐसा वे खास कहती हैं। बुजुर्गों के दिल को नाराज करके कोई कितनी भी आराधना करे तो भी उनको सच्ची शांति और सफलता नहीं मिलती। बहरत्ना वसंधरा - २-25 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग २ - उपरोक्त ३ बुजुर्गों के आशीर्वाद के प्रभाव से कंचनबहन ने अपने जीवन में निम्नोक्त प्रकार से आराधनाएँ की हैं । (१) सात बार विविध छ'री' पालक पदयात्रा संघों में अठ्ठम के पारणे अट्टम के द्वारा पदयात्रापूर्वक तीर्थयात्राएँ की हैं। तीसरा उपवास हो या पारणे का दिन हो मगर उन्होंने कभी वाहन का उपयोग नहीं किया !... (२) ४ मासक्षमण किये । उनमें से २ मासक्षमण तो छ'री' पालक संघ में किये । उसमें भी २० मासक्षमण तक पैदल चलकर ही यात्राएँ कीं । बाद में सकल संघ के अति आग्रह से पूजा के वस्त्र पहनकर, प्रभुजी को लेकर वे प्रभुजी के रथ में बैठती थीं लेकिन किसी भी यांत्रिक वाहनों में नहीं बैठती थीं (३) १४ वर्षीतप किये । (४) अठ्ठाई एवं २४० अट्टम किये हैं । (५) दो बार सिद्धि तप । (६) दो बार श्रेणि तप । (७) चार बार समवसरण तप । (८) दो बार भद्रतप । (९) एक बार चत्तारि अठ्ठ दश दोय तप । (१०) ४ बार १६ उपवास... ५ बार १५ उपवास... ३ बार १७ उपवास (११) बीस स्थानक तप । (१२) तीन उपधान । (१३) ३६ साल की उम्र में सजोड़े ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया है । संतान में केवल एक ही पुत्र बाबुलालभाई हैं । (१४) हररोज उभयकाल प्रतिक्रमण, जिनपूजा आदि । (१५) प्रतिदिन सामायिक लेकर ५ पक्की नवकारवाली का जप | एक से अधिक बार नवलाख नवकार जप । (१६) २२ साल से वे कभी खुल्ले मुँह नहीं रही हैं अर्थात् कम से कम बिआसन का पच्चक्खाण होता ही है । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३८७ (१७) चारित्र न ले सकें तब तक कुछ वस्तुओंका त्याग है । २ साल पहले शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना समारोह में तपस्वी सुश्राविका श्री कंचनबहन पधारी थीं तब करीब ३ महिनों से वे लगातार अठाई के पारणे अढ़ाई कर रही थीं! तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 22 के सामने । कंचनबहन की तपश्चर्या, सेवावृत्ति, आदि की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना । पत्ता : कंचनबहन गणेशमलजी अमीचंदजी लामगोता नियमा टेरेसा, वर्धमान ज्वेलर्स के उपर, डॉ. आंबेडकर रोड, परेल मुंबई-४०००१२. फोन : ४१३७८६२ निवास १०००88888888888888 १ उपवास स लकर क्रमशः उपवास से कुल ४८ वर्षातप करनेवाली महातपस्विनी सुश्राविका सरस्वतीबहन कांतिलाल वि.सं. २०२१ में पू. मुनिराज श्री कलहंसविजयजी म.सा. (अध्यात्मयोगी प.पू.आ.भ. श्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य) आदि का चातुर्मास राधनपुर शहर (जि. बनासकांठा-गुजरात) में था । वहाँ एक महातपस्वी सरस्वतीबहन कांतिलाल नामकी सुश्राविका रहती थी। करीब २० साल के विवाह जीवन के बाद वैधव्य को प्राप्त इस सुश्राविका ने अपने जीवन को तपोमय बना दिया था। उन्होंने कभी २ दिन लगातार भोजन नहीं किया था ! एक दिन वे व्यवसाय के समय से पहले उपाश्रय में आयीं । गुरुवंदन करके एक साथ १६ उपवास का पच्चक्खाण लिया ! १६ उपवास शांति से पूर्ण हुए । १७ वे दिन नवकारसी का समय होने पर मुनिवर प्रतीक्षा करते थे कि पारणा करने से पहले गौचरी का लाभ देने की विज्ञप्ति करने के लिए सरस्वतीबहन आयेंगी, मगर वे तो व्याख्यान के समयमें आयीं और साड्डपोरिसी एकासन का पच्चक्खाण लिया। उसके साथ अभिग्रह पच्चक्खाण भी लिया । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १॥ बजे अभिग्रह पूर्ण हुआ तब एकाशन किया ! दूसरे दिन व्याख्यान में आकर उन्होंने १५ उपवास के पच्चक्खाण लिये। १५ उपवास पूर्ण होने पर फिर १५ उपवास के पच्चक्खाण लिये ! शासनदेव की कृपा से ऐसी कठिन तपश्चर्या निर्विघ्नता से पूर्ण हुई । इस तरह कुल ४७ दिनों में केवल एक ही दिन आहार लिया, उसमें भी अभिग्रह पूर्वक एकासन..! ___ इस महातपस्वी सुश्राविका ने अपने जीवन में अन्य भी आश्चर्यप्रद और अहोभाव प्रेरक तपश्चर्याएँ की हैं जिसे पढकर कोई भी सहृदयी मनुष्य नतमस्तक हुए बिना नहीं रहेगा । यहाँ पर उन्होंने की हुई भीष्म तपश्चर्या का विवरण अनुमोदना हेतु प्रस्तुत किया जा रहा है। (१) उपवास के पारणे बिआसन से वर्षीतप - २० बार (२) छठ्ठ के पारणे छ8 से वर्षीतप -२० बार (३) अठ्ठम के पारणे अठ्ठम से वर्षीतप - २ बार (४) ४ उपवास के पारणे ४ उपवास से वर्षीतप - २ बार (५) ५ उपवास के पारणे ५ उपवास से वर्षीतप – १ बार (६) ६ उपवास के पारणे ६ उपवास से वर्षीतप - १ बार (७) ७ उपवास के पारणे ७ उपवास से वर्षीतप - १ बार (८) ८ उपवास के पारणे ८ उपवास से वर्षीतप - अपूर्ण (९) सिद्धितप (१०) श्रेणितप (११) चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप (१२) समवसरण तप (१३) सिंहासन तप (१४) मासक्षमण - ६ बार (१५) अट्ठाई -२५ बार (१६) २१-३२-४४-४५-५१ उपवास (१७) पंच परमेष्ठी के कुल १०८ उपवास (१८) २४ तीर्थंकर के कुल ३०० उपवास (१९) वर्धमान आयंबिल तप की ३५ ओलियाँ (२०) महावीर स्वामी भगवान के २२९ छठ्ठ (२१) पार्श्वनाथ प्रभु के गणघरों के १० छठ्ठ (२२) विहरमान भगवान के २० छठ्ठ (२३) २४ तीर्थंकर के २४ छठ्ठ (२४) महावीर स्वामी के ११ गणधरों के ११ छठ्ठ.. इत्यादि (२५) अनेक छ'री' पालक संघों में यात्रिक के रूप में शामिल होकर सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाया। तपश्चर्या के साथ साथ सम्यक्ज्ञानाभ्यास भी अच्छा किया था। सरस्वतीबहन की भतीजी ने संयम का Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग ३८९ स्वीकार किया है जो सागर समुदाय में सा. श्री निरंजनाश्रीजी के नाम से सुंदर चारित्र का पालन करते हैं । सरस्वतीबहन आज विद्यमान नहीं हैं। वि.स. २०३५ में मृगशीर्ष वदि २ के दिन अट्ठाई के पारणे अट्ठाई के चालु वर्षीतप में ही उनका स्वर्गवास हो गया है | उनका अत्यंत अनुमोदनीय तपोमय जीवन का दृष्टांत अनुमोदना के लिए यहाँ प्रस्तुत किया गया है । सचमुच बलिहारी है श्री जिनशासन की कि जिस में ऐसे ऐसे अनेक आराधकरन होते रहते हैं । १६७ पक्रिन अठ्ठाई एवं सोलहभक्त (१६ उपवास) से वर्षीतप करनेवाली महातपस्विनी सुश्राविका सरस्वतीबहन जसवंतलाल कापडिया सुरत में रहते हुए महातपस्विनी सुश्राविका श्री सरस्वतीबहन जसवंतलाल कापडिया (उ.व. ७२ ) ने अपने जीवन में की हुई अनुमोदनीय तपश्चर्या का विवरण पढकर किसी भी सहृदयी वाचक का मस्तक अहोभाव से झुके बिना नहीं रहेगा। यह रहा उनकी तपश्चर्या का विवरण (१) सोलहभक्त (१६ उपवास के पारणे १६ उपवास) से वर्षीतप (२) अठ्ठाई के पारणे अठ्ठाई से वर्षीतप (३) छठ्ठ के पारणे छठ्ठ से वर्षीतप २ बार (४) १ उपवास के पारणे १ उपवास से वर्षीतप (५) १०८ उपवास (६) ७० उपवास (७) ६८ उपवास (८) ६० उपवास (९) ५८ उपवास (१०) ४५ उपवास (छ'री पालक संघ के दौरान !) (११) मासक्षमण ५ बार (१२) १६ उपवास (१३) १५ उपवास (१४) १० उपवास (१५) ८ उपवास ३० बार (१६) २२९ छठ्ठ (भगवान महावीर स्वामी के छठ्ठ) (१७) सिद्धि तप (१८) भद्रतप (१९) चतारि - अठ्ठ - दश - दोय तप (२०) क्षीर समुद्र तप... इत्यादि । शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना - बहुमान समारोह में सरस्वतीबहन भी पधारी थीं । तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 21 के सामने । पता : सरस्वतीबहन जसवंतलाल कापडिया २०२, अंजलि, एपार्टमेन्ट, पटेल फलिया, कतारगाम, सुरत (गुजरात) ३९५००४. - Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREHEERadar taff बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १५०अलाई -११०८ से अधिक अनुम करनेवाली महातपस्विनी सश्राविका चन्दाबहन बाबुलाल संघवी खड़की (पूना) निवासी महातपस्विनी सुश्राविका श्री चन्द्राबहन बाबुलाल संघवी ने अपने जीवन में की हुई अदभुत तपश्चर्या का वर्णन हाथ जोड़कर अहोभाव से पढ़ें । (१) अट्ठाई तप - १५० बार (२) श्री पार्श्वनाथ भगवान के १०८ अठ्ठम एवं अन्य १००० से अधिक अठ्ठम । (३) श्री महावीर स्वामी भगवान के २२९ छठ्ठ (४) अठ्ठम से वर्षीतप (५) छ8 से वर्षीतप (६) उपवास से वर्षीतप (७) सिद्धितप (८) श्रेणितप (९) कंठाभरण तप (१०) चत्तारिअठ्ठ–दश-दोय तप (११) धर्मचक्र तप (१२) शेजय तप (१३) अक्षय निधि तप (१४) क्षीरसमुद्र तप (१५) समवसरण तप (१६) सिंहासन तप (१७) मोक्षदंडक तप (१८) वर्धमान तप की १०१ ओलियाँ (१९) लगातार ८२५ आयंबिल (२०) संलग्न ५०० आयंबिल (२१) २४ भगवान के एकाशन -१२ बार (२२) आयंबिल से उपधान तप (२३) शत्रुजय तीर्थ की ९९ यात्रा (२४) ६ महिनों के छ'री पालक संघ में यात्रा (२५) नवलाख नवकार जप इत्यादि । धन्य है ऐसी तपपरिणितिवाली आत्माओं को ! यथाशक्ति तप करके अणाहारी पद प्राप्त करने की हमें भी तीव्र भावना उज्जागर हो यही मंगल भावना । पता : चंद्राबहन बाबुलाल संघवी मु.पो. खड़की (पुना) - (महाराष्ट्र) पिन : ४११०० Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३९१ 88888888888 ११ अप्रमत्त तपस्विनीरत - झमकुवहन लालजी खोना पूर्व के महा मुनिवर मासक्षमण के पारणे मासक्षमण जैसी उग्र तपश्चर्याएँ अप्रमत्तत्ता से करते थे । इस विधान में आधुनिक जमाने में यदि किसीको अतिशयोक्ति लगती हो तो उनको महातपस्विनी सुश्राविका श्री झमकुबहन (उ.व. ६२ प्रायः) के दर्शन करने योग्य हैं । मूलत: कच्छ-नलिया गाँवके निवासी एवं वर्तमान में मुंबई-मुलुन्ड में रहती हुई सुश्राविका श्री झमकुबहन ने अप्रमत्ततापूर्वक की हुई तपश्चर्या का वर्णन पढ़कर किसी नास्तिक का भी हृदय अहोभाव से झुके बिना नहीं रह सकता । अढ़ाई के पारणे अढ़ाई जैसी उग्र तपश्चर्या में आठवें उपवास के दिन भी वे खड़े पाँव सभी की सेवा करती रहती हैं । अपरिचित व्यक्तिको कल्पना भी नहीं आ सकती कि आज इस श्राविका का ८वाँ उपवास होगा। ऐसी प्रसन्नता सदैव इनकी मुखमुद्रा पर छायी रहती है । यदि छेवा संघयणवाले कमजोर दिखते हुए शरीर से भी ऐसी महान तपश्चर्या हो सकती है तो वज्रऋषभनाराच आदि सुदृढ संघयणवाले पूर्वकालीन महापुरुष मासक्षमण के पारणे मासक्षमण जैसी तपश्चर्या करते हों तो उसमें अतिशयोक्ति या असंभवोक्ति मानने का कोई कारण नहीं है । झमकुबहन की महान तपश्चर्या का विवरण निम्नोक्त प्रकार से है । (१) अठ्ठाई के पारणे अठ्ठाई-३१, अट्ठाई के पारणे में भी केवल २ द्रव्योंसे एकाशन ! (२) भगवान श्री महावीर स्वामी ने १२॥ वर्ष के छद्मस्थकाल में की हुई तपश्चर्या के मुताबिक १२ अठ्ठम, २२९ छठ, ७२ पक्ष क्षमण, १२ मासक्षमण, २ डेढमाही, २ त्रिमाही, ६ दोमाही, ९ चतुर्माही, १ छमाही, १ छमाहीमें ५ दिन कम । कुल ४१४९ उपवास !!! (३) श्रेणितप (१११ दिन के इस तपमें ८३ उपवास एवं २८ बिआसन होते हैं । ) (४) सिद्धितप (४५ दिन के इस तप में ३६ उपवास एवं ९ बिआसन होते हैं । (५) पिछले २० से अधिक वर्षों Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ से प्रतिवर्ष ६ अठ्ठाईओं में ८ या ९ उपवास (६) चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप (७) १३ कठियारा निवारण तप-संलग्न १३ अठ्ठम (८) संलग्न ५०० आयंबिल - केवल दो ही द्रव्य से आयंबिल (९) समवसरण तप (कुल ६४ उपवास) (१०) सिंहासन तप (११) पंचकल्याणक तप अतीतअनागत-वर्तमान चोवीसी-२० विहरमान-४ शाश्वत जिन, कुल ९६ तीर्थंकरों के ५-५ कल्याणक निमित्त से कुल ४८० उपवास ! प्रत्येक उपवास के पारणे में साधु साध्वीजी भगवंतों को उल्लसित भाव से सुपात्रदान देकर, ४-५ साधर्मिकों की भक्ति करने के बाद ही पारणा करते थे ! (१२) महाभद् तप : इस तप में प्रथम श्रेणी में १-२-३-४-५-६-७ उपवास अर्थात् कुल २८ उपवास होते हैं । पारणे में भी एकाशन ही करते थे । इस तरह कुल ७ श्रेणी के १९६ उपवास एवं ४९ पारणे मिलाकर २४५ दिनों में यह तप पूर्ण होता है । (१३) भद्रोत्तर तप : इस तप में कुल ५ श्रेणियाँ होती हैं । प्रत्येक श्रेणि में ५-६-७-८-९ उपवास एक एक पारणे के बाद करने के होते हैं । कुल १७५ उपवास एवं २५ पारणा मिलाकर २०० दिन में यह तप पूर्ण होता है । (१४) भद्रतप : इस तपमें ५ श्रेणियाँ होती हैं । प्रत्येक श्रेणि में १-२-३-४-५ उपवास एक एक पारणे के बाद करने के होते हैं । कुल ७५ उपवास और २५ पारणे मिलाकर १०० दिनों में यह तप होता हैं। __ प्रत्येक तप के पारणे में झमकुबहन ने बिआसन के बदले में दो दव्य से एकाशन ही किये हैं !!! (१५) धर्मचक्र तप : प्रारंभ और पूर्णाहुति में १-१ अठ्ठम और मध्यमें ३७ उपवास एकांतरित इस तरह कुल ८२ दिनों में यह तप पूर्ण होता है। (१६) दो साल तक प्रतिमाह चौविहार अठ्ठम तप करते थे । पार्श्वनाथ भगवंत के भव्य तीर्थों में जाकर ३ दिन चौविहार अठ्ठम के साथ जप और प्रभुभक्ति करते थे । पारणा अन्य तीर्थ में जाकर प्रभुभक्ति आदि करने के बाद करते थे ! (१७) शत्रुजय तप : पालिताना में दो चातुर्मास किये । दोनों बार छठ्ठ एवं दो अठ्ठम किये । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ (१८) दो बार वर्षीतप किया (१९) पिछले ३७ साल में एकांतरित उपवास से कम तप नहीं है, अर्थात् कभी २ दिन लगातार आहार नहीं लिया ! आज भी उनके एकांतरित उपवास चालु हैं ! धन्य हैं ऐसी तपस्वी आत्माओं को । श्री जिनशासन ऐसी तपस्वी आत्माओं के कारण गौरवान्वित है । हम ऐसे तपस्वी आराधकों के जीवनमें से कुछ प्रेरणा पाकर आहार संज्ञा के ऊपर काबू पाकर, देहाध्यास से मुक्त होकर, अणाहारी मोक्षपद प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध बनें यही मंगल भावना । पत्ता : झमकुबहन लालजीभाई घेलाचंद खोना C/o. वीरचंद लालजी खोना A सांईधाम एपार्टमेन्ट - ७ मी मंजिल, परसोत्तम खेराज रोड़, मुलुन्ड (वेस्ट) मुंबई - ४०००८०. फोन : ५६१९०२२/८५५३७३७ 888888888888888888888 १५० अप्रमत्त तपस्विनी मैनाबाई कचरदासजी चोरडिया 888888888 3333330 येरवड़ा (पूना) निवासी सुश्राविका श्री मैनाबाई कचरदासजी चोरडिया (उ.व. ६१) अपने जीवन में अत्यंत अप्रमत्तता से निम्नोक्त प्रकारसे अनुमोदनीय आराधना करती हैं । रात को १२ से २ बजे तक केवल दो घंटे ही आराम करती हैं। बाकी के समय में अप्रमतरूप से आराधना करती रहती हैं । पिछले २७ साल से हररोज १५ सामायिक, ५ घंटे मौन नवकार महामंत्र की १५ मालाएँ, १ लोगस्स की माला एवं १ नमोत्थुणं सूत्र की माला का जप करती हैं। पिछले १३ साल से संलग्न वर्षीतप चालु है । उसमें भी महिने में ५ छठ्ठ और १ अठ्ठम करती हैं । १० बार मासक्षमण, ५१ उपवास Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आदि दीर्ध तपश्चर्याएँ भी की हैं । १३ साल से हररोज पंचपरमेष्ठी भगवंतों को १०८ खमासमण पूर्वक वंदना करती हैं । १० साल की उम्रसे लेकर आज तक रात्रिभोजन का त्याग है । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अचूक चौविहार का पच्चक्खाण करती हैं । लगातार ६ महिनों तक आयंबिल किये हैं । २५ बार १० पच्चक्खाण तप किया है । उपवास के दिन ३ प्रहर दिन व्यतीत होने के बाद ही पानी पीती हैं । पिछले ७ साल से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का स्वीकार किया है । उनके पति भी उनको तप-जप आदि धर्मकार्यों में अच्छा सहयोग देते हैं । उपर्युक्त प्रकार की अप्रमत्त आराधना के प्रभाव से मैनाबाई की आत्मामें अमुक प्रकार की लब्धि एवं आँखों में तप-जप का अपूर्व तेज प्रकट हुआ है । अनेक बिमार व्यक्तियों को उन्होंने नवकार महामंत्र के स्मरणपूर्वक हस्तस्पर्श से नीरोगी बनाये हैं । एक बार उनके पति उपर से नीचे गिर गये थे । जोरदार चोट . लगी थी, तब भी उनको दवाखाने में ले जाने के बजाय नवकार महामंत्र के प्रभाव से ही ठीक किया था । तपश्चर्या के दौरान वे किसी की भी सेवा स्वीकार नहीं करतीं । अप्रमत्तभाव से ज्ञान-ध्यान में लीन रहती हैं । इनके परिवार के सभी सदस्यों में भी अच्छे धार्मिक संस्कार दृष्टिगोचर होते हैं। मैनाबाई की अप्रमत्त आराधना की भूरिश: हार्दिक अनुमोदना । - पत्ता : मैनाबाई कचरदास चोरडिया मु. पो. येरवड़ा, जि. पूना (महाराष्ट्र) १०८ अट्ठाई आदि तपश्चर्या के आराधक महातपस्विनी कमलाबहन घेवचंदजी कटारिया मुंबई-खारमें रहती हुई सुश्राविका श्री कमलाबहन १०८ अठ्ठम तप की आराधना कर रही थीं । संघमें जिनालय का खातमुहूर्त करवाने का प्रसंग उपस्थित हुआ तब कार्यकर्ताओं को भावना हुई कि ऐसी महान Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३९५ तपस्विनी सुश्राविका के हाथ से खातमुहूर्त हो तो अच्छा । उन्होंने कमलाबहन को इस पुण्य कार्य के लिए विज्ञप्ति की । कमलाबहन ने उनकी विज्ञप्ति का स्वीकार किया, लेकिन ऐसा महान लाभ चढावे की बोली बोले बिना ही अपने को मिलने कारण उन्होंने दूसरी बार १०८ अठ्ठम करने की अपनी भावना श्रीसंघ के समक्ष व्यक्त की । सभी उनकी ऐसी उत्तम भावना की अनुमोदना करने लगे । बादमें अध्यवसायों में शुभ भावों की अभिवृद्धि होने पर उन्होंने १०८ अठ्ठम के बदले में ४॥ सालमें १०८ अठाई कर दी । श्री संघने उनका यथोचित बहुमान किया था । हालमें कमलाबहन श्री सिद्धाचलजी की १०८ अठ्ठम कर रही हैं । इससे पहले उन्होंने अपने जीवनमें उपरोक्त तप के अलावा निम्नोक्त प्रकार की तपश्चर्याएं की हैं । (१) अठ्ठम से वर्षीतप (२) छठु से वर्षीतप (३) उपवास से वर्षीतप (४) २२९ छठ्ठ (५) सिद्धितप (६) श्रेणी तप (७) समवसरण तप (८) सिंहासनतप (९) भद्रतप (१०) महाभद्र तप (११) ३ उपधान (१२) ६८ उपवास (१३) बीस स्थानक तप (१४) चत्तारि-अठ्ठ-दस-दोयतप (१५) ८-९-१०-११-१२-२१-३० उपवास (१६) वर्धमान तप (१७) क्षीर समुद्र तप (१८) ज्ञानपंचमी तप (१९) मौन एकादशी (२०) रोहिनी तप (२१) पूर्णिमा तप (२२) लक्ष्मीतप (२३) १३ काठिया निवारण तप (२४) नवपदजी की ओलियाँ (२५) प्रतिदिन ६-७ समायिक (२६) हररोज १०० लोगस्सका काउस्सग्ग .... इत्यादि । कमलाबहन की तपश्चर्या की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना। पत्ता : कमलाबहन घेरवचंदजी कयरिया मिश्रा हाउस, पांचवीं मंजिल, रुम नं १३, ४ था रोड, खार (वेस्ट) मुंबई - ४०००५२. फोन : ६०४४९५८ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ११७२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग प्रतिदिन १२ कि.मी. की दूरी पर जिनपूजा करने के लिए बस द्वारा जानेवाले खेतीबाई भचुभाई देढिया कच्छ-वागड़ में भचाउ से १२ कि.मी. की दूरी पर बंधड़ी नामका गाँव है । वहाँ खेतीबाई नाम की अत्यंत धर्मचुस्त सुश्राविका रहती थीं । उनकी जन्मभूमि तो मनफरा गाँवमे थी, मगर उनका विवाह बंधड़ी नामके छोटे से गाँव में हुआ था, जहाँ एक भी जिनमंदिर नहीं था । पूर्व जन्म के धर्म संस्कारों की विरासत को साथ में लेकर जन्मी हुई खेतीबाई को जिनपूजा के बिना कैसे चलता भला ? इसलिए वे हररोज बस के द्वारा १२ कि.मी. की दूरी पर स्थित भचाउ शहर में जाकर उल्लासपूर्वक जिनपूजा करती थीं । प्रभुभक्तिमें इतनी एकतान हो जाती थीं कि कई बार समय का भी ख्याल नहीं रहता था। दोपहर को १ बजे घर वापस लौटकर स्वयं रसोई बनाकर बादमें आयंबिल करती थीं ।... कैसी अद्भुत होगी उनकी प्रभु के साथ प्रीति ! घर के पास में ही जिनालय होते हुए भी नियमित जिनपूजा या प्रभुदर्शन की भी उपेक्षा करनेवाले भाग्यशाली खेतीबाई की प्रभुभक्ति की मस्ती को कैसे समझ पायेंगे ! खेतीबाई के हय में जीवदया के भाव ऐसे आत्मसात् हो गये थे कि संयोगवशात् करीब ५० बार मुंबई जाने के प्रसंग उपस्थित हुए थे, तब प्रत्येक बार अठ्ठम तप के पच्चक्खाण लेकर ही मुंबई में जातीं ताकि संडाश का उपयोग करना ही नही पड़े ! तीन दिनों में वे मुंबई से अचूक वापस लौट आती थीं । ज्ञानरूचि भी ऐसी अपूर्व कोटिकी थी कि हररोज ८ सामायिक करके भक्तामर स्तोत्र रटती थीं । ज्ञानावरणीय कर्म के उदयसे ८ दिन और ६८ सामायिक में १ श्लोक मुश्किल से कंठस्थ होता था । फिर भी अरति किये बिना पुरुषार्थ चालु रखा और भक्तामर एवं कल्याणमंदिर स्तोत्र कंठस्थ करके ही रहीं ! Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३९७ ज्ञानरूचि के साथ क्रियारूचि भी अत्यंत अनुमोदनीय थी । जयणा के लिए प्रमार्जना में अत्यंत जागरूक थीं । घोर तरश्चर्या में भी उभय काल खड़े खड़े प्रतिक्रमण करती थीं । तप की रूचि तो ऐसी अपूर्व थी कि ३५ साल की उम्र से एकाशन शुरू किये । प्रतिकूल परिस्थिति में भी एकाशन से कम पच्चक्खाण करने के लिए अंत:करण कबूल नहीं होता था । इस में भी वर्धमान तप की नींव डालकर आयंबिल की ओलियाँ करने का प्रारंभ किया । प्रायः प्रत्येक ओली का प्रारंभ अट्ठम तप से करती थीं । ७ से अधिक द्रव्य नहीं खाने का संकल्प था । इसी के बीच चौविहार उपवास से वर्षीतप और चौविहार उपवास से बीस स्थानक तप भी चढते परिणाम से पूर्ण किया ! बीस स्थानक तपमें चौथभक्त की ओली के उपर मासक्षमण किया और वर्धमान तप की ६० वीं ओली के उपर सोलहभक्त (१६उपवास) किया था ! .... करीब ५५ बार अट्ठाई तप किया था । आयंबिल तप के प्रति इतनी अभिरूचि थी कि ५०० आयंबिल संलग्न किये । दूसरी बार ११०० संलग्न आयंबिल करने की भावना से २५६ आयंबिल संलग्न किये। बादमें दोनों आँखो की रोशनी अचानक चली गयी तो भी एकांतरित ५०० आयंबिल पूर्ण किये । १० महिनों तक आँखो की रोशनी चली गयी तो भी एकाशन से कम तप नहीं ही किया। एक बार सकचूर नाम के अत्यंत विषैले जंतु ने उनको डंक मारा था । उसका विष इतना भयंकर होता है कि १०० में से एक केस शायद ही बचता है, मगर आयंबिल तप के प्रभाव से खेतीबाई को कुछ भी नहीं हुआ ! तप के साथ सेवा का समन्वय शायद ही देखने मिलता है। लेकिन खेतीबाई ने अपनी सास की सेवा अपनी माँ की तरह करके उनके आशीर्वाद संप्राप्त किये थे । खेतीबाई के पति भचुभाई स्कूलमें हेड मास्तर थे । उनको भी प्रेम से समझाकर धर्म में ऐसे जोड़ दिये थे कि ३६ साल की उम्र में उन्होंने भी सजोड़े ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया था । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आचार चुस्तता ऐसी कि रात्रिभोजन किसी भी संयोगों में नहीं होने देती थीं । कभी भचुभाई को स्कूलमें से घर लौटने में देरी हो गयी हो और सूर्यास्त होने में २-५ मिनिट की ही देरी होती थी तब पिरोसी हुई थाली कुत्ते आदि को दे देती, मगर रात्रिभोजन नहीं ही होने देती थीं ! इतनी आराधनाओं के बावजूद भी उनको आराधना में संतोष नहीं था । मानव जीवन को सार्थक बनानेके लिए संयम ग्रहण करना चाहिए ऐसी स्पष्ट प्रतीतिवाली खेतीबाई ने अपनी दोनों सुपुत्रिओं को संयम के मार्ग में आशीर्वाद देकर भिजवायीं । वे आज अध्यात्मयोगी प.पू.आ.भ. श्री विजयकलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय में सा.श्री सुभद्रयशाश्रीजी एवं सा.श्री श्रुतदर्शनाश्रीजी के रूप में संयम की आराधना कर रही हैं। इतने से भी संतोष न मानते हुए वे स्वयं को दीक्षा की अनुमति प्रदान करने के लिए अपने पतिदेव को भी पुनः पुनः अनुनय करती रहीं और आखिर उसमें सफलता भी मिली । सकचूर जंतु के जहर से बचने के प्रसंग के बाद उनके पतिने भी उनको दीक्षा के लिए प्रसन्नता से अनुमति प्रदान की और आज से ५५ साल की उम्रमें उन्होनें अत्यंत उल्लासपूर्वक उपर्युक्त समुदाय में संयम का स्वीकार किया । खेतीबाई सा. श्री संयमपूर्णाश्रीजी के रूप में नवजीवन को संप्राप्त हुए । पूर्व में गृहस्थ जीवन में आत्मा की धरती में धर्म की खेती (कृषि) द्वारा आराधना की भरपूर फसल पैदा करने द्वारा स्वनाम को सार्थक बनानेवाली खेतीबाई दीक्षा लेने के बाद अपने नूतन नाम को भी सार्थक करने के लिए भगीरथ पुरुषार्थ कर रहे हैं। वर्धमान आयंबिल तप की १०० ओलियाँ पूर्ण की । १०० वीं ओली केवल रोटी और पानी के द्वारा विहार के दौरान पूर्ण की और शंखेश्वर तीर्थ में किसी भी प्रकार के आडंबर के बिना अत्यंत सादगी पूर्वक पारणा किया ! ५ साल पूर्व में उन्होंने पालिताना में चातुर्मास किया तब प्रतिदिन तलहटी की यात्रा करने के लिए अचूक जाते थे । चातुर्मास के बाद गिरिराज की ९९ यात्राएँ उल्लासपूर्वक पूर्ण की । पालिताना जैसे क्षेत्रमें भी Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ३९९ अकल्पनीय गोचरी नहीं लेने के लिए वे अत्यंत जागरूक थे । रातको भी अल्प निद्रा लेकर अधिकांश समय जप में व्यतीत करते हैं। जब भी देखो तब उनके हाथ में माला या पुस्तक दो में से एक वस्तु अवश्य दृष्टिगोचर होगी । वात्सल्यादि सद्गुण भी अपूर्व कोटिके हैं । ऐसे उत्तम आराधक आत्मा के जीवन में से सभी यथाशक्ति प्रेरणा प्राप्त करें यहीं हार्दिक शुभेच्छा। 38888888888883388888888888888888 रलकुक्षि आदर्श श्राविकारल पानबाई रायसी गाला (चांगडाइवाला) शास्त्रमें मदालसा सती की बात आपने सुनी होगी ? ऐसी ही बात रत्नकुक्षि आदर्श श्राविका श्री पानबाई की है । जिस तरह महासती मदालसा अपनी प्रत्येक संतान को पारणे में झुलाती हुई "शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि, संसारमाया-परिवर्जितोऽसि" इत्यादि श्लोक द्वारा वैराग्य के सुसंस्कारों का सिंचन करके संन्यासी बनाती थीं, उसी तरह सुश्राविका श्रीपानबाई ने अपनी प्रत्येक संतान को बचपन से ही संसार की असारता दृष्टांतों द्वारा समझाकर वैराग्य के मार्ग में प्रवेश कराया है । (१) महावीर जैन विद्यालय (गोवालिया टेन्क मुंबई) में रहकर एल्फिस्टन कोलेज में इन्टर सायन्स (Int. Sc.) का अध्ययन करते हुए सुपुत्र मनहरलाल को पत्र द्वारा एवं छुट्टियों में प्रत्यक्ष हितशिक्षा द्वारा हमेशा प्रभुभक्ति एवं सत्संग करने की प्रेरणा दी । फलतः जब उसको धर्म का मर्म समझने की और संयम स्वीकारने की भावना जाग्रत हुई तब माता पानबाई ने सहर्ष आशीर्वाद सह अनुमति प्रदान की। अपना बेटा बड़ा होकर डॉक्टर या एन्जिनीयर बनकर संपत्ति और गौरव दिलायेगा ऐसी मोहगर्भित विचारधारा युक्त पिता रायसीभाईने ५-५ साल तक प्रतीक्षा करने के बाद भी संयम के लिए अनुमति नहीं दी तब माता पानबाई ने हिंमत करके सुपुत्र मनहरलाल (हाल प्रस्तुत पुस्तक के संपादक एवं मेरे Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ पूज्य गुरुदेव गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा.) को ५ साल तक पंडितवर्य श्री हरिनारायण मिश्र (व्याकरण-न्याय-वेदान्ताचार्य) के पास संस्कृत-प्राकृत व्याकरण एवं षड्दर्शन आदि का अध्ययन करवाकर, आशीर्वाद पूर्वक वि.सं. २०३१ में महा सुदि ३ के दिन कच्छ-देवपुर गाँव में संयम के पथ में प्रस्थान कराया ! जो आज अचलगच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यरत्न के रूपमें ४५ आगमों का अध्ययन करके लगातार ५ एवं ४ महिनों के मौन सह नवकार जप इत्यादि द्वारा आत्मसाधना के साथ साथ तात्त्विक प्रवचन, वाचनाएँ एवं 'जिसके दिल में श्री नवकार उसे करेगा क्या संसार ?' तथा 'बहुरत्ना वसुंधरा भा - १-२-३-४' इत्यादि अत्यंत लोकप्रिय किताबों के संपादन-लेखन द्वारा परोपकार एवं शत्रुजय तथा गिरनारजी महातीर्थ की सामूहिक ९९ यात्राएँ और अनेक छ'री' पालक संघो में निश्रा प्रदान करने द्वारा अनुमोदनीय शासन प्रभावना कर रहे हैं। (२) सुपुत्री विमलाबहन को भी ५ साल तक योगनिष्ठा तत्त्वज्ञा प.पू. विदुषी सा.श्री गुणोदयाश्रीजी म.सा. के पास एवं पंडित श्री हरिनारायण मिश्र के पास ६ कर्मग्रंथ के अर्थ एवं षड्दर्शन आदि का अध्ययन करवाकर सुपुत्र मनहरलाल के साथ ही कच्छ-देवपुर गाँव में दीक्षा दिलायी, जो आज सा. श्री भुवनश्रीजी की शिष्या सा. श्री वीरगुणाश्रीजी के रूपमें उलसित भावसे तप-जप की अनुमोदनीय आराधना के साथ-साथ अनेक जिज्ञासुओं को सम्यक् ज्ञान की प्रसादी उदारदिल से प्रदान कर रही हैं। (३) सुपुत्र दीपककुमार (हाल उम्र वर्ष ४४) को भी कच्छमेराउ में अचलगच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से संस्थापित जैन तत्त्वज्ञान विद्यापीठ में, ४ साल तक धार्मिक एवं संस्कृत का अध्ययन करवाकर धर्म में निपुण बनाया है। उनकी भी संयम स्वीकारने की तीव्र भावना होते हुए भी अपने माँ-बाप आदि की सेवा के लिए संसार में जलकमलवत् निर्लेपभाव से रहकर अपने प्रभुभक्तिमय ब्रह्मचारी जीवन द्वारा एवं श्री देव-गुरु की कृपासे स्वयंस्फूर्त सद्बोध के द्वारा अनेकानेक आत्माओं के जीवन में सम्यग्ज्ञान का प्रकाश फैलाकर Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 अपने नाम को सार्थक बना रहे हैं / सुश्राविका श्री पानबाई को बाल्यावस्था से ही सत्संग के द्वारा एवं कच्छ-डुमरा में कबुबाई जैन पाठशाला में धार्मिक एवं संस्कृत का अध्ययन करने से संयम की भावना जाग्रत हुई थी, लेकिन माँ-बाप की इकलौती संतान होने से संयमके लिए अनुमति नहीं मिली तब उपर्युक्त प्रकार से अपनी प्रत्येक संतान को वैराग्य की प्रेरणा देकर रत्नकुक्षि बनी हैं। आदर्श श्राविका पानबाई ने भव्य पुरुषार्थ द्वारा अपने वयोवृद्ध माँ-बाप (देवकांबाई देवजीभाई) को धर्म में जोड़कर, उनसे वर्षीतप आदि करवाकर, श्रावक के व्रतों का स्वीकार करवाया / इस तरह माँ-बाप की द्रव्य-भाव सेवा की और अंत समय में भी अनुमोदनीय आराधना करवायी। स्वयं भी नियमित जिनपूजा, उभय काल प्रतिक्रमण, श्रावक के 12 व्रतों का स्वीकार, सत्संग, स्वाध्याय सद्वांचन, वर्षीतप-बीसस्थानक तप-वर्धमान तप की 45 ओलियाँ, नवपदजी की ओलियाँ इत्यादि तपश्चर्या, साधु-साध्वीजी भगवंतों की उल्लसित भाव से वैयावच्च, व्याख्यान श्रवण, प्रभुभक्ति और रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) की संदर आराधना द्वारा एवं संयम के मनोरथ द्वारा जीवन को धन्य बना रही हैं। इस दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर अन्य श्राविकाएँ-माताएँ भी अपने जीवन को धर्ममय बनाकर अपनी संतानोंमें भी धार्मिक सुसंस्कारों का सिंचन करें यही शुभाभिलाषा / * शंखेश्वर तीर्थमें आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोह में शुश्राविका श्री पानबाई भी पधारी थीं / उनकी तस्वीर के लिए देखिए पेज नं. 22 के सामने / पत्ता : पानबाई रायसी गाला Clo. दीपककुमार रायसी गाला, मु.पो, लायजा, ता. मांडवी कच्छ (गुजरात). पिन : 370475. (अनुमोदक : मुनिश्री देवरत्नसागरजी) बहला वसंधरा - 2-26 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 174 अहिंसा की देवी स्व. गीताबहुन बचुभाई गंभिया जिस भारत देश में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों को आत्म तुल्य मानकर उनकी रक्षा करने का उपदेश देनेवाले अनेक तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं ... अन्य भी अनेक करुणावंत संत-महापुरुष पैदा हुए हैं, जिन्होंने छोटे छोटे जीवों की रक्षा करने के लिए अपने प्राणोंका भी बलिदान दे दिया है, ऐसे अहिंसाप्रधान देश में आज, काल के प्रभावसे हजारों छोटे-बड़े यांत्रिक बूचड़खानों में प्रतिदिन लाखों अबोल पंचेन्द्रिय प्राणिओं की निर्दयता पूर्वक कत्ल हो रही है तब अहिंसाप्रेमी अनेक आत्माओं को आघात लगना स्वाभाविक है। फिर भी आज तथा प्रकार के सरकारी कानूनों के कारण उन सभी बूचड़खानों को बंद कराने की बात तो अशक्य प्रायः लगती है, लेकिन जीवरक्षा के कुछ कानूनों की परवा किये बिना गैरकानूनी रूपसे भी हररोज हजारों-लाखों जीव बूचड़खाने आदि में अत्यंत कूरता से हलाल हो रहे हैं / ऐसे अबोल जीवों की रक्षा के लिए कुछ विरले नररत्न और नारीरत्न आज भी अपने प्राणों की परवा किये बिना झूझ रहे हैं / उनमें से 6 साल पहले पशुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देनेवाली श्रीमती गीताबहन गंभिया की हिंमत सचमुच अत्यंत सराहनीय है / / मूलत: राजस्थान में उत्पन्न और कच्छ-रामाणिया के बचुभाई रांभिया नाम के जैन श्रावक के साथ मुंबई में विवाह संस्कार से संबद्ध गीताबहन पिछले करीब 15 वर्षों से अहमदाबाद में अपने पति के साथ "हिंसा निवारण संघ" में गैरकानूनी पशुवध को रोकने का सत्कार्य करती थीं / इस संस्था के मानद इन्सपेक्टर वर्मा बंधुओं की कसाईओं द्वारा इ.स. 1986 में हत्या होने के बाद उनकी जगह पर गीताबहन को उनकी हिंमत 'आदि से प्रभावित होकर उपर्युक्त संस्थाने नियुक्ति की थी / ___मुंबई सेन्ट झेवियर्स कोलेजमें M.A. तक पढी हुई गीताबहन का हृदय निर्दोष प्राणीओं की बेरहम हत्या से काँप उठता था और मर्द Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 403 की तरह शौर्यशाली गीताबहन गैरकानूनी पशुवध को रोकने के लिए कई बार रबारिन औरत, बुरखाधारी मुस्लिम औरत, दाढी मूंछवाले सरदारजी आदि के वेष पहनकर, तो कभी इन्सपेक्टर के वेष में हन्टर लेकर पशुवाहक गाडीओं को मध्यरात्री में या प्रात: 4 बजे के आसपास अपने साथीदारों के साथ हाईवे आदि विविध स्थानों पर रोककर कसाइओं को डराकर पशुओं को छुड़ाती थीं और पांजरापोल में जमा करवाकर रसीद प्राप्त करती थीं / इस तरह उन्होंने हजारों गाय, भैंस, बछड़े, बैल, भेड़, बकरे आदि पशुओं को अपनी जान को जोखिम में डालकर बचाया था और जबरदस्त पुण्य उपार्जन किया था। ___ कई बार उनको खून की धमकियाँ भी मिलती थीं / तो कभी उनकी बेटी तोरल के अपहरण आदि की धमकी भी मिलती थी, मगर किसी भी धमकी के आगे झुके बिना अपूर्व हिंमत से वह अपना कर्तव्य निभाती थीं / कई बार कसाइओं ने उनके उपर जानलेवा हमले भी किये थे और उनके शरीर पर कसाइओं द्वारा किये गये प्रहार के निशान भी मौजूद थे मगर हजारों निर्दोष प्राणीओं को बचाने के पुण्यकार्य करते हुए अगर अपना नश्वर शरीर चला भी जाय तो उनको उसकी जरा भी परवाह नहीं थी किन्तु जीवों को बचाने का परम संतोष उनके चेहरे पर व्याप्त रहता था। दि. 7-6-1991 के दिन उन्होंने अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा विस्तार में से प्रात:काल में 9 बछड़ों को कसाइओं से छुड़ाकर पांजरापोल में जमा कराया था और उसी रात को 11 बजे गीताबहनने अपनी द्वितीय संतान सुपुत्र चैतन्य को जन्म भी दिया था / इसी तरह सगर्भावस्था में भी वे अपने कर्तव्य से पीछेहट नहीं करती थीं। वि.सं. 2049 में हमारा चातुर्मास मणिनगर (अहमदाबाद) में था तब गीताबहन के ऐसे उत्तम कार्यों की अनुमोदना करने हेतु एवं उनको ऐसे कार्यों में सहयोग एवं प्रोत्साहन मिले ऐसी भावना से रविवारीय जाहिर प्रवचन के दौरान उनका बहुमान करवाने का आयोजन किया गया था और उसमें उपस्थित रहने की अनुमति भी प्राप्त कर ली गयी थी; मगर कर्म की विचित्र गति का पार कौन पा सकता है ? दूसरे ही दिन दि. 28 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 8-1993 शनिवार दिन वे 6 बछड़ों को कसाइओं से छुड़ाकर, पांजरापोल में जमा करवाकर पशुवाहक टेम्पो में बैठकर घर वापस लौट रहे थे तब दो कसाई युवकों ने स्कुटर से आकर उनकी गाडी को रोका और गीताबहन को गाड़ी से बाहर खींचकर धारदार चप्पू के 18 प्रहार उनके शरीर में कर दिये ... भागते हुए दोनों खूनी युवकों को तुरंत पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया मगर खून से लथबथ गीताबहन के शरीर में से उसी समय प्राण निकल गये थे !... उपर्युक्त घटना का एवं गीताबहन के जीवनकार्यों का विस्तृत वर्णन दि. 13-9-1993 के चित्रलेखा साप्ताहिक के एक सचित्र लेख में दिया गया है मगर पुस्तक की मर्यादा के मद्देनजर यहाँ अतिसंक्षेप में ही उसका . सारांश दिया गया है। गीताबहन की बेरहम हत्या की खबर विद्युतगति से देश भरमें फैल गयी और जैन-जैनेतर हजारों संस्थाओं ने सभाओं का आयोजन करके इस दुष्कृत्य की अत्यंत भर्ना की और गीताबहन को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। उनकी अंत्येष्टि में हजारों की जनसंख्या उपस्थित हुई थी। अहमदाबाद की सभी दुकाने स्वयंभू रूप से बंद रही थीं / गीताबहन की अंत्येष्टि के समय में उनके पति बचुभाई राभिया ने उद्घोषणा की थी कि "मैं भी मेरी धर्मपत्नी की तरह जीवदया के कार्य करता ही रहूँगा / " और उसके मुताबिक इ.स. 1994 से 96 तक केवल 3 वर्ष में स्वयंसेवक, म्यु. कोर्पोरेशन और पुलिस का सहयोग लेकर करीब 10 हजार से अधिक निर्दोष पशुओं को बचाकर अलग अलग पांजरापोल में भेजकर अभयदान का महान सत्कार्य किया है / इन तीन वर्षों में उन्होंने बड़े समूहमें बचाये हुए पशुओं की तालिका निम्नोक्त प्रकारसे है / इ.स. स्थान पशुसंख्या 1994 कच्छ 1995 साबरमती गुड्स ट्रेन 744 980 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 254 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 1995 शाह आलम (अहमदाबाद) 210 1996 कुरेशीनगर, विशाला होटल के सामने कुल 2188 गीताबहन की स्मृति में जीवरक्षा के उपर्युक्त प्रकार के सत्कार्यों के लिए निम्नोक्त दो संस्थाओं की स्थापना की गयी है / (1) गीताबहन रांभिया स्मृति अहिंसा ट्रस्ट (2) गीताबहन रोभिया परिवार चेरीटेबल ट्रस्ट (गीता सेना) (रजि.नं. E-10-910) रजि. औफिस : कार्यकारी ओफिस : नागजी भूदर की पोळ झुपड़ा की पोळ माँडवी की पोल माँडवी की पोळ माणेक चौक, अमदाबाद-१. माणेक चौक. फोन : 1141197 अमदाबाद-३८०००१. जीव हिंसा को रोकने के उपर्युक्त प्रकार के कार्य अकेले हाथसे करना संभव नहीं होता है / उसके लिए तो कसाइओं का हिंमतपूर्वक सामना कर सकें ऐसे युवकों का सहयोग अनिवार्य है / इसके लिए बचुभाई रोभिया ने "गीतासेना' के नाम से युवकों की फौज भी तैयार की है / उसमें कोई भी युवक मानद सेवा भी देते हैं, मगर बाकी के जैनेतर युवकों को यथायोग्य वेतन देना पड़ता है / इसलिए उपर्युक्त संस्थाओं के उपक्रम से छोटे जीवों को कसाइयों से छुडाने के 351 रूपये एवं गाय-भैंस आदि बड़े जीवों को छुड़ाने के लिए 601 रूपयों का नुकरा भी तय किया गया है / जीवदयाप्रेमी जनता को अनुरोध किया जाता है कि अपनी जान को जोखिम में डालकर ऐसे उत्तम कार्य करनेवाले कार्यकर्ताओं को हम आर्थिक दृष्टि से ऐसे समर्थ बना दें ताकि वे आजीवन उत्साहपूर्वक ऐसे उत्तम कार्य करते ही हैं / बचुभाई रोभिया शंखेश्वर में आयोजित अनुमोदना समारोह में पधारे थे और उस समारोह की विडीओ मूवी भी स्वेच्छा से उन्होंने तैयार Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 करवायी थी !!! गीताबहन और बचुभाई की तस्वीरों के लिए देखिए पेज नं. 24 के सामने / जीवदया के सर्व कार्यकर्ताओंकी हार्दिक अनुमोदना जैनशासन के रहस्यों के मर्मवेत्ता, दीर्घदृष्टा, आर्यसंस्कृतिप्रेमी, सूक्ष्म तत्त्वचिंतक, श्राद्धरत्न, स्व. पंडितवर्य श्री प्रभुदासभाई मणिलाल पारख, श्री गोरधनलालभाई छगनलाल, श्री मोहनलालभाई जुहारमल इत्यादि "विनियोग परिवार" [B-2/104 वैभव, जांबली गली, बोरीवली (वेस्ट) मुंबई- 400092. फोन : 807781] संस्था के तत्त्वावधान में कानून के द्वारा बूचड़खानों को बंद करवाने के लिए और पाठ्यपुस्तकों में से मांसाहार को प्रोत्साहित करनेवाले पाठों को हटाने के लिए एवं जीवरक्षा, संस्कृतिरक्षा और शासनरक्षा की अनेकविध सत्प्रवृत्तियाँ करते-करवाते रहते हैं। उसके लिए उपर्युक्त संस्था के उपक्रम से स्व. वेणीशंकरभाई मोरारजी वासु, स्व. पंडितवर्य श्री प्रभुदासभाई पारख आदि का सत्साहित्य प्रकाशित कर रहे हैं जो अत्यंत अनुमोदनीय है / शासनप्रेमी, संस्कृतिप्रेमी और जीवदयाप्रेमी आत्माओं के लिए यह साहित्य खास पढने योग्य है / ___उसी तरह श्री कुमारपालभाई वी. शाह (धोळका), श्री अतुलभाई वी. शाह (कांदीवली), श्री जयेशभाई भणसाली, श्री कल्पेशभाई शाह, श्री संजयभाई वोरा, श्री गिरीशभाई शाह इत्यादि सुप्रसिद्ध युवक एवं डो. श्री सुरेशभाई झवेरी, श्री हसमुखभाई शाह (मणिनगर) इत्यादि सुश्रावक भी पांजरापोलों को आत्मनिर्भर बनवाने के लिए और गैरकानूनी पशुवध को रोकने के लिए अनेकविध सत्प्रयास कर रहे हैं जो अत्यंत अनुमोदनीय है। मूलतः राजस्थान के एवं हालमें आदोनी (आंध्र) में रहते हुए श्री रूगनाथमलजी स्पचंदजी और उनके साथी मित्र पीला श्री रामकृष्ण (विशाखापट्टनंवाले) भी कई वर्षों से पशुवध को रोकने के लिए एवं माँसाहार छुडाने के लिए सफल प्रयास कर रहे हैं / / श्री हिंसा विरोध संघ, श्री अखिल भारत हिंसा निवारण संघ श्री अहिंसा महासंघ इत्यादि संस्थाएँ भी जीवदया के अनुमोदनीय सत्कार्य कर रही हैं / Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 ऐसे व्यक्तियों को एवं संस्थाओं को तन-मन-धन से सहयोग देना यह अहिंसाप्रेमी आत्माओं का खास कर्तव्य है / सुज्ञेषु किं बहुना ! 175 बीमार कबूतरों की सेवा करती हुई, जीवदयाप्रेमी सुश्राविका श्री स्तनबाई राघवजी गुहका आज एक और स्वार्थांधता के कारण प्रतिदिन लाखों-करोड़ों अबोल पशु-पक्षीओं की बेरहमी से कत्ल होती है, तब दूसरी और अबोल पशु-पक्षीओं को अपने स्वजन समान मानकर निःस्वार्थभाव से उनकी सेवा करनेवाले भी कुछ मानवरत्न इस विश्व में विद्यमान हैं / ऐसे निःस्वार्थ सेवाशील आराधकरत्नों में कच्छ-बारोई गाँव के निवासी एवं हाल में मुंबईमझगाँव में रहती हुई सुश्राविका श्री रतनबाई राघवजी गुटका (उ.व. 57) भी खास अनुमोदनीय है। ___ आज से 37 साल पूर्व उनकी शादी हुई तब से लेकर आज तक वे निःस्वार्थभाव से करुणाप्रेरित होकर बीमार कबूतरों की सेवा करती हैं। __37 साल पहले उनकी पड़ोसन ने उनको एक बीमार कबूतर दिया था / उसकी सूश्रूषा करते हुए रतनबाई को अंत:प्रेरणा हुई और उन्होंने अपने घरमें खास कबूतरों के लिए 2 अलमारियों की व्यवस्था की है जिसमें कुल 24 आले (विभाग) हैं / / कटी हुई पंखवाले, खंडित पैरवाले, मर्दित गरदनवाले, नेत्रहीन या पक्षाघात युक्त ऐसे बीमार कबूतरों को खास अपने घरमें रखकर उनकी हर तरह की सेवा करती हुई सुश्राविका श्री रतनबाई को शांति के दूत ऐसे अबोल पक्षीओं की जो मूक दुहाई प्राप्त होती है, उससे उनको अत्यंत शांति और प्रसन्नता का अनुभव होता है / प्रतिमाह एकाध बार वे अपने खर्च से पक्षीओं के चिकित्सक को बुलाती हैं और जरूरतमंद कबूतरों की चिकित्सा उनके द्वारा भी करवाती हैं / बाकी तो 37 वर्षों के अनुभवों के कारण अधिकांश शुश्रूषा तो वे Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 स्वयं ही करती हैं। किसी भी प्रकार के प्रमाणपत्र, गोल्ड मेडल या प्रसिद्धि की अपेक्षा रखे बिना केवल कर्तव्य बुद्धि से उनकी सेवा का मिशन 37 साल से अविरत चालु है। रतनबाई की जीवदया की विरासत उनकी संतानों को अच्छी तरह से संप्राप्त हुई है / उनके एक सुपुत्र एवं एक सुपुत्रीने सर्वजीवों को अभयदान देनेवाली भागवती प्रव्रज्या का स्वीकार किया है / वे आज अचलगच्छ में मुनिराज श्रीरत्नाकरसागरजी एवं सा. श्री श्रुतगुणाश्रीजी के रूपमें संयम का अच्छी तरह से पालन कर रहे हैं / अन्य दो सुपुत्र जितेन्द्रकुमार एवं बिपीनकुमार के मनमें भी संयम के मनोरथ चालु हैं / एक सुपुत्र प्रवीणभाई की 5 साल पूर्व में शादी हुई तब शादी के दिन से ही उन्होंने संकल्प किया था कि जब तक कच्छमें विहरते हुए भाई म.सा. के दर्शन नहीं कर सकुं तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा / करीब दो महीनों के बाद भाई महाराज के दर्शन हुए तब तक संकल्प के अनुसार ब्रह्मचर्य पालन किया / शादी के एकाध महिने पश्चात् वे अपनी धर्मपत्नी के साथ पालिताना आये थे तब आजीवन प्रतिवर्ष 6 अठ्ठाइयों में ब्रह्मचर्यपालन की प्रतिज्ञा, एवं उपर्युक्त संकल्प के अनुसार अभिग्रह पच्चक्खाण भी मुझसे लिया था / . . धन्य है ऐसी रत्नकुक्षि सुश्राविका को कि जिन्होंने स्वयं जीवदया का सुंदर पालन किया और समाज को और संतानों को भी नि:स्वार्थ सेवा का आदर्श दिया है। रतनबाई के दृष्टांत में से प्रेरणा लेकर सभी श्रावक-श्राविकाएँ नि:स्वार्थ सेवा और संयम को अपने जीवन में आत्मसात् करके अपनी संतानों में भी ऐसे सुसंस्कारों का सिंचन करें यही शुभ भावना / पता : रतनबाई राघवजी केशवजी शाह 108/192, डॉ. मस्कार हेन्स रोड़, श्रीफ बिल्डींग, दूसरी मंजिल, मझगाँव - मुंबई 400010. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 409 3888888888888888888888888888888 शत्रुजय महातीर्थ की 25 बार 99 यात्रा करनेवाले / सुश्राविका श्री भचीबाई भवानजी चना 82 साल की उम्र में भी श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की 25 वीं बार पैदल 99 यात्राएँ करनेवाली कच्छ-गोधरा (तह. मांडवी) की सुश्राविका श्री भचीबाई (उ.व. 90) का नाम भले गिनेस वर्ल्ड रेकर्ड बुक में दर्ज नहीं हुआ हो मगर प्रत्यक्षदर्शी हजारों भावुक आत्माओं के हृदयमें तो उनकी मुखमुद्रा हमेशा के लिए अंकित हो गयी है / सचमुच, कर्मक्षय के लिए शरीरबल की बजाय दृढ मनोबल एवं आत्मबल की ही प्रधानता होती है, यह बात भचीमा ने की हुई निम्नोक्त अनुमोदनीय आराधना से सिद्ध होती है / तपश्चर्या : (1) चार मासक्षमण (2) 4 वर्षीतप (3) 35 अठ्ठाई (4) 5 बार 16 उपवास (5) श्रेणितप (6) सिद्धितप (7) बीस स्थानक तप (8) 24 तीर्थंकर के 600 उपवास (9) 96 देव की 4 ओलियाँ (10) 500 आयंबिल (11) वर्धमान तप की 56 ओलियाँ (12) नवपदजी की 25 ओलियाँ (13) 3 उपधान (14) ज्ञानपंचमी-अष्टमी-एकादशी-पूनमअमावास्या -रोहिणी-अक्षयनिधि-१४ पूर्व- समवसरण तप आदि / चातुर्मास में सामूहिक रूपमें होती हुई छोटी-बड़ी प्रत्येक तपश्चर्या में भचीमा का नाम सर्व प्रथम होता है! छ'री' पूर्वक तीर्थयात्राएँ : (1) शत्रुजय महातीर्थ की 25 बार 99 यात्राएँ (2) गिरनारजी महातीर्थ की 99 यात्राएँ (3) श्री समेतशिखाजी महातीर्थ की 99 यात्राएँ (4) तालध्वजगिरि (तळाजा) तीर्थ की 99 यात्राएँ (5) मुंबई से समेतशिखरजी छ'री' संघमें यात्रा (6) समेतशिखर से पालिताना के छ'री' पालक संघमें यात्रा (7) कच्छ-गोधरा से पालिताना के छ'री' संघ में यात्रा (8) बाड़मेर से जेसलमेर (9) भद्रेश्वर तीर्थ के 4 छ'री' पालक संघो में Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 यात्रा (10) सुथरी तीर्थ के 4 छ'री' पालक संघो में यात्रा .... इत्यादि / __नवकार महामंत्र का 5 बार 9 लाख संख्यामें जप किया ! दैनिक जीवनमें भी सामायिक-प्रतिक्रमण-जिनपूजा आदि आराधनाओं के साथ साथ स्वभाव में सरलता, नम्रता, समता, वात्सल्य आदि सद्गुणों के कारण वे आबालवृद्ध सभी के हृदय में बस गये हैं / वि.सं. 2035 एवं सं 2045 में भचीमा ने हमारी निश्रामें चतुर्विध श्री संघ के साथ अत्यंत भावोल्लासपूर्वक शत्रुजय महातीर्थ 99 यात्राएँ की थीं / पता : भचीबाई भवानजी चना मु.पो. गोधरा-कच्छ ता. मांडवी-कच्छ पिन : 370450. सास-ससुर की सेवा के लिए 6-6- महिनों तक १७७/पति और संतानों का वियोग स्वीकारती हुई देवरानी-जेठानी "अब हम क्या करेंगे ? हम यहाँ माँ-बाप की सेवा तो अच्छी तरह से करते हैं, मगर उनको मुंबई का शहरी जीवन एवं यहाँ का दूषित पर्यावरण अनुकूल नहीं होने से वे दोनों हमेशा के लिए गाँव में रहने का निर्णय करके गाँव में चले गये हैं / हम दोनों भाई 20-25 साल से यहाँ मुंबई में विभक्त परिवार में रहते हैं / दोनों की संतानें यहीं पढती हैं / व्यवसाय भी यहीं है, इसलिए हम तो मुंबई को छोड़ नहीं सकते, और दूसरी और इस उम्र में सेवा के योग्य उम्रवाले माँ-बाप की, सेवा से वंचित रहना भी उचित नहीं लगता है"- मुंबई में रहते हुए सौराष्ट्र के दशा श्रीमाली ज्ञातीय जैन भाई अपने दिल का दर्द अपनी धर्मपत्नी के सामने प्रस्तुत कर रहे थे / "आप चिन्ता नहीं करे / मैं भाभी (अपनी जेठानी) से मिलुंगी और हम दोनों मिलकर कुछ भी रास्ता निकालेंगे" धर्मपत्नीने प्रत्युत्तर दिया। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 411 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 विभक्त कुटुम्ब में रहती हुई देवरानी-जेठानी ने सास-ससुर की सेवा करने का निर्णय कर लिया / कार्तिक से चैत्र तक जेठानी गाँव में रहकर सास-ससुर की सेवा करती हैं और देवरानी मुंबई में रहकर दोनों कुटुम्बों की देखभाल करती हैं / बादमें वैशाख से आसोज तक देवरानी गाँव में रहकर सास-ससुर की सेवा करती है और जेठानी मुंबई में रहकर दोनों कुटुम्बों की देखभाल करती हैं / "दुष्प्रतीकारौ मातापितरौ" - 'माँबाप के उपकारों का ऋण चुकाना मुश्किल है', इस शास्त्रीय विधान को समझनेवाली पुण्यात्माएँ माँ-बाप की तीर्थ की तरह सेवा करते हैं, इसका दृष्टांत वर्तमानकाल में भी हमें देखने को मिलता है यह हमारा पुण्योदय है। __ प्रत्यक्ष उपकारी माँ-बाप की सेवा-विनय द्वारा सुपात्र बने हुए मनुष्यों में ही पारलौकिक उपकारी गुरु और परमगुरु की सेवा करने की पात्रता प्रकट हो सकती है। प्रत्यक्ष उपकारी माँ-बाप की सेवा भक्ति की उपेक्षा करनेवाले, परलोक एवं परमलोक के उपकारी देव-गुरु की सेवा-भक्ति के लिए कैसे पात्र बन सकते हैं ??? 