________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 521 शशीबहन के धर्मनिष्ठ पिताश्री ने दीक्षा ली थी / वे सुन्दर साधना करते थे / उनका बादमें कर्म संयोग से दिमाग कुछ अस्थिर होने से उनके गुरुदेव ने उन्हे पाटण में स्थिरवास करवाया था / शशीबहन को यह समाचार मिलते ही वे तुरन्त पाटण दौड़ आयी और पिता म.सा. की सुन्दर भक्ति की / उन्हें अंत समय में निर्यामणा भी इन्होंने ही करवाया !... शशीबहन के भाई महाराज पू. आ. श्री मोतिप्रभसूरीश्वरजी म.सा. पाटण पधारे / उन्होंने उपदेश देकर शशीबहन की संयम की भावना जगायी। पूज्यश्री की प्रेरणा अनुसार शशीबहन ने संयम न ले सकें तब तक दूध - दही - घी - तेल - गुड़ और तली हुई वस्तुएँ इन छह विगइयों के त्याग की प्रतिज्ञा ली !!! ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा लेकर घर आये / उन्होंने अपनी भावना से अपने ज्येष्ठ श्री भगुभाई को परिचित करवाया / उन्होंने उदास होते हुए कहा कि, "घर में रहकर दान दो / सार्मिक भक्ति करो / यह सब करने से भी कल्याण होता है / दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं है।" इसलिए न चाहते हुए भी उनको घरमें रहना पड़ा / परंतु इन्होंने नियमानुसार छह विगई का त्याग चालु रखा / आखिर भगुभाई ने उन्हें पाँच वर्ष के बाद दीक्षा की संमति दी / सं 1992 की महा सुदि दूज के दिन 24 वर्ष की उम्र में शशीबहन की दीक्षा का भव्य वरघोड़ा निकला / उन्होंने वरघोड़ेमें 5000 रुपये एवं अंगुठी का दान दिया / शासन सम्राट प.पू.आ.भ. श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी म.सा. के हाथों से दीक्षा हुई / वे उनके समुदाय के सा. श्री प्रभाश्रीजी की शिष्या बने। उनमें गुरु समर्पण भाव के साथ वैयावच्च का गुण अनूठा था / वे मुख्य रूप से मध्यम वर्ग के लोगों के लिए सार्मिक भक्ति का उपदेश देते थे / उनकी प्रशांत मुख मुद्रा, सुमधुर वाणी और गुरु आज्ञा पालन ही जीवनमंत्र था। इन्हें 44 वर्ष के दीर्घ चारित्र पर्याय में विलायती दवा या डोक्टर की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी / ... सं. 2035 की ज्येष्ठ सुदि 13 के दिन अहमदाबाद की पंकज सोसायटी में उन्होंने चातुर्मास हेतु प्रवेश