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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ वर्धमान आयबिल तप की लगातार |१०३ ओली के बेजोड़ भाराधक, महातपस्वी
श्री रतिलालभाई खोडीदास शिष्य पूछता है - 'जितं हि केन ?' अर्थात् इस जगत्में -जीवन संग्राममें सचमुच कौन विजय प्राप्त कर सकता है ? तब प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं कि - 'रसो वै येन' अर्थात् जिसने रस = रसनेन्द्रिय के उपर विजय प्राप्त किया उसने ही जीवन संग्राम में विजय प्राप्त किया ।
___ शास्त्रमें कहा है कि, 'अक्खाण रसणी' अर्थात् पाँच इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय को जीतना सबसे अधिक दुष्कर है । जो रसनेन्द्रिय को जीत सकता है वह बाकी की इन्द्रियों को एवं मन को भी जीत सकता है और वही साधक आत्मविजेता बनकर जगत विजेता -जगत्पूज्य बन सकता है।
रसनेन्द्रिय के उपर विजय पाने के लिए आयंबिल तप यह जिनशासन की जगत् को अनुपम देन है।
आयंबिल में दूध-दही-घी-तेल-गुड़ और कढा विगई इन छह विगइयों से (विकारोत्पादक द्रव्यों से) सर्वथा रहित निर्विकारी सात्त्विक
आहार से केवल १ टंक भोजन करने का होने से इन्द्रियाँ एवं मन निर्विकारी बनते हैं । चित्त सात्विक और प्रसन्न बनता है । ब्रह्मचर्य का पालन शुलभ होता है । शरीर नीरोगी एवं हल्का हो जाता है । फूर्ति में . अभिवृद्धि होती है एवं मन शांत होकर जप-ध्यानमें आसानी से लीन हो सकता है।
उपवास से भी उपरोक्त लाभ मिल सकते हैं किन्तु उपवास मर्यादित प्रमाणमें हो सकते हैं और आयंबिल तो महिनों तक या वर्षों तक भी लगातार हो सकते हैं ।
होटेल, रेस्टोरन्ट, खाने-पीने की लारियाँ एवं फास्ट फुड के इस जमानेमें भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय आदिका विवेक भूलकर मनुष्य जीने के लिए खाने के बजाय मानो खाने के लिए जीता हो ऐसा लगता है । फलतः कई नये नये असाध्य रोगोंने मानव शरीरमें प्रवेश किया है तब