178 'माता हो तो ऐसी हो "माँ तुम घर वापस लौट आओ / आप घर छोड़कर क्यों चली गयीं ! आप इस तरह घर छोड़कर चली जायेंगी तो हम कितनी मुसीबतों में फँस जायंगे, इसकी भी आपको चिन्ता नहीं है ?" . "बेटे ! तेरे प्रति हितचिन्ता के कारण ही मैंने इस घर का त्याग किया है। मैंने तुझे पहले से ही कहा था कि यदि इस घरमें तू टी.वी. का पाप लायेगा तो मैं इस घर में नहीं रहुँगी / मैं तेरी माँ हूँ। टी. वी. को घर में लाकर तू तेरी आत्मा का भी विचार नहीं करे और घर के सभी सदस्यों को भी पाप में डाले यह मुझसे कैसे बरदास्त हो सकता है ?" Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 "तो माँ ! सुन लो, मैं अभी ही टी.वी. को घर से बाहर निकालता हूँ ! इस घर में अब आपकी उपस्थिति में कभी भी टी.वी. नही आयेगा / हमारी आत्मा की इतनी हितचिन्बा करनेवाली आपके जैसी "कल्याणमित्र" माँ को पाकर हम धन्य हो गये हैं" कहता हुआ सुपुत्र अपनी माँ को सन्मानपूर्वक घर में वापस ले आया / टी.वी. को हमेशा के लिए बिदाई मिल गयी ! सौराष्ट्र में हालार प्रदेशोत्पन्न दो मुनिरत्नों की जन्मदात्री उपर्युक्त श्राविकारत्न की कल्याणमित्रता और संस्कृति प्रेम की हार्दिक अनुमोदना / उनके दोनों सुपुत्र वर्धमानतपोनिधि प.पू.आ.भ.श्री विजयभूवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय में प्रखर प्रवचनकार के रूपमें अद्भुत शासन प्रभावना कर रहे हैं / अन्य माताएँ भी इस दृष्टांतमें से प्रेरणा ग्रहण करें यही शुभेच्छा / 179 सिद्धाचलजी महातीर्थ में भवपूजा करनेवाली उत्तम आराधक सुश्राविका प्री धीरजबहन सलीत सौराष्ट्र में महुवा की पावन घरती में वि.सं. 1978 में जन्मी हुई और दाठा निवासी रतिलालभाई सलोत के साथ विवाहित सुश्राविका श्री धीरजबहन (उ.व. 75) की ज्येष्ठ सुपुत्री रमा (हाल सा. श्री रयणयशाश्रीजी) ने वि.सं. 2016 में दीक्षा ली तब से धीरजबहन का जीवन विशेष रूपसे धर्ममय होने लगा / उन्होंने आज तक निम्नोक्त प्रकार से अनुमोदनीय आराधनाएँ की हैं। __(1) नित्यभक्तामरस्तोत्रपाठी प.पू.आ.भ. श्री विजयविक्रमसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रामें श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की 99 यात्राएँ विधिपूर्वक की तब गिरिराज के उपर बिराजमान नव टोंक में रहे हुए सभी जिनबिम्बों की नवांगी पूजा की थी / हररोज करीब 100 जिनबिम्बों की पूजा करके शाम को 4 बजे नीचे आकर एकाशन करती थीं / (2) 20 दिन तक केवल खीरसे एकाशन करके, हररोज 50 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 413 पक्की नवकारवाली का जप करने द्वारा 1 लाख नवकार का जप विधिवत् पूर्ण किया / ... (3) नवपदजी की 75 से अधिक औलियाँ पूर्ण की हैं जिनमें से 10 ओलियाँ एक धान्य की और अलूणी (बिना नमक की) की हैं। (4) 27 साल से कम से कम बिआसन का पच्चक्खाण करते हैं / (5) 20 साल से हररोज प्रात:काल में प्रतिक्रमण के बाद सामायिक लेकर अरिहंत पद की 20 माला का जप करके प्रभुपूजा करने के बाद ही बिआसन करती हैं ! अरिहंत पद का 2 करोड़ जप किया है / . (6) 37 साल से श्रावक के 12 व्रतों का पालन करती हैं / (7) 3 उपधान एवं वर्षीतप किया है / प्रत्येक तप का उद्यापन किया है / (8) 27 साल से पालिताना में चातुर्मासिक आराधनाएँ करती हैं। (9) प्रभुभक्ति उनका प्राण है / आज तक संगेमरमर और धातु के कुल 15 जिनबिम्ब विविध स्थलों पर पधराये हैं / शंखेश्वर तीर्थ में 108 पार्श्वनाथ जिनालय में श्री नवखंडा पार्श्वनाथ भगवंत की देहरी का लाभ भी उन्होंने लिया हैं !... (10) गुरुभक्ति भी अत्यंत अनुमोदनीय है। 108 रजोहरण बन सकें ऐसे 108 उन के पेकेट साधु-साध्वीजी भगवंतों को बहोराये हैं / (11) आगम ग्रंथों को छपवाने के लिए भी द्रव्य का सद्व्यय करके श्रुतभक्ति करती हैं / (12) किसी भी संयोगों में प्रतिदिन उभय काल प्रतिक्रमण और 5-6 समायिक अवश्य करती हैं / ____धीरजबहन के जीवनमें से प्रेरणा लेकर सभी तत्त्वत्रयी के उपासक और रत्नत्रयी के आराधक बनें यही शुभाभिलाषा / पत्ता : धीरजबहन रतिलालभाई सलोत 69 मोदी वीला, दूसरी मंजिल, साउथ वेस्ट रोड़ नं. 4, जुहु स्कीम, मुंबई- 400056. फोन : 6208106 / 6204234 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 लगातार 1008 अतुम तप की भावना से 180 450 से अधिक अठ्ठम तप की आराधिका महातपस्विनी दर्शनाबहन नयनभाई शाह अहमदाबाद निवासी महातपस्विनी सुश्राविका श्री दर्शनाबहन शाह (उ.व.५१) को तप की विरासत उनके पिताजी एवं ससुरजी से संप्राप्त हुई है। दर्शनाबहन के पिताजी भोगीलालभाई बादरमल शाह ने 32 साल की युवावस्था में ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया था / आज से 22 साल पहले जब हृदय के दौरे के कारण उनका स्वर्गवास हुआ था उस दिन उनका लगातार 356 वाँ आयंबिल था / कुल 1008 संलग्न आयंबिल करने का उनका अभिग्रह था / इस से पूर्व में 13 बार हृदय का दौरा (हार्ट एटेक) हो गया था फिर भी वे संयम और तप के प्रभाव से जीवित रहे थे और मृत्यु से डरे बिना तपश्चर्या चालु रखी थी / ऐसे महातपस्वी, व्रतधारी पिताकी सुपुत्री दर्शनाबहन आज 1008 अठ्ठम करने की भावना से 450 से अधिक अठ्ठम कर चुकी हों तो इस में असंभव की बात नहीं हो सकती है। दर्शनाबहन के ससुर सुश्रावक श्री नरोत्तमदासभाई गोदड़जी शाह भी महातपस्वी थे / 'तपावलि' पुस्तक में वर्णित प्रायः सभी प्रकार की तपश्चर्या उन्होंने अपने जीवन में कर ली थी !!! उन्होंने 49 चौविहार अठ्ठाईयाँ की थीं ! 60 वे साल की उम्र में मासक्षमण तप किया था और 61 वे साल की उम्र में नवकार महामंत्र के 68 अक्षरों की आराधना 76 दिनों मे पूर्ण की थी, जिसमें 68 उपवास के बीचमें केवल 8 ही बियासन किये थे !!! पिछले कई वर्षों से वे चातुर्मास के प्रारंभ से लेकर पर्युषण तक लगातार छठ्ठ तप करते थे / पर्युषण में चौविहार अठ्ठाई तप और बाद में कार्तिक पूर्णिमा तक एकांतर उपवास करते थे ! करीब 3 // साल पूर्व में उनका स्वर्गवास हुआ है। ऐसे महातपस्वी सुश्रावक श्री नरोत्तमभाई शाह की पुत्रवधू श्रीमती Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 दर्शनाबहन ने वर्धमानतपोनिधि प.पू.आ.भ. श्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के पास 12 // साल तक दो दिन लगातार आहार (बिआसन) नहीं करने का अभिग्रह लिया था ! ऐसे महान अभिग्रह के साथ उन्होंने 2 वर्ष और 1 // महिने में बीसस्थानक तप के 420 उपवास एवं 4 वर्ष और 2 महिनों में सहस्रकूट के 1024 उपवास पूर्ण किये !... इसी तपश्चर्या में उन्होंने अठ्ठम के पारणे अठुम की तपश्चर्या प्रारंभ कर दी। कुछ समय के बाद उन्होंने समेतशिखरजी महातीर्थ की रक्षा निमित्त से 44 अठ्ठम किये / फिर तो मानो अट्ठम की तपश्चर्या ही उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई / उन्होंने अठ्ठम से वर्षीतप भी कर लिया और अपने परम उपकारी गुरुदेव विद्वद्वर्य पूज्य मुनिराज श्री युगभूषणविजयजी म.सा. (पंडित महाराज) के पास उन्होंने लगातार 508 अट्ठम करने का अभिग्रह भी ग्रहण कर लिया है / इसी चातुर्मास में प्रस्तुत लेख "बहुरत्ना वसुंघरा" में प्रकाशित होगा तब तक उनकी 450 से अधिक अठुम पूर्ण हो गयी होंगी। 2 साल पूर्व वे चातुर्मास के दौरान शंखेश्वर तीर्थ में आयी थीं तब उनकी 289 वीं अठ्ठम चालु थी मगर चेहरे पर जरा भी थकान महसूस नहीं होती थी बल्कि अत्यंत प्रसन्नता उनकी मुखमुद्रा पर व्याप्त थी। कुल 1008 अठ्ठम लगातार करने की भावना उन्होंने अभिव्यक्त की थी। हालमें वे श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवंत के अठ्ठम कर रही हैं। प्रत्येक अठुमके विसहर फुलिंग मंत्र का 12 / / हजार बार जाप करती हैं / कुल 1 / करोड़ बार इस मंत्र का जप करने की भावना है !!! एक बार अठ्ठम के दौरान उन्होंने पुज्य मुनिराज श्री युगभूषणविजयजी म.सा. से मंत्रग्रहण करके पीले वस्त्र पहनकर सुवर्ण के पात्र द्वारा 36000 फूलों से श्री गौतमस्वामी की पूजा की थी !!! आज से करीब 8 साल पूर्व में उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत भी अंगीकार कर लिया हैं / अठ्ठम के दौरान वे लोगस्स/उवसग्गहरं स्तोत्र और श्री पार्श्वनाथ प्रभुजी के चैत्यवंदन (ॐ नमः पार्श्वनाथाय... 5 श्लोक) की 1-1 माला का जप भी करती हैं !!! इस तरह तप-जप और व्रत के प्रभाव से उनकी 17 साल पुरानी किडनी की बिमारी-जिसमें डायलीसीस की शक्यता थी - बिना दवाई से दूर हो गयी है। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 तपश्चर्या के साथ साथ सम्यक् ज्ञान की अभिरुचि भी अनुमोदनीय है / अपने परम उपकारी गुरुदेव पू. मुनिराज श्री युगभूषणविजयजी म.सा. एवं उनके ज्येष्ठ बंधु पू. मुनिराज श्री मोहजितविजयजी म.सा. के तात्त्विक प्रवचनों की हस्तलिखित नोट भी दर्शनाबहन ने तैयार की है, जिनकी झेरोक्ष कोपियाँ कई तत्त्वजिज्ञासु बड़े भाव से पढते हैं / दर्शनाबहन की आराधना की भूरिश: हार्दिक अनुमोदना / उनकी 1008 अठ्ठम करने की भावना शासनदेव की कृपा से परिपूर्ण हो यही मंगल भावना / पता : दर्शनाबहन नयनभाई नरोत्तमदास शाह 7/8 राजरत्न एपार्टमेन्ट, माणेकबाग देरासर के सामने, आंबावाडी, अहमदाबाद (गुजरात). 380015. फोन : 404550 निवास सार्मिक भक्ति का उत्तम उदाहरण एवं ऋणमुक्ति की अनुमोदनीय भावना ___ शास्त्रों में साधर्मिक भक्ति के विषय में ज़िनदास श्रेष्ठी आदि के उदाहरण प्रसिद्ध हैं / कुछ वैसी ही घटना कुछ समय पहले कलकत्ता में घटी थी। एक अत्यंत धनाढ्य जैन श्रेष्ठी के वहाँ आज से करीब 35-40 साल पहले कोई जैन परिवार नौकरी करता था / उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत कमजोर थी। एक बार नौकरी करनेवाली श्राविका ने किसी प्रसंग में पहनने के लिए अपनी सेठानी के पाससे सुवर्ण के अलंकार माँगकर लिये और हर्षोल्लास के साथ प्रसंग मनाया / मगर बादमें भावों में परिवर्तन हो जाने से अलंकार वापस लौटाये नहीं / उदारदिल साधर्मिकभक्त सेठानी ने Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 417 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 अलंकार माँगे भी नहीं। उपरोक्त घटना को कुछ साल बीत गये / नौकरी करनेवाले परिवारने नौकरी छोड़ दी / धीरे धीरे अपना व्यवसाय शुरू किया और पुण्ययोग से बहुत धन कमाकर श्रीमंत बन गया / अब इस परिवार की मुख्य श्राविका को वर्षों पहले की भूल का बहुत पश्चात्ताप होने लगा / फलतः वह श्रेष्ठी परिवार के पास गयी और पूर्व की घटना याद दिलाकर अलंकारों की जो भी किंमत हो वह वापस लेने की विज्ञप्ति करने लगी ! लेकिन सेठानी कहती हैं, "मुझे इस बात की कोई स्मृति नहीं है इसलिए मैं कुछ भी नहीं ले सकती !' वह श्राविका पश्चात्ताप से रोती हुई बारबार विज्ञप्ति करने लगी, मगर श्रेष्ठी परिवार कुछ भी स्वीकार ने के लिए तैयार नहीं हुआ। दो साल पहले शासन प्रभावक प.पू.आ.भ. श्री विजयहेमप्रभसूरीश्वरजी म.सा. आदि 10 का चातुर्मास कलकत्ता में हुआ था, तब वह श्राविका आचार्य भगवंत के पास गयी और विज्ञप्ति की, 'कृपा करके आप श्रेष्ठी परिवार को मनायें' प्रेरणा करें कि वे अलंकारों की कीमत का स्वीकार करके मुझे ऋणमुक्त बनायें / इतना कहकर वे जोर से रोने लगी ! आचार्य भगवंत ने उसे आश्वासन दिया / बादमें भाद्रपद वदि 12 के दिन भव्य चैत्य परिपाटी का आयोजन हुआ था / उस श्रेष्ठी परिवार के घरमें गृहचैत्य होने से आचार्य भगवंत भी सपरिवार प्रभुदर्शन के लिए वहाँ पधारे थे ओर 4 घंटों तक रूके थे, तब वह श्राविका भी दर्शन करने के लिए वहाँ आयी थी और फिर से अपने को ऋणमुक्त बनवाने के लिए विज्ञप्ति की। आचार्य भगवंत ने उस श्रेष्ठी परिवार को समझाने का प्रयत्न किया। प्रारंभ में तो वह परिवार कुछ भी स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था, मगर अंतमें आचार्य भगवंत की आज्ञा को शिरोमान्य किया तब उस श्राविका की आँखोंमें से ऋणमुक्त होने से हर्ष के आँसु बहने लगे / उस श्राविका की पुत्रवधूओंने भी आचार्य भगवंत को बताया कि पूज्यश्री ! हमारी सास हररोज उस बात को याद करती हुई रोती थी मगर आज उनको शांति हुई। ऋणमुक्त बननेवाली श्राविका को तब ठाम चौविहार २९वाँ वर्षीतप चालु था !!! उनकी भावना एक मौन वर्षीतप और एक छठ्ठ से वर्षीतप करने की है। उनकी उम्र करीब 70 साल की है। वर्तमान कालमें भी साधर्मिक भक्ति के और ऋणमुक्ति के ऐसे उत्तम दृष्टांत सुनने के लिए हमें मिलते हैं यह हमारा सौभाग्य बहरत्ना वसुंधरा - 2-27 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 है / इस दृष्टांत में से हम भी कुछ प्रेरणा ग्रहण करें यही शुभ भावना। उपर्युक्त दृष्टांत में जिन धनाढ्य सेठानी की बात की है वे कलकत्ता में 'अनुपमा देवी' के रूपमें प्रसिद्ध हैं / श्राविका द्वारा मिली हुई राशि को वे साधर्मिक भक्ति के कार्यों में ही खर्च करना चाहती हैं। दौनों श्राविकाओं की क्रमशः साधर्मिकभक्ति की भावना की भूरिश: हार्दिक अनुमोदना / कर्मों के सामने युद्ध बारामती की कु. मयणाबहन उस कुमारिका का नाम है मयणाकुमारी विलासभाई शाह / बारामती (महाराष्ट्र) में रहती हैं / गर्भश्रीमंत हैं / हाल में उसकी उम्र 29 साल की है। इस मयणाकुमारी को कर्मसत्ता ने शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की सामग्रियाँ प्रदान की हैं / गर्भश्रीमंतता, जैन कुल, सुदेव-सुगुरु-सुधर्म और सद्बुद्धि की प्राप्ति यह सब मयणाबहन की शुभ सामग्री है / ... लेकिन कायामें चेहरा तो 29 साल की युवति जैसा, आँखों दया-करुणा से आर्द्र हैं किन्तु मुख के सिवाय बाकी का शरीर केवल 2 // फीटका ! छोटे से अपंग हाथ पैर, पेट और छाती का भाग समान, शरीर का वजन सिर्फ 25 किलो जितना ही होगा ! अधिकांश लेटकर ही रहना पड़ता है, बहुत अल्प समय के लिए ही बैठ सकती हैं / आहार भी छोटे बच्चे जितना अल्प ! शारीरिक क्रियाएँ भी पराधीन हैं / एक जगह से दूसरी जगह कोई उठाकर ले जाय तब जा सकती हैं ... ऐसी मानवकाया देकर कर्मसत्ताने उनका क्रूर मजाक किया है। शरीर की ऐसी स्थिति में भी मयणाबहनने कर्मों के सामने युद्ध छेड़ा है / मौका मिलने पर बिआसन करती हैं / रात्रिभोजन और जमीकंद का त्याग है। हररोज सामायिक करती हैं / घर में ही व्यावहारिक गणित, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 419 विज्ञान हिन्दी, अंग्रेजी इत्यादि शीख लिया है / मराठी और गुजराती तो उनकी मातृभाषाएँ हैं / ____ धार्मिक अध्ययन में पंचप्रतिक्रमण नवस्मरण, चार प्रकरण, तीन भाष्य, छह कर्मग्रंथ इत्यादि कंठस्थ हैं / संस्कृत की दो किताबों का अध्ययन भी कर लिया है / बालक-बालिकाओं को धार्मिक सूत्र सीखाते हैं और अपनी राशिमें से उनको इनाम भी देते हैं / शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक, प्रतिक्रमण, जिनपूजा आदि द्वारा पवित्र जीवन जीती हुई मयणाबहन के लिए उनके पिताजीने बेबी सीटर गाड़ी भी बनवा दी है, मगर उसमें बैठकर गाँव में घूमने का उनको शौक नहीं है। ऐसी है उनकी आत्मतृप्ति ! जिनाज्ञापालन में वे सावधान हैं / . जब भी वे कोई संयमी साधु-साध्वीजी भगवंत से मिलती हैं तब उनसे विनयपूर्वक कहती हैं कि - 'आपको महान चारित्र मिला है तो उसका अच्छी तरह से पालन करना, मैंने पूर्वभवमें चारित्र की विराधना की होगी इसलिए इस भवमें शारीरिक विकलांगता के कारण चारित्र उदय में नहीं आया। शंखेश्वर तीर्थ में आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोहमें कु. मयणाबहन भी अपने पिताजी के साथ आयी थी / तस्वीर के लिए देखिए पेज. नं. 21 के सामने ! पत्ता : कुमारी मयणाबहन विलासभाई धरमचंद शाह दीपधर्म, गुनवड़ी चौक, मु. पो. बारामती, जि. पूना, (महाराष्ट्र) Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 विकलांगता के कारण दीक्षा का असंभव होने पर 182 प्रतिदिन 8 सामायिक + 2 प्रतिक्रमण करती हुई - कु. अनिलाबहन अरविंदभाई शाह मनुष्य मनोरथ तो करता है कई प्रकार के, मगर आखिर वही होता है जो प्रकृति को मंजूर होता है ! प्रत्येक मनुष्य में यदि समानता होती तो कर्मसत्ता को कौन भला स्वीकारते ? अहमदाबाद में कुछ ऐसा ही हुआ / पिता अरविंदभाई के घरमें और माता शारदाबहन की कुक्षि से उत्पन्न अनिलाबहन को कर्मसत्ता ने जन्म के साथ ही विकलांगता प्रदान कर दी / उनके पैर मस्तक से जुड़े हुए थे / 5 बार शस्त्रक्रिया हुई तब पैर सीधे हुए / अब वह चल सकती थी / कर्मक्षय के लिए छोटी उम्र में पालिताना-खंभात और शाहपुर में क्रमशः तीन उपधान की आराधना कर ली / पांचवी कक्षा तक व्यावहारिक अध्ययन करने के बाद अचानक शरीर में ऐसा परिवर्तन हो गया कि चलना असंभव हो गया ! अब क्या होगा ? भविष्य की चिन्ता सताने लगी ! मगर उसी समय किसी जन्म में किया हुआ पुण्य भी साथमें उदय में आया और शासन सम्राट प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय के पू. सा. श्री हीराश्रीजी म. की शिष्या पू. सा. श्री मंगलप्रभाश्रीजी म. अनिलाबहन के घर गौचरी बहोरने के निमित्त से पधारे। उन्होंने अनिलाबहन की करुणाजनक परिस्थिति देखी और वात्सल्यभाव से कहा 'अपनी पोल के उपाश्रय में नीचे रहने की व्यवस्था है, चलो उपाश्रयमें, तुझे वहाँ आनंद आयेगा / ...' अनिलाबहन ने हिंमत की / उपाश्रय में गयी, वहाँ अच्छा लगा। सारा दिन एक ही स्थान में लेटकर या बैठकर रहना था, फिर भी कर्मसत्ता ने जो भी दिया उसे प्रसाद के रूपमें प्रेमसे स्वीकार लिया !!! उस वक्त उनकी उम्र केवल 19 साल की थी, फिर भी चतुर्विध श्री संघ की साक्षी में परमात्मा के समक्ष विधिपूर्वक आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 421 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 का स्वीकार कर लिया !... अपना जीवन रत्नत्रयी की आराधनामें जोड़ दिया। प्रतिदिन एकाशन और आयंबिल की ओलियाँ आदि तपश्चर्या का प्रारंभ कर दिया ! बीचमें चतारि-अठ्ठ-दश-दोय तप भी कर लिया !.. वैशाखी के सहारे वे एकाशन करने के लिए अपने घर जातीं और बाकी का सारा समय उपाश्रय में ही व्यतीत करती थीं / दीक्षा लेने की तीव्र उत्कंठा होते हुए भी केवल तीन फीट का शरीर और हाथ-पैर छोटे इत्यादि विकलांगता के कारण दीक्षा लेना संभव ही नहीं था / अब क्या किया जाय / समय कैसे बीताना ! आजकल कई लोग टी.वी. देखने में, तास और जुआ खेलने में अपना अमूल्य समय गवाँ देते हैं, मगर सत्संग के प्रभाव से अनिलाबहन ने ऐसा कोई गलत रास्ता नहीं लिया / समय का सदुपयोग करने के लिए उन्होंने परमात्मा ने बताये हए सामायिक और स्वाध्याय का उत्तम आलंबन लिया / . उभयकाल प्रतिक्रमण के अलावा प्रतिदिन 8 सामायिक लेकर स्वाध्यायमग्न अनिलाबहन ने पिछले 36 सालमें 72 पक्ष = कुल 1080 सामायिक (एक पक्ष = 15 सामायिक) 229 बेला... 349 तेला... वर्धमान तप की 100 ओली की तरह 5150 सामायिक ... 24 तीर्थंकरों के चढते-उतरते क्रमसे सामायिक और 7 नरक निवारण सामायिक - कुल 2800 सामायिक इत्यादि रूपमें सामायिक की साधना की है। पंच प्रतिक्रमण, चार प्रकरण, छह कर्मग्रंथ, तत्वार्थ सूत्र, तीन शतक, वीतराग स्तोत्र और प्रत्येक पर्व-तिथि आदि के चैत्यवंदन -स्तवन -थोय- सज्झाय- ढाळ आदि कंठस्थ हैं / निरंतर अप्रमत स्वाध्यायमय जीवन हैं / अध्ययन के साथ साथ नि:स्वार्थ भाव से छोटे-बड़े सभी को अध्ययन भी कराती हैं / छोटे बच्चे जब से कुछ बोलना सीखते हैं तभी से उनको धार्मिक सूत्र आदि सीखाती रहती हैं / बीरवा नामकी 7 साल की बच्ची को उन्होंने पंचप्रतिक्रमण, नवस्मरण, चार प्रकरण तीन भाष्य, इत्यादि का अध्ययन कराया है / बीरवा ये सभी सूत्र टेप रेकर्ड Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 2 की तरह बिना रूके बोल सकती है, यह सब उपकार अनिलाबहन का है। तपश्चर्या में ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, मेरुत्रयोदशी, पोष दशमी और सहस्रकूट के 1024 एकाशन इत्यादि तप अनिलाबहन ने किया है। सा. श्री पुण्यप्रभाश्रीजी म. और सा. श्रीपूर्णभद्राश्रीजी म. का विशेष उपकार अनिलाबहन के जीवनविकास में है / आज 54 साल की उम्र में भी अप्रमत रूप से तप-जप-स्वाध्याय अध्ययन- अध्यापन -सामायिक -प्रतिक्रमण आदि आराधना द्वारा अपने मानवभव को सार्थक करते हुए एवं अन्य विकलांग व्यक्तियों के लिए प्रेरणाप्रद जीवन जीते हुए अनिलाबहन की आराधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना / पता : अनिलाबहन अरविंदभाई दलसुखभाई 1208 वीरचंद दीपचंद की हवेली, रूपा सूरचंद की पोल, माणेक चौक, अहमदाबाद (गुजरात) 380001. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहरत्नावसुधारा भाग तीसरा 45 उत्कृष्ट आराधक, वर्तमानकालीन साधु-साध्वीजी भगवंतों के दृष्टांत 423 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 यम , नियम = संयम संयमी को नमो नमः / प्रस्तावना] लेखक : गच्छाधिपति पू. आ. श्री जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. के प्रशिष्य मुनि जयदर्शन वि. म.सा. विविध जीव योनिमें जन्म-जीवन मृत्यु के प्रश्चात् जब दुर्लभ मनुष्यावतार की प्राप्ति होती है, तभी वीतराग सर्वज्ञ का धर्म प्राप्त हो सकता है, और उसके बाद ही धर्मश्रवण से निष्पन्न श्रद्धा और श्रद्धा के बाद संयम द्वारा जीव पुरुषार्थ कर मोक्ष महल की चहल-पहल का आंशिक अनुभव उपशम भाव में आकर कर सकता है / इस विभाग में प्रस्तुत संयमी आत्माओं की अनुमोदना हम सब मिल करें उतना ही काफी नहीं किन्तु साथ साथ हम भी संयम धर्म के हार्द को, रहस्य को गहराई से समझकर स्थैर्य-धैर्य से आगे बढकर स्थितप्रज्ञ बनकर संयम का श्रेष्ठ फल-मुक्ति प्राप्त कर लें यही हार्दिक शुभ कामना है। प्रभु वीरके शासन काल की चारित्र साधना पंच महाव्रत पर आधारित है। एक एक महाव्रत की उत्कृष्ट साधना का विश्वव्यापी जो प्रभाव पड़ता है, उसे जानकर भी आश्चर्य हो सकता है। प्रथम अहिंसाव्रत की फलश्रुति से सामने खड़े सिंह और गाय में भी उपशम भाव प्रकट हो जाता है। द्वितीय सत्यव्रत के प्रभाव से ही तो वाणी में 35 अतिशय उत्पन्न होते हैं, और देव-मानव तो ठीक किन्तु तिर्यंच भी तीर्थपति की देशना को अपनी अपनी भाषा में समझ लेते हैं / तृतीय अचौर्यव्रत के प्रभाव से समवसरण में ही उपस्थित 180 क्रियावादी + 84 अक्रियावादी + 67 अज्ञानवादी + 32 विनयवादी = 363 एकांतवादी प्रभु के प्रवचन में से मनपसंद तत्त्व चोरी करके ले जाते हैं, और अपना स्वतंत्र सिद्धांत - धर्ममार्ग स्थापित भी करने का प्रयत्न करते हैं, फिर भी जिनशासन लूटा नहीं जाता, बल्कि प्रभु विरह काल में भी "जैनं जयति शासनम्" का नाद गुंजित है। चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रत की सुविशुद्ध साधना के प्रताप से ही तो सौधर्म देवलोक Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 425 में रही सुधर्मा सभा के माणवक नामके चैत्य स्तंभ के नीचे-उपर 12 // - 12 // योजन छोड़कर बीच के 35 योजन में रहे वज्रमय गोल और वर्तुलाकार समुद्ग में परमात्मा के निर्वाण बाद के अग्निदाह से प्राप्त प्रभु की अस्थियाँ और दाढाओं में भी ऐसी पारमाणविक शक्ति पैदा होती है कि देवलोक के देव की कामवासना-क्रोध कषायादि भी सिर्फ उसके प्रक्षाल जल से नष्ट हो जाते हैं / वेसै भि एकमात्र ब्रह्मचर्य के जोर पर ही तो कलह प्रेमी नारद भी मुक्ति के सुख की भुक्ति कर सकते हैं न ? अंतिम और पंचम अपरिग्रह व्रत का श्रेष्ठ फल यह होता है कि निकटतम परिग्रह देह का भी अध्यास टूटता है, क्षपकश्रेणी लगती है और जीव केवली बनकर ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है, संसार के विग्रह से पर और कर्मों से विग्रह कर आत्मा मोक्ष सुख की भागी बनती है। __तप-त्याग, तितिक्षा और तत्त्वज्ञान के त्रिवेणी संगम से आत्मा का निस्तार शीघ्र होता है फिर भी .... "कत्थवि तवो न तत्तं, कत्थवि तत्तं न सुद्ध चारित्तं / तव-तत्त-चरण सहिआ, मुणिणो वि हु थोव संसारे''। आशावाद में यह बात अनुमोदनीय है कि तप-तत्त्व और तितिक्षा युक्त मुनिराज आज भी हैं / हीरा अपना मोल अन्य के पास खोल नहीं सकता, पर जौहरी की दृष्टि में ही हीरे का मूल्यांकन हो जाता है / आज भले ही इस क्षेत्र काल में परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र नहीं हैं फिर भी उसी को लक्ष्य में रखकर संयम साधना के साधक-आराधक आज भी हैं और अपनी पूरी शक्ति लगाकर गुर्वाज्ञा के बल पर धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ का आदर कर रहे हैं, आचरण भी / पुस्तक में प्रस्तुत उदाहरण पढते ही तपस्वी - त्यागी - वैरागी आत्माओं की पहचान हो जायेगी और जरूर लगेगा कि काल का प्रभाव कितना भी कराल क्यों नहीं हो, इसके कोई भी प्रभाव से ये महात्मा साधु साध्वी प्रभावित नहीं हैं, बल्कि लोगों में आश्चर्य पेदा कर दें वैसी उनकी आराधना - साधना है / __सामान्य नियम यह है कि जो भी आत्मा चरमभवी होती है, उसने पूर्व भवों में संयम धर्म की साधना आराधना द्वारा प्रत्यक्ष - परोक्ष कुहा Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 न कुछ संस्कारों का सर्जन किया होता है, जिसके कारण अंतिम भव में क्षपकश्रेणि, कैवल्य ज्ञान और अंतमें निर्वाणादि से मोक्ष भी उस संयम साधना का ही परिणाम होता है / बाहुबलीजी का एक वर्षीय वार्षिक तप और निर्जल उपवास, सुंदरी का 60,000 वर्ष तक आयंबिल का तप, पूर्व भव के संयम संस्कार से ही तो संपन्न हुआ है न ? वैसे ही जंबूस्वामी के जीवका पूर्व भव का बारह साल तक का छठ्ठ-आयंबिल का तप, प्रभु शांतिनाथ द्वारा वज्रायुध चक्री के भव का बारह मासी चौविहार उपवास का तपादि अंतिम भव में कैवल्य के प्रकटीकरण में बहुत ही उपयोगी बने हैं। मन - वचन और काययोग का संयम बहुत बड़ी ताकत रखता है / इसीलिये तो संयमी का मौन ही भाषा बन जाता है, जीवन ही उदाहरण बन जाता है / साधना ही अन्य की आराधना का मार्ग बन जाता है। पूर्व भवों की सुंदर संयम साधना से निष्पन्न प्रभु वीरका साधना काल कितना कठोर-सा था किन्तु इसीलिये तो आज भी परमात्मा के शासन के साधु साध्वी म.सा. को देखते ही लोग नत-मस्तक हो जाते हैं, जिसमें प्रभाव-प्रताप तो परमात्मा की साधना का ही है / राजा दशरथ द्वारा कंचुकी की वृद्धावस्था देखकर वैराग्य, हनुमान का संध्या के बादल देखकर, करकंडु मुनि का वृद्ध वृषभ को देखकर, दुर्मुखराजा का इन्द्र स्तंभ दर्शन से, नग्गति का पत्र-पुष्प. रहित वृक्ष को देखकर विरागी बन जाना अगले भवों की संयम साधना का ही प्रभाव था / संयम की साधना जितनी शुद्ध, गहरी, निर्वेद-संवेग युक्त होगी, उतनी ही स्व-परहित का कारण बनती है। संयमी को तो देवता भी नमस्कार करते हैं।' कौन जानता है कि, कौन साधक कितना आराधक है ? कभी कभी तो ऐसा भी बन जाता है कि, दूर के संयमी के समाचार से ही हम रोमांचित हो जायें किन्तु निकट के आत्मलक्षी साधु को पहचानने में धोखा खा जायें / सांसारिक परिचित साधु-साध्वी या अपने गाँव, शहर, राज्य के महाराज ज्यादा उपकारी लगें वह तो द्रष्टिराग हुआ, हकीकत में तो स्वार्थ के संसार से निष्क्रमित साधु-साध्वी समुदाय को नि:स्वार्थ दृष्टि से ही देखनेवाला गृहस्थ संयम प्राप्ति हेतु योग्य रह Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 427 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 सकता है / संयम के असंख्य योग स्थानों में से एक दो योग भी पराकाष्ठा बनकर जीव को सर्व श्रेष्ठ बना सकते हैं। इसलिये श्रावकों को तो संयमी आत्मा को वंदन-सत्कार कर के कृष्ण महाराजा जैसा लाभ कमा लेने में ही सार है। दर्शन और ज्ञान से युक्त चारित्र की जो शक्ति होती है, वह मुक्ति से कम कोई इनाम लिये बिना वापस नहीं लौटती है / एकमात्र मनुष्य भवमें ही संयम की साधना हो सकती है। इसी कारण कहा जाता है कि, 'मासक्षमण करने वाले गृहस्थ से भी नवकारशी करने वाला साधु महान है, जागते हुए श्रावक से सोता हुआ साधु ज्यादा आराधक है / ' परमात्मा का संघ चतुर्विध जरूर है किन्तु नमस्कार महामंत्र में नमस्करणीय परमेष्ठी अरिहंत परात्मा से लेकर लोक के सर्व साधु महात्मा तक ही सीमित हैं, उसमें श्रमणोपासक भी पूज्य नहीं किन्तु पूजक सिद्ध हो जाता है। फिर भी साधक महात्मा जब तक सिद्ध नहीं हो जाता तब तक छद्मस्थावस्था में छोटी बड़ी गल्तियों का अनुभव कर सकता है, जिससे कैवल्य ज्ञान की अवस्था के पूर्व तक की अनाभोग से उद्भवित स्खलना के लिये प्रायश्चित्त-शुद्ध साधु हर श्रमणोपासक के लिये वंदनीय पूजनीय और स्मरणीय हैं। स्वदोष दर्शन और परगण दर्शन की साधना के साधक किसी भी स्थिति-परिस्थिति में मन से प्रसन्न ही रहते हैं, क्योंकि उनकी साधना अन्य को बाधक नहीं बनती है। स्वलक्षी संयमी स्वपरहित करने में सफलता पाता है। कमसे कम जितने अंश में संयमाचार आत्मसात् होता है, उतने अंश तक का प्रचार परोपकारी बन जाता है / इसीलिये कहते हैं कि "सव्वत्थ संजमं रक्खिज्जा" क्योंकि "विना संयम प्रवृत्त्या भवात् मुक्तिः, न भूता न भविष्यति" / संयम की वृत्ति और प्रवृत्ति के बिना किसी की मुक्ति न हुई है, न होगी, तीर्थंकर परमात्मा महावीर के जीव ने भी 27 भवों में संयम की प्रगति क्रमशः की है। जिसमें मरीची के भव में उत्सूत्र प्ररूपणा और कुल-मद की गल्तियों से एक कोट कोटि सागरोपम संसार की वृद्धि और नीचगोत्र कर्म की सजा हुई / सोलहवें भवमें राजपुत्र विश्वभूति बनकर दीक्षा ली, घोर तप किया, किन्तु तपका अजीर्ण क्रोध उदय में आने से Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 गाय और चचेरे भाई के निमित्त से भाई विशाखानंदी को मार डालने का निदान कर दिया, फलस्वरूप अठारहवें भव में विशाखानंदीके जीव शेर को खत्म किया और क्रोधांध जीवन व्यतीत कर सातवीं नर्क में प्रभु वीर का जीव चला गया / संयम की प्रतिज्ञा के भंग से विध-विध भवों के कर्मों की कठोरता को चरमभव में अति उग्र तप युक्त संयम से 12 // साल तक सहन करना पड़ा / सार यही है कि संयम की आराधना परम सुख और आशातना चरम दुःख का कारण बन सकती है / उसी प्रकार संयमी के आदर से लखलूट निर्जरा है और अनादर जन्म-जरा के चक्कर में गिर जाना है / न्याय की भाषा में संयम की ली हुई प्रतिज्ञा का भंग स्वयं के निग्रह (पराजय) का कारण है / धन्य है इन संयमी आत्माओं को, जो अनुकूलता प्रतिकूलता में समभावी हैं / आपत्ति को ही साधना की संपत्ति मानते हैं / तन शायद तनावपूर्ण है, फिर भी मन से जो हारे नहीं / ऐसे संयमी महात्माओं को करोड़ों वंदन, अभिनंदन और हार्दिक अनुमोदना उनकी आराधना की / गुणानुरागी पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. ने इस हिन्दी प्रकाशन में करीब 20 नये दृष्टांतों का उल्लेख किया है, और इस प्रकार का प्रकाशन एक नया ही मोड़ है / अपूर्व सर्जन है, प्रेरणाप्रद है / आशा रखते हैं कि ऐसे सर्जन का उद्देश्य सफलता को प्राप्त करें। अन्य आनुभविक उल्लेख स्वयं गणि म. साहेब द्वारा लिखित प्रस्तावना से प्राप्त करना उचित है / "इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, तथापि सदि समयोग, सफल वही संयमयोग"। "मोदन गुणी प्रति, मोदना और गुणप्रीति, जिनाज्ञाप्रेमी की प्रशस्ति, अनुमोदना की सच्ची रीति " / Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 184 100 : 100 . 89 ओली के आराधक तपस्वी सम्राट' सरिराज समस्त विश्व में हजारों साल के इतिहासमें विक्रमजन्य कह सकें ऐसी उत्कृष्ट तपश्चर्या वर्धमान आयंबिल तपकी 100 + 100 + 89 ओली के आराधक परम तपस्वी आचार्य भगवंत श्री सं. 1990 में 19 वर्ष की उम्र में दीक्षा लेने के बाद, बड़ी दीक्षा के 1 महिने के योग भी बड़ी मुश्किल से कर सके थे ! ... उन्हें आयंबिल का लूखा आहार देखते ही उल्टियाँ होने लगतीं थीं / परन्तु उन्होंने गुरु समर्पणभाव के प्रभाव से प्राप्त हुई अमोघ गुरुकृपा के अचिन्त्य प्रभाव से अकल्पनीय अजोड़ तपसिद्धि प्राप्त की / 21 वर्ष की उम्र में उनके दाँतों में तीव्र वेदना उत्पन्न हुई / आयुष्य की प्रबलता के प्रभाव से नवजीवन प्राप्त किये हुए मुनि श्री ने जीवन की क्षण भंगुरता का दिव्य ज्ञान प्राप्त कर तप की भावना जाग्रत की / उन्होंने खून के बुंद बुंद में तपकी उग्र साधना का संकल्प कर वर्धमान तप प्रारम्भ किया / इसमें भी 40 से १००वी ओली तक ठाम चौविहार आयंबिल किये / भयंकर गर्मी के विहारों में भी पूज्यश्री ठाम चौविहार करते थे। उन्होंने प्रथमबार १००वीं ओली का पारणा सं. 2013 में करने के बाद कुछ ही समयमें पुनः नींव डालकर अविरत तप यात्रा चालु रखी / उम्र से वृद्ध होने के बावजूद संकल्प में सदा तरुण रहने वाले मुनिश्री के हृदयमें आनंद आनंद था, फलतः 1 से 72 ओलियाँ ठाम चौविहार पूर्ण की। इस महापुरुषने शरीर की अनेक प्रतिकूलताओं के बावजूद देवगुरु की कृपा के बल से कई विघ्नों के बादलों को दूर कर तप यात्रा चालु रखी / आप सं 2022 में पंन्यास पद पर एवं सं. 2029 में आचार्य पद पर आरूढ किये गये / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 सं. 2034 चैत्र वदि 10 के दिन दूसरी बार १००वी ओली का आपका पारणा अहमदाबाद में हुआ / मोह के सैन्य का विध्वंस करने हेतु रणसंग्राम में लड़ते आचार्य श्रीने तीसरी बार नींव डाली और अन्त समय तक वे 89 वी ओली पूर्ण कर चुके थे / उन्होंने विश्व रिकार्ड समान करीब 14 हजार आयंबिल किये थे। इतनी तपश्चर्या के बावजूद भी प्रसिद्धि एवं आडम्बर से दूर रहते ऐसे सौम्य स्वभावी आचार्य भगवंत का नाम अन्त समय तक कई लोग नहीं जानते थे यह कितने आश्चर्य की बात है ! किसी भी राजा के राज्याभिषेक के समय की जाने वाली विधि उनके नाम का सूचन करती है / उनके नाम का उत्तरार्ध जिन शासन के एक ऐसे विशिष्ट प्रतीक का सूचन करता है, जिसकी रक्षा हेतु कुमारपाल महाराजा के बाद राजगद्दी पर आये अत्याचारी राजा अजयपाल के समयमें 21 नवपरिणित युगलोंने धगधगते तेल की कढाई में स्वयं को होम कर की थी। 'तपस्वी सम्राट' आचार्य भगवंत के गुरुदेव श्री थे, कर्म साहित्य निष्णात, सुविशुद्ध सच्चारित्र चूडामणि, अखंड ब्रह्मतेजोमूर्ति के रूप में जिन शासन में सुप्रसिद्ध हो गये सुविशालमुनिगण के नेता आचार्य भगवंत श्री। अब तो पहचान गये न इस गुरु-शिष्य की बेजोड़ जोडी को ? ! गत चातुर्मास में 2055 में पूज्यश्री ने अहमदाबाद (शाहीबाग) में समाधिपूर्वक देह त्याग किया / तपस्वी सम्राट् सूरीश्वर के चरणों में अनंतशः वंदना / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 431 / भीषण कलिकाल में भी आज रहते हैं, एक धन्ना अणगार..... / / / ___'गिनेज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड' में दुनिया में सबसे ज्यादा खाने वाले और शरीर का वजन रखने वाले लोगों की महानता प्रकाशित की गयी है / वहीं शास्त्रों के सुवर्ण पन्नों पर घोर तपस्या करने वाले तथा तप संयम की साधना द्वारा शरीर एवं कर्मों का शोषण करने वाले धन्ना अणगार जैसे मुनिवरों की जीवन गाथाएँ लिखी गयी हैं / चारित्र अंगीकार करने के बाद जीवन भर छठ्ठ के पारणे आयंबिल करने का घोर अभिग्रह लेने वाले एवं कठोर संयम की साधना करने वाले धन्ना अणगारकी जीवनी को पढते ही हमारे हाथ जुड़ जाते हैं, शिर झुक जाता है और हृदय में उनके प्रति भारी अहोभाव उत्पन्न हो जाता है / उसी प्रकार वर्तमान में भी धन्नाजी के जीवन के दर्शन कराने वाले, जिनके विविध तपों की सूचि पढकर रोंगटे खड़े हो जाएँ और मुँह से आश्चर्य के उद्गार निकल जायें ऐसा घोर तप करने वाले एक आचार्य भगवंत श्री वर्तमाल कलिकाल में भी विद्यमान हैं, यह हमारे लिए आनंददायक एवं अहोभाव प्रेरक बात है। इन महापुरुष ने 27 वर्ष की भर युवावस्था में हरे भरे संसार को लात मारकर संयम का मार्ग अपनाया था / छोटी उम्र से ही मजबूत हृदय एवं सुदृढ मनवाले इस मनीषी ने संयम लेने के बाद घोर साधना का यज्ञ प्रारंभ किया / विहार हा तो आयंबिल और स्थिरता हो तो उपवास / उसके साथ संयम के योगों का सुविशुद्ध पालन, निर्दोष गोचरी का आग्रह और विशिष्ट स्वाध्याय प्रेम, ये सभी आचरण पूज्यश्री का जीवन बन गया / इन्होंने बुजुर्गों के विनय, वैयावच्च, भक्ति और आज्ञापालन द्वारा विशिष्ट गुरुकृपा प्राप्त की। पूज्यश्री आज 12 वर्ष की उम्र में भी पिछले 15 वर्ष से लगातार Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (बीच में 92 दिन एकाशन के अलावा) आयंबिल तप कर रहे हैं / उसमें भी प्रायः दिन में नहीं सोते हैं / पूरा दिन जाप एवं स्वाध्याय करते हैं। 20-22 कि.मी. के लम्बे विहारों में भी डोली (पालखी) का उपयोग नहीं करते हैं / __ आओ, हम ऐसे महान तपस्वी आचार्य भगवंत की तपश्चर्या की झलक पढकर पावन बनें / हम भी शुद्ध भाव से अनुमोदना एवं वंदना कर तपगुण को प्राप्त करें। जिन धर्म में तपस्या का बड़ा ऊँचा नाम है / (1) तीर्थंकर वर्धमान तप - बढते क्रम से 1 उपवास से 24 उपवास तक वैसे ही उतरते क्रम से 1 उपवास से 24 उपवास तक / कुल 600 उपवास / विशेषता : (A) 22 वें श्री नेमीनाथ भगवान के लगातार 22 उपवास कर 23 वें दिन श्री सिद्धगिरि की यात्रा कर आयंबिल से पारणा से गिरनार तलहटी की यात्रा कर आयंबिल से पारणा किया (C) उतरते 31 वे दिन श्री सिद्धगिरि की यात्रा कर आयंबिल से पारणा किया / (D) सं. 1995 में अषाढ वदि 14 (मारवाड़ी) को सुरत चातुर्मास प्रवेश के दिन से फाल्गुन वदि 6 के विहार तक 260 दिन की स्थिरता के दौरान चालु वर्षीतप में १६वें भगवान से 23 वें भगवान तक के 16 + 17 + 18 + 19 + 20 + 21 + 22 + 23 = 156 उपवास, शेष 104 दिन में वर्षीतप के 52 उपवास अर्थात 260 दिन में कुल 208 उपवास और 52 पारणे किये ... (2) बीस स्थानक पद की आराधना : (A) प्रथम अरिहंत पद की आराधना में लगातार 20 उपवास 20 बार कर अन्तिम 20 उपवास के समय श्री सिद्धगिरि की पैदल यात्रा कर 21 वे दिन आयंबिल से पारणा किया / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 433 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (B) दूसरे "नमो सिद्धाणं "पद में पाँच अक्षर हैं / इसलिए दूसरे पद की आराधना पाँच अठ्ठाइयों से की / (C) बीस स्थानक के शेष अठारह पदों की आराधना सामान्य विधि अनुसार अलग अलग बीस-बीस उपवास कर बीस स्थानक तप पूर्ण किया / (3) दो वर्षी तप किये / पिछले कितने ही वर्षों से एकासन से कम पच्चक्खाण नहीं किया है। (4) 78 वर्ष की बड़ी उम्र तक पर्युषणमें अठ्ठम, चौमासी छठ्ठ, एवं दीपावली का छठ्ठ करते थे / आज भी ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी और संवत्सरी का उपवास चालु है। (5) श्रेणीतप : सं. 1993 में पूना चातुर्मास में (135 दिन की स्थिरता के दौरान) श्रेणीतप तथा अरिहंत पद के 20 उपवास तथा अन्य प्रकीर्ण उपवास मिलाकर 116 उपवास तथा केवल 19 दिन पारणे किये / इस प्रकार पूज्यश्री द्वारा 85 वर्ष तक की उम्र में 3000 से अधिक किये गये उपवासों का विवरण इस प्रकार है : उपवास 30 | 24 23 22 21 | 20 | 19 | 18 | 17 | 16 | 15 | 14 . . . | कितनी बार | 1 2 | 2 | 2 | 22 उपवास 13 12 204|1334 कुल उपवास 3005 (6) आयंबिल तप : वर्धमान तप की 108 ओलियाँ की / विशेषताएँ : (A) 54 वी ओली में नित्य सिद्धगिरि की दो यात्रा के द्वारा 108 यात्राएँ की / बहुरत्ना वसुंधरा - 3-28 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434. बहुरत्ना वसुंधरा : भार वी (B) सिद्धगिरि चातुर्मास मा (B) सिद्धगिरि चातुर्मास समय सं. 2008 में 55 + 56 + 57 वी ओलियां लगातार की / (c) 58 वी ओली में सिद्धगिरि की 120 यात्राएँ सात छठ्ठ एवं दो अठ्ठम के साथ की ! (D) 59 - 60 - 61 - 64 वीं ओलियाँ छठ्ठ के पारणे आयंबिल से की ! (E) जूनागढ गिरनार में ६१वीं ओली में सात छठ और दो अठ्ठम, उसी तरह बीच में पारने में 9 आयंबिल सहित 29 दिन में ही गिरनार की 99 यात्राएँ की !!! और अन्त में अट्ठाई के साथ जामकंडोरणा से जूनागढ तक छ'री' पालित संघ में विहार किया ! ... इसी तरह दूसरी बार विहार में 9 उपवास किये ! (F) 65 वी ओली एकांतरित उपवास-आयंबिल से की (G) 66 वी ओली में कुछ छठू और कितनी ही बार एकांतरित उपवास किये ! (H) 77 वी ओली में सिद्धगिरि की 108 यात्राएँ की / (1) 99 वी ओली के बाद संघ हितार्थ 100 वी ओली से बिना पारणा किये सं. 2039 अषाढ वदि 7 से लगातार आयंबिल प्रारम्भ किये / डोक्टरों की चेतावनियाँ या भक्तों की प्रेमभरी विनंतियाँ पूज्यश्री के अभिग्रह को जरा भी हिला नहीं सकी / 100, 101, 102, 103, 104, 105, 106, 107, 108 ओलियों के मंगल . अंक को पारकर प्रकट प्रभावी श्री शंखेश्वर तीर्थ में 1008 आयंबिल पूर्ण किये / उसके ऊपर अट्ठम करके पारणा किये बिना निरंतर 1749 आयंबिल हुए, तब श्री संघ के अग्रणियों के आदेश से 1751 आयंबिल के ऊपर 1 उपवास कर सं. 2044 की वैशाख सुदि 3 के दिन अनिच्छ से गन्ने के रस से ठाम चौविहार पूर्वक पारणा किया / 92 दिन 6 विगई के त्याग पूर्वक एकासन करने के बाद पुनः सं. अग्रणियों के ऊपर 1 उपवास दिन अनि Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 435 2044 के अषाढ सुदि 6 से आयंबिल चालु किये उसे 11 वर्ष हो गये / आज दिन तक आयंबिल चालु ही हैं / पूज्यश्री 92 वर्ष की बुजुर्ग उम्र में भी जरा भी विचलित नहीं हुए हैं !!! पूज्यश्री ने 72 वर्ष की उम्र तक प्रति वर्ष दो बार नवपदजी की आयंबिल की ओली विधिपूर्वक आराधना से की / इस प्रकार पूज्यश्री ने अब तक 10 हजार से ज्यादा आयंबिल एवं तीन हजार से अधिक उपवास किये हैं / पूज्यश्री ने दीक्षा के बाद एकाशन से कम कभी पच्चक्खाण नहीं किया। पूज्यश्री ने 85 वर्ष की बड़ी उम्र में अखंड 1100 आयंबिल एवं सिद्धगिरि तथा गिरनार की यात्रा के बावजूद वैशाख माह की घोर गर्मी में राजकोट से अहमदाबाद तक 255 कि.मी. का विहार 12 दिन में किया। ऐसी उग्र घोर और भीष्म तपश्चर्या करने वाले पूज्यश्री के 3 अक्षर के नाम का अर्थ 'चन्द्र होता है / अपने लिए वज्र से भी कठोर और दूसरे जीवों के लिए फूल से भी कोमल एवं चन्द्र से भी शीतल सौम्य और वात्सल्य भरपूर स्वभाव के धनी पूज्यश्री को प्रतिदिन प्रात:कालमें उठते ही भाव से वंदन करने चाहिए / कितने ही श्रावक, पूज्यश्री अहमदाबाद में किसी भी स्थान पर विराजमान हों, उनके दर्शनवंदन के बिना मुँह में पानी भी नहीं डालते हैं। पूज्यश्री के ज्येष्ठ बंधुने उनसे पहले दीक्षा ली थी। वे भी आचार्य पद पर आरूढ हुए / पाँच अक्षरों के उनके नाम का अर्थ "चन्द्र को जीतने वाला" होना है / उनका जीवनबाग भी तप, त्याग, तितिक्षा गुरु समर्पण, वात्सल्य, गंभीरता, नि:स्पृहता, स्वाध्याय प्रेम, आश्रितों के संयम की देखभाल, क्रियारूचि, निरभिमानिता, समता, सौजन्य आदि अनेकानेक गुणों रूपी गुलाबों से महकता था / . तपस्वी सम्राट पूज्यश्री ने अपने सुपुत्र को केवल 7 वर्ष 5 माह और 18 दिन की वाल्यावस्था में संयम के पथ की ओर मोड़ा जो आगे जाकर आचार्य पदवी पर आरूढ हुए थे। उन्होंने भी (1) एक महिने में Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 आयंबिल सहित सिद्धगिरि की 99 यात्राएँ (2) एकाशन सहित 99 यात्राएँ (3) 3 - 4 बार गिरनार की 99 यात्राएँ (4) चौविहार छठ के साथ सिद्धगिरि की दो बार सात यात्राएँ वगैरह विशिष्ट आराधना की थी। उनके नाम का अर्थ "मनुष्यों में रत्न के समान" या 'उत्तम मनुष्य' सार्थक था / वे 2 वर्ष पूर्व ही स्वर्गस्थ हुए हैं / उपरोक्त तीनों आचार्य 'कर्म साहित्य निपुणमति', 'सच्चारित्र चुडामणि 'अजोड ब्रह्म मूर्ति' के रूप में सुप्रसिद्ध आचार्य भगवंत के समुदाय के हैं / ___ तब ही वास्तव में अनुमोदना होगी .. प्रिय वाचकों ! अपने जीवन में ऐसी घोर साधना करने की बात तो दूर रही, परन्तु विचार भी घबराहट पैदा कर देता है / तब ज्ञानी कहते हैं कि, “करण, करावण और अनुमोदन समान फल दिलाये / " दिल से अनुमोदना करके भी ऐसे तप का लाभ प्राप्त कर सकते हैं / किन्तु केवल ऐसी लूखी अनुमोदना करने से वास्तविक अनुमोदना नहीं गिनी जाती, परन्तु ऐसे तपस्वी सम्राट आचार्य भगवन्त की घोर तपश्या की सूचि पढकर अपने जीवन में एकाध भी छोटा व्रत, नियम, त्याग या तप का संकल्प करेंगे, व्यसनों का त्याग करेंगे तथा एक या तीन वर्ष में 108 आयंबिल करने का अभिग्रह लेंगे, और जहाँ तक ऐसे महापुरुष के प्रत्यक्ष दर्शनवंदन न हो सके वहाँ तक एकाध प्रिय वस्तु का त्याग करेंगे, तो ही पढी गयी तपश्चर्या की सूचि और की गई अनुमोदना सार्थक एवं सफल गिनी जाएगी / 186) महातपस्वीरल सूरीश्वरजी 43 वर्ष की उम्र में सजोड़े संयम अंगीकार कर 75 वर्ष की उम्र में सूरि पद पर विराजमान होकर 94 वर्ष की उम्र में (सं. 2048 महा सुदि 11) काल धर्म को प्राप्त हुए आचार्य भगवंत के द्वारा अपने जीवन में की गयी तप जप की साधना वास्तव में हमें आश्चर्यचकित करनेवाली है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 437 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 यह रही उनकी साधना-आराधना की रूप रेखा / यदि आप अत्यंत अहोभाव से पढोगे तो महान कर्म निर्जरा के साथ विशिष्ट पुण्य का उपार्जन होगा और कभी ऐसी विशिष्ट साधना करने की शक्ति भी आपको प्राप्त होगी / उपवास : (1) श्री नवकार महामंत्र के लगातार 68 उपवास, पारणे में 11 आयंबिल (2) 45 आगम के 45 उपवास (3) मृत्युंजय तप = मासक्षमण (4) 20 बार सिद्धितप / ... उसमें भी 18 बार प्रत्येक पारणे में आयंबिलपूर्वक सिद्धितप किया / (5) श्रेणीतप (6) लगातार चतारि अठ्ठ दस दोय तप (7) एकांतरित उपवासपूर्वक बीसस्थानक तप के 420 उपवास (8) 96 जिन आराधना के 96 उपवास (9) सहस्रकूट के 1024 उपवास की साधना चालु थी / (10) 4 - 5-6 - 7 - 8 - 10 - 15- 16 उपवास कई बार किये। (11) 75 वर्ष से प्रत्येक महिने की दोनों चौदस को उपवास (12) 75 वर्ष से पर्युषण के छठ्ठ-अठ्ठम / दिपावली को छठ्ठ / (13) 6 अठ्ठाई की एक ही वर्ष में 8 - 8 उपवास से साधना / (14) द्वितीया-पंचमी - अष्टमी एकादशी की विधिपूर्वक साधना / (15) पाँच ही द्रव्य पारणेमें उपयोग में लेने के अभिग्रह के साथ दो वर्षीतप / (16) 70 वर्षों से एकाशन से कम पच्चक्खाण नहीं ! Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 आयंबिल तप की साधना : (1) श्री वर्धमान तप की 100 + 73 ओलियाँ / (2) श्री नवपदजी की 131 ओलियाँ / (3) दो बार लगातार 500 आयंबिल / (4) वर्धमान तप की 8 6-87 वी ओली के ऊपर सिद्धितप / (5) वर्धमान तप की 91 वी ओली के ऊपर मासखमण / (6) वर्धमान तप की 100 वी ओली का पारणा 16 उपवास पूर्वक किया / (7) 20 वर्ष तक गुरुचरण में रहकर चातुर्मास में चातुर्मास प्रवेश के दिन से लेकर चातुर्मास के क्षेत्रमें से विहार न हो तब तक आयंबिल करने का अभिग्रह ! (8) संपूर्ण 45 आगमों के योग की आयंबिल पूर्वक साधना। (9) वीर्योल्लास बढते अल्प द्रव्य का अभिग्रह / आहार के द्रव्य भी सभी निश्चित करके इन्द्रियनिग्रह का कठोर अमलीकरण / महामंत्र की साधना / (1) करोड़ों की संख्या में श्री नवकार महामंत्र का जाप / (2) लाखों की संख्या में श्री वर्धमान विद्या का जाप तथा श्री सूरिमंत्र पंच प्रस्थान की आयंबिल पूर्वक 84 दिन की साधना के बाद लाखों की संख्या में सूरिमंत्र का जाप / (3) प्रतिदिन 5 -9 - 10 -12 लोगस्स का काउस्सग्ग / 100 लोगस्स का काउस्सग्ग भी अनुकूलता में करते थे। पावन तीर्थों की यात्रा (1) गृहस्थ जीवन में शिखरजी, जैसलमेर, कच्छ, भद्रेश्वर, मारवाड़, मेवाड़, सिद्धगिरि वगैरह की, प्राय: यथासंभव प्राचीन तीर्थों की यात्रा / उसी तरह छ'री' पालित संघों के साथ भी यात्राएँ की थीं / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 439 . (2) मुनि जीवन में श्री सिद्धगिरिजी की 1800 यात्राएँ 9 बार 99 यात्रा पूर्वक की / 10 बार छठ कर सात यात्राएँ की / (3) श्री गिरनार की 33 दिन में 108 यात्राएँ की / अठ्ठम कर 11 यात्राएं की। (4) श्री कदंबगिरिजी तथा तलाजा की 108 यात्राएँ / (5) सुरत-कतार गाँव की तथा अहमदाबाद हठीभाई की बाड़ी में विराजमान श्री धर्मनाथ प्रभु की 99 यात्राएँ / यह है, उनका संयम के प्रति आदर : (1) जिनाज्ञा एवं गुरु आज्ञा की अनन्य उपासना / (2) संयम शुद्धि के लिए पिंडेषणा की अजीब जागृति / मनोनिग्रह एवं इन्द्रियनिग्रह के लिए विविध कठीन अभिग्रह / ___(3) निःस्पृहवृत्ति, निरभिमान और आडम्बर रहित जीवन के साथ सरलताभरे बाह्य आभ्यंतर जीवन की पालना / (4) क्रोधादि कषाय भाव से अलग रहने की आश्चर्यप्रद चित्तवृत्ति। (5) कहीं किसी अशुभ कर्म का बंध न हो जाये, इसीलिए रत्नत्रयी की साधना का लक्ष्य / / (6) पूज्यश्री ने गृहस्थ जीवन में अल्पायु वाली एक संतान की प्राप्ति होने के बाद 30 वर्ष की उम्र में सजोड़े ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया / ऐसे महातपस्वी सूरीश्वरजी को अनंतशः वन्दना / . उनके नाम में उत्तरार्ध का दर्शन करके पूर्वार्ध विकसित होता है !.. * उनके गुरुदेव "प्राकृत विशारद" और "धर्मराजा" के रूप में सुप्रसिद्ध आचार्य भगवंत थे / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 बहुरत्ना वसुंधरा :- भाग - 3 187/ 250 चौविहार छठ, प्रत्येक छठु में श्री सिद्धगिरि को सात - सात यात्राएँ / -- एक गच्छाधिपति आचार्य भगवन्त ने अपने जीवन में 250 से अधिक बार चौविहार छठ करके प्रत्येक छछमें सिद्धाचल महातीर्थ की सात सात यात्राएं की हैं !!! क्यों, अचंभित हो गये न यह पढकर ? किन्तु यह कोई प्रथम संहनन वाले चौथे आरे की बात नहीं है / दूर या नजदीक के भूतकाल की भी बात नहीं है / ये आचार्य भगवंत आज हाजिर हैं / आप चाहो तो जरूर उनके दर्शन वंदन का महालाभ ले सकते हो / वर्षों पूर्व गृहस्थावस्था में जब क्षयरोग (टी. बी) के कारण बचने की आशा नहीं थी; तब वे अन्तिम श्वास छोड़ने के लिए श्री सिद्धाचलजी आये / इन्होंने चौविहार छठ्ठ करके सात यात्राएँ की और क्षय अदृश्य हो गया। नया जीवन मिला / उसी समय संयम ग्रहण करने का संकल्प किया और उसके अनुसार कम समय में संयम स्वीकार कर आज गच्छाधिति के पद पर विराजमान हैं / स्वयं को नवजीवन देने वाली श्री सिद्धाचलजी महातीर्थ की चौविहार छठ के साथ सात यात्राएँ इन्होंने बार बार उत्कृष्ट भावों से चालु ही रखीं / परिणाम स्वरूप इन्होंने आज विश्व रिकार्ड कह सकें वैसी उपर्युक्त सिद्धि संप्राप्त की है / गच्छाधिपति आचार्य पद पर विराजमान होने के बावजूद पूज्यश्री की नम्रता एवं सादगी ऐसी अद्भुत है कि सामान्यतः व्याख्यान या चातुर्मास में रात को संथारे के सिवाय पाट का प्रायः उपयोग नहीं करते हैं / पूज्यश्री नीचे ही बैठते हैं / वस्त्र भी अत्यंत सादगी युक्त सामान्य मुनि जैसे ही लगते हैं / स्वभाव भी खूब सरल है। ___सं. 2054 में पूज्यश्री की पावन निश्रा में जाखोड़ा तीर्थ (राजस्थान) से शिखरजी महातीर्थ का छ'री' पालित महान संघ निकला था। सिद्धाचल शणगार ढूंक तथा घेटी पगला के पीछे आदपर गाँव के Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 441 पास विशालकाय आदिनाथ भगवंत की प्रतिष्ठा अंजनशलाका भी पूज्यश्री के वरद हस्तों से हुई है / - उनके पवित्र नाम में परमात्मा के साकार एवं निराकार दोनों स्वख्यों का समावेश होता है। उनके गुरुदेव श्री भी " खाखी महात्मा" के रूपमें प्रख्यात आचार्य भगवंत थे / __ अब तो पहचान गये न इस गुरू शिष्य की बेजोड़ जोड़ी को? यदि जीवन में एकबार भी इनके दर्शन न किये हों तो जब तक इनके दर्शन का लाभ न मिले, तब तक एकाध वस्तु के त्याग का संकल्प करोगे ना ? धन्यवाद ! लगातार 33 घंटे तक ध्यान मुद्रा में स्थिर रहते आत्मज्ञानी आचार्य श्री / / (सांप्रदायिक पूर्वग्रह से मुक्त होकर, गुणग्राही दृष्टि से, प्रमोद भावना पूर्वक यह दृष्टांत पढने की विनंती है / ) 22. वर्ष की भर युवावस्था में सं. 2025 में दिगंबर मुनि-दीक्षा अंगीकार करके अप्रमत रूप से ज्ञान-ध्यान की विशिष्ट साधना और विनयवैयावच्च आदि अनेक सद्गुणों की योग्यता के कारण गुरू द्वारा मात्र चार वर्ष के दीक्षा पर्याय में (26 वर्ष की छोटी उम्र में) आचार्य पद पर आरूढ किये गये इन महात्मा की साधना की बातें वर्तमानकाल में हमें आश्चर्यचकित करनेवाली हैं। प्रतिदिन तीनों समय दो ढाई घंटे (कुल 6-7 घंटे) तक नियमित रूप से ध्यान मुद्रा में स्थिर होकर आत्मानुभव के लिए साधना करते यह महात्मा कभी कभी निर्जन गुफा वगैरह में घंटों तक खड़े खड़े कायोत्सर्ग मुद्रामें बिना हिले स्थिर रहते हैं / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 एक बार चातुर्मास के दौरान पूज्यश्री लगातार 33 घंटे तक खड्गासन में (खड़े खड़े) ध्यान में लीन रहे थे। उन्होंने इतने लम्बे समय तक भूख-प्यास-निद्रा-थकान-लघुशंका, बड़ीशंका आदि शारीरिक बाधाओं पर अद्भुत विजय प्राप्त कर लिया था ! उन्होंने दीक्षा के दिन से यावज्जीव तक नमक, मिर्च, तेल और शक्कर का त्याग किया है। बाद में तमाम फलों का भी हमेशा के लिए त्याग किया है / यावज्जीव ठाम चौविहार एकाशन होने के बावजूद वर्ष में 40-50 चौविहार उपवास भी करते हैं / उनको ऐसे विशिष्ट तप-त्याग और ज्ञान-ध्यान के साथ गुरूकृपा से समयसार ग्रन्थ का चिंतन मनन निदिध्यासन करते करते विशिष्ट आत्मानुभूति हुई थी / यह बात उन्हीं के शब्दों में पढ़ें / ___ "मुनि - दीक्षा के पश्चात् पावन बेला में, परम पावन, तरण तारण गुरूचरण के सान्निध्य में ग्रन्थराज 'समयसार' का चिन्तन-मनन अध्ययन यथाविधि प्रारंभ हुआ / ___ अहो ! यह भी गुरू की गरिमा-महिमा कि कन्नड़ भाषा भाषी उन्होंने मुझे अत्यंत सरल, सुमधुर भाषा शैली में समयसार के हृदय को खोल खोलकर बार बार दिखाया/प्रति गाथा में अमृत ही अमृत भरा है .. और मैं पीता ही गया ... पीता ही गया ... ! माँ के समान गुरवर अपने अनुभव और मिलाकर, घोल घोलकर, पिलाते ही गये, पिलाते ही गये / मुझे.... शिशु.. बालमुनि को फलस्वरूप उपलब्धि हुई अपूर्व विभूति की - आत्मानुभूति की और अब समयसार ग्रन्थ, ग्रन्थ (परिग्रह) प्रतीत हो रहा है // पीयूष भरी गाथाओं के रसास्वाद में डूब जाता हूँ कि उपर उठता हुआ, उठता हुआ, उर्ध्व गममान होता हुआ, सिद्धाचल को पार कर गया हूँ ... सीमोल्लंघन कर गया हूँ !!! अविद्या कहाँ ? कब सरपट भाग गयी, पता नहीं रहा / आश्चर्य यह है कि जिस विद्या की चिरकालीन प्रतीक्षा थी Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 443 इस विद्यासागर के भी पार बहुत दूर... ! दूरातिदूर .... ! पहूँच गया हूँ। विद्या-अविद्या से परे .... ध्यान-ध्येय, ज्ञान ज्ञेय से परे .... भेदाभेदखेदाखेद से परे, उसका साक्षी बनकर उद्ग्रीव उपस्थित हूँ अकम्प निश्चल शैल, चारों ओर छायी है सत्ता.... महासत्ता .... सब समर्पित-अर्पित स्वयं अपने में !!! आप ऐसे स्वानुभूति सम्पन्न प्रखर आत्म साधक होने के साथ साथ विशिष्ट कक्षा के साहित्यकार विद्वान और शीघ्रकवि भी हैं / आपकी कृतियों में “मूक माटी" नाम के आध्यात्मिक महाकाव्य ने बहुत ही प्रसिद्धि और प्रशंसा प्राप्त की है / उसके अलावा पाँच काव्य संग्रह, 22 प्रवचन संग्रह पुस्तकें, समयसार इत्यादि संस्कृत - प्राकृत के करीब 20 ग्रन्थों का हिन्दी में पद्यानुवाद, निजानुभव शतक वगैरह हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में 7 शतक तथा अन्य करीब 21 काव्यमय रचनाएँ आत्मार्थी जीवों एवं विद्वानों में अत्यंत लोकप्रिय हुई हैं / My Self नामकी अंग्रेजी काव्य रचना एवं बंगाली भाषा में भी उन्होंने दो काव्य रचनाएं की हैं / इतनी साहित्य रचनाएँ तथा नियमित शिष्यों तथा मुमुक्षुओं को शास्त्र वाचना देने के बावजूद भी वे अपनी दैनिक 6 - 7 घंटे की ध्यान साधना को चातुर्मास या शेषकाल में कभी भी गौण नहीं करते हैं, यह उनकी खास विशेषता है / __ उनके माता-पिता, दो बहिनों एवं दो छोटे भाइयों ने भी दीक्षा अंगीकार की है, किन्तु आचार्य श्री उनके प्रति भी एकदम ममत्व भाव नहीं रखते हैं / उनके एक लघुबन्धु शिष्य भी उनके जैसे ही प्रखर आत्मसाधक हैं। उनकी कठोर चारित्र पालन और विशिष्ट कोटि की विद्वत्ता वत्सलता आदि गुणों से आकर्षित होकर कई उच्चशिक्षित युवकों ने उनके पास दीक्षा अंगीकार की है / विशिष्ट साहित्यकार होने के कारण अनेक विद्वानों के पत्र उनको आते रहते हैं / परन्तु वे स्वयं कभी पत्र लिखते या पढते नहीं हैं / वे आये हुए पत्रों को खोलते या फाड़ते भी नहीं हैं / उनके एक शिष्य यह Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कर्तव्य अदा करते हैं / उनके जीवन में इस प्रकार व्यवहार और निश्चय का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है / वे बैठने के लिए कभी भी चटाई का उपयोग नहीं करते हैं / आगे के दिनों का विहार किसी भी श्रावक या शिष्यों को भी नहीं बताते हैं / जब भी विहार करना होता है, तब उठकर रवाना हो जाते हैं / इसी प्रकार चातुर्मास का स्थल भी पहले से घोषित नहीं करते हैं। वे जहाँ अषाढ सुदि में होते हैं वहीं चातुर्मास के लिए स्थिर हो जाते हैं। अपने आज्ञानुवर्ति साधु-साध्वियों को, वे जहाँ जहाँ होते हैं वहाँ चातुर्मास के लिए आज्ञा वहाँ के संघ के आगेवान जब आषाढ सुद में विनंती करने आते हैं तब उनके द्वारा दे देते हैं / जिज्ञासु वाचक उनके जीवन की अनेक घटनाओं तथा संपूर्ण जीवन चरित्र को कोबा (जि. गांधीनगर) से ई. स. 1991 के जुलाई अगस्त महिने में प्रकाशित हुए 'दिव्य ध्वनि" विशेषांक एवं इन्दोर से प्रकाशित हुए “तीर्थंकर" मासिक के विशेषांक के द्वारा जानकर अपनी जिज्ञासाओं को शान्त कर सकते हैं। - पूज्यश्री अधिकतर मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में विचरण करते हैं। उन्होंने सं. 2053 में सुरत के पास महुवा गाँव में चातुर्मास किया था। उन्होंने चातुर्मास के बाद गिरनार एवं पालिताना की यात्रा कर पुनः मध्यप्रदेश की ओर प्रस्थान किया / उनके नाम का पूर्वार्ध एक ऐसे ढाई अक्षर के धन का सूचन करता है जिसको चोर चोरी नहीं कर सकते हैं / राजा ले नहीं सकते। भाई बंटवारा नहीं करवा सकते हैं / जिसका जितना उपयोग करते हैं वह उतना बढता जाता है / तथा उत्तरार्ध का अर्थ समुद्र होता है / Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 445 189| अध्यात्मयोगी आचार्य भगवंत श्री / ये आचार्य भगवंत आज 'अध्यात्मयोगी' के रूपमें जैन शासन में सुप्रसिद्ध हैं। इनकी ध्यान योग की प्रवृत्ति देखते ऐसा ही लगता है जैसे जैन साधना में लगभग भूला दी गयी ध्यान साधना के मार्ग को पुनः चालु करने के लिए वे स्वयं का अनुभव एवं स्वयं के उपर प्रयोग द्वारा जोरदार प्रयत्न कर रहे हैं / जब वे तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा के सामने ईश्वर प्रणिधान में उतर जाते हैं, तब तो आराम, आहार और स्थल काल के भेद को भूल गये हों; वैसा भव्य ओर प्रेरक दृश्य देखने को मिलता है। इन्होंने आहार लेने की प्रवृत्ति पर एवं स्वाद पर आश्चर्यप्रद और प्रेरणाप्रद विजय प्राप्त की है / इन्होंने अपनी धर्मपत्नी और दो संतानों के साथ संयम अंगीकार किया था / गृहस्थ जीवन में भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी रत्नत्रयी की साधना की ओर मुड़ गये थे, और दीक्षा लेने के बाद यह आराधना अत्यंत अंत:स्पर्शी, मर्मग्राही और व्यापक बनी है। अजातशत्रु और अध्यात्मयोगी के रूप में सुप्रसिद्ध हो गये पंन्यासजी भगवंत के सानिध्य में बहुत समय तक रहकर उनके मार्गदर्शन के अनुसार इन्होंने ध्यान साधना में बहुत प्रगति की / आपको व्याख्यानादि के समय जब पंन्यासजी भगवंत के साथ पाट पर बैठना होता, तब आप रत्नाधिक ऐसे पंन्यासजी भगवंत को बीच में बिठाते और स्वयं आचार्य होते हुए भी उनके पास में बैठते / कैसी अद्भुत विनय नम्रता - लघुता !!! ___इनके जीवन में बालक जैसी निर्दोषता, ध्यान योग की साधना और समर्पित भाव से शोभायमान परमात्म भक्ति आदि अनेक विशेषताओं के प्रभाव से अनेक ऐसी घटनाएं घटती हैं, कि लोग देखकर अचंभित Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 हो जाते हैं / उदाहरण के रूपमें इनकी निश्रामें होती प्रभु प्रतिष्ठा के दौरान जिनालय में होता घंटों तक अमीझरण ! पूज्यश्री जहाँ से गुजरे वहाँ जमीन पर कभी केसर के पदचिह्न .... इत्यादि / लगभग 450 साधु-साध्वीजी भगवंत इनकी आज्ञा में हैं / अनेक शासन प्रभावना के कार्य इनकी निश्रा में सहजरूप से चालु ही रहते हैं। तो भी पूज्यश्री कभी भी अपनी आत्म साधना को गौण नहीं करते हैं / व्यवहार एवं निश्चय के अद्भुत संगम रूपी आचार्य श्री मुश्किल से 23 घंटे आराम करते हैं / इनके दोनों पुत्र भी शासन के कार्यों में सुन्दर सहयोग दे रहे हैं। अध्यात्मयोगी, अप्रमत आचार्य भगवंत श्री की आत्म साधना की हार्दिक अनुमोदना के साथ भावभीगी वंदना / 8888888 190 | सिन्दगिरि आदि के प्रत्येक जिनालय में प्रत्येक प्रभुजी को खमासमण द्वारा वंदना लगभग 8 वर्ष पूर्व कालधर्म को प्राप्त हुए एक गच्छाधिपति आचार्य भगवंतश्री ने श्रीसिद्धगिरिजी महातीर्थ में विराजमान लगभग 22000 जिनबिंबों को तीन तीन खमासमण देकर वन्दना की थी ! उन्होंने इसी प्रकार अहमदाबाद के सभी जिनालयों में विराजमान पाषाण के सभी जिनबिम्बों को खमासमण देकर वंदन किया था / पूज्यश्री गुजरात, मारवाड़, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, कच्छ वगैरह में जहाँ कहीं भी विचरे, वहाँ के सभी जिनालयों के पाषाण के सभी जिनबिम्बों को 3-3 खमासमण द्वारा उन्होंने वंदना की। पूज्यश्रीने दो बार विधिपूर्वक सिद्धगिरिजी की 99 यात्राएँ की थीं, तब भी गिरिराज पर कभी भी आहार या नीहार नहीं किया था / पानी भी जहाँ तक संभव होता गिरिराज पर नहीं पीते थे / अन्त में 95 वर्ष Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 447 की वृद्धावस्था में यात्रा की थी; तब भी उजाला होने के बाद ही यात्रा प्रारम्भ करके नौ ट्रंकों के दर्शन एवं मुख्य जिनालय में चैत्यवंदन करते हुए 12 बजे दादा के दरबार में पहुँचे / वहाँ भी स्तुति - स्तवन में लीन बनकर सवा दो बजे बाहर आये और घेटी पाग गये / वहाँ प्रत्येक मन्दिरमें दर्शन - चैत्यवंदन कर नीचे उतरे और साढे तीन बजे पच्चक्खाण पाला !!! व्याख्यान वाचस्पति इत्यादि अनेक बिरुदों से अलंकृत उन्होंने कई शासन प्रभावक कार्य किये थे। पूज्यश्री का नाम वर्तमान अवसर्पिणी कालमें भरत क्षेत्र में हुए 9 बलदेवों में से एक सुप्रसिद्ध बलदेव का नाम है / ... पूज्यश्री की जिन भक्ति-तीर्थ भक्ति की हार्दिक अनुमोदना / पूज्यश्री के पट्टधर आजीवन गुरुचरणसेवी आचार्य भगवंत आज गच्छाधिपति के पद पर हैं। उन्होंने भी अपने गुरुदेव श्री के साथ प्रत्येक प्रभुजी को 3-3 खमासमण दिये हैं / सिद्धगिरि तथा अहमदाबाद के सभी जिनबिम्बों के समक्ष चैत्यवंदन // एक मुनिवर ने श्री सिद्धगिरिजी महातीर्थ ऊपर एवं पालीताना के तमाम जिनालयों में रहे आरस के छोटे बड़े हजारों जिनबिंबो के समक्ष विधिपूर्वक चैत्यवंदन किया है / ___ उसी प्रकार इस महात्मा ने अहमदाबाद के 348 जिनालयों में रहे आरस के तमाम जिनबिंबों के समक्ष भी विधिपूर्वक चैत्यवंदन करके व्यवहार समकित को निर्मल बनाया है। उनकी प्रेरणा से पाँच बालकों ने अहमदाबाद के सभी जिनमन्दिरों के सभी भगवानों की पूजा की है / उन्होंने "ॐ ह्रीं नमो चारितस्स" पद का एक करोड़ बार जाप Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 किया है, इसी प्रकार अन्य कई आत्माओं को चारित्र पद का एक करोड़ जाप करने का अभिग्रह भी दिया है / - इन महात्मा की गिरनार मंडन आबालब्रह्मचारी श्री नेमीनाथ भगवान के ऊपर अनन्य श्रद्धाभक्ति है / अभी वे अपने दीक्षा से पूर्व के 20 वर्ष के हिसाब से, हर पक्खी को 1 उपवास या 2000 गाथा का स्वाध्याय के अनुसार 12 लाख गाथा का स्वाध्याय कर रहे हैं / सागर समुदाय के इस महात्मा का नाम भगवान श्री महावीर के 11 गणधरों में से एक गणधर भगवंत के नाम के जैसा ही है / मुनिवर की प्रभुभक्ति आदि रत्नत्रयी की आराधना की हार्दिक अनुमोदना / 192|| यथार्थनामी गच्छाधिपति श्री की गुण गरिमा 13 वर्ष की छोटी उम्र में चेचक के रोग से मूच्छित (मृतप्रायः) हो गये बालक को उसके माता-पिता आदि कुटुंबीजन मृत समझकर भारी हदय से स्मशान यात्रा की तैयारी करने लगे / परन्तु इस बालक के हाथ से जैन शासन के अनेकों काम आगे जाकर होने वाले थे, इसलिए थोड़ी देर में सहज रूप से उसका अंग स्फुरित हुआ / परिवारजनों ने योग्य उपचार करवाया / छह महिने की गंभीर बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर उसको संसार से वैराग्य हो गया / उसने तप-त्याग, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध आदि आराधना करके एवं अन्यों को करवाकर वैराग्य को पुष्ट किया। अन्त में दीक्षा की आज्ञा न मिले तब तक एकाशन करने का प्रारम्भ किया / सहनशीलता : एकबार मातृश्री को रसोई में सहायता करते समय Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 . 449 अत्यंत गर्म तैल शरीर के ऊपर गिर गया / असह्य वेदना हुई, किन्तु इन्होंने एकाशन का अभिग्रह नहीं छोड़ा। तपश्चर्या : आखिर 3 वर्ष एकाशन करने के बाद आपको दीक्षा लेने के लिए आज्ञा मिली / पूज्यश्री पर जब संयम लेने के बाद एकाशन छोड़ने का दबाव आया तब उन्होंने दृढता से कहा कि "गृहस्थ जीवन में एकाशन किये तो साधु जीवन में एकाशन कैसे छोड़े जा सकते हैं ?" और उन्होंने दीक्षा के बाद 43 वर्ष तक एकाशन चालु रखे / पूज्यश्री को इतने में ही संतोष नहीं हुआ और अपनी अन्तिम अवस्था में लगातार 8 वर्षीतप किये ! ... शिष्य एवं भक्त विनंती करते कि, - "साहेबजी! आपको शासन के कई कार्य करने हैं, और आप अब वृद्ध भी हो गये हैं, इसलिए आप वर्षीतप नहीं करो तो अच्छा / " तब पूज्यश्री कहते कि, "मैं लम्बे समय तक जीवित रहूं, इसलिए तुम तपश्चर्या छोड़ने की बात करते हो तो, ऐसी बात लेकर फिर कभी मेरे सामने मत आना / तपश्चर्या से ही द्रव्य-भाव आरोग्य अच्छा रहता है / गच्छाधिपतिश्री की ऐसी प्रेरणा से उनके समुदाय में कई विशिष्ट तपस्वी महात्मा पके हैं / पूज्यश्री के एक वर्षीतप का पारणा राष्ट्रपति ज्ञानी झैलसिंहने इक्षु रस बहोरा कर करवाया था / वे स्वयं चाय नहीं पीते थे और कोई भी मुमुक्षु दीक्षा लेने के लिए आता उसे चाय छुड़ा देते थे। . ज्ञानोपासना : पूज्यश्री तीव्र ज्ञान पिपासा के कारण पंडित की बहुत कम समय के लिए सुविधा मिलने के बावजूद भी संस्कृत व्याकरण आदि का बहुत सुन्दर रूप से अभ्यास किया इतना ही नहीं संस्कृत में गद्य पद्य अनेक रचनाएँ भी की / फिर भी उन्हें ज्ञान का बिलकुल अभिमान नहीं था / विनय-वैयावच्च के द्वारा गुरू के हृदय में ऐसे बस गये थे, कि केवल पाँच वर्ष के दीक्षा पर्याय में गुरूदेव श्री ने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया / .. _ पूज्यश्री ने संस्कृत में लघु त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, समरादित्य केवली चरित्र, श्रीपाल चरित्र, द्वादश पर्वकथा संग्रह इत्यादि सुन्दर रचनाएँ बहुरत्ना वसुंधरा - 3-29 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 की / इसी प्रकार पूज्यश्री ने भाववाही स्तवन चौवीसी सहित अनेक स्तवनों, स्तुतियों, चैत्यवंदनों एवं पूजाओं आदि की रचनाएँ अनेक शासन प्रभावक प्रवृत्तियों के बीच में से समय निकालकर की / पूज्यश्री ने गुरू कृपा से चातुर्मास में प्रतिदिन दो बार व्याख्यान एवं वयोवृद्ध दादा गुरुदेव की हर प्रकारकी सेवा करने के बावजूद भी एक ही चातुर्मास में 11 अंगसूत्रों का वांचन अपने आप किया था / दर्शन शुद्धि : उनके हृदय में तीर्थंकर परमात्मा एवं उनके शासन के प्रति अद्भुत भक्ति और समर्पण भाव था / उसी प्रकार उनको जिनशासन की वर्तमान परिस्थिति देखकर बहुत ही दुःख होता था / सभी गच्छों में प्रेम, मैत्रीभाव और एकता स्थापित हो उसके लिए आप कई आचार्य भगवंतों से मिलकर विचार विनिमय करते / आपने कई बार इस कार्य के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपनी आचार्य की पदवी छोड़ने की सार्वजनिक प्रवचनों मे घोषणा की .... / . अप्रमतत्ता : पूज्यश्री 24 घंटों में मुश्किल से 3 घंटे आराम करते। रात में 12 बजे उठकर जाप आदि आराधना-साधना में लग जाते / पूज्यश्री दीवार आदि का सहारा कभी भी नहीं लेते थे / पूज्यश्री ने अन्तिम कुछ महिनों को छोड़कर प्रतिदिन पंच परमेष्ठी भगवंतों को 108 खमासमणा देकर वंदना की थी !!! सादगी : कभी शिष्य भक्ति से नये कपड़े पहनने का आग्रह करते तब वे कहते कि सादगी ही साधु का वास्तविक आभूषण है / साधु तप संयम और सादगी के ही आभूषणों से शोभायमान होता हैं / साधु के लिए दूध जैसे नये कपड़े पहनने हितावह नहीं है / जब जीर्ण हुए वस्त्र के बदले में नूतन वस्त्र पहनने का मौका आता तब वे जान बुझकर उस वस्त्र को मरोड़कर फिर ही पहनते !!! निरभिमानीता : पूज्यश्री कभी किसी साधु को उसकी भूलके कारण उपालंभ देते तो शाम को प्रतिक्रमण की मंडली के समय सभी साधुओं की अपस्थिति में उस छोटे साधु को खमाने में बिलकुल नहीं हिचकते थे। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 451 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 समता-क्षमा : कभी कोई उनका विरोधी या विघ्नसंतोषी सार्वजनिक सभा में उनकी उपस्थिति में उनके विरुद्ध कुछ भी बोलता या विरोध पत्रिका छपवाता तो भी उसका विरोध या प्रतिकार नहीं करते हुए, 'सामने वाला बने आग तो तुम बनना पानी, यह है प्रभु वीर की वाणी' ... आदि सुवाक्यों को जीवन में आत्मसात् करके समता ही रखते / परिणाम स्वरूप पूरी सभा पूज्यश्री की अद्भुत क्षमा और समता देखकर आश्चर्य और अहोभाव के साथ पूज्यश्री पर फिदा हो जाती थी। .. मितव्ययिता : अनेकविध रचनाएँ एवं पत्र व्यवहार के लिए भी पूज्यश्रीने अपने नाम की लेटरपेड़ छपवाने की शिष्यों को कभी संमति नहीं दी / इतना ही नहीं पूज्यश्री आनेवाले पत्रों के लिफाफे खोलकर उनके अन्दर के भाग का उपयोग रचनाएँ बनाने एवं पत्रों का जवाब देने के लिए करते थे। बीमारी के समय पर भी पूज्यश्री प्रायः एलोपथी दवा से दूर रहते और अधिकतर मिट्टी, पानी, आटा, थूक, शिवाम्बु या चावल जैसे एकदम सरल एवं निर्दोष उपचार करते / एक बार पूज्यश्री रातमें लघुशंका करने उठे, तब अंधेरे में ठोकर लगने से पैर के अंगुठे से खून की धारा बह निकली / फिर भी पूज्यश्री ने अपने किसी शिष्य को नहीं उठाया और पानी की पट्टी बाँधकर अपने नित्यक्रम में लग गये / प्रातःकालं उपाश्रय में खून के दाग देखकर शिष्यों के पूछने पर खुलासा किया / शिष्योंने पूछा कि - "गुरूदेव ! हमें क्यों नहीं उठाया ?" तब पूज्यश्रीने सहजता से कहा कि - "अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारे आराम में क्यों अन्तराय (बाधा) डालना ऐसा सोचकर तुम्हें नहीं उठाया / गुरुदेव की ऐसी सहनशीलता और परहितचिन्ता देखकर शिष्य पूज्यश्री के चरणों में झुक पड़े ! _ शासन प्रभावना : पूज्यश्री ने रात दिन अप्रमत्तता जन्य से पुरुषार्थ कर जैसे बिंदु में से सिंधु का नवसर्जन करना हो वैसे सम्यक्ज्ञान के लिए दो दो विद्यापीठों की स्थापना, मुंबई से समेतशिखरजी और शिखरजी से पालीताना के दो विराट ऐतिहासिक छ'री' पालित पदयात्रा संघ, अनेक Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 जिनालयों, तीर्थों, उपाश्रयों, धर्मशालाओं, ज्ञानसत्रों, अधिवेशनों, दीक्षाएँ, प्रतिष्ठाएँ, अंजनशलाकाएँ आदि के द्वारा अद्भुत शासन प्रभावना की / परिणाम स्वरूप श्री संघने एवं समाजने उन्हें कई उपाधियों से अलंकृत किया फिर भी उनके जीवन में अहंकार नाम मात्र का भी दृष्टिगोचर नहीं होता था / पूज्यश्री छ'री' पालित संघों के दौरान दो - दो बार मरणान्त दुर्घटना की संभावना से दैवी प्रभाव से अद्भुत रूपसे बच गये थे। आखिर कर्मसत्ता को लगा कि अब इस महान आत्मा ने अपनी संसार रूपी दुकान को सिमटने की पूरी तैयारी कर ली, इसलिए अपनी शेष राशि जल्दी वसूल करने के लिए पूज्यश्री की कमर में असाध्य एवं असह्य रोग का परिषह उत्पन्न कर दिया / तब पूज्यश्री भयंकर वेदना के बीच भी परमात्माको वन्दना करने में नहीं चूकते थे / कभी रात में नींद उड जाती तब, "मुझे प्रतिक्रमण करवाओ ... पडिलेहन करवाओ" इत्यादि बोलते / शिष्य कहते कि, "गुरुदेव / प्रतिक्रमण - पडिलेहण करा लिया है / " तब पूज्यश्री कहते कि, "मेरा उपयोग उस समय बराबर नहीं था, मुझे वापस करवाओ / "बड़ी उम्र में भी पूज्यश्री दोनों समय खड़े खड़े शिष्यों के साथ मंडली में ही प्रतिक्रमण करते थे !! ऐसे - ऐसे अनेक 'गुणों के भंडार यथार्थनामी' पूज्यश्री के गुणों का वर्णन एक छोटे से लेख द्वारा किस प्रकार हो सकता है ? इसके लिए तो पूज्यश्री की विदाय (सं. 2045 आसोज वदि 30) के बाद प्रकाशित स्मृतिग्रन्थ का अवगाहन करना ही चाहिए / प्रिय वाचकों / अब तो पहचान ही गये होंगे कि ये पूज्यश्री कौन होंगे ? पूज्यश्री के चरणों में अनंतश वंदना / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 453 193/ गच्छाधिपति श्री के ত সীমন ক ঠাক চাষ : (1) स्वाध्याय तो संगीत है - एक मुनिवर गाथा कंठस्थ कर रहे थे / उनकी नजर अचानक ही पूज्यपाद गुरुदेव श्री के उपर गयी / पूज्यश्री जाप की तैयारी कर रहे थे / इसीलिए मुनिवर ने अपनी आवाज एकदम धीमी कर दी / स्वाध्याय का घोष अचानक एकदम रूक जाने पर पूज्यश्री ने पूछा / “कैसे गाथा याद करने की बन्द कर दी ?" मुनिवर ने कहा : “साहबजी ! आप जाप में बैठ रहे हो / मेरी आवाज से आपको विक्षेप हो, इसलिए मन में ही याद कर रहा हूँ / " पूज्यश्री : "अरे ! भले भाई ! स्वाध्याय के घोष से मुझे विक्षेप . होता होगा ? साधु की बस्ती में चौबीसों घंटे स्वाध्याय का घोष गूंजना चाहिए / इससे मेरे जाप में एकाग्रता होती है / हाँ, तुम बातचीत करो तो मेरी एकाग्रता टूटती है / " ___ पूज्यपाद श्री का स्वाध्यायप्रेम ओर फिजुल बातचीत के बारे में स्पष्ट अरूचि अनुभव कर सभी मुनि स्वाध्याय के घोष में मग्न बन गये * और गुरुदेवश्री के प्रति अहोभाव से झुक गये / __ (3) अक्षर के प्रति अक्षर प्रेम : गुरूदेव श्री शिविरार्थी विद्यार्थियों को 2-3 प्रवचन देने के बाद शाम को साधुओं को न्याय भूमिका पढाते थे / समझाने हेतु पास में ब्लेकबोर्ड था। गुरुदेव श्री कठिन से कठिन पदार्थों को सरलता से दिमाग में बिठाने हेतु बोर्ड पर लिखकर अध्यापन करवाते थे / तब एक विशेषता देखने को मिली / पुराना लिखा हुआ मिटाकर नया लिखना होता तब पूरा न मिटाते हुए कुछ शब्द या अक्षर ही मिटाकर नये शब्द सेट कर देते। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 .. बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 यह काम पूज्यश्री बड़ी आसानी से कर लेते ... . ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि कितनी माथापच्ची ? कितनी मेहनत ? इससे अच्छा होगा कि पूरा बोर्ड साफ कर नया लिखा जाए... समय का कितना अपव्यय ? किन्तु पूज्यश्री इस कार्य में मास्टर थे / कब शब्द उड़ जाते... नये शब्द आ जाते ... और पूरी शब्द रचना व्यवस्थित हो जाती, उसकी खबर भी नहीं पड़ती.. उदाहरण के रूप में पूराने शब्द "विशेष्यता" में से 'ष्य' मिटाकर उसके स्थान पर "षण" लिखने से नया शब्द "विशेषणता" तैयार हो जाता ... ! पूज्यश्री को पूछा “ऐसा क्यों करते हैं ?" गुरूदेव श्री : "प्रथम तो अक्षर लिखना ही अपराध है, और मिटना यह महा अपराध... अपने लिए लिखना ही पड़ता है, तो जितना अपराध कम हो उतना ही अच्छा न !!!" (3) इसीका नाम सम्यग्दर्शन : खंभात से विहार करके अहमदाबाद जाते मातर तीर्थ आया / शाम के विहार में बहुत गर्मी लगी थी / देखते ही देखते जिनालय आ गया। "गुरूदेव ! पहले पानी पी लो, फिर पधारो," शिष्य ने कहा / / _ "महात्मन् / गाँव में आने के बाद जब तक भगवान के दर्शन न किये हों तब तक पानी किस तरह पीया जाये ?" कंठ भले ही जल पीने के लिए तरसे किन्तु अखियाँ जिन दर्शन की प्यासी ! पूज्यश्री जिनालय में पधारे, स्तुति-स्तवन दर्शन में ऐसे खो गये कि प्यास प्यास के स्थान पर सूर्यास्त के समय बाहर उपाश्रय में पधारे, तब जिनालय में चौविहार का पच्चख्खाण करके ही पधारे / पूज्यश्री का यह नित्यक्रम था / गाँव में आने के बाद जिनालय हो तो दर्शन करने के बाद ही पानी पीते / इतनी लगन थी, प्रभुदर्शन की। इसी का दूसरा नाम है सम्यग्दर्शन ! (4) पात्री का पडिलेहण भूल जाने पर चौविहार उपवास ! Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 सं. 2023 की साल के जेठ महिने का यह प्रसंग है / प्रात:काल में घाटकोपर से विहार करके मुलुंड जाना था / विहार की तैयारी चल रही थी / उतने में पूज्यश्री की दृष्टि अपनी तरपणी पर गयी / “मेरी तरपणी की टोक्सी (पात्री) कैसे बदली हुई लग रही है ?" "हाँ जी गुरू देव ! आपकी टोक्सी नमूने के रूप में बताने के लिए एक श्रावक को दी है, आज आ जाएगी" "कब दी ?" "कल सुबहमें "सुबहमें" उसका पडिलेहण हो गया था ?"... "हाँ जी..." "दो पहर को उसका पडिलेहण किसने किया? टोक्सी का पडिलेहण रह जाये, यह चलता होगा ? पूछना तो चाहिए था न ?" पूज्यश्री के हृदय में येक्सी का एक समय का पडिलेहण रह जाने का इतना दुःख हुआ कि 14 कि.मी. का विहार करके भी सख्त गर्मी में उसी दिन प्रायश्चित्त के रूप में चौविहार उपवास का पच्चक्खाण कर लिया / कैसी पापभीरूता / कैसा संयम !!! (5) जिसका जीवन सादा उसका नाम साधु : . एक दिन पूज्यश्री का चश्मा टूय / चश्मा नया बनाने की बात का पता चलते ही एक गुरुभक्त तुरन्त हाजिर हो गये / “गुरूदेव ! आपके चश्मे का लाभ मुझे दो / " "किन्तु फेम कैसी लाओगे ?".. "अच्छी से अच्छी, कीमती से कीमती ...," तो तुम्हें लाभ नही देता / मुझे तो साधारण से साधारण फेम चाहिए / "... किन्तु आप श्री तो जैन शासन के महान प्रभावक आचार्य हो / 200 शिष्यों-प्रशिष्यों के गुरू हो, महाज्ञानी हो, गोल्डन फेम चमकती हो तो प्रभाव पड़े / और मुझे चश्मा . खरीदना तो है नहीं, घर की 6 दुकाने हैं / " उस श्रावक ने, कितने ही साधुओं तथा अन्य श्रावको ने भक्ति से अच्छी से अच्छी फेम के लिए पूज्यश्री पर खूब दबाव डाला / अब पूज्यश्री नाराज हो गये / उन्होंने दृढ स्वर में कह दिया / "तुम्हें भक्ति करनी है या कमबख्ती ? साधुजीवन में सादगी Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ही चाहिए / ये साधु क्या आलंबन लेंगे ? यहाँ घर नहीं, गच्छ चलाना है। तम्हारी दकान में सादी और सस्ती फेम हो तो ले आओ... यह तो तुम्हारी दुकान है इसलिए तुम्हें लाभ देता हूँ, जिससे क्रीतदोष न लगे।" पूज्यश्री की सादगी एवं दृढता देखकर वह भाई तो आवाक् रह गये / उन्होंने सादी फेम देकर महान लाभ लिया / ___ (6) पूरी रात बिल्कुल नहीं सोये : - पूज्यश्री नित्यक्रम अनुसार रात में चन्द्रमा के प्रकाश में लिखने बैठे थे / पूज्यश्री का जहाँ संथारा बिछाया हुआ था, उसके पास ही एक बालमुनि का संथारा था / बालमुनि नींद में सरकते सरकते पूज्यश्री के संथारे के पास आ गये / __ पूज्यश्री देर रात्री में सोने के लिए अपने संथारे के पास गये तो उसमें ज बालमुनि का हाथ था / बालमुनि को संथारे पर से नहीं उठाया... स्वयं वापस लिखने बैठ गये और प्रात:काल तक चांदनी के प्रकाश में लिखने का ही कार्य किया / पूरी रात बिल्कुल नहीं सोये / बालमुनि की नींद न बिगड़े इसलिए अपनी नींद का भोग दिया!!!.... (7) पल पल साध लेने की अद्भुत कला : पूज्यश्री महान जैनाचार्य थे, अत: किसी भी गाँव में प्रवेश होता तब सामने दूर तक कई लोग लेने आते / कई बार ऐसे श्रावक भी होते कि जो पूज्यश्री के आगे घर-संसार की या अपने गांव के किसी श्रावक की कथा शुरू कर देते / किन्तु पूज्यश्री को ऐसी दूसरों की पंचायत में बिल्कुल रूचि नहीं थी, इसलिए युक्ति पूर्वक उसकी बात उड़ा कर उसे भक्ति या ज्ञान की बात में जोड़ देते ... / कभी थकान के कारण बात करने का मुड़ पूज्यश्री में न होता और श्रावक की बातें चालु होती तब पूज्यश्री हं....हं करते रहते / / पूज्यश्री ने एक बार मुनिवरों के आगे इसका रहस्य खोला : “मैं Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 457 ऐसे समय नवकार, उवसग्गहरं और लोगस्स का जाप करने लग जाता हूँ। एक बार नवकार पूरा होता तब 'हं' बोलुं / एक उवसग्गहरं होने पर फिर 'हं', लोगस्स बोलने के बाद फिर 'हं', इस प्रकार तीनों ही सूत्रों का 50 - 100 - 150 जितना जाप हो जाता है / ऐसी निरर्थक बातें सुनने की या 'हाँ' देने की मुझे कहाँ फुसर्त है ?" पूज्यश्री एक एक पल को सार्थक और सफल करने के लिए हमेशा सावधान थे। . उपरोक्त प्रसंग जिनके जीवन में घटित हुए हैं, उन पूज्यश्री के नाम का अर्थ 'जगत में सूर्य के समान' ऐसा होता है / वास्तव में उन्होंने सम्यक्ज्ञान के अनगिनत तेज किरण विश्व में फैला कर अपने नाम को सार्थक किया है / पूज्यश्री के जीवन में ऐसे तो कई प्रसंग घटित हुए हैं / विशेष जिज्ञासुओं को उनके बारे में प्रकाशित हुआ आकर्षक स्मृति ग्रन्थ पढना ही होगा। 2885888 194/ गच्छाधिपति श्री की अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय क्रियानिष्ठता... नियमितता तथा वात्सल्य / एक महान शासन प्रभावक, गच्छाधिपति आचार्य भगवन्तश्री के जीवन में रही क्रियानिष्ठता ओर समय की नियमितता वास्तव में बहुत ही अनुमोदनीय एवं अनुकरणीय है। उनके दर्शन वंदन करने हेतु प्रतिदिन सैंकड़ों भक्त आते रहते हैं। शासन के अनेक कार्य हेतु उनका मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद लेने के लिए कितने ही संघों के अग्रणी श्रावक आते रहते हैं / ... फिर भी उनकी प्रतिक्रमणादि दैनिक क्रियाओं में समय की पाबंदी बहुत ही अनुमोदनीय है / शाम को सूर्यास्त के समय उनकी प्रतिक्रमण की आराधना में 'श्रमणसूत्र" अवश्य ही चालु होता है / वे किसी भी परिस्थिति में इस बात में परिवर्तन नहीं करते हैं। पूज्यश्री रात्री में भी नियमित रूप से 2 बजे उठकर तीन घंटे Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 तक लगातार जाप-ध्यान-आदि साधना वर्षों से कर रहे हैं / परिणाम स्वरूप इन्होंने दैवी तत्त्वों की कृपा भी अच्छी संपादन की है। इनकी कृपा से अनेक साधु साध्वीजी भगवंतों को प्रतिकूल संयोगों में बहुत ही सहायता मिली है। पूज्यश्री गोचरी की मांडली में भी सभी शिष्य प्रशिष्यादि को वात्सल्य भाव से गोचरी बाँटने के बाद ही स्वयं वापरते हैं / इनकी प्रेरणा से अनेक शासन प्रभावना के कार्य हुए हैं / एक विशिष्ट तीर्थ की स्थापना भी उनकी प्रेरणा का परिणाम है / पूज्यश्री के नाम का अर्थ 'सम्यक्ज्ञान का समुद्र" होता है। 38888888888888888888883 195/ वंदनीय क्रियापात्रता सुकृत का अभिमान मारता है / सुकृत की अनुमोदना तैराती है। . सुकृत किसी का भी हो, स्वयं का किया हो या अन्य का किया हो, उसकी अनुमोदना ही होती है, और इस अनुमोदना से आत्मा सौम्य, गुण पक्षपाती और बाद में गुणवान बनती है। यदि दूसरों के छोटे सद्गुण या सुकृत से हृदय में हर्ष न हो तो मानना कि अभी तक हम अवगुणी और गुणद्वेषी हैं और उसी कारण से भारे-कर्मी हैं / अपनी दृष्टि यदि खुली रखें तो अपने आसपास ही ऐसे कितने ही विशिष्ट गुणोंवाले व्यक्ति रहते हैं, जो दिखने में छोटे या अज्ञात होने के बावजूद भी उनकी करनी या विचारश्रेणी अनूठी ही होती है / यहाँ पर एक ऐसे ही प्रसंग विशेष की बात करनी है / एक आचार्य भगवन्त का प्रसंग है। उनके हाथों से एक कुमारिका की दीक्षा हुई थी। उन्हें उसके बाद उसे जोग करवाकर बड़ी दीक्षा प्रदान करनी थी / मुनिजीवन की एक Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ऐसी विशिष्ट मर्यादा है कि चैत्र माह में तीन दिन 'अचित्तरज उड्डावणी' का विशेष काउस्सग्ग किया गया हो, तो ही जोग आदि विशिष्ट क्रियाएँ कर सकते हैं और करवा सकते हैं / भूल से यह काउस्सग्ग रह गया हो तो यह सब कर और करवा नहीं सकते हैं / पू. आचार्य श्री का उस वर्ष यह काउस्सग्ग नहीं हुआ था / यदि यह बात आचार्यश्री किसी को नहीं करें तो उन्हें कोई पूछ नहीं सकता था / ऐसी बात यदि किसी को कहें तो भी वह कहेगा कि "ऐसी भूल तो हो जाती है, इसमें हर्ज नहीं / " परन्तु इसमें अन्य किसी को नहीं, किन्तु इनकी क्रियापात्र आत्मा को एतराज था / आचार्यश्री स्वयंने सामने से घोषणा की कि "इस वर्ष मेरा काउस्सग्ग करना रह गया है, इसलिए मैं नूतन दीक्षित को योगोद्वहन एवं बड़ी दीक्षा नहीं करवाऊँगा, बल्कि कुछ ही दिनों बाद दूसरे आचार्य महाराज पधारने वाले हैं उनके हाथों से सब कुछ होगा / " __क्रिया की ऐसी अभिरूचि, भूल के प्रति इतनी सजगता एवं निष्ठा अनुमोदनीय ही नहीं वंदनीय है। इन आचार्य भगवन्त के नाम का पूर्वार्ध अर्थात् अपने 8 आत्मप्रदेश, जिन पर कभी कर्मों का आवरण नहीं आता उनके लिए उपयुक्त होता शब्द, और उत्तरार्ध अर्थात् ज्योतिषी देवों का एक यह आचार्य भगवंत जिन समुदाय के हैं, उन आचार्य भगवंत का नाम अर्थात् संसार सागर पार करने का प्रायः सर्वमान्य सबसे सरल उपाय !... कहो ! कौन होंगे यह सूरि पुरंदर ?.... अनुमोदक : शासन सम्राट श्री के समुदाय के प. पू. आ. भ. श्री विजय शीलचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 [36 वर्षातप के साथ में नवकार, लोगस / 196// नमोत्यणं धम्मो मंगल... अरिहंता महदेवो... आदि प्रत्येक के 9-9 लाख जाप के आराधक एक स्थानकवासी समुदाय के नायक महात्माने अपने 46 वर्ष के दीक्षा पर्याय में निम्नलिखित तप-जप आदि की विशिष्ट आराधना-साधना की थी / तपश्चर्या : (1) अन्तिम 34 वर्ष तक लगातार वर्षांतप !!! (2) एक उपवास से लेकर छठ्ठ-अठ्ठम आदि क्रमशः 15. उपवास तक तप / (3) मासक्षमण दो बार / (4) 25 तथा 35 उपवास / (5) अन्त में संथारे की भावना के साथ 45 उपवास / उसमें अन्तिम 15 उपवास चौविहार किये / (6) एक एक पक्ष तक नमक मिर्च आदि छह रसों का त्याग (7) तीर्थंकर वर्धमान तप / (8) पंच कल्याणक तप (9) सर्व तिथि तप (10) एक बार मौन सहित अठ्ठाई तप करके 8 दिन तक बंद कमरे में मुख्य रूप से ध्यान साधना की थी। ... (11) वर्षों तक घी तथा तेल की विगई और चीनी का मूल से त्याग / पारणे में भी घी इत्यादि नहीं लेते थे / (12) प्रतिदिन 108 खमासमणा द्वारा पंच परमेष्ठी को पंचाग प्रतिपात पूर्वक नमस्कार करते (लगभग 20 वर्ष तक) (13) प्रतिदिन 30 मिनट शीर्षासन में ध्यान करते !!! Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___461 (14) विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करते थे। जाप : (1) नवकार मंत्र का नव लाख जाप कई बार किया / (2) सम्पूर्ण लोगस्स सूत्र का 9 लाख जाप !.. (3) सम्पूर्ण नमोत्थुणं सूत्र का 9 लाख जाप ! (4) दश वैकालिक के प्रथम अध्ययन (धम्मो मंगल वगैरह 5 गाथा) का 9 लाख जाप / (5) चत्तारि मंगलं... के सम्पूर्ण पाठ का 9 लाख जाप !... . (6) "अरिहंतो महदेवो" इत्यादि सम्यक्त्व की गाथा का 9 लाख जाप / (7) सूयगडांग सूत्र के छठे अध्ययन (पुच्छिसु णं इत्यादि शब्दों से शुरू होती वीर स्तुति) का 9 लाख जाप करने का संकल्प था / किन्तु 3 लाख के करीब जाप होते वे कालधर्म को प्राप्त हुए / क्षमाभाव : (1) एक बार उनके उपर सौराष्ट्र में अज्ञानता से एक किसान ने कंटीली लाठी द्वारा प्रहार किया था, फिर भी उन्होंने समभाव से यह उपसर्ग सहन किया !.. (2) रोषायमान हुए बैल का धक्का लगने से हड्डियों भयंकर रूप से टूट जाने के बावजूद भी इन्होंने खूब ही समता रखी ! . उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन के 3 पुत्रों तथा 2 पुत्रियों सहित 41 वर्ष की उम्र में सं. 2001 में दीक्षा ली थी / और 88 वर्ष की उम्र में सं. 2048 की मृगशीर्ष अमावस्या के दिन दोपहर 12.00 बजे इन्दोर में कालधर्म संप्राप्त हुए / पूज्यश्री के नाम का पूर्वार्ध एक विशेष रंग का नाम है, तथा उत्तरार्ध ज्योतिश्चक्र के एक देवविमान का नाम है। उनके तप-जपादि की हार्दिक अनुमोदना / Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 197|| लगातार चौविहार 32 वर्षीतप के तपस्वी एक महान तपस्वी महात्मा पिछले 32 वर्षों से लगातार चौविहार उपवास से वर्षीतप कर रहे हैं / उसमें भी 10 वर्षीतप चौविहार छठ द्वारा किये / एक वर्षांतप चौविहार छठ के पारणे आयंबिल से किया और एक वर्षीतप चौविहार अठ्ठम के पारणे अठुम से किया ! 9 वर्ष की बाल्यावस्था में दीक्षित हुए इन महात्माने 28 वर्ष की उम्र से लगातार वर्षीतप करने का प्रारंभ किया था / वे अक्सर हस्तिनापुर में ध्यान शिविर चलाते हैं / दि. 13-4-94 चैत्र सुदि 3 को पालीताना में उनके दर्शन हुए थे / तब वे उपाध्याय पद पर विराजमान थे / . इनका शुभ नाम एक ऐसी ऋतु का नाम है, जो सभी को बहुत ही प्रिय है। इनके गुरु एक सुप्रसिद्ध आचार्य भगवंत थे, जिनके नाम का भी अर्थ "प्रिय" होता है / अब तो इस गुरु शिष्य की जोड़ी को पहचान ही गये होंगे ना ? 198|| लगातार 31 वर्षीतप के आराधक सूरीश्वर एक महात्मा पिछले 31 वर्षों से लगातार वर्षीतप करते हैं / परिणाम स्वरूप “तपस्वी रत्न" के रूप में सुप्रसिद्ध हैं / अभी वे करीब 30 साधु भगवंतों एवं करीब 220 साध्वीजी भगवंतों युक्त गच्छ का नेतृत्व संभालने वाले गच्छाधिपति आचार्य भगवंत हैं। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 463 तीन वर्ष पहले उनके हस्तों से एक बड़े नूतन तीर्थ की अंजन शलाका-प्रतिष्ठा हुई थी। ___ उनके नाम में उपर्युक्त तीर्थ के प्रेरक उनके गुरुदेव श्री का नाम भी समा जाता है। और उनके नाम द्वारा सूचित बात जिनके भी जीवन में होती वह जगत में सर्वत्र सम्माननीय बनता है / बोलो - कौन होगी, यह गुरू-शिष्य की जोड़ी ? 388888638 प्रथम राख बोहराई जाय तो ही पारणा करने का गुप्त अभिग्रह / / करीब 3 वर्ष पूर्वमें वर्धमान तप की 100 ओली परिपूर्ण करने वाले एक महात्मा प्रायः प्रत्येक ओली के पारणे के समय विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करते हैं / एक बार उन्होंने अठ्ठम के पारणे पर ऐसा अभिग्रह मन में धारा कि कोई प्रथम राख बोहराए तो ही पारणा करना, नहीं तो उपवास चालु रखने !... बहुत घरों में घूमे, किन्तु राख कौन बोहराए ? इसलिए मौन पूर्वक वापस मुड़े। आखिर अपनी संसारी मौसी के घर गये / उन्होंने भी बहोराने के लायक अनेक वस्तुओं के नाम लिये, परन्तु महात्माने मस्तक हिलाकर इन्कार ही किया / तब मौसी से नहीं रहा गया और वे बोली - " इतनी सब वस्तुएं होने के बावजूद भी आप कुछ बहोरते नहीं तो क्या आपको राख बोहराऊँ ?..!" . महात्मा ने मस्तक हिलाकर सम्मति दी और राख बहोरने के लिए पात्र बाहर निकाला / Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___ मौसी के आश्चर्य एवं आनंद का पार नहीं रहा / उन्होंने प्रथम राख बोहरायी एवं उसके बाद दूसरी वस्तुएँ बोहरायीं / धन्य है ऐसे उग्र अभिग्रहधारी तपस्वी महा मुनियों को !... इन्हीं महात्मा ने 95 वी ओली के पारणे के मौके पर भोपावर में दि. 24-1-94 को मन में अभिग्रह धारा कि पू. गच्छाधिपति आचार्य भगवंत श्री की उपस्थिति हो, 100 ओली के आराधक 5 तपस्वी हाजिर हो और एक ही दिन के नूतन दीक्षित 3 ठाणे (2 साधु तथा 1 साध्वीजी) उपस्थित हों तथा चतुर्विध संघ पारणे के लिए विनंती करता हो तोही पारणा करना !... इनके उत्कृष्ट पुण्य के योग से ऐसा विशिष्ट अभिग्रह भी एक ही दिन में दोपहर 4 बजे पूर्ण हुआ !... पूज्यश्री ने 5 वर्षों में 100 अळुम पूर्ण किये हैं / उसमें पूना में एक बार अठ्ठम के पारणे के मौके पर मन में संकल्पित अभिग्रह पूर्ण न होने पर उपवास चालु रखे / ग्यारह उपवास के बाद अभिग्रह पूर्ण होने पर पारणा किया !... 89 वी ओली ठाम चौविहार अवढ्नु आयंबिल से केवल बिना नमक के मुंग से पूर्ण की !..... ___ ओली सिवाय के दिनों में भी हर महिने कम से कम 2 उपवास, 5 आयंबिल तथा शेषदिनों में एकाशन होता ही है ! . ये महात्मा प्रतिदिन प्रातः कालमें नवकार-सूरिमंत्र आदि का जाप घंटों तक करते हैं / पुरिमड्ढ तक जाप पूर्ण करने के बाद ही पच्चक्खाण पारते हैं / गर्मी के विहारों में भी जाप पूर्ण होने तक पानी भी नहीं वापरते हैं / शाम को भी नियमित सूर्यास्त से 2 घड़ी (48 मिनट) पहले ही पाणहार का पच्चखाण स्वीकार लेते हैं / पूज्यश्री रोज त्रिकाल देववंदन करते हैं / बीमारी में भी दोनों समय खड़े खड़े अप्रमत्त रूप से प्रतिक्रमणादि क्रिया करते हैं / स्वभाव से अत्यंत सरल हैं। 11 वर्ष की उम्र में संयम ग्रहण करनेवाले यह महात्मा 6 वर्ष पहले मुनिवर में से आचार्य बने हैं। एक बार तो इनके दर्शन - वंदन Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 465 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अवश्य कर लेने चाहिए / इन महात्मा का शुभ नाम - अकबर बादशाह के दरबार में बिरबल वगैरह कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए उपयुक्त होता शब्द है !... अब तो समझ गये न कि ये आचार्य भगवंत श्री कौन होंगे ? . . लगातार 360 उपवास के तपस्वी सपाट ___पंजाब में संगरूर जिले के लेहलकला गांवमें 18-11-1933 को जन्म लेकर 20 वर्ष की उम्र में स्थानकवासी श्रमण संघ समुदाय में दीक्षित हुए एक महात्मा द्वारा अपने जीवन में की गयी भीष्म तपश्चर्या की सूचि आश्चर्य के साथ अहोभाव पैदा करने वाली है / यह रही उनकी तपश्चर्या की सूचि / क्रमांक वि.सं. शहर प्रांत लगातार उपवास 2020 टोहाना हरियाणा 2021 संगरूर . पंजाब 2022 नालागढ हिमाचलप्रदेश 2023 होशियारपुर पंजाब 2024 जम्मुतावी कश्मीर 2025 नवाशहर पंजाब 2026 मालेरकोटला पंजाब 2027 पटियाला पंजाब 2028 हरियाणा 2029 टोहाना . हरियाणा 11 2033 चंडीगढ हरियाणा 2040 हरियाणा or an so 5 w a va or अम्बाला अम्बाला बहरत्ना वसंधरा - 3-30 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 104 2047 अजमर 201 108 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 2041 मोडलटाउन दिल्ली 2042 प्रीतमपुर दिल्ली 15 2043 सदरबजार दिल्ली : 2044 शक्तिनगर दिल्ली 2045 अशोकविहार दिल्ली 2046 सवाईमाधोपुर राजस्थान अजमेर राजस्थान 2048 जोधपुर राजस्थान 2049 ऊधना-सुरत गुजरात 22 2050 खार-मुंबई महाराष्ट्र 23 2051 पूना महाराष्ट्र 24 2052 सिकंदराबाद आंध्रप्रदेश 127 25 2053 26 2054 बेंगलोर कर्णाटक 365 सं. 2054 के वैशाख में इनकी 360 उपवास की घोर तपश्चर्या बेंगलोर में पूर्ण हुई थी। इतनी दीर्घ तपश्चर्या के दौरान भी वे प्रतिदिन हजारों दर्शनार्थीओंको दो यईम मांगलिक सुनाते थे !... इनके जीवनमें तपश्चर्या के साथ-साथ सौम्यक समता, क्षमा, प्रसन्नता के विशिष्ट गुण दिखाई देते हैं, जो तप के आभूषण के समान गिने जाते हैं। कछ लोग इतनी लम्बी तपश्चर्या को शंका की दृष्टि से देखते हैं। परंतु उनकी अक्सर वैज्ञानिक चिकित्सक जाँच करते रहते थे / इस कारण शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं है / उनकी पूर्व के वर्षों की तपश्चर्या की सूचि को देखकर समझा जा सकता हैं, कि अभ्यास से कुछ असंभव नहीं है। समान्यतः वर्तमान में उत्सर्ग मार्ग के रूपमें शारीरिक संहनन के कारण उत्कृष्ट लगातार 180 उपवास की तपश्चर्या की शास्त्रीय मर्यादा है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 467 परन्तु स्याद्वादमय श्री जिनशासन में प्रायः किसी भी बात का एकांत विधान या एकान्त निषेध नहीं है / उससे उपरोक्त दृष्टांत में और इस पुस्तक में वर्णित अन्य दृष्टांतों में 251 और 211 उपवास की तपश्चर्या एक विशिष्ट अपवाद के रूप में विचारणीय है / तत्त्व तो केवली जाने / सुज्ञेषु किं बहुना ? उपरोक्त महात्मा के नाम का अर्थ "साथमें जन्मा हुआ" ऐसा होता है / "साधो ... समाधि भली" इस प्रसिद्ध वाक्य में रिक्त स्थान की जगह पर जो शब्द है, यह इन तपस्वी सम्राट के नाम का सूचन करनेवाला है ! &00652835260000000000 लगातार 108 उपवास तथा 500 अठाई के तपस्वी / / 385 - दि. 