________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 453 193/ गच्छाधिपति श्री के ত সীমন ক ঠাক চাষ : (1) स्वाध्याय तो संगीत है - एक मुनिवर गाथा कंठस्थ कर रहे थे / उनकी नजर अचानक ही पूज्यपाद गुरुदेव श्री के उपर गयी / पूज्यश्री जाप की तैयारी कर रहे थे / इसीलिए मुनिवर ने अपनी आवाज एकदम धीमी कर दी / स्वाध्याय का घोष अचानक एकदम रूक जाने पर पूज्यश्री ने पूछा / “कैसे गाथा याद करने की बन्द कर दी ?" मुनिवर ने कहा : “साहबजी ! आप जाप में बैठ रहे हो / मेरी आवाज से आपको विक्षेप हो, इसलिए मन में ही याद कर रहा हूँ / " पूज्यश्री : "अरे ! भले भाई ! स्वाध्याय के घोष से मुझे विक्षेप . होता होगा ? साधु की बस्ती में चौबीसों घंटे स्वाध्याय का घोष गूंजना चाहिए / इससे मेरे जाप में एकाग्रता होती है / हाँ, तुम बातचीत करो तो मेरी एकाग्रता टूटती है / " ___ पूज्यपाद श्री का स्वाध्यायप्रेम ओर फिजुल बातचीत के बारे में स्पष्ट अरूचि अनुभव कर सभी मुनि स्वाध्याय के घोष में मग्न बन गये * और गुरुदेवश्री के प्रति अहोभाव से झुक गये / __ (3) अक्षर के प्रति अक्षर प्रेम : गुरूदेव श्री शिविरार्थी विद्यार्थियों को 2-3 प्रवचन देने के बाद शाम को साधुओं को न्याय भूमिका पढाते थे / समझाने हेतु पास में ब्लेकबोर्ड था। गुरुदेव श्री कठिन से कठिन पदार्थों को सरलता से दिमाग में बिठाने हेतु बोर्ड पर लिखकर अध्यापन करवाते थे / तब एक विशेषता देखने को मिली / पुराना लिखा हुआ मिटाकर नया लिखना होता तब पूरा न मिटाते हुए कुछ शब्द या अक्षर ही मिटाकर नये शब्द सेट कर देते।