________________ 510 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 गंभीरविजयजी म. के बोटाद गाँव में पधारने से उनके उपदेश से सांकली बहन का वैराग्य भाव दृढ बना / वह धार्मिक अभ्यास में आगे बढने लगी। उसके बाद परम त्यागी पंजाबी साधु पू. लव्धिविजयजी म. का बोटाद में चातुर्मास होने पर उनके व्याख्यान श्रवण से सांकलीबहन की वैराग्य की ज्योत प्रज्वल्लित हुई / वे संयम स्वीकारने के लिए किसी साध्वीजी के समागम की राह देख रही थी / उतने में वहाँ डहेला के उपाश्रय में सा. श्री जेठी श्रीजी आदि ठाणा 3 का पदार्पण हुआ / सांकली बहनने अपने दीक्षा के भाव उनके आगे प्रदर्शित किये, किन्तु स्वयं को विचार आया कि मोहवश माता-पिता दीक्षा की अनुमति नहीं देंगे / इसलिए वे पालिताना आये। उन्होंने छह कोस की प्रदक्षिणा करके सिद्धवड़ के नीचे ऋषभदेव भगवान के चरण पादुका के दर्शन कर अपने हाथों से सिद्ध वड़ की शीतल छाया में चारित्र वेष अंगीकार किया ! उसके बाद घेटी गाँव में जहाँ सा. श्री जेठीश्रीजी आदि विराजमान थे, वहाँ आये / उनके साथ विहार कर जूनागढ गये / माता-पिता को पालिताना से पुत्री के न लौटने से चिंता होने लगी / उन्होंने पालिताना में पूछताछ की तो समाचार मिला कि, सांकलीबहनने अपने हाथों से साध्वीजी का वेष अंगीकर किया और जूनागढ गये हैं / उनका भाई जूनागढ गया और मोह के वश में होकर हठ करके वापस बोटाद ले आया। और पुनः दो वर्ष गृहवास में रहना पड़ा / यह सब होने के बावजूद भी उनकी वैराग्य ज्योत मंद नहीं हुई। एक बार उनको समाचार मिले कि सा. श्री वीजकोरश्रीजी आदि वळा गाँव में पधारे हैं, इसलिए तुरन्त वहाँ विनंती की कि, "आप बोटाद पधारो / मुझे आपके पास दीक्षा लेनी है, इसलिए मुझे अपने माता-पिता के पास से अनुमति दिलाओ / " परमार्थ रसिक सा. श्री वीजकोरश्रीजी बोटाद पधारे / परन्तु उन्होंने उस समय सांकलीबहन की छोटी बहिन की शादी की धमाल देखकर माता-पिता से दीक्षा की बात नहीं की जानी चाहिए ऐसा सोचकर कुछ दिन स्थिरता करने के बाद बोटाद से विहार किया / अब सांकलीबहन को संयम रहित एक-एक दिन वर्ष जैसा लगने लगा।