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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १
ब्राह्मण छोटालालभाई बने मुनिराज श्री कल्पध्वजविजयजी
आजसे करीब ८-९ साल पूर्व साडियों की दुकान में नौकरी करते एवं मुंबई - गुलालवाडी में रहते हुए ( मूलतः आबुरोड ( राजस्थान) के निवासी) ब्राह्मण कुलोत्पन्न छोटालालभाई (उ. व. ५०) को जैन धर्मका परिचय नहीं था। वे अपनी कुल परंपरा के अनुसार शंकर, विष्णु, कृष्ण, हनुमान आदि को इष्टदेव मानकर हररोज उनके मंदिरों में जाते थे तब उनको स्वप्नमें भी कल्पना नहीं थी कि उनको जैन धर्म की प्राप्ति होगी ।
मूलतः थराद (गुजरात) के निवासी विजयकुमार मोदी नामका युवा सुश्रावक (उ. व. १८) जो उस वक्त ओपेरा हाउस की सुप्रसिद्ध पंचरत्न बिल्डिंग में हीरों का व्यवसाय करते थे, उनके परिचय में छोटाचाचा आये और उनकी प्रेरणा से उनको जैन धर्म का स्वरूप समझ में आया | सच्चे देव-गुरु-धर्मका स्वरूप जाना और विजयभाई के मार्गदर्शन के अनुसार देवाधिदेव श्री अरिहंत परमात्मा की पूजा करने लगे । जैन धार्मिक सूत्रों का अभ्यास किया ।
विजयकुमार की भावना संयमी मुनि बनने की थी । उनके साथ परिचय होने से छोटुंचाचा को भी संयम का रंग लग गया और एक दिन दोलतनगर - बोरीवली जैन संघमें उनकी दीक्षा अत्यंत उल्लासमय वातावरण में संपन्न हुई । वे मुनि श्री भुवनहर्षविजयजी के शिष्य मुनि कल्पध्वजविजयजी के रूपमें घोषित हुए । दीक्षा लेने के बाद कर्मक्षय के लिए चौविहार अठ्ठाई तप, मासक्षमण तप आदि अनेकविध दीर्घ तपश्चर्याएँ करते हुए वे अनुमोदनीय संयम का पालन कर रहे हैं ।
उनके बाद विजयभाई ने भी दीक्षा अंगीकार की और वे शासन प्रभावक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य मुनि प्रशान्तरत्नविजयजी (अपने भाई महाराज) के शिष्य मुनि दर्शनरत्नविजयजी बने । आजसे ८ साल पूर्व २० वर्ष की उम्र में सुरत