________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 425 में रही सुधर्मा सभा के माणवक नामके चैत्य स्तंभ के नीचे-उपर 12 // - 12 // योजन छोड़कर बीच के 35 योजन में रहे वज्रमय गोल और वर्तुलाकार समुद्ग में परमात्मा के निर्वाण बाद के अग्निदाह से प्राप्त प्रभु की अस्थियाँ और दाढाओं में भी ऐसी पारमाणविक शक्ति पैदा होती है कि देवलोक के देव की कामवासना-क्रोध कषायादि भी सिर्फ उसके प्रक्षाल जल से नष्ट हो जाते हैं / वेसै भि एकमात्र ब्रह्मचर्य के जोर पर ही तो कलह प्रेमी नारद भी मुक्ति के सुख की भुक्ति कर सकते हैं न ? अंतिम और पंचम अपरिग्रह व्रत का श्रेष्ठ फल यह होता है कि निकटतम परिग्रह देह का भी अध्यास टूटता है, क्षपकश्रेणी लगती है और जीव केवली बनकर ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है, संसार के विग्रह से पर और कर्मों से विग्रह कर आत्मा मोक्ष सुख की भागी बनती है। __तप-त्याग, तितिक्षा और तत्त्वज्ञान के त्रिवेणी संगम से आत्मा का निस्तार शीघ्र होता है फिर भी .... "कत्थवि तवो न तत्तं, कत्थवि तत्तं न सुद्ध चारित्तं / तव-तत्त-चरण सहिआ, मुणिणो वि हु थोव संसारे''। आशावाद में यह बात अनुमोदनीय है कि तप-तत्त्व और तितिक्षा युक्त मुनिराज आज भी हैं / हीरा अपना मोल अन्य के पास खोल नहीं सकता, पर जौहरी की दृष्टि में ही हीरे का मूल्यांकन हो जाता है / आज भले ही इस क्षेत्र काल में परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात चारित्र नहीं हैं फिर भी उसी को लक्ष्य में रखकर संयम साधना के साधक-आराधक आज भी हैं और अपनी पूरी शक्ति लगाकर गुर्वाज्ञा के बल पर धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ का आदर कर रहे हैं, आचरण भी / पुस्तक में प्रस्तुत उदाहरण पढते ही तपस्वी - त्यागी - वैरागी आत्माओं की पहचान हो जायेगी और जरूर लगेगा कि काल का प्रभाव कितना भी कराल क्यों नहीं हो, इसके कोई भी प्रभाव से ये महात्मा साधु साध्वी प्रभावित नहीं हैं, बल्कि लोगों में आश्चर्य पेदा कर दें वैसी उनकी आराधना - साधना है / __सामान्य नियम यह है कि जो भी आत्मा चरमभवी होती है, उसने पूर्व भवों में संयम धर्म की साधना आराधना द्वारा प्रत्यक्ष - परोक्ष कुहा