21-1-94 के दिन घोघा बंदरगाह के पास के तणसा गाँव में एक तपस्वी महात्मा के दर्शन हुए थे / इन महात्मा का जन्म गुजरात में भावनगर जिले के मेथला गाँवमें . हुआ था / इन्होंने सं. 2008 में 19 वर्ष की उम्र में प. पू. आचार्य भगवन्त श्री विजयप्रतापसूरीश्वरजी म.सा. के पास दीक्षा अंगीकार की थी। इनको सं. 2032 में पन्यास पद पर आरूढ किया गया / इन महात्मा ने दीक्षा से पहले सं. 2002 से (13 वर्ष की उम्र से ) प्रायः हर महिने एक अठ्ठाई तप करना प्रारंभ किया / जिस दिन हमें वे मिले, तब तक 496 अट्ठाईयाँ पूर्ण कर चूके थे / उनकी कुल 500 अठ्ठाई करने की भावना थी, जो कबकी पूर्ण हो गई होगी / इसके अलावा इन महात्मा ने अपने जीवन में निम्नलिखित तपजप की आराधना की है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उपवास संवत् 2025 2012 2007 2009 2010 2013 2003 मुंबई-गोडीजी सुरत महुवा वालकेश्वर भावनगर मुंबई- पायधुनी महुवा मासखमण मासखमण महुवा 2004 2045 मासखमण भावनगर ये महात्मा सं. 2002 से प्रति वर्ष दोनों ओलीजी में आराधना सहित 9-9 आयंबिल करते हैं। सं. 2051 से प्रतिदिन 11 पक्की नवकार की माला का जाप तथा 1 घंय ध्यान करते हैं / पालिताना में घेटी पागमें जिनकी मूर्ति की प्रतिष्ठा की गयी है उन ध्यानी श्री मणिविजयजी दादा की प्रेरणा से शुरूआत में 10 मिनिट से प्रारंभ करके बाद में रोज 1 घंय ध्यान करते हैं / तप - जप तथा ध्यान के प्रभाव से कई बार स्वप्न में लगभग 11 इन्च के नीलवर्णी पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन होते हैं / उसी तरह कई बार सफेद नागराज के दर्शन स्वप्न में और कभी प्रत्यक्ष रूप से भी होते रहते हैं। __ "हमेशा आनंद में रहनेवाले" इन यथार्थनामी महात्मा ने घोघा में 15 चातुर्मास किये हैं। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 469 202 / 77 वर्ष की वृद्धावस्थामें गुणरल संवत्सर / तप के भीष्म तपस्वी मुनिवर अहमदाबाद में जन्मे सुश्रावक श्री हीरालाल डाह्यालाल गांधी ने 60 वर्ष की वृद्धावस्था में मुंबई में संयम अंगीकार किया / इतनी बड़ी उम्र में दीक्षा लेने के बावजूद 9 वर्ष के दीक्षा पर्याय में उन्होंने जो तप - जप की अद्भुत और बेजोड़ आराधना की है, वह वास्तव में अत्यंत आश्चर्यप्रद है। .. यह रही उनके द्वारा अपने जीवन में की गई बेजोड़ तपश्चर्या की सूचि / हाथ जोड़कर अहोभावपूर्वक पढ़ने की विनंती / (1) अठ्ठम के पारणे अठ्ठम से एक वर्षीतप (2) छठ के पारणे छठ्ठ से एक वर्षांतप (3) एकांतर उपवास-बियासन से दो वर्षीतप (4) सिद्धितप (43 दिन में 36 उपवास) (5) श्रेणितप (110 दिन में 83 उपवास) (6) सिंहासन तप (30 दिनमें 25 उपवास) (7) समवसरण तप (80 दिनमें 64 उपवास) (8) मासखमण तप (लगातार 30 उपवास) (9) जिन कल्याणक तप (474 दिन में 263 उपवास) (10) बीस स्थानक तप (एक ओली 20 छठ्ठ से, शेष 19 ओलियाँ अलग-अलग 20-20 उपवासों से) (11) लघुधर्मचक्रतप ( 82 दिनमें 43 उपवास + 39 बियासने) (12) बृहत् धर्मचक्रतप (132 दिनमें 69 उपवास + 63 बियासने) (13) एकांतर 500 आयंबिल (14) वर्धमान तप की 53 ओलियाँ / (15) इनके उपरांत नवपदजी की ओलियाँ, इन्द्रिय जय तप, कषाय जय तप, योगशुद्धि तप, मौन एकादशी, ज्ञान पंचमी, पोष दशमी, Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 14 पूर्व, अक्षयनिधि, 45 आगम तप, शत्रुजय तप, पंचरंगी तप, युगप्रधान तप, रत्न पावड़ी तप, 24 भगवान के एकाशन, 2 अछई आदि कई तप किये / इन्होंने गृहस्थावस्था में भी तीन उपधान, सिद्धिगिरि की 99 यात्रा, करीब 10 छ'री' पालक संघों में शामिल होकर विविध तीर्थों की यात्राएँ की / पाँच स्थानों पर जिनबिम्ब भरवाये / 6 वर्ष तक हर पूनम को सिद्धगिरि की यात्रा सिद्धगिरि में 2 चातुर्मास, 2 बार स्वद्रव्य से अष्टोत्तरी स्नात्र सह अठ्ठाई महोत्सव इत्यादि अनेक आराधनाएँ की थीं / जाप तप के साथ जप मिले तो सोने में सुगन्ध के समान अद्भुत चित्त शुद्धि का अनुभव होता है / महातपस्वी मुनिराज श्री ने अपने जीवन में निम्न लिखित जाप किया था / (1) नवकार मंत्र का जाप..... डेढ़ करोड़ (2) "नमो अरिहंताणं" पद का जाप ..... 50 लाख (3) "सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु" ..... एक करोड़ (4) "ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः".... 9 लाख (5) “नमो लोए सव्व साहूणं .... 9 लाख (6) सरस्वती मंत्र ..... 1 लाख अन्य पवित्र मंत्रों का भी लाखों की संख्या में जाप किया है / इस तरह अनेक प्रकारों के तप-जप से तन-मन को अभ्यस्त करने के बाद उन्होंने दि. 10-3-80 से गुणसंवत्सर नाम की सुदीर्घ भीष्म तपश्चर्या का प्रारंभ किया / सोलह महिने के इस तप में 407 उपवास तथा 73 पारणे आते हैं / भगवान महावीर के शिष्य खंघक अणगार तथा मेघ मुनि आदि ने यह तप किया था, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख आता है / उसके बाद पिछली शताब्दियों के इतिहास में इस तप को करनेका कोई उल्लेख कहीं नहीं आता है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 471 हर महिने एक एक उपवास की वृद्धि करते 12 वे महिने में 12 उपवास के पारणे पर 12 उपवास की साधना पूर्ण की / 13 वे महिने में भी 13 उपवास पूर्णकर फिर बिआसना कर, थोड़ी अस्वस्थता होने के बावजूद दृढता से 13 उपवास का पच्चक्खाण किया / उसमें दूसरे उपवास के दिन (दि. 14-3-89) अस्वस्थता थोड़ी बढ गयी / रक्तचाप धीमा हो गया और वे अंगुलियों के सहारे मंत्र का स्मरण करते-करते एवं निश्रादाता आचार्य भगवंतादि के मुख से नवकार सुनते देह पिंजर से मुक्त हुए / इन्होंने समाधि-मरण को साध लिया / मुनि श्री ऐसे भीष्म तप के दौरान भी पारणे के दिन तथा प्रथम उपवास के दिन के अलावा दिन में कभी नहीं सोये / रात में भी 4-5 घंटे से ज्यादा निद्रा नहीं लेते थे / पूरा ही समय मौनपूर्वक स्वाध्याय - जाप वगैरह में व्यतीत करते थे / उन्हें अनेक बार तपजप के प्रभाव से, विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभव होते थे और वे . अवर्णनीय आनंद का अनुभव करते थे / मुनि श्री 480 दिन के चालु भीष्म तप में 370 वे दिन कालधर्म को संप्राप्त हुए / 370 दिन में 306 उपवास एवं 64 पारणे किये / यहाँ गुणरत्न संवत्सर तप की तालिका प्रस्तुत है। .. माह उपवासं क्रम कुल-उपवास पारणे कुल दिन प्रथम . एक के पारणे एक 15 15 30 दूसरा दो के पारणे तीसरा तीन के पारणे तीन 24 8 32 चौथा चार के पारणे पाँचवा पाँच के पारणे छठा छह के पारणे सातवाँ सात के पारणे सात 21 3 24 आठवाँ आठ के पारणे नौवाँ नौ के पारणे दसवाँ दस के पारणे ه م م ه EF OFES س س سه Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 इग्यारहवाँ इग्यारह के पारणे इग्यारह 33 3 36 बारहवाँ बारह के पारणे बारह 24 2 26 तेरहवाँ तेरह के पारणे तेरह चौदहवाँ चौदह के पारणे चौदह 28 2 . 30 पन्द्रहवां पन्द्रह के पारणे पन्द्रह 30 , 2 32 सौलहवाँ सोलह के पारणे सोलह 32 2 34 कुल उपवास 407, कुल पारणे 73, कुल दिन 480 ऐसे भीष्म तपस्वी मुनिवर के चरणों में कोटिशः वन्दना / इनके नाम के दो अक्षर के पूर्वार्ध का अर्थ 'चन्द्र' होता है तथा उत्तरार्ध जिनाज्ञापालन के प्रतीक का सूचन करता है। इनके गच्छाधिपति के नाम का अर्थ "जगत में सूर्य के समान" ऐसा होता है। इनके गुरुदेव के नाम का अर्थ "धर्म से जितने वाले" ऐसे आचार्य भगवंत-होता है / ये दोनों भी कालधर्म को प्राप्त हुए हैं / 203|| किरियाते में भीगी रोटी के आयंबिल | से महानिशीध सूत्र का योगीदव करते मुनि श्री लगभग 17 वर्ष की उम्र में महानिशीथ सूत्र का योगोद्व कर रहे एक मुनिवर ने 52 दिन तक केवल किरियाते एवं रोटी द्वारा आयंबिल किये थे / वे किरियाते में रोटी को आधा घंय भिगने देते / उसके बाद प्रसन्नचित्त से उसे वापरते थे / इनकी अनुमोदनार्थ कई साधु-साध्वीजी भगवंतों ने भी एकाध दिन किरियाते एवं रोटी से आयंबिल किये थे / धन्य है रस के विजेता मुनिवर को !.. यह मुनिवर अभी करीब छह वर्षों से ठाम चौविहार एकासन के साथ अध्ययन-अध्यापन में लीन रहते हैं / Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 473 ___इनके बड़े भाई ने इनसे पहले दीक्षा ली है, तथा पिताश्री ने भी . बादमें दीक्षा ली है / साढे पाँच अक्षर के इस मुनिवर के नाम के एक सुप्रसिद्ध उपाध्याय भगवंत द्वारा रचे गये अनेकों स्तवन एवं सज्झायें आज जैन संघ में बहुत गाये जाते हैं / यह मुनिवर जिस समुदाय (गच्छ) के हैं उसके तीन नाम हैं। कहो ! कौन होंगे ये मुनिवर ! और ये कौन से समुदाय के होंगे?... ३०वे उपवास में प्रसन्नता के साथ केस लोच करवाते मुनिवर / सं. 2040 में गच्छाधिपति गुरुदेव श्री की तारक निश्रामें 67 ठाणा साधु-साध्वीजी श्री समेतशिखरजी महातीर्थ में चातुर्मासार्थ विराजमान थे / गच्छाधिपतिश्री ने चार माह तक प्रतिदिन उत्तराध्ययन सूत्र के विनय अध्ययन के प्रथम श्लोक के आधार पर साधु-साध्वीजी भगवंतों को वाचना प्रदान की / कई साधु-साध्वीजी भगवंतों को आगम सूत्रों का योगोद्व करवाया / पर्युषण के दिन नजदीक आते गुरुदेवश्री ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए बताया कि, इस पावन भूमि पर बीस बीस तीर्थंकर मासक्षमण कर मोक्ष में पधारें हैं, इसलिए कम से कम बीस मासक्षमण * हो तो अच्छा / " पूज्य श्री की भावना को साकार करने के लिए बीस साधु-साध्वीजी तथा चार श्रावक-श्राविकाएँ तैयार हो गये / शेष साधुसाध्वीजी में से एक नवदीक्षित बाल साध्वीजी तथा एक बीमार साध्वीजी को छोड़कर सभी साधु-साध्वीजीयों ने कम से कम अट्ठाई और उससे विशेष तपश्चर्या की / कितने ही मासक्षमण के तपस्वी मुनिवर दूसरों से सेवा कराने की बजाय स्वयं दूसरे तपस्वी मुनिवरों की चरणसेवा आदि करने के लिए अहमहमिका करने लगे / वह दृश्य वास्तवमें अद्भुत था। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 पू. गच्छाधिपतिश्री के एक प्रशिष्य थे, जिन के आचारांग सूत्र के योग चल रहे थे और बुखार भी आ रहा था, वह पूज्यश्री के पास श्रावण सुदी पंचमी के दिन ज्ञान पंचमी होने के कारण एक उपवास का पच्चक्खाण लेने आये / 22 वर्ष के यह मुनि दिखने में 16 वर्ष के लगते थे / यह मुनि विनय वैयावच्च-स्वाध्याय रुचि आदि गुणों के कारण गच्छाधिपतिश्री के हृदय में बस गये थे / इस कारण पूज्यश्री ने सहजता से पूछा कि - "मुनिवर ! तुम भी मासक्षमण करोगे ना !... मुनि श्री ने स्वप्न में भी मासक्षमण की कल्पना नहीं की थी। हाँ ! पर्युषण में आठ दिन अढ़ाई करने की भावना जरूर थी / किन्तु अभी तो केवल ज्ञानपंचमी के एक उपवास की ही तैयारी थी, और साथ में आचारांग सूत्र के चालु योग में से बुखार के कारण निकलकर कल पारणा करने का विचार था / . फिर भी मुनिश्री गच्छाधिपतिश्री की भावना का सम्मान करते हुए एक एक उपवास के पच्चक्खाण लेने लगे / किन्तु सातवें दिन कर्म राजा ने उन्हें आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपनी ताकत का उपयोग किया। कर्म राजा ने मुनि श्री के तन में ऐसी असह्य वेदना उत्पन्न कर दी कि मुनि श्री ने गच्छाधिपति को कह दिया कि, "साहेबजी ! अब आगे बढ सकुँ वैसी स्थिति नहीं है / कल तो जरूर पारणा करूँगा !" समयज्ञ गच्छाधिपतिश्री ने उन्हें कहा कि - "भले ही ! जैसी तुम्हारी इच्छा / मेरा तनिक भी आग्रह नहीं है / तुमको कल जिससे शाता रहे, वैसा खुशी से करना / " किन्तु दूसरे दिन प्रातः कालमें पुनः मुनि श्री को स्फूर्ति का अनुभव होने पर उन्होंने स्वयं पू. गच्छाधिपतिश्री से आठवें उपवास का पच्चक्खाण लिया और वह दिन समतापूर्वक व्यतीत किया / उनके गुरुदेव श्री ने दूसरे दिन कहा कि, "अट्ठाई तप तो तुमने पहले भी कर लिया है, इसलिए हो सके तो अभी एकाध उपवास कर लो, जिससे नौ उपवास हो जाए / विनयवंत मुनिवर ने गुरु इच्छा का सन्मान करके नौवाँ तथा दसवाँ उपवास भी आनंद से पूर्ण कर लिया / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 475 फिर तो तीर्थ के प्रभाव से तथा गुरुकृपा से ऐसी हिम्मत आयी कि सोलभत्ता पूरा करने के लिए एक एक उपवास का पच्चक्खाण सानंद लेने लगे / उत्तरोत्तर स्फूर्ति बढते जाने से फिर तो मासक्षमण की मंजिल की और आगे बढते ३०वाँ उपवास एवं संवत्सरी का दिन भी आ गया ! मुनि श्री ने इस लम्बी तपश्चर्या के दौरान अपने गुरुदेव श्री द्वारा छह कर्मग्रन्थ के अर्थ की सामूहिक दो घंटे की वाचना में भी अंत तक भाग लिया और लिखित परीक्षा भी देते थे !... अब सहवर्ती साधु-साध्विजीयों को यह चिंता होने लगी कि यह मुनि श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण से पहले केशलोच किस प्रकार करवा सकेंगे। किन्तु मुनि श्रीने बहुत स्वस्थता एवं प्रसन्नता के साथ 1 घंटे में लोच करवा लिया !... हमेशा उनके बाल की जड़ें मजबूत होने के कारण डेढ घंटा लगता था / किन्तु इस बार तीर्थभूमि, मासक्षमण की मांगलिक तपश्चर्या तथा गच्छाधिपतिश्री आदि बड़ों की कृपा के प्रभाव से एक घंटे में अच्छी तरह से लोच हो गया / तीर्थभूमि, तपश्चर्या तथा गुरुकृपा का प्रत्यक्ष प्रभाव-चमत्कार देखकर सभी बहुत ही अनुमोदना करने लगे। इन मुनिवर के नाम के साथ साम्य रखता हुआ एक प्रकरण ग्रंथ कई प्रवचनकार चातुर्मास में व्याख्यान के लिए पसंद करते हैं / क्योंकि उसमें श्रावक के 21 गुणों आदि का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। - मुनि श्री के गुरु महाराज का नाम मोक्ष का पर्यायवाची चार अक्षर का बिना जोडाक्षर वाला शब्द है / गच्छाधिपति श्री तो नाम के अनुसार कई गुणों के भंडार यथार्थनामी आचार्य भगवंत थे / ___"निशाने से चूका सौ वर्ष जीये" कहावत के अनुसार आठवें दिन अवश्य पारणा करने का विचार करने वाले मुनि श्री ने देखते ही देखते 30 उपवास कर लिये / इस घटना से बोध लेकर, सभी कसौटी के मौकों पर हिम्मत न हारकर उल्लासपूर्वक रत्नत्रयी की आराधना करें, यही शुभाभिलाषा। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 205 महातपस्वी गुरु-शिष्य वि.सं. 2035 में करीब 45 साल की उम्र में दीक्षा लेकर एक मुनिवरने अत्यंत वैराग्यवासित होकर कर्म निर्जरा के लिए अपनी आत्मा को निम्नोक्त प्रकार से तपश्चर्या में जोड़ दिया है / अत्यंत पापभीरु, भवभीरु एवं निष्परिग्रही यह महात्मा अपने परिचय में आनेवाले प्रत्येक सद्गृहस्थ को संयम की प्रेरणा प्रदान करते हैं / 20 साल के दीक्षा पर्याय में एक ही संस्तारक आदि उपकरणों का उपयोग करनेवाले यह मुनिवर वर्तमानकाल में आकिंचन्य धर्म का आदर्श उदाहरण रूप हैं / ज्ञान की आशातना से बचने के लिए कागज के छोटे से टुकड़े को भी वे अपने हाथ से प्रायः फाड़ते नहीं हैं और पत्रलेखन में भी अत्यंत करकसर करते हैं / पिछले 18 साल से लगातार वरसीतप करते हुए इन तपस्वी महात्माने 1 वरसीतप एकांतर उपवास के पारणे आयंबिल से, वरसीतप अठ्ठम के पारणे एकाशन से, 3 वर्षीतप उपवास के पारणे एकाशन से, 5 वर्षांतप छठ के पारणे एकाशन से, एवं 8 वर्षीतप छु के पारणे बिआसन तप से किये हैं / एकांतरित 500 आयंबिल, वर्धमान तप की 31 ओलियाँ, लगातार 12-3045 उपवास, श्रेणितप आदि तपश्चर्या करनेवाले प्रस्तुत मुनिवरने दीक्षा से पूर्व एक वर्ष से लेकर आज दिन तक की हुई तपश्चर्या की तालिका उनके अतिनिकट के परिचित युवाश्रावक के पाससे निम्नोक्त प्रकारसे प्राप्त हुई है / वि.सं. उपवास आयंबिल एकाशन बिआसन नवकारसी विशेषता 2034 39 206 23 25 62 उपधान तप किया 2035 14 303 37 - - वर्धमान तप की ओलियाँ/दीक्षा 2036 89 224 72 - - लगातार 45 उपवास 2037 49 201 44 36 25 लगातार 12 उपवास 2038 158 121 105 - - मासक्षमण/उपवास+आयंबिल से वर्षीतप 2039 219 - 135 - - छठ्ठ से वर्षीतप+ श्रेणीतप 2040 225 23 60 41 - छठ से वर्षीतप मुंबई से शिखरजी के संघमें Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 162 118 120 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 477 2041 119 75 57 53 - उपवास के पारणे एकाशन आदि से वर्षांतप 2042 188 01 - उपवास के पारणे एकाशन से वर्षांतप 2043 192 2044 135 छठ के पारणे एकाशन से वर्षांतप 2045 234 2046 234 2047 266 - -अठ्ठम से वर्षीतप + आध्यात्मिक __अनुभूतियाँ 2048 246 - . - छठ के पारणे एकाशन से वर्षीतप 2049 254 - 130 - 2050 234 - - 120 के पारणे बिआसन से वर्षीतप 2051 234 - - 120 - " " " 2052 258 - - 130 2053 238 - 2054 238 . - - 120 2055 254 - - 130 - टोटल 4205 1171 1598 894 87 वि. सं. 2047 में अठुम के पारणे एकाशन से वर्षीतप के दौरान इन महात्मा को विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं / कच्छ में जन्म एवं मुंबई में दीक्षा लेनेवाले ये मुनिवर पिछले 7-8 साल से राजस्थान में विचरण कर रहे हैं / तीन नामों से प्रसिद्ध गच्छ में दीक्षित इन महात्मा के नाम का दो अक्षर का पूर्वार्ध जिनशासन में 7 की संख्यामें प्रसिद्ध तत्त्वों को सूचित करता है, और उत्तरार्ध के दो अक्षरों का अर्थ तेज होता है / तपस्वी मुनिवर के गुरु 36 साल की उम्र में आचार्य पदवी को संप्राप्त एक शासन प्रभावक आचार्य भगवंत हैं / : : : : Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उपरोक्त तपस्वी महात्मा के एक शिष्य भी करीब 55 साल की उम्र में दीक्षित हुए एक महातपस्वी मुनिवर हैं, जिनका नाम भगवान श्री महावीर स्वामी के बड़े भाई के नाम के साथ साम्य रखता है / आपने भी वर्धमान तप की 60 से अधिक ओलियाँ की हैं एवं प्रतिवर्ष बड़ी तपश्चर्याएँ करते हैं / आज तक लगातार 20-24-30-32-45-42-5257-62 उपवास किये हैं। तपस्वी गुरु-शिष्य की जोड़ी की हार्दिक अनुमोदना / अदभुत ज्ञान पिपासा / 206 अनुमोदनीय ज्ञानोपासना / / विशिष्ट स्मरणशक्ति / / पूर्व के महा मुनिवर विराटकाय 14 पूर्व सह समस्त द्वादशांगी सूत्रों का अभ्यास और स्वाध्याय किसी प्रत (पुस्तक) के आलंबन के बिना मुँह से ही करते थे / परन्तु अवसर्पिणी काल के प्रभाव से यादशक्ति घटने के कारण आगमों को लिखवाना पड़ा / ___ आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व हो चूके उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज तथा उपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज ने लगभग 1200 (मतांतार में 2000 ) श्लोक प्रमाण के तत्त्व चिंतामणि नाम के न्याय शास्त्र के एक कठीन ग्रन्थ को एक ही रात में कंठस्थ कर लिया था / ... पूज्य आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरिजी म.सा. सहस्रावधानी थे / वे एक साथ एक हजार बातें अपनी स्मृति में रख सकते थे / ... शायद किसी को उपरोक्त बातों में अतिशयोक्ति के दर्शन होते हों तो उसे निम्न अर्वाचीन साधु-साध्वीजियों के दृष्टांतों पर अवश्य गौर करना चाहिए / Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 479 (1) तपागच्छ के एक समुदाय में एक ही ग्रुप में चार साध्वीजियाँ "शतावधानी" हैं / (2) दूसरे भी कुछ आचार्य तथा एक जैन पंडितजी शतावधानी हो गये हैं। (3) 3 वर्ष पूर्व दीक्षित हुए एक मुनिवर ने तीन ही घंटों में पूरा पक्खीसूत्र कंठस्थ कर दिया / इन्हीं महात्मा ने योगशास्त्र के 100 श्लोक भी केवल तीन ही घंटों में कंठस्थ कर लिये / (4) केवल सात वर्ष के ही दीक्षा पर्याय वाले एक मुनिवर ने उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज द्वारा विरचित और तर्कशास्त्र के कठीनग्रंथ "भाषा रहस्य" के उपर संस्कृत में टीका की रचना की है / उन्हों ने संस्कृत में अन्य रचनाएँ भी की हैं। (5) 12 वर्ष के दीक्षा पर्याय में एक मुनिवर ने संस्कृत-प्राकृत में कठीन ऐसे 425 ग्रन्थों का अभ्यास किया .... वैसे ही अंग्रेजी के भी करीब 50 पुस्तकों का वांचन किया / (6) आज भी कुछ मुनिवरों ने संस्कृत भाषा में विविध छंदों में सेंकडों श्लोकों की रचना की है / (7) एक समुदाय के दो मुनिवर पर्युषण में पूरा बारसा सूत्र मुखपाठ ही बोलते हैं / ____(8) दूसरे एक समुदाय के दो बाल मुनिवर भी पूरा बारसासूत्र मुख-पाठ ही बोलते हैं / बीस वर्ष के अथाग परिश्रम से द्वादशार नयचक्र 207| ग्रन्य का संपादन करनेवाले मनिवर की। अनुमोदनीय भूत भक्ति एक बहुश्रुत मुनिवर सदैव आगमों के संशोधन-संपादन-प्रकाशन के कार्य में व्यस्त दिखाई देते हैं / उन्होंने श्री मल्लवादीजी द्वारा विरचित Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 "द्वादशार नयचक्र" नाम के कठीन ग्रन्थ का यशस्वी संपादन किया है। इस ग्रन्थ में भारतीय दर्शनों के 12 प्रकार के दार्शनिक मतों की विशेषताएँ एवं कमियों का वर्णन किया गया है / उसके अलावा जैन दर्शन के अनेकांतवाद की स्पष्टता एवं प्रतिष्ठा की गयी है / इस महत्त्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने हेतु इन्होंने दो दशक तक मेहनत की / परिणाम स्वरूप तत्त्वज्ञान के विद्यार्थियों को एक अपूर्व और अनुपलब्ध ग्रन्थ सुन्दर व्यवस्थित और सुवाच्य स्वरूप में सुलभ बना / तन से दुर्बल किन्तु मन से मजबूत ऐसे इन मुनिवर ने प्रचंड ज्ञानशक्ति से, समर्थ आत्मबल से, अद्भुत इच्छाशक्ति से, कठीनतम ग्रन्थ का संशोधन-संपादन-प्रकाशन किया / पूज्यश्री ने इसके लिए तिब्बत, चीन, जपान, इग्लेन्ड, अमरिका आदि देशों में से प्राचीन ग्रन्थों की अलग-अलग पद्धतिसे ली गयी प्रतिकृतियाँ, माईक्रोफिल्म प्रतें आदि सामग्री इकट्ठी की। इस ग्रन्थ से परिचित देश-विदेश के उच्च साक्षरों के साथ परिचय किया / पत्रव्यवहार किया और उनके मन मंतव्य जानने का प्रयास किया। पूज्यश्री ने प्रत्येक छोटे-बड़े प्रतिपादनों के बारे में मल तक पहूँचकर उसका तारतम्य प्राप्त करने की सत्यशोधक दृष्टि का परिचय दिया। ऐसी अपूर्व श्रुतभक्ति करने वाले मुनिवर को भावपूर्वक वंदन / इन महात्मा का संस्कृत प्राकृत आदि भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, उर्दू, फारसी आदि कितनी ही विदेशी भाषाओं पर अच्छा प्रभुत्व है / इनके पास जैन धर्म के विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु अक्सर विदेशी लोग आते रहते हैं / अरिहंत परमात्मा एवं अपने स्वर्गस्थ पिता गुरुदेवश्री के प्रति उनका समर्पण भाव अन्यत अनुमोदनीय है। किसी का भी पत्र आये या किसी को पत्र लिखें उसे प्रथम प्रभुजी तथा गुरुदेव श्री की प्रतिकृति के समक्ष रखते हैं / उनकी भाव से अनुज्ञा लेने के बाद ही पत्र पढते हैं, या पोस्ट करवाते हैं / इन्होंने सं. 2055 का चातुर्मास प्राचीन ग्रन्थों के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करने हेतु जैसलमेर में किया था / जहाँ का ज्ञान भन्डार जैन-जगत का एक अमूल्य निधि है। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 481 पूज्यश्री भगवानं या गुरु महाराज का फोटो कभी भी नाभि से नीचे न रहे इस हेतु उपाश्रय तथा विहार में पूरी सावधानी रखते हैं / इनके नाम का पूर्वार्ध अर्थात् इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र से सबसे अन्त में मोक्ष में जानेवाले महापुरुष का नाम !! कहो कौन होंगे यह महात्मा ? मात्र 6 दिन में दशकालिक सूत्र कंठस्थ / केवल 9 वर्ष की बाल्यावस्था में दीक्षित हुए एक बालमुनि ने 6 दिन में पूरा दशवैकालिक सूत्र कंठस्थ कर लिया ! आज वे विशिष्ट कवित्वशक्ति, लेखनशक्ति और वक्तृत्वशक्ति के त्रिवेणी संगम द्वारा बहुत ही अनुमोदनीय शासन प्रभावना करते आचार्य पद पर शोभायमान हो रहे हैं / उनके प्रवचनों में सामान्य दिनों में भी प्रवचन होल एकदम भर जाता है। उनके द्वारा कई स्थानों पर आयोजित शिबिरों में सासु -बहु की शिबिर पति-पत्नी की शिबिर तथा युवकों की शिबिरों ने बहत ही ख्याति प्राप्त की है। कइयों के जीवन में परिवर्तन बिन्दु (टर्निंग पोईन्ट) लाने में निमित्त रूप बनी है। - उनके नाम का पूर्वार्ध नाम कर्म की उस पुण्य प्रकृति का सूचन करता है जो प्रायः सभी को बहुत ही अच्छी लगती है / उत्तरार्ध का अर्थ कवच होता है। 209 बारह वर्षों में 425 संस्कृत-प्राकृत कन्या का अभ्यास एक मुनिवर ने केवल 12 वर्ष के दीक्षा पर्याय में संस्कृत-प्राकृत भाषा के व्याकरण-न्याय-षट्दर्शन- जैन आगम वगैरह 425 जितने कठीन ग्रन्थों का बहुरत्ना वसुंधरा - 3-31 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अभ्यास किया था। अंग्रेजी भाषा की 38 पुस्तिका का वाचन किया था। कैसी अद्भुत होगी इनकी ज्ञान पिपासा, तीक्ष्ण मेधा और अप्रमत्तता !!... ऐसा बेजोड़ ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने के बावजूद निस्पृहता और अंतर्मुखता ऐसी अनुपम थी कि उन्होंने संकल्प लिया था कि आजीवन शिष्य नहीं बनाउँगा एवं व्याख्यान नहीं दूंगा !!! दो मुमुक्षुओं ने इनके पास ही दीक्षा लेने का अपना निर्णय घोषित किया किन्तु वे अपने संकल्प से विचलित नहीं हुए। आखिर मुमुक्षुओं को प्रेम से समझाकर दूसरों के शिष्य बनवाये। ___ उन्होंनें मृत्यु पर्यन्त समस्त फल, मिठाई, मेवा आदि अनेक वस्तुओं का त्याग किया था। गृहस्थावस्था में स्नातक होते समय हमेशा प्रेस टाईट, अप टु डेट कपड़े पहनने के शौकिन होने के बावजूद मुनि श्री दीक्षा के बाद ओघनियुक्ति आदि शास्त्रों के वचन अनुसार वर्ष में केवल एक बार ही वस्त्र प्रक्षालन करते थे। धीरे - धीरे इनके ग्रुपमें इनके गुरुदेव सहित लगभग सभी मुनिवरों और अनेक साध्वीजी भगवंतों भी इनका अनुकरण कर आज भी वर्षमें केवल एक या दो बार ही वस्त्र प्रक्षालन करते हैं !.. इन्होंने कई मुनिवरों को उदारतापूर्वक ज्ञानदान किया / इनके ही द्वारा शिक्षित इसके एक गुरुभाई आज युवाओं के दिल की धड़कन बन चुके हैं। जिन्हें इस वर्ष (सं. 2055) भीलडियाजी तीर्थ पर पंन्यास पद से विभूषित किया गया। इन्होंने कई संघों के ज्ञान -भंडार व्यवस्थित करवाये / अजोड़ विद्वत्ता होने के बाबजूद भी इनका गुरु समर्पणभाव और गुरूदेव तथा ज्ञान-वृद्ध आदि मुनिवरों की सेवा करने की वृत्ति भी अत्यंत अनुमोदनीय कक्षा की थी। जिनशासन के अनमोल रत्न समान यह मुनिवर केवल 29 वर्ष की छोटी उम्र में दि 2-5-85 के दिन विहार के दौरान पीछे से आ रही एक ट्रक का शिकार बनकर कालधर्म को प्राप्त हुए !.. कर्म की गति कैसी विचित्र है ! इनके जीवन का वर्णन करती एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका नाम "बरस रही अखियो" है / यह पुस्तक प्रत्येक साधु -साध्वीजी के लिए Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 483 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अवश्य पढने जैसी है। इनके द्वारा पढे गये 425 संस्कृत- प्राकृत के ग्रंथों की सूचि भी इस पुस्तक में है। इन मुनिवर के नाम में ढाई अक्षर का पूर्वार्ध अर्थात् सभी धर्मी जीवों का मुख्य ध्येय और उत्तरार्ध सभी संसारी जीवों को बहुत ही अच्छा लगता है। अब तो समझ गये, कौन होंगे ये महा मुनिवर ?! शाबास !... इनके गुरुदेव श्री अर्थात् वर्तमान में शिविरों के माध्यम से हजारों युवकों के जीवन में टींग पोईन्ट लाने वाले, युवा जागृति प्रेरक, शासन प्रभावक, उत्तम आराधक आचार्य भगवन्त श्री ... जिनकी निश्रामें मालगाँव से शत्रुजय का ऐतिहासिक संघ भी निकला था। ऐसे आचार्य भगवंतों एवं महा मुनिवरों को करोड़ वन्दन ... !!! संस्कृत पढने के लिए हमेशा 12 माइल छाणी से बड़ोदा यातायात !! लगभग यह बात 100 वर्ष पुरानी है / ज्ञानाभ्यास रसिक एक मुनिवर संयोगवशात् अपने बड़ों के साथ कुछ महिने छाणी में रुके थे / उस समय बड़ौदा राज्य के राजाराम शास्त्री संस्कृत के बड़े विद्वान गिने जाते थे / मुनिवर को लगा कि “ऐसे विद्वान् के पास संस्कृत काव्य और न्यायशास्त्र का अभ्यास करने को मिले तो कितना अच्छा !" ....आखिर बड़ों की विनयपूर्वक अनुमति प्राप्त कर हमेशा प्रात:काल में छाणी से 6 माईल का विहार कर बड़ौदा जाते / जहाँ से मुनि श्री पंडितजी की सुविधानुसार अध्ययन करके वापस 6 माईल तक पैदल चलकर छाणी आ जाते ! कैसी तीव्र अध्ययन रुचि होगी इन महात्मा की !!... आगे जाकर इन महात्मा ने आचार्य की पदवी प्राप्त की / पहान शासन प्रभावक बने / 105 वर्ष के दीर्घायुषी बने / उसमें अन्तिम 33 वर्ष लगातार वर्षीतपों में व्यतीत किये !!! उससे पहले 26 चातुर्मासों के दौरान हमेशा चातुर्मास में एकांतरित उपवास करते थे / पूज्यश्री जाप-ध्यान Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 और हठयोग के भी अच्छे अभ्यासी थे / उन्होंने 85 वर्ष की वृद्धावस्था में पैदल गिरनार तथा सिद्धगिरि की यात्रा की थी। छोटी उम्र से ही वैरागी ऐसे पूज्यश्री को बड़ों के अति आग्रह से निरूपायता से शादी करनी पड़ी। परंतु पूज्यश्रीने 3 वर्ष के अनासक्त वैवाहिक जीवन के बाद स्वयं मुंडन करवाकर साधु-वेष पहन लिया। परिवार जनों ने विरोध किया तो तीन दिन तक भूखे प्यासे बन्द कमरे में रहना मंजूर किया, किन्तु अपने निर्णय में अडिग रहे / आखिर परिवार जनों ने संमति दी / उनकी दीक्षा के पाँच वर्ष बाद उनकी धर्मपत्नी, सास तथा साले ने भी संयम ग्रहण किया। ढाई अक्षर के इनके नाम को सभी मुमुक्षु आत्मा अवश्यमेव चाहते हैं / कहो कौन होंगे ये आचार्य भगवन्त ? 211 विहार में ८५वी ओली के साथ हमेशा चार बार वाचना एवं व्याख्यान देते मुनिवर। कुछ वर्ष पूर्व दो माह के समय में अलग-अलग छह गाँवों में थोड़े थोड़े दिनों के अन्तर में दस ठाणों के एक ग्रुप के साथ मिलना हुआ / . वैराग्यदेशनादक्ष के रूप में सुप्रसिद्ध इन आचार्य भगवंतश्रीने गृहस्थावस्था में प्रेम सगाई करने के बाद जिनवाणी श्रवण के प्रभाव से वैराग्य प्राप्त कर शादी किये बिना ही संयम ग्रहण कर लिया ! इनके साथ इनके प्रभावक शिष्यरत्न हैं, जो इनके प्रत्येक कार्य में दाहिने हाथ की तरह अच्छा सहयोग दे रहे हैं / इन महात्माने ८५वीं ओली का पारणा चैत्र महिने के गर्मी के दिनों में किया। यह महात्मा रोज के चालु विहारों में भी ८५वीं वर्धमान आयंबिल तप की ओली के साथ व्यारव्यान देते और सहवर्ती महात्माओं को दशवैकालिक सूत्र आदि चार अलग-अलग विषयों पर वाचना देते / विहार ... लगातार आयंबिल ... व्याख्यान ... चार बार वाचना ... इन सब के बाबजूद भी इन महात्मा के मुख के उपर जो प्रसन्नता और सहजता थी, वह वास्तव में अनुमोदनीय धी / नव आगंतुकों को खयाल भी नहीं आता कि इन महात्मा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 485 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 की इतनी दीर्घ ओली चलती होगी !... इसके अलावा भी लेखन - जाप, युवा शिबिर, नवपदजी की सामूहिक ओली, प्राचीन साहित्य का उद्धार, विविध महोत्सवों इत्यादि का आयोजन भी मुख्य रूप से यह महात्मा संभालते थे / आचार्य भगवंत का स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद इन महात्मा के ऐसे साथ सहकार से वे राहत महसूस करते हैं / परिणाम स्वरूप ऐसे विनीत शिष्य पर इनकी पूरी-पूरी कृपा बरसे यह सहज है / धन्य शासन मंडन मुनिवर !..... इन महात्मा के दर्शन तो कल्याणकारी हैं ही परन्तु उनके नाम का पूर्वार्ध भी कल्याण रूप है। उत्तरार्ध अर्थात् 'जय वीयराय' प्रार्थना सूत्र द्वारा वीतराग परमात्मा के पास जो 13 लोकोत्तर माँगें की जाती हैं, उसमें सबसे अन्तिम बात का सूचन करता हुआ दो अक्षर का शब्द ! 212 युवाप्रतिबोधक पदस्थ त्रिपुटी सामान्यतः ऐसा कहा जाता है कि आज की युवा पीढ़ी आधुनिक शिक्षण और विज्ञान के नित-नये आविष्कारों में भ्रमित होकर धर्म से विमुख होती जा रही है / साधु साध्वीजी के प्रवचनों में भी अधिकतर पौढ या वृद्ध श्रोता ही मर्यादित संख्या में दिखाई देते हैं / ... यह बात कई अंशों में सही होने के बाबजूद भी अपवाद रूपमें आज भी कुछ ऐसे विद्वान् संयमी महात्मा हैं जिन्होंने आज के युवा वर्ग की नब्ज परख ली है / परिणाम स्वरूप वे धर्म के अमूल्य तत्त्वों को आधुनिक अभिनव शैली में, जोशीले अंदाज में पेश करके हजारों युवकों को केवल धर्म सम्मुख ही नहीं अपितु धर्म में ओतप्रोत भी कर रहे हैं / उनके रविवारीय प्रवचनों और शिबिरों में हजारों युवक इकट्ठे होते हैं / बड़े - बड़े प्रवचन होल भी छोटे पडते हैं / परिणाम स्वरूप कई युवक गैलेरी या सीढियों पर खड़े रहकर उनके प्रवचन अमृत का पान करते हैं।" व्हाईट एन्ड व्हाईट" वस्त्रों में सज्ज हजारों शिबिरार्थी युवक बिना माईक दिये जाते प्रवचनों को पूरे अनुशाशन में एकतान बनकर सुनते हैं / उसी तरह कितनी बार तो एक Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 साथ हजारों युवक व्यसनों को तिलांजलि देते और विविध प्रकार के व्रतनियम प्रसन्नता से हाथ जोड़कर स्वीकार करते दिखाई देते हैं / यह देखना भी जीवन का अद्भुत सौभाग्य गिना जाता है / जिनके पास सैंकड़ो हजारों युवकोंने सरलतापूर्वक अपने जीवन की काली डायरी के तमाम पृष्ठ खोलकर भव आलोचना-प्रायश्चित स्वीकार कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाया है। जिनके प्रवचनों ने विद्यालयों- कोलेजों के अलावा जेलों में भी कैदियों पर मानो वशीकरण किया है और उन कैदियों को मांस - शराब आदि महाव्यसनों के शिकंजों में से सदा के लिए मुक्ति दिलायी है / जिन्होंने आधुनिक आकर्षक शैली में सैंकड़ों पुस्तकों लिखकर युवाओं की मोहनिद्रा उडायी है / जो केवल विद्वान् या वाचाल वक्ता ही नहीं, साथ में सुसंयमी भी हैं / ऐसे महात्मा के बारे में विचार करते हैं तब मू. पू. तपागच्छ के एक ही समुदाय के तीन-तीन पदस्थ महात्मा तुरन्त आंखों के सामने आ जाते हैं / कहो कौन होंगे ये महात्मा ? अन्य समुदायों में भी कोई - कोई विरले विद्वान्-वक्ता-लेखक - संयमी मुनिवर हैं / कितनों की वक्तृत्वशक्ति मध्यम प्रकार की है, लेकिन लेखन शक्ति अद्भुत है / सिद्धहस्त लेखक ऐसे उनकी कलम से आलेखित पुस्तक को जो एक बार हाथ में ले तो पूरी पढकर ही उठने का मन होता है ! ... कितने ही महात्माओं के दैनिक प्रवचनों में भी विशाल होल संपूर्ण भर जाता है / इस प्रकार संयम की साधना द्वारा स्वोपकार के साथ विविध शक्तियों के द्वारा विशिष्ट परोपकार और शासन प्रभावना कर रहे सभी महात्माओं की भूरि- भूरि हार्दिक अनुमोदना / 213 आजीवन मौन व्रत / गुजरात में जूनागढ जिले के परब वावड़ी गाँवमें सं. 1969 में जन्म लेकर 29 वर्ष की उम्र में स्थानकवासी समुदाय में दीक्षित हुए एक महात्माने अपने जीवन में निम्नलिखित अनुमोदनीय आराधना की है। - (1) लगातार 14 वर्ष मौन के साथ जाप Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 487 . Ioc . बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (2) लगातार 19 वर्ष वर्षांतप (3) लगातार 3 वर्ष पोली अठ्ठम / (4) लगातार 3 वर्ष छठ से वर्षांतप (5) लगातार 1000 आयंबिल (6) लगातार 19 वर्ष पानी का त्याग !! (केवल छाछ की आछ लेते) (7) उन्होंने सं. 2049 का.सु. 5 से आजीवन मौन व्रत स्वीकार किया है। उनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ "हर्ष" होता है / उत्तरार्ध एक रंग विशेष का नाम है / इन महात्मा का इसी वर्ष (सं. 2055 में ) कालधर्म हुआ है। 50 वर्ष के दीक्षा पर्यायवाले एक महात्मा (उ. व. 70) पिछले 25 वर्ष से मौन के साथ आत्मसाधना कर रहे हैं / वे शुरुआत में 5 वर्ष तक पूरा दिन खड़े खड़े काउस्सग्ग में ही रहते थे / केवल दो बार 2-2 रोटी एवं डेढ कप दूघ ही उभड़क आसन में बैठकर वापरते थे / वे अभी पालिताना में विराजमान हैं / उनके दर्शन का लाभ पालिताना में 3 बार सामूहिक 99 यात्रा के दौरान कई बार मिला था / इनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ "राजा" होता है। उत्तरार्ध का अर्थ "मैल रहित" होता है / इनके गुरुदेव श्री भी एक ध्याननिष्ठ आचार्य भगवंत थे / 225 गरु आजा पालन का वजाड आदर्श यह थी गुरु-शिष्य की बेजोड़ जोड़ी / जिन्हें देखकर कई लोगों Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 को महावीर स्वामी भगवान और गौतम स्वामी की जोड़ी की याद आ जाती थी ! गुरु थे, 36 करोड 63 लाख नवकार जाप के आराधक सूरिजी। शिष्य भी आगे जाकर तपस्वी सूरीश्वर बने / उनका अपने गुरुदेव के प्रति अनन्य समर्पण भाव था / वे बिना विकल्प गुरुदेव की किसी भी आज्ञा का 'तहत्ति' करते इतना ही नहीं, किन्तु गुरुदेवश्री की इच्छा मात्र को भी इंगित आकार से समझकर उसके अनुसार वर्तन कर गुरुदेव को हमेशा प्रसन्न रखते थे / परिणाम स्वरूप गुरुदेव की कृपा भी शिष्य के उपर अनराधार बरसती / एक दिन की बात है / शिष्य ने 16 उपवास के पारणे के दिन गुरुदेव श्री को वंदन करके नवकारसी का पच्चक्खाण माँगा / गुरुने पूछा - "आज नवकारसी का पच्चक्खाण कैसे ?" शिष्य ने कहा - "गुरुदेव ! आज मेरा सोलहभत्ते का पारणा है इसलिए ..." गुरु ने कहा "तेरे में ऐसी स्फूर्ति दिखाई देती है कि तू अभी और 16 उपवास कर सकता है, तो फिर" ... सुविनीत शिष्य ने तुरन्त ही गुरुवचन का सम्मान करते हुए कहा 'तहत्ति , गुरुदेव ! सोलह उपवास के पच्चक्खाण दो / " शिष्य की शक्ति एवं समर्पणभाव की परख करनेवाले गुरुदेव ने भी तुरन्त ही 16 उपवास का पच्चक्खाण एक साथ दे दिया। शिष्यने भी अंजलि जोड़कर प्रसन्नचित्त से पच्चक्खाण का स्वीकार किया और नित्य बढते भावों से दूसरे 16 उपवास भी उल्लासपूर्वक पूर्ण किये !!! धन्य गुरुदेव ....! धन्य शिष्य ...! सहवर्ती मुनि तो यह प्रसंग देखकर आश्चर्य एवं अहोभाव से इस गुरु-शिष्य की बेजोड़ जोड़ी को निहारने लगे !!! आज यह गुरु-शिष्य की जोड़ी जीवित नहीं है / लगभग 22 वर्ष पहले उनका कालधर्म हुआ / किन्तु आज भी वे अपनी आराधना और सद्गुणों के कारण हजारों लोगों के हृदय में बसे हुए हैं / कहो कौन होंगे, यह गुरु शिष्य ? इन गुरुदेव के नाम के अन्य समुदाय में एक आचार्य भगवंत अभी विद्यमान हैं / शिष्य का चार अक्षर का नाम शंकर का पर्यायवाची नाम है / अब तो खोज लोगे ना ?! Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 489 रोज दो-तीन घंटे प्रमुजी के समक्ष खड़े खड़े 216/ | वंदना... अनुमोदना .. गहाँ के अद्भुत आराधक प्रर्वतक पद पर विराजमान एक महात्मा का कई वर्षों से एक अद्भुत नित्यक्रम चल रहा है। वे प्रतिदिन जिनालय में प्रभुजी के समक्ष दो तीन घंटे खड़े खड़े परमात्म वंदना ... महापुरुषों को वन्दना ... सत्पुरुषों के सुकृतों की अनुमोदना ... तथा स्वदुष्कृतों की गर्दा ... अत्यंत गद्गद हृदय से भाव विभोर बनकर मंद स्वर से उच्चारपूर्वक करते हैं, तब उनकी आंखों में से अहोभाव ... तथा पश्चात्तापभाव जन्य अश्रुओं की धारा बहती है / इस अश्रुधारा में अनगिनत कर्मों का कचरा साफ हो जाता है / वे इस आराधना द्वारा अद्भुत चित्त प्रसन्नता की अनुभूति कर रहे हैं। इनके शिष्य भी इसी प्रकार की आराधना कर रहे हैं / इनके द्वारा इस प्रकार की आराधना करवाने से कई संघों के लोगों ने आनंद की अनुभूति की है / इन महात्मा ने बाल योग्य शैली में "संस्कार धन' नाम की पुस्तिकाओं का सैट तैयार करवाया है, जो बालकों में जैन तत्त्व के संस्कार डालने में कारगर साबित हुआ है / पूज्यश्री ने दूसरी भी कई पुस्तकें लिखी हैं / उसमें से कुछ पुस्तकें काफी लोकप्रिय हुई हैं / इनके सुमधुर प्रवचनों ने भी कइयों की जीवन दिशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उपरोक्त प्रवर्तक महात्मा के नाम का पूर्वार्ध रत्नत्रयी के एक तत्त्व का सूचन करने वाला है / जब कि उत्तरार्ध का अर्थ "छिपा हुआ" ऐसा होता है। पूज्यश्री के लघुबंधु आचार्य भगवंत के नाम के पूर्वार्ध का अर्थ 'कल्याण' होता है / उत्तरार्ध उपर अनुसार जानना / वन्दन हो इन बंधु युगल महात्माओं को / Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 217 केवल पांच साधारण व्यों से यावज्जीव एकाशन करने का अभिग्रह उपरोक्त प्रवर्तक महात्मा के दो शिष्यों का यावज्जीव एकाशन करने का अभिग्रह है। एकासने में भी केवल पाँच द्रव्य ही वापरना / उसमें कमी हो सकती है, किन्तु अधिकता तो नहीं ही !..... इन पाँच द्रव्यों में भी निश्चित किये हुए रोटी, दाल, चावल, सब्जी, तथा कैसा सुन्दर वृत्तिसंक्षेप तप !!! कैसा सुन्दर रसेन्द्रिय तथा आहार संज्ञा के उपर नियंत्रण !!! सभी मिठाई-फल-मेवा वगैरह त्याग करके केवल शरीर को परिमित किराया देकर उसमें से ज्यादा से ज्यादा साधना का कस निकालने का कैसा सुंदर प्रयास !!! हमेशा एक ही प्रकार के द्रव्य वापरने के बावजूद भी परिवर्तन की कोई अपेक्षा नहीं, कोई परेशानी नहीं / कैसी सुंदर अंतर्मुखता!.. आत्मानंदिता!.. धन्य है इन महात्माओं को !... 218 | अपरिचित प्रदेशों में उग्र बिहारों के बावजूद भी निर्दोष गोचरी के गवेषक महात्मा !! सम्मेतशिखर महातीर्थ का छ'री' पालित संघ निकला था। उसमें से इस समुदाय के दो महात्मा संघके रसोड़े से गोचरी नहीं बहोरते थे किन्तु 1-2 कि.मी. दूर गाँव से जैन या अजैन घरों में से निर्दोष गोचरी बोहराकर वापरते थे !... यह महात्मा संघमें हमेशा मिठाई-नमकीन आदि मन पसन्द वस्तुओं Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ____491 का स्वेच्छा से परित्याग करके ... एक ही स्थान से सारी गोचरी न बोहरकर, अनेक घरों में से थोड़ा थोड़ा बोहरकर, सच्चे अर्थ में गोचरी की गवेषना करते। इनकी इस क्रिया से कइयों के हृदय में अहोभाव तथा अनुमोदना के द्वारा धर्म के वीज का रोपन हो जाता था ! ... धन्यहै उन महात्माओं को ! दोनों महात्माओं के नाम का उत्तरार्ध ज्योतिष में सबसे महत्व के ग्रह का सूचन करता है / एक महात्मा का नाम प्रभु महावीर स्वामी के समय के एक सुप्रसिद्ध राजर्षि का नाम है / उन्होंने केवल इरियावही तक आने के बावजूद दीक्षा ली और अभी हमेशा 5 गाथा याद करते हैं / तथा 500 गाथा का स्वाध्याय करते हैं / वे एकाशने से कम का पच्चक्खाण नहीं करते हैं। उनका गुरु समर्पणभाव अद्भुत है / वे कई बार रात्रि में 3-4 घंटे काउस्सग्ग करते हैं। दूसरे महात्मा के नाम का पूर्वार्ध, सिद्धचक्र पूजन में जिन 28... का पूजन होता है, वह है / 219|| शुद्ध गोचरी के अभाव में तीन-तीन उपवास !!! इन महात्मा ने कई वर्षों तक राजस्थान में ही विचरण किया / वे नित्य एकाशन करते थे / इन्होंने वर्धमानतप की 70 ओलियाँ भी की थीं। वे शुद्ध गोचरी पानी की गवेषणा तथा निर्दोष गोचरी नहीं मिलने पर 3-3 उपवास कर लेते, किन्तु अपने निमित्त से बनी गोचरी का स्वप्न में भी ख्याल नहीं करते ... उनकी निश्रामें प्राय: हर वर्ष 2-3 उपधान होते, उसमें अच्छी संख्यामें आराधक शामिल होते थे / उनके शांत और वात्सल्य युक्त स्वभाव के कारण अनेक आराधक उनकी निश्रा में आराधना करने हेतु उत्कंठित रहते थे / वे दो वर्ष तक आचार्य पद पर रहे / उनका सं. 2045 में चैत्र सुदि 5 के दिन शंखेश्वर तीर्थ में समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ / उनके दीक्षा लेने के कुछ वर्ष बाद उनके पिता श्री ने भी दीक्षा ली थी / वे नवकार महामंत्र के बेजोड़ आराधक, अध्यात्मयोगी प.पू. "पन्यासजी महाराज" के शिष्यरत्न थे / Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उनके नाम के पूर्वार्ध अरिहंत परमात्मा के लिए उपयोग होता दो अक्षर का शब्द है तथा उत्तरार्ध का अर्थ "कांति-तेज" होता है। _____ वंदन हो शुद्ध एषणासमिति के आराधक महात्मा को ! 220 केवल चाय-दूध खाखरे से नित्य एकाशन || कर्मसाहित्यनिष्णात, नैष्ठिक ब्रह्ममूर्ति, सच्चारित्र-चूड़ामणि, महान आचार्य भगवंत के एक दीर्घचारित्री शिष्य वर्षों से नित्य एकाशन कर रहे हैं। वे सवेरे नवकारसी के समय केवल दो तरपणी - चेतना लेकर एकाशन की गोचरी लेने निकल जाते हैं / (झोली में दूसरे पात्र लेते भी / नहीं हैं) एक चेतना -तरपणी में चाय + दूध तथा खाखरे बोहरते / खाखरों का चूर्ण करके चाय-दूध में डाल देते हैं / दूसरी तरपणी में घरों में से ही उबाला हुआ पानी बोहरकर लाते हैं / वे केवल इन्हीं द्रव्यों से एकाशन करते हैं / जब कभी पानी बढ जाये तो मुश्किल से 2-4 माह में कपडोंका काप निकाल देते हैं / पूज्यश्री जिनालय तथा प्रतिक्रमण में भाव विभोर होकर स्तवन -सज्झायादि गाते हैं / ... - वे अभी अहमदाबाद में बिराजमान हैं / पूज्य श्री तीर्थंकर परमात्माओं के कल्याणकों की सुंदर आराधना श्री संघों को कराते रहते हैं / इनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ 'चरित्र' होता है तथा उत्तरार्ध का अर्थ 'कांति-तेज' ऐसा होता है / 221 - परिणतिलक्षी साधुता / __5 वर्ष पूर्व सुरेन्द्रनगर में एक मुनिवर के दर्शन हुए थे / उनके जीवन में अनुमोदनीय अंतर्मुखता देखने को मिली / सतत आत्मलक्षी Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 493 आराधना-साधना का ही एक मात्र मुख्य लक्ष्य / वे अपने अंतरंग परिणामों का ही विशेष अवलोकन करते हैं / उन्हें वाह-वाही की बिल्कुल परवाह नहीं है / नामना की कामना नहीं / वे आध्यात्मिक स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन में ही रचे-पचे रहते हैं / उनकी उस समय 85 के आसपास की वर्धमान आयंबिल तप की ओली चालु थी / वे आयंबिल खाते में बोहरने नहीं जाते थे। घरों में से ही जो सहजता से कल्पनीय मिलता है वह ही वे बोहरते हैं / पानी भी पानीखाते का नहीं लेते हैं / पूज्यश्री वर्ष में एक बार ही कपड़ों का काप निकालते हैं / उन्हें किसी महोत्सवादि का शौक नहीं हैं / व्याख्यान देने का भी उन्हें रस नहीं है। पूज्यश्री की अध्ययन -अध्यापन में अपूर्व रुचि है / पूज्यश्री का एक ही मुख्य लक्ष्य है कि किस तरह स्वयं के अध्यवसाय उत्तरोत्तर निर्मलनिर्मलतर से निर्मलतम बनें / पूज्यश्री इसके लिए जिनाज्ञा का सूक्ष्म रूप से पालन करते हैं / युवावस्था होने के बावजूद कुतूहलवृत्ति या उत्सुकता का नामोनिशान नहीं / अपने गुरुजनों का भी इन्होंने अच्छा विश्वास संपादन किया है / उन्होंने इनकी अनुकुलता अनुसार 2-3 महात्मा के साथ विचरण करने की सुविधा कर दी है। विशिष्ट विद्वत्ता होने के बावजूद उसके प्रदर्शन से बचने हेतु व्यारव्यानादि के लिए सहवर्तियों को ही आगे करते हैं / ऐसा आत्मलक्षी परिणतिलक्षी, अंतर्मुखी आदर्श संयम जीने वाले इन महात्मा के नाम का पूर्वार्ध का अर्थ 'दुनिया' होता है / उत्तरार्ध का अर्थ "समकित" या देखना ऐसा होता है / सुविशुद्ध संयममूर्ति इन महात्मा को हार्दिक वंदन !... वे व्याख्यानवाचस्पति सुविशाल गच्छाधिपति के रूपमें सुप्रसिद्ध आचार्य भगवंत श्री के समुदाय को अलंकृत कर रहे हैं / पुनः जिनशासन के शणगार समान इन महात्मा की भूरि भूरि हार्दिक अनुमोदना / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 दीक्षा की खदान - नाम लिया जान ??? इन जगत में अनेक प्रकार की खदानें विद्यमान हैं / आपने पत्थर - सोने- रूपे या हीरों की खदान के बारे में तो सुना होगा / किन्तु दीक्षा की खदान कहीं है ऐसा सुना है ? गुजरात में एक ऐसा गाँव आया हुआ है, जो दीक्षा की खदान के रूपमें सुप्रसिद्ध है। 