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________________ 567 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 घरों में से जो सहजता से मिलता, उससे ही आयंबिल करते / कई बार केवल . रोटी और पानी या खाखरे एवं पानी से आयंबिल करते !!! . - करीब 22 शिष्या-प्रशिष्याओं के परिवार से शोभते इन साध्वीजी ने निम्नलिखित प्रतिज्ञाएँ आजीवन स्वीकार की हैं। अब शिष्या नहीं बनानी (प्रशिष्या की. छूट, मिठाई, नमकीन, मेवा फूट वापरना नहीं, खादी के ही कपड़े वापरना, दो जोड़ी से अधिक कपड़े नहीं रखने, किसी को पत्र नहि लिखना, वासक्षेप या रक्षापोटली नहीं देना, किसी को सहज दुःख पहुँच जाए ऐसा बोला जाए तो अठ्ठम करना, किसी की थोड़ी भी निंदा सुन लें तो आयंबिल करना ... इत्यादि !!! तप-जप-नियम आदि उत्कृष्ट आराधनामय अप्रमत्त जीवन होने से कई बार सुगंधी वासक्षेप की वृष्टि आदि अनुभव होते हैं, मगर वे इनको बिल्कुल महत्व नहीं देते हैं / उनकी तो बस एक ही लगन है कि, "इस भव में शीघ्र ग्रंथभेद द्वारा शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हो और आगामी भव में महाविदेह क्षेत्र में से केवल-ज्ञान प्राप्तकर मोक्ष में जा सकुं ऐसे आशीर्वाद और हित शिक्षा दो !.." वे नाम के अनुसार अनेक गुणों के भंडार हैं / प्रसिद्धि से एकदम दूर रहना चाहते हैं / फिर भी उनका जीवन सबके लिए आदर्श रूप होने से इतनी लेखिनी चलाने की घृष्टता किये बिना नहीं रह सका ! चौथे आरे के समय जैसा संयम जीवन जीते हुए साध्वीजी भगवंत की आराधना की भूरिशः हार्दिक अनुमोदना / / उनके नाम का पूर्वार्ध अर्थात् धर्म का मूल ऐसा एक महान गुण, और उत्तरार्ध का अर्थ कांति-तेज ऐसा होता है / वह योगनिष्ठ के रूप में सुप्रसिद्ध हो गये एक आचार्य भगवंत के समुदाय के हैं / उनके दर्शन एकबार तो अवश्य करने जैसे हैं /
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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