________________ ___531 बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - 3 दर्शनार्थियों को दूसरे भी विशिष्ट अनुभव होते हैं। इनके नाम के 3 अक्षर के पूर्वार्ध का अर्थ "मोह प्रदान करनेवाला" ऐसा होता है / विशिष्ट तप-जप द्वारा देवों के मन को भी आकर्षित करने से उनके नाम का पूर्वार्ध यथार्थ ही है / उसी प्रकार उनके नाम का उत्तरार्ध एक ऐसी पवित्रवस्तु का सूचन करता है, जो प्रायः उनके हाथ में अक्सर दिखाई देती है / महासतियों की तप-जप आदि साधना की हार्दिक अनुमोदना / 272 11 अंगसूत्र कंठस्थ करनेवाले साध्वीजी संसार से विरक्त बनी हुई अपनी मातृश्री के सुसंस्कारों से राजीमती ने बाल्यवय में ही वर्धमान तप की नींव डाली और उसके बाद केवल 14 वर्ष की उम्र में वि. सं. 2006 में कविकुलकिरीट आचार्य भगवंत श्री के समुदाय में अपनी छोटी बहिन वसु के साथ दीक्षा अंगीकार की। उनकी वाल्यावस्था में ही अभ्यास की लगन थी और प्रतिदिन 100 गाथा कंठस्थ कर सके वैसी तीव्र यादशक्ति थी ! - बड़ी दीक्षा के योगोद्वहन के समय जिस दिन जिस अध्ययन की अनुज्ञा मिलती उस दिन वह पूरा अध्ययन कंठस्थ कर लेती, इतना ही नहीं परन्तु नियमित स्वाध्याय के कारण पूर्व में याद किया हुआ हमेशा मुखपाठ होता है। इन्होंने देखते ही देखते 4 प्रकरण 3 भाष्य, 6 कर्मग्रन्थ क्षेत्रसमास, बृहत्संग्रहणी, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्र, ज्ञानसार. तत्त्वार्थ सूत्र, वीतराग स्तोत्र, अभिधान चिंतामणि कोश वगैरह नवकार की तरह कंठस्थ कर लिये / संस्कृत और प्राकृत भाषा में तो इनके जैसी विदुषी साध्वीजी श्रमणी संघ में खोजने पर भी शायद ही मिलेंगे /