80 जितने घरों की आबादी वाले उस गाँव में से 160 जितनी आत्माओं ने दीक्षा अंगीकार की है !!!... उसमें से कोई आचार्य भगवंत, उपाध्याय भगवंत, पंन्यास या गणिवर्य वगैरह बनकर जिनशासन की प्रभावना कर रहे हैं / . वहाँ प्राय: एक भी ऐसा जैन घर नहीं है, जिसमें से किसी ने . दीक्षा नहीं ली हो !... धन्य है इस गाँव की घरती को और इस गाँव की रत्नकुक्षि माताओं को कि जहाँ ऐसे संयमी रत्न पके हैं / मात्र 'दो अक्षर के इस गाँव के नाम को जिसने जान लिया, वास्तव में उसने कुछ पा लिया और जिसने अभी तक नहीं जाना उसने बिलौया केवल पानी ही !!! इस गाँव के तीन-तीन जिनालयों के दर्शन जीवन में एक बार तो अवश्य करने जैसे हैं / सपरिवार तथा सामूहिक संयम स्वीकार / / ... प्राचीन कालमें सैंकड़ों आत्माओं के एक साथ संयम स्वीकारने के जंबूस्वामी वगैरह के अनेक द्रष्टांत शास्त्रों में देखने को मिलते हैं / एक ही परिवार के सभी सदस्यों के संयम स्वीकारने के भी Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 495 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अनेक दृष्टांत देखने को मिलते हैं / जिनको इन दृष्टांतों में अतिशयोक्ति के दर्शन होते हैं, उनके लिए वर्तमान काल के निम्न दृष्टांत विचारणीय हैं / (अ) एक ही परिवार के 23 सदस्यों की दीक्षा !!! श्वे.मू.पू. तपागच्छीय सागर समुदाय में एक ही परिवार के 23 आत्माओं ने संयम स्वीकार किया है। उनके संयमी नाम और परस्पर सांसारिक संबंध निम्नलिखित हैं। (1) गणिवर्य श्री जिनरत्नसागरजी म. (नं. 3 के सगे भाई) (2) मुनिराज श्री अपूर्वरत्नसागरजी म. (नं. 1 के चाचा के पुत्र) (3) मुनिराज श्री जयरत्नसागरजी म. (नं. 1 के सगे भाई) (4) मुनिराज श्री जिनरत्नसागरजी म. (नं. 1 के पत्र) (5) मुनिराज श्री चन्द्ररत्नसागरजी म. (नं. 1 के पुत्र) (6) मुनिराज श्री धर्मरत्नसागरजी म. (नं. 1 के पुत्र) (7) साध्वी श्री चतुरश्रीजी (नं. 1 की दादी माँ) (8) साध्वी श्री इन्दुश्रीजी (नं. 7 की पुत्री) . (9) साध्वी श्री हेमेन्द्र श्रीजी (नं. 1 के चाचा की पत्री) (10) साध्वी श्री सौम्ययशाश्रीजी (नं. 11 की सगी बहन) (11) साध्वी श्री सौम्यवदनाश्रीजी (नं. 10 की सगी बहन) (12) साध्वी श्री अर्पिताश्रीजी (नं. 10 की सगी बहन) (13) साध्वी श्री गुणज्ञाश्रीजी (नं. 6 के सगे भाई की पुत्री) (14) साध्वी श्री सुरेखाश्रीजी (नं. 13 की सगी बहिन) (15) साध्वी श्री मुक्तिरसाश्रीजी (नं. 13 की सगी बहिन) (16) साध्वी श्री सुवर्षाश्रीजी (नं. 1 के सगे चाचा की पौत्री) (17) साध्वी श्री पूर्विताश्रीजी (नं. 6 के सगे छोटे भाई की पुत्री) (18) साध्वी श्री तीर्थरत्नाश्रीजी (नं. 1 की धर्मपत्नी) (19) साध्वी श्री चरित्ररत्नाश्रीजी (नं. 3 की धर्मपत्नी) (20) साध्वी श्री गुणरत्नाश्रीजी (नं. 1 की पुत्री) (21) साध्वी श्री अपूर्वरसाश्रीजी (नं. 1 के सगे काकाई बहिन की पुत्री) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (22) साध्वी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी (नं. 1 के सगे भाभी की बहिन) (23) साध्वी श्री कमलप्रभाश्रीजी (नं. 1 के मौसी की पुत्री) संसारी अवस्था में मध्यप्रदेश के इंदोर जिले में गौतमपुरा वगैरह गाँवों में जन्मे हुए उपरोक्त मुनिवरों के साथ सं. 2050 की अक्षयतृतीया के दिन पालिताना में मुलाकात हुई / तब उसमें से मुनिराज श्री चंद्ररत्नसागरजी के 800 आयंबिल हुए थे और आगे बढ़ने की भावना थी। वे प्रायः दो ही द्रव्यों से ओली करते और 2 घड़ी पहले ही पानहार का पच्चक्खाण ले लेते हैं / उन्होंने 5 वर्ष से वनस्पति बन्द की हुई थी। वे पूरे चातुर्मास में कठोर (द्विदल) नहीं वापरते थे / हाल में ही उनके लगातार 2700 आयंबिल का पारणा धार तीर्थ (म.प्र.) में हुआ है। अन्य मुनिवरों ने भी यथायोग्य तप-त्याग तथा ज्ञानाभ्यास में अच्छी प्रगति साधी है। (ब) एक परिवार के आठों ही सदस्यों की एक साथ दीक्षा - पहले संतानों ने दीक्षा ली हो और बादमें माता- पिताओंने भी दीक्षा ली हो, ऐसे तो अनेक दृष्टांत वर्तमानकाल में देखने को मिलेंगे / एक या दो संतानों के साथ माता पिताने दीक्षा ली हो, वैसे दृष्टांत भी कई देखने को मिलेंगे / अकेले कच्छ जिले का विचार करें तो भी भूज, कोड़ाय, सांधव वगैरह गाँवों में वैसे परिवार हैं / जब समग्र भारत की गिनति करने जायें, तो यह सूची काफी लम्बी हो जाएगी / उसमें से एक विशिष्ट उदाहरण का विचार करें, जिसमें अपनी छह संतानों (2 सुपुत्रों एवं 4 सुपुत्रियों) के साथ माता-पिता (कुल 8) ने संयम ग्रहण किया हो, वैसा भी दृष्टांत विद्यमान है। . शंखेश्वर तीर्थ के पास आये झींझुवाड़ा में आज से 22 वर्ष पहले उपरोक्त प्रकार के एक परिवार ने शासन प्रभावक, प.पू.आ.भ. श्री ॐकारसूरीश्वरजी के वरद हस्तों से संयम ग्रहण किया था, और आज सुन्दर चारित्र और ज्ञानाभ्यास के द्वारा आत्मकल्याण के साथ सुन्दर शासन प्रभावना कर रहे हैं। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 - 497 (क) एक साथ 26-24-25 तथा 31 दीक्षाएँ ! आज सामूहिक विवाह का जमाना चल रहा है / एक साथ 2550 युगल दाम्पत्य सूत्र में जुड़ते हैं / जब कि जिनशाशन में आज भी अलग-अलग गांवों के अनेक दीक्षार्थियों की एक ही गाँव में, एक साथ संयम स्वीकारने की घटनाएं बनती हैं / वि.सं. 2033 में महाराष्ट्र में अमलनेर शहरमें प.पू.आ.भ. श्री विजयरामचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. तथा वर्धमान तपोनिधि प.पू..भ. श्रीमद्विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के वरद हस्तों से अलग-अलग गाँवों के कुल 26 मुमुक्षओं ने रजोहरण स्वीकार किया तब कैसे माहोल का सर्जन हुआ होगा !! उसकी तो कल्पना ही करनी पड़ेगी / उपरोक्त व्याख्यान वाचस्पति पूज्यश्री की निश्रा में खंभातमें एक साथ 25 दीक्षाएँ हुई थीं। उसी प्रकार कच्छमें कटारीया तीर्थमें प.पू.आध्यात्मयोगी आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा, के वरद हाथों से विविध गाँवों के कुल 24 मुमुक्षुओंने एक साथ संयम को स्वीकार कर संसार को अलविदा किया तब भी अद्भुत शासन प्रभावना हुई थी। दिगंबर संप्रदाय में आचार्य श्री विद्यासागरजी के हाथों से 25 मुमुक्षुओं ने दीक्षा अंगीकार की। तेरापंथी आचार्य श्री तुलसी की निश्रामें 31 जनों ने एक साथ दीक्षा अंगीकार की थी !... उन्होंने कुल 800 जनों को तेरापंथमें दीक्षा दी थी। (ड) आठ सगी बहिनों द्वारा संयम ग्रहण : मूल कच्छ - वागड़ के रामावाव गाँव की ग्रेज्युएट हुई 8 सभी बहिनोंने कुमारिका अवस्थामें ही स्थानकवासी समुदाय में संयम को स्वीकार किया था / सभी बहिनों ने इतनी बड़ी संख्या में संयम ग्रहण किया हो यह घटना भगवान श्री महावीर स्वामी के शासनमें प्रायः प्रथम है / (पहले श्री स्थूलिभद्रस्वामी की सात बहिनों ने दीक्षा ली थी ) इन आठ बहिनों के नाम वगैरह इसी पुस्तक के द्वितीय भागमें प्रकाशित हुए हैं। (देखिए दृष्टांत नं.१६३) बहुरत्ना वसुंधरा - 3-32 . Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कंवली के काल के पूर्व ही उपाश्रय में प्रवेश करने का नियम / (दृष्टांत नं. 224 से 259 के दृष्टांत प.पू. पन्यासप्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. द्वारा लिखित "मुनि जीवन की बालपोथी भा.१ / " में से साभार उद्धृत किये गये हैं / ) एक मुनिवर का विहार में कंबली का काल होने से पूर्व ही बस्ती में प्रवेश कर देने का नियम था / एक बार उन्होंने एकाशन करके भीषण गर्मी में बारह बजे बिहार शुरू कर दिया। शाम होते कंबली के काल से 10 मिनट की देर थी। उन्होंने भारी स्फूर्ति से विहार किया और समय से एक मिनट पहले बस्ती में प्रवेश कर दिया। उनके मुख पर प्रतिज्ञा पालन का अपार आनंद था ! 8800008cccdese 225 धन्य है इस महाकरुणा को महाराष्ट्र में एक आचार्य भगवंत को तेज गति से आती एक टेक्सी ने चपेट में लिया / जोरदार धक्का लगने से पूज्यश्री सोलह फीट दूर जा गिरे / उनके पैर में फेक्चर हो गया था / मार की असह्य वेदना में भी पूज्यश्री ने अपने शिष्यों को कहा - "उस ड्राइवर को कुछ नहीं करना / वह बेचारा एकदम निर्दोष है / मेरा सभी से मिच्छामि दुक्कडं / ' धन्य है, इस महाकरुणा. को ! 226 अनुमोदनीय सरलता और पापभीरता एक महात्माने आधुनिक जैन नाटक की जोरदार तरफदारी की थी। परन्तु उन्होंने अपने कालधर्म के नजदीक के दिनों में अपनी भूल का निकटवर्ती मुनिके पास हार्दिक एकरार किया था / धन्य है उनकी सरलता को / पापभीरता को ! Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 499 227|| अविधि की असंच और संयम की कडरता कुछ समय पूर्व ही कालधर्म प्राप्त हुए, एक महात्मा स्वास्थ्य के कारण तय किये हुए चातुर्मास स्थल पर चातुर्मास करने नहीं जा सके / वह चाहते तो डोली में बैठकर जाया जा सकता था, लेकिन वह उन्हें मंजूर नहीं था। किन्तु अन्य स्थल पर चातुर्मास करने की अविधि उन्हें पीड़ा पहुँचाती थी / मानो इसीलिए ही उन्होंने चौमासी प्रतिक्रमण से पूर्व ही वह स्थान छोड़ दिया ! धन्य है, उनकी संयम कट्टरता को ! 3888 ओपरेशन के अवसर पर भी आधाकर्मी अनुपान का त्याग / / / ओपरेशन पूरा होने के बाद होश में आये आचार्य भगवंत के पास विनीत शिष्य ने गर्म प्रवाही ला रखा / अप्रमत्त आचार्यश्रीने मौन रहकर संकेत से पूछा कि यह प्रवाही कहाँ से लाये :2 मेरे लिए किसी भक्त के वहाँ से विशेष रूप से नहीं बनाया ना ? शिष्य ने 'हाँ' कहा, कि आचार्य श्री ने तुरन्त ही प्रवाही लेने से स्पष्ट मना कर दिया / आचार्यदेव के अद्भुत जागरण का हार्दिक अनुमोदन / झूठे मुंह बोले जाने पर 25 खमासमण देते आचार्यश्री हृदय रोग का तीसरा हमला होने के बाद भी 84 वर्ष के यह आचार्य भगवंत एक दिन पंचांग प्रणिपात की विधि सहित खमासमण दे रहे थे। शिष्य ने विनय भाव से कारण पूछा और ऐसी स्थिति में यह श्रम न करने की आग्रहपूर्वक विनंती की। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 किन्तु आचार्य देव नहीं ही माने / उन्होंने शिष्य से कहा कि, "मेरा झूठे मुंह नहीं बोलने का अभिग्रह है। आज सहसा बोला गया, मैं इसलिए 25 खमासमण का तय किया हुआ दण्ड भुगत रहा हूँ।" धन्य हैं उनकी व्रत पालन की निष्ठा को! 230 ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए निमित्तनाशकी अपूर्व सजगता - एक मुनिवर ने अपने शिष्यों के बह्मचर्य की सहज रक्षा के लिए उपाश्रय के पिछले भाग के खुले द्वार में लोहे की खड़ी सलाकाएँ लगा देने की प्रेरणा दी। उनकी आज्ञा को तुरन्त अमली बनाया गया। कैसी निमित्त-नाश की जागृति ! 231 रसनेन्द्रिय को जीतने वाले संत एक महात्मा को मिठाई वगैरह स्वाद प्रचूर द्रव्यों का तो त्याग था ही। किन्तु उन्हें फिर भी रोटी खाते समय भी राग होने का भय था; इसीलिए वे प्रत्येक रोटी पर एरंडी का तेल लगाकर ही वापरते थे। दूसरे महात्मा सभी वस्तुओं को एक पात्रमें इकट्ठा कर उसमें आयंबिल खाते का किरियाता डाल देते। तीसरे महात्मा मुँह में एक ही बाजु से प्रत्येक कौर उतारते अर्थात् किसी कौर को चबाते नहीं थे / जैसे एक और पक्षाघात हुआ हो उस प्रकार जान बुझकर वापरते / . राग को धूल चटाने वाले इन महात्माओं को वंदन ! वंदन ! Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 501 8 आधाकमी आहार दोष से बचने हेतु तीर्थभूमि में से शोध विहार तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की यात्रार्थ सहज रूप से गये हुए विशाल समुदाय को लेनी पड़ती आधाकर्मी 'भक्ति' देख बड़े गुरु ने तीन-चार दिन में ही यात्राएँ करके सबको विहार करवा दिया ! 233 अदभुत गुस्मक्ति वह महात्मा हमेशा ‘संवेग रंगशाला' का ठीक-ठीक समय तक स्वाध्याय करते / उनको जब भी गुर्वाज्ञा से अलग चातुर्मास करना पड़ता, तब वे चातुर्मास में हमेशा गुरु की दिशा में थोड़े कदम चलकर उनको वंदन करते / 88888 888 / 234 लगातार 32 वर्षीतप के पारणे में नाक सदध धान इन महात्मा ने लगातार 32 वर्ष तक वर्षीतप किये / वे उपवास के पारणे पर एकाशन करते, और पारणे में नाक से दूध वापर लेते। वे कहते कि इससे रस पर विजय मिलती है और आरोग्य प्राप्त होता है / "व्याधि अर्थात् कर्म निर्जरा का सुनहरा मौका / गुरुदेव पीठ में फिरते हुए वायु की पीड़ा को समाधि से सहन करते थे। शिष्य पानी के सेक की थैली लाये / गुरुदेव ने भारी स्वस्थता के साथ कहा कि, "मेहमान को मिठाई खिलाई जाती है, तीन-चार दिन रुकने का आग्रह किया जाता है, किन्तु डाम थोड़े ही दिये जाते हैं ? तुम तो 'वायु' नामके Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 मेहमान को सेक की थैली से डाम देने आये ? नहीं... मुझे यह सेक नहीं करना। यह तो कर्म निर्जरा का सुनहरा एवं बिना माँगा मौका है !" 236] बिना सहायक आदमी, नागपुर से शिखरजी की यात्रा! यह थी गुरु-शिष्य की बेजोड़ संयमी जोड़ी / उन्होंने नागपुर से शिखरजी की यात्रा प्रारम्भ की, किन्तु बिना सहायक आदमी के ही ? शिखरजी जाकर वापस आये ! सम्पूर्ण निर्दोष संयम जीवन की रक्षा के साथ ही ! 237 लघुता में प्रभुता बसे जोग में बैठे शिष्यों की गोचरी में थोड़ा आहार बढ गया / झूठा भी हो गया था / अब यदि परठने जायें तो दिन बढ जाये इस चिंता से शिष्य की आँखों में से आँसु आ गये / गच्छ के बड़े आचार्य भगवंत ने उनकी आँख के आँसु देख लिये / दूसरे किसी को कहे बिना उस शिष्य के पास बैठ गये और समय देखकर उसकी बढ़ी हुई गोचरी तुरंत . ही वापर गये / शिष्य की आँखों में आँसु अब भी आते थे / किन्तु वे हर्ष के आँसु थे / 238/ अद्भुत मितव्ययिता वे आचार्य भगवंत दैनिक समाचार पत्रों के ऊपर की साईड की बिना छपी पट्टियाँ काट कर ले लेते और उसके ऊपर अपनी रचनाएँ बनाते लिखते और संभाल के रखते / / Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 503 239 अद्भुत सादगी यह महात्मा घिसकर एक दम छोटी-हाथ में पकड़ भी न सकेंवैसी पेनसिल हो जाती तो भी उसका उपयोग कर ज्यादा कस निकालते / २४०|भक्तों को पैसे के काम का कहना बन्द ! __ महात्मा ने एक दिन किसी भक्त को कुछ ही रूपयों का काम बताया / इससे भक्त ने मुँह बिगाड़ दिया / बस उस दिन से उन महात्मा ने हमेशा के लिए भक्तों को पैसे के काम का कहना बन्द कर दिया। स्वोपकार के भोग पर 241|| परोपकार किया जाये क्या ? इन व्याख्यानकार महात्मा को किसी श्रावकने प्रश्न पूछा कि, "आपका सुंदर व्याख्यान सुनकर कोई आपके पास आपकी प्रशंसा करे तो आपका मान-कषाय जगता है क्या ? यदि आप सरलता पूर्वक 'हाँ' कहो तो मेरा दूसरा प्रश्न है कि, "जिससे अपना अहित हो और दूसरों का हित दिखाई दे, वैसी प्रवृति जैन साधु से हो सकती है क्या ?" वह व्याख्यानकार महात्मा यह सुनकर गहरे आत्मनिरीक्षण में डूब गये / उन्होंने तब से एकदम जरूरी कारणों के अलावा व्याख्यान के पाट का त्याग कर दिया / - वंदनीय पापभीरता वह थे, अत्यंत पापभीरु महाराज / जल्दी जल्दी तो डाक लिखना ही क्या ? किन्तु कभी निरूपायता से डाक लिखी जाती तो एक पोस्टकार्ड लिखते तो सही, किन्तु लिखने के बाद उनके पास वह कार्ड आठ दिन तक पड़ा रहता / Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कोई श्रावक वंदन करने के लिए आता तो झिझककर पूछते कि, "पुण्यशाली ! आप जिस ओर पोस्ट का डिब्बा है उस और जाने वाले हो क्या ? उस भक्त भाई के जवाब में कोई शंका लगती तो महाराज कार्ड डालने के लिए नहीं देते / उनका मन बोल उठता 'मेरे निमित्त से यह कार्ड डालने उस दिशामें जाये तो मुझे कितना दोष लग जाएगा ? किन्तु अन्त में कोई योग्य आदमी मिलता, तब ही वह कार्ड देते / किंतु फिर भी उनका मन बार-बार विचार तो करता ही रहता कि, 'उस डिब्बे में जब कार्ड गिरा होगा, तब वहाँ कोई जीव-जन्तु हुआ तो? मैंने तो वहाँ प्रमार्जना नहीं की / अरे ! कैसी विराधना हो गयी। धन्य है ऐसे महात्माओं को ? जो सही अर्थो में जिनशासन के प्रभावक हैं। 243|| दूध पाक से अन्जान खाखी महात्मा / इन खाखी महात्मा को पता नहीं था कि दूधपाक किसे कहा जाता ? कभी दूधपाक वापरने का अवसर आया तो उन्होंने वापरते हुए अपने शिष्य से कहा, "भाई ! यह कढ़ी तो बहुत मीठी लगती है !" 244|| आदर्श गुरु आज्ञा पालन गुरुदेव श्री की आवाज सुनते ही शिष्य दौड़ आते / कभी रात्रि में गुरुदेव आवाज देकर शिष्य को बुलाते / शिष्य 'जी' कहते और उनके पास पहुँच जाते / किन्तु वृद्ध गुरुदेव अर्धतन्द्रा में तुरंत सो जाते / एक बार शिष्य हाथ जोड़कर वहाँ ही खड़े रहे ! रात को दो बजे तब लघुशंका करने जगे गुरुदेव ने खड़े शिष्य को देखकर पूछा "कैसे खड़ा है ? कब से खड़ा है ?" शिष्यने कहा, "आपने बुलाया इसलिए आकर खड़ा हूँ। रात 9 बजे से खड़ा हूँ / " Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 आघाकर्मी मंग के पानी के प्रत्येक घुट के साथ निसासा / ___इन महात्मा को स्वास्थ्य के कारण वैद्यराज ने मुंग का पानी विशेष रूप से वापरने की सलाह दी / महात्माजी मुंग का पानी लेते / किन्तु उसके प्रत्येक धुंट के साथ मुंह से निसासा डालते और बोलते, "यह आधाकर्मी का पाप मेरे से क्यों करवाते हो ? मेरा क्या होगा ?" यह महात्मा पटेल के घर की बड़ी रोटी होती तो भी प्रेम से (निर्दोष है, इसके आनंद से) वापरते और मुंग के पानी से अत्यंत निसासा डालते ! 246 रोज रात्रिमें एक बैठक में 4 घंटे जाप / / एक आचार्य भगवन्त हमेशा रात्रि में दो बजे उठकर जापमें बैठ जाते हैं / वे चार घंटे तक एक बैठक, एक ही जाप, एक ही स्थिर आसन में करते हैं // पूज्यश्री कहते थे कि, "मेरे जीवन में वास्तव में किसी आराधना में कमाई है तो इसमें हैं / मुझे इससे चौबीसों घंटे मस्तीवाला आराधक भाव प्राप्त होता है / | प्रत्येक पत्र के हिसाब से 10 खमासमण / दिन 247 / में निदा के बदले उपवास / / रातमें 4 // घंटे से ज्यादा निदा हो जाये तो सब्जी त्याग !! एक खाखी महात्मा सामान्यतः कभी किसी को पत्र नहीं लिखते हैं / उन्हों ने कभी विशेष परिस्थिति में पत्र लिखवाने पर भी एक पत्र के हिसाब से पंचांग प्रणिपात दस खमासमण देने का दण्ड रखा है / उपरोक्त महात्मा का दूसरा नियम यह है कि रातमें साढे चार घंटे से एक भी मिनट ज्यादा निद्रा हो जाये तो उस दिन एकासन में सब्जी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 का सम्पूर्ण त्याग करना ! यह महात्मा कभी दिन में निद्रा लेते हैं, तो एक उपवास का दण्ड भुगतते हैं / शिष्यों के प्रति अद्भुत हितचिंता एक आचार्य भगवंत भोजन -मंडली में भी अपने शिष्यों को शास्त्रों के गूढ प्रश्न पूछते / उनका मानना था कि यदि ऐसे प्रश्नों के जवाब खोजने में शिष्यों का मन एकाकार हो जाए तो उनको आहार करते समय रागादि दोष नहीं जगेंगे / शिष्यों के हित के लिए महाकरुणा ! महावात्सल्यता ! 249 नमनीय नवकार निष्ठा इन महात्मा की नवकार के प्रति कैसी अपार निष्ठा होगी कि जब हृदय रोग का कातिल हमला हुआ और डॉक्टरों ने 48 घंटे की सीमा बाँध दी तब भी ... औषध नहीं ही लिया और सबको कहा कि, "माता नवकार ही मेरा रक्षण करेगी / " वास्तव में वैसा ही हुआ / वह महात्मा उसके बाद दिनमें 10-15 मील हमेशा चलकर तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की यात्रा भी कर आये। . 250|| पदवी की महानता, फिर भी आसन की अल्पता कई शिष्यों के एक गुरु का ज्यादा से ज्यादा दो बड़े आसन बिछाने का अभिग्रह था, किन्तु शिष्य कभी भक्ति के आवेश में तीन आसन भी बिछा देते / गुरुदेव कई बार यह वस्तु पकड़ लेते / वे स्वयं कई बार आसन गिनते और दो से ज्यादा जितने आसन होते, वे स्वयं बाहर निकाल देते ! Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 507 38 निष्परिग्रहता की पराकाष्ठा / एक तपस्वी मुनिराज दीक्षा के समय लिया हुआ संथारा 25 वर्ष बाद भी वापरते हैं। अब तो वह फटकर आधा ही रहा है। किन्तु फिर भी इसके ऊपर पैरों को मोड़कर सो जाते हैं / निष्परिग्रहता की कैसी पराकाष्ठा ! मोह को मारने का उपाय इन महात्मा को हमेशा लिखने के कारण अच्छी पेन रखनी पड़ती थी / किन्तु फिर वह पेन मोहक न बने इसलिए उसके उपर कागज चिपका देते थे, और कागज के उपर श्याही लगा देते थे / इससे पेन की मोहकता समाप्त हो जाती थी / 253/ कागज की मितव्ययिता यह महात्मा अच्छे कागज के उपर लिखने का काम करने के बजाय आने वाले पत्रों के लिफाफों को खोलकर लिखने हेतु बहुधा उसका ही उपयोग करते हैं। 254 निर्दोष पानी हेतु 20 मील का विहार !... अन्त में चौविहार उपवास !!! 88888888 यह महात्मा पानी भी निर्दोष मिलता है, तो ही वापरते हैं। एक बार उन्होंने इस हेतु 20 मील का विहार किया था, किन्तु वहाँ भी निर्दोष पानी नहीं मिलने पर प्रसन्नतापूर्वक चौविहार उपवास का पच्चक्खाण कर लिया ! Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 255] शल्योद्धार की सफल प्रेरणा एक महात्मा विशाल समुदाय के बड़े थे / वह हमेशा रात्रि में एकाध साधु को अपने पास बिठाते और माता का वात्सल्य देकर उसके हृदय में स्थान बनाते / वे उसके दोषों का शुद्धिकरण करवा लेते / जब वे महानिशीथ सत्र के शल्योद्धार की बातें करते, तब अच्छे अच्छे साधुओं की शुद्धि करने की भावना तीव्र हो जाती ! 88888888 256|| बिमार प्रशिष्य के पैर दबाते आचार्य श्री। मैंने इन आचार्य भगवंत को अपने प्रशिष्य की केन्सर की भयंकर बीमारी में पैर दबाते देखा है। उस समय वह प्रशिष्य बेहोश अवस्थामें थे। मैंने उन पूज्यश्री से कहा - "आप पैर न दबाओ। यह लाभ मुझे लेने दो / वे दृढ स्वर में बोले / "खुद मरे बिना स्वर्ग नहीं जाया जाता" ! 257/ बीमारी में भी केरी वापरले की बात सुनते ही आँखों में से बहती अश्रुधारा केरी के आजीवन त्याग की प्रतिज्ञा ले चुके मुनि बहुत बीमार पड़े। डॉक्टर ने केरी वापरने की सलाह दी / यदि कारणवशात् गुरुदेव आज्ञा दें तो प्रतिज्ञा में छूट थी / डोक्टर ने इसीलिए गुरुदेव के ऊपर दबाव डाला / गुरुदेव ने उन्हें इतना ही पूछा कि, " तू इस कारण से केरी वापरेगा ? निर्दोष मिले तो ही लेनी है / मैं तुझे छूट देता हूँ / " बस.... इतना सुनते ही उन केरी के त्यागी मुनिवर की आँखो में से आँसु बहने लगे / वात्सल्यमूर्ति गुरुदेव ने यह देखकर तुरन्त अपनी बात वापस खींच ली / Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 509 | आचार्य श्री की तीर्थयात्रा के साथ शासन रक्षा 258/ हेतु जान लूटाने की तैयारी के साथ अपर्व दीर्थदर्शिता एक तीर्थ की रक्षा हेतु उन आचार्य भगवंत ने अपने सभी शिष्यों के साथ किले के चारों ओर खड़े रहकर पूरी रात चौकीदारी की थी। उन्होंने केवल अपने पट्ट शिष्य को वहाँ से रवाना कर दिया था। उन्होंने उसे दबाव पूर्वक रवाना करते हुए कहा कि, " मैं शायद भले ही मिट जाऊँ / किन्तु तुझे तो मेरे पीछे शासन चलाना है / तू इसलिए यहाँ से चला जा / " 259|| ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए अद्भुत जागृति / साध्वीजीयों का उपाश्रय साधुओं के उपाश्रय के पास था / वयोवृद्ध आचार्य भगवंत ने वहाँ पहुँचते ही स्थिति देख ली / उन्होंने ऊपर चढने से पूर्व अग्रणियों को बुलाकर दरवाजे को ताला लगवाया / वे उसके बाद ही शिष्यों के साथ पुरुषों के उपाश्रय में ऊपर चढे / अबला गिनी जाती नारियों द्वारा संयम की आज्ञा 260 न मिलने पर दिखाये गये अद्भुत - पराक्रमों की यशोगाथा / ____सौराष्ट्र के बोटाद गाँव में सं. 1924 में जन्मी सांकली बहन का विवाह 14 वर्ष की उम्र में हो चुका था / परन्तु उन्हें दो वर्ष बाद 16 वर्ष की उम्र में विधवा बनने से गहरा आघात लगा / किन्तु धार्मिक संस्कार होने के कारण वे विपत्ति के समयमें विषाद दूर कर समता भाव से भावित बनकर संयम रंग में रंगाने लगे / उस समय बोटाद गाँव की ओर संवेगी साधु साध्वीजीयों का विहार विरल ही होता था / परन्तु पुण्योदय में पू. बुद्धिचंद्रजी म. क शिष्य : Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 गंभीरविजयजी म. के बोटाद गाँव में पधारने से उनके उपदेश से सांकली बहन का वैराग्य भाव दृढ बना / वह धार्मिक अभ्यास में आगे बढने लगी। उसके बाद परम त्यागी पंजाबी साधु पू. लव्धिविजयजी म. का बोटाद में चातुर्मास होने पर उनके व्याख्यान श्रवण से सांकलीबहन की वैराग्य की ज्योत प्रज्वल्लित हुई / वे संयम स्वीकारने के लिए किसी साध्वीजी के समागम की राह देख रही थी / उतने में वहाँ डहेला के उपाश्रय में सा. श्री जेठी श्रीजी आदि ठाणा 3 का पदार्पण हुआ / सांकली बहनने अपने दीक्षा के भाव उनके आगे प्रदर्शित किये, किन्तु स्वयं को विचार आया कि मोहवश माता-पिता दीक्षा की अनुमति नहीं देंगे / इसलिए वे पालिताना आये। उन्होंने छह कोस की प्रदक्षिणा करके सिद्धवड़ के नीचे ऋषभदेव भगवान के चरण पादुका के दर्शन कर अपने हाथों से सिद्ध वड़ की शीतल छाया में चारित्र वेष अंगीकार किया ! उसके बाद घेटी गाँव में जहाँ सा. श्री जेठीश्रीजी आदि विराजमान थे, वहाँ आये / उनके साथ विहार कर जूनागढ गये / माता-पिता को पालिताना से पुत्री के न लौटने से चिंता होने लगी / उन्होंने पालिताना में पूछताछ की तो समाचार मिला कि, सांकलीबहनने अपने हाथों से साध्वीजी का वेष अंगीकर किया और जूनागढ गये हैं / उनका भाई जूनागढ गया और मोह के वश में होकर हठ करके वापस बोटाद ले आया। और पुनः दो वर्ष गृहवास में रहना पड़ा / यह सब होने के बावजूद भी उनकी वैराग्य ज्योत मंद नहीं हुई। एक बार उनको समाचार मिले कि सा. श्री वीजकोरश्रीजी आदि वळा गाँव में पधारे हैं, इसलिए तुरन्त वहाँ विनंती की कि, "आप बोटाद पधारो / मुझे आपके पास दीक्षा लेनी है, इसलिए मुझे अपने माता-पिता के पास से अनुमति दिलाओ / " परमार्थ रसिक सा. श्री वीजकोरश्रीजी बोटाद पधारे / परन्तु उन्होंने उस समय सांकलीबहन की छोटी बहिन की शादी की धमाल देखकर माता-पिता से दीक्षा की बात नहीं की जानी चाहिए ऐसा सोचकर कुछ दिन स्थिरता करने के बाद बोटाद से विहार किया / अब सांकलीबहन को संयम रहित एक-एक दिन वर्ष जैसा लगने लगा। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___511 वह अपने परिवारजनों को बताये बिना वढवाण गयी। वहीं पू. खांतिविजयजी दादा किन्तु वहाँ भी सांकलीबहन के अन्तरायकर्म ने संघर्ष किया / पू. खांतिविजयजी दादा ने शरीरादि के कारण से दीक्षा प्रदान किये बिना विहार किया। वढवाण से सांकलीबहन लीबड़ी आये / वहाँ पू. लब्धिविजयजी म. तथा पू. झवेर सागरजी म. को वंदन किया / इन महापुरुषों का त्याग भाव देखकर उनकी अंतरात्मा से पूकार उठी - "कार्य साधयामि वा देहं पातयामि !..." आखिर उन्होंने चूड़ा गाँव में जाकर वहाँ की धर्मशाला में स्वयं संयम वेष को अंगीकार किया / उसके बाद सा. श्री वीजकोरश्रीजी आदि राणपुर में विराजमान थे, वहाँ गये / परन्तु साध्वीजी ने कुटुंबीजनों की संमति बिना वेष पहना होने के कारण वापस चूड़ा भेजा। वे वहाँ श्रावक-श्राविकाओं की सहायता से 10 दिन अकेली रहीं। कैसा अंतराय कर्म का उदय ! दो - दो बार हिम्मत कर स्वयं वेष पहना, फिर भी प्रव्रज्या का पंथ सुलभ नहीं बना !... . उन्होंने फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपने परिवार जनों को चूड़ा से पत्र भेजा / यह पत्र पढकर आखिर माता-पिता के हृदय में पुत्री के संयम में बाधक न बनने की भावना जाग्रत हुई / माता-पिता ने अनुमति पत्र लिखकर भेजा / माता-पिता का पत्र पढकर उनके आनंद का पार नहीं रहा / उन्होंने वह पत्र हर्ष विभोर बनकर सा. श्री वीजकोरश्रीजी को पढ़ाया। अब साध्वीजी दीक्षा देने हेतु तैयार हुए / इनकी दीक्षा सायला में पू. खांतिविजयजी के वरद हस्तों से सं 1946 की वैशाख सुदि 2 को सम्पन्न हुई और वे सा. श्री वीरकोरश्रीजी की शिष्या के रूप में घोषित हुए / उन्होंने दिक्षा के बाद 50 वर्ष तक सुंदर संयम का पालन किया। उनका पालिताना में वि.सं 1996 में मिगसर सुदि 9 के दिन समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ / आज उनके परिवारमें करीब 300 साध्वीश्री सुंदर रूप से संयम की आराधना कर रही हैं। उन्होंने दीक्षा के बाद सम्मेतशिखरजी, बनारस, कलकत्ता आदि की यात्रा की थी / शिखरजी, ग्वालियर तथा बालुचर आदिमें चातुर्मास किये थे / बालुचर की राजकुमारी जो हमेशा 50 पान के बीड़े खाती थी उसे प्रतिबोध देकर बीसथानक तप में जोड़ी तथा Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उसके द्वारा खंभात में धार्मिक पाठशाला की स्थापना करवायी / इन साध्वीजी का नाम, अर्थात् नाम कर्म की एक ऐसी पुण्य प्रकृति कि जिसके उदय से जीव प्रायः सभी लोगो में प्रिय बनता है। 261 जंगल में वड़ के पेड़ के नीच स्वय वष परिधान। उपर्युक्त साध्वीजी भगवंत की प्रशिष्या की शिष्या साध्वीजी भगवंत आज विद्यमान हैं / उन्होंने भी अपने जीवनमें ऐसे ही विशिष्ट प्रकार के पराक्रम द्वारा संयमरूपी अनमोल रत्न की प्राप्ति की थी। उनका गृहस्थावस्था में नाम प्रभावती बहन था। वह गुजरात के पंचमहाल जिले के वेजलपुर गाँवमें रहती थी / उनका विवाह 14 वर्ष की छोटी उम्र में सं. 1987 में इसी गाँव के शांतिलालभाई के साथ हुआ / इनको अभी तक ससुराल में भेजा ही न था, उस समय गांधीवादी आंदोलन में जुड़े शांतिलालभाई को 6 माह की कैद की सजा हुई / इस घटना से प्रभावती और उनके माता-पिता को बहुत दुःख हुआ। कुछ समय बाद गोधरा में प.पू. शासन सम्राट् आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय नेमिसूरिश्वरजी म.सा. के समुदाय के पू. मुनिराज श्री पद्मविजयजी म.सा. आदि मुनिवरों को और उपरोक्त दृष्टांतमें वर्णित साध्वीजी भगवंत की प्रशिष्या सा. श्री गुणश्रीजी आदि ठाणा का चातुर्मास हुआ / चातुर्मास के अन्तमें उपधान तप तय हुआ / गोधरा से 8 मील की दूरी पर आये वेजलपुर गाँव में यह समाचार फैलते वहाँ की अग्रणी श्राविका धीरजबहन जो कि प्रभावतीबहन के चाचा की पुत्री होती थी, उन्होंने उपधान तप में जाने का तय किया / प्रभावती बहन की भी उनके साथ उपधान तप करने की भावना हुई / पूर्व के दुःखद प्रसंग से उसका मन शान्त हो इसीलिए माता-पिता ने भी राजी खुशी से अनुमति दे दी। उपधान तप के दौरान साध्वीजी भगवंतों का सुंदर संयममय शांत और सुप्रसन्न जीवन देखकर प्रभावती के हृदय में संयम जीवन जीने की भावना जगी / उन्हें संसार के तथाकथित वैषयिक सुख जहर समान लगने लगे। फिर Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ____513 भी लज्जा गुण के कारण अपने हृदय की बात माता-पिता को नहीं कह सकी / इसलिए न चाहते हुए भी उनको ससुराल जाना पड़ा / उन्होंने उपधान तप की माला पहनते समय दही की विगई का. सर्वथा त्याग कर दिया / ससुरालमें प्रभावतीबहन के मन में तो संयम के विचार घूमते थे। वह इसलिए कोई बहाना निकालकर संयम लेने के लिए नयी-नयी योजनाएं बनाती थी, किन्तु उसमें सफलता नहीं मिली / सुसराल में रही प्रभावतीबहन अपना अधिकांश समय समायिक प्रतिक्रमण एवं ज्ञानाभ्यास में बिताने लगीं। . इसी दौरान प्रभावतीबहन के माता-पिता को पू.मुनि श्री धर्मसागरजी म. सा. के उपदेश से सम्मेतशिखरजी आदि तीर्थों के दर्शन करने की भावना उत्पन्न हुई / उन्होंने अपनी पुत्री को भी साथ ले जाने की भावना से उसे सूचित किया। इस बात से प्रभावतीबहन के आनंद का पार नहीं रहा / उन्होंने यह बात अपने पति के समक्ष रखी / उनके पति ने तीर्थयात्रा हेतु स्पष्ट मना कर दिया। आखिर प्रभावती बहन के बड़े भाई नगीनभाई ने हिम्मत देते हए कहा : बहिन ! कपड़े लेकर चली आओ / मेरे रहते तुम्हारा कोई बाल बाँका भी नहीं कर सकेगा !.. इससे निर्भय बनी प्रभावतीबहन ससुराल पक्ष में किसी की आज्ञा लिये बिना माता-पिता के घर आ पहुँची / प्रभावतीबहन इस प्रकार 500 यात्रिक भाई बहिनों के साथ स्पेश्यल रेल में शिखरजी, मारवाड़, आबुजी, राणकपुर की पंचतीर्थी, गिरनार, तारंगाजी, पालिताना आदि कई तीर्थो की यात्रा कर तीन महिनों में वापस लौटी / प्रभुभक्ति के प्रभाव से वैराग्य का रंग ज्यादा और ज्यादा गहरा हुआ / प्रभावतीबहनने पालीताणा में अपने मातापिता से कहा कि "या तो मुझे दीक्षा दिलाओ, या यहाँ श्राविकाश्रममें छोड़ जाओ / परन्तु मोहाधीन बने माता-पिता उसे अपने घर ले गये। प्रभावती बहन पर घर आने के बाद सगे-संबंधियोंने ससुराल जाने .. के लिए भारी दबाव डाला / प्रभावती को इसलिए न चाहते हुए भी ससुराल जाना पड़ा / उन्होंने मन में सोचा कि - "ससुराल में उपालंभ मिलेगा तो दीक्षा का मार्ग सरल बनेगा / किन्तु ससुराल में अलग ही योजना बन रही थी। उसके अनुसार प्रभावतीबहन का सबने अच्छा मान रखा / इस कारण से उनको ससुराल रहना पड़ा / पतिदेव के आगे अपनी आध्यात्मिक भावना व्यक्त करते ही वे Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 भड़क उठे / दोनों के बीच बोलचाल होने लगी / प्रभावती के नेत्रों में से स्त्रीस्वभावसुलभ अश्रुधारा बहने लगी / यह बातें उसके माता-पिता को पता चलने पर उन्होंने अपने घर आने का उन्हें आग्रह किया / किन्त प्रभावतीबहन ने दृढतासे जवाब भेजा कि- "आप मुझे दीक्षा नहीं दिला सके तो अब आपके पास आने में क्या फायदा ! अब तो मैं ससुराल से ही हिम्मत कर संयम पथकी ओर प्रयाण करूँगी !.. माता - पिता को इस बातसे दुःख हुआ / इस और पति-पत्नी के बीच बोलचाल होने से शांतिभाई ने हुक्म किया कि, "अब जिनालय जाने की इजाजत नहीं मिलेगी !.. प्रभावतीबहिन ने प्रतिकार स्वरूप उपवास किया !... सास के कहने से दूसरे दिन जिनालय गये / प्रभावती बहन के पिताजी अपने बड़े भाई की पुत्री धीरजबहन के साथ जिनालय के सामने खडे रहकर दीक्षा के बारे में बातचित कर रहे थे / धीरजबहनने प्रभावतीबहन को आश्वासन देते हुए कहा कि, "हम तुम्हें दीक्षा दिलाएंगे!" उतनी देरमें प्रभावतीबहन की मातृश्री भी आ पहुँची / उन्होंने कहा "बेट दीक्षा भले लेना / मेरा इसमें निषेध नहीं किन्तु तुम घर तो चलो / " प्रभावतीबहन आखिर माता-पिता के घर आ गये / इस और शांतिलालभाई ने प्रभावतीबहन को दीक्षा न लेने और अपने घर ले जाने हेतु जमीन-आसमान एक कर दिया / परन्तु तलगृह में छिपाया हुआ रत्न इस तरह सरलता से नहीं मिलने वाला था !... .. प्रभावतीबहन के मामा तथा बड़े भाई पू. आ. श्री नेमिसूरिजी के पास महुवा गये और पूरी बात की / किन्तु उन्होंने ससुर पक्ष की आज्ञा के बिना दीक्षा देने की मनाई की। प्रभावतीबहन के बड़े भाईने तार कर शांतिलालभाईको महुवा बुलाया / वहाँ पू. आचार्य श्री वगैरह ने उन्हें बहुत समझाया फिर भी वह नहीं माने / आखिर सभी वापस घर आये / . ... दो वर्ष का समय बीत गया / प्रभावतीबहन ने अन्त में गुप्त दीक्षा लेने की अपनी योजना माता-पिता को बतायी / माता-पिता भी अब सम्मत हो गये / पिताश्री ने बोटाद जाकर सा. श्री. गुणश्रीजी के आगे बात की। साध्वीजी ने निषेध नहीं किया और यथायोग्य रूप से हिम्मत दी। पिताश्री ने घर आकर प्रभावतीबहन को कहा, "बेट ! अब तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___ माताने प्रभावती के ललाट पर कुमकुम का तिलक कर हाथ में श्रीफल तथा अक्षत देकर फाल्गुन वदि 2 को आशीर्वाद दिया कि, "बेटा ! तेरी मनोकामना सफल हो ! भव भम्रणा का निस्तार करना और हमको भी तारना !..." आखिर पिता - पुत्री शाम को गोधुली बेला में प्रतिक्रमण का बहाना बनाकर कटासना लेकर घर से निकले / वह दोनों गोधरा होकर बोटाद पहुँचे / वहाँ वाड़ीलालभाई ने अपनी पुत्री की दीक्षा की बात पू. आ. श्री अमृतसूरिजी को बतायी / किन्तु उन्होंने भी ससुर पक्ष की अनुमति न होने से दीक्षा देने की मना की / प्रभावतीबहन ने अन्तमें अपने उपकारी सा. श्री. गुणश्रीजी के पास जाकर गुप्त दीक्षा लेने के बारे में अपनी भावना बताई कि, "मैं अकेली अच्छे स्थल पर जाकर स्वयं अपने हाथों से कपड़े पहनकर कार्य सिद्ध कर लूँगी !... ___ साध्वीजी भगवंत ने मुमुक्षु की आशा को निराशा में बदलने से रोकने के लिए उसे सहानुभूति के साथ दीक्षा के सभी उपकरण दे दिये। बोटाद से वाडीभाई, मुनिमजी, प्रभावतीबहन तथा दीवालीबाई (सा.श्री गुणश्रीजी की प्रगुरुणी की संसारी बहिन)उमराला आये / वहाँ सा. श्री गुणश्रीजी की परिचित मणिबहन नाम की सुश्राविका थी / वाड़ीभाई ने साध्वीजी का पत्र उन्हें पढाया / उसमें लिखा था कि, "तुम आनेवाली बहिन की योग्य सहायता करना / " मणिबहन ने कहा कि, "यहाँ का संघ इस प्रकार की गुप्त दीक्षा को स्वीकृति नहीं देगा, परन्तु तुम यहाँ से ढाई कोस दूर दड़वा माता के मन्दिर के पास जाओ / वहाँ इस कार्य में कोई अन्तराय नहीं डाल सकेगा।" आखिर चारों ने रात वहाँ व्यतीत की और दूसरे दिन सवेरे जल्दी नाई को साथ लेकर उपर्युक्त मंदिर के पास पहुँचे / प्रभावतीबहन के आनंद का पार न था / वहाँ उनका मुंडन करवाया / उन्होंने वहाँ एक मगरी के पीछे ठंडे पानी से स्नान करके, दीवालीबाई के सूचन अनुसार वड़ की छायामें पूर्व दिशा सम्मुख मुख रखकर नमस्कार मंत्र गिनते - गिनते स्वयं साध्वीजी का वेष अंगीकार कर लिया !!! पिताश्री तथा दीवालीबहन ने मंगल के रूपमें कपड़ों पर केसर के छींटे डाले / और तीन जनों ने अक्षत से नूतन दीक्षित को बधाया। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कैसी दीक्षा ! न ठाठबाठ ! न कोई मुहूर्त ! . ... उसके बाद उमराला गाँव के जिनालय में आये। वहाँ नवदीक्षित ने स्वयं प्रभु के समक्ष चौविहार उपवास का पच्चक्खाण लिया। वाड़ीलालभाई ने श्री संघ को पूरी बात बतायी और नवदीक्षित को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। श्री संघवालोंने हाँ दी और स्वयं वाडीभाई ससुराल पक्ष की लिखित सहमति लेने बाहरगाँव गये / इस ओर संघ ने शाम को नवदीक्षित को उमराला छोड़ने की बात कही !... आखिर मणिबहन की सलाह अनुसार वह दीवाली माँ के साथ 3 मील दूर पीपराली गाँव गये। वहाँ श्री संघ की आज्ञा लेकर उतरे / . इस ओर वाडीभाई को मंजूरी के लिखित कागज मिल चूके थे। वे यह कागज लेकर खंभात गये / वहाँ सा. श्री गुणश्रीजी के प्रगुरुणी को कागज बताकर उनका आज्ञापत्र लेकर पछेगाँव गये। वहाँ सा. श्री गुणश्रीजी को पत्र पढाये। उन्होंने नवदीक्षित को पछेगाँव लाने को कहा। वाड़ीभाई तथा मुनिमजी वहाँ से उमराला होकर पीपराली आये / पूरी बात हुई / आखिर दूसरे दिन गुरु-शिष्या का मिलन हुआ। सा. श्री गुणश्रीजी ने फाल्गुन वदि 13 के दिन जिनालय में ठमणी रखकर "करेमि भंते" का उच्चारण करवाया!... वह शुभ दिन था वि. सं. 1992 फाल्गुन वदि 13 का। वे 13 माह तक अजोगी रहे। इस दौरान भी उनके विनय - वैयावच्च के अद्भुत गुण देखकर प्रमुख श्राविकाएँ उन्हें "सा.विनयश्रीजी" के प्यार के नाम से बुलाने लगे। इनकी खंभात में प्रथम चातुर्मास के बाद कपड़वंज में पू. आ. श्री अमृतसूरीश्वरजी के वरद हस्तों से छोटी और बड़ी दीक्षा हुई / इस प्रसंग पर उनके संसारी पिताश्री ने खूब ठाठबाठ किया था। ___इस प्रकार वड़ के पेड़ के नीचे स्वयमेव वेष पहनकर दीक्षा लेनेवाले यह साध्वीजी आज 108 से ज्यादा शिष्या - प्रशिष्याओं पर वात्सल्य की शीतल छाया देते हुए सुंदर संयम का पालन और शासन प्रभावना करवा रहे हैं / इन्होंने पू. आ. श्री विजय धर्मधुरंधरसूरीश्वरजी म.सा. के पास से अनेक आगम सूत्रों की वाचना ली है / इन साध्वीजी के नाम का अर्थ "कुशल-चतुर" होता है / वे नाम के अनुसार गुण से शोभित हैं। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 517 262/ रोज 500 खमासमण आदि विशिष्ट आराधना करनेवाले स्वहस्तों से वेष पहननेवाले साध्वीजी 88888888 अहमदाबाद के झवेरीवाड़ विस्तार में सं. 1962 में जन्मी जासुदबहन को बचपन से ही पूजा, सामायिक, चौविहार आदि के धर्म संस्कार मिले थे / 17 वर्ष की उम्र में इनका विवाह सम्पन्न हुआ / इस समय में प्रखर प्रवचनकार मुनिवर श्री रामविजयजी (बाद में पू.आ.श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.) के सं 1980-81-82 में अहमदाबाद की विद्याशाला में हुए चातुर्मासिक प्रवचनों से अनेक नवपरिणित युवकों के हृदय में वैराग्य की ज्योत प्रज्वलित हुई / जासुदबहन की आत्मा भी इन प्रवचनों से वैराग्यवासित बन गयी / उन्हें संसार कटु जहर समान लगने लगा / किन्तु संसार के महापिंजर में कैद इस नवपरिणित पंखी के लिए इस कैद में से निकलना अत्यंत दुष्कर था / परिवार जनों को इस बात का पता चलते उन्होंने इन पर पूरी चौकीदारी रखना प्रारम्भ किया / इनके लिए अब दर्शन-वंदनादि के लिए भी बाहर निकलना मुश्किल था / फिर भी जासुदबहन अपने प्रवज्या के निर्णय पर अडिग रही / उन्होंने एक दिन ससुराल में कहा कि, "मैं पीहर जाती हूँ।" और पीहर में कहा कि मैं . ससुराल जाती हूँ।" - इस प्रकार सबको विश्वास में डालकर अपना इच्छित कार्य सिद्ध करने के लिए अपने मामा की पुत्री लीलावती बहन के साथ रात्रि में यकायक भागकर शेरीसा तीर्थमें प्रकट प्रभावी पुरुषादानी श्री पार्श्वनाथ प्रभु के सम्मुख अपने ही हाथों से वेष पहनकर, 'करेमि भंते' का उच्चारण कर वि.सं. 1983 के ज्येष्ठ वदि 6 के दिन 21 वर्ष की भर युवावस्था में, मात्र 5 वर्ष ही वैवाहिक जीवन व्यतीत कर जैन शासन के सच्चे अणगार बने / उन्होंने अपना नाम आंतर शत्रुओं पर 'जय' प्राप्त करने हेतु इसके अनुरूप ही रखा / . ...बाद में परिवारजनों ने आकर हो-हल्ला किया किन्तु प्रबल वैराग्य और अडिग निश्चय ने उन्हें परास्त कर दिया / स्वजन हताश हृदय से वापस Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 मुड़े / उन्होंने इस प्रकार छोटी उम्र में महापुरुषार्थ से संयम स्वीकार किया !!! उसके बाद वि.सं. 1984 में फाल्गुन सुदि 2 के दिन प.पू.आ. श्रीमद् विजय दानसूरीश्वरजी म.सा. के शुभ हस्तों से उन्होंने बड़ी दीक्षा ग्रहण की और इनके ही समुदाय के सा. श्री लक्ष्मीश्रीजी का शिष्यत्व स्वीकार किया / लगातार 39 वर्ष तक गुरुणी की सुंदर वैयावच्च कर उनके स्वर्गवास के बाद उन्होंने समुदाय का भार कुशलता से वहन किया। पंचसंग्रह, कम्मपयडी, व्याकरण, न्याय आदि के तलस्पर्शी अध्ययन से अनेक आश्रित साध्वीजी को सुंदर तत्त्वामृत का पान करवाया। 8-9-1012 वर्ष की छोटी-छोटी उम्र की अनेक आत्माओं को संयम प्रदानकर, सुंदर संयम पालन द्वारा आदर्श साध्वीजीयों को तैयार किया / आप अप्रमतरूप से आवश्यक क्रियादि करती हुई हमेशा 500 खमासमण देकर एवं अनेक वस्तुओं के आजीवन त्याग द्वारा सुंदर रूप से संयम का पालन कर रही हैं / भर गर्मी की विहारादि के परिश्रम में भी जब तक अपना जाप, खमासमण, कायोत्सर्ग आदि आराधना न कर लेती तब तक मुँहमें पानी भी नही डालती हैं / दीक्षा के दिन से यावज्जीव सभी फलों तथा मेवे का त्याग किया है / अपने परम गुरुदेव के वंदनादि का लाभ मिलता है तभी ही निश्चित मिठाई की छुट, उसके अलावा मिठाई बन्द रखती हैं / हमेशा तीन विगई का त्याग है एवं दही की विगई मूल से कायमी बंद है / आडंबर रहित सादगीमय जीवन अल्प उपधि इत्यादि अनेक प्रकार की विशुद्ध संयम साधना द्वारा आश्रित साध्वी गण के लिए पूरा आलंबन पेश कर रही हैं / आज भी वे 150 से अधिक शिष्या-प्रशिष्यादि परिवार के प्रवर्तिनी पद को सार्थक कर रही हैं.... Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98689658 6 3 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 संयम के स्वीकार के लिए तीन-तीन बार गृहत्याग। फिर भी अनुमति नहीं मिलने पर आखिर .. / / सुरतमें वि.सं. 1958 में जन्मी सुभद्राबहन के जीवन में छोटी उम्र से ही धर्म के संस्कार सिंचित हो गये थे / इन्होंने 14 वर्ष की छोटी सी उम्र में पू.आ. श्री कमलसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में दो उपधान तप कर लिए थे / संसार क्रम के अनुसार इनका 16 वर्ष की उम्र में विवाह हो गया / किन्तु इनके अंदर तो वैराग्य का दीप जल ही रहा था / उसमें भी व्याख्यान वाचस्पति प.पू.आ.भ. श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के विरति पोषक प्रवचन सुनने का सुयोग मिला / इन प्रवचनों ने उनके वैराग्य के दीप को अधिकप्रज्वलित कर दिया / उन्होंने संसार के पिंजरे से मुक्त होने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना आरंभ कर दिया / वे एकबार संयम लेने के लिए घर से निकल गये, परंतु कुटुंबीजन उन्हें स्टेशन से वापस ले आये ! दूसरी बार कतार गाँव में मस्तक मुंडाकर बैठ गये। किन्तु परिवारजन वहाँ से भी वापस ले आये। तीसरी बार छाणी (बड़ौदा के पास) भाग गये / कुटुंबीजन वहाँ से भी वापस पकड़ कर ले आये !!!....... आखिर हताश बनी सुभद्राबहन ने अपने ब्रह्मचर्य व्रत को अखंडित रखने के लिए डामर की गोलियाँ भी खा ली !!! पोल में इस बात के फैलते ही परिवार जन इकट्ठे होकर सुभद्राबहन के पति झवेरचंदभाई को समझाने गये। झवेरचंदभाई ने कहा कि, "मिगसर पूर्णिमा तक दीक्षा ले तो मेरी संमति हैं, नहीं ले तो मुझे संसार चलाना है। सुभद्राबहन के लिए तो यह भूखे को घेवर मिलने के समान था / उनके पति वगैरह चातुर्मास पूर्ण होते ही मिगसर वदि 10 के दिन सुभद्राबहन को दीक्षा दिलाने हेतु छाणी आये / पू. मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. (बाद में आचार्य) के हस्तों से उसी दिन सुभद्राबहन ने संयम स्वीकार किया और पू. जंबूविजयजी म.सा. की संसारीबहिन महाराज तपस्विनी सा. श्री कल्याणश्रीजी की शिष्या के Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 रूप में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने दीक्षा के बाद पाँच वर्ष तक एकाशने, 25 वर्ष तक बिआसने, चत्तारि अठ्ठ दश दोय तप, अष्टापदतप, बीस स्थानक तप, उसमें भी 20 अठ्ठाइयों द्वारा अरिहंत पद की आराधना, तीर्थंकर वर्धमान तप में एकाशना के बदले लगातार उपवास द्वारा 19 वे भगवान तक करने के बाद स्वास्थ्य के कारण २०वे एवं २१वे भगवान की आराधना एकांतर उपवास से की। इन्होंने वर्धमान तप की 28 औली, पोष दसमी की आजीवन आराधना, छ अठ्ठम द्वारा 99 यात्रा, वगैरह विविध तपस्याओं के साथ 3 बार एक लाख नवकार जाप, सीमंधर स्वामी का सवा लाख जाप, शंखेश्वर पार्श्वनाथ का जाप और प्रतिदिन शत्रुजय का ध्यान इत्यादि द्वारा भारी कर्म निर्जरा के साथ विशिष्ट शासन प्रभावना की थी। वे कविकुलकिरीट पू.आ.श्री. विजयलब्धिसूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञावर्ती साध्वीयों में प्रवर्तिनी थे / उन्होंने 55 वर्ष तक संयम की आराधना के बाद अंत में इडर में स्थिरवास किया / वहाँ में 2039 की भाद्रवा सुदि 3 के दिन चतुर्विध श्री संघ की मौजुदगी में नवकार महामंत्र का श्रवण करते करते समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ / . . "उन्होंने सुंदर प्रकार से व्रतों का पालन कर अपने नाम को सार्थक किया था !.." 264 88888 संयम हेतु 5 वर्ष तक छह विराई का त्याग / अहमदाबाद में रहती हुई शशीबहन का विवाह उनकी मातृश्री की इच्छानुसार 13 वर्ष की उम्र में हो गया था / इनको एक पुत्री होने के बाद 15 वर्ष की ही उम्र में विधवा बनना पड़ा / इतना ही नहीं कुछ समय में उनकी पुत्री ने भी अपने पिता की राह पकड़ ली !!!... Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 521 शशीबहन के धर्मनिष्ठ पिताश्री ने दीक्षा ली थी / वे सुन्दर साधना करते थे / उनका बादमें कर्म संयोग से दिमाग कुछ अस्थिर होने से उनके गुरुदेव ने उन्हे पाटण में स्थिरवास करवाया था / शशीबहन को यह समाचार मिलते ही वे तुरन्त पाटण दौड़ आयी और पिता म.सा. की सुन्दर भक्ति की / उन्हें अंत समय में निर्यामणा भी इन्होंने ही करवाया !... शशीबहन के भाई महाराज पू. आ. श्री मोतिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. पाटण पधारे / उन्होंने उपदेश देकर शशीबहन की संयम की भावना जगायी। पूज्यश्री की प्रेरणा अनुसार शशीबहन ने संयम न ले सकें तब तक दूध - दही - घी - तेल - गुड़ और तली हुई वस्तुएँ इन छह विगइयों के त्याग की प्रतिज्ञा ली !!! ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा लेकर घर आये / उन्होंने अपनी भावना से अपने ज्येष्ठ श्री भगुभाई को परिचित करवाया / उन्होंने उदास होते हुए कहा कि, "घर में रहकर दान दो / सार्मिक भक्ति करो / यह सब करने से भी कल्याण होता है / दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है।" इसलिए न चाहते हुए भी उनको घरमें रहना पड़ा / परंतु इन्होंने नियमानुसार छह विगई का त्याग चालु रखा / आखिर भगुभाई ने उन्हें पाँच वर्ष के बाद दीक्षा की संमति दी / सं 1992 की महा सुदि दूज के दिन 24 वर्ष की उम्र में शशीबहन की दीक्षा का भव्य वरघोड़ा निकला / उन्होंने वरघोड़ेमें 5000 रुपये एवं अंगुठी का दान दिया / शासन सम्राट प.पू.आ.भ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के हाथों से दीक्षा हुई / वे उनके समुदाय के सा. श्री प्रभाश्रीजी की शिष्या बने। उनमें गुरु समर्पण भाव के साथ वैयावच्च का गुण अनूठा था / वे मुख्य रूप से मध्यम वर्ग के लोगों के लिए सार्मिक भक्ति का उपदेश देते थे / उनकी प्रशांत मुख मुद्रा, सुमधुर वाणी और गुरु आज्ञा पालन ही जीवनमंत्र था। इन्हें 44 वर्ष के दीर्घ चारित्र पर्याय में विलायती दवा या डोक्टर की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी / ... सं. 2035 की ज्येष्ठ सुदि 13 के दिन अहमदाबाद की पंकज सोसायटी में उन्होंने चातुर्मास हेतु प्रवेश Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 किया। ज्येष्ठ सुदि पूनम के दिन दोपहर ढाई बजे 3 डीग्री बुखार आया / उसमें बोलना शुरु किया कि : "मैंने क्रिया की ? मेरी क्रिया बाकी है !... मुझे धर्म सुनाओं .... मुझे जल्दी प्रतिक्रमण करवाओ... शाम को उल्टी में थोडा खुन दिखाई दिया / डोक्टर को बुलाने की बात सुनते ही उन्होंने तुरन्त कहा : "अब थोड़े के लिए डॉक्टर को किसलिए बुला रहे हो ? उन्होंने इतना बोलकर मन में प्रतिक्रमण चालु कर दिया / पाप आलोचना का सूत्र स्वयं बोलते - बोलते 67 वर्ष की उम्रमें समाधिपूर्वक देह त्याग किया / कैसी सुंदर समाधि मृत्यु / मात्र आधे दिन की ही सामान्य बिमारी में नश्वर देह का त्याग किया। स्वयं आलोचना करते करते ही गये !... धन्य है उनकी आत्मा को / उनके परिवार में से 10 जनों ने दीक्षा ली हैं। उन्होंने अनेक सद्गुणों को आत्मसात् कर के आपना नाम सार्थक किया था / ___ उपरोक्त पाँच दृष्टांतों के अलावा दूसरे भी कई साध्वीजी भगवंतोंने परिवारजनों का विरोध होने के बावजूद विविध रूप से पराक्रम दिखाकर संयम स्वीकार कर जीवन को सफल बनाया है / उन सबकी भूरिश: हार्दिक अनुमोदना। . अनेक मुनिवरों ने भी ऐसे पराक्रम दिखाकर संयम स्वीकारा है, उनकी भी हार्दिक अनुमोदना / ऐसे सभी दृष्टांतों से प्रेरणा लेकर अवसर पर ऐसा सत्त्व दिखाने की शक्ति प्राप्त करें यही शुभाभिलाषा / | दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने हेतु छह विगई का 265 / त्याग तथा सागारिक अनसन का स्वीकार / शादी के दिन ही रास्ते में पति की अचानक हृदयगति रुक जाने से अवसान होने पर वैराग्यवासित हुई कन्या ने दीक्षा लेने के लिए मातृ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 श्री के पास अनुमति माँगी / मोहाधीन बने मातृश्री द्वारा अनुमति नहीं देने पर मुमुक्षु कन्याने छह विगई का त्याग किया ! फिर भी आज्ञा न मिलने पर आखिर सागारिक अनसन प्रारम्भ कर दिया ! आखिर उत्कृष्ट वैराग्य देखकर परिवारजनों ने आशीर्वाद पूर्वक अनुमति दी / . सं. 2014 में दीक्षित हुई यह राणीगाँव (राज.) की कन्या आज करीब 80 शिष्या-प्रशिष्याओं की जीवन नैया के सफल सुकानी महातपस्विनी साध्वीजी हैं / - इनकी कर्म निर्जरा हेतु की गयी भीष्म तपश्चर्या की सूचि हाथ जोड़कर अहोभावपूर्वक पढें / (1) अठ्ठम से बीस स्थानक तप की आराधना (500 अठ्ठम) (2) पार्श्वनाथ भगवान की 108 अठ्ठम (3) अठ्ठम से वर्षीतप (4) छठ्ठ से वर्षीतप (5) महावीर स्वामी भगवान की 229 छठ (6) उपवास से बीस स्थानक की आराधना (7) तीन मासक्षमण (8) श्रेणितप (9) सिद्धितप (10) भद्रतप (11) समवसरणतप (१२)सिंहासनतप (13) सोलहभत्ता (14) 15 उपवास (15) 11 उपवास दो बार (16) दो बार 9 उपवास (17) चत्तारि अट्ठ-दश-दोय तप (18) कर्मप्रकृति के 158 उपवास (19) नवकार मंत्र के संपदा सहित उपवास (20) एकांतर 500 आयंबिल (21) नवपदजी की ओलियाँ .... इत्यादि) एक बार उन्हें तप-जप के प्रभाव से पद्मावतीदेवी ने पालिताना में स्वयमेव दर्शन दिये थे ! .. इनकी प्रेरणा से तीन स्थानों पर तीर्थ तुल्य जिनालयों का निर्माण हुआ है / जिसमें एक बीस जिनालय का भी समावेश है / इसके अलावा इनकी प्रेरणा से 3 बार 99 यात्रा संघ, 6 बार सामूहिक उपधान तप, करीब 9 छ'री' पालित तीर्थयात्रा संघ, तथा 21 बार 25-36-51-100 आदि छोड़ का उजमणा इत्यादि अनेक शासन प्रभावक आयोजन भी हुए हैं / . धन्य है, ऐसी महातपस्विनी शासन प्रभाविका साध्वीजी भगवंत को।... Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 तप के तेज से देदीप्यमान इन साध्वीजी के नाम का अर्थ भी "सुंदर तेज (कांति) वाला" होता है / उनके गुरुणी का नाम अर्थात् जो "मुक्ति की दूती" के रूप में गिनी जाती है। _ जिनके संपूर्ण नाम में चार-चार परमेष्ठी भगवंतों का समावेश होता है, ऐसे महातपस्वी गच्छाधिपति आचार्य भगवंत की वे आज्ञावर्तिनी हैं। अब तो पहचान लोगे ना इन साध्वीजी भगवंत को ?... . वर्धमान तप की दो बार 100 ओली पूर्ण करके, 266 तीसरी बार नीव डालकर, आगे बढ़ते हुए वर्धमान तपोनिधि तीन साध्वीजी भगवंत वर्धमान तप की दो बार 100 ओली पूर्ण करके तीसरी बार 89 ओली पूर्ण करनेवाले तपस्वीरत्न आचार्य भगवंतश्री का दृष्टांत आपने इसी पुस्तक में आगे पढा। ____ उसी प्रकार वर्तमान काल में साध्वीजी भगवंतों में भी तीन-तीन ऐसी तपस्वी महात्माएँ हैं, कि जो दो बार 100 ओली पूर्ण करके तीसरी बार नींव डालकर आगे ओलियाँ कर रही है / उसमें प्रथम नंबर पर पू. बापजी म.सा. के समुदाय के एक साध्वीजी भगवंत हैं, जिनका शुभ नाम एक प्राचीन महासती के नाम के समान होने से रोज बोला जाता है। सिंह राशि के यह साध्वीजी कर्मक्षय में सिंह जैसे पराक्रमी हैं। इन्होंने 19 वर्ष की भरयुवावस्था में 2004 में प्रतिकूल परिस्थितियों में भी रास्ता निकालकर संयम स्वीकारा था / इन्होंने दीक्षा लेकर उसी वर्ष वर्धमान तप की नींव डाली और सं. 2026 में प्रथम बार 100 ओली पूर्ण की। उसमें लगातार 400/500 तथा 1000 आयंबिल के अलावा 16 उपवास मासक्षमण आदि तपश्चर्या भी की। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 525 गृहस्थ जीवन में ही बीस स्थानक तप की आराधना पूर्ण करनेवाले इन तपस्वी महात्मा ने 100 ओली पूर्ण करने के बाद संतोष न मानते हुए सिद्धितप / श्रेणितप / समवसरणतप / सिंहासनतप / चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप / उपवास से वर्षीतप / अठ्ठम से वर्षीतप जैसी बड़ी तपश्चर्याएँ करके पुनः सं. 2028 में अठ्ठम से वर्धमान तप की नींव डाली और मात्र 23 वर्ष में 66 वर्ष की उम्र में, 47 वर्ष के दीक्षा पर्याय में दूसरी बार वि.सं. 2051 की माघ वदि 3 के दिन १००वी ओली पूर्ण की। उन्होंने दूसरी बार 100 वीं संपूर्ण ओली अठ्ठम के पारणे आयंबिल से अर्थात् 25 अठ्ठम और 25 आयंबिल से पूर्ण की !!! . ऐसी घोर तपश्चर्या के साथ इनके जीवन में अप्रमत्तता और समता अत्यंत अनुमोदनीय हैं / वे रात्रि में 10 से 2 बजे के दौरान मुश्किल से साढे तीन-चार घंटे ही आराम करती हैं। दिन में कभी सोती नहीं हैं। वे 20 घंटों में से 12 घंटे जाप और स्वाध्याय में बिताती हैं / प्रतिदिन 20 पक्की नवकार की माला तथा अरिहंत पद की 100 माला का जाप करती हैं। 1 करोड़ नवकार जाप करने की भावना है। उनका अरिहंत पद का लगभग 2 करोड़ का जाप पूर्ण हो गया है ! इन्होंने पूर्व में गुरु महाराज की अत्यंत भक्ति और वैयावच्च करके विशिष्ट गुरुकृपा प्राप्त की है ! तप-जप और गुरु कृपा के प्रभाव से दैवीकृपा भी सहज रूप से प्राप्त हुई है। उसके प्रतीक स्वरूप कितनी ही बार वासक्षेप की वृष्टि भी हुई है! / ___ उन्होंने दूसरी बार 100 ओली पूर्ण करने के बाद बड़ी उम्र में पुनः नींव डाली और तीसरी बार 45 ओली पूर्ण करने के समाचार मिले हैं / इतनी उग्र तपश्चर्या के बीच उन्होंने 68 उपवास और 9 आयंबिल द्वारा 76 दिन में श्री नवकार महामंत्र की आराधना भी इसी वर्ष में पूर्ण की है !!! शासनदेव इनको दीर्घायुष्य के साथ तीसरी बार 100 ओली पूर्ण करने का सामर्थ्य प्रदान करें ऐसी प्रार्थना // इनकी दो शिष्याओं की भी 100 से अधिक ओलियाँ हो गयी हैं। साणंद में जन्में यह महातपस्वी साध्वीजी श्री संघ की विनंती से वृद्धावस्था के कारण अधिकतर साणंद में विराजमान रहती हैं। इनके दर्शन एक बार अवश्य करने चाहिए। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 16 वर्ष की उम्र में परिणय-सूत्र में बंधने के बावजूद पूज्यों के सत्संग के प्रभाव से वैराग्य वासित बनकर 29 वर्ष की उम्र में सं. 2001 में कच्छ-वागड़ समुदाय में दीक्षित हुई साध्वीजी ने दीक्षा से पहले 3 उपधान तथा वर्धमान तप की 11 ओलियाँ पूर्ण की थीं / इन्होंने दीक्षा के बाद 5 वर्ष में बीस स्थानक तप पूर्ण किया और सं 2005 में 12 वीं औली शुरू कर 19 वर्ष की अल्प अवधि में 100 ओली पूर्ण कर सं. 2040 की माघ वदि 1 के दिन राजकोट में पारणा किया / इन्होंने लंबी ओलियों में भी कई बार शुद्ध आयंबिल और ग्रीष्म ऋतु की प्रचन्ड गरमी में भी ठाम चौविहार और अलणे आयंबिल किये !.. उन्होनें एक बार लगातार साढे पन्द्रह महिने तक आयंबिल किये तब इन पर रोग का भयंकर हमला हुआ था / फिर भी मन की दृढता और आयंबिल के प्रति की अटूट श्रद्धा की बात पर इस कसौटी में खरे उतरे / 100 ओली पूर्ण होने के बावजूद इनकी तप तृषा शांत होने के बजाय उत्तरोत्तर बढती गयी। उसी कारण से उसी वर्ष पुनः वर्धमान तप की नींव डालकर लगातार 11 आलियाँ की ! फिर तो प्रतिकूलताओं के गहरे सागरमें भी इनकी तप रूपी नौका आगे बढती गयी / जिसके फलस्वरूप सं 2046 की महा सुदि 5 के दिन कच्छ-अधोई गाँव में दूसरी बार 100 ओलियाँ 74 वर्ष की बड़ी उम्रमें पूर्ण हुईं। आज वे समग्र भारत वर्ष के साध्वी समुदाय में 200 ओलीपूर्ण करनेवाले पुण्यात्माओं में द्वितीय स्थान प्राप्तकर जैन शासन के महान प्रभावक बन रही हैं / किन्तु इतने से भी उनकी तप तृषा तृप्त नहीं ही हुई / जिससे उसी वर्ष फा.सु. 5 के दिन पुन: तीसरी बार नींव डाली और देखते ही देखते 27. ओलियाँ पूर्ण कर ली / अब वृद्धावस्था और शारीरिक Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 527 प्रतिकूलताओं के कारण ज्यादा ओलियाँ हो सके वैसी संभावना कम ही लगती है / किन्तु थोड़ी भी प्रतिकूलता खड़ी हो जाये तो वे आयंबिल की स्मृति तीव्र बनाते हैं / इन्होंने जीवन में दवा के स्थान पर आयंबिल को तथा डोक्टर के स्थान पर नवपदजी को स्थान दिया है ! तप के साथ- साथ समता, अप्रमत्तता, जयणा, स्वाध्याय रूचि आदि सद्गुणों के कारण इन्होंने अनेकों के जीवन में धर्म के बीज का रोपण किया है। इनका नाम भी प्रातःकाल प्रतिक्रमण में बोली जाती भरहेसर की सज्झाय में आता हुआ एक महासती का नाम है / इनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ 'फूल' होता है / उनका हृदय भी नाम के अनुसार दूसरे जीवों के लिए फूल जैसा कोमल और अनेक सद्गुणों की सुवास से महकता है / इनके तपोमय जीवन की हार्दिक अनुमोदना / अभी वे सुरेन्द्रनगर में विराजमान हैं / 268 उपर्युक्त महातपस्वी साध्वीजी के पद चिन्हों पर इनकी प्रशिष्या भी कुछ वर्ष पूर्व दूसरी बार 100 ओली का पारणा करके पुनः तीसरी बार नींव डालकर आगे बढ़ रही हैं / उन्होंने लगातार 500-1000-1500-1700 आयंबिल किये हैं / वे हर ओली में अट्ठम तप करती हैं / उन्होंने इसके अलावा मासक्षमण सोलहभत्ता, छह अट्ठाई तथा सिद्धितप वगैरह तपश्चर्या भी की है; परिणाम स्वरूप 'उन्होंने हंस समान उज्जवल कीर्ति प्राप्त की है। वे तीसरी बार भी 100 ओली पूर्ण करनेवाले बनें ऐसी शासन देव को प्रार्थना के साथ उनके तपोमय जीवन की हार्दिक अनुमोदना / Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 PER लगातार बीस-बीस उपवास से बीस स्थानक की আয়না জনমান যাঁয় মালী গান !! उपर्युक्त 227 ओली के तपस्वी साध्वीजी के एक शिष्या ने लगातार 20-20 उपवास से बीस स्थानक तप की 20 ओलियाँ पूर्ण की हैं। उन्होंने इसके अलावा भी लगातार 45- 31- 30- 27- 2120- 18- 11 उपवास, 7 बार अठाई ... चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप ... सिद्धितप , एक उपवास से वर्षीतप ... अठ्ठम से वर्षीतप.... एवं लगातार 1000-500 - 225 तथा 200 आयंबिल (5 बार) एवं क्षीरसमुद्र तप (7 उपवास) वगैरह अनेकविध तपश्चर्या से अपना जीवन सुवर्ण जैसा देदीप्यमान और चंद्र समान उज्जवल यशोमय बनाया है। इनके तपोमय जीवन की हार्दिक अनुमोदना / उनके नाम के साथ साम्य रखनेवाले एक आचार्य भगवंत ने भूतकाल में साढे तीन करोड़ श्लोक प्रमाण संस्कृत साहित्य की रचना की थी / अभी भी इस नाम के प्रायः दो विद्वान् आचार्य भगवंत अलग- अलग समुदाय में विद्यमान हैं / इसी समुदाय के दूसरे दो साध्वीजी भगवंतों ने भी इसी प्रकार से लगातार 20 - 20 उपवास से बीस स्थानक तप की आराधना की है / उसमें से एक साध्वीजी ने 100 ओली का पारणा सादगीपूर्वक, सहज भाव से किया उनका दृष्टांत इसी पुस्तक में अन्यत्र दिया गया है। दूसरे साध्वीजी भगवंत पहले गृहस्थावस्था में जमीकंद के अत्यंत शौकिन थे / उन्होंने बाद में जमीकंद के भक्षण से होती अनंत जीवो की हिंसा का खयाल आते जमीकंद का एकदम त्याग किया था / परन्तु उनका विवाह स्थानवासी परिवार में होने पर कंदमूल की सब्जी बनाने का आग्रह होने से वैराग्य प्राप्तकर दीक्षा ली थी / उन्होंने भी लगातार 20-20 उपवास 20 बार कर के बीस स्थानक तप की आराधना पूर्ण की है। उनके नाम Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 529 का अर्थ "सुंदर मुँह वाला" होता है / नाम अनुसार तप के तेज से उनकी मुखाकृति देदीप्यमान है / - एक अन्य समुदाय के दो साध्वीजी भगवंतोंने भी लगातार 20-20 उपवास से बीस स्थानक तप की आराधना की हैं / उन्होंने सबसे ज्यादा मासक्षमण भी किये हैं। उनका दृष्टांत इसी पुस्तक में अन्यत्र दिया गया है। 270/- 73 वर्ष की उसमें लगातार 251 उपवास // HERE उपवास पंजाब में रामामंडी गाँव में इ.स. 1924 में जन्म लेकर 20 वर्ष की उम्र में स्थानकवासी श्रमण संघ में दीक्षित हुए एक साध्वीजी ने वि. सं. 2052 में 73 वर्ष की बड़ी उम्र में लगातार 251 उपवास की सुदीर्घ तपश्चर्या करके सबको आश्चर्य चकित किया है / उनके द्वारा पिछले 9 वर्षों में की गयी तपश्चर्या की सूचि निम्न है / क्रमांक वि.सं. चातुर्मास प्रांत 2044 जाखल ___पंजाब 61 2045 बुढलाड़ा 2046 सफीदो मंडी " पटियाला 2048 भटिंडा 1049 रानिया 2050 मालेर कोटला 2051 पानीपत हरियाणा 151 2052 शक्तिनगर दिल्ली 251 2047 k or m 3 w9 v or 'बहुर:ना वसुंधरा - 3-34 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उनके उपर तप ओर जप के दिव्य प्रभाव से विविध गाँवों में सैंकडों बार केसर वृष्टि हुई है। . इनका विवाह 9 वर्ष की उम्र में हो चूका था / उसके बावजूद सत्संग के प्रभाव से 19 वर्ष की भर युवावस्था में उनको वैराग्य उत्पन्न हआ / अनेक प्रयत्नों के परिणाम स्वरुप दीक्षा के लिए अनुमति प्राप्त कर 20 वर्ष की उम्रमें वे दीक्षित बने थे / . इन्होंने तप के साथ स्वाध्याय और बड़ों की विशिष्ट सेवा द्वारा अद्भुत गुरुकृपा प्राप्त की है। 251 उपवास की तपश्चर्या वर्तमानकालीन 180 उपवास की शास्त्रीय मर्यादा के विशिष्ट अपवाद के रूपमें जानना / इनके नाम के दो अक्षर के पूर्वार्ध का अर्थ 'सोना' होता है और 3 अक्षर का उत्तरार्ध कुमार अवस्था का सूचक शब्द है / इनकी तपश्चर्या से प्रभावित होकर इनके गच्छाधिपति आचार्यश्री ने इन्हें "तपो वारिधि" "तपमुकुट मणि" इत्यादि बिरूदों से अलंकृत किया है। 271 लगातार 111 उपवास // इनके ही समुदाय के "तप चक्रेश्वरी" के रूप में सुप्रसिद्ध एक महासतीजी ने वि. सं. 2052 के दिल्ली (मान सरोवर पार्क-शाहदरा) चातुर्मास में 311 उपवास की दीर्घ तपश्चर्या की है / उन्होंने संवत 2051 स्वभनगर (दिल्ली) में भी 112 उपवास की तपश्चर्या की थी ! और सं, 2055 में दिल्ली में केवल गर्मजल के आधार पर 211 उपवास किये थे। इनके उपर भी अनेक बार केसरवृष्टि हुई है / कितने ही Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___531 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 दर्शनार्थियों को दूसरे भी विशिष्ट अनुभव होते हैं। इनके नाम के 3 अक्षर के पूर्वार्ध का अर्थ "मोह प्रदान करनेवाला" ऐसा होता है / विशिष्ट तप-जप द्वारा देवों के मन को भी आकर्षित करने से उनके नाम का पूर्वार्ध यथार्थ ही है / उसी प्रकार उनके नाम का उत्तरार्ध एक ऐसी पवित्रवस्तु का सूचन करता है, जो प्रायः उनके हाथ में अक्सर दिखाई देती है / महासतियों की तप-जप आदि साधना की हार्दिक अनुमोदना / 272 11 अंगसूत्र कंठस्थ करनेवाले साध्वीजी संसार से विरक्त बनी हुई अपनी मातृश्री के सुसंस्कारों से राजीमती ने बाल्यवय में ही वर्धमान तप की नींव डाली और उसके बाद केवल 14 वर्ष की उम्र में वि. सं. 2006 में कविकुलकिरीट आचार्य भगवंत श्री के समुदाय में अपनी छोटी बहिन वसु के साथ दीक्षा अंगीकार की। उनकी वाल्यावस्था में ही अभ्यास की लगन थी और प्रतिदिन 100 गाथा कंठस्थ कर सके वैसी तीव्र यादशक्ति थी ! - बड़ी दीक्षा के योगोद्वहन के समय जिस दिन जिस अध्ययन की अनुज्ञा मिलती उस दिन वह पूरा अध्ययन कंठस्थ कर लेती, इतना ही नहीं परन्तु नियमित स्वाध्याय के कारण पूर्व में याद किया हुआ हमेशा मुखपाठ होता है। इन्होंने देखते ही देखते 4 प्रकरण 3 भाष्य, 6 कर्मग्रन्थ क्षेत्रसमास, बृहत्संग्रहणी, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्र, ज्ञानसार. तत्त्वार्थ सूत्र, वीतराग स्तोत्र, अभिधान चिंतामणि कोश वगैरह नवकार की तरह कंठस्थ कर लिये / संस्कृत और प्राकृत भाषा में तो इनके जैसी विदुषी साध्वीजी श्रमणी संघ में खोजने पर भी शायद ही मिलेंगे / Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 इन्होंने दशवैकालिक की टीका, उत्तराध्ययन सूत्र की टीका, पिंड नियुक्ति, ओघ नियुक्ति, 10 पयन्ना, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र जैसे अनेक ग्रन्थ पढे हैं और दूसरों को अध्ययन कराया है / . . वे विजय प्रशस्ति, हीर सौभाग्य, मेघदूत, अभिज्ञान शांकुतल, शांतिनाथ महाकाव्य आदि अनेक महाकाव्यों और संस्कृत द्वयाश्रय, प्राकृत द्वयाश्रय जैसे कठिन ग्रन्थों का अभ्यास वर्तमान में भी अत्यंत सरलता से करवाती हैं। इनकी ऐसी अपूर्व स्वाध्याय मग्नता और अपूर्व ग्रहणशक्ति देखकर तीर्थप्रभावक आचार्य भगवंत श्री ने उन्हें 11 अंगसूत्र कंठस्थ करने की प्रेरणा दी / इन्होंने उनकी बात का सम्मान करते हुए आचारंग-सुचगडांग ठाणांग-समवायांग-भगवती-ज्ञानाधर्म कथा-उपाशक दशांग, अंतकृत दशांगअनुत्तरोपपातिक दशांग- प्रश्न व्याकरण तथा विपाक सूत्र नाम के 11 अंगसूत्रों को कंठस्थ कर लिया ! उसमें पूरा भगवती सूत्र एकाशन तप पूर्वक कंठस्थ किया / आप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में छंदोबद्ध काव्य रचना भी कर सकती हैं / इनकी 'विक्रम भक्तामर' की रचना बहुत ही सुंदर एवं विद्वानों में सम्माननीय बनी है। _ इन्होंने ज्ञानाभ्यास के अलावा भक्ति, वैयावच्च, गुरुआज्ञापालन, सहनशीलता, न भाते हुए को भी निभाने की सुंदरकला वगैरह अनेक सद्गुणों से विशिष्ट गुरुकृपा और सहवर्ती सभी की अच्छी चाहना प्राप्त की है। अनेक शिष्याओं-प्रशिष्याओं के परिवार से शोभित आप स्वोपकार . के साथ विशिष्ट परोपकार और सुंदर शासन प्रभावना कर रही हैं। . इनके नाम का पूर्वार्ध समवसरण में उपर का प्रथमगढ जिसका बना होता है, उसका सूचन करता है तथा उत्तरार्ध का अर्थ 'शिखर' का पर्यायवाची स्त्रीलिंग शब्द होता है / Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 273 विदुषी साध्वीजी ( बहिन महाराज) उपरोक्त साध्वीजी के साथ 10 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुई उनकी छोटी "बहिन महाराज" ने भी अपनी अपूर्व ग्रहणशक्ति द्वारा प्रकरण भाष्य, कर्मग्रन्थ, कम्मपयड़ी, पंचसंग्रह, संस्कृत-प्राकृत व्याकरण, न्याय, काव्य, ज्योतिष आदि अनेक विषयों में प्रभुत्व प्राप्त किया है / उनकी अध्यापन कला भी उच्चकोटि की है / उनकी वक्तृत्व शक्ति अद्भुत है / वक्तृत्व से भी उनकी लेखनी में अधिक शक्ति है / श्री दशवैकालिक चिंतनिका, श्री उत्तराध्ययन चिंतनिका, श्री आचारांग चिंतनिका 'पाथेय कोईनु, श्रेय सर्व मुं... वगैरह पुस्तकों में उनकी कलम ने जो गहन चिंतन - मनन बहाया है, वह वास्तव में अद्भुत है / कुछ स्थानकवासी महासतीयाँ भी यदि वे पास के क्षेत्र में हों तो उनके अवश्य दर्शन कर बारबार उनके श्री मुख से कुछ चिंतन धारा झेलने के लिए उत्सुक हृदय से उपस्थित रहती ही हैं / इनकी अध्ययन-अध्यापन वक्तृत्व एवं लेखन के अलावा आयोजन शक्ति भी विशिष्ट प्रकार की है / छ'री' पालित संघ हो या जिनभक्ति महोत्सव, उपधान तप हो या महिला शिविर हो, सामूहिक तप हो या समूह . सामायिक हो ... संक्षेप में जिनशासन से संबन्धित कोई भी अनुष्ठान हो, उसमें इनकी आयोजन शक्ति झलक उठती ही है / इनके गुरुदेव तीर्थप्रभावक आचार्य भगवंत श्री की निश्रा में जब खंभात में 108 मासक्षमण की तपश्चर्या की हुई थी, तब भी अपने समुदाय में "बहिन महाराज' के नाम से सुप्रसिद्ध इन साध्वीजी भगवंत का तपस्वियों को शाता पहुंचाने में सुंदर योगदान था / इन्होंने अपने समुदाय के तीन-तीन आचार्य भगवंतों की सुंदर गुरुकृपा प्राप्त की है और उनके मार्गदर्शन अनुसार नवकार महामंत्र, भक्तामर स्तोत्र और पार्श्वनाथ भगवान की सुंदर आराधना की है। इन्होंने अनेक संघोंमें नवकार तथा Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अहँ का जाप करोड़ों की संख्या में करवाया है। इनके नाम में 4 अक्षर का 'साधु' का पर्यायवाची वह शब्द है, जो वचनगुप्ति तथा भाषासमिति का निर्देश करता है / आप अनेक शिष्या-प्रशिष्याओं के परिवार से शोभित होकर सुंदर शासन प्रभावना कर रही हैं / 274 // पल्लेवाल क्षेत्रमें धर्म को पुनर्जीवित करते हुए साध्वीजी उपर्युक्त दोनों बहिनों की दीक्षा के बाद दूसरे ही वर्ष सं. 2007 में उनकी तीसरी छोटी बहिन सरोज की दीक्षा 7 वर्ष की बाल्यावस्था में उसके मातृश्री शांताबहन के साथ हुई / उनके जीवन में संयम प्राप्ति का 'शुभ उदय' बाल्यावस्था में ही हुआ, उससे उनका नाम भी उसी प्रकार का रखा गया / ... उनके गुरुदेव श्री की निश्रा में सिकंदराबाद से सम्मेतशिखरजी का 191 दिन का छ'री' पालित संघ तथा कलकत्ता से पालिताना का 201 दिन का / ऐतिहासिक छ'री' पालित संघ निकला था !... यह संघ जब राजस्थान के भरतपुर, अलवर, गंगानगर तथा सवाई माधोपुर आदि जिलों के समूहरूप पल्लीवाल प्रदेश के रूप में पहचाने जाते क्षेत्र में से गुजरा तब वहाँ के जैन मंदिरों की दशा अत्यंत जीर्ण दिखाई दी। जैनों की भी धर्मभावना जीर्ण अवस्था में दिखाई दी / यह देखकर आचार्य भगवंत के हृदय को खूब दुःख हुआ / वहाँ के स्थानिक जैनों ने आचार्य भगवंत के पैरों में गिरकर अपना उद्धार करने के लिए विनंती की। उस समय संघ तो आगे बढा किन्तु बादमें आचार्य भगवंत ने इस कार्य हेतु उपर्युक्त साध्वीजी को पल्लीवाल क्षेत्र में विचरण करने हेतु आज्ञा दी। साध्वीजी गुरु आज्ञा को शिरोमान्य कर सं 2037 में सपरिवार Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 535 पल्लीवाल क्षेत्र में पधारी / उन्होंने इस प्रदेश में गोचरी-पानी-विहार स्थानों की तथा दूसरी अनेक प्रकार की असुविधा को सहनकर भी लगातार 18 वर्ष तक इस क्षेत्रमें विचरण किया / धर्मोपदेश की गंगा बहाकर लगभग 36 जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार तथा नवनिर्माण करवाया श्रावकों में बोये संस्कारों को जीवंत रखने के लिए 11 आराधना भवन उपाश्रयों का निर्माण करवाया / वहाँ के सुविख्यात सिरस तीर्थ की छह बार संघयात्रा का आयोजन किया / धार्मिक शिविरों का आयोजन कर, वहाँ की आदिवासी जैसी पिछड़ी जैन प्रजा में धर्म का सुन्दर प्रचार-प्रसार किया / शिष्या समुदाय ने मासक्षमण जैसी महान तपश्चर्या द्वारा धर्मप्रभावना भी की / अन्य साध्वीजी भगवंतों ने भी इस क्षेत्र के जीर्णोद्धार में सुंदर सहयोग दिया / इनकी माता साध्वीजी भी वात्सल्ययुक्त स्वभाव के कारण पूरे समुदाय में "बा महाराज" के नाम से प्रिय हो गये थे। उन्होंने गुरुआज्ञापालन, सदैव, अप्रमत्तता, मेवा-मिठाई का त्याग, 75 वर्ष की उम्र में तीसरा वर्षांतप, (कुल 4 वर्षीतप) 11 तथा 21 उपवास, नवपद तथा वर्धमान तप की ओलियाँ, चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय इत्यादि तपश्चर्या एवं करीब 44 शिष्या-प्रशिष्यादि श्रमणी वृंद के सुंदर अनुशासन आदि द्वारा अपना जीवन धन्य बनाया / रत्नत्रयी जैसे उपरोक्त तीन-तीन श्रमणीरत्नों को शासन के चरणों में समर्पित कर वह सं. 2050 की मेरुत्रयोदशी के दिन समाधिपूर्वक सद्गति को प्राप्त हुईं। 275 प्रत्येक पारणे में एक धान्य के आयंबिल के साथ अठाई से वर्षातप का भव्य पुस्वार्ष / ____B.Sc. में प्रथम श्रेणिमें उत्तीर्ण हुई कोलेजियन कन्या ने उपधान तप में प्रवेश किया, उसी दिन से हमेशा नीवि या आयंबिल में पाँच से ज्यादा द्रव्य नहीं वापरने का अभिग्रह लिया !... __उसने उपधान सानंद पूर्ण होते ही दीक्षा लेने का मनमें निश्चय कर लिया इतना ही नहीं, आचार्य भगवंत के आगे यावज्जीव पाँच से ज्यादा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 द्रव्य नहीं वापरने का अभिग्रह देने का निवेदन किया !... अन्त में आचार्य भगवंत ने दीक्षा का मूहूर्त नहीं निकले तब तक के लिए उपयुक्त अभिग्रह दिया और दीक्षा के बाद जिस प्रकार गुरुणी कहें उसके अनुसार करने को कहा !... सं. 2031 में 27 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुई इस कन्या ने साढ़े चौदह वर्ष के दीक्षा पर्याय में निम्नलिखित आश्चर्यप्रद तप - त्याग की भव्य साधना की है। (1) 500 आयंबिल (2) मासक्षमण (3) भद्रतप (4) श्रेणितप (1) प्रत्येक पारणे में एकासन के साथ अठ्ठम से पाँच वर्षीतप !!! उसमें भी प्रत्येक वर्षीतपमें उत्तरोत्तर एक-दो-तीन-चार- पाँच विगई का मूल से त्याग करते गये !!! पहले वर्षीतप में कड़ा विगई का त्याग / दूसरे वर्षीतपमें कड़ा तथा गुड़ का त्याग / तीसरे वर्षीतपमें कड़ा गुड तथा तेल का त्याग / चौथे वर्षीतप में कड़ा, गुड, तेल तथा दही का त्याग। पाँचवे वर्षीतप में कड़ा गुड़, दही तेल तथा घी का त्याग / उन्होंने इन सभी विगइयों का मूल से त्याग किया / अर्थात् उपरोक्त विगइयों का जिसमें थोड़ा भी उपयोग होता है, वैसी दूसरी कोई भी वस्तु नहीं वापरते थे !!! इन वर्षीतपों के दौरान अनेक वार चौविहार अठ्ठम की तपश्चर्या की। उनको कर्म संयोग से टी.बी. का रोग हुआ / उसमें भी विराधना न हो इसलिए वे एक्स रे फोये नहीं निकलवाते और खून तथा युरीन की जाँच भी नहीं करवाते / 9 महिनों के निर्दोष उपचार के बाद वापस स्वास्थ्य अच्छा होते ही उन्होनें कर्म शत्रुओं के खिलाफ जंग छेड़ दिया ! में भी आयंबिल ही करना !! आयंबिल भी एक ही धान्य से करना !!! उसमें भी परिमड्ढ़ का पच्चक्खाण करना !!! उसमें भी घरों में से सहजता से जो निर्दोष गोचरी मिले उससे ही चलाना !!!... ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या के प्रमाव से उनका देहाध्यास काफी मंद हो गया था। नश्वर काया की माया समाप्त होकर अविनश्वर ऐसे आत्म तत्त्व का अनुभव करने की दिशा में उनकी साधना आगे बढ रही थी। 'कार्यं साधयामि वा देहं Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 537 पातयामि' ऐसा उनका दृढ जीवन मंत्र था और आखिर चौदहवीं अट्ठाई के दौरान पाँचवे उपवास में संपूर्ण जाग्रत अवस्थामें, सभी जीवों से क्षमापना कर अपने गुरुणी के श्री मुख से नवकार तथा पाँच महाव्रतों की आलोचना सुनते सं 2045 की अषाढ सुदि 13 के दिन समाधिपूर्वक हमेशा - हमेशा के लिए आँखें मूंद लीं / मानो कि अणाहारी पद को प्राप्त करने के लिए आहार का हमेशा के लिए त्याग कर दिया !.... - इनके जीवन में ऐसे भीषण तप के साथ में अत्यंत अनुमोदनीय अप्रमत्तता थी। वे अपना काम खुद ही करते इतना ही नहीं, बड़ों की भक्ति के लिए हमेशा खड़े पाँव तैयार रहते / उन्होंने छह कर्मग्रन्थ, व्याकरण, तर्कसंग्रह वगैरह का अर्थ सहित तलस्पर्शी अभ्यास भी किया था ! उनके नाम का पूर्वार्ध 'ज्ञान' का पर्यायवाची डेढ अक्षर का शब्द है, तथा उत्तरार्ध प्रायः सभी लोगों की प्रिय एक ऋतु का नाम है। ___ उनकी दीक्षा के सात वर्ष बाद उनकी ग्रेज्युएट तीन छोटी बहनों ने भी दीक्षा ली थी। उसके बाद दूसरे पाँच वर्ष रहकर उनकी मातृश्री की भी दीक्षा हुई थी। उनकी अनुमोदनीय आराधना की जानकारी इसके बाद के दृष्टांत में दी गई है / वास्तव में जिनशासन ऐसे महा तपस्वी आराधक संयमी आत्माओं से गौरवान्वित है। 276 |900 आयंबिल के उपर 45 उपवास की तपश्चयां के साथ नवसारी से शंखेश्वर का विहार / / / ___B.Com. तक व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त करने वाली कोलिजियन कन्या ने सं. 2030 महा सुदी पंचमी को संयम अंगीकार किया। जिनके घर पर हमेशा दो मिठाइयाँ और दो नमकीन हाजिर हों, वैसे सुखी परिवार में से दीक्षित हुए इन साध्वीजी ने दीक्षा के बाद कर्म निर्जरार्थ उग्र तपश्चर्या प्रारंभ कर दी। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 / बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 __ उन्होंने लगातार 900 आयंबिल करके ऊपर बिना पारणा किये लगातार 45 उपवास शुरू कर दिये / इक्कीसवे दिन उन्हें भावना हुई कि 'मुझे शंखेश्वर तीर्थ में जाकर प्रभुदर्शन करने के बाद ही पारणा करना है।" ऐसी भावना के साथ उन्होंने नवसारी से विहार प्रारम्भ किया / ऐसी उग्र तपश्चर्या के साथ रोज विहार करते करते अनुक्रम से शंखेश्वर पहुँचे / तब बयालिसवाँ उपवास था ! ___ उन्होंने शंखेश्वर में आकर अठ्ठम किया अर्थात् कुल 45 उपवास हुए / पारणे के दिन वे स्वयं दोपहर के समय एक हाथ में तरपणी चेतना और दूसरे हाथमें लकडीका घड़ा लेकर आयंबिल की गोचरी बोहरने के लिए निकले / उनके मातुश्री भी पारणा करवाने आये हुए थे, परन्तु उन्होंने वहाँ बहोरने से मना करते हुए खुलासा किया कि - "आपने मेरे निमित्त बनवाया है इसलिए नहीं कल्पेगा" !... उन्होंने इस प्रकार आयंबिल से पारणा करने के बाद भी आयंबिल चालु रखे / थोड़े आयंबिलों के बाद बीच-बीच में अठ्ठम भी करते रहे। उन्होंने लगातार कुल 970 आयंबिल किये, फिर चैत्र सुदि 5 से पुनः मासक्षमण प्रारम्भ कर दिया !.... उन्होंने ग्रीष्म ऋतु की असह्य गर्मी में प्रसन्नतापूर्वक मासक्षमण पूरा करके अक्षय तृतीया के दिन आयंबिल से पारणा किया !... पारणे के मौके पर कोई पत्रिका नहीं, महोत्सव नहीं, प्रचार नहीं, तपस्विनी के रूपमें दिखने के लेश मात्र भी आशंसा नहीं !... रसनेन्द्रिय के उपर कैसा नियंत्रण !... मानकषाय के ऊपर कैसा बेजोड़ काबू! ___उन्होंने इसके अलावा भी 15 वर्ष के दीक्षा में निम्नलिखित अत्यंत अनुमोदनीय तपश्चर्या की है / (1) सिद्धितप (पारणे में आयंबिल) (2) श्रेणितप ( " ) (3) बीस स्थानक के लगातार 400 अठ्ठम (4) पार्श्वनाथ के लगातार 108 अठ्ठम .. (5) पिछले कई वर्षों से हर पर्युषण में अट्ठाई तप . Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 539 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (6) उन्होंने एक वर्ष तक नवपदजी की निम्नलिखित विशिष्ट रूप में आराधना की - एक धान्य के 9 आयंबिल करने के बाद एक पारणा करके पुनः दूसरे एक धान्य के 9 आयंबिल के बाद एक पारणा कर पुनः तीसरे एक ही धान्य के 9 आयंबिल ... इत्यादि / विहार में एक धान्य की निर्दोष गोचरी नहीं मिलती तो कच्ची मूंग की दाल, उड़द की दाल या रोटी पानी में डालकर 3-4 घंटे भिगोकर वापरते हैं !!!.... उन्होंने बीचमें अठ्ठम से वर्षीतप भी किया / पारणों में पुरिमड्ढ एकाशन करते थे। वे ऐसी उग्र तपश्चर्या के साथ साथ ज्ञान ध्यान रूप आभ्यंतर तप में भी अप्रमत रूपसे अनुमोदनीय पुरुषार्थ कर रहे हैं / उनके नाम का पूर्वार्ध जो ज्ञान के पाँच प्रकारों में 'बोलता ज्ञान' कहलाता है वह है / उत्तरार्ध सबकी मनपसंद एक ऋतु का नाम है। २७७लगातार 400 छत से बीस स्थानक की आराधना उपर्युक्त साध्वीजी की बड़ी बहन ने उनसे 7 वर्ष पहले दीक्षा ली / उनका अत्यंत अनुमोदनीय दृष्टांत इससे आगे दिया गया है। तथा उनके साथ दो छोटी बहिनों ने सं. 2038 में दीक्षा ली। उनकी मातृश्री ने सं.२०४८ में 72 वर्ष की उम्र में दीक्षा ली / इन तीनों की आराधना भी अनुक्रम से निम्न प्रकार से है। बीस स्थानक की लगातार 400 छठ ... सिद्धितप .... वर्षीतप लगातार 870 आयंबिल ... उसमें भी 1 वर्ष तक महिने में 3 अठ्ठम ! गृहस्थ अवस्था में M.Sc. में फर्स्ट क्लास पास हुए इन साध्वीजी के नाम का पूर्वार्ध जीवन में अत्यंत महत्व के दो अक्षर के सद्गुण का सूचन करता है / उत्तरार्ध ऊपर मुताबिक जानना / Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 278 तपामय जीवन उपरोक्त साध्वीजी की दूसरी बहन साध्वीजीने निम्नोक्त तपश्चर्या की है। बीस स्थानक तप... सिद्धितप .... श्रेणितप ... लगातार 500 आयंबिल .... लगातार 6 वर्षीतप (उसमें सं. 2041 में छठ्ठ से वर्षांतप किया / ) इन साध्वीजी के नाम का पूर्वार्ध सम्यक्त्व के प्रथम लक्षण को सूचित करता है / उत्तरार्ध उपर मुताबिक जानना / 279 72 वर्ष की उम्र में संयम स्वीकार 72 वर्ष की उम्र जब शांति से आराम करने का समय गिना जाता है, तब उन्होंने कर्म के साथ झुझने के लिए महाभिनिष्क्रमण किया ! इन्होंने बड़ी उम्रमें पालिताना गिरनार शंखेश्वर, आबु, राणकपुर आदि तीर्थों की यात्रा विहार करके की / पिछले 40 वर्षों से एकाशन से कम तप नहीं किया / सिद्धितप... दो वर्षीतप.. वर्धमान तप की 51 ओलियाँ, 99 यात्रा आदि अनेक छोटे-बड़े तपों से इन्होंने अपना जीवन ओजस्वी एवं तेजस्वी बनाया है / इनके जीवन की एक प्रमुख विशेषता है कि वे चाहे जैसे सुख में न तो लीन बनती हैं न ही भयंकर से भयंकर दुःख में दीन बनती हैं / अभी 84 वर्ष की बड़ी उम्र में वे नवसारी में स्थिरवास विराजमान हैं / अनेक प्रकार की शारीरिक तकलीफों के होने के बावजूद अत्यंत समता और प्रसन्नतापूर्वक संयम जीवन का पालन कर रही हैं / ____ इन पाँचों श्रमणीरनों के जीवन के निर्माण में प्रेरणा का पीयूष पिलाने वाले बिदुषी साध्वीरत्ना के नाम का अर्थ "सिंह' होता है / वह भी नाम के अनुसार अत्यंत शूरवीरतापूर्वक संयम जीवन का पालन कर रही हैं। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 541 ये सभी, नजदीक के भूतकालमें मीनी देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की उपमाको प्राप्त किये आचार्य भगवंत श्री के समुदाय को अलंकृत कर रही हैं ! 280 मरणांत परिषह में भी अदभुत समता शास्त्रों के पृष्ठों पर विविध प्रकार के मरणांत भयंकर उपसर्गों तथा परिषहों में अपूर्व समता के प्रभाव से केवलज्ञान और मुक्ति की मंगलमाला का वरण करने वाले गजसुकुमाल, मेतारज, सुकोशल, खंधक, अवंती, सुकुमाल, खंधकसूरि के 500 शिष्यों, अर्णिकापुत्र आचार्य वगैरह पूर्व के महामुनियों के अनेक दृष्टांत विद्यमान हैं / परंतु इसमें किसी को असंभवोक्ति या अतिशयोक्ति जैसा लगता हो तो उसे निम्नलिखित अर्वाचीन दृष्टांत का अवश्य चिंतन करना चाहिए / सं. 2046 के ज्येष्ठ वदि 8 की बात है / 8 साध्वीजी भगवंत आकोला (महाराष्ट्र) से सुरत की और विहार कर रहे थे / अभी करीब 10 कि.मी का विहार हुआ था, वहाँ तो पीछे से एक ट्रक आयी / ट्रकने रोड़ से नीचे कच्ची सड़क पर चल रहे एक साध्वीजी को जोरदार टक्कर मारी !... साध्वीजी दूर जा गिरे / ट्रक उनके दोनों पैरों के उपर से गुजरी! पैर लगभग शरीर से अलग हो गये !... रक्त की धारा फूटी ! प्राण निकलने की तैयारी करने लगे ! फिर भी नहीं कोई चीख-चिल्लाहट या नहीं वेदना का ऊंहकार ! किन्तु स्थिरता ओर समता की मूर्ति बनकर रहे !... धीरे धीरे उच्चारण शुरू-हुआ, वेदना का नहीं परंतु नवकार महामंत्र का ! सहवर्ती साध्वीजीयाँ पूछते हैं : "शाता में हो ?" प्रत्युत्तर मिलाः "हाँ मैं श्री नवकार गिन रही हूँ / " कैसी अद्भुत समता !... सहनशीलता // ___ अपने को घाणी में पीलनेवाले अभवि -पालक के उपर जिस Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 प्रकार खंधकसूरि के 500 शिष्यों ने अंश मात्र भी द्वेष नहीं किया, उसी प्रकार इन साध्वीजी भगवंत ने भी ट्रकवाले के उपर लेशमात्र भी द्वेष नहीं किया ! ऊपर से कहा कि, "ट्रकवाले को कुछ भी मत करना" !... कैसा अपूर्व क्षमाभाव !!! सं. 2038 में अपने एक सुपुत्र को दीक्षा देने के बाद सं. 2040 में अपने पति तथा दूसरे सुपुत्र के साथ 47 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुए इन साध्वीजी भगवंत ने मात्र 6 वर्ष के दीक्षा पर्यायमें गुरुकृपा के प्रभाव से ऐसी अद्भुत समता प्राप्त की थी ! - स्वयं की पुत्री महाराज साथ थी फिर भी "इसे संभालना" ऐसी बात भी नहीं की / स्नेहराग पर कैसी विजय प्राप्त की होगी...! उन्हें 45 मिनिट तक सहवर्ती साध्वीजीयों ने नवकार और धर्मश्रवण करवाया और अंतसमयोचित पच्चक्खाण दिये / उसके बाद अंगुली की रेखाओं पर नवकार गिनते - गिनते अन्त में - "मैं जाती हूँ / " इतना बोलकर पुनः नवकार गिनते हुए समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए!... - 'यदि अन्तिम संहननवाली देह से भी ऐसे मरणांत परिषह में गुरुकृपा और दृढ मनोबल द्वारा ऐसी अद्भुत समता - सहनशीलता और क्षमा रखी जा सकती हो तो प्रथम संहननवाले पूर्व के महामुनिवरों ने मरणांत उपसर्गों में समता के बल पर केवलज्ञान तथा मुक्ति प्राप्त की, उसमें लेशमात्र भी अतिशयोक्ति हो ही नहीं सकती ! ऐसा उत्तम उदाहरण अपने जीवन के द्वारा रखने वाले इन महान साध्वीजी भगवंत के नाम का पूर्वार्ध पाँच प्रकार के आचारों में से पाँचवे आचार का सूचन करता है, तथा उत्तरार्ध तारक तत्त्वत्रयी में तीसरे तत्त्व का सूचन करने वाला है !..... वे भी गत दृष्टांत में सूचित साध्वीजी के परिवार में दीक्षित हुए थे। अपने जीवन में मासक्षमण ... सिद्धितप ... वर्षीतप... एकांतर Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 543 500 आयंबिल ... वर्धमान तप की 25 ओलियाँ .... नवपदजी की 9 ओलियाँ ... 99 यात्राएँ .... छठ करके सात यात्राएँ .... दीक्षित जीवन में कभी खुले मुँह नहीं रहना ... वगैरह आराधना द्वारा अपने जीवन को सफल बनाकर गये ! 281 108 मासक्षमण करने की भावना / / / नित्य भक्तामर स्तोत्रपाठी तीर्थ प्रभावक आचार्य भगवंत के समुदाय के एक ही ग्रुप के दो साध्वीजी भगवंत वर्तमानकालमें विक्रमरूप कह सकें वैसी मासक्षमण की तपश्चर्या अपने जीवन में कर रहे हैं / दोनों के प्रगुरुणी एक ही हैं। उसमें से एक साध्वीजी भगवंत को बाल्यावस्था से ही सहज रूप से वैराग्य भाव जगा / फिर भी कर्मवश शादी हुई / परन्तु उन्होंने विवाह के दो माह बाद ही अपने पिता श्री के आगे प्रवज्या की भावना व्यक्त की / पुत्री की कसौटी करते हुए पिता श्री ने थोड़ा समय बीतने दिया। किन्तु जब उन्होंने देखा कि एक पुत्री की माता होने के बावजूद उसे संतान के ममत्व से भी संयम का राग तीव्र है, तब संयम की अनुमति दी और आखिर सं. २०१८में उनकी दीक्षा माघ वदि पंचमी के दिन मुंबई लालबाग में हुई / उनके एक भाई निर्मलभाई ने भी 17 वर्ष की भरयुवावस्था में उपरोक्त पू. आचार्य भगवंत के वरद हस्तों से लालबाग में संयम ग्रहण किया / उपरोक्त साध्वीजी दीक्षा लेने के बाद ज्ञानाचार -दर्शनाचार चारित्राचार -तपाचार तथा वीर्याचार इन पांचों आचारों से यथायोग्य रूप से सुंदर आराधना कर रही हैं / उसमें भी उन्होने जो उत्कृष्ट तप की आराधना की है, वो पूर्वकाल के महर्षियों की तपशक्ति की साक्षी देती है और श्रद्धा उत्पन्न करवाती है। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 उन्होंने संसारी अवस्था में ही अठ्ठाई, चत्तारि-अट्ठ-दश-दोय तप उपवास, उपधान आदि तपश्चर्या की और दीक्षा लेने के बाद उनकी तपशक्ति की सोलह कलाएँ खिल उठीं / उन्होंने अपने जीवन में 36 उपवास, 42 उपवास... 45 उपवास .... 51 उपवास... 68 उपवास .... बीस बार लगातार 20 उपवास द्वारा बीस स्थानक तप की आराधना .... एक वर्ष में 20 अछाई (कुल 25 अट्ठाई) 30 मासक्षमण ... लगातार 375 आयंबिल ... वर्धमान तप की 75 ओलियाँ, श्रेणितप ... भद्रतप .... तीन वर्षीतप .... उवसग्गहरं स्तोत्र के 185 अक्षरों की आराधना के निमित्त लगातार 185 अठ्ठम .... ऐसी अनेक विशिष्ट तपश्चर्या द्वारा अपनी आत्मा को कर्म से हल्का बनाने के अलावा सुंदर शासन प्रभावना और अनेक आत्माओं के जीवन में अनुमोदना द्वारा धर्म-बीज का वपन किया है। जब उन्होंने लगातार 20-20 उपवास द्वारा बीस स्थानक तप की आराधना की, तब उपरोक्त आचार्य भगवंत ने उनको आशीर्वाद सहित प्रेरणा दी कि - "20 मासक्षमण द्वारा अरिहंत पद की आराधना करो / " पू. गुरुदेव के आशीर्वाद को सफल करने के लिए इन साध्वीजी भगवंत ने तथा जिनका दृष्टांत अब आयेगा, उन साध्वीजी भगवंत ने भी मद्रास चार्तुमास के दौरान मासक्षमण का प्रारम्भ किया और केवल पाँच वर्ष के अल्पकाल में दोनों ने 20 मासक्षमण की आराधना पूर्ण की !!! इस आराधना के दौरान इनका पूरा महिना मौन के साथ मुख्य रूप से जाप और स्वाध्याय में ही व्यतीत होता ! तप के साथ उनके अंदर समता भी इतनी कि पीने का पानी ठंडा हो या गर्म हो, जल्दी मिले - देरी से मिले तो भी किसी दिन कोई शिकायत नहीं, अपनी तपश्चर्या के दौरान दूसरे साध्वीजी मासक्षमण में जुड़े हों तो अवसर मिलते ही उनकी वैयावच्च का भी लाभ ले लेते हैं ! उनके पच्चीसवें - रजत मासक्षमण की पूर्णाहुति के मौके पर मद्रास में 237 मासक्षमण की रिकार्ड रूप तपश्चर्या हुई थी !!! पच्चीसवें मासक्षमण के दौरान हर अठ्ठम का पच्चक्खाण मद्रासवासी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 भाविक बाजते - गाजते तपस्वी को अपने गृह - आंगन में पदार्पण करवाके कोई न कोई अभिग्रह घारण करने के साथ करवाते थे / उनकी अपने जीवन में 108 मासक्षमण करने की तीव्र भावना है। शासनदेव उनकी यह उत्तम भावना परिपूर्ण करने के लिए शक्ति प्रदान करे और उनको निरामय दीर्घायुषी बनाये, यही शुभाभिलाषा सह उनकी तपश्चर्या आदि आराधना की भूरि भूरि हार्दिक अनुमोदना / - उनके नाम का पूर्वार्ध पद्य रचनाओं के लिए उपयुक्त होता हुआ दो अक्षरों का एक शब्द है / उसका अर्थ "सूत्र" भी होता है / उत्तरार्ध का अर्थ "लक्ष्मी" होता है !.. उनकी गुरुणी ने 11 अंगसूत्रों को कंठस्थ किया है / उनका दृष्टांत भी इसी पुस्तक में पहले दिया गया है / . उपरोक्त महातपस्वी साध्वीजी भगवंत के साथ लगभग प्रत्येक . तपश्चर्या में जुड़े हुए दूसरे साध्वीजी भगवंत के गृहस्थपने का नाम 'दक्षा' था। छोटी सी दक्षा जब अपनी माता के साथ उपाश्रय जाती तब वासक्षेप करते हुए कविकुलकिरीट आचार्य भगवंत श्री कहते कि -"तेरा नाम दक्षा नहीं किन्तु दीक्षा है" दक्षा ने केवल आठ वर्ष की उम्र में प्रथम उपधान तप किया और तब से दीक्षा की भावना का बीज-वपन हुआ / . किन्तु दक्षा की दीक्षा होने से पहले ही उसकी बड़ी बहिन 'नीला' का दीक्षा के लिए नंबर लग गया। नीला ने 14 वर्ष की छोटी उम्र में दीक्षा ग्रहण की और अप्रमत रूप से पंचाचार की साधना में आगे बढी / उन्होंने कर्मग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र संस्कृत - प्राकृत व्याकरणादि का सुंदर अभ्यास किया। इसके साथ साथ उन्होंने दो मासक्षमण ... दो वर्षीतप .... दो बार सोलहभत्ता.... कई बहुरत्ना वसुंधरा - 3-35 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अठ्ठाइयाँ .... लगातार 500 आयंबिल .... वर्धमान तप की 70 ओलियाँ .... सिद्धितप... चत्तारि-अठ्ठ-दश-दोय तप आदि तपश्चर्या द्वारा जीवन धन्य बनाया / वह वर्तमान में समुदाय में अध्यापन का कार्य सुंदर करवा रही है। इनके अक्षर सुंदर होने के कारण वे समुदाय की सेवा का लाभ ले रही हैं। उनके नाम का पूर्वार्ध नैगम आदि सात ... वाचक शब्द हैं। उत्तरार्ध एक सुप्रसिद्ध तीर्थंकर परमात्मा की अधिष्ठायिका देवी के नाम का पूर्वार्ध होता है। इनकी दीक्षा के दस वर्ष बाद दक्षा की दीक्षा हुई / उन्होंने दीक्षा के साथ ही छेटे जोग एवं बड़े योग की लगातार आराधना एक भी दिन छोड़े बिना अखंड रूप से छह महिनेमें परिपूर्ण की। उसके बाद उन्होंने उत्तरोत्तर तपशक्ति विकसित होने पर 30 मास क्षण ... 20 बार 20 उपवास द्वारा बीस स्थानक तप की आराधना ... 16 उपवास.... 36 उपवास.... 51 उपवास.... 68 उपवास.... एक वर्ष में 20 अछाई (कुल 36) एक वर्ष में 71 अठ्ठम (कुल करीब 185 अठ्ठम ).... 2 वर्षीतप .... सिद्धितप ... धर्मचक्रतप .... लगातार 108 आयंबिल .... वर्धमान तप की 40 ओलियाँ वगैरह विशिष्ट तपश्चर्याओं के द्वारा अपने जीवन को तपोमय बनाया है। उनका तप के साथ जाप, अभ्यास, वैयावच्च भक्ति और संयम की प्रत्येक क्रियाओं में एकाग्रता इत्यादि अत्यंत अनुमोदनीय हैं / वे चित्त प्रसन्नता और मिलनसार व्यक्तित्व के कारण सबके प्रीतिपात्र और आदरणीय बनी हैं / सं. 2007 में उनका जन्म होने से अभी उनकी उम्र 49 की है। उनके नाम के दो अक्षर का अर्थ प्रकाश देने वाली वस्तु होता है। उत्तरार्ध एक नाम कर्म की पुण्य प्रकृति का सूचन करता है, जो ऐसी विशिष्ट तपश्चर्या के कारण उनको सहज रूप से ही मिली है / उनके पद चिन्हों पर उनकी छोटी बहिन सुरेखा ने भी शंखेश्वर में दीक्षा ग्रहण की है / वह भी मासक्षमण, वर्षीतप, वर्धमानतप की ओलियाँ वगैरह तपश्चर्या में आगे बढ़ रही हैं / . धन्य हैं, ऐसे महातपस्वी साध्वीजी भगवंतों को !.... Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 प्रायः लगातार चौविहार 108 छ / के साथ 9-1 यात्राएँ / / ____ एक महातपस्वी साध्वीजी ने प्रायः लगातार चोविहारी 108 छठ्ठ की / उन्होंने प्रत्येक छठु में सिद्धाचलजी महातीर्थ की 9-9 यात्राएँ की! प्रत्येक छठु के पारणे के दिन बियासन किया / वे पारणे के दिन भी 2 यात्राएँ करके ही पारणा करते थे !... धन्य हैं इनकी तपोनिष्ठा को ! तीर्थ भक्ति को !!... दृढ मनोबल को !!!... इनकी तीन संसारी पुत्रियों ने भी संयम अंगीकार किया है !... वे मूल मालवा के निवासी थे / उनके नाम का पूर्वार्ध पाँच प्रकार के ज्योतिषी देवों के विमानों में से एक प्रकार का सूचन करता है, उत्तरार्ध नाम कर्म की एक पुण्य प्रकृति का सूचन करता है !.. वे "आगमोद्धारक" के रूप में सुप्रसिद्ध हो गये आचार्य भगवंत श्री के समुदाय के हैं / लगातार 100 चौविहारी छठ की जाए तो 324 दिन लगते हैं / किन्तु साधु-साध्वीजी चातुर्मास में सिद्धगिरि की यात्रा नहीं करते हैं। जिससे चातुर्मास के पहले कुछ छट्ठ लगातार करके शेष छठ चातुर्मास के बाद किये / इस प्रकार दो विभाग में 108 छठ्ठ हुए होने से 'प्रायः' लगातार इस प्रकार बताया गया है। प्रायः लगातार 108 चौविहार छ / के साथ 8-8 यात्राएँ ! अग्नि संस्कार के समय एक वस्त्र जला ही नहीं / / विवाह के बाद 6 महिनोंमें ही वैधव्य प्राप्त होने पर मालवा के निवासी कंचन बहन वैराग्य वासित बनी थीं / उन्होंने सं 2009 में पालिताणा में सागर समुदाय में दीक्षा अंगीकार की / दीक्षा के बाद किसी Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 दिन लगातार दो दिन विगई का सेवन नहीं किया !!! अनेक प्रकार के तप निरंतर चालु रखे इसी कारण से वे धन्ना अणगार के नाम से चारों और प्रसिद्ध हुए। उन्होंने वर्षांतप ... बीस स्थानकतप .... शंखेश्वर पार्श्वनाथ के 108 अठुम ... महावीर स्वामी की 229 छठ .... 