________________ 454 .. बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 यह काम पूज्यश्री बड़ी आसानी से कर लेते ... . ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि कितनी माथापच्ची ? कितनी मेहनत ? इससे अच्छा होगा कि पूरा बोर्ड साफ कर नया लिखा जाए... समय का कितना अपव्यय ? किन्तु पूज्यश्री इस कार्य में मास्टर थे / कब शब्द उड़ जाते... नये शब्द आ जाते ... और पूरी शब्द रचना व्यवस्थित हो जाती, उसकी खबर भी नहीं पड़ती.. उदाहरण के रूप में पूराने शब्द "विशेष्यता" में से 'ष्य' मिटाकर उसके स्थान पर "षण" लिखने से नया शब्द "विशेषणता" तैयार हो जाता ... ! पूज्यश्री को पूछा “ऐसा क्यों करते हैं ?" गुरूदेव श्री : "प्रथम तो अक्षर लिखना ही अपराध है, और मिटना यह महा अपराध... अपने लिए लिखना ही पड़ता है, तो जितना अपराध कम हो उतना ही अच्छा न !!!" (3) इसीका नाम सम्यग्दर्शन : खंभात से विहार करके अहमदाबाद जाते मातर तीर्थ आया / शाम के विहार में बहुत गर्मी लगी थी / देखते ही देखते जिनालय आ गया। "गुरूदेव ! पहले पानी पी लो, फिर पधारो," शिष्य ने कहा / / _ "महात्मन् / गाँव में आने के बाद जब तक भगवान के दर्शन न किये हों तब तक पानी किस तरह पीया जाये ?" कंठ भले ही जल पीने के लिए तरसे किन्तु अखियाँ जिन दर्शन की प्यासी ! पूज्यश्री जिनालय में पधारे, स्तुति-स्तवन दर्शन में ऐसे खो गये कि प्यास प्यास के स्थान पर सूर्यास्त के समय बाहर उपाश्रय में पधारे, तब जिनालय में चौविहार का पच्चख्खाण करके ही पधारे / पूज्यश्री का यह नित्यक्रम था / गाँव में आने के बाद जिनालय हो तो दर्शन करने के बाद ही पानी पीते / इतनी लगन थी, प्रभुदर्शन की। इसी का दूसरा नाम है सम्यग्दर्शन ! (4) पात्री का पडिलेहण भूल जाने पर चौविहार उपवास !