________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 ___511 वह अपने परिवारजनों को बताये बिना वढवाण गयी। वहीं पू. खांतिविजयजी दादा किन्तु वहाँ भी सांकलीबहन के अन्तरायकर्म ने संघर्ष किया / पू. खांतिविजयजी दादा ने शरीरादि के कारण से दीक्षा प्रदान किये बिना विहार किया। वढवाण से सांकलीबहन लीबड़ी आये / वहाँ पू. लब्धिविजयजी म. तथा पू. झवेर सागरजी म. को वंदन किया / इन महापुरुषों का त्याग भाव देखकर उनकी अंतरात्मा से पूकार उठी - "कार्य साधयामि वा देहं पातयामि !..." आखिर उन्होंने चूड़ा गाँव में जाकर वहाँ की धर्मशाला में स्वयं संयम वेष को अंगीकार किया / उसके बाद सा. श्री वीजकोरश्रीजी आदि राणपुर में विराजमान थे, वहाँ गये / परन्तु साध्वीजी ने कुटुंबीजनों की संमति बिना वेष पहना होने के कारण वापस चूड़ा भेजा। वे वहाँ श्रावक-श्राविकाओं की सहायता से 10 दिन अकेली रहीं। कैसा अंतराय कर्म का उदय ! दो - दो बार हिम्मत कर स्वयं वेष पहना, फिर भी प्रव्रज्या का पंथ सुलभ नहीं बना !... . उन्होंने फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपने परिवार जनों को चूड़ा से पत्र भेजा / यह पत्र पढकर आखिर माता-पिता के हृदय में पुत्री के संयम में बाधक न बनने की भावना जाग्रत हुई / माता-पिता ने अनुमति पत्र लिखकर भेजा / माता-पिता का पत्र पढकर उनके आनंद का पार नहीं रहा / उन्होंने वह पत्र हर्ष विभोर बनकर सा. श्री वीजकोरश्रीजी को पढ़ाया। अब साध्वीजी दीक्षा देने हेतु तैयार हुए / इनकी दीक्षा सायला में पू. खांतिविजयजी के वरद हस्तों से सं 1946 की वैशाख सुदि 2 को सम्पन्न हुई और वे सा. श्री वीरकोरश्रीजी की शिष्या के रूप में घोषित हुए / उन्होंने दिक्षा के बाद 50 वर्ष तक सुंदर संयम का पालन किया। उनका पालिताना में वि.सं 1996 में मिगसर सुदि 9 के दिन समाधिपूर्वक कालधर्म हुआ / आज उनके परिवारमें करीब 300 साध्वीश्री सुंदर रूप से संयम की आराधना कर रही हैं। उन्होंने दीक्षा के बाद सम्मेतशिखरजी, बनारस, कलकत्ता आदि की यात्रा की थी / शिखरजी, ग्वालियर तथा बालुचर आदिमें चातुर्मास किये थे / बालुचर की राजकुमारी जो हमेशा 50 पान के बीड़े खाती थी उसे प्रतिबोध देकर बीसथानक तप में जोड़ी तथा