12 अठ्ठम .... सिद्धितप .... सोलहभत्ता ... चत्तारि-अठ्ठ-दस-दोय तप .... 6 अट्ठाईयाँ .... नवकार महामंत्र के पदों की उपवास से आराधना.... मेरूतप... भद्रप्रतिमा.... महाभद्र प्रतिमा... 'श्रेणितप .... वर्गतप ... घनतप .... कर्मसूदनतप .... उपवास से सहस्रकूट (1024 उपवास) .... घड़िया दो घड़िया तप .... 250, 500, 700 वगैरह लगातार आयंबिल .... लगातार 1176 आयंबिल (इस तप के दौरान शासनदेव ने उनकी कठिन परिक्षाएँ की थी, जिसमें वे अडिग रहे थे)... परमात्मा के कल्याणक के अंतर्गत वर्धमानतप की 100 ओलियाँ, शत्रुजयकी दो विभागोंमें प्रायः लगातार १०८-चौविहार छठ्ठ के साथ 7-7 यात्राएँ (पारणे के दिन भी एक यात्रा करने के बाद ही पारणा करते) इतनी तपश्चर्या की, फिर भी वे मान सम्मान से हमेशा दूर ही रहते थे। उन्हें 2043 में जिनमंदिर से वापस आते समय रास्ते में गाय ने सिंग से उछालकर दूर फेंक दिया !.... हाथ - पैर की हड्डियाँ टूट गयीं। साथ में रहे साध्वीजी के तो होश ही उड़ गये / डोक्टरने उनको प्लास्टर लंगाया तथा दवा दी / किन्तु उन्हें तपशक्ति पर ऐसा अटूट विश्वास था कि दवा ली ही नहीं !... उनका संवत् 2045 में पिछले 3 वर्ष से आगाढ महाधन तप चालु था। पर्युषण के बाद स्वास्थ्य बिगड़ा ! फिर भी उन्होंने तपश्चर्या चाल ही रखी। आखिर कार्तिक वदि 2 के दिन नवकार महामंत्र का श्रवण करते करते उनका समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ। अग्निसंस्कार के समय बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उनका एक वस्त्र नहीं ही जला !!! इन साध्वीजी भगवंत के नाम का पूर्वार्ध एक विशिष्ट फूल का नाम है, तथा उत्तरार्ध का अर्थ "कांति-तेज" ऐसा होता है / उनकी तपश्चर्या आदि आराधना की हार्दिक अनुमोदना..... Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 549 285 - आंख में मकोड़ा प्रविष्ट हो गया, फिर भी आत्मज्ञ साध्वाजा की अजीब साता। वह थे योगनिष्ठा, स्वानुभूति सम्पन्न, व्यवहार-निश्चय के समन्वयकारी, यथार्थनामी साध्वीजी भगवंत / इनके जीवन में 'उदय प्राप्त गुणों' का वर्णन करने के लिए यह कलम अत्यंत असमर्थ लगती है। अप्रमत्तरूप से गुरुसेवा के साथ मौन, भक्ति, जाप और ध्यान के प्रभाव से वे बहुत ही उच्च आध्यात्मिक अवस्था में पहुंचे हुए थे उनके जीवन के अनेक प्रसंगों में से केवल तीन प्रसंग यहाँ संक्षेप में देखेंगे / __(1) बिच्छु के डंक के बावजूद डोली उठाकर 35 कि.मी. का विहार : सं. 2008 में इनके दीक्षा लेने के बाद बड़ी दीक्षा के योग चाल थे / उस समय पू. उपाध्यायजी भगवंत (पीछे से गच्छाधिपति आचार्य श्री) के वयोवृद्ध माँ महाराज वहाँ से 70 कि.मी. दूर एक तीर्थ में बिराजमान थे / उनको अपने पास बुलाने के लिए कोई दो साध्वीजी महाराजों को भेजने के लिए पू. उपाध्यायजी म.सा. ने सूचन किया / किसी की भी 70 कि.मी. तक डोली उठाने की हिम्मत नहीं चल रही थी / तब नवदीक्षित उपरोक्त साध्वीजी भगवंत ने गुरु आज्ञा प्राप्त कर जोग पूर्ण होने के साथ ही पारणे के दिन पोरिसी बियासना करके एक दूसरे साध्वीजी भगवंत के साथ विहार किया / वे उग्र विहार कर तीर्थ में पहुँचे / वहाँ से वयोवृद्ध साध्वीजी को डोली में साथ लेकर लगभग आधे रास्ते पहुंचे तब उनको (नवदीक्षित को ) पैर में बिच्छु ने काटा / उन्हें भयंकर वेदना होने लगी / फिर भी उन्होंने वेदना की परवाह नहीं की, समय पर गुरु महाराज के पास पहुँचने का होने के कारण बीचमें उपचार हेतु कहीं रूके बिना, पैर में पट्टी बाँधकर विहार चालु रखा और समय पर गुरु महाराज के पास पहुँच गये !... उनकी ऐसी गजब की सहनशीलता और हिम्मत वगैरह देखकर गुरुमहाराज ने उनके ऊपर आशीर्वाद की अमीवृष्टि की !... Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 550 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 (2) आँख में मकोड़ा फिर भी अजीब समता : . एक बार रात्रि के समयमें उनकी आँखमें मकोड़ा गिर गया !... आँख में से अश्रुओं की धारा बहती गयी / आँख सुझकर बड़ी हो गयी। फिर भी इन महात्माने उसकी परवाह नहीं की / यदी आँख को मला तो मकोड़े को त्रास होगा, यह विचारकर करुणावंत इन साध्वीजी भगवंत ने पूरी रात ऐसे ही नवकार महामंत्र के स्मरण के बल पर समतापूर्वक व्यतीत की !... सवेरा होते ही मकोड़ा अपने आप बाहर निकल गया / कैसी अद्भुत सहनशीलता !... जीवदया की कैसी उत्कृष्ट भावना !!! देहाध्यास के उपर कैसी बेजोड़ विजय !!! (3) अंत समय भी जिनाज्ञा और गुरु आज्ञा का पालन : आशातावेदनीय कर्म के उदय से अन्तिम चार वर्ष तक उनका स्वास्थ्य बहुत खराब रहा / कई बार खून की दस्तें लगने से बहुत कमजोरी आ जाती / फिर भी नव आगंतुक को पता ही नही चलता कि ये साध्वीजी बीमार होंगे / ऐसी अद्भुत प्रसन्नता और तेज हमेशा उनके मुख मंडल पर छाया रहता था / ___ सं. 2031 के अन्तिम चातुर्मास के समय उनका स्वास्थ बहुत खराब था / गुरुभक्त शिष्याएँ उन्हें छोड़कर अन्यत्र चातुर्मास हेतु नहीं जाना चाहती थीं / फिर भी उन्होंने गच्छाधिपतिश्री की आज्ञा को शिरोमान्य करके अपनी शिष्या-प्रशिष्याओं को अलग-अलग 7 स्थानों पर चातुर्मास करने हेतु भेज दिया !.... इसी चातुर्मास में उनका कार्तिक सुदि 8 की रात्रि में देहविलय हुआ / उनसे थोड़े ही दूर चार कि.मी. के अंतर पर दूसरे गाँव में उनकी थोड़ी शिष्याएँ चातुर्मास हेतु विराजमान थीं / उन्होंने उनके देहविलय से थोड़े दिन पहले ही उनके दर्शनार्थ आने की अनुमति मंगवायी थीं / किन्तु संयम जीवन की मर्यादाओं के चुस्तरूप से पालक, ऐसे उन्होंने पत्रोत्तर भेजा कि, "चार्तुमासिक मर्यादाओं का उल्लंघन करके यहाँ आने से बहेतर होगा कि, जहाँ हो वहाँ रहकर शुभभावनापूर्वक नवकार मंत्र का जाप करो।" शास्त्रीय मर्यादाओं के पालन हेतु कैसी अनुमोदनीय जागरुकता / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 551 उन्होनें बिगड़े हुए स्वास्थ्य में भी लगातार 27 आयंबिल किये थे। आयंबिल में केवल मूंग का पानी और थोड़े चावल ही लेते थे ! फिर भी उनका अप्रमत्तभाव अजीब सा था / स्वास्थ्य की अन्तिम गंभीर अवस्था में डॉक्टर की सलाह अनुसार जब रात्रिमें उनके मुँह में अणाहारी औषध के रूपमें अंबर डालने का निर्णय किया गया, तब सबको लगता था कि वे बेहोश अवस्था में हैं। परंतु जैसे ही औषध ने ओठों का स्पर्श किया कि तुरन्त ही उन्होंने आँख खोलकर धीरे से कहा कि - "अरे, यह क्या कर रहे हो ! मुझे कुछ नहीं हुआ' !... आखिर उन्होंने अपनी अन्तिम अवस्था में भी अणाहारी औषध नहीं ही लिया !!! उत्सर्ग मार्ग की जिनाज्ञा के पालन के लिए कैसी चुस्तता !!! ___ अंत में भी वीर... वीर... वीर... बोलते हुए उन्होंने समाधिपूर्वक देहत्याग किया !... 286 . स्वानुभूति संपत्र साध्वीजी की अदभुत निरीहता उपरोक्त दृष्टांत में वर्णित साध्वीजी भगवंत के पास अनेक मुमुक्षु कुमारिकाएँ दीक्षा लेने आतीं / परंतु वे 4-5 वर्ष तक संयम का प्रशिक्षण देने से पहले प्रायः किसी को दीक्षा नहीं देते थे / उन्हें पूरी जाँच करने के बाद यदि योग्य लगता तो ही उसे दीक्षा देते थे। उनका कालधर्म हुआ तब उनकी निश्रा में 3 मुमुक्षु कुमारिकाएँ... धार्मिक अभ्यास करती थीं / उन तीनों ने निर्णय किया कि अब अपने को उपरोक्त साध्वीजी के संसारी सगे भानजी म.सा. के पास ही दीक्षा लेनी / वे भी नाम के अनुसार अनेक गुणों के भंडार, स्वानुभूति सम्पन्न, परमात्मा और गुरु महाराज को अनन्य भाव से समर्पित, सुसंयमी साध्वीजी हैं / इसलिए तीनों कुमारिकाओंने उन्हें अपनी शिष्या के रूपमें स्वीकार करने के लिए विनंती की। किन्तु निःस्पृही ऐसे इन महात्माने जवाब दिया Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कि, - "मेरे से बड़े साध्वीजी भगवंत विराजमान हैं / तुम उनमें से किसी के पास दीक्षा ले सकते हो / किन्तु मेरा यह विषय नहीं है !!!"... फिर भी उन तीनों ने दृढता से अपना निर्णय बताते हुए कहा कि"हम दीक्षा लेंगी तो आपके पास ही, नहीं तो ऐसे ही श्राविका के रूप में आराधना करती रहेंगी ! विवाह भी हमें नहीं करना है !" वर्षों बीतने लगे / फिर भी न तो साध्वीजी भगवंत के अंतर में अपनी शिष्या बना लेने की लेश मात्र भी स्पृहा जगी / ना ही मुमुक्षु अपने निर्णय में से विचलित हुए / ऐसे करते करते लगभग बीस वर्ष बीत गये। उस दौरान एक मुमुक्षु का दीक्षा की भावना भाते भाते ही मामुली बीमारी में स्वर्गवास हो गया ... आखिर दूसरे एक मुमुक्षु ने निरुपायता से इसी समुदाय में दूसरे साध्वीजी भगवंत के पास दीक्षा लेने का निर्णय किया। परन्तु तीसरे मुमुक्षु तो अभी भी अपने निर्णय में सुदृढ थे !!! वह अपने घर में रहकर आराधना करते और धार्मिक पाठशाला चलाते थे !... आखिर 'धैर्य का फल मीठा होता है' इस कहावत के अनुसार उनको धैर्य की तपश्चर्या सफल हुई / उनकी दृढता देखकर उपरोक्त साध्वीजी भगवंत के बड़े गुरुबहिनने निर्णय किया कि - "मैं अपनी जिम्मेदारी से तुम्हें तुम्हारे इच्छित साध्वीजी के नाम से दीक्षा दिलाऊँगी !!! आखिर सं. 2051 में यह दीक्षा निश्चित हुई / बड़े साध्वीजीने अपने उपरोक्त गुरु बहिन के पास मुमुक्षु को अपनी शिष्या के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा / तब भी इस महात्मा ने यह बात सविनय टालने की कोशीश की, किन्तु आखिर बड़ों के दृढ निर्णय के ऊपर मौन रहना पड़ा और ... 30 वर्ष के दीक्षा पर्याय के बाद उनकी प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य मिलने से नवदीक्षित धन्य बन गये !!! यद्यपि आखिरमें इन विनयी मुमुक्षु आत्मा ने बड़े साध्वीजी को बता दिया था कि यदि इन महात्मा को इतना दुःख होता हो तो मैं अपना आग्रह वापस लेती हूँ। मुझे आपको योग्य लगे उसकी शिष्या बना सकते हो !!... परन्तु बड़े साध्वीजी ने मुमुक्षु आत्मा की विशिष्ट पात्रता और अनन्य समर्पणभाव देखकर आखिर उपर्युक्त साध्वीजी की ही शिष्या बनवायी !!! Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 553 धन्य है मुमुक्षु के समर्पणभाव और धैर्य को ! धन्य है साध्वीजी भगवंत की निरीहता को !!!..... धन्य है बड़े साध्वीजी के सुयोग्य निर्णय को !!! विषम ऐसे वर्तमान काल में ऐसे दृष्टांत कितने मिलेंगे ?!... उपरोक्त साध्वीजी भगवंत केवल स्वसाधना में ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसा ही नहीं है, उनके पास स्व-पर किसी भी समुदाय के साध्वीजी जाते हैं वे उनके अद्भुत वात्सल्य में भीगकर धन्यता का अनुभव करते हैं / सभी वाचक इस दृष्टांत को सम्यक् रूपसें सोचकर यथायोग्य प्रेरणा लें यही शुभाभिलाषा / / यह दृष्टांत छपा है, यह खयाल भी इन नि:स्पृही महात्मा को आयेगा तो उनको अच्छा नहीं लगेगा यह स्वाभाविक है। फिर भी वर्तमानकाल में यह दृष्टांत विशेष प्रेरणादायक होने से यहाँ पेश करने की धृष्टता करनी पड़ी है / ॐ शांतिः / 287/ 100 आली का पारणा... सादगी पर्वक . सहज भाव से। :888888888 3880888 दृष्टांत नं 284 में वर्णित आत्मज्ञ साध्वीजी भगवंत की एक शिष्या साध्वीजी भगवंत की सं. 2051 के चातुर्मास के दौरान वर्धमान तप की १००वीं औली परिपूर्ण हुई। यदि वर्धमान तप की 100 ओली लगातार की जायें तो भी उसमें 14 वर्ष, 3 माह और 20 दिन लगते हैं / कुल 5050 आयंबिल और 100 उपवास होते हैं। उन्होंने ऐसी दीर्घ तपश्चर्या करने के बावजूद उसका पारणा एकदम साधारण रूप से... सहज भाव से किया / इस निमित्त से न कोई महोत्सव ... न कोई ढोल-शहनाई का नाद ... न कोई पूजन वगैरह !!! श्री उत्तराध्ययन सूत्र वगैरह में साधु को अज्ञात तपस्वी कहा है। अर्थात् साधु के तप का गृहस्थों को पता न चले उस प्रकार से तप करने को कहा है। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 क्योंकि यदि गृहस्थ को पता चले तो वे साधु के निमित्त आरंभ समारंभ करके विशेष रसोई बनायेंगे, जो साधु को नहीं कल्पती / महोत्सवादि होने से अपने मान कषाय को पोषण मिलने की भी संभावना रहती है। इसी कारण से इन साध्वीजी भगवंत ने एकदम सहजभाव से ही पारणा कर लिया / धन्य है उनकी निःस्पृहता को !.. सहजता को !! .. इन साध्वीजी भगवंत के नाम के ढाई अक्षर के पूर्वार्ध का अर्थ 'सुन्दर' होता है तथा उत्तरार्ध जिस किसी के जीवन में होता है, वह आदरणीय सम्माननीय और प्रशंसनीय बनता है। (2) वागड़ समुदाय में भी एक साध्वीजी भगवंत ने करीब 7 वर्ष पूर्व अहमदाबाद चातुर्मास के दौरान 100 वीं औली का पारणा उपर मुताबिक सादगीपूर्वक सहजभाव से किया था / धन्य है, इनकी निःस्पुहता को !... उनके विशाल समुदाय में भी शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि इन साध्वीजी की 100 ओलियाँ पूर्ण हो चूकी हैं। इन साध्वीजी भगवंत के नाम का पूर्वार्ध अर्थात् चार घातीकर्मों के क्षय होने से प्रकट होते आत्मा के चार गुणों के आगे विशेषण के रूप में उपयुक्त होता हुआ एक शब्द !.. और उत्तरार्ध अर्थात् सूर्यचन्द्र जिसके द्वारा शोभते हैं वह !!! - अब तो समझ गये ना, ऐसे नि:स्पृही तपस्वी महात्मा कौन होंगे !!! 288 // 12 वर्ष तक अखंड मौन के साथ आत्मसाधना / / / मौन भाव में रहकर आत्मस्वरूप का मनन करे, वह मुनि ! एक साध्वीजी ने ऐसी मुनि दशा पाप्त करने के मनोरथ के साथ दि. 27-5-1989 से 14 वर्ष की सुदीर्घकालीन आत्मसाधना का संकल्प किया है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 वे शुरूआत में दो वर्ष तक रोज 12 घंटे मौन करते थे। किन्तु सं. 2051 चैत्रसुदि 13 (भगवान श्री महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक के पवित्र दिन) से 12 वर्ष तक के लिए संपूर्ण मौन पूर्वक एकांत आत्मसाधना कर रहे हैं। उनकी शुरूआत में अठुम, छठ्ठ, एकांतरित, उपवास आयंबिल, 5 द्रव्यों से एकाशना वगैरह तपश्चर्या चालु थी / अब पिछले 4 वर्षों से साधना पूर्ण हो, वहाँ तक के लिए केवल बिना शक्कर का दूध और किसमीस इन दो द्रव्यों के अलावा कुछ नहीं वापरने का पच्चक्खाण ले लिया है !... उनके सहवर्ती तीन साध्वीजीयों ने भी ऐसा ही अभिग्रह लिया है!... साधनालीन साध्वीजी के दर्शन केवल सवेरे 10 से 11 तक ही हो सकते हैं / वे हिमाचल प्रदेश में कुलु जिले में भूतर गाँव में आये हुए जैन साधना केन्द्र (पिन : 175125 फोन नं. 6251) में साधना कर रही हैं। इस साधना केन्द्र में कोई साधक स्थाई नहीं रहता है, किन्तु उसे रुचि और योग्यता के अनुसार विभिन्न विधियों द्वारा आत्म साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शन दिया जाता है / साधना केन्द्र का संचालन सुश्राविका सुशीलाबहन कर रही हैं / ऐसे उत्कृष्ट आत्मसाधिका महासतीजी के नाम का अर्थ 'नवी कांतिवाला' होता है। वे एक ऐसे स्थानकवासी आचार्य श्री के आज्ञावर्ती हैं, जिनके नाम के पीछे 'सूरि' शब्द का प्रयोग नहीं होता ओर उनकी आज्ञा में 1 हजार से अधिक साधु - साध्वीजीयाँ हैं / उन्होंने 300 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं / इसी वर्ष उनका कालधर्म हुआ है / साध्वीजी के मौन के साथ आत्मसाधना की हार्दिक अनुमोदना / Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 238938288888 ETER लगातार 6 वर्षों से मौन के साथ वर्षातप चाल / कच्छ-मुन्द्रा तहसिल के एक गाँव में स्थानकवासी परिवारमें जन्मी इस आत्मा को पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण छोटी उम्र से ही आत्मसाधना का रंग लगा / फिर भी कर्म संयोग से विवाह करना पड़ा। वे गृहस्थाश्रम में भी जलमें कमल की तरह निर्लेप रहे / इन्होंने 60 वर्ष की उम्र में करीब 10 वर्ष पहले छह कोटि लीबड़ी संप्रदाय में दीक्षा अंगीकार की। स्थानकवासी समुदाय में जन्म एवं दीक्षा लेने के बावजूद भी जिनप्रतिमा के प्रति उनको अद्भुत आकर्षण है / वे अनुकुलता के अनुसार कई बार 4-6 घंटे तक जिनमंदिर में बैठकर प्रभुभक्ति में लीन बन जाती हैं। कच्छ के एक सुप्रसिद्ध तीर्थ भद्रेश्वर में प्रभुभक्ति करते समय प्रभुजी के हाथ में रहा हुआ फूल अचानक उड़कर उनके हाथ में आ गया था !!! उनको भक्ति-जाप और ध्यान साधना के प्रभाव से नये नये आध्यात्मिक अनुभव होते रहते हैं / एक बार उन्हें देवलाली में साधना के दौरान विशिष्ट प्रकाश के दर्शन और अवर्णनीय आनंद की अनुभूति हुई थी। वर्ष में दो बार जब मस्तक के बालों का लोच होता है तब लोच में जितना समय लगता है, उतनी देर उनको विशिष्ट प्रकाश की अनुभूति होती है। साधना के दौरान 'आगामी भवमें खुद एक विशिष्ट पदवी को प्राप्त करेंगे' ऐसा संकेत उनको मिला है / वह स्वभाव से अत्यंत भद्रिक परिणामी हैं / बीच में कुछ समय तक पशु-पक्षियों की भाषा भी वे सहजता से जान सकते थे !.... Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 - 557 उन्होंने पिछले 6 वर्षों से मन में कोई अभिग्रह ग्रहण किया है। जब तक अभिग्रह पूरा नहीं होगा तब तक मौन के साथ वर्षीतप चालु रखा है / ऐसे उत्तम आत्मा को दूसरी तो भौतिक अपेक्षा कहाँ से हो ! किन्तु गहरी आत्मिक अनुभूति की अपेक्षा हो सकती है / शासनदेव उनके अभिग्रह को- उनकी उच्च आध्यात्मिक भावना को शीघ्र परिपूर्ण करने का बल प्रदान करें यहीं शुभाभिलाषा / इन साध्वीजी के नाम का अर्थ 'पृथ्वी' होता है। उनके गुरुणी के नाम का पूर्वार्ध एक सर्वजन वल्लभ ऋतु का नाम है / उत्तरार्ध का अर्थ 'कांति-तेज' ऐसा होता है / इन गुरुणी के भानजी ने मूर्तिपूजक समुदाय में दीक्षा ली है / वे पिछले 15 वर्षों से रोज सवेरे उठते समय 100 लोगस्स काउस्सग्ग करते हैं। नवकार और उसके प्रत्येक पद का भी खब जाप करते हैं / परिणाम स्वरूप उनको कितनी ही विशिष्ट आंतरिक अनुभूतियाँ होती रहती हैं / उनके नाम का अर्थ "सुंदर समक्तिवंत" होता है / वे नाम के अनुसार शुद्ध निश्चय समकित को शीघ्र प्राप्त करें ऐसी प्रभु से प्रार्थना / सभी ऐसे दृष्टांतों से प्रेरणा लेकर आध्यात्मिक साधना की तीव्रतम अभिरुचि जगाएँ यही शुभ भावना / 290 निर्दोष गोचरी के अभाव में 15 दिन तक बने आदि सूखी वस्तुओं से निर्वाह / / केवल 50 वर्ष की उम्र में और 21 वर्ष के दीक्षा पर्याय होने के बाबजूद लगभग 100 जितने शिष्या-प्रशिष्याओं के परिवार से शोभते इन साध्वीजी भगवंत ने छ'री' पालित संघ के साथ जेसलमेर तीर्थ की यात्रा की / उन्होंने वापस आते समय संघ की तरफ से सभी व्यवस्था होने के बावजूद भी उन्हें स्वीकार नहीं किया / रास्ते में जैन आबादी के अभाव में निर्दोष गोचरी की असंभावना के कारण 15-15 दिन तक चने आदि सूखी वस्तुओं से जीवन निर्वाह किया ! गुरुणी का ऐसा आचार Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 देखकर शिष्याओंने भी उनका अनुकरण किया !!! इन साध्वीजी भगवंत ने यावज्जीव के लिए नमकीन-मेवे और फल का त्याग किया है। पिछले कितने ही वर्षो से चातुर्मास में मिठाई, कठोर वस्तु, कड़ा विगई आदि के त्यागपूर्वक केवल तीन द्रव्य ही वापरते हैं ! उन्होंने बीस स्थानक, अछाई, अठ्ठम आदि विशिष्ट तपश्चर्याएँ भी की हैं / __बाह्य तप के साथ साथ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण, रत्नाकरावतारिका तक न्याय के ग्रंथों का और कम्मपयड़ी तक के कर्म साहित्य का और आचारांग उत्तराध्ययन सूत्र आदि आगमों वगैरह का सुंदर अध्ययन किया है। ___ उनका उत्कृष्ट संयम जीवन देखकर अनेक ग्रेज्युएट युवतियों ने उनके पास संयम ग्रहण किया है। उसमें से अधिकतर साध्वीजी भगवंत वर्ष में मात्र एक बार ही वस्त्रों का साबुन से काप निकालते हैं ! कई साध्वीजी भगवंतों का यावज्जीव मिठाई, नमकीन, फल आदि का त्याग है / अधिकतर साध्वीजी कम से कम एकाशन का तप करते हैं, कई साध्वीजी अपना लोच अपने हाथों से ही करते हैं, कुछ साध्वीजीयों ने कम्मपयड़ी, खवगसेढी वगैरह का भी अभ्यास कर लिया है !.. उनकी निश्रा में प्रति वर्ष श्राविका शिविर का भी आयोजन होता है / इन शासन प्रभावक साध्वीजी भगवंत के नाम का पूर्वार्ध जितने प्रमाण में अपने पास होता है, उतने प्रमाणमें सानुकूल संयोग एवं सामग्री मिलती है, तथा उत्तरार्ध प्रत्येक के हाथ में अल्प या अधिक अंश में होता ही है / उनका सम्पूर्ण नाम भी प्रत्येक के हाथमें अल्प अधिक प्रमाण में होता ही है !... उनके संसारी परिवार में से 6 जनों ने दीक्षा ली है / उसमें से / उनके दो चाचा आचार्य के रूपमें सुंदर शासन प्रभावना कर रहे हैं / Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 559 / 49 वर्षों से चौविहार उपवास से वर्षातय करती / हुई दीर्घ तपस्विनी, शासन गौरव साध्वीजी / श्री जिनशासन में आज भी ऐसी महान तपस्वी विभूतियाँ विद्यमान हैं जिनकी घोर-वीर-उदग्र-दीर्घ तपश्चर्या इस पदार्थवादी और भौतिकवादी युग के लिए चुनौती बनी हुई है। _ वि.सं. 1985 में 21 साल की उम्र में दीक्षा लेकर आज 91 साल की उम्र और 70 साल के दीक्षा पर्याय में पिछले 49 वर्षों से आजीवन प्रतिज्ञा पूर्वक चौविहार उपवास से वर्षीतप करने द्वारा 9000 से अधिक चौविहार उपवास, 3365 तिविहार उपवास, 1173 छाछ की आछ के आगार वाले उपवास, कुल 13 // हजार से अधिक उपवास और दीर्घ तपश्चर्याओं के साथ साथ चित्र-विचित्र अनेकविध आश्चर्यप्रद-अहो भाव प्रेरक अभिग्रहों को धारण करनेवाली साध्वीजी आज भी श्री जिनशासन में विद्यमान हैं !... वि.सं. 1964 में भाद्रपद शुक्ला अष्टमी के दिन जन्मी हुई उपरोक्त साध्वीजी ने गृहस्थ जीवन में कष्टों और बाधाओं को अपने मनोबल से कैसे झेला ? विवाहित होकर भी अविवाहित क्यों रहीं ? वैराग्य का जागरण कैसे संघर्षो का आमंत्रण बन गया ? एकाक्ष करने का प्रयत्न, शीलहरण का षड्यंत्र, और येन-केन प्रकारेण दीक्षा के अयोग्य ठहराने के अभिक्रम कैसे विफल हो गये ? कैसे सफल हुई दीक्षा की आकांक्षा ? साध्वी जीवन में कैसे परीषह आये ? कैसे उपद्रव भरी रातें बिताईं और कैसे मोत के क्षणों में अभय मुद्रा अविचल बनी रही ? आपकी वाणी ने, दर्शन और स्पर्शन ने चरण रज और शिवाम्बु ने किन सुखद स्थितियों की सृष्टि की है ? इत्यादि का विस्तृत वर्णन तो 'आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन' - चुरु (राजस्थान) द्वारा प्रकाशित 'दीर्घ तपस्विनी' किताब (250 पन्ने) में अत्यंत रोचक शैलिमें दिया गया है। विशेष जिज्ञासुओं के लिए उपर्युक्त किताब खास पठनीय है। यहाँ पर तो दीक्षित जीवन में की हुई तपश्चर्या की तालिका .... उनके आजीवन प्रतिज्ञाओं एवं विविध अभिग्रहों के कुछ अंश प्रस्तुत करने द्वारा ही उनकी भीष्म तपश्चर्यामय जीवनचर्या की हार्दिक अनुमोदना करके संतोष मानना उचित समझा है / तो सर्वप्रथम Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 प्रस्तुत है आपकी तपश्चर्या की तालिका... तप (उपवास) तिविहार चौविहार आछ के कुल दिन आगार पर उपवास 1907 5400 से अधिक - 7307 से अधिक बेला 265 1292 3114 तेला. 81 204 855 चोला 37 64 36 . 31 छह पंचोला , सात - - - / / / . . / / / / / / / / Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 561 1 91 121 182 124 1 124 - . . 1 182 3365 9000 से अधिक 1173 13500 से अधिक उपरोक्त तपश्चर्या में चौविहार भद्रोत्तर तप (100 दिनों में 75 उपवास) ... चौविहार धर्मचक्र तप (34 दिन में 25 चौविहार उपवास)... चौविहार प्रतर तप (56 दिनों में 40 चौविहार उपवास, कंठीतप (43 दिनों में 28 चौविहार उपवास) और 4 बार चौविहार पंचरंगी तप (100 दिनों में 75 चौविहार उपवास) का भी समावेश होता है। प्रत्येक बड़ी तपश्चर्या की समाप्ति आप एक साथ अनेक चित्रविचित्र अभिग्रहों की धारणा एवं उनकी पूर्ति होने पर ही करती हैं / उदाहरण के रूपमें -वि.सं. 2018 में आपने केलवा (मेवाड़) में छाछ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 की आछ के आगार से 182 दिन के उपवास किए / इस दीर्ध तप की परिसम्पन्नता से 7 दिन पूर्व आपने निम्नोक्त प्रकार से 7 संकल्प अभिग्रह के रूप में धारण किए / _ "(1) तेरह साध्वीयाँ मिलकर सूत्र की कुछ गाथाएँ सुनाएँ। (2) जब मैं 21 नवकार का ध्यान करूं तब कोई साध्वी मेरे हाथ में कुछ दे। (3) 9 कुंवारी साध्वियों का उपवास हो और वे पारणा करने के लिए कहें / (4) तेरह साध्वियां एक साथ पारणा करने के लिए कहें / (5) 9 व्यक्ति आजीवन कोई प्रतिज्ञा लें / (6) पौषध अथवा सामायिक युक्त श्रावक एक हाथ में माला लिए हुए अपने हाथ से कुछ बोहराएँ / (7) एक सुहागन बहिन, जिसके माथे पर बिन्दी हो, केसरिया वस्त्र पहने हुए हो, नाक में नथ पहने हुए हो, वह अपने हाथ से कुछ बोहराएँ / यदि उपर्युक्त अभिग्रह पूर्णतः न फले तो 9 दिन तप का प्रत्याख्यान कर लंगी !" दीर्घ तप का यह महान अनुष्ठान केवल 3 घटिका से पूर्व ही किस तरह से सम्पन्न हो गया ?... और भी कई अभिग्रह जैसे कि कोई राख की चिमटी बहराए तो पारणा करना इत्यादि कैसे पूरे हुए इसका विस्तृत वर्णन जानने के लिए तो उपर्युक्त किताब ही पठनीय है / वि.सं. 2007 से आपने निम्नोक्त प्रकार से आठ संकल्प स्वीकार किये हैं। (1) यावज्जीवन एकान्तर साभिग्रह चौविहार उपवास ! (2) यावज्जीवन औषध का त्याग / (3) यावज्जीवन एक विगय उपरान्त सेवन का त्याग / (4) यावज्जीवन प्रतिदिन 7 द्रव्य उपरांत सेवन का त्याग / Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 563 (5) पारणे के दिनों में भी प्रतिदिन एक प्रहर चौविहार एवं 2 प्रहर तिविहार करना / (6) प्रतिदिन दो घंटा ध्यान एवं पाँच घंटा मौन करना / (7) प्रतिदिन दो हजार गाथाओं का स्वाध्याय करना / (8) यावज्जीवन एलोपैथिक (इंजेक्शन वर्जित), होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक औषधिका त्याग / ये संकल्प जहाँ एक ओर आपके प्रबल मनोबल के साक्ष्य हैं, वहीं दूसरी और संयम और अदम्य साहस के प्रतीक हैं। गृहस्थ जीवन में भी आपने अपने पति आदि से दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने के लिए 6 महिनों से अधिक समय तक केवल रोटी और पानी का आहार लिया / तेले और अठाई के पारणे में भी रोटीपानी के सिवाय कुछ भी नहीं खाया / ___तप-त्याग-तितिक्षा के साथ आपमें सेवा और गुरु समर्पण आदि गुण भी अत्यंत अनुमोदनीय हैं / इन गुणों का विशेष वर्णन उपर्युक्त किताब से ज्ञातव्य है / आपने अपने जीवन में 32 से अधिक चातुर्मास मेवाड़ में और बाकी के सारे चातुर्मास राजस्थान में ही किये हैं / इस वर्ष आपका चातुर्मास सुजानगढ (जि. नागौर-राज.) में है। आपके 3 अक्षरों के नाम में प्रथम दो अक्षर एक रत्नविशेष को सूचित करते हैं / आप के उपर जिन गणनायक की कई वर्षों तक कृपादृष्टि रही उनका नाम एक पौधे को सूचित करता है जौ वैष्णवों में खास पूजनीय माना जाता है। वर्तमान में आप के गणनायक का उपनाम महाप्रज्ञजी है, जिन्होंने कई आध्यात्मिक किताबें लिखी है और ध्यानपद्धति का संकलन भी किया है / प्रिय पाठकवृंद ! अब तो आप पहचान गये होंगे इन महान आत्माओं को ? Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 292 आयंबिल तप और नवकार जपका अनूठा प्रभाव हार्ट एटेक, हरपीस और केन्सर केन्सल हो गये !! इस संसार के राज्यमें कर्मराजाने चारों और अपना संपूर्ण सत्ताधिकार अनादि काल से जमाया है / इस कर्मसत्ता की अधीनता में समग्र संसारी जीवों को रहना पड़ता है / ... हालां कि समुद्र में भी रत्न होते हैं, रात्रि की कालिमा में भी सितारे चमकते हैं, काँटों के बीच भी गलाब जैसे फल खिलते हैं, इसी तरह इस अवनीतल के उपर कुछ विरल आत्माएँ ऐसी भी होती हैं जो धर्म महासत्ता की शरण अंगीकार करके कर्मसत्ता के सामने युद्ध छेड़ती हैं और उसमें प्रचंड पुरुषार्थ के द्वारा विजय की वरमाला को पहनती हैं / यहाँ पर एक ऐसी ही श्रमणीरत्ना का दृष्टांत प्रस्तुत है / कच्छआसंबीया (बड़ा) गाँव में वि.सं. 1982 में जन्मी हुई लक्ष्मीबहन का मन बचपन से ही संसार से विरक्त था। फिर भी लज्जालु स्वभाव के कारण अपनी वैराग्य भावना माता-पिता के सामने व्यक्त नहीं कर सकने से उन्हें वैवाहिक बंधन में बद्ध होना पड़ा / भिवितव्यतावशात् विवाह के बाद अल्प समय में ही पतिका परलोक गमन हो जाने से संयम का स्वीकार करने की भावना प्रबल हो उठी और सं. 2011 में माघ शुक्ल 14 के दिन उन्होंने संयम अंगीकार किया। अंगीकृत संयम को सफल बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन विनय वैयावच्च, तप-त्याग और ज्ञान-ध्यान में लगा दिया / वर्धमान आयंबिल तप की नींव एक बार डाली मगर पूर्ण नहीं हो पायी ! फिर भी हिम्मत नहीं हारकर पुनः नींव डाली ओर क्रमशः वर्धमान परिणाम से आगे बढ़ते हुए वि.सं.२०५० में 100 ओलियाँ परिपूर्ण की !!!... मगर इसी बीच में कर्मसत्ता ने उनकी कई प्रकार की कठिन-कठिनतर कसौटियाँ की, किन्तु दृढ मनोबल से आयंबिल तप एवं नवकार जप द्वारा उन सभी कसौटियों में से क्षेमकुशलता पूर्वक उत्तीर्ण होकर हमारे सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है, 'कि, हिम्मत से मर्दा, तो सहाय करे खुदा" ! वि.सं. 2036 में अचानक उनकी आवाज अवरुद्ध हो गयी ! Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 565 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 चिकित्सकों ने निदान किया कि, 'कण्ठ की स्वरपेटी में केन्सर की गाँठ है ! सभी के हृदय में स्थान-मान प्राप्त होने से सकल संघ चिंतित हो उठा कि क्या ऐसी श्रमणीरत्ना केवल 54 साल की उम्र में ही केन्सर रोग का भोग बन जायेगी !... मुंबई की टाटा अस्पताल के विशिष्ट चिकित्सकों ने निर्देश दिया कि, 'अगर बिजली के 'सोट' दिये जाएँगे तो शायद ठीक हो सकता है, अन्यथा यह मरीज 6 महिनों से अधिक जिन्दा नहीं रह सकेगा !' फिर भी प्रभु महावीर प्ररूपित कर्म विज्ञान को अच्छी तरह समझनेवाले साध्वीजी भगवंत ने सभी को स्पष्ट कह दिया कि, “मैं किसी प्रकार का सावध उपचार करवाना नहीं चाहती / इस देह-पिंजड़े को एक दिन तो छोड़ना ही है, तो जल्दी से छोड़ना या विलंब से छोड़ना इस में कोई खास फर्क नहीं पड़ता / महापुण्योदय से मुझे जिनशासन के द्वारा आयंबिल जैसा महान तप और महामंत्र नवकार का महामांगलिक जप मिला है। मैं इन्हीं के आलंबन से इस रोग को समता के द्वारा कर्मनिर्जरा का हेतु बनाउँगी।"... और उन्होंने लगातार वर्धमान परिणाम से वर्धमान आयंबिल तप की ओलियाँ चालु ही रखीं / साथमें महामंत्र नवकार का जप भी रात को ढाई-तीन बजे उठकर दीर्घ समय तक चालु ही रखा / करीब 10 साल तक कर्मसत्ता के सामने भीषण रण संग्राम चला / 10 साल तक आवाज बंद रही और हर डेढ साल में एक बार खुन का वमन होता था / बीच में एक बार भयंकर हृदय रोग का हमला भी हुआ, मगर "कार्यं साधयामि वा देहं पातयामि" जैसे सुदृढ़ संकल्प के धनी साध्वीवर्या ने अडिग श्रद्धा के साथ आयंबिल तप और नवकार महामंत्र का जप चालु ही रखा / आखिर कर्मसत्ता को हार माननी ही पड़ी। केन्सर केन्सल हो गया। हार्ट एटेक को ही मानो एटेक आ गया !! हरपीस भी हारकर दूर हठ गया !!! और आज 74 साल की उम्र में भी 101-102 इसी क्रम से आगे बढते हुए 109 ओलियाँ परिपूर्ण कर ली / वर्तमान में 500 आयंबिल की तपश्चर्या चालु है। सुविनीत 5 शिष्याप्रशिष्याएँ साथ में होते हुए भी, 74 साल की उम्र में भी "जात मेहनत जिन्दाबाद'' - सभी कार्य अपने हाथों से ही करते हैं, इतना ही नहीं, कई बार दूसरों को भी उनके कार्यों में वे सहयोग देते हैं !... ___ महामंत्र नवकार के उपर इनकी अटूट आस्था है / अपने पास आनेवाले दर्शनार्थियों को भी वे नवकार महामंत्र का जप करने की खास Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 प्रेरणा देते हैं / उनकी प्रेरणा से प्रतिदिन कम से कम 108 नवकार का जप करने की आराधना में सैंकड़ों आत्माएँ जुड़ गयी हैं / हार्ट एटेक- हरपीस और केन्सर जैसे असाध्य रोंगों को केन्सल करवानेवाले ओ आयंबिल तप और महामंत्र नवकार जप ! आपको बार बार नमस्कार !... जय जिनशासन ! धन्य तपस्वी ! उपर्युक्त श्रमणीरत्ना का शुभ नाम प्रातःकाल में सूर्योदय से पहले होनेवाले समय को सूचित करता है / 3 नामों से प्रसिद्ध गच्छ को वे अलंकृत कर रही हैं / 293/ तप-जप से केन्सर को केन्सल करते हुए उत्कृष्ट आराधक साध्वीजी 16 वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर आज 50 वर्ष के दीक्षा पर्यायवाले एक उत्कृष्ट आराधक, और जिनशासन के शणगार ऐसे अणगार साध्वीजी भगवंत की आराधनाओं की बातें भावपूर्वक पढो / पिछले 23 वर्ष से लेकर अब आजीवन काप में साबुन का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा है / प्रतिदिन नवकार की 51 पक्की मालाओं का जाप करते हैं / संभव हो वहाँ तक एक ही बैठक में 6-7 घंटे तक जाप करते हैं / 24 घंटों में केवल ढाई घंटे (रात्रि 10 से साढे बारह बजे तक) ही आराम करते हैं। उन्होंने 300 से अधिक अठ्ठम किये हैं / उनको कैंसर हुआ, तब दवा न लेते हुए 81 आयंबिल और 15 चौविहार अठ्ठम तप के साथ नवकार महामंत्र का जप करने से केन्सर केन्सल हो गया था। खून की उल्टी होने से केन्सर के कीटाणु दूर हो गये थे / इन्होंने लगातार 500 आयंविल किए थे तब भी आयंबिल खाते में से न बोहरते हुए Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 567 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 घरों में से जो सहजता से मिलता, उससे ही आयंबिल करते / कई बार केवल . रोटी और पानी या खाखरे एवं पानी से आयंबिल करते !!! . - करीब 22 शिष्या-प्रशिष्याओं के परिवार से शोभते इन साध्वीजी ने निम्नलिखित प्रतिज्ञाएँ आजीवन स्वीकार की हैं। अब शिष्या नहीं बनानी (प्रशिष्या की. छूट, मिठाई, नमकीन, मेवा फूट वापरना नहीं, खादी के ही कपड़े वापरना, दो जोड़ी से अधिक कपड़े नहीं रखने, किसी को पत्र नहि लिखना, वासक्षेप या रक्षापोटली नहीं देना, किसी को सहज दुःख पहुँच जाए ऐसा बोला जाए तो अठ्ठम करना, किसी की थोड़ी भी निंदा सुन लें तो आयंबिल करना ... इत्यादि !!! तप-जप-नियम आदि उत्कृष्ट आराधनामय अप्रमत्त जीवन होने से कई बार सुगंधी वासक्षेप की वृष्टि आदि अनुभव होते हैं, मगर वे इनको बिल्कुल महत्व नहीं देते हैं / उनकी तो बस एक ही लगन है कि, "इस भव में शीघ्र ग्रंथभेद द्वारा शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हो और आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में से केवल-ज्ञान प्राप्तकर मोक्ष में जा सकुं ऐसे आशीर्वाद और हित शिक्षा दो !.." वे नाम के अनुसार अनेक गुणों के भंडार हैं / प्रसिद्धि से एकदम दूर रहना चाहते हैं / फिर भी उनका जीवन सबके लिए आदर्श रूप होने से इतनी लेखिनी चलाने की घृष्टता किये बिना नहीं रह सका ! चौथे आरे के समय जैसा संयम जीवन जीते हुए साध्वीजी भगवंत की आराधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना / / उनके नाम का पूर्वार्ध अर्थात् धर्म का मूल ऐसा एक महान गुण, और उत्तरार्ध का अर्थ कांति-तेज ऐसा होता है / वह योगनिष्ठ के रूप में सुप्रसिद्ध हो गये एक आचार्य भगवंत के समुदाय के हैं / उनके दर्शन एकबार तो अवश्य करने जैसे हैं / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 294 86 वर्ष का दीक्षा पर्याय / / / केवल 6 वर्ष की उम्र में अपने मातृश्री के साथ दीक्षित हुए, यह साध्वीजी भगवंत 86 वर्ष के सुदीर्घ संयम के प्रभाव से आज 92 वर्ष की उम्र में भी पाँचों इन्द्रियों की पटुता रखते हैं। वर्तमानकाल में इतने सुदीर्घ चारित्र पर्यायवाले शायद ही दूसरे कोई होंगे। मूल कच्छ-डुमरा के और सिद्धगिरि में दीक्षित हुए प्रवर्तिनी साध्वीजी आज 45 जितने शिष्या-प्रशिष्यादि से शोभायमान हो रहे हैं / वे अभी उम्र के कारण साबरमती (अहमदाबाद) में स्थिरवास हैं। उन्होंने उपमिति भवप्रपंचा महाकथा, स्याद्वादमंजरी, त्रिषष्ठि दश पर्व, ललित विस्तरा, उत्तराध्ययन सूत्र, मुक्तावली आदि के अध्ययनअध्यापन द्वारा सम्यक्ज्ञान पद की आराधना की है / 14 वर्ष की उम्र में अपनी जन्म-भूमि में बारसासूत्र का वांचन कर श्रोताजनों को मुग्ध बनाया था / ... उन्होंने तलाजा एवं शत्रुजय गिरिराज की 99 यात्रा आदि द्वारा सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाया है। कच्छ-काठियावाड़, गुजरात, मारवाड़, महाराष्ट्र आदि में अप्रमतरूप से विचरण कर उन्होंने सम्यक्चारित्र की आराधना द्वारा स्वोपकार के साथ परोपकार एवं शासन प्रभावना की है / उन्होंने आचारांग-उत्तराध्ययन-दशपयन्ना सूत्रों के योगोद्वहन डेढ माह, दो माह, ढाई माह, चार माह का तप, वर्षीतप, नवपदजी की 105 ओलियाँ, 62 वर्ष तक ज्ञानपंचमी की आराधना, मासक्षमण, 19 उपवास, सोलहभत्ता, 6 अछाई, बीसस्थानक, वर्धमानतप, पोषदशमी, मौन एकादशी, मेरु त्रयोदशी, चैत्री पूनम आदि की आराधना द्वारा सम्यक् तप पद की आराधना करके विपुल कर्म निर्जरा की है। 86 वर्ष का निर्मल चारित्र इनको तथा इनके भावपूर्वक दर्शन Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___569 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 वंदन-वैयावच्च-भक्ति करने वाली आत्माओं को चौर्यासी के चक्करमें से शीघ्र मुक्ति दिलाये ऐसी शुभाभिलाषा / इनके नाम के प्रथम दो अक्षर एक सुप्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान के नाम के साथ एकरूपता वाले हैं / वे योगनिष्ठ के रूप में सुप्रसिद्ध हो गये आचार्य भगवंत के समुदाय के हैं / वे अभी जिन आचार्य भगवंत की आज्ञा में हैं उनके नाम का अर्थ 'सुवर्ण जैसी कांतिवाला' होता है / 295 विहार में आते हुए प्रत्येक गांव-नगर-तीर्थों के प्रत्येक जिनबिंबों के समक्ष चैत्यवंदन // __39 वर्ष की उम्र में अपनी 16 वर्ष की पुत्री के साथ पू.आ. श्री भक्तिसूरिजी (समीवाले) के समुदाय में दीक्षित हुए यह साध्वीजी भगवंत जहाँ - जहाँ विहार करके जाते उस गाँव-नगर या तीर्थ में जितने जिनबिंब होते उन प्रत्येक के सम्मुख चैत्यवंदन करते / ... फिर वह शत्रुजय तीर्थ हो या जैसलमेर तीर्थ हो !!! उन्होंने वि.सं. 2023 में जैसलमेर तीर्थ में छोटे बड़े प्रायः 6000 जिनबिंबों के सम्मुख चैत्यवंदन करने की भावना डेढ माह स्थिरता कर पूर्ण की !... उनके पुत्री महाराज ने वहाँ सभी चैत्यवंदन करवाये थे !...... आप श्री ने इस प्रकार सौराष्ट्र, कच्छ, गुजरात और मारवाड़-राजस्थान के अनेक तीर्थों के प्रत्येक जिनबिंबों के सम्मुख-चैत्यवंदन करके जिनभक्ति का अपूर्व लाभ लिया था / देववंदनमाला कंठस्थ की हुई थी / शारीरिक प्रतिकूलताओं में भी कभी दोषित आहार नहीं लिया ! अनेक विध तप और स्वाध्याय के साथ दिन में 11-11 घंटो मौन की साधना करते थे। चाहे कैसा उग्र तप हो तो भी पूरी क्रिया स्वस्थता और स्फूर्ति से खड़े खड़े ही करते थे ! उनकी संसारी पक्ष की दो बहिनें, बहिन की तीन पुत्रीयाँ, भाई-भाभी, Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 भाई के पुत्र, कुटुंबी भाइयों-भाभियों तथा ननिहाल पक्ष सहित 45 भव्यात्माएँ संयम की सुन्दर साधना कर रही हैं / वे सं. 2036 के ज्येष्ठ सुदि 3 के दिन नवकार मंत्र गिनते गिनते समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए / उनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ 'आनंद' होता है। उत्तरार्ध का अर्थ 'बेल' होता है / उनकी विशिष्ट जिनभक्ति की भूरिशः अनुमोदना / उनकी पुत्री साध्वीजी आज विशाल परिवार के साथ संयम की आराधना कर रही हैं / उनके नाम के पूर्वार्ध का अर्थ 'सुवर्ण' तथा उत्तरार्ध का अर्थ 'बेल' होता है। उनकी विशिष्ट जिनभक्ति की भूरिशः अनुमोदना / "बहुरला वसुंधरा" ( भाग 1 से 4 गुजराती आवृत्ति) के 296 विषयमें विविध गच्छ-समुदायोंके गच्छाधिपति आचार्य आदि महात्माओंके स्वयं संप्राप्त अनुमोदनापत्रोंका संक्षिम सारांश 8888888888888 _ "बहुरत्ना वसुंधरा'' भाग 1 से 4 एवं अनुमोदना समारोह की पत्रिका मिली / पढकर अत्यंत प्रसन्नता हुई / आपने वसुंधरा के उपर विद्यमान रत्नों की विस्तृत जानकारी प्राप्त करके हमारे तक पहुँचायी इसके लिए बहुत बहुत अनुमोदना करके धन्यवाद देते हैं / रत्न सामने होते हुए भी रत्न के रूपमें उनकी पहचान दुर्लभ हैं, मगर प्रस्तुत पुस्तक के द्वारा अगणित रत्नों की सुंदर पहचान हमें हुई। दश वर्ष के बालक को श्री सिद्धचक्र महापूजन कंठस्थ !... सुदीर्ध तपश्चर्याएँ करनेवाले महानुभाव !... वर्धमान आयंबिल तप की 100 ओलियाँ पूर्ण करनेवाले तपस्वियों की नामावलि !... इत्यादि पढकर आराधक आत्माओं को अंतर के आशीर्वाद सह हृदय से वंदन हो जाता है !... आपकी लेखन प्रवृत्ति हमको बहुत पसंद आयी है / ऐसे विशिष्ट प्रयास की आवश्यकता थी जो आपने पूर्ण की है, एतदर्थ आप पुनः पुनः धन्यवाद के पात्र हैं। .... आपने ऐसे विशिष्ट आराधक रत्नों के बहुमान का आयोजन करवाया है एवं उसमें भी समाज के सन्माननीय अग्रणी पधारनेवालें हैं, यह जानकर आनंद हुआ है। __- आ. विजय यशोदेवसूरि Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 571 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली है / सुंदर शैलि से परिश्रम करके किताब तैयार की गयी है। प्रत्येक मनुष्यों के लिए एवं खास करके साधु-साध्वीजी भगवंतों के लिए व्यारव्यानादि में यह किताब अत्यंत उपयोगी बनेगी। प्राचीन दृष्टांतों की अपेक्षा से अर्वाचीन दृष्टांतों में लोगों को अधिक दिलचश्पी होती है / आपके द्वारा किया हुआ यह स्वाध्याय सर्व जीवों को बहुत ही उपयोगी होगा / अलग अलग 3 किताबें प्रकाशित होने से साधुसाध्वीजीयों को विहारमें साथमें रखने के लिए अनुकूलता रहेगी। चार भागों के अधिक दो सेट यहाँ भेजने के लिए अवसर देखें। - आ. विजय चंद्रोदयसूरि गत वर्ष में 'बहुरत्ना वसुंधरा' का प्रथम भाग मिला था / कल दूसरा भाग मिला है। प्रथम भाग मिला तब मैं विहार में था, इसलिए यहाँ आकर पढा तब अत्यंत रोमाञ्चित हो उठा / इतने में दूसरा भाग मिला और उसके कुछ ही दृष्टांत पढकर अत्यंत हषान्वित हो गया हूँ / वर्तमान काल में भी श्रीजिनशासन जयवंत है। आपने इन पुस्तकों के लिए जो मेहनत की है उसकी अनुमोदना करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।... 'गुणीजन भक्ति ट्रस्ट' की स्थापना करने के लिए हसमुखभाई को हमने प्रेरणा की थी, और यह ट्रस्ट आपके द्वारा आयोजित अनुमोदना समारोह में सहभागी बना इसका भी हमको आनंद है। यह प्रकाशन कलकत्ता में एवं यहाँ (पटणा शहर) के ज्ञानभंडार में भी बहुत उपयोगी होगा / आपकी किताब हमेशा के लिए मेरे साथ रहेगी। ___ - आ. विजयप्रभाकरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब नहीं किन्तु सजिल्द ग्रन्थ प्राप्त हुआ है !... सचमुच वसुंधरा के अनमोल रत्नों की अद्भुत रोशनी हमारे जीवनपथ पर मार्गदर्शक बन सके ऐसी है / आपने बहुत अनमोल संकलन किया है। यह प्रकाशन केवल श्रावकों के लिए ही नहीं, किन्तु चतुर्विध श्री संध के लिए प्रेरणादायक है / प्रायः वर्तमान विश्व में सबसे उत्कृष्ट गुणानुरागी के रूपमें मुझे आपके दर्शन होते हैं / ऐसे संतके गुणगान करते हुए यह जिह्वा थकती Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ही नहीं है। आपके गुणानुरागिता गुणने मुझे गुणग्राही बना दिया है, ऐसा कृतज्ञता से लिखते हुए मुझे बहुत ही आनंद हो रहा है / आपकी आराधना आपको सर्वोत्कृष्ट गुणों का भाजन बनाये यही मंगल कामना है। - आ. विजयजगवल्लभसूरि 'बहुरत्ला वसुंधरा' भाग-२ मिला है / सप्रेम स्वीकार किया है। पुस्तक के पत्रांक 64 पर देवजीभाई और नानजीभाई -बंधु युगल का दृष्टांत है, उनका बहुत सुंदर अनुभव 5 वर्ष पूर्व हम जब गांधीधाम गये थे तब हमें भी हुआ था / गांधीधाम से पूर्व के एक गाँव में जैनों के घर नहीं हैं, अतः हम भचाउ से व्यवस्था करवाकर निकले थे। गांधीधाम में किसी को खबर भेजी नहीं थी। फिर भी देवजीभाई एवं नानजीभाई को किसी तरह से मालूम हो जाने से वे गोचरी लेकर स्वयं लाभ लेने के लिए आये थे। गांधीधाम में भी उनका बहुत ही सुंदर अनुभव हुआ था। उनकी प्रसंशा-अनुमोदना गाँव-गाँव में हो रही थी। - आ. विजयमहानंदसूरि - आ. विजयमहाबससूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' का दूसराभाग दो दिन पहले ही मिला है, और कल जाहिर प्रवचन में उसमें से 3 दृष्टांत प्रस्तुत करने पर श्रोता अत्यंत भावविभोर हो गये थे / किताब के लिए आपने अच्छा परिश्रम किया है। आपकी ज्ञानोपासना सराहनीय है / किताब छपवाने के लिए दव्य व्यय भी बहुत होता होगा / यहाँ के (खीमत) श्री संघ को ज्ञानखाते में से रकम भिजवाने के लिए प्रेरणा करता हूँ। शासन के प्रति आपकी भावना एवं पुरुषार्थ अनुमोदनीय है / इसमें उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती रहे यही शुभेच्छा / आ. विजयश्रेयांससूरि Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 573 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / आप अत्यंत रसपूर्वक अच्छा प्रकाशन करते है / आपका सौहार्द एवं स्नेहभाव कभी भूल नहीं सकता हूँ।... चातुर्मास प्रवेश के दिन नवकार महामंत्र के साधक श्री लालुभा दरबार मिले थे / आराधकों के अनुमोदना - बहुमान समारोह में उनको भी आमंत्रण भिजवाया गया है, यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई। ___- आ. महायशसागरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली है। वर्तमानकाल में सत्त्वगुणसंपन्न जीवों में कितनी सुंदर धर्मश्रद्धा, तप-त्याग की शक्ति एवं शील-सदाचार की मर्यादाएँ विद्यमान हैं !!... नीति, परोपकार, उदारता, समता आदि गुणसंपन्न जीवों के वर्तमानकालीन दृष्टांत अत्यंत बोधप्रद हैं / .... प्रत्येक घरों में हररोज पारिवारिक धर्मसभा का आयोजन होना चाहिए एवं उसमें ऐसी किताब के प्रतिदिन 2-4 दृष्टांत पढाए जाएँ तो अत्यंत सुंदर धर्मजागृति आयेगी !... किताब के माध्यम से आबालवृद्ध सभी को धर्मश्रद्धा एवं सदाचार पालन के प्रति प्रेरित करने का आपका पुरुषार्थ अत्यंत अनुमोदनीय है। _ - आ. विजय राजेन्दसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली है। सादर स्वीकार किया है। सुंदर परिश्रम . किया है / श्रम सार्थक हुआ है !... जिस तरह सूर्य आज भी सारे विश्व को प्रकाशित करता है, उसी तरह श्री जिनशासन भी आज पूर बहार में झगमगा रहा है, ऐसी प्रतीति इस किताब को पढने से होती है / कई आत्माएँ अनुमोदना द्वारा आत्मकल्याण के पथ पर प्रगति करेंगी !.. हम तो प्रवचन में खास इस किताब के दृष्टांत अक्सर दिया करते हैं, जिन्हें सुनकर श्रोताओं को अच्छे भाव जगते हैं। - आ. विजय वारिषेणसूरि अनेक आत्माओं को सन्मार्ग में आने की प्रेरणा देता हुआ एवं Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 गुणवान आत्माओं के चरणों मे झुक जाने की वृत्ति उत्पन्न करता हुआ ऐसा मस्त उपहार श्री संघ के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद है। - आ. विजय रत्नसुंदरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / भाग-१ गत वर्ष में मिला था / सादर स्वीकार किया है / मेहनत खूब प्रशंसनीय है / अनुमोदना का भव्य पाथेय परोसा है / भाग 3-4 भी भेजें / - आ. विजय मित्रानंदसूरि ___'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / सचमुच कलियुग के कीचड़ में उत्पन्न हुए नरपुंगव रूप कमलों को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके आपने बहुत ही कमाल किया है !.. आज का मानव भौतिकवाद की भयानकता एवं विषयों की आसक्ति को छोड़कर साधना की पगदंडी पर शीघ्र अग्रसर बन जाय ऐसे दृष्टांतों का अखूट खजाना है। आपका आंतरस्नेह अविस्मरणीय रहेगा / ___- आ. कल्याणसागरसूरि ॐ 'बहुरत्ना वसुंधरा' का भाग -2 मिला / पुस्तक बहुत ही उपयोगी है / आप इस तरह ज्ञानभक्ति द्वारा शासन की सेवा कर रहे हैं, यह अनुमोदनीय है / पालिताना में 'लुणावा मंगल भुवन' धर्मशाला में भी ज्ञानभंडार है / लोग लाभ लेते हैं / तो ऐसी किताबें भिजवाते रहें / ___ आ. विजय अरिहंतसिद्धसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' का प्रथम भाग गत वर्ष जयपुर में मिला था। बाकी के तीन भाग यहाँ बाड़मेर में मिले हैं / हमारी साध्वीजीयों को पढने के लिए किताबें दी हैं / धर्मश्रद्धा को बढानेवाला साहित्य है / धन्य Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 575 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 है आपको, आपने कितना परिश्रम करके सब प्रकार के लेख छपवायें हैं / आपको बहुत बहुत धन्यवाद / आ. जिन महोदयसागरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / ग्रन्थ की संकलना बहुत ही सुंदर है / ग्रन्थ के दृष्टांत अनुमोदना के लिए भरपूर सामग्री प्रदान करते हैं / इस तरह का बिल्कुल बेनमून सर्जन करने के लिए लाख लाख धन्यवाद / विशिष्ट आराधकों के बहुमान का कार्यक्रम अच्छी तरह सफल हो यही शुभेच्छा / - आ. विजय मुनिचन्दसूरि 'बहरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / आपने अत्यंत प्रशंसनीय प्रयास किया है / भिन्न भिन्न स्थानों में रहे हुए मानवरत्नों को खोजकर आपने अनेक जीवों के समक्ष अनुमोदना के लिए प्रस्तुत किये हैं, इसके लिए खूब खूब धन्यवाद / ___ - आ. विजयदेवसूरि., आ. हेमचन्द्रसूरि - 'बहुरत्ना वसुंधरा' पुस्तक प्रकाशित करके आपने जैन शासन की महान सेवा की है। भारत के विभिन्न राज्यों में गुप्त रूप से रहे हुए जैन रत्नों को आपश्रीने प्रयास करके संघ के समक्ष प्रकाशित किये हैं, इसके लिए आप शतशः धन्यवादार्ह हैं / - आ. सुबोधसागरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली है / उपर उपर से निरीक्षण करने पर भी लगा कि बहुत अच्छी मेहनत की है, जो अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद बनेगी / ऐसे सुन्दर उपहार के लिए अभिनन्दन / आ. कलाप्रभसागरसूरि Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिल गयी है / बहुत ही सुंदर और अनुमोदनीय प्रकाशन किया है / अनेकों के जीवन में परिवर्तन लाने में निमित्त बन सकें ऐसे प्रकाशन के लिए हार्दिक धन्यवाद / - आ. पद्मसागरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / प्रयास बहुत अच्छा है / भाग 3-4 भी तैयार होने पर जरूर भिजवाना / - आ. विजयसुशीलसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ कल मिला है, जिसका सादर स्वीकार करता हूँ / भाग -1 -3 -4 भी अनुकूलता के अनुसार भिजवाना / दृष्टांत बहुत ही अच्छे हैं / आ. नरेन्द्रसागरसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग - 2 मिला है / सहर्ष स्वीकार करता हूँ। आपका प्रयत्न बहुत ही प्रशस्य है / आप ऐसे कार्यों में अधिक अधिक आगे बढें यही शुभेच्छा / ____ - आ. विजय स्थूलभद्रसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ मिला है / प्रेरणादायी दृष्टांतों का सुंदर संग्रह किया है / बहुत बहुत धन्यवाद सह हार्दिक अनुमोदना / भाग 13-4 भी भेजने के लिए अवसर देखें / - आ. विजय कलापूर्णसूरि Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 577 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग- 2 मिला है / प्रयत्न अत्यंत अनुमोदनीय है / विशेष अभिप्राय संपूर्ण पढने के बाद भेजूंगा / आ. विजयभद्रंकरसूरि आपका प्रयत्न प्रशस्य है / कोने कोने में छिपे हुए रत्नों को खोजकर विश्व के सामने प्रकाशित किया है, उसकी भूरि भूरि अनुमोदना सह हार्दिक धन्यवाद / आ. विजय हेमरत्नसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग 3-4 मिला है / सहर्ष स्वीकार करता हूँ। किताब में सग्रहित दृष्टांत अत्यंत सुंदर और बार-बार अनुमोदना करने योग्य हैं। आ. विजय पूर्णानंदसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली है / किताब में रहे हुए दृष्टांत अनेक जीवों के आंतर संवेदन में जरूर अनन्य कारण बनने योग्य हैं / यह एक जिनशासन की अनूठी देन है / जिनशासन का कैसा अद्भुत प्रभाव है . कि जिसके प्रत्यक्ष बोलते हुए दृष्टांत संपूर्ण आम जनता को सीधा असर करते हैं !... ऐसे अनेक सुकृतों को करने के लिए शासनदेव आपको शक्ति प्रदान करे यही शुभेच्छा। ___- आ. विजय विद्यानंदसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग -2 मिला है। अनेक जीवों को प्रेरक बननेवाले उत्तम दृष्टांतो का समावेश इस किताब में करने का आपका यह प्रयास अत्यंत अनुमोदनीय है। .