________________
लाभ के साथ अन्य अपेक्षा से कुछ हानि की भी थोड़ी-सी संभावना हो सकती है । इसी दृष्टी से एक ऐसा भी हितसूचन मिला था कि, "नाम और पता दिये बिना केवल आराधकरत्नों के दृष्टांतों का ही प्रकाशन किया जाय, (नाम और पता कोई पूछे तो ही बताया जाय) क्यों कि वर्तमान कालकी यह विषमता है कि प्रायः अधिकांश आराधकों में ऐसा पाया जाता है कि उनके जीवनमें कुछ बातें अनुमोदनीय और अनुकरणीय होती है, मगर छद्मस्थदशा के कारण उनके जीवनमें कुछ क्षतियाँ भी होती हैं। ऐसे आराधकों के नाम और पता प्रकाशित होने से भद्रिक व्यक्तियों के द्वारा उनके गुण और दोष दोनों अनुमोदनीय या अनुकरणीय बन जाते हैं... इत्यादि ।
यह सूचन सापेक्ष दृष्टिसे ठीक होते हुए भी पूर्व निर्दिष्ट हेतुओं से यहाँ आराधक रत्नों के नाम और पता प्रकाशित करने का साहस किया गया है । वाचक वृंद उपर्युक्त हितसूचन को दृष्टि समक्ष रखकर हंसकी तरह क्षीर-नीर न्यायसे आराधकों के जीवन में से सद्गुण रूपी दूध को ग्रहण करेंगे और छद्मस्थदशा सुलभ क्षतियों के प्रति माध्यस्थ्यभाव धारण करेंगे ऐसी अपेक्षा है । जब तक छद्मस्थ दशा है तब तक हरेक जीवोंमें गुण-दोष दोनों अल्पाधिक मात्रामें होंगे ही। इसलिए इस किताबमें प्रस्तुत दृष्टांतपात्र आराधक-रत्नोंमें भी कुछ कमियाँ हों तो इस में जरा भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए; क्यों कि अनादिकाल से मिथ्यात्वसे मूढ, स्वस्वरूपसे अज्ञात और कर्मों से आच्छादित ऐसे इस जीवमें अनंत दोष हों तो भी इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, मगर ऐसे भी जीवमें एकाध छोटा सा भी सद्गुण अगर दृष्टिगोचर होता है तो उसे महा आश्चर्य रूप मानकर उसकी हार्दिक अनुमोदना और अवसरोचित वाणी से उपबृंहणा करनी चाहिए ऐसा महापुरुषों का उपदेश है । हाँ, आध्यात्मिक हेतु के सिवाय किसी भी प्रकार के सांसारिक प्रयोजन से किसी भी विशिष्ट साधकको पत्र या फोन द्वारा परेशान नहीं करना चाहिए ऐसी खास सूचना है।
-39