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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
१११
निरीक्षक, कॉलेज में प्राध्यापक एवं हाईस्कूल और हायर सेकन्डरी स्कूलों में २८ वर्ष पर्यंत प्रिन्सीपाल के रूपमें, कुल ३५ वर्षों का विशाल शैक्षणिक अनुभवों से समृद्ध श्री जयेन्द्रभाई को इ.स. १९५६-५७ में उस वक्त के सुप्रसिद्ध वक्ता जैन मुनि श्री चित्रभानु का परिचय हुआ और उनके जीवनमें जैन धर्म के संस्कारों का प्रारंभ हुआ तब उनकी उम्र २३ साल की थी ।
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उसके बाद महुड़ी (मधुपुरी) तीर्थ में किसी वयोवृद्ध जैन मुनिराज के सत्संग से कंदमूल एवं सचित्त पानी पीने का त्याग किया और भोजन के बाद थाली धोकर पीने का और भोजन की थाली-कटोरी इत्यादि को स्वयमेव साफ करने का प्रारंभ किया जो आज दिन तक चालु ही है !!!
उसके बाद हस्तगिरितीर्थोद्धारक प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमानतुंगसूरीश्वरजी म.सा. के सत्संग का लाभ पर्युषण आदिमें मिला और जैनत्त्व के संस्कारों में अभिवृद्धि हुई ।
बाद में सुरत में वर्धमान तपोनिधि प. पू. आचार्य भगवंत श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में अठ्ठाई तप के साथ ६४ प्रहर का पौषध एवं चातुर्मास में रविवारीय शिबिरों के माध्यम से सम्यक्: ज्ञान का अच्छा लाभ मिला ।
शंखेश्वर, पाटण एवं उंझा में नवकार महामंत्र समाराधक, पू.पं. श्री अभयसागरजी म.सा. के सत्संग का बहुत सुंदर लाभ मिला । युवाप्रतिबोधक प.पू. आ. भ. श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनिराज श्री रविरत्नविजयजी म.सा. (हाल गणिवर्य) के सत्संग से दो बार उपधान तप कर लिया ।
उपर निर्दिष्ट महात्माओं के सत्संग और प्रेरणा के प्रभाव से जयेन्द्रभाईने अब तक कुल ११ अठ्ठाई, ७ बार ६४ प्रहरी पौषध, वर्धमान आयंबिल तप की पांच ओलियाँ, २ उपधान, पर्वतिथियों में उपवास, आयंबिल, एकाशन, ४६ बार नवपदजी की आयंबिल ओली की आराधना (इ.स. १९७५ से १९९८ तक ), श्री पार्श्वनाथ और श्री महावीर स्वामी भगवान के कल्याणकों में उपवास आदि तपश्चर्या.... श्री सिद्धाचलजी की
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