- आ. विजय हेमप्रभसूरि बहुरत्ना वसुंधरा - 3-37 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली / बहुत ही प्रसन्नता हुई / स्वपर जीवन का कल्याण करनेवाली अनुमोदनीय किताब है। - - आ. विजय इन्द्रसेनसूरि 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली / हमारे लिए बिल्कुल अज्ञात ऐसे कई श्रावकों की उत्तम आराधना की जानकारी मिलने से बहुत प्रसन्नता हुई / सचमुच श्रावकों में भी कई चीजें अनुमोदनीय होती हैं / - आ. अशोकसागरसूरि - 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली है / अनुमोदनीय पुस्वार्थ किया हैं / अन्य भाविकों को सुंदर प्रेरणा मिलेगी / - आ. विजय अभयदेवसूरि . 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग -2 जैन धर्म के श्राद्धवर्य एवं श्राविकारत्नों का सुंदर संकलन है / भारतभर से ऐसे लोगों का संकलन करके उनके आदर्श प्रेरणामय एवं तपस्वी जीवन को जन जन तक पहुँचाने का जो भगीरथ कार्य आपने संपन्न किया है, उसके लिए नि:संदेह आप साधुवाद के पात्र हैं / मेरे ज्ञानमें यह पहला प्रयास है / उनके अभिनंदन का जो कार्यक्रम रखा है यह भी अभिनंदनीय है / छपाई व पुस्तक का 'गेट अप' आकर्षक है / जिनके आदर्श जीवन का आलेखन हुआ है, उनके फोटु भी प्रकाशित होते तो उत्तम रहता / - उपाध्याय वसंतविजय इस काल में जो भी भावुक आत्माएँ जैन धर्म की आराधना अच्छी तरह से करते हैं, उनकी जानकारी प्राप्त करके दूसरों को भी जानकारी मिले और वे भी अनुमोदना करें इस तरह से प्रचार का आपका प्रयास स्तुत्य है / इन आराधकों की भक्ति करने का जो Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 579 कार्यक्रम आयोजित हुआ है वह बहुत अच्छा किया है / पूज्यपाद आ. श्री लब्धिसूरीश्वरजी म.सा. कहा करते थे कि अनुमोदना करनेवाले तो धन्य हैं ही, किन्तु अनुमोदना करनेवालों की अनुमोदना करनेवाले भी धन्य हैं। - उपाध्याय महायशविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग -2 साद्यन्त पढ गया / वास्तव में आपने बहुत भव्य पुस्वार्थ किया है / यह कार्य गुणानुराग गुण विकसित हुए बिना हो नहीं सकता है / सचमुच आपने गुणानुराग गुण को अच्छी तरह से विकसित किया है, उसका ही यह फल है। - पंन्यास कीर्तिचन्द्रविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग 3-4 की एक प्रति प्राप्त हुई है / जैन शासन में वर्तमानकालीन चमकते आराधकों के उदाहरण श्री संघ में प्रेरणादायक बनेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। _ - पंन्यास इन्द्रविजय आपका प्रयन्तं बहुत अनुमोदनीय, प्रेरणादायक एवं शासन प्रभावक है / हार्दिक अनुमोदना / प्रवर्तक मुनि हरीशभद्रविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली है / बहुत ही आनंद हुआ / सचमुच अनुमोदनीय प्रसंग अनुमोदनीय ही हैं और प्रेरणादायक भी हैं / सुंदर संकलन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद / - गणि अभयशेखरविजय Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 ___ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली है / अतीव आनंद हुआ / किताब के दृष्टांत पात्र आराधक महानुभावों की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना / आराधकों के बहुमान का कार्यक्रम आयोजित हुआ है वह भी बहुत प्रशंनीय है। - गणि वीरभद्रसागर ___'श्री जिनशासन दर्शित सम्यक् प्रमोद भावना प्राप्त करके 'गुणीजनों का गुणगान करने में गच्छ-समुदाय आदि का भेदभाव नहीं रखना चाहिए,' यह बात आपने सिद्ध करके दिखलायी है और छिपे हुए रत्नों को प्रकाश में लाने का अनमोल कार्य किया है यह अत्यंत अनुमोदनीय है। - गणि राजयशविजय _ 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग 3-4 मिल गये हैं / संग्रह बहुत ही अच्छा किया है / पढने से आराधना के लिए प्रोल्लसित भाव आ जाय ऐसे दृष्टांत हैं / अनुमोदना - बहुमान समारोह भी सुंदर हुआ, यह समाचार 'संदेश' अखबार से अवगत हुए / उपबृंहणा भी दर्शनाचार का एक आचार है। - पंन्यास पद्मसेनविजय आपके द्वारा संपादित 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग 1 से 4 अलग अलग एवं संयुक्त पुस्तक के रूपमें मिले / अनेक वर्षोकी आपकी साधना का यह परिणाम है / कोने कोने में से रत्नों को खोज खोजकर समाज के समक्ष रखनेका अतिस्तुत्य प्रयास किया है, जिससे अनुमोदना के द्वारा अनेक लोग निर्जरा के भागी बनेंगे / समाज के समक्ष अद्भुत आदर्श खड़ा होगा और गुणवानों का उचित गौरव होगा / वर्तमान समय में भी इस शरीर से कितनी साधना शक्य है उसका प्रमाण मिल जायेगा / इस * प्रशस्य प्रयास के द्वारा आप तो बिना प्रयास से इन सारे गुणों के सहभागी Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 581 सहजता से बन सकोगे यह निर्विवाद है / अति सुंदर संकलन सरल और सचोट शैलि में किया है / भविष्य में भी आपके द्वारा ऐसे और उससे भी सुंदरतर अनेक कार्य होते रहें ऐसी शासनदेव को प्रार्थना / - मुनि कल्याणबोधिविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली / मुझे पढने का समय नहीं मिला है, किन्तु हमारे साधु महाराज आदि जिन्होंने भी पढी वे सभी उसकी बहुत प्रसंसा करते थे / __ - मुनि जम्बूविजय अत्यंत सुंदर पुस्तक है / बहुमान समारोह सफलता पूर्वक हो गया होगा ! नूतन दिशा के इस कदम के लिए आपश्री को शत शत साधुवाद / गुणीजनों का बहुमान करेंगे तो ही गुणीजनों की संख्या बढेगी। यह किताब सचमुच किताब ही नहीं है, किन्तु रत्नों की मंजूषा है / वर्तमान काल में दृष्टांत ही असरकारक बनते हैं। - गणि मुक्तिचन्द्रविजय आपके अथक परिश्रम से 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब हमें आज प्राप्त हुई / यह पुस्तक अनुमोदना का रसथाल है / एतदर्थ आप साधुवाद के पात्र हैं। - मुनि जिनरत्नसागर 'बहुरत्ना वसुंधरा' साहित्यरत्नों में एक अनमोल रत्न है / प्रायः अर्वाचीन लोकभोग्य सोहित्य में इसका स्थान अद्वितीय होगा / हम व्याख्यान में अक्सर इस किताब में से प्रेरणात्मक प्रसंग सुनाकर लोगों में उत्साह बढाते हैं / कुछ कुछ प्रसंग आँखों में से प्रमोदाश्रु बहा देते हैं। 'आप की भावना, परिश्रम और उसके द्वारा हो रही शासन प्रभावना को धन्य है' ऐसे उद्गार सहज रूप से मुंह से निकल जाते हैं / आराधकों के विशिष्ट बहुमान के अत्यंत अनुमोदनीय समाचार भी Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 विविध लोगों के पास से सुनकर अत्यंत आनंद हुआ है / _ - मुनि महाभद्र सागर, मुनि पूर्णभद्र सागर 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब मिली / बहुत अच्छा परिश्रम किया है। दो भाग पढ लिये हैं / भाग 3-4 का वांचन चालु है / व्याख्यानादि में बहुत ही उपयोगी है / भाग -1 की प्रस्तावना में आप के द्वारा लिखी हुई सूचना के अनुसार भाग 1-2 के सभी दृष्टांतपात्र आराधकों को मुनि श्रीउदयरत्नसागरजी अनुमोदना पत्र लिख रहे हैं, जिससे आराधकों के उत्साह में अभिवृद्धि होगी / _ - मुनि सर्वोदयसागर खदान में से हीरे निकालने सुलभ हैं, किन्तु दुनिया में रहे हुए अनेकानेक प्रकार के जीवों में से आराधक महापुरुषों की खोज बहुत मुश्किल होती है / ऐसी चातक दृष्टि प्राप्त करने के बदल बहुत बहुत अनुमोदना / प्रस्तुत किताब भवसागर में भटकते हुए जीवों के लिए दीवादांडी के समान है। - मुनि संयमबोधिविजय सचमुच आपने बहुत ही परिश्रम उठाकर इस पुस्तक के द्वारा जैनशासन की अपूर्व सेवा की है / आज के विषम कालमें अधिकांश लोग धर्म से विमुख हो रहे हैं, तब ऐसे उत्तम आत्माओं के प्रसंगों को पढकर वे धर्म में स्थिर होने के लिए प्रयत्न किये बिना नहीं रह सकेंगे। इसके सारे श्रेय और यश के भागी आप हैं / जिनको भी सच्ची धर्म आराधना करनी है वे इस किताब को पढकर प्रतिकूल संयोगों में भी उत्तम आराधना कर सकेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है / भा.सु-१५ के दिन आयोजित अनुमोदना समारोह के समाचार अवश्य भिजवायें / - मुनि युगदर्शनविजय Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 583 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 __ आपश्रीने अत्यंत परिश्रम द्वारा ऐसी अद्भुत और श्रेष्ठ किताब का सर्जन किया है, उसकी बहुत बहुत अनुमोदना / कई जीवों का आराधना एवं अनुमोदना द्वारा आत्महित इससे होगा / नये नये प्रसंग आपके द्वारा हर सालमें प्रकाशित होते रहें ऐसी हार्दिक शुभेच्छा / - मुनि भदेश्वरविजय आपश्रीने भगीरथ पुरुषार्थ के द्वारा भावपूर्ण उत्तम सर्जन करके पुस्तक के रूप में सुकृतों का अनमोल खजाना सकल श्री संघ को भेंट किया है, जो आत्मार्थी जीवों को अवश्य ही लाभकारक बनेगा। - मुनि यशोभूषणविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' में बहुत बढिया मसाला भरा है / आज के समय में बहुत ही उपयोगी है। .. - मुनि कलहंसविजय __'बहुरत्ना वसुंधरा' के विशिष्ट आराधकों के बहुमान कार्यक्रम की पत्रिका मिली / बहुत सुंदर आयोजन किया है / आराधक रत्न दूर दूरसे आयेंगे / जैनेतर आराधकों को भी जैनशासन की विशेष पहचान मिलेगी और वे महातीर्थ की स्पर्शना से लाभान्वित बनेंगे / उक्त प्रसंग की भूरि भूरि हार्दिक अनुमोदना / आपश्री को कार्यकर्ताओं का समूह अच्छा मिल गया है, जिससे यह कार्य सफल होगा इसमें संदेह नहीं / शासनदेव आपश्री को हर प्रकार से सहायक बनें यही शुभेच्छा / - मुनि जयचन्द्रविजय आपश्री ने तपस्वी सम्राट, प.पू.आ.भ श्री विजय हिमांशुसूरीश्वरजी म.सा. के उपर प्रेषित 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब देखी / मुझे बहुत अच्छी लगी / इतने दृष्टांतों को इकट्ठा करने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती होगी ! आप श्री ने यह कार्य करके बहुत सफलता प्राप्त की है। _ - मुनि दिव्यपद्मविजय Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-३ में चलते फिरते तीर्थ स्वरूप दृष्टांत नं. 12-3 प्रातः काल में उठने के साथ ही आँखों के सामने आ जाते हैं और भावपूर्वक वंदना हो जाती है। दृष्टांतों को पढते पढते एक ओर हर्ष के अश्रु तो दूसरी ओर अपनी शिथिलता को देखकर दुःख के अश्रु निकल जाते हैं / सोचता हूँ - कहाँ वे महान आत्माएँ और कहाँ मैं ? पंचसूत्र का प्रथम सूत्र कई सालों से प्रतिदिन एक बार बोलता हूँ, उसमें भी इस पुस्तकमें वर्णित दृष्टांतों को मानस चक्षु के सामने रखकर अनुमोदना के द्वारा कर्मनिर्जरा करने का बल मिलेगा / आपश्रीने वर्तमानकालीन विशिष्ट आराधकरत्नों के अत्यंत अनुमोदनीय, प्रेरक और आश्चर्य प्रद दृष्टांतों का संग्रह करके सकल श्री संघ के समक्ष प्रस्तुत करके महान उपकार किया है। - - मुनि रत्नधोषविजय 'बहुरत्ना वसुंधरा' को साद्यंत पढा, सोचा और मनन किया / कई दृष्टांतों को पढते पढते आँखों से हर्षाश्रु टपक पड़े तो कुछ दृष्टांतों को पढ़ते समय अपनी न्यून दशा के लिए दुःखाश्रु भी निकल गये / शायद ऐसे भावविभोर करनेवाले दृष्टांतों को पढने के समय विपुल कर्मनिर्जरा का लाभ हुआ होगा / लाक्षणिकताएँ निम्नलिखित देखने को मिली / ब्रह्मचारीओं, तपस्वीओं, बालकों, प्रज्ञाचक्षुओं, जीवदयाप्रेमीओं, आत्मसाधकों... इत्यादि का सुंदर विभागीकरण किया गया है / उदारदिल से लिए हुए श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के विविध गच्छों के साधकों के दृष्टांत, अन्य गच्छ-सम्प्रदायों के आराधकों के दृष्टांत एवं उनके नामोल्लेख और एड्रेस के साथ की हुई गुणानुमोदना, आपश्री की विशिष्ट सौजन्यता, सहृदचिता, उदारता, एवं गुणानुरागिता की द्योतक है। अनेकजनप्रियता के द्वारा शासन प्रभावक कार्यों का सर्जन होता है, जिस के लिए आपश्री ने बहुत अच्छी तरह से जिम्मेदारी को निभाया है ऐसा लगता है / पुनः पुनः हार्दिक अनुमोदना और वंदना / - मुनि जयदर्शनविजय Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 585 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 हम लोगोंने 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-१-२ के अनेक दृष्टांत प्रवचन में प्रस्तुत किये हैं। लोगों पर ऐसे दृष्टांतों का बहुत सुंदर असर होता है। - मुनि कीर्तिरलविजय जन्म से अन्यधर्मावलम्बी होने पर भी सत्संग के द्वारा आज जैन धर्म को स्वेच्छा से संपूर्ण समर्पित हैं, ऐसे कई आराधकों के दृष्टांत 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग -1 में पढे जो सकल संघ के लिए आदर्श रूप हैं / आपश्री का प्रयत्न अतीव अनुमोदनीय है / - मुनि विमलविजय विविध प्रकार की अभिवचवाले धर्मजिज्ञासुओं को अपनी स्वच के अनुसार परिपक्व आराधक महानुभावों का संपर्क इस किताब के माध्यम से हो सकेगा यह निःसंदेह है। _ - मुनि आनंदघनविजय आप श्री ने एक नये ही विषय पर अति सुंदर सर्जन किया है। किताब के बहुत सारे दृष्टांत भूरि भूरि अनुमोदनीय हैं / पाठकवृंद के लिए यह किताब अतीव लाभदायी है / . - मुनि भुवनचन्द्रविजय इस पुस्तक के माध्यम से अज्ञात अनेक आराधकरत्नों की पहचान हुई और अनुमोदना के द्वारा पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करने का लाभ मिला इसके लिए हार्दिक धन्यवाद / / - मुनि अपराजितविजय पुस्तक में सख्त मेहनत करके विशिष्ट आराधकों के नाम-ठाम उम्र और जीवनचर्या प्रकाशित करके समाज के उपर महान उपकार Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 किया है। आपश्री का साहित्य यहाँ के श्रमण स्थविरालय - ज्ञानभंडार में रखेंगे / साधु-साध्वीजी और यात्रिक भी पढने के लिए ले जाते हैं। - मुनि अमरेन्द्रसागर उत्तम जनों के गुणानुवाद द्वारा सर्व जीव गुणवान बनें इसी एकमात्र शुभ आशय से किए गये आपश्री के शुभ पुरुषार्थ की खूब खूब अनुमोदना / 'गुणी च गुणरागी च सरलो विरलो जनः' गुणवान एवं गुणानुरागी हों ऐसे सरल मनुष्य विरल ही होते हैं / - गणि अक्षयबोधिविजय सचमुच यह किताब बेनमून और अत्यंत अनुमोदनीय है। उत्तम गुणों के धारक आत्माओं की अनुमोदना करता हुआ प्रायः यही प्रकाशन होगा। - मुनि अणमोलरत्नविजय 297|| स्थानकवासी महात्माओं के अनुमोदना पत्र / __अभी अभी आपके द्वारा प्रेषित 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ की एक किताब मिली / अभी किताब पढी नहीं है, किन्तु पुस्तक के शीर्षक से और कुछ पन्ने इधर उधर पलटे हैं उससे यह अनुभूति हुई कि पुस्तक बहुत ही उपयोगी एवं जन जन के लिए प्रेरणादायक है / कृपया इसके भाग 1-2-3 भी अवश्य भिजवायें / चारों भाग पढकर उस पर विस्तार से अभिप्राय लिखकर भिजवायेंगे / ___- 'आपका देवेन्द्र मुनि' (स्था. आचार्य) आपकी ओर से प्रेषित 'बहुरत्ना वसुंधरा' ग्रन्थ प्राप्त होते ही आपश्रीके गुणग्राही उज्जवल आत्मा के प्रति अत्यंत अनुमोदना और अहोभाव जाग्रत होता है / आप श्री ने जो प्रयास किया है वह संसार चक्र के जन्म - मृत्यु की परंपरा को समाप्त करनेवाला है / रत्न जैसे Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 587 उज्जवल आत्माओं को ढूंढने के लिए मानव महासागर का कितना मंथन करना पड़ता होगा ! 'यत् सारभूतं तदुपासनीयम्'। आप की गुणदृष्टि के माध्यम से आपने सबको कराया / धन्य है आप श्री के शुभ पुरुषार्थ को / अनेक भव्यात्माएँ इस किताब के दृष्टांतों को पढकर अपनी जिन्दगी का मार्ग भी निर्मल बनायेंगे और आपश्री उसका शुभ निमित्त बनोगे / _ - जनक मुनि 'बहुरत्ना वसुंधरा' पुस्तक के स्वरूप में आप की कृपा प्रसादी की प्राप्ति द्वारा धन्यता का अनुभव किया / पुस्तक तैयार करने में आपश्री ने प्रबल और सफल पुरुषार्थ किया है / प्रत्येक वाचक को इससे प्रेरणा प्राप्त होगी / आपकी प्रत्येक किताब अवश्य भिजवाने की कृपा करें / पढकर यहाँ के ज्ञानभंडार में जमा करवायेंगे ताकि चतुर्विध श्री संघ को स्वाध्याय में उपयोगी बनेगी ! आभार के साथ हार्दिक सुखशाता / / __- भास्कर मुनि प्रस्तुत पुस्तक के लिए आपश्री का बेजोड़ परिश्रम अत्यंत अनुमोदनीय है / पढनेवालों को धर्म की लगन लगाने वाला यह साहित्यरत्न है इसमें संदेह नहीं / -ताराचंदमुनि ____ 'बहुरत्ना वसुंधरा' मिली ! धन्य है ऐसे आराधक आत्माओं को, जो आत्मा की परम शांति के लिए अंतर्मुख बनकर विशिष्ट आराधना कर रहे हैं / कच्छ-बिदड़ा में आपकी सन्निधि में बीता हुआ चातुर्मास आज भी याद आ रहा है / उसका कारण कवियोंने बताया है कि एक आवे सुख उपजे, एक आवे दुःख थाय' 'एक परदेश गयो न वीसरे एक पासे बेठो न पोषाय / ' आप भी दूर होते हुए भी हमारे दिल से बहुत नजदीक हो, हृदय में हो / ___ - मुनि विरागचन्द्रजी Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 __'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग 3-4 मिले / कुछ ही पन्ने पढकर मन प्रसन्नता से और आपश्री के प्रति अहोभाव से भर गया / वर्तमान समय के श्री जिनशासन के अलंकार रुप पुण्यात्माओं के जीवन-चरित्रों को पढकर अनेकानेक भव्य जीव अपनी सुषुप्त भावनाओं को जाग्रत कर सकेंगे !... ऐसे आराधक रत्नों का जीवन व्याख्यानादि में भी वर्णन करके हमारे जैसे जीवों को अनुमोदना करने का लाभ मिलेगा / आप श्री ऐसे पुण्यात्माओं के जीवन का संपादन करके जैन समाज के पथप्रदर्शक बन गये हो / आपश्री को बहुत धन्यवाद - अभिनंदन / वर्तमानकालीन आराधकरत्नों के दृष्टांत नयी पीढी को धर्म श्रद्धा में दृढता प्रदान करेंगे / इस किताब में जिन जिन साधु-साध्वीजी भगवंतों के दृष्टांत प्रकाशित हुए हैं, उनके नाम और समुदाय लिखने के लिए विज्ञप्ति है / समस्त चतुर्विध श्री संघ का अहोभाग्य है कि ऐसी अमूल्य किताब पढकर सभी अपने जीवन को कृतार्थ बनायेंगे / बहुत बहुत अनुमोदना / - - उपाध्याय विनोदचंद्रजी आपश्री जो गजब की मेहनत करके आश्चर्यजनक धर्मात्माओं के दृष्टांत-चरित्रों का संपादन कर रहे हो उससे लोगों की जैन धर्म के प्रति आस्था एवं आचार- क्रिया आदि में जो दृढता आयेगी उसका श्रेय आपके सत्प्रयास को मिलेगा / आपश्री की इस प्रभावना और भावना को बहुत बहुत वंदना-अनुमोदना / सभी भागों की 2-2 प्रतियाँ हमारे लिए और यहाँ के ज्ञानभंडार के लिए भिजवाने की विज्ञप्ति / आराधक रत्नों का बहुमान हो रहा है वह भी बहुत ही प्रेरक पूरक ओर सूचक है। - भावचन्द्रजी स्वामी की ओरसे विवेकमुनि HTHHTHE प्रस्तुत पुस्तक के द्वारा अनेकानेक जीवों को सत्प्रेरणा मिलेगी। इसका पठन-पाठन करके लोग श्री जिनशासन के प्रति श्रद्धावान बनेंगे। धर्मजिज्ञासु जीवों के लिए यह किताब अत्यंत उपयोगी है। __- रतिलाल महाराज, गिरीश मुनि, त्रिलोकमुनि Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 विविध गच्छ समुदायों के साध्वीजी भगवता के 298| / अनुमोदना पत्रों का संक्षिप्त सारांश ___'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब के द्वारा पाँचवे आरे में भी चौथे आरे के आराधकों का दर्शन होता है !... अनेक जीवों के जीवन में 'टींग पोईन्ट' लानेवाले दृष्टांत इस किताब में संग्रहीत हैं !.. मूर्तिमान गुणानुराग रूप यह कार्य प.पू.आ.भ. श्रीलब्धिसूरीश्वरजी म.सा. के समुदाय को खास करने योग्य कार्य आपश्री ने पूरा किया है उसकी हार्दिक अनुमोदना / पू. गुरुदेवश्री कहते थे कि, अपेक्षा से समुदाय तो उसका रहता है जो एक दूसरे का गुणानुवाद करता है / गच्छ की-समुदाय की बात तब तक करना जबतक शासन की बात रहे / समुदाय की भक्ति अवश्य करनी चाहिए मगर मोह नहीं रखना चाहिए। सभी आचार्य भगवंतों का शासन में योगदान है !.. आपश्री का यह कार्य प्रमोदभावना का प्रचारक, प्रसारक और प्रभावक है !... आराधकों के नाम एवं पते के साथ परिचय देने से पाठकों की श्रद्धा बढती है / इस किताब की हजारों-लाखों प्रतियाँ प्रकाशित करके पुत्सक विक्रेताओं द्वारा वितरित करें जिससे जिनशासन की खूब प्रभावना होगी !... इस किताब की खुली किताब परीक्षा का आयोजन करेंगे तो बहुत प्रचार होगा !.. ऐसी किताब प्रतिवर्ष प्रकाशित करें और जैन मासिक पत्रों में इसकी जाहिरात भी करें !.. आज के युवावर्ग को धर्म के प्रति सन्मुख करने के लिए यह किताब अत्यंत उपयोगी है !.. इस किताब को श्राविकाओं के समक्ष व्याख्यान में पढ रही हूँ, जिसे सुनकर वे आश्चर्यचकित हो जाती हैं और स्वयमेव विविध व्रत-नियम ग्रहण करती हैं / हमारे हृदय से भी अहोभाव के उद्गार निकल जाते हैं कि- 'अहो हो ! ऐसे ऐसे अनमोल आराधकरत्न आज भी इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं !.. आराधकों के गुणगान करने के लिए एवं आपश्री की अनुमोदना करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं !... किताब पढकर रोमाञ्च खड़े हो गये / अंतःकरण से पुकार उठी कि-'हे आत्मन् ! तेरी भी इतनी शक्ति होने पर तू इतना कायर क्यों है ?... ' एक एक दृष्टांत पढते हृदय गद्गद हो जाता है !... जैन शासन के नभोमंडल Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 590 ___ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 के तेजस्वी सितारों का परिचय कराती हुई इस किताब को पढने से अहोभाव और प्रमोदभाव जाग्रत हो जाता है !... चौथे आरे के दृष्टांतों पर आज की नयी पीढी को शंका होती है तब कलिकाल के ऐसे आराधकों के दृष्टांत बहुत ही प्रेरक बनेंगे / इन दृष्टांतों से प्राचीन दृष्टांत भी श्रद्धेय बन सकेंगे!... किताब का एक एक पन्ना उलटते ही रोमाञ्च खड़े हो जाते हैं और दिल में बारबार ये पंक्तियाँ गुंजन करती हैं - 'कलिकाले पण प्रभु तुज शासन वर्ते छे अविरोधजी' / अनुमोदना - बहुमान समारोह के समाचार प्रत्यक्षदर्शी लोगों के मुँह से सुनकर मन मयूर नाच उठा !.. इस कार्य से आपके हृदय में रहा हुआ गुणानुराग और प्रमोदभाव का अनुभव किया है। आपका प्रयास सुसफल है। ... इत्यादि !.. [सा. सर्वोदयाश्रीजी, सा. वाचंयमाश्रीजी, सा. रत्नचूलाश्रीजी, सा. शुभोदयाश्रीजी, सा. दिनमणिश्रीजी, सा हरखश्रीजी, सा. जयलक्ष्मीश्रीजी, सा. धैर्यप्रभाश्रीजी, सा. वीरगुणाश्रीजी, सा. महोदयश्रीजी, सा. अर्हत्किरणाश्रीजी, सा. कल्पपूर्णाश्रीजी, सा. सुनंदिताश्रीजी, सा. चन्द्रप्रभाश्रीजी, सा. चारप्रभाश्रीजी, सा. ॐकारश्रीजी, सा. मलयप्रभाश्रीजी- सा. मेस्प्रभाश्रीजी, सा. सुभद्राश्रीजी, सा. चंपकलताश्रीजी, सा. सूर्यशाश्रीजी, सा. निर्जराश्रीजी, सा. त्रिलोचनाश्रीजी, सा. सुनंदाश्रीजी, सा. निर्मलाश्रीजी, सा. कौशल्याश्रीजी, सा. जिनेन्द्रश्रीजी, सा.पद्मरेखाश्रीजी, सा. रेवतीश्रीजी, सा. जयवंताश्रीजी, सा. देवानंदाश्रीजी, सा. वीतरागमालाश्रीजी, सा. मंजुलाश्रीजी, महासती उज्जवलकुमारीजी, महासती वीरमणिबाईजी, तृप्तिबाई महासतीजी, नीलाबाई महासतीजी, कविताकुमारी महासतीजी, योगिनीकुमारी महासतीजी, तारिणीबाई महासतीजी, चैतन्यदेवी महासतीजी ... इत्यादि / ] भावक - प्राविकाओं के अनुमोदना- उदगार 'पना फिरे, मोती झरे' इस उक्ति के अनुसार 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब में वर्णित एक एक दृष्टांत के पठन से आत्मा के अध्यवसायों Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 591 में उत्तम परिवर्तन होता है और अनायास ही स्वनामधन्य पुण्यात्माओं की अनुमोदना किए बिना रहा नहीं जाता / पुण्यश्लोक धर्मात्माओं की आत्मरमणता, स्वभावदशा की अनुभूति, नवकार महामंत्र एवं धर्म के प्रति अनन्य समर्पणभाव इत्यादि का मनन करने से रोमराजि विकस्वर हो जाती है, अंतःकरण, आनंदविभोर हो जाता है और हम भी कब ऐसी उच्च अवस्था को प्राप्त करेंगे ऐसी भावना उत्पन्न हो जाती है। ऐसी अनुभूति का कारण प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में आपश्री ने किया हुआ भगीरथ पुरुषार्थ और अधिक से अधिक जीवों को जिनशासन से भावित -प्रभावित करने की 'बहुजन हिताय बहुजनसुखाय' की भावना ही है / भाषा शैलि भी सरल एवं माधुर्यसभर होने से किताब विशेष रूप से आस्वाद्य हुई है। निश्चित ही यह किताब अनेक आत्माओं को धर्माभिमुख और धर्म में विशेष रूप से स्थिर और समर्पित बनाने में एवं आत्मा को अपनी स्वभावदशा में रमणता कराने के लिए मार्गदर्शक सार्थवाह रूप है। आज जब दुनियामें ईर्ष्या का विष चारों ओर व्याप्त है तब ऐसे काल में भी दूसरे जीवों के गुणों को देखना बोलना और लिखना ये तीनों कार्य अति अति कठिन हैं / उसमें भी अन्य के गुणों की अनुमोदना मुद्रित करवाकर दुनिया के सामने प्रकाशित करने का कार्य तो अतिकठिनतम ही है / आप यह कठिनतम सत्कार्य कर रहे हैं उसकी मैं भूरिशः हार्दिक अनुमोदना करता हूँ। आराधक रत्नों के विशिष्ट बहुमान समारोह की पत्रिका मिली / सचमुच ऐसा विशिष्ट आयोजन शायद पहली बार ही हो रहा है / आपके हाथों से शासनप्रभावना का यह महान कार्य हो रहा है / इस पंचमकाल में भी चौथे आरे जैसी आराधनाओं के दृष्टांत पढकर हृदय हर्षविभोर हो गया है / . इन दृष्टांतों को पढकर जीवन में परिवर्तन हुए बिना नहीं रहता। आपने यह किताब नहीं भेजी होती तो मेरा जीवन निरर्थक ii रह जाता और संसार परिभ्रमण बढ जाता / Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 "आपने भेजी हुई किताब यहाँ (पालिताना) में मुनिवरों के हाथों में घूमती ही रहती है / मैं उनसे वापस मांग भी नहीं सकता। कृपया पुनः किताब भिजवाईए / " _ किताब को पढने का प्रारंभ करते ही पूरी किए बिना नीचे रखने का दिल ही नहीं होता है / 'हम इस किताब में से कई दृष्टांत संक्षेप में हमारे मंदिर के बोर्ड पर हररोज लिखते हैं / ' . इस किताब को पढने के बाद हमारे ग्रुप के कई भाइओंने विविध प्रकार के व्रत-नियम-प्रत्याख्यान किये हैं / "आराधकों के सद्गुणों को किताब में प्रकाशित करके एवं उनका बहुमान करवाकर आपने दुगुनी अनुमोदना की है, ऐसा सत्कार्य शायद प्रथम ही हो रहा है, उसकी भूरिशः हार्दिक अनुमोदना !... . ' यह पुस्तक आपकी गुणानुरागिता की द्योतक है तो सम्प्रदायवाद की बू फैलानेवालों के लिए चेतावनी भी, क्योंकि इसमें विशाल वटवृक्ष की सभी शाखाओं का बिना भेदभाव समावेश है / इस पुस्तक के बारे में लिखने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं / यह किताब केवल हमारे लिए : ही नहीं, हमारी भावी पीढी के लिए भी प्रेरणास्रोत बनेगी। ____ आपके द्वारा संपादित 'बहुरत्ना वसुंधरा' किताब भारत वर्ष के उस छिपे हुए महान आराधकरत्नों को उजागर करके प्रकाशित करती है जिन्हें हम न आज तक सुन पाये और न ही देख पाये / पुस्तक पढकर हम उन महान आत्माओं के प्रति नत मस्तक हुए, जिन्होंने अपने जीवन के मध्य भाग को जवानी में ही तप आराधना में जोड़कर पूर्वकर्मो की निर्जरा हेतु संघर्ष किया और कर रहे हैं। धन्य है ऐसी महान आत्माओं को जिनके चिन्तन मात्र से कर्म निर्जरा आरंभ हो जाती है और हमारे दिलमें ऐसी विशिष्ट आराधना करने की भावनाएं जाग्रत करती हैं / ___अनुमोदक : मिलापचंदजी बाफना (गांधीधाम-कच्छ), चीमनलालभाई पालीतानाकर, नंदलालभाई देवलुक (भावनगर), लालभाई ‘संतिकर' के आराधक (अहमदाबाद), पंडित श्री नानालालभाई (दादर), विसनजीभाई प्रेमजी (कच्छ-लुणी), सुभाषचंद्रभाई मोदी (राजकोट) भोगीलालभाई माणेकचंद Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 593 (कच्छ-गोधरा), झवेरचंदभाई शाह (कच्छ-कांडागरा), भाईलाल बी. मामतोरा (नडियाद), शांतिलालभाई दलीचंद (राजकोट), जयचन्द्र पी. शाह (बड़ौदा), सुरेशचंद्रभाई शिवराम (निपाणी-कर्णाटक), केसरमलजी वोरा (गोंदा-महाराष्ट्र) मदनलाल बोहरा (बाड़मेर-राजस्थान), महासुखभाई गोसालिया (अहमदाबाद), वीरचंदभाई पारेख (मद्रास) दामजीभाई वीरजी (नरेडी-कच्छ), दामजीभाई खीमजी (घाटकोपर-मुंबई), नेमिचंद जैन (दिल्ली), मणिबाई रामजी शाह (मदुराई), मयणाबहन शाह (बारामती-महाराष्ट्र) दक्षाबहन दिलीपभाई (डहाणुमहाराष्ट्र), रेखाबहन शाह (गांधीधाम-कच्छ) 300 अनुमोदना बहुमान समारोह एवं किताब के विषयमें सन्माननीय आराधकरलों के नम्रता एवं हर्षसभर दगार ___ आपके द्वारा आयोजित अनुमोदना-बहुमान समारोह का कार्यक्रम देखकर आँखें चकाचौंध हो गयीं / वर्तमानकाल के विरल विभूति समान आराधक रत्नों का दर्शन करके एवं परिचय सुनकर इतनी दूरी पर आने का सार्थक हो गया / मुझ जैसी विकलाँग को श्री शंखेश्वर दादा की प्रथम पूजा का लाभ भी बिना बोली से मिल गया। परमात्मा की कितनी असीम करुणा है / ... सन्मान का स्वीकार करते हुए शर्म आती थी क्योंकि मेरे पास सद्गुणों का कोई विशिष्ट खजाना नहीं है / सचमुच सत्कार-सन्मान तो प्रभुका होना चाहिए / बहुमान में मिली हुई सुन्दर किताबों का अध्ययन चालु है / परिवारवाले भी सभी कहते हैं कि सचमुच प्रोग्राम बहुत ही अच्छा था / (दृष्टांत नं. 182 - मयणाबहन शाह (बारामती-महाराष्ट्र)) पूर्वकर्मों के उदय से मेरा जन्म नाई कुल में हुआ है / यदि मेरा जन्म जैनकुलमें हुआ होता तो मैं भी जन्म से अजैन मगर आचरण से जैन धर्मकी भावोल्लासपूर्वक आराधना करते हुए सार्मिक भाई बहिनों बहुरत्ना वसुंधरा - 3-38 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 की भक्ति करने में सहायक बनता / मेरी आत्माने पूर्व जन्मों में जैन धर्म की आराधना की होगी इसलिए मुझे तीन जगत के उद्धारक श्री जिनेश्वर भगवंत का शासन और आप जैसे गुरु भगवंत के हृदय में स्थान मिला है इसके लिए में आपका अत्यंत ऋणी हूँ। यह पत्र लिखते हुए मेरी आँखों से अश्रुधारा बह रही है / मैंने जो कुछ भी आराधना की है, मेरी आत्मा के लिए की है / दीक्षा लिए बिना सभी आराधनाएँ बिना सक्कर के दूध जैसी हैं / मेरे जीवन में आज दिन तक जो भी आराधना हुई है उसका श्रेय परमात्मा और गुरु भगवंत को है / बहुमान द्वारा मुझे गर्व नहीं करना है क्योंकि पूर्वकालीन और वर्तमान कालीन अनेक उत्कृष्ट आराधकरलों के चरणों की धूल बनने की पात्रता भी मुझमें नहीं है। (दृष्टांत नं. 13 - नाई पुरषोत्तमभाई कालिदास पारेख - साबरमती) मेरे जैसे गरीब और सामान्य आदमी को आपने शंखेश्वरजी जैसे महान तीर्थ में बहुमान के लिए बुलाया है और श्रीदेव-गुरु और सार्मिक बंधुओं के दर्शन वंदन आदिका जो मौका दिया है उसके लिए मैं आपका बहुत ही ऋणी हूँ / (दृष्टांत नं. 54 - भाणजीभाई प्रजापति ( थानगढ-सौराष्ट्र)) आपमें और मुझ में बहुत ही फर्क है, क्योंकि आप ज्ञानस्पी साबून से अंत:करण में रहे हुऐ अज्ञान रूपी मैल को धोते हैं और मैं पैसे लेकर लोगों के कपड़ों का मैल धो रहा हूँ। कपड़े फिर से मैले होते हैं मगर शुद्ध किया गया अंतःकरण प्रायः मलीन नहीं होता / मेरे जैसे सामान्य आदमी को आपने जो अनमोल मौका दिया है उसके लिए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं / पत्र लिखते हुए * हृदय भावोद्रेक से भर गया है, इसलिए यहीं रुकता हूँ। (दृष्टांत नं. 30 - धोबी रामजीभाई (कोंठ-गुजरात)) Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 595 भा.सु. 15 के दिन शंखेश्वरजी तीर्थ में आयोजित बहुमान समारोह में उपस्थित रहने के लिए आमंत्रण भिजवाया गया है उससे मेरी आत्मा रोमाञ्चित हो गयी है / यह प्रसंग मेरे लिए अत्यंत उपकारक साबित होगा। मेरे जैसे अजैन के जीवन में भी ऐसा अनमोल मौका आयेगा और शंखेश्वरजी महातीर्थ की यात्रा एवं आपके दर्शन-वंदन होंगे उसकी कल्पना भी नहीं थी। मैं धन्य धन्य हो गया / बस, अब सम्यके धर्म की आराधना में मेरा मन अधिक से अधिक लीन बन सके ऐसे शुभाशीर्वाद की अभिलाषा रखता हूँ। (दृष्टांत नं. 25 - रतिलालभाई गांधी प्रजापति (भरूच)) _ 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ में आपने मुझे स्थान दिया है, मगर मैं तो कुछ भी नहीं हूँ, प्रभुका बालक हूँ / जिसने मुझे दिया है उसका मुझे सदुपयोग करना है / मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है वह सब परमात्मा का है / उसके आदेश के अनुसार जीवन जीना मेरा कर्तव्य है। मैं तो निमित्तमात्र हूँ / आपकी चरणरज (दृष्टांत नं. 22 - अमृतलाल राजगोर (वालवोड़-गुजरात)) 'बहुरत्ना वसुंधरा' भाग-२ में आपने मेरे जीवदया के कार्य की अनुमोदना की है मगर मैं उसके पात्र नहीं हूँ। आपश्री ने चौदह . राजलोक के सभी जीवों को अभयदान दिया है। आपके पास मैं बिन्दुमात्र हूँ / सत्कार के द्वारा में अहंकारी न बचें किन्तु जीवदयाअभयदान - जिनशासन एवं महात्माओं की सेवा का मेरा जीवनकार्य अखंड रूपसे चालु रहे ऐसे शुभाशीर्वाद की अभिलाषा रखता हूँ। (दृष्टांत नं. 133 - अशोकभाई शाह - पूना (महाराष्ट्र)) जिन श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की करोड़ बार खमासमण देकर वंदना एवं जप मैंने किए उन्हीं भगवान के महान तीर्थ में वृद्धावस्था में आनेका मुझे मौका मिल रहा है, इसलिए मैं अपने Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 आपको बहुत भाग्यशाली मानता हूँ / परमात्मा के एवं चतुर्विध श्री संघ के दर्शन-वंदन वाणीश्रवण का अनमोल अवसर मिलेगा, इसलिए मैं जरूर आनेकी कोशिश करूँगा / (दृष्टांत नं. 104 - भोगीलालभाई शाह (गोधरा-कच्छ)) - आपने मेरे जैसे सामान्य आदमी का दृष्टांत किताब में प्रकाशित करके मेरे जीवन में कुछ भी अघटित करने से अटकने की एवं उत्तम गुणों को विकसित करने की जो प्रेरणा दी है उसके लिए मैं आपका अत्यंत ऋणी हूँ। क(दृष्टांत नं. 50 - नाई सुरेशभाई पारेख (नार-गुजरात)) मेरे जैसे तुच्छ अजैन आदमी को आपने 'बहुरत्ना वसुंधरा' में स्थान दिया है उसके लिए मैं आपका बहुत बहुत ऋणी हूँ / इस को मैं कैसे उतार सकुं, इसके लिए कृपया मार्गदर्शन दें / मैं जरूर उतारने की कोशिष करूँगा / (दृष्टांत नं. 55 - बिपीनभाई पटेल (बारडोली-गुजरात)) 301|| बहुरत्ना वसुंधरा भाग-३ के दृष्टांत-पात्रों के नाम प्रस्तुत किताब के भाग-३ के दृष्टांत पात्रों का निर्देश दृष्टांतोंमें सांकेतिक रूप से दिया गया है, मगर अनेक पाठकों की विज्ञप्ति को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर उन दृष्टांत पात्रों के एवं उनके गुरु या गच्छाधिपति के नाम व्युत्क्रमसे प्रस्तुत किए जा रहे हैं / दृष्टांत नं. 224 से 259 तक के दृष्टांत पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री चन्द्रशेखरविजयजी म.सा. द्वारा लिखित 'मुनि जीवननी बालपोथी' किताब में से साभार उदृत किये गये हैं, अत: उन दृष्टांतपात्रों के नाम उपरोक्त पूज्यश्री द्वारा ही जिज्ञासु पाठक Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 597 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 जान सकेंगे। बाकी के दृष्टांतों में से तीन दृष्टांत को छोड़कर बाकी के दृष्टांतपात्रों के नाम यहाँ व्युत्क्रम से दिये गये हैं / पाठकों से अनुरोध है कि वे अपनी प्रज्ञा द्वारा जिज्ञासित दृष्टांतपात्रों के नाम स्वयं ज्ञात कर लेवें। पू. आ.श्री गुणसागरसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री भुवनभानुसूरिजी म.सा... / पू. आ. श्री सुबोधसागरसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री नवरत्नसागरसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री कलापूर्णसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री यशोवर्मसूरिजी म.सा... / पू. आ. श्री गुणोदयसागरसूरिजी म.सा - पू. आ. श्री गुणसागरसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री रुचकचन्द्रसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री भक्तिसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री रामचन्द्रसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री महोदयसूरिजी म.सा... / पू. आ. श्री हिमांशुसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री जितमृगांकसूरिजी म.सा. - पू. आ.श्री नररत्न सूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री प्रेमसूरिजी म.सा. / पू. आ. श्री कुमुदचंद्रसूरिजी म.सा. - - पू. आ. श्री कस्तूरसूरिजी म.सा.... / पू. - आ. श्री राजतिलकसरिजी म.सा. - पू. आ. श्री प्रेमसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री अरिहंतसिद्धसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री मंगलप्रभसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री विद्यासागरजी म.सा. - पू. आ. श्री सिद्धिसूरिजी म.सा..... / पू. आ. श्री यशोदेवसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री त्रिलोचनसूरिजी म.सा.... / पू. आ. श्री जिनप्रभसूरिजी म.सा.... / पू. पं. श्री नित्यानंदविजयजी म.सा..... / पू. उपाध्याय श्री वसंतविजयजी म.सा. - पू. आ. श्री विजयवल्लभसूरिजी म.सा... / पू. पं. श्री चंद्रशेखरविजयजी म.सा. - पू. आ. श्री रत्नसुंदरसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री हेमरत्नसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री प्रेमसूरिजी म.सा. - पू. श्री लालचंद्रजी महाराज / पू. प्रवर्तक श्री धर्मगुप्तविजयजी म.सा. - पू. आ. श्री भद्रगुप्तसूरिजी म.सा. / मुनिश्री धर्मरत्नसागरजी - गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. - पू. आ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. / मुनि श्री प्रसन्नचंद्रसागरजी - मुनि श्री लब्धिचंद्रसागरजी / मुनि श्री उदयरत्नसागरजी - विधिपक्षगच्छ - अचलगच्छ - अंचलगच्छ / पू. रतिलालजी महाराज / मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. / श्री सहजमुनिजी / पू. मुनी श्री सोमतिलक विजयजी म. - पू. आ. श्री भुवनभानुसूरिजी म.सा. - पू. आ. श्री धर्मजितसूरिजी Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 598 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 म.सा. / पू. मुनि श्री चरणप्रभविजयजी म. / छाणी / मुनिश्री विश्वदर्शनविजयजी - पू. आ. श्री रामचन्द्रसूरिजी म. सा. / मुनि श्री नरेन्द्रविमलविजयजी - पू. आ. श्री शांतिविमलसूरिजी म.सा. / मुनि श्री कल्याणबोधिविजयजी - पू. आ. श्री हेमचंद्रसूरिजी म.सा. / मुनिश्री मोक्षरत्नविजयजी - पू. आ. श्री गुणरत्नसूरिजी म.सा. / मुनि श्री सुधर्मसागरजी / मुनि श्री नयप्रभसागरजी - मुनि श्री नंदीवर्धनसागरजी - पू. आ. श्री कलाप्रभसागरसूरिजी म.सा. सा. श्री. सद्गुणाश्रीजी / सा. श्री जयाश्रीजी / सा. श्री प्रविणाश्रीजी / सा. श्री सौभाग्यश्रीजी / सा. श्री सुव्रताश्रीजी / सा.श्री पुण्यरेखाश्रीजी / सा. श्री गुणोदयाश्रीजी / सा. श्री शीलवर्षाश्रीजी / सा.श्री वसंतप्रभाश्रीजी / सा. श्री चारुदर्शनाश्रीजी / सा. श्री अनंतगुणाश्रीजी / सा. श्री हर्षलताश्रीजी / सा. श्री हेमलताश्रीजी / सा. श्री गीतपद्माश्रीजी / सा. श्री चिद्वर्षाश्रीजी / सा. श्री रत्नचूलाश्रीजी / सा. श्री वीर्यधर्माश्रीजी / सा. श्री दीपयशाश्रीजी / सा.श्री नेमश्रीजी - पू.आ. श्री हेमप्रभसूरिजी म.सा. / सा. श्री विनयप्रभाश्रीजी - पू. आ. श्री केसरसूरिजी म.सा. / सा. श्री चंद्रयशाश्रीजी / पू. आ. श्री. सागरानंदसूरिजी म.सा. - सा. श्री रम्यगुणाश्रीजी / सा.श्रीअनंतकिरणाश्रीजी - सा.श्री नूतनप्रभाश्रीजी - पू. आ. श्री. देवेन्द्रमुनिजी / सा. श्री मृगेन्द्रश्रीजी - पू. आ. श्री सागरानंदसूरिजी म.सा. / सा. श्री पन्नाश्रीजी / सा. श्री ललितप्रभाश्रीजी - सा. श्री भक्तिश्रीजी - पू. आ. श्री अरिहंतसिद्धसूरिजी म.सा. / सा. श्री मनोरमाश्रीजी / सा. श्री हंसकीर्तिश्रीजी / सा.श्री पुष्पचूलाश्रीजी / सा. श्री हेमकुंवरजी / सा. श्री हेमचंद्राश्रीजी - सा. श्रीशुभाननाश्रीजी / सा. श्री मोहनमालाश्रीजी / सा. श्री शमवर्षाश्रीजी / सा. श्री श्रुतवर्षाश्रीजी / सा. श्री अरुणोदयश्रीजी Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 अचूक पढ़ने योग्य (थर्मघोष - हिन्दी मासिक घर घर में और घट घट में धर्म रूपी सुघोषा घंटका घोष गजाने वाला हिन्दी मासिक यानि.... "ध...र्म...घो...ष" आधुनिक बाल-किशोर एवं युवा पीढी को धर्म सन्मुख एवं धर्म में सुस्थिर-सुदृढ करने के लिए प्रयत्नशील है "ध...म...घो...ष" आकर्षक प्रिन्टींग, मननीय लेख, प्रेरक दृष्टांत, इत्यादि से युक्त प्रतिमाह करीब 44 पेज की सामग्री से भरपूर (फिर भी आजीवन सदस्यता शुल्क केवल 351 रूपये) साहित्य याने "ध...म...घो...ष" दिव्य कृपा : शासन सम्राट, अचलगच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा. शुभाशिष : तपस्वीरत्न, अचलगच्छाधिपति प.पू.आ.भ. श्री गुणोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. संस्थापक : राजस्थान दीपक, साहित्य दिवाकर प.पू.आ.भ. श्री कलाप्रभसागरसूरिजी म.सा. मार्गदर्शक : संयमप्रेमी, विद्वद्वर्य पू. मुनिराज श्री कमलप्रभसागरजी म.सा. संपादक : राजेश संगोई सहसंपादक : मदनलाल बोहरा, गुमानमल जैन प्रकाशक : 'श्री धर्मघोष प्रचार एन्ड चेरीटीज', जेठालाल डी. छेडा, 8 अ, हरगुलाल, कादरपाड़ा, बी. पी. रोड़, दहीसर (प.) मुंबई - 400068 दूरभाष : 8936357 379 बसस्टोप के पीछे, रेल्वे स्टेशन के पास, घाटकोपर (पूर्व) मुंबई-७७, दूरभाष : 5149863 विशेष खबर : 'बहुरत्ना वसुंधरा' (प्रस्तुत किताब) के अनेक दृष्टांत 'धर्मघोष' में प्रकाशित हुए हैं और आगे भी प्रकाशित होते रहेंगे। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 पू. गणिवर्य श्री महोदयसागरजी म.सा. द्वारा लिखित - संपादित साहित्य की सूचि 1 दादा श्रीकल्याणसागरसूरि जीवन चरित्र (हिन्दी) 2 आराधना दीपिका 3 देश विरति दीपिका 4 श्रावक जन तो तेने रे कहिए 5 श्रावकना 12 व्रत (चार्ट) 6 श्रावकना 21 गुण (चार्ट) 7 14 नियम धारो (चार्ट) 8. मनवा ! घर तूं नवपद ध्यान 9 चाह एक, राह अनेक 10 श्री शत्रुजय गुण स्तवमाला * 11 दर्शन-वंदन-सामायिक सूत्र (अंग्रेजी-हिन्दी-गुजराती) 10 ____ 12 भक्ति सुधा * 13 जेना हैये श्री नवकार, तेने करशे शुं संसार ? (पांचवा संस्करण) . 60 * 14 श्री वर्धमान शक्रस्तव (सार्थ) (द्वितीयावृत्ति) सदुपयोग * 15 Miracles of Mahamantra Navkar * 16 गिरनार मंडन श्री नेमिनाथ गुण गुंजन - * 17 प्रभु साथे प्रीत 18 आराधना वधारो, जीवन सुधारो 19 बहुरत्ना वसुंधरा भाग-१ 20 बहुरत्ना वसुंधरा भाग-२ ...21 बहुरत्ना वसुंधरा भाग-३-४ * 22 बहुरत्ना वसुंधरा (भाग-१ से 4 संयुक्त-गुजराती) 100 * 23 बहुरत्ना वसुंधरा (भाग-१ से 3 संयुक्त-हिन्दी) * 24 जिसके दिलमें श्री नवकार उसे करेगा क्या संसार ? (प्रेस में) 50 * 25 चातुर्मासिक आराधना प्रदीपिका (हिन्दी) ___* यही किताबें हालमें उपलब्ध हैं। 50 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मगृह के चार द्वार एक सभागृह के चार द्वार हैं / प्रथम दो द्वार क्रमश: सज्जनों और दुर्जनों को आने के लिये हैं / तीसरा और चोथा द्वार क्रमशः उन दोनों को बाहर निकलने के लिए है / अब इन चार द्वारमें से प्रथम (सज्जनों को आनेका) और चौथा (दुर्जनों को जानेका) द्वार सदा बंद रहते हों और बाकी के दो द्वार खुले रहते हों तो........ परिस्थिति क्या होगी ? हमारे आत्मगृह में भी चार द्वार हैं / दो द्वार सद्गुणों को आने जाने के लिए और दो दुर्गुणों की यातायात के लिए / अन्य जीवों के सद्गुण एवं सुकृतों की प्रशंसा - अनुमोदना, सज्जन जैसे सद्गुणों का प्रवेशद्वार (Entrance) है / अन्य जीवों के दोष एवं दुष्कार्यों की निंदा (परनिंदा) दुर्जन जैसे दुर्गुणोंका प्रवेश द्वार है। स्वगुण एवं स्वसुकृतों की प्रशंसा यह सद्गुणों का निर्गमन द्वार (Exit) है / स्वदोष और स्वदुष्कार्यों की निंदा - गर्हा - आलोचना यह दोषों का निर्गमन द्वार है / प्रथम और चौथा द्वार बंद रखना और दूसरा एवं तीसरा द्वार खुल्ला रखना यह हमारी अनादि की चाल है..... और इस आत्मगृह की हालात कैसी दयाजनक हो गयी है !!! क्या यह हमसे अज्ञात है ? 8800 34550 SHOVASNACCORCOMMAR ॐ 205 HORMACAREAKS ॐ