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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
३७५
तब हजारों युवक स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुए थे । शत्रुंजय के उपर रहे हुए १३ हजार जिनबिम्बों के चक्षु बदलने का महान कार्य दो दिनोंमें कुल १८ घंटे तक चला। सैंकड़ों युवक इस कार्य के लिए दिनमें ८१० घंटे तक महातीर्थ के उपर रहे थे । तीर्थाधिराज की आशातना को टालने के लिए वे लघुशंका बर्तन में करते थे और बाल्टी में इकठ्ठा करते थे । ८ बाल्टी जितना पिशाब उन्होंने स्वयं गिरिराज से नीचे उतार कर योग्य भूमि में विसर्जन किया मगर गिरिराज पर एक बुंद भी गिरने नहीं दिया । कैसी पापभीरुता ! कैसा उद्भुत तीर्थप्रेम !
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(८) मुंबई में रहते एक सुश्रावक हररोज जिनालय में प्रभुप्रक्षाल, प्रथम पूजा, आरती, मंगल दीपक आदि बोलियों में से कोई भी बोली का आदेश लेते हैं । मगर प्रक्षाल आदिका लाभ लेने से पहले अपनी बेटी को आवाज देकर ७वीं मंजिल से बुला लेते हैं और उसके द्वारा बोली की राशि मंगाकर श्री संघ की पेढी में अर्पण करने के बाद ही बोली के अनुसार प्रभुभक्ति का लाभ लेते हैं !!!
(९) करीब ६ से ७ हजार युवक और युवतीओं ने एवं प्रौढोंने भी मेरे पास भवालोचना की है । जिनमें से कई युवकों ने तो गर्भ में रहकर ९ महिने तक अपनी माँ को दुःख देने की भी आलोचना की है !!!
(१०) एक भाईने धर्मपत्नी की प्रेरणा से स्वद्रव्य से जिनालय का निर्माण किया है । जिसमें करीब ३० लाख रूपयों का सद्व्यय हो चुका हैं । अभी काम चालु है । जिनालय के भंडार की आय वे बाहर देते हैं मगर अपने इस जिनालय में उसका उपयोग नहीं करते !
(११) एक श्राविकाने अपने बेटे को सिनेमा देखने का निषेध किया था । एक दिन माँ की अनुपस्थिति में बेटे ने मित्रों के अति आग्रह से सिनेमा देख लिया । दूसरे दिन माँ को इस बात का पता चलने पर बेटे को उपालंभ देने की बजाय स्वयं प्रायश्चित के रूप में अठ्ठम तप का प्रारंभ कर दिया । बेटे ने क्षमायाचना की और आजीवन सिनेमा त्याग कर दिया !!!