________________ 552 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 कि, - "मेरे से बड़े साध्वीजी भगवंत विराजमान हैं / तुम उनमें से किसी के पास दीक्षा ले सकते हो / किन्तु मेरा यह विषय नहीं है !!!"... फिर भी उन तीनों ने दृढता से अपना निर्णय बताते हुए कहा कि"हम दीक्षा लेंगी तो आपके पास ही, नहीं तो ऐसे ही श्राविका के रूप में आराधना करती रहेंगी ! विवाह भी हमें नहीं करना है !" वर्षों बीतने लगे / फिर भी न तो साध्वीजी भगवंत के अंतर में अपनी शिष्या बना लेने की लेश मात्र भी स्पृहा जगी / ना ही मुमुक्षु अपने निर्णय में से विचलित हुए / ऐसे करते करते लगभग बीस वर्ष बीत गये। उस दौरान एक मुमुक्षु का दीक्षा की भावना भाते भाते ही मामुली बीमारी में स्वर्गवास हो गया ... आखिर दूसरे एक मुमुक्षु ने निरुपायता से इसी समुदाय में दूसरे साध्वीजी भगवंत के पास दीक्षा लेने का निर्णय किया। परन्तु तीसरे मुमुक्षु तो अभी भी अपने निर्णय में सुदृढ थे !!! वह अपने घर में रहकर आराधना करते और धार्मिक पाठशाला चलाते थे !... आखिर 'धैर्य का फल मीठा होता है' इस कहावत के अनुसार उनको धैर्य की तपश्चर्या सफल हुई / उनकी दृढता देखकर उपरोक्त साध्वीजी भगवंत के बड़े गुरुबहिनने निर्णय किया कि - "मैं अपनी जिम्मेदारी से तुम्हें तुम्हारे इच्छित साध्वीजी के नाम से दीक्षा दिलाऊँगी !!! आखिर सं. 2051 में यह दीक्षा निश्चित हुई / बड़े साध्वीजीने अपने उपरोक्त गुरु बहिन के पास मुमुक्षु को अपनी शिष्या के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा / तब भी इस महात्मा ने यह बात सविनय टालने की कोशीश की, किन्तु आखिर बड़ों के दृढ निर्णय के ऊपर मौन रहना पड़ा और ... 30 वर्ष के दीक्षा पर्याय के बाद उनकी प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य मिलने से नवदीक्षित धन्य बन गये !!! यद्यपि आखिरमें इन विनयी मुमुक्षु आत्मा ने बड़े साध्वीजी को बता दिया था कि यदि इन महात्मा को इतना दुःख होता हो तो मैं अपना आग्रह वापस लेती हूँ। मुझे आपको योग्य लगे उसकी शिष्या बना सकते हो !!... परन्तु बड़े साध्वीजी ने मुमुक्षु आत्मा की विशिष्ट पात्रता और अनन्य समर्पणभाव देखकर आखिर उपर्युक्त साध्वीजी की ही शिष्या बनवायी !!!