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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
७९
पर्युषण के बाद वर्धमान आयंबिल तपका प्रारंभ करने के लिए प्रेरणा दी गयी तब कई श्रावक श्राविकाओंने वर्धमान तपका प्रारंभ किया था । उस वक्त पंडितजी को भी सहज भावसे प्रेरणा करने पर उनके हृदयमें भी भावना जाग्रत हो गयी और जीवनमें एक भी आयंबिल या उपवास का अनुभव न होते हुए भी उन्होंने वर्धमान तपका प्रारंभ कर दिया ।
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१ आयंबिल १ उपवास, २ आयंबिल १ उपवास, इस तरह क्रमशः ५ आयंबिल १ उपवास द्वारा कुल २० दिनकी यह कठिन तपश्चर्या उन्होंने वर्धमान परिणामसे परिपूर्ण की । इस तपश्चर्या से उनको शारीरिक और मानसिक ऐसी स्फूर्ति और प्रसन्नता का अनुभव हुआ कि भविष्यमें आयंबिल की ओलियाँ और वर्षीतप करने के मनोरथ भी वे करने लगे । जैन धर्म के प्रति उनका सद्भाव बहुत बढ़ गया । श्री संघने उनका यथोचित बहुमान किया था ।
उन्होंने संस्कृत व्याकरण और न्यायके विषयमें 'आचार्य' की उपाधियाँ प्राप्त की हैं । संस्कृत महाविद्यालयोंमें प्राध्यापक के रूपमें भी कार्य किया है।
पता : पंडित श्री वैद्यनाथजी मिश्र,
मु. पो. तरौनी, वाया नेहरा, जि. दरभंगा (बिहार) पिन : ८४७२३३
जीवदया के खातिर कुल परंपरागत व्यवसायमें परिवर्तन करते हुए गणपतभाई पंचाल
.वि. सं. २०३५ में वर्धमान तपोनिधि प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्य प. पू. आ. भ. श्रीविजय जगच्चंद्रसूरीश्वरजी म.सा. का चातुर्मास उनकी जन्मभूमि करबटिया (जि. महेसाणा ) गाँवमें हुआ था । तब उस गाँवमें फ्लोर मील (अनाज पीसनेकी चक्की) और लोहारका व्यवसाय करनेवाले गणपतभाई पंचाल (उ. व. ५०)