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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २
३९७ ज्ञानरूचि के साथ क्रियारूचि भी अत्यंत अनुमोदनीय थी । जयणा के लिए प्रमार्जना में अत्यंत जागरूक थीं । घोर तरश्चर्या में भी उभय काल खड़े खड़े प्रतिक्रमण करती थीं ।
तप की रूचि तो ऐसी अपूर्व थी कि ३५ साल की उम्र से एकाशन शुरू किये । प्रतिकूल परिस्थिति में भी एकाशन से कम पच्चक्खाण करने के लिए अंत:करण कबूल नहीं होता था । इस में भी वर्धमान तप की नींव डालकर आयंबिल की ओलियाँ करने का प्रारंभ किया । प्रायः प्रत्येक ओली का प्रारंभ अट्ठम तप से करती थीं । ७ से अधिक द्रव्य नहीं खाने का संकल्प था । इसी के बीच चौविहार उपवास से वर्षीतप और चौविहार उपवास से बीस स्थानक तप भी चढते परिणाम से पूर्ण किया !
बीस स्थानक तपमें चौथभक्त की ओली के उपर मासक्षमण किया और वर्धमान तप की ६० वीं ओली के उपर सोलहभक्त (१६उपवास) किया था ! .... करीब ५५ बार अट्ठाई तप किया था ।
आयंबिल तप के प्रति इतनी अभिरूचि थी कि ५०० आयंबिल संलग्न किये । दूसरी बार ११०० संलग्न आयंबिल करने की भावना से २५६ आयंबिल संलग्न किये। बादमें दोनों आँखो की रोशनी अचानक चली गयी तो भी एकांतरित ५०० आयंबिल पूर्ण किये । १० महिनों तक आँखो की रोशनी चली गयी तो भी एकाशन से कम तप नहीं ही किया।
एक बार सकचूर नाम के अत्यंत विषैले जंतु ने उनको डंक मारा था । उसका विष इतना भयंकर होता है कि १०० में से एक केस शायद ही बचता है, मगर आयंबिल तप के प्रभाव से खेतीबाई को कुछ भी नहीं हुआ !
तप के साथ सेवा का समन्वय शायद ही देखने मिलता है। लेकिन खेतीबाई ने अपनी सास की सेवा अपनी माँ की तरह करके उनके आशीर्वाद संप्राप्त किये थे ।
खेतीबाई के पति भचुभाई स्कूलमें हेड मास्तर थे । उनको भी प्रेम से समझाकर धर्म में ऐसे जोड़ दिये थे कि ३६ साल की उम्र में उन्होंने भी सजोड़े ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया था ।