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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
१४७ (उस वक्त मुनिवर), श्री जयसोमविजयजी म.सा. का झरियामें चातुर्मास हुआ, तब उन्होंने उस बीज को अंकुरित करने के लिए जिनवाणी रूपी पानी का सिंचन किया। इतना ही नहीं, चातुर्मास के बाद लगातार बीस साल तक प्रेरणा पत्रों के माध्यम से भी जल सिंचन करते रहे !!!...
उपरोक्त प्रथम सत्संग के बाद माता-पिता के आग्रहवशात् जतीन को सांसारिक अभ्यासमें अपने मनको जोड़ना पड़ा, लेकिन जब जब वे महापुरुष उनको याद आते तब उनका प्रश्न - 'तेरे प्रश्न का मैं जवाब दूं तो तुम भी दीक्षा लोगे न ?' याद आने लगा । उस प्रश्न का जवाब भले उस वक्त वह दे न सका था, मगर जवाब देना ही चाहिए ऐसा कर्तव्य भान उसे अब धीरे धीरे होने लगा । और आखिर एक दिन उस प्रश्न का जवाब वह तैयार कर पाया तब उसका आकार कुछ ऐसा था कि - 'हाँ, मैं भी दीक्षा लुगा !' फिर भी न तो वह उस जवाब को अपनी जिह्वा द्वारा अभिव्यक्त कर पाया और न उस आकार को साकार कर सका। क्योंकि उतनी तैयारी जब तक हो सकी तब युवावस्था का प्रारंभ हो गया था । मूंछ के साथ साथ मोह के धागे भी फूट निकले थे।
.Com. तक का व्यावहारिक ज्ञान पाने के लिए कोलेजमें वह जाने लगा और साथ साथ व्यावसायिक ज्ञान प्राप्ति के लिए दुकान भी जाने लगा। इस तरह व्यावहारिक और व्यावसायिक ज्ञानरूपी दो पंख आने से वह लालसा के वायु से तृष्णा के गगन में उड्डयन कर रहा था । मगर सद्भाग्य से उसके जीवन रूपी पतंग का धागा उसके वर्तमान गुरुदेव प.पू. पंन्यास प्रवर श्री जयसोमविजयजी म.सा.ने प्रेरणापत्रों के माध्यम से सम्हाल लिया था । इसी के कारण ही जब उसका तन अधिक-अधिकतर अर्थोपार्जन के लिए व्यावसायिक प्रवृत्तियों के प्रति दौड़ रहा था तब भी उसके मनमें संयम जीवन के प्रति आकर्षण हमेशा बना रहता था ।
भाई-बहनों में सबसे जयेष्ठ होने के कारण जतीन के ऊपर जिम्मेदारी का भार जल्दी आ गया था, फिर भी किशोर वयमें बोये हुए धर्म के बीजमें से अब श्रेष्ठ मनोरथ के फूल भी खिलने लगे थे । इसीलिए तो जीवन की किसी धन्य क्षणमें जतीनकुमारने पूज्यपाद