________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 591 में उत्तम परिवर्तन होता है और अनायास ही स्वनामधन्य पुण्यात्माओं की अनुमोदना किए बिना रहा नहीं जाता / पुण्यश्लोक धर्मात्माओं की आत्मरमणता, स्वभावदशा की अनुभूति, नवकार महामंत्र एवं धर्म के प्रति अनन्य समर्पणभाव इत्यादि का मनन करने से रोमराजि विकस्वर हो जाती है, अंतःकरण, आनंदविभोर हो जाता है और हम भी कब ऐसी उच्च अवस्था को प्राप्त करेंगे ऐसी भावना उत्पन्न हो जाती है। ऐसी अनुभूति का कारण प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में आपश्री ने किया हुआ भगीरथ पुरुषार्थ और अधिक से अधिक जीवों को जिनशासन से भावित -प्रभावित करने की 'बहुजन हिताय बहुजनसुखाय' की भावना ही है / भाषा शैलि भी सरल एवं माधुर्यसभर होने से किताब विशेष रूप से आस्वाद्य हुई है। निश्चित ही यह किताब अनेक आत्माओं को धर्माभिमुख और धर्म में विशेष रूप से स्थिर और समर्पित बनाने में एवं आत्मा को अपनी स्वभावदशा में रमणता कराने के लिए मार्गदर्शक सार्थवाह रूप है। आज जब दुनियामें ईर्ष्या का विष चारों ओर व्याप्त है तब ऐसे काल में भी दूसरे जीवों के गुणों को देखना बोलना और लिखना ये तीनों कार्य अति अति कठिन हैं / उसमें भी अन्य के गुणों की अनुमोदना मुद्रित करवाकर दुनिया के सामने प्रकाशित करने का कार्य तो अतिकठिनतम ही है / आप यह कठिनतम सत्कार्य कर रहे हैं उसकी मैं भूरिशः हार्दिक अनुमोदना करता हूँ। आराधक रत्नों के विशिष्ट बहुमान समारोह की पत्रिका मिली / सचमुच ऐसा विशिष्ट आयोजन शायद पहली बार ही हो रहा है / आपके हाथों से शासनप्रभावना का यह महान कार्य हो रहा है / इस पंचमकाल में भी चौथे आरे जैसी आराधनाओं के दृष्टांत पढकर हृदय हर्षविभोर हो गया है / . इन दृष्टांतों को पढकर जीवन में परिवर्तन हुए बिना नहीं रहता। आपने यह किताब नहीं भेजी होती तो मेरा जीवन निरर्थक ii रह जाता और संसार परिभ्रमण बढ जाता /