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... यहाँ पर प्रस्तुत दृष्टांतपात्र स्वरूप आराधक आत्माओं को भी सादर विनम्र विज्ञप्ति है कि, इस किताबमें वर्णित आपका दृष्टांत आप स्वयं पढ़ें तब अथवा इसे पढकर कोई भावुक आत्मा आपकी उपबंहणा प्रशंसा करे तब मानकषाय की पुष्टिका निवारण करने के लिए जागृति पूर्वक आत्म निरीक्षण द्वारा अपने जीवन में जो भी क्षतियाँ मालूम पड़ें उनकी विनम्रभावसे मानसिक या वाचिक कबूलात करके गंभीरता पूर्वक उन क्षतियों को शीघ्र सुधारने के लिए पुरुषार्थ करें, ताकि आपका आलंबन किसीको भी मोक्ष मार्ग से विमुख बनाने में निमित्त न बन पाये ।।
इन दृष्टांतों का संकलन करते हुए निम्नोक्त श्लोककी यथार्थता मुझे अधिक-अधिकतर स्पष्ट होने लगी ।
"पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिका । भाग्यहीना न पश्यंति, बहुरत्ना वसुंधरा ॥"
(भावार्थ : इस पृथ्वी में कदम कदम पर निधान रहे हुए हैं और प्रत्येक योजनमें सुवर्ण सिद्धि रसकी कूपिकाएँ रही हुई हैं, फिरभी भाग्य हीन जीव उन्हें देख नहीं पाते हैं, लेकिन यह पृथ्वी (वसुंधरा) तो सचमुच अनेकानेक रत्नोंसे भरपूर है ही ...) ।
इस श्लोकमें सूचित भौतिक निधान या रस कूपिकाएँ शायद कलियुग के प्रभावसे भले ही दृष्टिगोचर न होते हों, लेकिन कदम कदम पर अनेक संघों में विशिष्ट आराधक चैतन्य रत्नों के दर्शन तो आज भी अवश्य हो सकते हैं। मगर उसके लिए मुख्य रूपसे श्री देव गुरुकी असीम कृपासे विकसित हुई और सत्संग एवं सद्वांचन से परिष्कृत हुई गुणदृष्टि और प्रमोद भावना का भव्य पुरुषार्थ अपेक्षित है।
जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे वैसे ऐसी अनुभूति स्पष्ट-स्पष्टतर रूपसे होने लगी ।
यहाँ पर प्रकाशित दृष्टांत तो अंशमात्र हैं, लेकिन श्री जिनशासन तो ऐसे अनेकानेक आराधक चैतन्य रत्नों की खदान है,
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