________________
बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
१४९ वैराग्य की ज्योत बुझने नहीं पाये किन्तु देदीप्यमान बनी रहे उसके लिए व्यवसाय के निमित्त से होनेवाली हवाई जहाज की यात्रा के दौरान भी विविध जैन तीर्थों की यात्रासे आत्मा को पावन बनाने की सन्मति भी सत्संग के प्रभाव से उनको मिलती रही । इसीलिए जीवन में कुल २०२ बार की हुई हवाई जहाज से यात्रा के दौरान भारतभर के २५० से भी अधिक तीर्थों की अनेक बार यात्रा करने का और २० तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि श्रीसमेतशिखरजी महातीर्थकी ३६ बार यात्रा करने का दुर्लभ लाभ भी उन्होंने लिया ।
इसके अलावा झरिया-मद्रास और बेंग्लोर की धार्मिक पाठशालाओंमें तथा पूज्य साधु भगवंतों से जो पंच प्रतिक्रमण, चार कर्मग्रंथ (सार्थ), वैराग्यशतक, ज्ञानसार, शांत सुधारस, उपमिति-भव-प्रपंचा कथा इत्यादिका अभ्यास किया था वह विस्मृत न हो जाय इसलिए बेंग्लोरकी धार्मिक पाठशालामें सम्यक् ज्ञानदानकी प्रवृत्ति चालु रखी थी और ज्ञानभंडारकी स्थापना भी उन्होंने की थी ।
उस ज्ञानभंडार की व्यवस्थामें सहायक के रूपमें किसी योग्य लड़केकी नियुक्ति के लिए जतीनभाई ने संघ के कार्यकर्ताओं के पास विज्ञप्ति की ! लेकिन संयोगवशात् ऐसे सुयोग्य लड़केकी नियुक्ति शक्य नहीं होने से आखिरमें कार्यकर्ताओंने भारतीबहन लक्ष्मीचंद्र संघवी (उ. व. १६) (Inter Arts) नाम की कन्या की नियुक्ति कर दी, जो जतीनभाई को निरुपायता से मान्य रखनी पड़ी। भारतीबहन मूलतः गुजरातमें भावनगर जिले के वड़ीया गाँव (शिहोर के पास) के निवासी थे, मगर उस वक्त बेंग्लोर की पाठशाला में पढते थे ।
ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा का अणिशुद्धता से पालन करने के लिए जतीनभाई सजग थे, इसलिए ज्ञानभंडार की व्यवस्था के लिए भी दोनों का समय अलग अलग ही रखा था, फिर भी क्वचित् किताबों के सूचीपत्र आदि निमित्त से परस्पर बातचीत करने का प्रसंग उपस्थित होता था ।
धीरे धीरे यह बात जतीनभाई के मातृश्री के कानों तक किसी के द्वारा पहुँच गयी । उन्होंने आनंदित होकर भारतीबहन के माँ-बाप के समक्ष