________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 553 धन्य है मुमुक्षु के समर्पणभाव और धैर्य को ! धन्य है साध्वीजी भगवंत की निरीहता को !!!..... धन्य है बड़े साध्वीजी के सुयोग्य निर्णय को !!! विषम ऐसे वर्तमान काल में ऐसे दृष्टांत कितने मिलेंगे ?!... उपरोक्त साध्वीजी भगवंत केवल स्वसाधना में ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसा ही नहीं है, उनके पास स्व-पर किसी भी समुदाय के साध्वीजी जाते हैं वे उनके अद्भुत वात्सल्य में भीगकर धन्यता का अनुभव करते हैं / सभी वाचक इस दृष्टांत को सम्यक् रूपसें सोचकर यथायोग्य प्रेरणा लें यही शुभाभिलाषा / / यह दृष्टांत छपा है, यह खयाल भी इन नि:स्पृही महात्मा को आयेगा तो उनको अच्छा नहीं लगेगा यह स्वाभाविक है। फिर भी वर्तमानकाल में यह दृष्टांत विशेष प्रेरणादायक होने से यहाँ पेश करने की धृष्टता करनी पड़ी है / ॐ शांतिः / 287/ 100 आली का पारणा... सादगी पर्वक . सहज भाव से। :888888888 3880888 दृष्टांत नं 284 में वर्णित आत्मज्ञ साध्वीजी भगवंत की एक शिष्या साध्वीजी भगवंत की सं. 2051 के चातुर्मास के दौरान वर्धमान तप की १००वीं औली परिपूर्ण हुई। यदि वर्धमान तप की 100 ओली लगातार की जायें तो भी उसमें 14 वर्ष, 3 माह और 20 दिन लगते हैं / कुल 5050 आयंबिल और 100 उपवास होते हैं। उन्होंने ऐसी दीर्घ तपश्चर्या करने के बावजूद उसका पारणा एकदम साधारण रूप से... सहज भाव से किया / इस निमित्त से न कोई महोत्सव ... न कोई ढोल-शहनाई का नाद ... न कोई पूजन वगैरह !!! श्री उत्तराध्ययन सूत्र वगैरह में साधु को अज्ञात तपस्वी कहा है। अर्थात् साधु के तप का गृहस्थों को पता न चले उस प्रकार से तप करने को कहा है।