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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ में अस्तित्व मात्र से भी मलशुद्धि का कार्य अपने आप हो जाता है, उसी तरह वीतराग परमात्मा में कर्तृत्वभाव (मैं इस भक्तका दुःख दूर करके उसे सुखी बना दूं इत्यादि विचार) नहीं होते हुए भी, उनके विशुद्ध आत्म स्वरूप का प्रभाव ही ऐसा अद्भुत होता है कि जो व्यक्ति भक्तिभाव पूर्वक अपने हृदय मंदिरमें उनकी प्रतिष्ठा करता है उसका राग-द्वेष आदि भावमल स्वयमेव दूर होने लगता है और उसके आत्मिक सद्गुण रूपी धान्य में विषय-कषाय के कीड़े उत्पन्न नहीं हो सकते ।
जिस तरह अग्नि के यथायोग्य रीत से किये गये सेवन से ठंड की पीड़ा दूर होती है, उसी तरह वीतराग परमात्मा की बहुमान पूर्वक पर्युपासना करने से राग आदि दोषों की भयंकर पीड़ा भी अवश्य शांत होती है । भावोल्लास पूर्वक की गयी निष्काम प्रभुभक्तिसे प्रचंड पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन होता है और अशुभ कर्मों की विपुल निर्जरा होने से विज-आपत्ति आदि दूर होने लगते हैं । अनुकूलताएँ संप्राप्त होती हैं । सुखमें अलीनता और दुःखमें अदीनता की प्राप्ति होती है । भक्ति की मस्ती में मस्त बने हुए सच्चे भक्त को सांसारिक सुखों की स्पृहा भी नहीं रहती । वह आत्मतृप्त हो जाता है । इस बात की प्रतीति हमें गिरीशभाई महेता के दृष्टांत से होती है ।
वीतराग, अरिहंत परमात्मा की निष्काम प्रभुभक्ति से वर्तमान जीवन में भी अदभुत चित्त प्रसन्नता, मानसिक शांति, आत्मिक आनंद की अनुभूति, मृत्युमें समाधि, परलोक में भी सद्गति की परंपरा और अल्प भवों में परम मुक्ति की प्राप्ति होती है । तो चलो हम एक ऐसे विशिष्ट प्रभुभक्त आत्मा के जीवन में थोडा दृष्टिपात करें ।
मूलत: सौराष्ट्र में वंथली के निवासी किन्तु वर्षों से मुंबई में कालबादेवी रोड-५४/५६ रामवाडी में रहते हुए गिरीशभाई ताराचंद महेता (हाल उम्र करीब ४२ वर्ष) को आजसे करीब १४ साल पहले पायधुनी में गोडी पार्श्वनाथ जिनालय में अत्यंत भावोल्लास के साथ भक्ति करते हुए देखा तब उनकी प्रभुभक्ति का कार्यक्रम पूरा हुआ तब तक हमको भी वहाँ से हटने का मन नहीं हुआ । करीब ४ घंटे क्षणभरमें पसार हो गये हों वैसा लगा।