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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ आचार्य भगवंत विजय विक्रमसूरीश्वरजी म.सा. की पावन प्रेरणा के अनुसार २२ वर्ष की युवावस्थामें पाँच वर्ष के लिए ब्रह्मचर्यका व्रत अंगीकार कर लिया था !...
पानी से पहले पाली' की तरह इसी प्रतिज्ञाने जतीनकुमार को मुनिजीवन की संप्राप्ति के लिए विशिष्ट बल प्रदान किया है । इस बात का विचार करने से पच्चक्खाण आवश्यक के उपदेशक श्रीअरिहंत परमात्मा और उनके शासन के प्रति मस्तक अहोभाव से अवनत हुए बिना रह नहीं सकता है।
आबाल ब्रह्मचारी जतीनभाई के मातृश्री कंचनबहन को किडनी की बीमारी के कारण संपूर्ण शरीरमें सूजन आ गयी थी । गृहकार्यमें तकलीफ पड़ती थी । इसीलिए वे जतीनकुमार की शीघ्र शादी करवाकर पुत्रवधूको गृहभार सौंपना चाहते थे । दूसरी ओर सत्संगकी फलश्रुति के रूपमें जतीनभाई का अंत:करण किसी भी हालत में संसार के बंधनों में फंसने के लिए तैयार नहीं था । वह तो संयम के सुन्दर स्वप्नोंमें उड्डयन कर रहा था । इसी कारण से सगाई के लिए अनेक कन्याओं के माँ-बापों की याचनाको उसने इनकार कर दिया था । वह तो सिद्धिवधू के साथ शाश्वत संबंध करानेवाले सर्व विरति धर्मका स्वीकार करने के लिए उत्कंठित रहा करता था ।
- फिर भी जब तक संयम का स्वीकार न हो सके तब तक पिताजी के आग्रह से और व्यावहारिक दायित्व की दृष्टि से भी "ओडिटिंग और स्टेटेस्टिक" के साथे B.Com. तक के अभ्यास के बाद सफारी स्यूटकेस कंपनी के अजन्ट के रूपमें जतीनभाईको शामिल होना पड़ा और आगे जाकर उसी कंपनीमें Internal Audit Section के Manager Audit के महत्त्व के पदके ऊपर वे आरूढ हुए । व्यावसायिक दायित्वको निभाने के लिए अब उन्हें पूरे भारतमें हवाई जहाज से जाना पड़ता था । २५० जितने कर्मचारियों को सम्हालने की जिम्मेदारी उन पर थी । उस वक्त वे रहने के लिए बेंग्लोरमें आ गये थे।
अर्थोपार्जन के लिए बार बार हवाई जहाजमें उड्डयन करने से