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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग जीवनमें बहुत पाप किये हैं और धर्म कुछ नहीं किया । आप मुझे कुछ रास्ता बताईए ।' तब गुरु भगवंतने वात्सल्यभाव पूर्वक वासक्षेप दिया और शेष जीवन को सार्थक बनाने के लिए संयम ग्रहण करने की प्रेरणा दी । मगर बापुलालभाईने मुनि जीवन जीने का अपना असामर्थ्य व्यक्त किया तब म.सा. ने उनको अपना व्यवसाय न करते हुए जीवदया के कार्यों में अपना शेष जीवन बीताने के लिए उपरोक्त प्रतिज्ञा लेने की प्रेरणा दी और साथ में एकाशन से कम तप नहीं करने की भी प्रेरणा दी । बापुलालभाई ने गुरु महाराज की उपरोक्त प्रेरणा को शिरोमान्य की एवं प्रेरणा अनुसार २० साल के लिए प्रतिज्ञा भी ग्रहण कर ली ।
उसी प्रतिज्ञा के मुताबिक सं. २०३२ से लेकर आज तक प्रतिमाह करीब १०० पशुओं को वे कसाइयों, मुसलमान आदि से छुड़ाकर पांजरापोलमें भेजकर अभयदान देते हैं । फलतः जो कार्य लाखों रूपयों की दवाई से नहीं हो सका वह कार्य प्राणीओं को अभयदान दिलाकर संप्राप्त दुहाई के द्वारा हो गया; अर्थात् उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया और चिकित्सकों को भी आश्चर्य हुआ ।
एक बार उनको समाचार मिला कि चिमनगढ के पड़ौसी गाँव कोदर में एक भोपा सधी माताजी को बलि चढाने के लिए दो बकरों को मारने के लिए ले गया है, तो वे फौरन वहाँ पहुँच गये और भोपे (माताजी का पुजारी) के बच्चों के हाथमें १० -१० रूपये एवं उसकी पत्नी को पहनने के लिए एक साड़ी देकर उसको 'धर्म की बहिन' बनायी और बकरों को न मारने के लिए भोपे की पत्नी को एवं भोपे को भी बहुत समझाया । भोपे की पत्नी को कहा कि, 'तुम्हारी बेटी की शादी के समय मैं मामा के रूपमें ५०० रूपये दहेज दूँगा, मगर मेहरबानी करके तुम्हारे पति को समझाकर बकरों की बलि चढाना बंद करा दो ।' बादमें उन्हों ने शंखेश्वर पार्श्वनाथ को प्रार्थना करके अठ्ठम तप का संकल्प किया । पत्नीने भोपे को समझाया और माताजी एवं बकरों के द्वारा अनुकूल संकेत मिलने पर भोपा भी बकरों को नहीं मारने के लिए संमत हो गया । बकरों की बजाय नैबेद्य की थाली माताजी को चढायी । बापुलालभाईने